कविता में इन दिनों : यतीन्द्र मिश्र
युवा कवियों के बीच शब्द, संवेदना और संस्कृति को लेकर जिस शख्स के यहां सबसे गहरी चिंता देखी जाती है वह हैं यतीन्द्र मिश्र। अयोध्या निवासी यतींद्र मिश्र के भीतर शुरु से ही कविता के प्रति एक कोमल किस्म की रागात्मकता रही है। अपने पहले दो संग्रहों से यतींद्र ने कविता में भरोसे के साथ दस्तक दी पर बाद में आए ड्योढ़ी पर आलाप ने उन्हें एक संजीदा युवा कवि का दर्जा दिया। ललित कलाओं और संगीत में दखल के साथ लिखने और पूरी रसिकता के साथ उसे सम्मान देने वाले यतींद्र ने अपने समय के बड़े कवियों कुंवर नारायण, अशोक वाजपेयी, गुलज़ार पर काम किया है। गिरिजा देवी पर लिखी उनकी किताब ‘गिरिजा ‘ दरअसल एक चरितनामा है और सोनल मान सिंह पर उनकी किताब ‘देवप्रिया’ दिल से लिखी गयी किताब है जिसके दर्पण में हम उनकी शख्सियत की अनेक छवियां देख-निरख सकते हैं। उस्ताद बिस्मिल्लाह खॉं के साथ कई चरणों की बैठकी में यतींद्र ने उस्ताद की शहनाई की आत्मा में जैसे प्रवेश पा लिया हो। उन पर लिखी पुस्तिका जितने मीठे और शहदीले अंदाज में प्रस्तुत गयी है उतने ही पुरलुत्फ ढंग से उस्ताद के साथ बतकही भी की गयी है। यतीन्द्र ने एक साथ ललित कलाओं, कविता और संपादन को साधा है। पहले ‘सहित’ और अब ‘स्वर मुद्रा’ के संपादक के रूप में उनकी कीर्ति का बखान जितना किया जाय, कम है।
यतींद्र मिश्र की पैठ बेशक संगीत और ललित कलाओं में जितनी हो,पर वे मूलत: कवि हैं। कवि-मन वाले अज्ञेय की तरह;जिसका सारा समय साहित्य और कलाओं की संगत में बीतता है। उनके कविता संसार से एक सांस्कृतिक ताने बाने की प्रतीति होती है जिससे उन्होंने भाषा के अध्यात्म का सृजन किया है। जहां अयोध्या के होने के नाते हर शख्स राममय नज़र आता है, यतींद्र आस्थावादी होते हुए भी रूढ़ियों और अतार्किकताओं से मुक्त दिखते हैं। वे इधर कबीर की ओर उन्मुख हुए हैं तो यह उस राम की लीला ही है जिसकी खोज में योगीगण रमण करते हैं। कबीर की साखी, सबद और रमैनी को यतींद्र अपनी तरह से उलटते पलटते हैं और उनसे संवाद व जिरह करते हैं। ‘विभास’ उनकी कविता-कला का ताज़ा प्रमाण है। यहां वे कबीर के कहे गुने के आलोक में, उनके विभास और प्रभामंडल में अपनी कविता का ताना बाना बुनते हैं। वे उन्हें अपने भीतर उतारते ही नहीं, उन्हें उलाहना भी देते हैं। उनसे सवाल भी करते हैं। कहना न होगा कि अवध की मिट्टी की तासीर यतींद्र के काव्य में विद्यमान है।
‘लेखनी’ की इस लेखमाला के अंतर्गत नंद किशोर आचार्य, अरुण कमल, वर्तिका नंदा, भगवत रावत, विनोद कुमार शुक्ल, ओम भारती, प्रतापराव कदम, संजय कुंदन, तजिन्दर सिंह लूथरा, पुष्पिता अवस्थी, ज्ञानेन्द्रपति, नरेश सक्सेना, अशोक वाजपेयी, एकांत श्रीवास्तव,सवाईसिंह शेखावत, सविता भार्गव व लीलाधर जगूड़ी,प्रभात त्रिपाठी,अरुण देव, सविता सिंह, ज्योति चावला,पवन करण व मंगलेश डबराल के बाद हाल ही में प्रकाशित यतीन्द्र मिश्र के कविता संग्रह ”विभास”पर डॉ.ओम निश्चल का आलेख।
कविता संग्रहः विभास,
कवि:यतीन्द्र मिश्र
वाणी प्रकाशन, 21 ए, दरियागंज,नई दिल्ली। मूल्य 125/-
कृतज्ञता का सत्व
