कहानी समकालीनः वापसीः शैल अग्रवाल

सागर के  सोच-सी छलकी-बिखरी यह टेम्स दुनिया भर का पानी और गहरे काले बादलों की परछाँई, सब अपने सीने में समेटे चुपचाप बहती रहती है और अक्सर ही अँधेरा चारो तरफ से उठकर पुल पर खड़े हेमँत की आँखों में समा जाता है- कभी बेवक्त की आई बूदों के सँग बरसता, तो कभी एक ठँडी उफनती आह सा बेचैन और उमड़कर। कोहरे से ढका लँदन उसे हमेशा रहस्य ही लगा   है–चित्रमय और अस्पष्ट। एक गुबार-सा –धुँधला और दौड़ता-भागता हुआ। रोज की बात है यह। आदत है उसे इसकी, इस देश की…  अँधेरे में ही सबकुछ देखना, देखने की कोशिश करते रहना। एक आम बात है यहाँ पर यह। लँदन सोता नहीं, पर चन्द सोए लोग जगें, इसके पहले ही हेमँत उठ जाता है– ताजी, अनछुई हवा को सीने में समेटे– उस ठँडी सिहरन से होठ और गाल सहलाता हुआ। और फिर उस कुँहासे में दौड़ते हुए ही पूरे दिन की रूप-रेखा बना लेता है–स्पष्ट और साफ-साफ। अँधेरों से तो वह कभी नहीं डरा। वैसे भी यहाँ अगर ज्यादा सूरज निकल आए तो आँखें चुधियाँ जाती हैं। काले-चश्मे की जरूरत पड़ जाती है।

खुद को छूती गरमी से ही हेमँत जान लेता है कि सूरज कब और कहाँ निकलने वाला है–निकलेगा भी या नहीं ? गुरबख्स सिंह लाम्बा भी ऐसा ही दूरदर्शी और समझदार है, बस हेमँत सा भावुक नहीं है वह। उसका व्यक्तित्व अपने नाम-सा कँटीला और रोबदार है। खरा और रूखा-रूखा,  नफे-नुकसान के तराजू में नपा-तुला। रेत-सी फिसलती जिन्दगी को कसकर मुठ्टी में जकड़े-पकड़े हुए। रोज ही मिलते हैं वे दोनों, इसी सड़क पर। दो अलग-अलग व्यक्तित्व, पर आपस में कहीं गहरे जुड़े हुए। एक ही डाल पर खिलते फूल और काँटों-से।

धनमाया की तरह बच्चे भी गुरबख्श की जिन्दगी में आए और उसकी उपलब्धियों से जुड़ गए। पालने में आँखें खोलते ही उसने अपने रवि और पम्मी को खिलौने नहीं, अपना नाम, अपने सपनों का इन्द्रधनुष दिया। और अबोध बच्चों ने भी, उसी उमर से, नतमस्तक हो, वह इँद्र-धनुष सँभाल लिया। मन में उतार लिया। उन रँगों से खेले बिना ही, जीने की हिम्मत किए बगैर ही। क्योंकि उनका काम तो बस उस धरोहर को सँभालना भर ही था- ना इससे ज्यादा और ना ही इससे कुछ कम। वह आम बाप तो था नहीं, वह तो एक जादूगर था, जो बोलता तो उसकी साँसों में काँटे उगते और देखता तो पलकों पर गुलाब खिल आते। फूलों की महक तो हवाओं के सँग चारो तरफ फैल जाती, सबको ही ललचाती और सुख देती, पर काँटे अपनों को ही छीलते, जो आस-पास होते उन्हीके हिस्से में आते।

आज उन्ही काँटों से बिन्धा हेमँत सोच रहा था–शायद वह जादूगर नहीं, आम आदमी ही था। एक जिम्मेदार और महत्वाकाँक्षी बाप, जो जानता था कि सफल जीवन के लिए, सफल परिवार का होना भी जरूरी है। विचारों और सँस्थाओं से जुड़े रहना जरूरी है। समाज भी तभी इज्जत देता है और अपने अस्तित्व की पूर्णता का बोध भी तभी होता है। भावनाओं की कमजोर पुलिया पर जीवन गाड़ी नहीं चलती। सँयम और नियँत्रण चाहिएँ इसे। और ये दोनों तो उसके लिए सोने-जगने जैसे थे। विरासत में मिले थे। कर्नल और मेजर लाम्बा जैसे बाप दादाओं की वँश-परँम्परा से था वह। यह तो विलायत देखने की, फिरँगियों से मिलकर किस्मत आजमाने की ललक थी, जो उसे यहाँतक तक खींच लाई थी– वरना वहाँ, अपने देश में कोई कमी नहीं थी– न किसी नाम की और ना ही किसी काम की।

मन में पलते-चुभते ये इच्छाओं के शूल और इनकी दिन रात बढ़ती कँटीली डालें ही तो हमें भटकाती रहती हैं। तरह-तरह के सब्ज बाग दिखाती हैं। हमारे होठों और आँखों पर जब ये गुलाब बनकर खिलती हैं–तो सबकुछ भुलवा देती हैं। इनकी महक से मदमस्त, हम तब चुभन को ही दवा समझ लेते हैं। उस दर्द और भटकन को ही अपना ध्येय बना लेते हैं। ऐसा बस गुरबख्स के साथ ही नहीं हुआ, हर उस इन्सान के साथ होता है जिसे सपनों की लत् लग जाती है। बँद आँखों से चलना आ जाता है। ये काँटे बारबार चुभकर जगाने की कोशिश तो करते हैं- कभी अपनी खामियों का एहसास दिलाकर तो कभी जुड़ने और टूटने की पीड़ा से अवगत कराकर। पर रोज ही तो दौड़ जाते हैं हम उसी ओर– अपने ही खून की बहती लकीरों पर पैर रखते हुए। भूल जाते हैं कि ये सपने तो हम से भी ज्यादा कमजोर हैं। लाचार होते हैं। इन्हेंतो जगना और बिखरना भी पड़ता है। फुनगियों की उँचाई से उतरकर अपने ही काँटों पर गिरना पड़ता है। बिखरें, तो भी उन्हीं काँटों से छिलकर और टूटें–तो भी वही कसक और पीड़ा लिए हुए। जिस धूप में पककर ये रँग चटकें, उसी में उड़ भी जाएँ। यही नियम है प्रकृति का। यही नियम है जीवन का। साँस जो जीवन देती है, जीवन लेती भी वही है।

पर अगर काँटों के खेत में ही पलो-बढ़ो, तो उनकी भी तो आदत पड़ सकती है ? उनसे भी तो पोर चीरते-काटते कोई दुख नहीं होगा ? कोई दर्द मन को नहीं सालता क्योंकि पत्तों से मन के पोर भी तो पक सकते हैं ? उसकी पम्मी के साथ भी शायद कुछ ऐसा ही हुआ हो ?

