हास्य व्यंग्यः नेता बनाम कवि-शैल अग्रवाल


नेता जी जबसे कवि बने हैं; समस्या बढ़ती ही जा रही है। अक्सर ही पार्लियामेंट में बजट पेश करते-करते भावविभोर होकर कविता सुनाने लग जाते हैं और कवि सम्मेलनों में बढ़ती मंहगाई और देश के आर्थिक संकट पर भाषण दे आते हैं।

कल की ही बात ले लीजिए, एक अंतर्राष्ट्रीय कवि सम्मेलन में प्रसिद्ध हास्य कवि श्रोताओं को गुदगुदाते हुए सुना रहे थे- ‘ पत्नी बोली –ए जी, अमेरिका के कवि सम्मेलन से म्हारे लिए के लेके लौट्ये जी? मै बोल्यो- डेढ़ लाख जूते मिले हैं, कहे तो थारे को दे दूँ अभी सारे !’

अभी वे अपनी हंसिका सुना भी न पाए थे कि आयोजक दौड़े-दौड़े आए और हंसी के फव्वारों बीच धीरे से कान में फुसफुसाए- अब आप बैठ जाइए श्रीमान। नेताजी खजूरी मल हो चुके हैं णविद्यमान। अपनी नवी पुष्तक ‘रूप के जाल ’ संग, चढावेंगे अब वो ही आपणो चोखो-चोखो रंग।‘

लार-सी बह आई कविता को रूमाल से पोंछते, चुपचाप कोने में जा बैठे तब कवि बेचारे।

श्रोताओं की वाहवाही से गमकता माइक अब था छप्पन भोग का थाल, जिसे भिनभिनाती मक्खियों की निगाहों से बचाकर, बड़ी सुघड़ता से नेताजी ने लिया था अब संभाल।

अब वे थे और था विशाल जन समुदाय। देख और न कोई उपाय, खरहरा हाथ में लेकर बुदबुदाए कविवर नेताराम ‘कविता सुन्दरी मुझे लुभा रही है। ओजस्वी धारा कंठ से बही जा रही है। कभी उबारती तो कभी मुझे डुबोती, पलपल नए करतब दिखा रही है।‘

दर्शकों को समझ नहीं आया, नेताजी भाषण दे रहे हैं या कविता पढ़ रहे हैं।…कुछ उचके-बिचके, कुछ ने इधर-उधर ताका-झांका, पर कोई करतब नजर नहीं आया उन्हें कविता का बांका। सच कहें तो क्या कहना चाह रहे हैं नेता जी यह तक नहीं जान पाए श्रोता बेचारे। बढ़ती खामोश उलझन को भांप,नेताजी काल्पनिक आंसुओं को रूमाल से पोंछते पुनः मुस्कुराए और हाथ जोड़कर कविता पसंद करने के लिए धन्यवाद तुरंत सरकाया…

अब ह़ाल तालियों की गड़गड़ाहट से गूंज रहा था। नेता जी की लम्बी कविता की समाप्ति का आनंद बड़ा था या गरम होते समोसे और गुलाब जामुन का स्वाद सभी को खींच रहा था। आगे वे क्या बोले, किसी को सुनाई नहीं दिया। सच कहें तो फर्क नहीं पड़ा। वैसे भी अधिकांश की समझ में उस भाषण और संवाद का भेद दुरूह था। नेताजी सामने हैं, बस यही बहुत था। चारो तरफ मदहोशी का आलम था। लच्छेदार शब्दों का जाम लबालब बह रहा था। सेठ-साहूकार, लुच्चे-लफंगे, छोटे-बड़े, विद्वान-मूर्ख, भांति-भांति रूपी कवियों को संग बहाती, न्यूयार्क, पैरिस, लंदन घुमाती काव्य-धारा में एकत्रित हर व्यक्ति हाथ धोने को तैयार था और चुटकुले व फिल्मी गाने याद कर-करके कविता पर नए-नए हाथ अजमाए जा रहा था। विश्वास था सबको कि आज जो छोटे-बड़े कवि मंच से कविता सुनाते आ और जा रहे हैं, कल ये ही मंच की शोभा बन जाएँगे। सारे रहस्य अब उनके हाथ आ लगे थे। ऐसे काव्य आयोजन तो वे भी तो आराम से कर सकते थे और नेताजी जैसी कविताएँ भी थोक में सुना सकते थे,बस वह दूसरी शर्त ही तो थी, जो अब उन्हें परेशान कर रही थी। न वो नेता थे और ना ही कुबेर के खजाने के मालिक।

