कहानी समकालीनः दावा-प्रियंवद

गिलहरी के बच्चे का मुंह देखकर मुझे मां की याद आई। उसी तरह, जिस तरह मां का मुंह देखकर गिलहरी की याद आई थी। मां ने जीवन भर हर कथित बुरे काम में मुझे संरक्षण दिया था। किसी विवशता से नहीं, बल्कि सुख के साथ। एक घने छतनार वृक्ष की तरह।

मेरे कमरे में धूप साल में दो बार आती है। सिर्फ़ कुछ दिनों के लिए। पहली बार तब, जब सर्दियां शुरू होती हैं, और फिर तब, जब खत्म हो जाती हैं। सूर्य अपनी दिशा बदलते हुए उन दिनों मेरे कमरे के अंदर आ जाता है। मेरे कमरे की बहुत-सी चीज़ें उन दिनों की धूप में चमकती थीं। चमकती हुई ये चीज़ें पहले से अलग दिखती थीं। धूल के कण, कोनों के जाले, फर्श की कालिख, कुचले हुए कीडे अन्न के दाने कुछ चिडियां। मां भी इनमें से एक थी। मां उन दिनों में धूप के टुकडे में बैठी रहती थीजब तक धूप रहती। अपनी हड्डियों को सेंकती हुई। मंदिर से लौटती थी वह। उसके सूती कपडों की सलवटों में मंदिर की गंध बंद होती। कपूर अगरबत्ती और उसके धुएं की। उसकी झुर्रियों पर, थोडी लटकी खाल पर और खाली, लगभग डरावनी सी सफेद आंखों पर धूप होती थी। धूप के न होने पर ये सब चीज़ें मुझे उसके अंदर नहीं दिखती थीं। हालांकि ये उसके अंदर हमेशा होती थीं। उनमें शायद तब जीवन नहीं होता था, प्राण नहीं होते थे। धूप में ये सब अस्तित्व में आ जाती थीं। मां की काया तब बिल्कुल साफ़ दिखती थी। एक-एक रंध्र एक-एक रोम तक। धूप में बैठी मां, बिना धूप की मां से बहुत अलग होती थी। जो धूप के दिन नहीं होते थे, वे मां के कष्ट के दिन होते थे। वह जाती हुई धूप को उदासी से देखती थी। उसकी देह बेचैन रहती। वह कुर्सी के उस हिस्से पर उन दिनों गठरी की तरह फंसी रहती। वह छटपटाती थी कभी। उसका छटपटाना उससे नहीं, उसके कपडों की सलवटों में बंधी मंदिर की गंध से पता लगता था। परिंदे की तरह वह गंध कमरे में घूमती। कहीं बैठती, कहीं छोडती, कहीं उडती हुई।

धूप जिस कुर्सी पर आती थी, मां उस पर पैर मोडक़र बैठ जाती थी। उसमें सिकुडी हुई। जब पहली बार मैंने उसे देखा तो मुझे वह गिलहरी की तरह लगी थी। मैंने बाहर धूप में मुंडेर पर गिलहरी को इस तरह बैठे हुए अक्सर देखा था। उसके रोम, उसकी रेखाएं, उसके रंध्रों को भी। हल्की नीली शिराओं को। बालदार दुम को। हिलती खाल को। मां का मुंह, घुटने, पतली देह भी थोडी-थोडी देर में हिलती थी। चुप बैठी हुई या तो वह मुझे देखती रहती थी, या फिर आंख बंद करके धूप सेंकती रहती थी। सूर्य मेरे कमरे में सचमुच उसका आराध्य था।काम्य था। उसकी आत्मा में था। मैंने कई बार धूप में बैठी मां को बुदबुदाते सुना था। वह सूर्य की स्तुति होती थी। उसके अपने अलमारी में बंद पारंपरिक देवताओं की नही। उस देवता की भी नहीं जिसकी गंध लेकर वह घर आती थी।

