गांधी और साहित्यः शैल अग्रवाल


राम और कृष्ण के बाद शायद महात्मा गांधी ही हैं जिन्हें भारत ने आज भी अपनी चेतना में परोक्ष या अपरोक्ष रूप से जीवित रखा है, अपना आदर्श और बापू माना है और विश्व ने युग पुरुष और युग प्रवर्तक जाना। भारतीय जन-जीवन और सोच पर तो गांधी जी का प्रभाव था ही विदेश में भी कई संवेदनशील राजनेता, दार्शनिक और साहित्यकार गांधी जी से प्रभावित हुए बिना नहीं रहे। कुछ ने तो गांधी जी के आदर्शों को इस हदतक अपनाया कि उन्हें आजतक उनके देश का गांधी ही कहा जाता है जैसे कि अफगानिस्तान के नेता खान गफ्फार खान, जिन्हें लोग काबुल का गांधी के नाम से भी जानते हैं।
रुडयार्ड किपलिंग, अलबर्ट आंइस्टाइन, मार्टिन लूथर किंग, रविन्द्रनाथ टैगोर से लेकर जौन एफ कैनेडी और हमारे आज के प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी तक आज भी गांधी जी के प्रशंशक और अनुयाइयों की सूची बेहद लम्बी और विविध है और वक्त के साथ-साथ यह और भी लम्बी ही होती जाएगी। क्योंकि संरक्षण, स्वाधीनता और देश के खोए वर्चस्व के साथ-साथ सच की ताकत से भी अवगत कराया था बापू ने हमें। हर गलत बात का अहिंसक और संयमी विरोध करना सिखलाया था बापू ने हमें। समझाया, कि कैसे यहीं आकर हम पशुओं से अलग और अधिक सक्षम हैं। शारीरिक बल से तो पशु संसार चलता है, मानवता की ताकत मन जीतने या मनचाहे परिवर्तन में है। शत्रु को नष्ट तो किया ही जा सकता है परन्तु यदि मित्र बना सकें तो यही सबसे बड़ी जीत है और आजीवन ऐसा ही करके दिखाया भी उस दुबले-पतले महात्मा ने। कमज़ोरी या किसी अभाव से डर पैदा होता है और डर से शत्रुता व हिंसा। यदि हम दूसरे के डर और कमज़ोरी…ज़रूरत और अभाव को समझ सकें (साथ-साथ अपने डर और कमजोरियां को भी), तो संभवतः दुनिया से वैमनस्य, सारी हिंसा स्वयं ही खत्म हो जाएगी ! परन्तु यह सब इतना आसान भी तो नहीं, कभी ‘स्व’ आगे आ जाता है, तो कभी ‘कमजोरी’ या ‘ युक्ति’ ! यहीं धैर्य की जरूरत पड़ती है जो आज शायद कहीं है ही नहीं, क्योंकि धैर्य या सहन-शक्ति तो तभी आएगी जब हम दूसरों को भी अपना-सा ही समझ पाएँगे, उनसे जुड़ पाएँगे!
