कहानी समकालीनः मकड़ीः शैल अग्रवाल

मकड़ी

“जग देखत मुख चँद्र को, मैं देखूँ मुख तोय/ तू ही मेरा चँद्रमा मुख देखे सुख होय।”
ये कवि भी कितने पागल होते हैं– आखिर चँद्रमा में ही ऐसा क्या है?
सुरभी ही क्या अब तो सभी गढ्ढे और पत्थरों से भरे चाँद के उस रहस्य को जान चुके हैं—फिर क्यों ये पँक्तियाँ सुरभी के मष्तिष्क में गूँज रही हैं ? मुख तक तो ठीक है–अच्छा लगता है सुन्दर और प्यारे चेहरों को, अपनों के चेहरों को देखना–जैसे मा, पापा, कीर्ति वगैरह के– पर आकाश में लटके चँदा को देखकर सुख पाने वाली बात सुरभी की समझ में बिल्कुल ही नहीं आ रही थी। शायद अभी तक वह बचपन के उसी मोड़पर थी, जब मन चँदा से खेलना तो चाहता है पर दूर से ही। उन परछाँईयों को देखकर ही बस खुश हो लेता है। न उनके पास जाता है, न ही कभी पकड़ने की कोशिश करता है और गाहे-बगाहे अगर कहीं चँदा खुद-बखुद मन की खिड़की से उतरकर बगल में आ बैठे तो उसकी रौशनी से, गढ्ढों में डूबने के डर से, आँखें बन्द कर लेता है। करवट बदलकर सो जाता है– कोई कमजोर, डरी-सहमी, काल्पनिक तानों-बानों से बुनी चादर मुँह पर डालकर।
सुरभी अक्सर सोचती क्यों ये साथ-साथ खेलती परछाइयाँ कभी गुम नहीं हो पातीं– चाहे इनसे कितने भी दूर क्यों न भागो ? कितना भी पीछे अकेला भटकता हुआ क्यों न छोड़ आओ? क्यों एक मजबूर प्रेत-सी यह बस हमारे आगे-पीछे ही घूमती रहती हैं ?
वैसे भी तो कितना तेज, झूठा और बेइमान है यह मजबूर शब्द भी। शेर और चीते का शिकार करने वाले तक पकड़ नहीं पाते होंगे इसे, क्योंकि अपने असली रूप में तो शायद ही कभी, यह किसीके सामने आता है– जादूगर सा तिलिस्मी और चालाक– अपने लम्बे काले कोट की अनगिनित परतों में सबकुझ ढके और झुपाए हुए? मिनटों पहले अच्छा-खासा दिखता आदमी भी बिल्कुल ही मजबूर नजर आने लगता है इसकी मजबूत छत्र-छाया में। पर क्या इस रँग-बिरँगी दुनिया में हर आदमी बस मजबूर ही नहीं-? ‘ वैसे तो मैं तुम्हारे लिए कुछ भी करता पर क्या करूँ मजबूर हूँ। ‘–एक जादूई मँत्र की तरह दिनमें दस बार हमारे कानों से, होठों से टकराते हैं ये वाक्य। कभी-कभी तो हम इनकी सच्चाई पर विश्वास भी कर लेते हैं। पर ज्यादातर एक मजबूर सी मुस्कान के साथ सुनने वाला सब समझता-जानता, चुपचाप आँख नीचे किए आगे बढ़ जाता है। ना–ना–कोई जरूरी नहीं, यह मजबूरी हमेशा झूठी ही हो– अक्सर यह किसी और सच, किसी और पहलू से भी जुड़ी हो सकती है– कई और विकल्प लिए हुए। यूँ तो बच्चा-बच्चा इस मँत्र के जादू को जानता है पर उनका क्या हो जो कुछ जानना ही नहीं चाहते, सीखना ही नहीं चाहते–इस बाहर की दुनिया में रहकर भी रहना ही नहीं चाहते !