वाक् चातुर्य के साथ-साथ चंदा लेने और देने की की सामर्थ और नेतागिरी की चतुराई किस दुकान में मिलती थी, यह तक नहीं पता था उन्हें तो । कविताई के आड़े आई यह बात, कवि बनने के बन्द कर देती थी सारे द्वार। वरना लक्ष्मी की कृपा से तो कल्लू हलवाई भी कुछ रबड़ी, कुछ जलेबी खिलाकर और पांच हजार रुपए का चंदा देकर बन जाता है शिरोमणि कविभूषण कल्लू राम। अब इस बात को उलट-पलटकर ऐसे भी तो समझा ही जा सकता है कि आज के जमाने में कविता लिखना-पढ़ना भी नेतागिरी से कम जोखिम का काम नहीं। शौक यह राजसी है, कोई सस्ता और आम नहीं। हवाई जहाज में उड़-उड़कर हर जगब चेहरा दिखाना होता है। नेता जी और कवि दोनों को ही सदा लाइम लाइट में रहना होता है। जरा भी बेवक्त की बूंदाबांदी हुई नहीं कि बेजोड़ के तारों से बहता करेंट सहना होता है। कितनी भी आत्म-सुख में आँखें बन्द हों, चारो तरफ रिपोर्टर जासूसों का पहरा है और चतुर्मुखी राज्य करना…चौबीसों घंटे हंसी के गोलगप्पे को खाना और परोसते जाना, बड़ों-बड़ों का हाजमा बिगाड़ने के लिए काफी है।
फिर नेता की गद्दी छिनते ही तो नेताजी और उनकी अपनी व्हिस्की और अपनी ही तनहाई है।…

पर, नेता जी को समझ में ही नहीं आता कि कवि-समुदाय के सागर किनारे बैठकर लहरें गिनना भूल जाएँ। अब विदेशों में ही नहीं, भारत के तटों पर भी तो चढ़ते-गिरते शेयर बाजार की तरह सुनामी वक्त-वेवक्त आ जाती है।

जब-जब ये हाथ उठाकर, मुठ्ठी बांधे जोशीली कविता सुनाते हैं और तदुपरान्त चुपचाप पीछे के दरवाजे से सटक जाते हैं, या यूँ कहूँ कि सड़े टमाटर तो कभी जूतों की माला से डर जाते हैं, तो आम आदमी को तो निश्चय ही कवि में नेता और नेता में कवि और अभिनेता, सभी नजर आने लग जाते है। वैसे भी भगवान के सिवा यत्र-तत्र-सर्वत्र प्रकट हो जाना फिर तुरंत ही अंतर्ध्यान भी हो जाना, गुर भी तो बस इन्हें ही आता है। मंच, माइक और माला का इनका प्यार इतना गहरा है कि जनता जनार्दन के इर्द-गिर्द ही तो इनका सारा व्यापार है। फिर भीगे जूतों और सड़े टमाटरों के हार से जो डर जाए वह कैसा नेता, कैसा अभिनेता और कवि तो हरगिज ही नहीं होता।…घड़ियाल की चमड़ी और घोड़े का जिगर, ये गुर तो घुट्टी मे ही सीखकर आता है, एक नेता, कवि और अभिनेता। फिर जिसमें तीनों के ही गुण हों, उसका तो कहना ही क्या? जीना-मरना वक्त-बेवक्त का गाना है। निरर्थक शब्दों के बुने जाल पर ही जीवन इन्हें बिताना है। हरेक के मन पर तारीफों का पहरा रहता है। मनाना और मुकरना,वक्त पड़ने पर गधे को बाप बनाना भलीभांति इन्हें आता है। कोई सुने या न सुने, अपना ही गाना गाना है। शब्दों की ही तो ये खाते हैं। शब्दों को ओढ़ते-बिछाते हैं और थकें तो उन्ही पर सो भी जाते हैं। शब्द ही तो हैं इनके जो आम जनता को डुबाते और बहकाते हैं, दिन-रात सब्ज बाग दिखाते हैं।