अचानक हेमँत के सर में एक विष्फोट हुआ और सर में घूमते वे सभी शब्द, मति से सँधि-विच्छेद कर, एक मनमानी पदयात्रा को निकल पड़े। गलेसे निकलती उन बेतरतीब आवाजों को जब उसने एक क्रम, एक नियँत्रण देना चाहा, तो गले से गुर्रर्-गुर्रर् और घड़-घड़ के सिवाय कुछ भी बाहर नहीं निकल पाया। दर्द मानो आज रुाोत से फूट कर बह चला हो और किसी तरह का क्रम या नियँत्रण अब सँभव ही नहीं था क्योंकि अन्दर ही अन्दर सब कुछ ही शॉट-सर्किट हो चुका था। पर ऐसा तो कुछ भी नहीं हुआ था–बस रोज की ही तरह आज भी जब वह स्क्वाश खेलने क्लब आया था तो बस पम्मी वहाँ नहीं थी। पम्मी जो साँसों सी अब उसकी जरूरत बन गई है।

बचपन में उसने दादी से सुना था कि यहाँ, इसी सृष्टि में, एक कल्पतरु है जिसके नीचे बैठकर जो माँगो, वही मिल जाता है। कल्पतरु सी खड़ी यह जिन्दगी हमें यहीं, इसी दुनिया में सब कुछ देने की सामर्थ रखती है। बस माँगना आना चाहिए। अपनी इच्छाओं का सच्चा बोध होना चाहिए। पर हेमँत को तो कभी कुछ माँगने की जरूरत ही नहीं पड़ी क्योंकि पम्मी तो सदैव उसके साथ ही रहती थी- बिना माँगे ही मिल गई थी। फिर वह क्यों माँगता और किससे माँगता ? शायद वह कल्पतरु दुनिया में नहीं, हमारे अपने अँदर ही होता है।

पूरा क्लास जानता था कि पढ़ाई खतम होते ही, दोनों शादी कर लेंगे। क्लास ही क्या, अब तो दोनों के घरवाले भी जानते थे यह सब। मा ने तो बहू के जेवर और कपड़े तक जोड़ने शुरु कर दिए थे, वह भी हर चीज उसे दिखा और पसँद करवाकर ही। दादी तो सुर्ख बीर-बहूटी-सी पम्मी की बलैयाँ लेते-लेते ही न थकती थी। कल तो हद ही कर दी थी– अपने हाथ की चूड़ियाँ तक पम्मी को पहनाकर देख रहीं थीं– वह भी, इस हिदायत के साथ, ” देख पम्मी, जब तक जीउँ मेरी और मरने पर तेरी। बस मेरे हेमँत का ठीक-से ध्यान रखना। अब तो हेमँत को तुझे सौंपकर ही, चैन से जा पाउँगी। ” और तब पम्मी ने भी तो शरमाकर बस “ठीक है दादी,” ही कहा था। फिर आज अचानक सब मौसम-सा पलट कैसे गया ? क्यों अपने नाम-सा शिशिर और बसँत के बीच खड़ा, वह नहीं जान पा रहा कि यह शिशिर की ताजगी और बसँत की बहार उसकी क्यों नहीं ? क्या उस के हिस्से में बस चन्द महकती बयारों के, चन्द बीती यादों की पुलक के, और कुछ नहीं आ पाएगा ? क्या वह कभी नहीं जान पाएगा कि वास्तव में जिन्दगी क्या होती है–रँग और रूप का एक सुन्दर-सा गुलदस्ता या ठँडी बर्फ की सख्त चादर– जिसके नीचे दबा हर सपना आनेवाले बसँत के इन्तजार में बस सोता ही रह जाता है ? पर क्या ऐसा लम्बा इन्तजार वह कर पाएगा ?

हेमँत करता भी तो क्या करता–समझता-भी-तो कैसे-? वह कोई बहार की बात तो नहीं कर रहा था जिसमें बस कुछ फूल खिलते और मुरझा जाते हैं। वह तो अपनी पम्मीकी बात कर रहा था। नागफनी सी फैली इस जिन्दगी की बात कर रहा था। उस अटूट जिजीषा की बात कर रहा था– काँटों से बिंधीं होकर भी जो सजल होती है। आस नहीं छोड़ती। पत्ते-पत्ते में पानी और उमँग छुपाती है। मरुस्थल में खड़ी, आँखों में फूल खिलाती है। फूल, जो सर्दी-गरमी से कुँभलाते नहीं। मौसम के मुँहताज नहीं होते–पम्मी की तरह— पम्मी की सदाबहार मुस्कुराहट की तरह।
हाँ, वही हेमँत की पम्मी, जो दिनभर उससे फालतू के काम करवाती है। तरह-तरह के हुक्म चलाती है और नाराज होने से पहले, खुद ही मनाने भी आ जाती है और फिर मानते ही, अगले पल ही, टूटी चप्पलें सिलवाने मोची के पास दौड़ा देती है। सैर-सपाटे के लिए ड्राइवर बनाती है और फिर सारा सामान भी उसी से ढुलवाती है। खुद लेटे-लेटे गाने सुनती है और उससे होमवर्क करवाती है। जी हाँ वही हेमँत की चँचल-शरारती पम्मी। आजाद झरने -सी खिलखिलाती पम्मी। चौबीसों घँटे परेशान करने वाली, बात-बातपर हँसने-रुलाने वाली पम्मी। बच्चों-सी सीधी-सरल पम्मी।

हेमँत को भी तो पम्मी की कोई बात, कभी बुरी नहीं लगी। कोई मान-सम्मान का काँटा उसके मन में भी तो नहीं चुभा क्योंकि उसकी अपनी त्वचा भी तो प्यार की अनगिनित पर्तों से सुरक्षित रही है। सभी नैसर्गिक रिश्तों की तरह वे भी तो एक दूसरे से पूर्णत: सहज थे। हेमँत जानता था कि पम्मी चाहे किसीके भी साथ हँसे-मुस्कुराए, घूमे-फिरे, पर अँत में उसीको सबकुछ बताती है—बिल्कुल वैसे ही, जैसे मम्मी पापा को सुनाती हैं– फिर पापा, चाहे सुनें या न सुनें ? पर वह तो पम्मी की हर बात बड़े ध्यान से सुनता है। सुनता ही नहीं, समझता भी है। जो वह कहे वह भी और जो न कहे वह भी। जितना वह पम्मी को जानता है उतना तो शायद खुदको भी नहीं।