सुरभी भी एक ऐसी ही लड़की थी। किताबों की दुनिया में रहने वाली। कहानी और किस्सों की दुनिया में, अपने अन्दर के रँगों में डूबी सुरभी। पर क्या कहानी एक ऐसा इँद्र-धनुष नहीं जो सच्चाई के आकाश में तो कभी निकलता ही नहीं। बस बन्द आँखों के सँग ही देखने वाला हर रँग और उष्मा को महसूस कर लेता है—उस सतरँगी आभा में नहा लेता है। ऐसी काल्पनिक दुनिया में रहने वालों को हम शायद बच्चा ही  तो कहेंगे , क्योंकि यथार्थ की दुनिया से, इस धरती से तो, इनका–सुरभि जैसों का, कोई रिश्ता होता ही नहीं। वह तो चलती भी अक्सर बन्द आँखों के सँग ही थी।
उसका हर दिन, हर रात बस इसी इँद्र-धनुषी छाँव में ही तो गुजरता था। किताबों की एक उँची दीवार खड़ी कर रखी थी उसने अपने इर्द-गिर्द और आगे-पीछे। पुराने दोस्तों-सी ये हरदम उसे घेरे रहतीं। नित नए रूप में आतीं, जी बहलातीं और चली जातीं, फिर एक नये रूप में आने का वादा करते हुए। पर यह किताब तो अब उसके ज़हन से ही नहीं जा रही थी -पीछा ही नहीं छोड़ रही थी।—
सुरभी परेशान थी– क्या यह सच है–क्या ऐसा भी हो सकता है ? आखिर कैसे कोई भी किसी को इतना प्यार कर सकता है कि उसका हर सुख-दुख जान ले, महसूस कर ले–सैकड़ों मील दूर बैठकर भी उसके मन की हर पुकार सुनले? क्या उसे भी ऐसे ही कभी कोई दीवानगी की हदतक चाह सकता है– क्या उसका भी एक देवदास हो सकता है? और उस दिन से सुरभी की अबोध-आतुर आँखें ढूँढने लगीं, एक नये देवदास को, जो बस उसका हो, किताब के देवदास की तरह हर ऐरे-गैरे के हाथों में नहीं।
शायद परिमल ठीक रहे। उसकी सुनता भी है और उसे पसँद भी करता है पर उसमें वह देवदास जैसी लगन और तीव्रता नहीं। बात-बात पर मुस्कुराता है। वैसे भी यह अमीरों के बच्चे कभी देवदास बन ही नहीं सकते–पर– पर देवदास भी तो जमींदार का ही बेटा था–जरूर ही किसी बिगड़े जमीदार का रहा होगा– जिसका पैसा-वैसा सब खतम हो चुका होगा—रियासत बगैरह सब बिक-खप गई होगी– बिल्कुल उसी कहावत की तरह कि खँडहर बता रहे हैं कि इमारत कभी बुलँद थी। अपनी सयानी सोच पर सुरभि खुद ही मुस्कुरा पड़ी, पर खन्ना एँड सन्स तो आज भी शहर की सबसे विख्यात जेवरात की दुकान है। उनकी कोठी पूरे शहर में सबसे अलग और शानदार है। परिमल खन्ना की तो अभी आने वाली दो-तीन पीढियों को अच्छी तरह से सम्भाल ले जाए, शायद इतना पैसा तो आज भी है ही उनके पास। नहीं श्रीकाँत ही ठीक रहेगा। श्रीकाँत त्रिपाठी– नाम भी पूरा पुराने जमाने का है। यहाँतक कि उसके तो चश्मे, बाल, कपड़े, सबकुछ ही एक पुरानेपन का, बुजुर्गियत का एहसास दिलाते हैं– बिल्कुल शरदचन्द के देवदास की तरह ही। हाँ, श्रीकाँत ही ठीक रहेगा और उस दिन से सुरभि ने श्रीकाँत को ध्यान से देखना, पढ़ना और तौलना शुरु कर दिया।
‘तुम यह किताब पढ़ो सुरभी। बहुत अच्छी लिखी है टैगोर ने’।’  लाइब्रोरी में उसे किताब पकड़ाते हुए वह बोला था और अचानक ही सुरभी को हँसी आगई थी–रहता भी अभी उसी युग में है वरना आज क्रिस्टीना रौजेटी और टेड ह्रूज के युग में कौन शरद और टैगोर की बातें करता है?