हां, तो कहाँ बहक गए हम आप, बात नेता-अभिनेता या कवि की नहीं, नेता जी की किताब की मुंह दिखाई की भी होनी चाहिए। भूलना ही होगा हमें कि कैसे ये शब्दों को थोक भाव से खरीदते और बिकवाते हैं और फिर कैसे-कैसे उन्हें दुकानों पर सजाते हैं।… खुद लिखते हैं, कुछ दूसरों से लिखवाते हैं। तो जनाब, वक्तव्य खतम होते ही नेता जी के पी.ए. ने दुल्हन-सी लाल चुनरी और कई -कई की खरीदी तारीफों के वक्तव्य में लिपटी किताब निकाली और मेज पर मुंह दिखाई के लिए जमा दी। लोगों को पहले से ही खबर लग चुकी थी कि आज आम नहीं, नेताजी की पुष्तक के लोकार्पण की दावत थी। सो कवि सम्मेलन तो आने का मात्र एक बहाना था, कम-से-कम चार मिठाई और चार नमकीन गरमागरम चाय के साथ होंगे, हर व्यक्ति ने जाना-माना था।

चारो तरफ किताब का जोरदार प्रचार था। नेता-अभिनेता, सब्जी वाले, रिक्शेवाले सबके हाथ में एक प्रति किताब की और साथ में खड़े, मुस्कुराते नेता जी की छवि थी। हर अखबार और चौराहे पर, मोटर और बसों के पीछे यह छपी थी। कोने-कोने मुफ्त बांटी जा रही थी। जाहिर है कि कवि सम्मेलन पर भी छायी रही। कितने कविता के लिए, कितने चायपानी को पहुंचे, कहना मुश्किल था, पर वहां पर बड़ी भीड़ थी!

नेताजी ने चारो तरफ संतुष्ट नजर डाली। अब नेताजी के नाम के और कुछ नेताजी के काम के नारे लगा रहे थे। कुछ सिरफिरे तो एक दूसरे को एक-एक नारे के मिलते दाम भी खुश हो-होकर बतलाए जा रहे थे। पर, नेता जी, ठहरे नेताजी, धन्यवाद एक बार और जोर से देकर बात संभाल ली और उछलती पगड़ी ‘ चलता हूं। अभी शहर में किताब के दस बारह और लोकार्पण होने हैं’ कहकर तुरंत ही वापस भीड़ की बागडोर संभाल ली। पास के दरवाजे से बाहर की राह वे लेनेवाले ही थे, कि एक तख्ती पर लिखा नजर आया- ‘ गली-गली में शोर है, नेता हमारा चोर है।‘ नेताजी का माथा ठनका, तुरंत ही सीक्योरिटी को अलर्ट कर डाला- ‘ अब यह आत्मघाती कैसे आ धमका, सी.बी.आई की तो पहुंच नहीं यहां ? क्या पाकिस्तान का इसमें हाथ है, या फिर किसी बड़ी ताकत ने दिया साथ है? ‘

सीक्योरिटी ने तुरंत ड्यूटी कांस्टेबल से कम्प्लेन दर्ज करवाई और जल्द-से-जल्द आपतकालीन एक सुरक्षा मीटिंग बुलवाई।

‘घबराएं नहीं आप ‘- तसल्ली देता वह नेताजी से बोला- ‘ देखिए, अब इससे क्या? कार्यक्रम में बहुत फरक तो नहीं पड़ता। भारत है यह, यहां हर मिनट पर पचासों आदमी हादसे से है मरता। फिर यहां तो बस फोटो पर फोटो हैं और बातों पर बातें हैं। गरम-गरम चुस्कियां और चटखारे लेती चाटें हैं।‘

हर व्यक्ति अब फोटो खिंचवाए जा रहा था, कहकहे और यादों के बीच, परिचित-अपरिचितों को अजीबो-गरीब किस्से पर किस्से सुनाए जा रहा था। कहीं अंग्रेजों के जमाने की बातें थीं तो कहीं इमरजेन्सी की रातें थीं। कहीं ‘हलो माई डियर था ’ तो कहीं ‘ फीयर नौट, एवरी थिंग विल बी क्लीयर ’ था। कविता गवास की बदहजमी से परेशान कवियों के लिए अब वहां चारो तरफ वहां सुख-सरिता थी। कविता…और बस कविता थीं। न कोई बंदिश, न घंटी, और न घड़ी, मजे की बात तो यह कि- एक सुनाओ और सैंकड़ों की फरमाइश थीं।

