हंसा दीप, पवन शर्मा, पूर्णिमा राघव शर्मा, सुभाष नीरव


बुद्धिजीवी
बस चली जा रही थी। अगले स्टॉप पर कुछ देर रुकी तो एक बहुत बूढ़ी महिला बस में चढ़ी। चूँकि कोई सीट खाली नहीं थी अत: वह डंडा पकड़े खड़ी रही। उसके पास वाली सीट पर एक बुद्धिजीवी-सा नवयुवक बैठा था। वह देख रहा था कि बस के बार-बार हिचकोले खाने से बुढ़िया को बड़ी दिक्कत हो रही थी। बेचारी बमुश्किल स्वयं को गिरने से बचा पा रही थी। उसने सोचा वह खड़ा हो जाए और बुढ़िया को बिठा दे पर न जाने क्यों वह उठा नहीं। सोचा, वह तो इतनी दूर से आ रहा है, वह क्यों उठे! और दूसरे यात्री भी तो हैं क्या कोई भी उसे बिठा नहीं सकता!
ऊँह बिठाना चाहता तो अब तक कोई बिठा ही देता, क्यों न वह ही उठ जाए! बिल्कुल, अब वह उठेगा और बुढ़िया को बिठा ही देगा। वह मन ही मन कई बार दुहरा चुका कि बुढ़िया से कहेगा– “माँजी आप बैठो…” और जब वह खड़ा होगा तो बस के सारे यात्री निश्चित ही उसकी दया से प्रभावित होंगे। सोचेंगे, कितना दयालु है यह! वह सोचता ही रहा और सोचते-सोचते उसे झपकी लग गयी। आँख खुली तब तक बुढ़िया उतर चुकी थी।

अपने बिल में

समर्थ जी बहुत खुश हैं। पिछले बीस सालों से विदेश में रहकर हिन्दी की सेवा कर रहे हैं परन्तु इन दिनों उनकी सेवा लोगों को दिखाई दे रही है। फेसबुक पर उनके पूरे पाँच हजार फ्रेंड्स हैं। पहले तो भारत जाकर रिश्तेदारों से मिल-मिला कर आ जाते थे पर इन दिनों भारत यात्रा की बात ही कुछ और है। फेसबुक के मित्र उनके लिये सम्मान समारोह रखते हैं। अब हर साल की एक भारत यात्रा पक्की कर ली है जिसमें कम से कम पच्चीस सम्मान समारोह न हो तो जाने का आनंद ही क्या! भारत से जब लौटते हैं तो अगली यात्रा के इंतज़ार में कई फूल मालाओं का वजन गर्दन पर महसूस होता रहता है। यहाँ की ठंड में मफलर पहनते हैं तो लगता है यह मफलर नहीं वे ही फूल हैं जो उन्हें इस ठंड में गर्मी दे रहे हैं।
इस बार उन्हीं मित्रों में से एक मित्र अनादि बाबू विदेश की सैर पर आए। अनादि जी की दिली इच्छा थी कि जैसा सम्मान उन्होंने अपने मित्र समर्थ जी का भारत में किया वैसा ही शानदार कार्यक्रम अनादि बाबू के लिये यहाँ किया जाए। बस यहीं आकर समर्थ जी फँस गए क्योंकि वे जानते थे कि उनके अपने शहर में उनकी कितनी इज्जत है, उन्हें कोई घास तक नहीं डालता। अब वे फूलों के हार उन्हें गले में लिपटे साँप की तरह भयानक लग रहे थे व फूँफकारते हुए साँप उन्हें बिल में घुसने के लिये मजबूर कर रहे थे।

भूख
“माँ भूख लगी है, खाना दो न, खाना कब दोगी?”
“जब रात हो जाएगी।”
“रात कब होगी?”
“जब सूरज डूब जाएगा।”
“सूरज कब डूबेगा?”
“जब अंधेरा होगा।”
“अंधेरा कब होगा?”
“जब मैं बिक जाऊँगी।”
“तो माँ अभी जल्दी से बिक जाओ न बहुत भूख लगी है।”

रिश्ते
बहू को ससुराल में प्रसव हुआ। दस दिन बाद उसे काम करने का आदेश मिला। कमजोरी के कारण उसे चक्कर आने लगते तो वह जाकर सो जाती। सास बड़बड़ाती – “कोई नवई का पैदा नहीं किया, हमारे भी कभी बच्चे हुए होंगे!” कुछ दिनों बाद उनकी बेटी को प्रसव हुआ। पंद्रह दिन बाद भी वह बिस्तर से उठ नहीं पा रही थी। वे दुलारती हुई कह रही थीं – “कमजोरी तो रहेगी ही, आदमी में से आदमी निकलना कोई हँसी-खेल है क्या!”