श्रीकाँत सुरभी की आँखों की इस नयी नटखट चमक से बेचैन था। यह गँभीर, सुलझी सुरभी की आँखें आज तितलियों का रँग लिए नटखट जुगनुओं सी क्यों चमक रही हैं ? यह रँग–यह चमक– क्या हो गया है इसे आज। ” अच्छा तो मैं चलता हूँ–” हाथ जोड़े खड़ा श्रीकाँत हाथ में पकड़ी किताब देना भूलकर तेज कदमों से मुड़ा और पलभर में ही दूर चला गया, मानो सुरभि लड़की नहीं नदी में आती बाढ़ हो जो अपने साथ छह फुटे श्रीकाँत को किसी गिरे हुए पेड़-सा जड़ से उखाड़कर ही बहा ले जाएगी।
पर नियति तो शायद सुरभी का ही साथ दे रही थी। अगले दिन ही दादाजी ने श्रीकाँत से कहा कि जाओ सक्सेना जी के यहाँ से बबूल और नीमकी दातूनें तोड़ लाओ। तुम्हें तो पता ही है मैं रात को बस उन्ही से दाँत साफ करता हूँ। और श्रीकाँत दादाजी की बात भला कैसे टालता ? न चाहते हुए भी चुपचाप पड़ौसियों के बगीचे में जा पहुँचा।
सुबह-सुबह उस सँकोची और बौखलाए श्रीकाँत को देखकर सुरभी को नई शरारत सूझी। श्रीकाँत को छेड़ने के इरादे से वह उठी और चुपचाप उन टहनियों के गठ्ठर पर ‘तुम्हारी किताब वाकई में बहुत अच्छी थी। इतनी अच्छी किताब के लिए धन्यवाद।’ लिखकर रख आई –वह भी पास में खिले एक लाल गुलाब के साथ। असल में सुरभि को हर काम सुन्दरता और सुरुचि से करना ही पसँद था। अपनी धुन में वह यह भी भूल गई कि अभी-अभी पिछले सप्ताह ही उसने श्रीकाँत को एक किताब पढने के लिए दी थी—जिसका नाम था ‘ फूल क्या कहते हैं-‘- और जिसमें लिखा था कि नन्ही पैन्जियों का अर्थ है कि तुम मेरा अतीत हो। नीले छोटे-छोटे फौरगेट मी नॉट अपने नाम की तरह याद दिलाते हैं कि मुझे भूलना मत और लाल गुलाब ज्वलँत प्रेम की घोषणा करते हैं। पर चलो जाने भी दो इन बुद्धि की दलीलों को –वैसे भी कौन सा वह लैला-मजनूँ वाला रोमाँस करने जा रही है श्रीकाँत से। छि:-छि:– ऐसा तो वह सोच भी नहीं सकती। उसे तो बस यह पता करना है कि क्या आज की दुनिया में भी देवदास रहते हैं, या नही? वह तो बस एक प्रयोग मात्र करना चाहती है–जानना चाहती है—किताबों में पढ़े को सच की दुनिया में परखना चाहती है—बस— और कुछ नही?