उन दिनों मेरी पढाई खत्म हो रही थी। किसी भी वर्जना से व्यक्तिगत मुक्ति समाज के लिए हमेशा एक बुरा अथवा अनैतिक काम होती है। मेरे अंदर अपने जीवन को समस्त वर्जनाओं से मुक्त करने का उत्साह था। मुझे लगता था वर्जनाओं के साथ जीना जीवन को व्यर्थ करना है।यह भी कि जीवन में कुछ भी वर्जित क्यों हो? मेरी पाप-पुण्य, ग्राह्य-त्याज्य, नैतिक-अनैतिक की परिभाषाएं कोई दूसरा क्यों तय करें? मुक्ति की यह लालसा धीरे-धीरे मेरे अंदर अदम्य हो गई थी। मैंने शुरूआत बहुत सामान्य वर्जनाओं को तोडने से करने का निश्चय किया।शराब पीना उनमें से पहली वर्जना थी।

मैं मानता हूं कि जिस काम को घर में नहीं किया जा सकता, उसे बाहर भी नहीं करना चाहिए। यह भी, कि हर कथित बुरे काम को करने की सबसे सुरक्षित जगह अपना घर होती है। शराब पीने का बुरा काम घर से शुरू करूंगा, यह मैंने तय किया। मां के सामने बैठकर, उसकी सुरक्षा में। मां के लिए यह बहुत बडा आघात था। हमारे परिवार की परंपराओं में यह कठोर निषेध था।

वे सर्दियों के दिन थे। सर्दियों में मैं हमेशा बीमार रहता था। मां मेरे जोडों पर क्रीम लगाती थी। गर्म पानी से सिंकाई करती थी। तावीज बांधती थी। सर्दियों में मुझे जीवित रखती थी। मैंने मां को बताया कि थोडी-सी शराब पीना स्वास्थ्य के लिए अच्छा होता है। विशेषरूप से सर्दियों में। जैसे उन्हें धूप सुख देती हैं, सेंकती है, वैसे ही शराब भी अंदर से शरीर को सेंकती है।

मां ने मुझे अविश्वास से देखा। मैंने उसे फिर समझाया कि एक-दो दिन पीकर देखता हूं। फ़ायदा नहीं दिखा तो छोड दूंगा। मैंने मां को यह भी समझाया कि बाहर पिऊंगा तो बदनामी होगी। लोगों को पता लगेगा, लोग तुम्हें गलत बातें बताएंगे। यहां तुम्हारे सामने पिऊंगा तो बात घर में ही रहेगी कितना पीता हूं, क्या होता है तुम देख सकती हो। भूख भी खुलती है। सेहत भी अच्छी होती ह।

मां की आंखों का अविश्वास थोडा कम हुआ। मेरी सेहत अच्छी होगी, भूख खुलेगी, सर्दी में जोडों पर दर्द नहीं होगा, यह सब उसे आश्वस्त कर रहा था। उसी तरह जैसे तावीज़ उसे करता था। उसने हां कर दी। मैंने शराब पीना शुरू कर दी।

मैं जब शराब पीता मां कमरे का दरवाज़ा बंद कर देती। गंध न आए इसलिए कमरे में अगरबत्ती जला देती। खाना रख देती। मैं खाना खाता, उससे बातें करता। उन पूरी सर्दियों में मैंने जोडों पर क्रीम नहीं लगाई, न ही तावीज पहना।

कई वर्षों तक परिवार में किसी को पता नहीं चला कि मैं शराब भी पीता हूं। शराब पीने के दौरान ही मां मेरे सुख-दुख की गहरी साझीदार बन गई। मेरे शराब पीने से मां को सबसे बडा सुख यही मिला था। मैं उसके पास, उतनी देर रहता। स्वस्थ, प्रसन्न।

कभी-कभी मैं बाहर भी पी लेता। एक रात मैं देर से लौटा। शायद सुबह के तीन बजे। मां जाग रही थी। उसने दरवाज़ा खोला। मैं अंदर आया। अंदर आते ही मुझे उल्टी हुई। मां चुपचाप लेटी थी। मैं भी लेट गया। कुछ देर बाद फिर उल्टी हुई, कुछ देर बाद फिर। मां बिस्तर से उठी।

”तुम्हें पित्त चढ ग़या है मैं कुछ लाती हूं।”

घर की रसोई तीसरी मंजिल पर थी। मां अब वहां नहीं जाती थी। उस सुबह तीन बजे, चुपचाप दबे पांव, धीरे-धीरे सीढियां चढक़र वह तीसरी मंजिल की रसोई पर पहुंची। उसने वहां नींबू ढूंढे मसालों के साथ नींबू का रस दिया। गिलास लेते समय मैंने देखा। वह हांफ रही थी। उसकी आंखों में ममता थी। थकी, तरल, प्राणवान। मैंने रस पी लिया। मां लेट गई। मैं भी।