प्रमोशन

विशेष जी प्रवासी साहित्यकारों से कुढ़ते थे। वे सोचते, प्रवासियों की पाँचों उँगलियाँ घी में हैं। जब प्रवासी विशेषांक निकले तो उसमें छपते हैं और सामान्य अंक निकले तो उसमें भी छप जाते हैं। भड़ास निकलती- “ये पैसा कमाने के लिए विदेश जाकर बस गए हैं। इनको प्रवासी क्यों कहा जाए, विदेशी कहा जाए।”
अगले वर्ष इकलौते बेटे का प्रमोशन हुआ। बेटे की विदेश नियुक्ति के साथ वे भी विदेश आ गए। विचार समृद्ध हुए, कहने लगे- “प्रवासी ही हैं, जो वसुधैव कुटुंबकम की भारतीय मशाल समूचे विश्व में जलाते हैं।”

हंसा दीप


hansadeep8@gmail.com
Dr. Hansa Deep
1512-17 Anndale Drive,
North York, Toronto,
ON-M2N2W7, Canada
001 + 647 213 1817

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चिट्ठी

” क्या कह रहा था?”
” क्या कहेगा?… तबीयत कैसी है?… मम्मी कैसी हैं?… बस, और क्या… ”
” मिनट, दो मिनट में और क्या पूछेगा, क्या बात करेगा?… हर एक-दो दिन में फोन पर बात कर लेता है |”
” मोबाइल फोन पर रोज बात हो सकती है, पर वो बात नहीं लगती| वो अपनापन नहीं लगता |”
” क्यों, ऐसा क्यों कह रहे हो?… पहले तो फोन भी नहीं हुआ करते थे और महीनों – महीनों तक अपने किसी के हालचाल तक पता नहीं चलते थे | एकाध चिट्ठी आ जाती , तब पता चलता था |”
” चिट्ठी में लिखी बातों से ही तो अपनापन लगता था | एक – एक शब्द बार – बार पढ़ते थे चिट्ठी का और महीनों तक सम्भाल कर रखते थे… कितना अपनेपन का एहसास हुआ करता था चिट्ठी में!… है न!”

उसके जैसे और भी…
कुछ सोचो, हो कुछ जाता है… जैसा सोचा, वैसा नहीं हुआ जिंदगी में… उसके साथ भी कुछ ऐसा ही हुआ… उसके जैसे औरों के साथ भी!… बेहतर जिंदगी के लिए इधर-उधर भटकता रहा… पर जीवन स्थिर हुआ सालों बाद… उसके जैसे बहुतों का जीवन भी!
उसे याद है- घर के हालात ठीक नहीं थे… उसके जैसे बहुतों के घर के भी! पर पापा सबको हिम्मत देते रहते… सब ठीक होगा… ईश्वर पर विश्वास रखो… कितना संघर्ष भरा जीवन था उनका… उसके जैसे सबके पापा का जीवन भी! पहली जॉब क्या छोड़ी… पाँच-छः साल पीछे चला गया… उसके जैसे और लोग भी!
उसे आज फिर जॉब से निकाल दिया गया… उसके जैसे और लोगों को भी! जरा-सी बात थी… मैंनेजर ने उसकी कार्य क्षमता पर प्रश्नचिह्न लगा दिया… तकरार हुई… बहस हुई… अंत में हमेशा की तरह फिर से जॉबलैस हो गया… उसके जैसे और लोग भी!
“कहाँ जाओगे?”
“यहीं रहूँगा.”
“अब क्या करोगे?”
“फिर से जॉब सर्च करूँगा.”
“नहीं मिली तो.”
“क्यों नहीं मिलेगी.”
“फिर भी… यदि नहीं मिली तो?”
“मेरी योग्यता पर, मेरी क्षमता पर सवाल मत उठाओ… जरूर मिलेगी.”
“फिर भी?”
“फिर भी… फिर भी…”
वह बिस्तर पर झटके से उठ कर बैठ गया… शरीर पसीने से तर-ब-तर है… उसे आश्चर्य हुआ कि कौन उससे पूछ रहा है?… कौन सवाल कर रहा है?… वह चीखना चाहता है- कौन है?… कौन है?.. क्यों पूछ रहे हो?… पर आवाज गले में ही फंसी रह गई… उसके जैसे दूसरों के गले में भी!…

पवन शर्मा ( सुकरी-जुन्नारदेव/छिन्दवाड़ा (म.प्र)