सबका हित जिसमें हो वही कालजयी साहित्य है और गांधी जी का तो जीवन ही दूसरों के लिए था। जब विश्व का कोना कोना गांधी जी के विचारों से प्रभावित हुआ तो साहित्य कैसे इस गांधीगिरी से अछूता रहता ! कई कहानियाँ कविता और उपन्यास हमें मिल जाएंगे जिन्होंने सीधे या अपरोक्ष रूप से विश्व बन्धुत्व, सत्य और अहिंसा आदि बिन्दुओं को उकेरा है जिनकी गांधी जी बात किया करते थे। सादे जीवन और उच्चविचारों को अपनाने को कहा। बंकिम बाबू का आनंदमठ उपन्यास दिमाग में आता है, शिवमंगल सिंह सुमन, द्वारिका प्रसाद माहेश्वरी, सियारामशरण गुप्त , भवानी प्रसाद मिश्र आदि की कई कविताएँ याद आती हैं जो गांधी जी या उनके आदर्शों से ही प्रेरित हैं। पर भारत के बाहर लोगों ने उनके बारे में क्या कहा , कैसे जाना, समझा, यह भी जानना हमारे लिए उतना ही जरूरी है। कई देश और कई भाषाओं ने अपनी-अपनी समझ अनुसार उकेरा है गांधी को महात्मा तो कहीं लम्पट तक के रूप में। परन्तु विदेशों में लिखी गई किताबों में से अमरीकी लेखक लुईस फिशर की किताब ‘ द लाइफ औफ महात्मा गांधी’ की चर्चा करना चाहूंगी आज मैं, जिसमें वह लिखते हैं कि – गांधी जैसे महात्मा रोज नहीं जनमते जैसे कि राम, कृष्ण, बुद्ध , महाबीर , पैगम्बर या क्राइस्ट रोज इस धरती पर नहीं आते। और यह भी एक दुःख की ही बात है कि प्रायः ऐसे सहृदय समाज सुधारकों की जिन्दगी के इर्द-गिर्द इतनी कहानियाँ गढ़ दी जाती हैं, इतना ऊंचा स्थान या देवत्व दे दिया जाता है उन्हें कि इन्सान इनकी भक्ति तो कर पाता है, अनुसरण नहीं। फिशर ने गांधी की इस जीवनी में सिर्फ घटनाओं का चित्रण किया है , जैसे वे घटी, उनका सामाजिक, राजनैतिक और दार्शनिक विश्लेषण नहीं।
पश्चिम के आलोचकों के हिसाब से हमें पहले गांधी जी की आत्मकथा आदि किताबों से घटनाओं का क्रमबद्ध विवरण तो मिलता था परन्तु महात्मा की विश्व पटल पर उभरने की तस्बीर नहीं और यह कमी फिशर की इस किताब ने पूरी की विदेशियों की नज़र में। फिशर की म़त्यु उपरान्त किताब पर आठवें दशक में गांधी नाम की फिल्म भी बनाई रिचर्ड एटेनबरो ने , जिसे आठ-आठ औस्कर से भी नवाजा गया।
इधर-उधर नाम का उल्लेख और चन्द आलेखों के अलावा इतना विशेष साहित्य नहीं मिलता हमें पश्चिम में गांधी पर जितना कि नेहरू पर । शायद पश्चिमी आँख में गांधी का चरित्र उतना रंगीन और बहुआयामी नहीं था जितना कि नेहरू का था। आज गांधी जी के चेस्टिटी चैलेंज व्यवहार को जिस तरह से पश्चिम में स्कूलों तक में प्रचारित किया जा रहा है, इसी तरह का एक विवादित और चटपटा प्रसंग है जिसपर दो किताबें आईं पश्चिम में और खूब बिकीं भी। परन्तु फिशर ने विश्व को गांधी का निष्पक्ष परिचय देने का प्रयास किया है। उनके अनुसार गांधी जी अपने सिद्धान्तों में इतना अधिक विश्वास करते थे, इतना रम गए थे कि उन्ही के सहारे और उन्ही के बीच उनके व्यक्तित्व का पूरा विकास हुआ। वह इस बदलाव को ला सकते हैं इसके लिए उन्होंने पलपल खुद अपनी ही परीक्षा ली। आत्म अवलोकन किया। अगर वह खुदको कहीं गलत पाते, तो तुरंत ही गलती मानने और रास्ता बदलने में भी नहीं हिचकिचाए। समय की मांग अनुसार सबका हित ही सबसे बड़ी चाह रही थी गांधी जी की। दोस्त इससे सम्मोहित होते और आलोचक गलतियाँ निकालने का मौका ढूंढते। पर यदि सारे संदर्भों के साथ पड़ताल की जाए तो गांधीजी कहीं भी अपने लक्ष और