अब जब दोनों एक-दूसरे की पहचान बन ही गए हैं तो क्या फर्क पड़ता है कि वह हिन्दू है और पम्मी सरदार। वह हेमँत मिश्रा है और पम्मी, परमिन्दर लाम्बा। ये सरदार भी तो अपने ही होते हैं। मा बतलाती हैं पहले एक ही घर में, एक भाई सरदार होता था तो दूसरा हिन्दू। यह हिन्दु और सिखों की अलग-अलगाव की बातें, तो अब हाल ही में सुनाई पड़ने लगी हैं। फिर यह तो विदेश है। यहाँ अपने लोग ही कितने हैं जो मनों में एक और भेद बढ़ाया जाए ? अगर आज उसके बाप और भाई उसे पसँद नहीं करते, उसकी कद्र नहीं करते तो कोई बात नहीं। कल निश्चय ही वे भी उसे पसँद करेने लगेंगे जब जान जाएँगे कि उनकी बेटी को–उनकी बहन को उससे ज्यादा प्यार करने वाला, खुश रखने वाला पति मिल ही नहीं सकता।

इसी तरह सोचते-सोचते, पम्मी को जीते-जीते, बीस साल का हेमँत कब चौबीस का हो गया, उसे खुद ही पता न चल पाया। अबतो उनकी पढ़ाई भी खतम होने वाली थी पर आज भी पम्मी नजर नहीं आ रही थी। आजही क्या, पिछले पूरे तीन दिनों से वह नहीं दिखी है। हेमँत की आँखों में आती-जाती धूप-छाँवी निराशा और बेचैनी रीमा दूर से ही खड़ी पढ़ पा रही थी। जब और नहीं सह पाई तो उसने सब कुछ बता देना ही उचित समझा, कि अब हेमँत को पम्मी का और इँतजार नहीं करना चाहिए क्योंकि पम्मी अब कभी नहीं आ पाएगी। पिछले हफ्ते ही उसकी शादी हो गई है।

रेगिस्तान में आई आँधी की तरह एक ही पल में सबकुछ हेमँत की आँखों के आगे से ढक गया –काला और डरावना हो गया। वह जान गया कि पूरे डँके की चोटपर, सबके सामने ब्याहकर ले गया है कोई और उसकी पम्मी को– इसका मतलब क्या है वह अच्छी तरह से जानता था। पर, आखिर कहाँ–कब और कैसे ? पम्मी तो उससे कुछ नहीं छुपाती थी? और हेमँत मिश्रा भी अपना साधारण काम भी बड़ों के आशीर्वाद के साथ ही करता था फिर बड़ों के आशीष बिना पम्मी के साथ जीवन कैसे शुरु कर पाता ?

हेमँत की समझ में कुछ नहीं आ रहा था। अभी पिछले हफ्ते की ही तो बात है जब वे मिले थे–कौलेज के बाद यहीं ओडियन में। ग्लैडिएटर फिल्म भी देखी थी उन्होंने साथ-साथ। और स्लेव-प्रथा पर गुर्राती पम्मी ने घँटों भाषण भी दिया था,

” जानते हो हेमँत जिन्दगी एक स्वच्छंद नदी की तरह होनी चाहिए– एक सड़े-मटमैले पोखरे सी नहीं। इसे बाँधने और सीमाओं में रोकने का, मनचाहा मोड़ देने का अधिकार किसी को भी नहीं– हमें खुद भी नहीं।”

” पर मेढ़की तो पोखरे में आराम से रहती है पम्मी ?” हेमँत ने उसे छेड़ते हुए पूछा था।

” मैं मेढकी नहीं, मछली हूँ हेमँत। मझली, जो बस ताजे पानी में ही जी सकती है। यदि मेरे साथ जीवन बिताने का, साथ रहने का इरादा है तो तुम यह बात अच्छी तरह से समझ लो। याद करलो कि मैं बस जिन्दा रहने के लिए, कभी कोई समझौता नहीं करूँगी।”

” अच्छा बाबा ” और सहमति में मुस्कुराते हुए हेमँत ने काँपती पम्मी को बाँहों में समेट लिया था–यही सच का कसैलापन ही तो उसे अपनी पम्मी में बेहद पसँद था फिर इतना बड़ा धोखा क्यों–वह भी चुपचाप- कब और कैसे ?
विक्षिप्त, कुरसी से लटके, झाग फेंकते हेमँत को देखकर रीमा डर गई। उसे वहीं आराम से बिठाकर, चौके से पानी ले आई। कुछ पिलाया, कुछ मुँह पर छिड़कने लगी। बारबार उसे समझाने और आश्वस्त करने लगी।

” क्या तुम जानती हो उसकी ससुराल कहाँ है ? कौन हैं वह लोग ? कैसे और कहाँ मिला जा सकता है उससे ?” खुद से बेखबर हेमँत होश में आते ही, रीमा से सवाल पर सवाल पूछने लगा।

” नहीं,” कहकर रीमा गाँगुली बस चुप हो गई। थोड़ी देर बाद फिर खुद ही बोली, ” मुझे तो बस जाते-जाते पम्मी इतना ही बता पाई थी कि पँजाब में उसकी दादी बहुत बीमार हैं और वह उनसे मिलने, कुछ दिन उनके पास रहने के लिए भारत जा रही है।”

सवालों का एक अजगर अब हेमँत के आगे मुँह बाए खड़ा था–क्या यह सब इसीलिए तो नहीं, कि वह दोनों जल्दीही शादी करने वाले थे ? यदि वह सँभला नहीं तो उसे– उसकी पम्मी तकको पूरा का पूरा निगल जाएगा यह। कहानी न सिर्फ अविश्वनीय थी, वरन् उसमें से षडयँत्र की भी बू आ रही थी। जब उसका ही सर घूम रहा है तो बिचारी पम्मी इस दुर्गंध में कैसे साँस ले पा रही होगी? उसे ही कुछ करना होगा। मष्तिष्क की घड़ी ने फिर से टिकटिक करना शुरु कर दिया– ” तो क्या शादी वहीं पँजाब में, भारत में ही हुई है ?”