श्रीकाँत जब लौटा तो धूप सर पर चढ़ चुकी थी। पता नहीं धूप से या उस शोख लाल-गुलाब की चटक से श्रीकाँत का सर घूमा और वह वहीं धम् से थककर जमीन पर बैठ गया। हिम्मत नहीं हुई कि बोझ उठाए, पर उठाना तो था ही। जाने क्यों मन डर रहा था। वह पहले भी सक्सेनाजी के यहाँ से दादाजी के लिए दातूनें ले गया है, पर अब नहीं ले जा पाएगा। आज सब कुछ बदल गया था। एक बहुत ही साधारण सी दिनचर्या अचानक उसके लिए बहुत बड़ी समस्या बन गई थी– बिल्कुल इस लाल गुलाब की तरह–सुरभी की तरह।
क्या समझती है अपने आपको यह–नादान छोटी सी बच्ची ? कलतक फ्रॉक में घूमती थी और आज अचानक इतनी बड़ी होगई कि उसे लाल गुलाब दे रही है– क्या जरूरत थी यह सब करने की ? बगल में सफेद और गुलाबी भी तो खिले हुए थे– गेंदे के फूल भी तो थे– कुछ भी रख सकती थी– कुछ भी दे सकती थी ? किताब ही तो देना भूल गया था ना ? सोच ही रहा था कि आज शाम को दे दूँगा पर अब नहीं दे पाउँगा। वैसे देने में तो कोई बुराई भी नहीं– गीतँजली एक साफ-सुथरी और अच्छी किताब है। इसमें तो कोई ऐसी-वैसी कविता तक नहीं। यह कोई प्रसाद की कविताएँ या बिहारी और विद्यापति के दोहे तो नहीं– प्रेम और विरह के रस में डूबे, श्रँगार से ओत-प्रोत। पर कल ही तो उसने सुरभी को आँसू पढ़ते देखा था। खुद ही कीर्ति से माँगकर ले गई थी। कीर्ति, श्रीकाँत की छोटी बहन और सुरभी की खास सहेली। कितना खतरनाक होता है यह छोटी बहन का होना भी– इसी रिश्ते से तो सुरभी भी श्रीकाँत की किताबों पर अपना पूरा अधिकार जताती आई है।
अचानक श्रीकाँत को पसीना आने लगा। याद आया कि उसने तो अपनी पसँद की कुछ पँक्तियाँ पेन से अँकित भी कर रखी हैं—‘शशि मुख पर अँचल डाले, आंचल में दीप छुपाए, जीवन की गोधूलि में, कौतुहल से तुम आए।’ कौन आया–कहाँ से आया– क्या जरूरत थी यह सब करने की,– ज्यादा विद्वत्व दिखाने की–रस में डूब जाने की ? पता नहीं यह सरफिरी सुरभी जाने और क्या-क्या सोचे ? श्रीकाँत उठा और सुरभि से आँखें चुराता, उस उपद्रवी गुलाब को जेब में छुपाए-छुपाए अपने घर लौट आया।
उस दिन उसने रात में भी कुछ नहीं खाया-पिया। माँ ने कई-कई बार पूछा, क्या बदन और सर में दर्द है और वे पूरी-की-पूरी नीम की पत्तियाँ उसके फ्लू के लिए काढ़ा बनाने के ही काम आर्इं। श्रीकाँत सबकुछ पी गया। एक दिन, दो दिन– क्या पूरा हफ्ता निकल गया ऐसे ही। किसीने उसे नहीं देखा। सुरभी ने भी नहीं। श्रीकाँत सिवाय नीम के काढ़े के, कुछ भी नहीं ले पा रहा था और उस जेब में रखे लाल गुलाब की महक उसकी आत्मा तक में उतरती जा रही थी। मा कमरे में रोज धूपबत्ती जलातीं, गँगाजल से धोतीं, पर मानो कमरे में तो कोई और था ही नहीं। बस एक वही महक रच-बस गई थी। श्रीकाँत फेंक भी तो नहीं पा रहा था उस जिद्दी, अक्खड़ लाल गुलाब को। इसके पहले कि मा कमरे में आएँ, कोई ऐसा-वैसा शक करें– श्रीकाँत ने उठकर गुलाब पास पड़ी गीताँजली में छुपा दिया।
अगले दिन जब सुरभी कीर्ति से मिलने आई तो श्रीकाँत ने मौका पाकर उसे घेर लिया। बीमार श्रीकाँत बहुत कमजोर और परेशान लगरहा था। बढ़ी दाढ़ी, उदास काली आँखों के नीचे न सोने की वजह से पड़े काले गढ्ढे जो चश्मे के नीचेसे और भी ज्यादा चमक रहे थे–वह वाकई में बीमार था।
‘ यह क्या शकल बना रक्खी है तुमने श्रीकाँत—क्या हुआ है तुम्हें ? कॉलेज भी नहीं आए हफ्ते भर से तुम-?’ बिना रुके, सुरभी उससे पूछे जा रही थी।
‘ क्या तुम भी मेरा इन्तजार कर रहीं थीं, सुरभी-?’ बुखार में तपता श्रीकाँत आज सबकुछ जान लेना चाहता था।
‘ क्या तुम भी मेरे साथ आजीवन रहना चाहती हो-?’ बोलो सुरभी—क्या तुम भी यही नहीं चाहतीं कि हमें कभी एक-दूसरे का  इन्तजार न करना पड़े ?’