”तुम किसी लडक़ी से दोस्ती कर लो” मां ने धीरे से कहा। मैंने चुपचाप सुना। उसका आशय समझा। मां की उमर, संस्कार, परंपराओं, कल्पना में लडक़ी से दोस्ती की कोई अवधारणा नहीं थी। वह कुछ और कहना चाहती थी। वह कुछ और कह रही थी। उसकी भाषा, उसकी अभिव्यक्ति सीमित थी। उसकी दृष्टि, उसके अनुभव बहुत बडे थे। मैं हैरान था कि उसे कैसे मालूम हुआ। मैं कुछ नहीं बोला। मैंने करवट बदल ली। मुझे फिर उल्टी नहीं आई। मैं सो गया। मां शायद जागती रही।उसके लिए सुबह होने वाली थी। चिडियों के परों की फडफ़डाहट रोशनदान पर थी।

एक दिन मैं लडक़ी को घर ले आया। उस लडक़ी के सौंदर्य में एक गरिमापूर्ण शांति थी। पारंपरिक, घरेलू लडक़ियों सा चेहरा था। चमकता हुआशालीन। मां ने उसे ऊपर से नीचे तक देखा। उसे देखकर खुश हुई। वह मां के पास बैठ गई।

”इसकी शादी हो रही है। दस महीने बाद हम पुराने दोस्त हैं।” मैंने कहा।

मां ने मुझे देखा। एक क्षण के लिए उस दृष्टि में बहुत कुछ कौंधा। दुखयातनाममतानैराश्य मैंने सर झुका लिया।

”तुम बात करो मैं ऊपर बैठता हूं” मैंने मां से कहा। मां कुछ नहीं बोली। मैं ऊपर वाले कमरे में आ गया। ऊपर एक छोटा कमरा था जो हमारे घर के अतिथियों के लिए था। वह खाली रहता था। उस तक जाने की सीढियां इसी कमरे से जाती थीं। कमरे में पहुंचने का वही रास्ता था।

मैं ऊपर चला गया। वह मां के पास बैठी रही। कुछ देर बाद सीढियों से ऊपर आई वह। गहरी सांसें लेकर बैठ गई।
”कितना अजीब लगता है इस तरह उठकर आना। तुम्हारी मां की आंखें डरावनी थी। जैसे गुस्से से घूर रही हों। मैं अब नहीं आऊंगी।”
”आंखों में जब सपने नहीं होते तो वे डरावनी हो जाती हैं।”
”फिर भी उन्हें कितना खराब लगा होगा। क्या सोच रही होगीं मेरे बारे में?”
”उन्हें वह कभी खराब नहीं लगेगा जो मुझे सुख देता है।”

”पता नहीं।” उसने फिर गहरी सांस ली। वह सांस उसके गले की नीली नस के अंदर तक गई। कुछ देर तक वह नस कांपती रही। मैंने उसकी नस को छुआ। फिर उसकी उंगली के नाखून को।
”डरो मत। मां नीचे है।यह कमरा हमारे प्रेम करने के लिए अब इस धरती की सबसे सुरक्षित जगह है।”
उसने मुझे देखा फिर सर झुका लिया।

उसके बाद वह शादी से पहले तीन बार और आई। मां ने उसके बारे में मुझसे कभी कोई बात नहीं की। वह मां को अच्छी लगती थी जिस दिन उसे आना होता, पता नहीं कैसे, पर मां समझ जाती।
”कोई आ रहा है क्या?” वह दूसरी तरफ़ देखती हुई पूछती।
”हां” मैं दूसरी तरफ़ देखता हुआ कहता।

वह जब आती मैं ऊपर कमरे में होता। मां उसे कुछ देर अपने पास बैठाती उसके घर, उसके होने वाली ससुराल, पति के बारे में पूछती उसका भय, उसकी हंफन, जब दूर हो जाती तब मां धीरे से उसकी पीठ पर हाथ रखती।
”जाओ।”
वह उठ जाती। मां सीढी क़े पास कोई काम लेकर बैठ जाती। उधडे हुए ऊन का गोला बनाने लगती या कोई कपडा सीने लगती।

शादी के बाद दो बार फिर आई थी वह। तीसरी बार जब आई तब मां बनने वाली थी।मां ने उसे कुछ हिदायतें दीं। उन हिदायतों में धूप भी थी।