” हाँ शायद ” ” पता नहीं-” रीमा गाँगुली और नहीं सोचना चाहती थी। बँगाली ही सही, पर थी तो वह भी हिन्दुस्तानी लड़की ही। कल उसकी भी किसी लड़के से घनिष्टता के बारे में सबको पता चल सकता है। उसके साथ भी वही सब जोर जबर्दस्ती हो सकती है। वह अमित नहीं, बेटा नहीं, कि मनमानी शादी करले। गोरी बहू ले आए और मा चुपचाप अगवानी करने आ जाएँ। बेटियाँ तो आज भी बस घर की इज्जत ही हैं। उसकी भी दादी बीमार हो सकती है। उसकी शादी भी, ऐसे ही हो सकती है। किसी भी अनजान के साथ। बिना प्यार और पहचान के। और उसे भी सबकुछ चुपचाप ही मानना पड़ेगा–सिर्फ इसलिए कि यह सौदा उसके अपनों ने किया होगा—सोच-समझकर किया होगा। उसके और परिवार के भले के लिए किया होगा। सोचकर ही रीमा का दम घुटने लगा–उबकाई आने लगी। छुट्टियों पर जाना बात और है, पर पूरी जिन्दगी वहाँ, उस देश में, इस माहौल  से दूर ? हर जानी पहचानी आराम और सुविधा से दूर ? एक साफ-सुथरा, सुनहरा भविष्य छोड़कर, दमघोटू, गँदे और गरीब वातावरण में ?

नहीं, दादी-नानी की तरह घर बैठे-बैठे बस बच्चे पैदा करना उसके बस की बात नहीं। उसे छोड़ो, अबतो शायद उसकी मा भी वहाँ न रह पाए ? अच्छी परिस्थितियों से अभ्यस्त होना जितना आसान है, विषम से जूझना उतना ही कठिन। उसकी ही क्या अबतो शायद पम्मी की मा भी वहाँ न रह पाएँ ? हर महीने उन्हें भी तो अपने रूट्स करवाने जाना पड़ता है। हर इतवार को फिश और चिप्स खाए बगैर उनका भी तो पेट नहीं भरता। कैसे रह पाएँगी वह वहाँ—अपने घर से दूर–अपनों से दूर– उस विदेश में ?

फिर क्यों नहीं सोचा किसीने उसकी सहेली के बारे में ? कैसे रह पाएगी वह ? उसी से इस बलिदान की अपेक्षा क्यों ? क्या सोचकर उसकी पढ़ाई अधूरी छुड़वा दी गई ? क्या बेटियाँ आजभी बस पराया खेत ही हैं जिनपर ध्यान देने की, सींचने की कोई जरूरत नहीं ? चिड़ियाएं हैं जिन्हें बस उड़ने तक ही दाना देने का फर्ज है ? कहाँ गर्इं–मरीं या जी पार्इं—जानने की कोई जरूरत नहीं ?

परमिन्दर तो उसकी सहेलियों में सबसे ज्यादा दिलेर और जिन्दादिल थी फिर गाय सी चुपचाप अनजान खूँटे से कैसे बँध गई ? रीमाको समझ में आनेलगा कि ठँड और एक्सीडेंट से ही नहीं, कैन्सर की तरह साहस की कमी से भी हम अकाल-मौत मर सकते हैं। आखिर कौन सा देश है उसका–यह ब्रिटेन जहाँ वह पैदा हुई, जिसकी कोख में पली-बढ़ी या फिर दूर बसा वह भारत, उसके पूर्वजों का देश–जहाँ उनके वँशका मूल-बीज उगा और पनपा ? आस्था और उत्तरदायित्व की इस लड़ाई में रीमा की सोच, पुल की तरह दोनों किनारों से जुड़ी रहना चाहती थी, पर रह न पाई।

“–क्यों हेमँत, क्या ऐसा नहीं हो सकता कि हम पम्मी और उसके पति को यहीं बुला लें–?”

“क्यों नहीं–,” परिस्थिति की परवशता और जटिलता में डूबता हेमँत इधर-उधर हाथ-पैर फेंकने लगा– उबरने का उपाय ढूँढने लगा। वह जानता था कि किनारा आँखों से कितना ही ओझल क्यों न हो, कहीं-न-कहीं होता जरूर है। और नदी के दोनों किनारे ही होता है। बस तैरना आना चाहिए। हौसला चाहिए। पानी के बहाव से नही, थककर हिम्मत छोड़ देने से ही हम डूबते हैं।

वह यह भी जान गया था कि उसे अब और इन्तजार नहीं करना चाहिए–ना किसी आने वाले बसँत का और ना ही भयावह शिशिर का। समय आ गया था कि वह उठे और स्वयँ ही पम्मी को ढूँढे। पम्मी के घरवालों ने तो स्पष्ट शब्दों में बात खुलासा कर दी थी कि जब पम्मी से उसका कोई सँबन्ध नहीं तो उसके बारे में सोचना छोड़ दे वह। उसकी राह तक देखना छोड़ दे, अगर उसकी तरफ आँख उठाकर भी देखा तो आँखें निकाल ली जाँएँगी।

