साथी सांझ लगी अब होने !
साथी सांझ लगी अब होने !
विस्तृत वसुधा के कण-कण में,
फैलाया था जिन्हें गगन में,
उन किरणों के अस्ताचल पर
पहुँच लगा है सूर्य सँजोने!
साथी सांझ लगी अब होने !
खेल रही थी धूलि कणों में,
लोट-लिपट गृह-तरु-चरणों में,
वह छाया, देखो जाती है
प्राची में अपने को खोने!
साथी, साँझ लगी अब होने!
मिट्टी से था जिन्हें बनाया,
फूलों से था जिन्हें सजाया,
खेल-घरौंदे छोड़ पथों पर
चले गए हैं बच्चे सोने!
साथी, साँझ लगी अब होने!
जाओ कल्पित साथी मन के !
जाओ कल्पित साथी मन के!
जब नयनों में सूनापन था,
जर्जर तन था, जर्जर मन था,
तब तुम ही अवलम्ब हुए थे
मेरे एकाकी जीवन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
सच, मैंने परमार्थ ना सीखा,
लेकिन मैंने स्वार्थ ना सीखा,
तुम जग के हो, रहो न बनकर
बंदी मेरे भुज-बंधन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
जाओ जग में भुज फैलाए,
जिसमें सारा विश्व समाए,
साथी बनो जगत में जाकर
मुझ-से अगणित दुखिया जन के!
जाओ कल्पित साथी मन के!
-हरिवंशराय बच्चन
हरिवंश राय बच्चन (27 नवम्बर 1907 – 18 जनवरी 2003) हिन्दी भाषा के एक कवि और लेखक थे। वे हिन्दी कविता के उत्तर छायावाद काल के प्रमुख कवियों में से एक थे । उनकी सबसे प्रसिद्ध कृति मधुशाला है।
साथी सांझ लगी अब होने हिंदी साहित्य जगत के सुप्रसिद्ध साहित्यकार हरिवंशराय बच्चन जी की काव्य रचना बहुत ही सुंदर है ।