अपनी बातः स्वप्न और सृजन

बधाई…बधाई…बधाई। बधाई अपनी षोडषी लेखनी को।
मौसम बासंती है, हरित है और स्वप्न व सृजन दोनों सक्रिय हैं प्रकृति के कण-कण और जीवन के कोर-कोर में। एकबार फिर डैफोडिल्स और क्रोकस ने सूखे पत्तों के ढेरों के बीच से लिर उठाना शुरु कर दिया है। फिर लेखनी तो सारे झंझावतों को सहती अपनी साहित्य यात्रा के सोलह वर्ष पूरे करके सत्रहवें वर्ष में प्रवेश कर रही है इस अंक के साथ। इसका यह अथक और जोशीला जुनून बस मौसम का ही तो मोहताज नहीं। साहित्य संस्कार और समाज के प्रति समर्पण से जन्मी लगन और आप जैसे समर्पित लेखक मित्र और पाठकों से सीधा वैचारिक संवाद है लेखनी। आप ने ही इसे सींचा-संवारा और निखारा है निरंतर पिछले सोलह साल से। और यह उपलब्धि संभव हुई हमारे आपसी प्रेम-प्यार की वजह से। हमारी मिलीजुली मेहनत का ही परिणाम है लेखनी ।
हमेशा की भांति बहुत कुछ रोचक संजोया है हमने लेखनी के इस नूतन अंक में , जिसका मुख्य विषय एक बार फिर प्रेम और उल्लास है। जीवन और रिश्तों के सुख-दुख, आकर्षण और विकर्षण हैं। इस बार होली और मदर्स डे दोनों ही आठ मार्च इतवार को पड़ रहे हैं। और नारी दिवस भी। फलतः माँ के प्यार को भी संजोया है हमने। बासंती मौसम पर भी सामग्री है और आने वाले मुख्य त्योहार होली पर भी कई नई व पुरानी रचनाएँ संकलित की गई हैं। उम्मीद है यह इंद्रधनुषी संयोजन आपको आलोड़ित और पुलकित तो करेगा ही साथ में मंथन और विमर्ष भी देगा।
सोलह वर्ष पहले लेखनी का पहला अंक आठ मार्च 2007 को आया था, और आठ मार्च को पूरा विश्व महिला दिवस की तरह मनाता है। फलतः केन्द्र विषय नारी ही थी उस अंक में । नारी और नारी सशक्तिकरण आज भी एक बड़ा सामाजिक मुद्दा है। समाज तो भ्रमित है ही, आधुनिक नारी भी कम भ्रमित नहीं ! बाहर से तो कई बदलाव आए हैं इसमें पर आंतरिक नहीं। न नारी बदली है और ना ही समाज ही। नारी पर भी कुछ सामग्री है। विशेषतः कविताा। प्रेम के साथ-साथ एक तिरंगी और अनूठी छटा लिए है यह अंक।
लगातार रुचि अनुसार समसामयिकी कई विषय छुए हैं लेखनी ने जो मन और जीवन को प्रभावित करते हैं, दैनिक जीवन में चिंतन और विमर्ष का विषय बनते हैं। आकर्षण की बात की जाए तो प्रेम से अधिक भला किस में यह चुम्बकीय शक्ति होगी? आश्चर्य नहीं प्रेम पर केन्द्रित चौथा अंक है यह लेखनी का। और इसबार हमने चुना है प्रेम का एक और स्थाई भाव- ऐतबार या भरोसा। विश्वास ही तो प्रेम की वास्तविक ताकत है। अगर यह साथ न दे, टूट जाए तो बेवफाई या धोखा बन जाता है। परन्तु हर चीज की तरह सफेद और काले दोनों पहलू हैं एतबार के भी -जैसा कि अंक में संजोइ कविता , कहानी और आलेख दर्शाते हैं-कई उल्लास से भरी रचनाएँ हैं, तो कुछ धोखे की कालिमा के अंधेरे में डूबी भी। चार नई कहानियाँ हैं अंक मेंः कोई शांत निर्वीकार सी बहती, कोई बहुत कुछ कहती, तो कोई रहस्य और रोमांच से भरी हुई तो कोई अतीत में गूंजती-सी। पर हर रचना पठनीय और विचारणीय। हम स्वागत कर रहे हैं इस अंक में मनीष वैद्य जी का उनकी खूबसूरत कहानी खिरनी के साथ। पंडित नरेन्द्र शर्मा जी के अविस्मरणीय प्रेमगीत पूजा-सी पावन सुगंध लिए हुए हैं। और भी बहुत कुछ है इस अंक में जो आपको बांधेगा। बहुत कुछ है जो रोचक है। अधिक न कहकर कहूंगी-पढ़ें, बहें और डूबें इस चतुर्मुखी छटा लिए प्रेम-विशेषांक में ।
फिर सारी बात एतबार की ही तो होती है प्यार में भी और जिन्दगी में भी। ऐतबार या भरोसा टूटा तो सब छूटा। इसीके लिए तो सारे वादे किए जाते हैं। इसी के भरोसे तो सपने आने लगते है और फिर फलते-फूलते या बिखरते और टूटते भी हैं। इसी के सहारे इन्सान सबकुछ जीत या हार भी तो जाता है। बड़ी-बड़ी लड़ाइयां, दुश्मनी, सब इस ऐतबार के टूटने का ही तो नतीजा हैं। जैसे कि रूस या यूक्रेन की लड़ाई…पैलेस्टाइन और इजरायल की लड़ाई-जहाँ अपने ही आपस में लड़ रहे हैं, एक दूसरे को मार रहे हैं। ईर्षा, जलन, क्रोध , क्षत-विक्षत एतबार की ही तो औलादें हैं। प्रार्थना है कि ईश्वर इन्सान का यह आपसी प्रेम और ऐतबार बनाए रखे, भविष्य में शांति बनाए रखे , तकि मानवता जिन्दा रह पाए। वर्तमान युद्ध और भय के वातावरण में विश्व चिंतित है कि कहीं तीसरा महायुद्ध न हो जाए।