पर नदी किनारे उगे जड़ों तक पानी में डूबे, प्यासे विलो पेड़-सी उसकी सोच पम्मी की तरफ ही छुकती चली गई, क्योंकि प्यास का रिश्ता पानी से तो नहीं, पीने वाले से ही होता है। हेमँत की इन्तजार करती आँखें हर पल उसी सड़क पर बिछी रहतीं जो पम्मी के घर तक जाती थी। शायद पम्मी इधर से कभी गुजरे ? शायद पता लग जाए ? कब तक छुपाए रक्खेंगे ये घर और ससुराल वाले उसकी पम्मी को ? कभी न कभी तो हर लड़की मायके आती ही है। खुशबू भी उड़ती है तो आस-पास की हवाओं में पता छोड़ जाती है फिर पम्मी तो जीती-जागती, साढ़े पाँच फुट की लड़की है। ऐसे कैसे गायब हो सकती है ? किसीको तो पता होगा–कोई तो बताएगा उसे, पम्मी कहाँ है–कैसी है ? और फिर उसे भी अभी पम्मीसे बहुत कुछ पूछना और जानना है– क्या उससे बिछुड़कर, दूर अजनबियों के बीच, बेगाने रीत-रिवाज निभाती, वह खुश है या यूँ ही बस परवश घुट रही है ? ईक्कीसवीं सदी है आखिर। फिर खुद ही सँशय में डूब जाता–एक पढ़ी-लिखी प्रबुद्ध लड़की है उसकी पम्मी, चाहती तो किसी न किसी की मदद ले ही सकती थी ?
इसी तरह इन्तजार करते, दिन गिनते, दो महीने निकल गए। पम्मी का कोई पता नहीं चल पाया। बेचैन हेमँत ने सोते-जागते डरावने सपने देखने शुरु कर दिए–कभी वह पम्मी को घोड़े पर सवार राक्षस के मुँह से बचा कर लाता तो कभी उसके पास पहुँचते-पहुँचते उसका घोड़ा दम तोड़ देता। गढ्ढे में गिर जाता। और तब उदास पम्मी की आत्मा उसके सामने आकर गुमसुम-सी खड़ी हो जाती—बिखरे रूखे बालों और गढ्ढे में घुसे गालों के सँग —एक डरावना कँकाल बनकर। हेमँत की समस्याओं का चक्रव्यूह दिन-प्रतिदिन अभेद्य होता जा रहा था। पहली आशा की किरन उस दिन हाथ लगी जब छुट्टियों पर जाने से पहले उसने विदेशों में मुसीबत में फँसे ब्रिटिश नागरिकों के अधिकारों और उनके लिए उपलब्ध सुविधाओं के बारे में पढ़ा और आनन-फानन वह ब्रिटिश हाइकमीशन जा पहुँचा, मदद माँगता हुआ।

मिस रूथ विलकिन्स काफी सह्मदय और सुलझी हुई महिला थीं। पहली बार किसीने हेमँत की बातें ध्यान से सुनी। उसके दर्द को समझा। यही नहीं हफ्ते भर के अन्दर ही पम्मी के गाँव का पता भी हेमँत के हाथ में दे दिया। अगले दिन ही हेमँत ने खुदको रूथ विलकिन्स के साथ इँदिरा-गाँधी एयर पोर्ट पर खड़े पाया, वह भी मनसा की टैक्सी पकड़ते हुए।

दिल्ली से मनसा का चार घँटे का वह सफर, तरह-तरह की सँभावनाओं से बेचैन था– मीठी कसैली यादों में डूबा हुआ। पेड़, चिड़िया, आदमी सब उसके सँग-सँग दौड़ जरूर रहे थे पर मनसा की तरह अभी भी उसकी पकड़ से बहुत दूर थे। रूथ उसकी मन:स्थिति समझ रही थी। ध्यान बटाने के लिए कभी उसे अद्भुत-अनजान रँग-बिरँगी चिड़ियाएँ दिखलाती, तो कभी नाचता मोर। पर हेमँत की आँखें तो मनसा गाँव पर ही टिकी हुई थीं–पम्मी के सिवाय कुछ भी देखने से इन्कार कर रही थीं।

एक कर्कश आवाज के साथ ड्राइवर ने ब्रोक लगाया और एकसाथ ही सबकुछ रुक गया। सामने गेरू-चूने से पुते, एक आधे कच्चे-पक्के मकान के आगे खड़ा वह बता रहा था, ” 44/56 यही घर है साहब। ” दरवाजे पर बँधा बँदनवार और दीवारों पर कढ़े, मोर और सतिए आगामी मँगल कार्य की घोषणा कर रहे थे।

घिरती शाम के धुँधलके में भी हेमँत ने देखलिया कि सामने पीपल के पेड़ के नीचे खड़ी, गाय-भैंसों की हौद में चारा डालती वह युवती कोई और नहीं, उसकी अपनी पम्मी ही थी। पिछले तीन महीनों से हेमँत ने बारबार इतना उसे याद किया था कि अबतो वह उसकी परछाँई तक पहचान सकता था। हेमँत ने एक बार फिर गौर से देखा, निश्चय ही उसकी तरफ पीठ किए, दीन-दुनिया से क्या खुद से भी बेखबर वह युवती कोई और नहीं, पम्मी ही थी। हेमँत का मन किया दौड़कर गले लगाले। कम-से-कम हाथ से चारे की बाल्टी तो ले ही ले– जाकर कुछ भी मदद करे–बातें करे– पूछे– क्यों पम्मी, क्या दबाब था तुम्हारे ऊपर, जो एक बेबाक बहती नदी, इस तरह अचानक ही, कीचड़ की दलदल में पलट गई ? मन दौड़कर पम्मीसे गले मिल आया, लाड़ और शिकायतें कर आया, पर हेमँत चुपचाप टैक्सी में ही बैठा रहा–भावनाओं के आवेग से अपाहिज-सा।

मिस रूथ उतरी और रँग-उचड़ते पुराने दरवाजे की जँग लगी कुँडी खड़खड़ा दी।

अँदर से आवाज आई–“-पम्मी कुड़िए देखना जरा– दरवाजे पर कौन है– तुस्सी ही दस ले ?”

इसके पहले कि पम्मी पलटे, रूथ खुद ही पम्मी तक पहुँच गई। हेमँत के मुँह से बारबार सुनकर वह भी जान गई थी कि परमिन्दर लाम्बा ही पम्मी है। परिचय में हाथ बढ़ाते हुए बोली, ” मैं रूथ विल्किन्स हूँ—ब्रिटेन से। तुम्हारी मदद के लिए आई हूँ। मुझे स्पष्ट बताओ, तुम यहाँ खुश तो हो न– किसी दबाव में तो नहीं रह रहीं ? देखो, मेरे साथ तुम्हारे मित्र हेमँत भी आए हैं। ”

पम्मी की बेचैन आँखों ने तुरँत ही हेमँत को ढूँढ लिया। एक क्षीण मुस्कान से उसका स्वागत भी किया। मानो मन के किसी कोने में अभी भी विश्वास था कि हेमँत जरूर ही आएगा। फिर बुझकर, खुद झुक भी गइं। मानो बहुत देर हो गई हो। स्थिति की विषमता से जूझ पाना– अब दोनों के लिए ही सँभव नहीं था।

हेमँत अब और गाड़ी में बैठा न रह सका, ” यह क्या हालत बना डाली है पम्मी तुमने ? मैने तुम्हें कहाँ-कहाँ नहीं ढूँढा ?” अस्त-व्यस्त रूखे बालों और बेतरतीब मैले कुचैले कपड़ों में खुद से इतनी बेपरवाह पम्मी को देखकर, हेमँत का कलेजा मुँह को आ रहा था।

” कम-से-कम मुझे तो बताना था कि तुम कहाँ हो, कैसी हो ? तुम जानती हो मैं तुम्हारे किसी भी निर्णय के आड़े नहीं आता ?”