शेर पर शेर चुटकुले पर चुटकुले बरसाती नदी से बहने लगे और आते-जाते छपाछप हाथ-पैर धोने लगे। देखकर इतना बहका-बहका आलम, एक मौकापरस्त नेता जी ने लपक कर नेताजी का पीछे-से पकड़ लिया दामन … ‘कहां चल दिए आप श्रीमान, अभी तो किताब को सम्मान भी नहीं दिलवा पाया। आपके उपकार का पाई-पाई कर्ज चुकाऊंगा। कुछ आपको और कुछ खुद को, नित नए सम्मान दिलवाऊंगा।‘

नेताजी सुनते ही दरवाजे से पलट आए और दीवानों की महफिल में किताब की तारीफ में नए-नए कलमे पढ़वाए। उपस्थित जनों ने भी रुंधे गले से खूब सुना और सुनाया-‘ श्रीमान, रिधिमान हैं। अन्नदाता और नेता महान हैं। बरसों-से देश का भार उठाया है, निरक्षर हैं तो क्या, अब जब कलम आपने उठाई है। हमारी किस्मत भी तो संग-संग चमक आई है। देश-विदेश भ्रमण के किस्सों पर लिखी आपकी यह कविता की किताब, निश्चय ही, प्रेरणा ही नहीं हमारे लिए, संजीवनी बूटी और सपनों की एक खान है। थोड़े को ही बहुत समझिएगा, श्रीमान। जान लीजिए आप हमारी इस बात में कितना खम है, किताब की क्या कहें, जब कवर तक में दिखता इतना दम है।‘

कबूतर की तरह छाती फुलाकर नेता जी ने इधर-उधर देखा और गुटरगूं, गुटरगूं वाले भाव-विभोर अन्दाज में तुरंत ही संरक्षण का भरपूर दाना दे डाला।

अब सभी चौबीसों घंटे नेता जी के साथ ही रहते हैं। दिन-रात चुगाली करते हैं और सपनों की चारी खा-खाकर गुटुरगूं करते हैं। सुबह उठते ही तोते-सा दोहराते हैं… ‘श्रीमानजी आप महान हैं….वगैरह-वगैरह।‘ और कविता की अपच से परेशान हैं। खाना-पीना तो दूर रहा, नेता जी की किताब से कविता सुनकर ही चाय की प्याली तक पी पाते हैं। नए-नए शौक की जो खुमारी है, नेता जी अब दिनरात उसी में डूबे रहते हैं और वे बेचारे बगल में बैठे-बैठे मन ही मन उस दिन को रोते हैं, जब मुफ्त के रसगुल्ले और समोसों का ध्यान आया था और अखबार में किताब के लोकार्पण की खबर पढ़कर नेताजी के साथ दोस्ती का पेंग बढ़ाया था।

परेशान हैं बेचारे कल जब एक महीना बीत जाएगा, तब तो होने ही होंगे सारे-के-सारे वारे-न्यारे। आखिरी कविता सुनते ही वह निर्णायक दिन भी आ जाएगा, जो उन्हें आजीवन कारावास की राह दिखलाएगा। वे मंत्री जी का भला कैसे सामना कर पाएंगे… किताब की शान में सच कहें या अपनी जान बचाएँ , निर्णय यह कैसे ले पाएंगे! हो, या न हो, ढूंढना ही होगा अब तो उन्हें कि कौन सी कविता है किताब में, जो नेताजी को शीघ्र-ही श्रेष्ठ कवियों की कतार में पहुंचाएगी और सम्पूर्ण साहित्य की जान बन जाएगी।

उसदिन से आजतक वे दिनरात नेताजी की किताब के पन्ने पलट रहे हैं और शब्दों के एक बीहड़ जंगल में भटक रहे हैं। फिर भी लगे पड़े हैं बेचारे मिलजुलकर, शायद कोई हीरा छुपा ही हो कोयले की खान में। तो जान गए न बुद्धिमान, क्यों नेता जी और कवि, दो शरीर होकर, आज भी बने हुए हैं एक जान।..

शैल एग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hormail.com
shailagrawala@gmail.com

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