श्रीकाँत की सँतप्त आँखों के सवालों की झुलस से सुरभि के सब इरादे उसी पल राख हो गए। उस समय तो बस ‘नहीं’ ही कह पाई वह। फर्श में गड़ी उसकी आँखों ने श्रीकाँत के आँखों से गिरे उन मोतियों को देख लिया था पर उसकी तरफ देखने या तस्सली देने की, उन्हें समेटने का, अब साहस नहीं था उसके पास। और गलत-फहमी बढ़ाने से क्या फायदा ? उन चन्द बूदों का बोझ मन पर लिए चुपचाप वह अपने घर लौट आई।
अगले दिन सुरभी श्रीकाँत को ‘आँसू’ लौटा गई। उसने तप्त श्रीकाँत से, उसके इरादों से दूर रहना ही अधिक उचित समझा। वैसे भी पराई आग में झुलसने का, जलने का, उसका कोई इरादा कभी था ही नहीं।
श्रीकाँत,
नहीं जानती इसके अलावा, अब मैं तुमसे कभी और कुछ कह भी पाँउँगी या नहीं-? तुम्हें यूँ परेशान या दुखी करने का मेरा कभी कोई इरादा नहीं था। यह जीवन, यह शरीर जो मा-बाप का दिया हुआ है– इसपर तो मेरा कोई अधिकार है ही नहीं– हाँ, इस परिवार में जन्म लेने के कुछ उत्तरदायित्व जरूर हैं मेरे ऊपर। और फिर हर लड़की सीता की तरह साहसी नहीं होती। लक्ष्मण-रेखा पार नहीं कर सकती। मागने वाले की तरह देने वाले की भी अपनी मर्यादा और मजबूरियाँ होती हैं। यदि तुम चाहो तो यह आत्मा आज और अभी मैं तुम्हें सौंपती हूँ। तुम ही सोचो श्रीकाँत, कैसे चपरासी दीनदयाल, कमिश्नर सक्सेना का समधी बन सकता है। उम्मीद है मेरी मजबूरी समझोगे तुम और मुझे माफ कर दोगे।
पुनश्च: तुम यदि चाहो तो हम जैसे दोस्त थे, अब भी वैसे ही दोस्त रह सकते हैं।
श्रीकाँत बार-बार पत्रको पढ़ता गया। हर शब्द जलते अँगार सा था। क्या करँगा मैं इस अदृश्य आत्मा को लेकर सुरभी ? क्या यह मेरे सुख-दुख, दिन-रात, यह साँस लेता जीवन बाँट पाएगी ? क्यों सुरभी, क्यों– ऐसी क्या कमी है मुझमें—मेरे परिवार में ? माना रिश्ते जरूरतों से पैदा होते हैं, पर मत बाँधो इस असीम को इन आज और अभी के निर्णय में। क्योंकि कुछ रिश्ते शाश्वत होते हैं, उनसे टूटा या भागा नहीं जा सकता। तुम यदि चाहो तो मैं भी तुम्हारे पापा की तरह आई.ए.एस ऑफिसर बनकर दिखा सकता हूँ। गोश्त खा सकता हूँ। तुम्हारे सारे तौर-तरीके सीख लूँगा। तुमसा ही बन जाउँगा सुरभी। तुम बस कहकर तो देखो। कुछ भी कर सकता हूँ मैं तुम्हारे लिए। अगर बस मेरे एक गरीब ब्राहृण होने पर ही तुम्हे ऐतराज है– तो मैं खूब पैसा भी कमा सकता हूँ। और यदि तुम इन्तजार करो तो अगले जन्म में कायस्थ तक बनकर आ सकता हूँ मैं तो–बस मुझे यूँ अकेले मत छोड़ना।