गोबर और चारे से सने हाथों को चुन्नी से पोंछती पम्मी, चुपचाप हेमँत को देखती रह गई मानो उसके इरादों की गहराई नापना चाहती हो, इससे भी ज्यादा सामने खड़े हेमँत की धातु पहचानना चाहती हो–क्या वह उसका और उसकी विषम परिस्थितियों का बोझ उठा पाएगा–बिना मुड़े और टूटे, उसके विकलाँग मन की बैसाखी बन पाएगा—गुरबख्शसिंह लाम्बा और उनके परिवार से लड़ पाएगा ? लाम्बा परिवार जो बस परिवार ही नहीं, एक सँस्था भी है– जहाँ किसी भी तरह की कमजोरी के लिए कोई जगह नहीं है। क्या हेमँत उस सँस्थाको, सँस्था के तिरस्कार को झेल पाएगा ? उसने तो इस गरीब घास-पूस खाने वाले ब्राम्हृण को भूलने की पूरी कोशिश की थी। बारबार अपनी यादों को अग्निदाह दिया था।

हेमँत आगे बढ़ा और उसने पम्मी का हाथ अपने हाथों में ले लिया, ” ज्यादा परेशान मत होओ–कुछ सोचो भी मत–बस यह बताओ, क्या यह सब तुम्हारी मरजी से हो रहा है ?” पम्मी की सूनी माँग और अस्त व्यस्त कपड़ों से वह जान गया था कि अभी उतना अनर्थ नहीं हुआ जितना कि वह डर रहा था। अभी कोई रावण उसकी पम्मी का अपहरण नहीं कर पाया है। हेमँत को वह पीपल का वृक्ष, वृक्ष नहीं वही दादी का कल्पतरु लगा। और आज जिन्दगी में पहली बार उसके हाथ खुद-बखुद पम्मीको माँगन के लिए उठ गए। चारोतरफ जो अँधेरा सा घिर आया था अब ऊपर झिलमिल तारों भरे आकाश में पलट गया।

हेमँत के एक ही स्पर्श से पम्मी के सारे रुके आँसू, बेलगाम बह निकले। दोनों में से किसीको भी कुछ और कहने-सुनने की जरूरत नहीं थी।

पम्मी के दुखने रूथ को भी विचलित कर दिया, ” कलटुम मेरा साथ ब्रिटेन में होगा और हम वहाँपर टुमारा हेमँत से शादी बनाएगा।” अपनी टूटी-फूटी हिन्दी में वह भी उसे समझा रही थी।

” पर मैं वहाँ, अपने मा-बाप के घर वापिस तो नहीं जा सकती। वहतो जीते जी ही मुझे मार डालेंगे। और फिर इस तरह से तुमलोगों के साथ जाने से हमारे परिवार की बहुत बदनामी भी तो होगी। जब लोगों को पता चलेगा कि शादी के बस तीन दिन पहले, मैने किसी और से शादी कर ली, वह भी भागकर, तो मेरी छोटी बहिन की शादी तो दूर– बिरादरी में कहीं, रिश्ता तक नहीं हो पाएगा। ना-ना मिस विलकिन्स, शादी और वह भी बिना मा-बाप के, बिना उनके आसीस के ? मित्रों-रिश्तेदारों के बिना ही– घोड़ी-बारातियों के बिना– अपनों के बगैर ही ? नहीं, माफ करना, मिस रूथ यह नहीं हो सकता।”

”  पर इसके अलावा और कोई चारा भी तो नहीं। ”

पम्मी का सँस्कारी मन बुझ गया। वह बागी नहीं थी, बस एक अनजान के सँग, जल्दी में जुटाई, इस बेमेल और बेमतलब की शादी के लिए खुदको तैयार नहीं कर पा रही थी। वह यह भी जानती थी कि डाल से टूटकर फूल वापस नहीं जुड़ पाते– उमड़ आए आँसुओं को रोकने के लिए उसने आँखें बन्द करलीं और बचपन से ही सीखी-समझी प्रार्थना मन-ही मन दोहराने लगी,” देहु शिवा यह शक्ति मुझे सत् करमन से कबहुँ ना टरूँ ”

मासूम हरदम मुस्कुराती गुड़िया सी बहन और मा को याद करके वह और भी उदास हो चली थी। पापा तो अपना सर तक न उठा पाएँगे। बागी ही नहीं खुदको स्वार्थी और परिवार के प्रति दगाबाज भी महसूस कर रही थी वह। पर और क्या कर सकती थी –समझौता उसकी आदत में नहीं था और हेमँत उसे यूँ चुपचाप परिवार के लिए टूटने और मिटने नहीं दे रहा था। हर सीधी सड़क के दोनों ही किनारे आखिर बस गढ्ढे और नालियाँ ही क्यों होती हैं? ये जीवन की सड़कें कुछ और चौड़ी क्यों नहीं होतीं ? बहुत ही लाचार और अनाथ महसूस कर रही थी वह।

” हौसला रखो–अपना घोंसला चुनने और बनाने का अधिकार तो पक्षियों तक को होता है। तुम पापा के नहीं, अपने घर जाओगी पम्मी। और वहाँ तुम्हें कुछ भी फिकर करने की जरूरत नहीं, क्योंकि आज से तुम्हारी सारी फिकरें, मैं करूँगा। ”

भक्त को अचानक ही जैसे भगवान मिल जाएँ या मनचाहा वरदान मिल जाए–कुछ ऐसी ही भावातिरेक में आद्र मन:स्थिति हो चली थी उसकी। बर्फसा जमा मन तरल हो, आँखों से बह निकला और काँपते पैरों ने शरीर का हिस्सा होने से इँकार कर दिया। महीनों की थकी-हारी पम्मीने खुदसे लड़ना छोड़ दिया। लाज-शरम भूलकर, बिखरने के डरसे वह आगे बढ़ी और हेमँत की फैली बाहों में सिमट गई।