दो साल बाद मां बीमार हुई। मरणासन्न थी वह उसकी आठ संतानें थीं। मैं सातवां था सब आ गए थे उसके पलंग के चारों तरफ़ हमेशा उसके आत्मीय रहते सब उसकी सेवा करते वह अपने जीवन से पूरी तरह संतुष्ट थी शायद मृत्यु से भी एक संपन्न, समृध्द, स्वस्थ परिवार छोड रही थी।

मैं कमरे में कभी-कभी उसे देख लेता। आते या जाते हुए उसकी देह और पतली हो गई थी। उसका चेहरा सिकुड ग़या था। एक दिन एकांत था कमरे में मैं उसे फल देकर लौट रहा था उसने रोक लिया मुझे वह लेटी थी उसने पास बैठने का इशारा किया मैं बैठ गया।

”तुम अकेले हो जाओगे” मां ने धीरे से कहा उसकी बोलने की शक्ति खत्म हो गई थी वह फुसफुसा रही थी मैं कुछ नहीं बोला मां ने मेरा हाथ दबाया।

”कोई देखने वाला भी नहीं है” शायद वह कहना चाहती थी,”कोई अब रक्षा करने वाला भी नहीं है”

”वह कहां है?”

”आज कल यहीं हैं।”

”मुझे लगा था। मैं मिलना चाहती हूं।”

मैंने मां को देखा उसकी बुझी, बंद होती आंखों में ममता थी वैसी ही जैसी उस रात थी मैं उठ गया मैंने फ़ोन पर उसे बताया कि मां मिलना चाहती है वह आई मां के कमरे में मैं उसे छोड आया बाहर आकर सीढियों पर बैठ गया कुछ ही देर बाद वह बाहर आ गई उसकी आंखें बता रही थी कि वह अंदर रोई थी

”क्या हुआ?” मैंने पूछा

”कुछ नहीं”

”मां ने क्या कहा?”

”मेरा हाथ पकडे रही उन्होंने कहा है कि उससे कहना ले जाने के पहले कुछ देर मुझे धूप में लिटा देगा” वह फिर रोने लगी।

तीन दिन बाद मां मर गई परिवार के सब लोग उसके पलंग के चारों ओर थे उसकी पूरी देह चादर से मां को देखकर गिलहरी की याद आई थी मां के प्राण वहीं से निकले थे।

सत्रह साल बीत गए थे मैं उसी कमरे में था धूप उसी तरह कमरे में दो बार अब भी आती थी धूप का टुकडावहीं, उसी कुर्सी पर आता था मां अब वहां नहीं थी मैं उस कुर्सी पर कभी बैठ जाता मैं अपनी देह उस धूप में देखता बहुत कुछ जो मुझे वैसे नहीं दिखता था, देह में चमकने लगता जैसे मां की देह में चमकता था वैसी ही गलती हुई देहमुडे पांव, सफेद, बिना स्वप्न की डरावनी आंखेंझुर्रियों के पहले की खाल गहरे सूखे रंध्र।

एक दिन मैंने ध्यान दिया कि कमरे में धीमी-सी चींचीं की आवाज़ किसी कोने से आती है कुछ क्षण बाद बंद हो जाती हैफिर आती है इस बीच अगर मैं उठता था या हिलता भी था तो आवाज़ एकदम से बंद हो जाती थी जैसे कोई मुझे देख रहा हो।

मेरा घर पुराना है मेरे कमरे में अक्सर जानवर रहते हैं तिलचट्टा, चूहे, छिपकली, मकडी सामान्य बात है साल में एक बार सांप भी निकल ही आता है नेवला जाली से आ जाता है मैंने सोचा कोई झींगुर या चिडिया होगी आवाज़ बनी रही हफ्तों तक मैं समझ नहीं पाया, कौन है।

फिर सर्दियों के आखिरी दिन थे कमरे में धूप थी मैं कुर्सी पर बैठा था धूप का एक टुकडा फर्श पर फैला था अचानक मेरी नज़र फर्श पर गई एक छोटा-सा गिलहरी का बच्चा वहां बैठा था मेरे पंजों के पास बहुत छोटा था वह किसी तरह चलना सीख पाया था पता नहीं कब, कैसे वहां आ गया था धूप को देखकर शायद पैर मोडे, दो हाथों से मुंह रगडता हुआ जैसे कह रहा हो यह दुनिया, यह धूप, मेरी भी है।