शरद के देवदास की तो पता नहीं, पर श्रीकाँत के आँसू रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। उसे पता था कि उसकी कश्ती किनारे पर ही डूब चुकी है और उसे तैरना नहीं आता– इतना भी नहीं कि इस उथले पानी से निकलकर खड़ा तक हो पाए। पर सुरभी ने तो बस वही किया था जो हर शरीफ और समझदार लड़की आमतौर से करती रही है।
पापा के कहने पर चुपचाप परिमल खन्ना के रिश्ते को स्वीकार कर लिया था सुरभी ने। घर पैसा, इज्जत सबकुछ है आज उसके पास। सुरभी, कमिश्नर सक्सेना की बेटी, एक घर-घर सीधे के लिए कथा पढ़ने वाले दादा के घर उनकी पौत्र-वधु बनकर तो नहीं बैठ सकती थी–वह भी सिर्फ इसलिए क्योंकि उनका पोता श्रीकाँत यही चाहता था। मन की सारी कसक को वह घूँट-घूँट पी गई। माना श्रीकाँत अच्छा ही नहीं, बहुत अच्छा है—पर समाज के भी तो कुछ अपने नियम होते हैं। जोड़-तोड़ होते हैं। रिश्ते-नातों का मेल-मिलाप है। यह देवदास वगैरह बस किताबों में ही अच्छे लगते हैं। और सुरभी ने बड़ी समझदारी के साथ अपनी जिम्मेदारी ओढ़ ली। बस आज यही सच है कि परिमल उसका पति है और एक अच्छा पति है। पराग जैसा उसका बेटा है और महक सी एक प्यारी बेटी है।
पर, सुरभी का आकाश इतना रीता क्यों है— क्यों अब वहाँ कोई इन्द्र-धनुष नहीं निकलता। सुरभी कैसे भूल गई कि इँद्र-धनुष के सतरँगी रँग तो काली घनघोर बरसात के बाद ही निकल पाते हैं– या शायद उसे पता था कि इन्द्र धनुष तो बस आकाश में होता है–धरती पर तो बस इसकी परछाँई ही दिखती है। और आजतो उसे शायद इतना भी याद नहीं कि उसने अपनी इस परछाँई को भी, स्वयँ ही एक अवहेलना की काली चादर से ढक दिया था। छुपने पर मजबूर कर दिया था– पीछे छोड़ दिया था। क्या इसलिए कि किसी और की उसपर नजर न पड़े– या इसलिए कि न चाहते हुए भी उसके लुभावने रँग उसकी आत्मा पर खिंचने लगे थे—उसका अस्तित्व बदल रहे थे। उसे ललचा रहे थे और सुरभी सचमें डर गई थी।
क्यों मन में छुपा वह दूसरा सच आजभी उसे सालता रहता है–छलता है? क्यों आजभी वह श्रीकाँत के बारे में सब कुछ जानना चाहती है ? क्यों आजभी आवाजों के समुन्दर में गूँजती वह आवाज डूब नहीं पाती। चेहरा धुँधला नहीं हो पाता। एक दम तोड़ती अधमरी याद मर नहीं पाती। क्यों आज भी अक्सर हर गली, हर कोने पर सुरभी की आँखें श्रीकाँत को ढूँढती रहती हैं ? और क्यों सुरभि किसी से पूछ तक नहीं पाती कि श्रीकाँत कहाँ है–कैसा है ? सुरभि कोई चालाक या मक्कार लड़की नहीं थी जो बस वैभव के सपने देखती थी। और नाही श्रीकाँत मूर्ख और कुपात्र था।  फिर गलती कहाँ हुई— आखिर दोष किसका था–?-क्या श्रीकाँत सचमें अगले जन्म में भी उसका इँतजार करेगा-?-चलो मान लें कि करेगा ही— पर अगर अगला जन्म ही न हुआ तो–?