सशक्त बाजुओं में सिसकती पम्मी बारबार बस वही एक सवाल पूछे जा रही थी, ” पर, तुम्हें पता कैसे चला, कि मैं कहाँ हूँ ? ढूँढने से तो भगवान भी मिल जाते हैं फिर इतनी देर क्यों करदी तुमने आने में ? मुझे इस दलदल से निकालो हेमँत। जानते हो, खुद मेरी मा ने ही मुझे धोखा दिया। सभी शामिल थे इस षडयँत्र में। मुझसे कहागया कि मैं दादी से मिलने जारही हूँ। बहुत बीमार हैं वह और विदा के जोड़े-कपड़े, सब मेरे साथ ही रख दिए –गहने-रुपए, सभीकुछ– यह कहकर कि शायद चाचा की बेटी की शादी में जाना पड़े ? मैं बेबकूफ, अपने कफन का सामान खुद अपने साथ लेकर आई। देखो हेमँत, क्या मैं अब सचमें ही एक मुरदे जैसी नहीं लगती तुम्हें ? मैने तो पिछले पच्चीस तीस दिनों से शीशा तक नहीं देखा है क्योंकि मैं खुदसे ही डरना नहीं चाहती। फिर यह तो बताओ, तुमने कैसे पहचाना मुझे ?”

हेमँत चुपचाप सबकुछ सुनता रहा–हर शब्द के दर्द से कटता और रिसता हुआ। पम्मी अपनी ही रौ में बोले जा रही थी,” मैने तो खुद को हर बलि के लिए तैयार कर लिया था, पर इसे तुम समझौता मत समझना। हमारे शास्त्र कहते हैं कि सामूहिक हित के लिए किया गया निर्णय, सौदा नहीं त्याग होता है और मैं ही क्या हमारे यहाँ तो हजारों पम्मियाँ सदियों से यही करती आ रही हैं। स्वयँबर और नारीहित की बातें करने वाले इस देश में बस यही होता आया है। पहले राधा-कृष्ण अलग किए जाते हैं फिर उनके मँदिर बना दिए जाते हैं। पूजा की जाती है। कितने सँयोगिता और पृथ्वीराज हो पाते हैं यहाँ ? हमारे यहाँ तो बस कुर्बान ढोला-मारु और शीरी-फरहाद के दर्द भरे गीत ही गाने का रिवाज है। सुख के लिए मीरा हो या राधा–जँगल में हो या राजमहल में– बस लबालब दुख ही पीती है। और फिर इसी-सबकी आदत पड़ जाती है। ऐसे ही जीना आ जाता है। हमारी मा-दादी वगैरह सभी इसी श्रृँखला की कड़ी हैं। आदत डाल लो तो समुन्दर में तैरती मझली भी खुशी-खुशी काँच के बॉल में तैरने लग जाती है। बस आदत डालने की बात है। परसों मेरी शादी भी होनेवाली थी, वह भी एक ऐसे आदमी के साथ जिसे मैने कभी देखा तक नहीं था।’

हेमँत पम्मी के लिए बेचैन हो उठा– कौन खड़ी है यह उसके सामने ? उसकी पम्मी तो कभी हार नहीं मानती थी। लड़ना ही नहीं, जीतना जानती थी। हर उगते सूरज के सँग, नये दिन की उमँग लेकर जगती थी और अँधेरी से अँधेरी रात में भी बस सुबह के ही सपने देखती थी। फिर यह कौन इन गर्तों में खड़ा है ? यह तो पूरा जीवन जी चुकी है। सबकुछ हार चुकी है। नहीं, वह पम्मी को यूँ अँधेरी खाइयों में फिसलने नहीं देगा।

जमीन पर आँख गड़ाए पम्मी, पैर के अँगूठे से धूल कुरेदती गई– मानो पूरा खोया सच आज ही ढूँढ लेगी– हर रिसते घाव को कुरेद-कुरेद कर, ‘ तुम्हें मैं कैसे बताती, जब मुझे खुदही कुछ पता नहीं था। मैने तो तुम्हें रोज ही आवाज दी थी। पर कच्चे-काँच-सा कुँवारा तन लेकर, इस पथरीले मौसम में तुम तक कैसे पहुँच पाती हेमँत ? मुझे इस भयावह मौसम की परवाह नहीं थी, खुदके टूटने-फूटने की फिकर भी नहीं थी, पर उस आसपास बिखरते कहर को कैसे रोकती मैं? चारो तरफ जो बिखर जाते, उन नुकीले काँचों को कैसे समेटती ? वह सारी चुभन मैं तो सह लेती, पर घर वालों के लहुलुहान मन कैसे सँभालती ? जो मेरे साथ दम तोड़ देती, उस घर की इज्जत को कहाँ दफनाती ? सुना है उसी रात मेरी डोली भी उठ जाती– डोली नहीं शायद अर्थी ही कहो, तो ज्यादा ठीक है। साथ चलना तो दूर, तुम तो मेरी अर्थी को कँधा तक नहीं दे पाते। वैसे तो सब ठीक ही था–मोक्ष कब और किसे जीते जी मिल पाया है। इसके लिए तो बस मरना ही पड़ता है–और मरा तो अकेले ही जाता है न ? ”

” ना-ना, ऐसी बातें नहीं करते। ऐसे नहीं सोचते। अब सब ठीक हो जाएगा ” जब हेमँत और बर्दाशत न कर सका तो बात बीच में ही काटकर रुँधे गले से बोला और अस्त-व्यस्त बालों को बेचैन उँगलियों से ठीक करने लगा। बहते आँसूओं को पोंछने की तो किसीने भी जरूरत ही नहीं समझी।

” बाहर कौन है— किस्से गल्ला कर रही है कुड़िए-? ”  मोतियाबिन्द से आधी-अँधी, कमर झुकी दादी भी, डँडा टेकते-टेकते, और दीवार टटोरते-टटोरते वहाँ तक आ पहुँची थी।

” जी, हमलोग ब्रिटिश हाईकमीशन से हैं। पता चला है कि इनका भारत का वीसा अभी दो हफ्ते पहले ही खतम हो गया है। अब यह यहाँ गैरकानून् रह रही हैं। इन्हें हमारे साथ अभी, इसी वक्त दिल्ली वापिस चलना होगा। ” रूथ ने रौबीले अफसरी अँदाज में दादी को समझाया।

” पर मेरा पुतर होर इसकी मा तो कलही आ रहे हैं विलायत से? परसों इसका लगन भी है ? सारा इन्तजाम हो चुका है। कारड तक बँट चुके हैं। फिर यह आपके साथ कैसे जा सकती है ?” दादी ने सँशय भरी नजरों से देखते हुए, अपनी दलील रखी, ” मेरी निगरानी में छोड़ा है इसके मा-बाप ने। क्या जबाब दूँगी उन्हें और इसकी ससुराल वालों को– क्या बताउँगी, कि कहाँ पर है अब उनकी अमानत ?”