सिद्धान्तों से भटके नहीं। फिशर अपनी किताब में ऐसे कुछ दुरुह पलों का उल्लेख करते हैं और कई अफवाह और भ्रंतियों का खंडन भी। अधिकांश पाश्चात्य लोगों की सोच थी कि भारतीय स्वतंत्रता संग्राम के गांधी मुख्य नेता और सूत्रधार थे जबकि फिशर के अनुसार गांधी जी का परोक्ष योगदान इतना अधिक नहीं था। हाँ उनके देश प्रेम, सुधार की दृढ मान्यता और सिद्धांतों का था। भारत के लिए देखे गए सपनों का था, जो कि बिना स्वाधीनता के संभव ही नहीं थे। पराधीन सपनेहु सुख नाहीं- दो किताबें जिन्हें गांधी जी ने हमेशा अपने साथ रखा वह थीं गीता और रामायण। इनसे वह आजीवन बहुत कुछ सीखते रहे और इन्हें अपने जीवन में उतारा भी। अछूत प्रथा के खिलाफ लड़े। कौमी एकता पर जोर दिया । घर घर में चरखा चलाने का मूलमंत्र देकर लड़खड़ाते देश को आत्मनिर्भर बनाने की कोशिश की। खुदको हिन्दू मुस्लिम सिख इसाई हर धर्म का माना, सबसे सहानुभूति रखी और सबका संरक्षण हर नागरिक की जिम्मेदारी मानी। इसके बावजूद उन्होंने 1947 का विभाजन देखा और हिन्दू मुसलमानों के बीच भयानक झगड़े देखे। अगस्त 1947 स्वाधीनता दिवस की शाम वह आजादी के उत्सव में न होकर, टूटे बिखरे परिवारों के साथ थे। अर्थहीन खून-खराबे को रोकने की कोशिश में लगे रहे। इससे ही उनके दुख का अन्दाज लगाया जा सकता है। इसी प्रयास में उन्हें प्राणों तक की आहुति देनी पड़ी। दृढ़ संकल्प और साहस इतना कि भरे दंगों के बीच भी वह हिन्दू और मुसलमान दोनों के ही घरों में जाकर रहे।
पश्चिम ने उनके उपवासों को भी राजनैतिक चाल समझा जबकि वह उनके लिए मानसिक और शारीरिक शुद्धि का तरीका थे। दबाव के बीच थमने और सोचने का समय देते थे। समस्याओं और घटनाओं से उनकी तेजी और गरमी खींच लेते थे। जब बापू उपवास करते तो लोग न सिर्फ इसलिए परेशान होते थे कि बापू कैसे हैं , अपितु इसलिए भी चिंतित होते कि अगर इन्हें कुछ हो गया तो उनकी लड़ाई कौन लड़ेगा। और तब वह अपनी चेतना को भी खंगालने लग जाते। बेहतर सोचते और सहयोग देते, जिसके परिणाण भी उपयुक्त और हितकारी होते। भगवान तक गांधी जी के सही सलाहकार और मित्र थे। हमेशा उन्हें सही विचार और निर्णय देते थे। उनके नियम और संयम निर्धारित करते थे। पश्चिम में शायद इसे ही इनर कौंशशनेस कहते हैं। सुबह की प्रार्थना गांधी जी के लिए दिनभर की रूपरेखा थी और शाम की आनेवाले कल के सपनों का मजबूत ढांचा।
देशवासियों में आत्मिक और शारीरिक दोनों विकास चाहते थे वह। अहिंसा उनके लिए एक राजनैतिक विचारधारा या ओढ़ी हुई आदत की तरह नहीं, प्राणियों के प्रति प्रेम से उत्पन्न हुई थी। कोई भी कार्य नीयत से ही प्रेरित होता है , बिना उद्देश्य या आवेशवश किया काम पशुवत् था उनकी निगाह में। कर्म और विचार दोनों को एक मानकर दोनों पर जोर दिया गांधीजी ने।
सबकी परवाह की व्यस्तता में परिवार को उतना वक्त नहीं दे पाए वह जितना कि होना चाहिए था। फिर भी फिशर ने गांधी पर अपना अंतिम निर्णय उनके खिलाफ नहीं दिया। अपितु सवाल पूछे पाठकों से कि क्या थीं वे परिस्थितियाँ जिनकी वजह से गांधी , गांधी बने। और क्या गांधी जी के सिद्धांतों को आज भी अपनाया जा सकता है, क्या उनका उतना ही महत्व है? क्या यह अहिंसा की नीति आज भी भला करेगी विश्व का? क्या आज भी निर्बल और पिछड़ों की मदद करने की जरूरत नहीं ? क्या निशस्त्रीकरण में ही हमारी सुख शांति नहीं!