शायद देवदास और पारो हर युग में नहीं होते–वे तो बस किताबों के पन्नों में, तरुण मनों में ही रहते हैं। और अगर मिल भी जाएँ तो जरूरी तो नहीं कि हम उन्हें जान लें, पहचान ही जाएँ। सुरभी जान गई थी कि एक और देवदास के लिए पहले एक और पारो बनना पड़ता है। पर क्या बस बनने से पारो बन जाती हैं–और फिर क्या आज भी समाज उन्हे एक होने देता– और क्या एक हो जानेपर उस कहानी का वह जादू रह पाता ? वह भी तो न जाने क्या-क्या अटर-शटर सोचती रहती है—क्या जरूरत है इतना सरदर्द मोल लेने की ?
फिर भी सुरभी अक्सर अकेले बैठे-बैठे, घर का काम-काज करते सोचती रहती। दुखी नहीं थी वह अपनी जिन्दगी से। शहर के जाने-माने व्यापारी अभिषेक खन्ना की पुत्रवधु थी वह। सुन्दर और होनहार परिमल की पत्नी थी। गर्व करने जैसा परिवार था उसका और खुश होने जैसा सभी कुछ तो उसके पास था। बस यूँ ही एक आदत सी हो जाती है विकल्प में जीने की। समय के बिस्तार को ओढ़कर अतीत से आँखें मिलाने की। खामखाह ही, बैठे-बिठाए अगर-मगर की पूँछ से खेलने की। आकाश के चन्दा को लपककर तोड़ लाने की और बारबार जगकर फिरसे सो जाने की।
आजफिर सुरभि बस सोचे ही जा रही थी–क्या श्रीकाँत भी कभी ऐसे उसके बारे में सोचता होगा–जाने कहाँ होगा अबतो वह- अपने परिवार के साथ– जाने कैसा दिखता होगा–किस हालत में होगा ? कीर्ति की तो अबतक शादी भी हो चुकी होगी–कीर्ति की ही क्यों, श्रीकाँत ने भी तो शादी कर ली होगी– किसी सुन्दर, समझदार लड़की से। गरीब जरूर था पर था तो तेज और सुरुचि-पूर्ण। शायद उसके पास भी पराग और महक की तरह प्यारे-प्यारे बच्चे हों? एक सुगढ़ जीवन हो? पता नहीं मिलने पर उसे पहचानेगा भी या नहीं – वैसे भी क्या बात करेगी उससे अब वह ? पता नहीं श्रीकाँत ने उसे माफ भी किया या नहीं ?
सुरभी की सोच रुकने का नाम ही नहीं ले रही थी और उसकी सपने बुनती आँखों के आगे दीवार पर एक मकड़ी बहुत देर से   जाला बुनने में लगी हुई थी। अचानक मकड़ी का पैर फिसला और वह अपने ही बुने जाले में उलटी लटक गई। अपने बुने जाले में, खुद कैसे, और कितनी आसानी से लटका जा सकता है, सुरभी अच्छी तरह से जानती थी– पर अब और नहीं।
मुस्कुराती सुरभी, अविश्वास में सर झटक-झटककर, बार-बार खुद को विश्वास दिलाती गई कि आखिर वह तो कोई मकड़ी नहीं– और फिर जरूरी तो नहीं कि हर मकड़ी जाले में लटक ही जाए–?        सुरभि उठी और जाला साफ करने वाला ब्रश उठा लाई।–
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