” आप चाहें तो आप भी हमारे साथ आ सकती हैं, पर वीसा तो आज ही लगवाना पड़ेगा। उसके बिना अब यह यहाँ एक पल नहीं रह सकतीं। यह ब्रिटिश नागरिक हैं और इनके हर भले-बुरेकी जिम्मेदारी हमारी है। आप अपने बेटे को हमारा यह पता दे दीजिएगा। अब वह पम्मी से वहीं मिल सकते हैं। वैसे भी ये बाइस-साल की हैं और सँविधान अनुसार अपने सब फैसले खुद ले सकती हैं। ”

‘ किस फैसले की बात कर रही है यह… ‘

मुँह खोले खड़ी दादी का जबाब सुने बगैर ही, रूथ ने किसी कीमती, खोए खजाने-सी पम्मी हेमँत को सौंप दी। हेमँत ने भी, उतनी ही लगन और हिफाजत से पम्मीको कार में बिठाया और खुद भी उसकी बगल में बैठ गया, उसका हाथ कसकर पकड़े-पकड़े ही। पम्मी के थके मन की हर जरूरत पढ़ते और समझते हुए–बिल्कुल समुद्री तूफान में उड़ते उस थके पक्षी की तरह, जो वापस जहाज पर तो आ गया था, पर जिसके थके पँख और चौकन्नी आँखें को अभी भी आनेवाले तूफान का पूरा अँदेसा था।

धूल के उडते गुबार के पीछे से असमँजस में खड़ी दादी देख पा रही थी—-पम्मी ने हेमँत के कँधे पर सर टिका रखा था और हेमँत की सशक्त बाँहें उसे प्यार से सँभाले हुए थीं। दादी पहचान गई कि इस बेल ने अपना तना ढूँढ लिया है। पम्मी और कहीं नहीं, अपने घर ही जा रही थी। वे दिल्ली की सड़क पर ही जा रहे थे और पाँच बजे की ब्रिटिश-एयरवेज की लँदन वाली  उड़ान अभी  पकड़ी जा सकती थी।

यह रूथ कुछ भी कहे, ये बच्चे पराए नहीं, उसके अपने थे। सब धर्म-ग्रन्थों का सार जानते थे। उससे ज्यादा समझदार और सूझ-बूझ वाले थे। छोटी सी उमर में ही बहुत कुछ सीख और जान गए थे। जान गए थे कि जीवन, डूबने के डर से किनारे पर बैठना नहीं, लहरों की छाती पर चढ़कर तैरना है। गुत्थियों में उलझकर दम तोड़ना नहीं, सुलझना और सुलझाना है। माना ये बच्चे भारतीय नहीं थे, पर ब्रिटिश भी नहीं थे, ब्रिटिश-एशियन थे। उसके अपने बीज से उपजी एक नयी फसल- जो बस पराए तटों पर जा उगी थी। अनजाने देश और परिस्थितियों में पनप रही थी। पर भूली नहीं थी कि कहाँ से आए हैं– पीछे क्या छोड़ आए हैं? दोनों की आँखों में उसे यूँ छलपूर्वक असहाय छोड़कर जाने का दु:ख देखा था उसने। दोनों ने ही जाते समय विदा ली थी। उसे दुश्मन नहीं, अपना और बड़ा ही समझा था। झुककर पैर छुए थे। प्रणाम भी किया था। नाराज और परेशान पम्मी ने शिकायत नहीं, बस प्यार ही प्यार दिया था। उसकी जायज-नाजायज हर बात सुनी-समझी थी। एक जिम्मेदार पोती की तरह ही रही थी वह।
एक दूसरे से मिलने पर उन आँखों में विदेशी उन्माद नहीं, एक शक्ति थी– शक्ति जिसके बल पर कभी हमारे यहाँ राधा-कृष्ण की जुगल-जोड़ी बनी थी। दुबारा इसे तोड़ने का पाप न दादी करना चाहती थी, ना ही अब यह उसके हित में था। जब परिन्दों तक को उड़ने और बसने की आजादी है, फिर ये उसके अपने ही क्यों इन सोच और सँकोच के दायरों में दुख पाएँ-? सोचते-सोचते दादी घर वापस आ गई।

उसके अपने बीज से उपजी यह अमर-बेल पनपने के लिए, साँस लेने के लिए, थोड़ी सी ताजी हवा और जमीं ही तो माँग रही थी ? बूढ़े-मरते पेड़ों के नीचे चुपचाप भूखी और असहाय। जहरीली-जँगली होती, तो कबका आगे बढ़–हाबी हो जाती। सब तहस-नहस कर देती। पर ये तो मधुबन के फल-फूल थे– एक गुणी माली के हाथों प्यार से रोपे-रचाए हुए, सत्गुणी और सँस्कारी। अब जब सब कुछ पा लिया है– पहचान लिया है, तो सहारा तो देना ही होगा। प्रसाद-सा माथे से लगाना और सँभालना भी होगा। वक्त की आँधीमें भटकी यह पौध, विदेशी तटों पर जरूर जा उगी है, पर नसल-फसल सब अपनी ही है। गुण और महक दोनों ही जाने-पहचाने हैं। नई धरती में पनपती उसकी अपनी अमरबेल। दादी की बूढ़ी आँखों में कर्तव्य और प्यार की चमक आ गई– अरे, इसका तो पत्ता-पत्त्ता सूखी धरती को हरियाली से भर देगा। एकदिन फल-फूलकर जब यह खिलेगी, तो महक देश-विदेश तक जा पहुँचेगी। जाती बहार भी जब पतझण को धरती सौंपती है तो अगले मौसम के बीज बचा लेती है फिर वही क्यों अपने बच्चों का गला घोंटे ?
बेटे-बहू को तुरँत ही फोन करना होगा–
” बच्चे वापस पहुँच रहे हैं। अब आने की, ज्यादा सोचने की जरूरत नहीं। शादी की तैयारियाँ वहीं, और खुशी-खुशी करें। —”

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2 Comments on कहानी समकालीनः वापसीः शैल अग्रवाल

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