इन प्रश्नों के उत्तर गांधी जी ने स्वयं अपनी पुस्तक और लेख व पत्र आदि में भलीभांति व बारबार दिए हैं, पर आज हममें से अधिकांश का गांधीजी से परिचय मात्र बड़ों के मुँह से सुना मात्र है… बचपन में मनाए गए चन्द विध्यालय के उत्सव…चन्द गानों और भजनों तक ही सीमित है । माना कुछ सफल हिन्दी फिल्म जैसे ‘लगे रहो मुन्ना भाई ‘ और ‘ गांधी माई फादर ‘ आदि ने युवा पीढ़ी का ध्यान महात्मा की ओर आकर्षित किया है और गांधीजी व गाँधीवाद फिरसे चर्चा का विषय भी बने हैं, परन्तु जरूरी हो चला है कि आजकी पीढ़ी खुद गांधी का लिखा साहित्य भी पढ़े और समझे, गांधीजी को जानने व समझने के लिए।
गांधी जी खुद कभी किसी आडंबर या अपनी ‘फैन-फौलोइँग ‘ या किसी भी तरह के गांधीवाद में विश्वास नहीं करते थे । उनकी म़त्यु उपरान्त भले ही अवसरवादियों ने गांधी से जुड़ी हर चीज का बैसाखी की तरह खूब इस्तेमाल किया। गांधी के बाद गांधीवाद के युग में गांधी से जुड़ी खादी तक भृष्टाचार और बेइमानी का प्रतीक बन गई। इसे भी खूब भुनाया और चमकाया गया और इसका सहारा लेकर खूनी-पाखंडी, सभी ताकत की कुरसियों पर जा बैठे। जबकि गाँधीजी खुद यह मानते थे कि तुम एक बार शक के दायरे में आ जाओ तो फिर तुम्हारे हर आशय को संदिग्ध ही समझा जाएगा और बारबार परखा जाएगा। इसलिए कोशिश यही रहनी चाहिए कि कथनी और करनी ही नहीं, सोच तक एक हो… बुरा मत सोचो, बुरा मत देखो, बुरा मत सुनो, गांधी जी के तीनों बंदर भला किसे याद नहीं ! पर हजार अच्छाइयों के बावजूद भी यह वही गांधी थे जिन्हें ईसामसीह की तरह ही अपने सिद्धान्तों के लिए जान तक गंवानी पड़ी।
अनन्य श्रद्धा के साथ-साथ कइयों के मन में महात्मा के प्रति कुछ अनुत्तरित विवादास्पद सवाल भी रहे हैं, जैसे कि- गान्धी अगर लौर्ड इरविन के साथ समझौते में जल्दबाजी नहीं करते तो शायद भगत सिंह, सुखदेव और राजगुरु तीन-तीन देशभक्तों को फाँसी नहीं लगती या फिर भारत का विभाजन और पाकिस्तान न बनता । क्या गांधी जी कभी -कभी अपने हठ में दुनियादारी को पूरी तरह से भूल जाते थे जैसा कि उनके कुछ आत्म संयम के प्रयोगों के बारे में लिखा गया है।

एक सवाल और उठता है कि क्या गान्धीजी अब बस नोटों पर और फिल्मों में ही जिन्दा हैं?

कई सवाल हैं, जो आज भी उत्तर तलाशते हैं। इतिहास कुछ भी कहे यदि हम आज के संदर्भ में और अपने नज़रिए से गांधी को जानना व समझना चाहते हैं तो हमें उनके विचारों और सिद्धांतो…उनके आदर्श और प्रेरणाओं को समझना होगा…समझना होगा कि क्या थी गांधी की सोच और उसकी ताकत। फिर गांधी का कितना अनुसरण हमें करना है…कितना उन आदर्शों को अपने जीवन में उतारने में समाज या हम सक्षम हैं- यह फैसला खुद हमारा अपना होगा और हमारी आज की जरूरतों के अनुसार होगा।

आखिर क्या था गांधी जी का सत्य और अहिंसा का आग्रह या सत्याग्रह !