स्वप्न और सृजन एतबार के सकारात्मक पहलू हैं। महीना मार्च का हो या फागुन का, कोई भी देश या परिस्थिति हो,विश्वास है तो आस है। और अगर आस है तो अंधेरे से अंधेरे बादल में भी रौशनी की लकीर दिखती है। मन का मौसम बासंती हो तो स्वप्न और सृजन दोनों ही, स्वतः सक्रिय हो जाते हैं । यही प्रक्रति है, यही सृष्टि है और यही हमारी शाश्वत निरंतरता का राज भी। परन्तु पिछले कई बसंत विश्व में महामारी से फालिज और युद्ध की कालिमा के नीचे आहत गुजरे हैं । वर्तमान असहज होते वातावरण में आणविक युद्ध की आशंका बढ़ती दिखने लगती है। इसे रोकना ही होगा। जीने के लिए जरूरी हो गया है कि हम मनःस्थिति और सोच दोनों को ही बदलें। युद्ध की नहीं, प्रेम की बात करें। सुख-शांति के बारे में सोचें। मस्तिष्क को आराम दें बड़े-बड़े और शक्तिशाली देश के नेता , ताकि सब एक-दूसरे पर फिरसे भरोसा करें। सुख-चैन से रह सकें। चैन पर ध्यान आया यह एतबार शब्द कहीं इतवार से तो नहीं जुड़ा? प्रिय का हाथ हाथ में आते ही अहसास का मौसम भी तो पलट ही जाता है। बेफिक्र होकर मुंह मोड़ लेता है इन्सान सारी परेशानी और तकलीफों से। यह प्रेम की ही ताकत है कि वीराना भी गुलजार नजर आने लगता है । कानून की तरह प्यार की आँखों पर भी पट्टी बंधी रहती है शायद । इतना निश्चिंत हो जाता है आदमी कि कई बार तो पूरी दीन दुनिया तक से मुंह मोड़ एक दूसरे में ही खो और डूब जाते हैं प्रेमी।
आप भले ही इसे शरारत कहें पर एक मीठी सी चेतावनी देने से नहीं रोक पा रही हूँ खुद को , संदर्भ जब प्रेंम प्यार का है- इश्क भले ही एक दरिया हो जिसमें निरंतर डूबे ही रहने को मन करता है, पर दिल तो एक नाजुक-सी कश्ती है। इसे ज्यादा दरिया में उतारना ठीक नहीं। आज के इस तूफानी माहौल में तो हरगिज नहीं। ज़नाब मलिकज़ादा मंज़ूर अहमद साहब का एक शेर है –
दरिया के तलातुम से तो बच सकती है कश्ती
कश्ती में तलातुम हो तो साहिल न मिलेगा।
तो ऐसे नाजुक से दिल का,अपना और अपनों का ध्यान रखिए। कश्ती दरिया में उतारिए परन्तु तूफानों से बचिए। लेखनी का अगला अंक हमने सच-झूठ पर रखा है- क्या है इनकी परिभाषा, कितना फर्क है दोनों में और क्या आप मानते हैं कि सत्यमेव जयते -ही सच है आज भी? फिर सच कहना, सच सहना इतना आसान भी तो नहीं। और फिर आधा सच भी तो है सच और झूठ के बीच में। जिसने पाण्डवों के गुरु दृढ़ धनुर्धर द्रोणाचार्य को भी पूरी तरह से तोड़ दिया था। क्या सही है इस आधे सच का अस्तित्व ! विषय पर क्या विचार हैं आपके? अभी से सोचें और लिखें। रचना भेजने की अंतिम तिथि 20 अप्रैल है।
अपने उन सभी साथी जैसे-सरस्वती माथुर, प्राण शर्मा, अशोक गुप्ता, विजय सत्पत्ति की बहुत याद आ रही है, जो आज हमारे बीच नहीं हैं। आशु कवि थे ये। इतनी रचनायें भेजते थे कि भीड़ लगी रहती थी। उनको स्मृति को नमन और भावांजलि देती है लेखनी। वक्त की धार को पकड़ा नहीं जा सकता। आभारी हूँ प्रभु की आज भी ऐसे मित्र हैं लेखनी के पास, जो सचमें इसके हितैषी हैं और नियमित रचनायें भेज रहे हैं। बड़ी निष्ठा और प्रेम के साथ लेखनी/Lekhni का साथ निभाया है इन्होंने।
स्वप्न स्वप्न ही रह जाता है यदि अपनों का सहयोग न मिले। विशेष आभार देना चाहूंगी अपने सभी मित्रों का जिनकी लेखनी से इस लेखनी को प्रवाह और यह उर्जा मिल रही है। मैं आपको ही संबोधित कर रही हूँ, आप ही वह मित्र हैं जो सदा तत्पर रहते हैं अपनी रचना और वैचारिक सहयोग के साथ। शब्द कम पड़ रहे हैं आभार में। परन्तु फिर भी आभार..आभार…आभार।
लेखनी के इस वर्षगांठ विशेषांक के साथ पुनः पुनः धन्यवाद मित्रों।
आपके साथ, आपकी रचना और आपके विचारों का लेखनी को सदा इन्तजार रहेगा।

शैल अग्रवाल
shailagrawal@hotmal.com

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