मैं हैरानी और खुशी से उसे देखता रहा समझ में आ गया कि चींचीं की वह आवाज़ इसी की थी ऊपर पर्दे के पीछे कहीं, किसी कोने में यह जन्मा होगा दुनिया पर पूरी दावेदारी के साथ, पूरे अधिकार के साथ वह इस धरती पर आया था वह एक संपूर्ण जीवन दर्शन की तरह मेरे सामने बैठा था मूक पर प्रभावी, नन्हा पर प्रतिबध्द अपने दोनों हाथों से वह मुंह रगड रहा था उत्साह, आनंद, कौतुक और चपलता के साथ कमरा उसकी उपस्थिति से भर गया था उसके विश्वास, उसकी गरिमा के साथ, जैसे चमकती, सेंक देती हुई धूप से भरा था मैं उसे देखता रहा मुझे लगा वह बच्चा भी मां की तरह कुछ बुदबुदा रहा है शायद सूर्य की स्तुति अचानक मेरा पैर हिला वह चौंका और कूदता हुआ सोफ़े के नीचे चला गया दीवार के साथ सोफ़े लगे थे उनके नीचेउनके बीच में जगह थी वहीं बहुत से कुशन थे मैंने तय कर लिया कि उसे पालूंगा कुछ खाने को दूंगा तो वह कमरे में रह जाएगा यहां वह सुरक्षित होगातब तक, जब तक बडा नहीं हो जाता।

कुछ देर बाद मैं कुर्सी से उठा मैंने चाय बनाई एक किताब लेकर मैं सोफ़े पर बैठ गया कुशन का सहारा लेकर देर तक किताब पढता रहा कुछ देर बाद मैं उठा कुशन ठीक करने के लिए घूमा तो मेरी चीख निकल गई भय और पीडा से मेरा चेहरा सफ़ेद हो गया फर्श पर कांपता हुआ मैं बैठ गया कुशन के पीछे वह नन्हा बच्चा मरा पडा था पता नहीं कब खेलता हुआ वह कुशन के पीछे छुप गया था पता नहीं, कब वह मेरी पीठ से दब गया था पता नहीं कब मर गया था मैं उसे देख रहा था उसका पूरा शरीर कुशन के नीचे दबा था सिर्फ़ छोटा-सा उसका मुंह बाहर निकला थाखुला हुआ लंबापतलाजैसे चादर से

उसके प्राण वहीं से निकले थे ।

धूप मेरे कमरे में अब भी पहले की तरह आती है सर्दियां जाते समय और सर्दियां शुरू होते समय मैं जानता हूं सूर्य से मृत्यु का कोई संबंध नहीं है सूर्य जीवन का आरंभ है, मृत्यु जीवन का पटाक्षेप सूर्य से कोई मृत्यु नहीं मांगता, मृत्यु से कोई प्रकाश नहीं मांगता पर मेरे कमरे में ऐसा नहीं है वहां सूर्य मृत्यु का घोष है, मृत्यु सूर्य का दान है सूर्य के आलोक में मृत्यु है, मृत्यु की अनंत नीरवता में सूर्य है।

मैंने कई बार चाहा, पर कमरा मुझसे छूट नहीं पाता कमरा अनश्वर स्मृतियों से, गंध से, धूप से भरा है।धूप के टुकडे पर मैं अब नहीं बैठता उस चमकदार खंड को चुपचाप देखते हुए बस सोचता रहता हूं उस नवजात, अबोध गिलहरी के बच्चे की हत्या मैंने की थी एक निष्कलुष, जाग्रत, उल्लासित जीवन की मेरी तरह यह पूरी सृष्टि उसकी भी थी धूप के टुकडे से मृत्यु तक की उसकी छोटी-सी यात्रा, वस्तुतः जीवन की एक अव्याख्यायित, अपरिभाषित महाख्यान थी वह महाख्यान अब एक निस्पंदित लौ की तरह हमेशा मेरे शेष जीवन को आलोकित करता रहता है।
प्रियंवद
(जन्मः २२ दिसम्बर १९५२, कानपुर)
य़था नाम तथा गुण। उलझी-सुलझी मनछूती कहानियों के सफल कथाकार।

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