हमारे समय में समसामयिकता का इतना बोलबाला है कि कोई कवि जब अपनी परंपरा से जुड़ता है तो उसे किंचित संशय की निगाह से देखा जाता है। लेकिन उसी परंपरा से आती हुई सदियों के आगे की आवाज़ को सुनता हुआ कवि जब कबीर जैसे कृती कवि की बगल में बैठ कर उससे संवादमयता का एक सघन रिश्ता बनाता है तो जैसे कवि के शब्दों में कृतज्ञता का सत्व उतर आता है। भि”विभास” में यतीन्द्र मिश्र कबीर जैसे जुलाहे कवि से शब्दों को बुनने गुनने और रचने का सलीका सीखते हैं जो उनके इस संग्रह में मुखरता से दीख पड़ता है। कबीर की अनहद सुनते हुए वे जब कबीरी प्रत्ययों को आज के आलोक में बरतते हैं तो जैसे काल का सदियों का अंतराल सिमटता हुआ महसूस होता है। इन कविताओं में अशोक वाजपेयी ने अनश्वरता के उजाले की खोज की है तो लिंडा हेस ने कबीर के प्रतिबिम्बों के एक नये आभास की बुनावट लक्षित की है। कबीर मर्मज्ञ पुरुषोत्तम अग्रवाल ने इन कविताओं में कवि के खुद के अनुभवों को कबीर की वाणी के आलाप में ढलते देखा है। मनीष पुष्कले कहते हैं, इन कविताओं की साख—कथन की कथरी, बिरह के बीज और रहस्य की राख़ से ओतप्रोत है और कबीर को गाने वाले प्रहलाद सिंह टिपान्या इसे यतीन्द्र के अंतर की अभिव्यक्ति मानते हैं। कभी देवीप्रसाद मिश्र ने एक बातचीत में यह कहा था, ‘यतीन्द्र की कविताओं में अवध की कूक, अवसाद और वक्रता है।’ गुलजार ने ऐसा ही भरोसा यतीन्द्र में जताया है। एक सम्मोहित आलोक से भरी यतीन्द्र की कविताओं से गुजरते हुए लगता है, यह युवा कवि है तो सगुण भक्ति वाले राम की अयोध्या में जनमा, जहॉं लोक में यह श्रुति है कि ‘हम ना अवध मा रहबै हो रघुबर संगे जाब।‘ —पर निरगुनिया कबीर के पड़ोस में बैठ कर वह जैसे उन्हीं की साखियों को सदियों बाद अपने शब्दों में उलट-पुलट रहा है।यतींद्र एक कविता ‘न जाने कौन सा धागा है’ में कहते हैं:
न जाने कौन सा धागा है जो बांधे रखता हमको दुनिया भर के तमाम रिश्तों में न जाने किस फूल से उपजा कपास है जो ढके रखता हमारी तार-तार हो चुकी गाढ़े प्रेम की रेशमी चुनरीन जाने कहॉं से आए हुए लोग हैं जो थामे रहते हमारीजीवन-तानपूरे की खुलती जाती जवारी।
कबीर ने सूत, कपास, जुलाहा, काशी, मगहर, अयोध्या, चादर, घाट, तम्बूरा, अनहद, पनघट, करघा, सुई, ताना-बाना, फ़कीर, निरगुनिया, इकतारा,गागर, बजार, लुकाठी, भाखा जैसे शब्दों से तमाम आशयों, रूपकों को साखी, सबद तथा रमैनी में ढाला तथा जीवन – जगत के रहस्य को उद्घाटित किया। कबीर अपने समय के युगद्रष्टा कवि थे जिन्होंने कर्मकांड, पाखंड, अज्ञान, अविद्या आदि से लिप्त संसार की आसक्तियों और विडंबनाओं को उजागर किया। धर्म और जातीयता का धंधा शायद मनुष्यता के जन्म से ही इस धरती पर फूल फल रहा है; कबीर ने इसकी व्यर्थता पर खुल कर प्रहार किया। ऐसे कवि की कही साखियों और पदों को पढ़ कर जब आज का एक युवा कवि प्रतिकृत होता है तो वह एक तरह से समकालीनता के चालू अर्थो में अपने को रिड्यूस होने से बचाने का उपक्रम भी करता है। वह कबीर से जुड़ कर समकालीनता से शाश्वतता की ओर यात्रा करता है। वह कबीर के समय के पदों- प्रत्ययों को नए अर्थ-आशयों में उतार कर देखता है। वह कविता में सनातनता के फूल खिलाता है। ‘इकतारा’ को केंद्र में रखते हुए यतींद्र कहते हैं,”धरती इकतारा है उस निर्गुनिये का/ तार है जिसका चंद्रमा/ उसके निराले सुर में गूँजता है ब्रह्मांड/उसके बजने में चंद्रमा का स्पर्श और पुनर्वसु का स्वर लगता है।”
कबीर ने हाथ में लुकाठी लेकर कहा था, जो घर फूँकै आपना चलै हमारे साथ। कबीर जिस बाजार की ओर इशारा कर रहे थे, आज का बाजार बिल्कुल उससे उलट है। यतींद्र इस बाज़ार को अपनी तरह से रचते हैं और कहते हैं,”कभी बाज़ार में खड़े होकर बाज़ार के खिलाफ़ देखो/जरूरतों की गठरी कंधे से उतार देखो/ किसी की ख़ैर में न सही अपने लिए ही/ लेकर हाथ में जलती एक मशाल देखो।” बाज़ार के वशीभूत आज के समय में यह कितना मुश्किल है पर नामुमकिन तो नहीं। तब जो माया एक ठगिनी के रूप में दीख पड़ती थी, आज वह बहुरूपिया पूँजी के रूप में दृश्यमान है। कौन बच सका है माया से या बाज़ार से! ताना और भरनी या सूत और कपास के तमाम अजाने अर्थों की ओर कबीर हमें ले जा चुके हैं। पर प्रेम के ताने और विश्वास की भरनी से जो बिछावन हमने बुनी वह दिन ब दिन फटती ही चली गयी। इस कवि की चिंता यही है कि प्रेम का वह ढाई आखर आज कहां बिला गया है। कबीर ने भले कहा हो, हमन को होशयारी क्या। पर अब होशियारी के बिना काम नहीं चलने वाला। इसलिए यतींद्र कबीर के कहे का यत्र-तत्र प्रत्याख्यान भी करते हैं।