दुरूह इन सवालों का जवाब गांधीजी ने खुद ही अपने लेखनी से बार-बार दिया है। अपने चरित्र और जीवन से बारबार समझाया है और कथनी व करनी की एकरूपता मरते दमतक कायम रखकर। गांधी जी का सत्य और हिंसा में अडिग विश्वास था। उन्होंने सत्य के बारे में लिखते हुए कहा कि यदि हम सच को समझ नहीं पाते तो यह हमारी अपनी हार है, सच की नहीं। गांधी जी ने अपने बारे में लिखते हुए कहा कि मैं कोई स्वप्न दृष्टा नहीं हूँ, वरन् एक आम और बेहद व्यवहारिक इन्सान हूँ जो मानवता का, दीन-दुखियों का उत्थान चाहता है। उनके जीवन की असह्य पीड़ा का अन्त चाहता है। समाज से अत्याचार और अन्याय का उन्मूलन चाहता है। और इसे शान्ति और अहिंसा के साथ सच के मार्ग पर चलकर ही पाया जा सकता है। यह रास्ता सिर्फ ऋषि-मुनियों का ही नहीं, आम आदमियों का भी है।
जानवरों के पास शारीरिक बल के अलावा और कुछ नहीं होता परन्तु इन्सान के पास आत्मिक या आध्यात्मिक शक्ति है, जो शारीरिक शक्ति से ज्यादा ताकतवर और स्थाई है। कईबार ऐसा होता है कि हम विद्रोह करना चाहते हैं। सामने वाले की अभद्रता से उद्विग्न उसे मारना या डांटना…दंड देना चाहते हैं। परन्तु यदि तब उस एक पल में अपने को रोक सकें तो यही होगी, अहिंसा। गांधीजी की अहिंसा का अर्थ था अत्याचार और अन्याय का शांत व संयमी विरोध। पाप को नष्ट करने के लिए पापी को नष्ट करना जरूरी नहीं। यदि अत्याचारी के आगे बिना झुके बता सकें कि वह गलत है, उसकी सोच, उसकी करनी गलत है, तो यही गांधी का सत्याग्रह है…सत्य की जीत है। सत्य और अहिंसा का यह सिद्धांत जिस दिन व्यक्तिगत स्तर से उठकर विश्व-व्यापी हो जाएगा उसदिन सारी लड़ाइयाँ खुद-ब-खुद खतम हो जाएँगीं।
गांधी जी के अनुसार हमारे ऋषि -मुनि जिन्होंने हिंसा के बीच रहकर अहिंसा वृत आजीवन पालन किया वो न्यूटन से बड़े विचारक और वेलिंगटन से बड़े योद्धा थे। अहिंसा क्रियाशील रूप में आत्मसंयम के साथ की गई आत्म संशोधन की एक निरंतर प्रक्रिया है। इस प्रक्रिया में मानसिक यातना और शारीरिक कष्ट दोनों ही हैं पर इसका यह अर्थ कदापि नहीं कि अहिंसा कमजोर करती है। यह अत्याचारी के सामने मूक समर्पण नहीं …अहिंसा का सेनानी तो समस्त आत्मबल के साथ अपने सम्मान, धर्म और राष्ट्र के लिए आखिरी सांस तक लड़ता है और साथ-साथ अन्याय के अन्त की व अन्यायी के पुनःनिर्माण की नींव भी रख देता है।

गांधी जी अनेकता की एकता में विश्वास करते थे। उन्होंने कहा कि मैं सिर्फ भारत की एकता का ही नहीं, विश्व एकता का सपना देखरहा हूँ। यह वही सपना था जो हजारों साल पहले हमारे ऋषि मुनियों ने ‘वसुधैव कुटुम्बकम’ के रूप में देखा था। गांधीजी के लिए स्वराज सिर्फ भारत की ही आजादी नहीं, दीन-दुखियों की आजादी थी। भारत के गांवों में बसे निरक्षरों और असहायों की आजादी थी। गांधी जी का मानना था कि जब मन पूरी तरह से निर्मल हो जाता है…स्वार्थ, घृणा और पाप की वहाँ जगह नहीं रहती, तब हमारे विचार दूसरों को छूने लगते हैं। परन्तु बुद्धिमान और व्यवहारिक गांधीजी यह भी जानते थे कि अपनी कोई भी इच्छा दूसरों पर लादी नहीं जा सकती। एक उनके सोचने या चाहने से कुछ नहीं होगा जबतक कि भारत और विश्व के मानस का हृदय परिवर्तन न हो। फिर भी उनका कहना था कि मुझे अपना यह सत्याग्रह तो जारी रखना ही होगा…मानवता को यह तो बताना ही होगा कि यह दुनिया, यह जीवन कितना सुन्दर और बहुमूल्य है…और इसे यूँ नष्ट मत होने दो !
गांधीजी को जानना एक भारत के सच्चे हितैषी और प्रेमी को जानना है, एक दृढ़ जीवन शैली को जानना है। आश्चर्य नहीं कि उन्हें बीसवीं सदी का सबसे महान पुरुष कहा जाता है। महात्मा गांधी ने स्वाधीनता आंदोलन के लिए एक राष्ट्रभाषा के रूप में हिन्दी को प्राथमिकता दी थी और स्वदेशी अपनाओ यह भी गांधी जी का ही नारा था। गांधी का राम राज्य, ग्राम राज्य की परिकल्पना पर आधारित था। वह विकास को कागज और योजनाओं में नहीं, जनजीवन में देखना चाहते थे। आज की जरूरतों को देखते हुए गांधी जी के सत्याग्रह और स्वच्छता अभियान, स्वभाषा की नीति पर पुनः बल देने की जरूरत है। राष्ट्रभाषा के बिना यदि राष्ट्र गूंगा है तो आत्मनिर्भरता के बिना रीढ़हीन। ‘हरिजन’ जैसे सुंदर शब्द उनकी उद्दात्त और सर्वे हिताय सोच के ही परिचायक हैं। गांधी जी ही थे जिन्होंने क्रुद्ध हिंसक भारतियों को समझाया कि आंख के बदले आँख की नीति तो पूरे राष्ट्र को अंधा कर देगी। निशस्त्रीकरण पर जोर दिया क्योंकि वह जानते थे कि शस्त्रों की यह होड़ पूरी मानवता को ही खतरे में डाल देगी और अगर कैसे भी कुछ बच भी गए तो उनका जीवन मौत से भी बदतर होगा।

एक शब्द में यदि गांधीजी के प्रति अपने सारे भावों को समेट पाऊँ तो यही कहूँगी कि बापू सच्चे अर्थ में विश्व-बंधु थे इसीलिए तो सबके अपने और विश्व-वंद्य हो पाए.. आश्चर्य नहीं कि गांधी जी की मृत्यु पर लूईस फिशर ने लिखा- “एक अर्धनग्न बूढ़ा जो ग्रामीण भारत में बसता था, उसके निधन पर पूर्ण मानवता रोई ।” भारत के अपने समय के शीर्षस्थ उद्योगपति घनश्याम दास बिरला ने गांधीजी की मृत्यु पर श्रद्धांजली देते हुए कहाः “मानवीय इतिहास में यह अनोखी बात है कि एक अकेला व्यक्ति एक ही समय योद्धा, मसीहा और संत तीनों था और उससे भी अधिक वह विनम्र और मानवीय था।”
और शायद गांधी जी की यह विनम्रता और मानवीयता ही थी जिसके बल पर गांधी जी सबके अपने बन पाए और उससे भी बड़ी बात है कि बने रह पाए।
गांधी विचारधारा आज भी हमारे लिए सोचने और मनन का ही नहीं ध्यान देने का भी विषय है।

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शैल अग्रवाल
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