यतींद्र यहां अपनी कविताओं में कई प्रश्न उछालते हैं। वे पूछते हैं क्या तुम सच बोल कर बचे रहने की कला सिखा सकते हो? क्या समय आ गया है कि सच बोल कर महफूज रह पाना कितना कठिन हो गया है। वे यह भी पूछते हैं कविता हमें क्या देती है? क्या पानी? कतई नहीं क्योंकि यह तो कविता का पनघट है जहां शब्दों की गागर भरी जाती है और इसकी डगर वाकई कठिन है। वे घर फूँक कर अपने साथ चलने की हॉंक लगाने वाले कबीर से पूछते हैं कि हम अपने घर जला देंगे तो कहॉं जाएँगे?वे यह भी कहते हैं कि क्या फर्क पड़ता है कि अयोध्या में पद की जगह कोई सबद गाए। पर सन्मति के अभाव की इस वेला में हम अपने पुरखों खुसरो, नानक, कबीर, रहीम और रसखान की सीखें जैसे भूल गए हैं। हम वे बंदिशें भूल गए हैं जो भाषा और लय की सराय हैं, जहां कलंदर और सूफी भटकते पाए जाते हैं, जिनके अर्थ में मन्नतें टँकी होती हैं, नए नए रागों के फूल उग आते हैं जिसके बगैर जीवन और सुर की थाप दिन ब दिन कम होती जाती है।
कबीर की बानी में जीवन में मानी छिपे हैं, तभी तो आस्था के भार से आच्छादित मंदिरों के जीर्णशीर्ण नगर में आदमी का चोला जरूर रंगा जाता है, मन अनरंगा ही रह जाता है । जबकि काशी अयोध्या और मगहर मन के कपास को रंगने की ही नगरियां रही हैं। यों तो संग्रह की अनेक कविताएं कबीरी रंग में ही रंगी हैं। पर कई कविताओं में यतींद्र ने अपने रूपक रचे हैं जैसे ‘दुख के कुंऍं में’,’बिना डोर की गागर है’ –सांगरूपक जैसी गठन से भरी हैं। उन्होंने टिपान्या की कबीर-गायकी पर ‘मेरे राम गाड़ीवाले’ जैसी सुंदर कविता लिखी है तो पलटूदास पर ‘प्रेम जोगी का घर’ जैसी कविता। ‘हम पर इतने दाग़ हैं’ कविता में यतींद्र कबीर द्वारा जतन से ओढ कर रख दी गयी चादर की ओर इशारा करते हैं तथा इस पर आश्चर्य करते हैं कि कबीर तो अपनी विपन्नता में भी चादर को मैली होने से बचाए रहे और हम जैसे संसारियों की चादर मैली हो गयी। हमारे पास बार बार बिछाने के लिए वही एक मैली चादर।
इस संग्रह का आखिरी खंड जैसे कबीर की शख्सि़यत की चरितगाथा हो— उन्हें अपनी चेतना में उतारने की कोशिश जैसे एक गायक करता है, वैसे ही एक कवि भी। कबीर के कवि-चित्त को आंकने वाले इस संग्रह की आखिरी कविता ‘साखियों के कटोरे में’ ऐसे डूब कर लिखी गयी है जिसे कोई कवि का वंशज ही लिख सकता है। भाषा के गारे से एक अव्यक्त और सुगठित घर की नींव रखने वाले कबीर आज भी पुराने नहीं पड़े हैं। वे सूफियों, दरवेशों, गायकों की बंदिशों में जीवित हैं। यतींद्र के शब्दों में ही कहें तो आज भी उनके शब्दों से नीरस हो चुके हमारे जीवन पर आघात पड़ता है। उनके दिये हुए अभिप्राय आज भी कुम्हलाए नहीं हैं। ‘विभास’ इसी आस्था और उपस्थिति के सम्मोहित आलोक से प्रतिभासित है।
– डॉ ओम निश्चल, जी-1/506 ए, उत्तम नगर, नई दिल्ली-110059
मेल: omnishchal@gmail.com phone 08447289976
शैल जी आभार। कविता में इन दिनों स्तंभ में सुपरिचित युवा कवि यतींद्र मिश्र पर मेरा आलेख प्रसारित करने के लिए। लेखनी अब अपने आकर्षण मेें नयनाभिराम है। बधाई।