स्वाभिमान

घर में अजीब सा सन्नाटा छाया हुआ था !शाम जब से पिताजी ने पांडे जी से फोन पर बात की तभी से पिताजी बेचैन और माँ उदास दिखीं ! मीनू दी को शायद वजह पता चल चुकी थी,उनकी तरफ इना ने प्रश्नवाचक नज़रों से देख जानना चाहा तो दीदी नज़रें चुरा आंसू पोंछ रही थीं ! शायद पांडे परिवार ने ‘पसंद ‘ की मोहर नहीं लगाई !
कल सुबह से ही घर में हलचल मची थी ! लड़के वालों की आवभगत में कोई कमी ना रहे सो घर को दुल्हन सा सजाया गया था !वैसे इरादा तो होटल में जाकर दिखाने का था किन्तु दादी माँ भी लड़के को एक नज़र देखना चाहती थीं और वो होटल जाने को तैयार नहीं थीं ! लड़का फौज में मेजर है,इना की हिदी टीचर का बेटा,गोरा-चिट्टा,छप्पन इंची चौड़ी छाती का सुदर्शन,मृदुभाषी !
पांडे जी सपरिवार आये तो दी हलके मेकअप और गुलाबी साड़ी में सजी चाय लेकर कमरे में गयीं ! थोड़ी औपचारिक बातों के बाद उन्हें वापिस अन्दर भेज दिया क्यों कि वो सबके सामने सहज नहीं हो प् रही थीं !लेकिन इना तो अपनी मैडम से निसंकोच बतियाये जा रही थी,उसे किस बात का संकोच होता ? एक घंटा पूरा परिवार यहाँ वहां की बात कर घर वापिस चला गया था और इना डूब गयी थी दीदी की शादी की तैयारी के सपनों में ! अब समझ नहीं आ रहा था यह सन्नाटा क्यों है ?
वो सोच में डूबी बैठी थी तभी माँ कमरे में आयीं !
” इना, तुम्हारी मैडम और उनके परिवार को मीनू की जगह तुम पसंद हो ! वैसे हमने उनसे कह दिया है कि शादी हम पहले मीनू की ही करेंगे वो इना से छह साल बड़ी है और इना की पढाई अभी पूरी नहीं हुई ! लेकिन रिश्ता पक्का करने से पहले तुम्हारी मंशा जान लेना जरुरी है तो सोच के बताओ क्या तुम्हे रिश्ता पसंद है ?”
इना पर गाज सी गिर गयी ! यह क्या बात हुई भला ? वैसे मैडम के बेटे में कोई बुराई नहीं थी लेकिन दीदी की भावनाओं का क्या ? वो जब भी उनसे मिलेंगी तो दिमाग में यह बात नहीं होगी कि ‘इनका रिश्ता मेरे लिए आया था ?’ क्या खुद इना के मन से ग्लानि जायेगी कभी ?
” माँ हम लड़कियां कोई सब्जी-भाजी थोड़े ही हैं कि यह नहीं वह ?मेरी तरफ से साफ़ ना है ,आप मना कर दो ! आखिर उन्हें भी तो पता चले कि अस्वीकार करने का दुःख कैसा होता है !”

“माँ पर पूत,पिता पर घोड़ा
बहुत नहीं तो थोड़ा-थोड़ा”–
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राजकुमार गुप्ता उर्फ़ राज की बैठक में विवेक बाबू लाखों रुपिये का बैग,बंगले की चाबी और बी एम् डब्ल्यू कार की चाबी लिए बैठे थे जिस से उसकी महत्वकांक्षाये पूरी हो सकती थीं,बच्चों की बढ़िया कॉलेज की पढाई,माँ कीचारों धाम की यात्रा,पत्नी के लिए हीरों का सेट ! अंदर अपनी कोठरी में माँ की आँखों की कोर में पिताजी के आदर्शों का पानी जो उसके एक निर्णय पर निर्भर था !
राज के अंतर्मन में महत्वाकांक्षाओं और कर्तव्य के बीच घोर संघर्ष चल रहा था ! पिता की ईमानदारी और आदर्श को लोग अभी तक याद करते है किन्तु क्या मिला उनके आदर्शो में ? पिताजी के स्टेनो का घर काठगोदाम के आलिशान फर्नीचर,भदोई का शानदार कालीन और बच्चों के नए फैशन के मंहगे कपडे देख हमेशा तो मन में हीं भावना रही !
माँ के कमरे में झाँका तो माँ ने उदास और व्यंग भरी आवाज़ में ताना दिया,”घरे आयी लछमी कउनो ठुकरावत है का बबुआ ?” राज को किशोरावस्था का वो दिन याद आ गया जब उसने मुक़दमे के सिलसिले में आये व्यक्ति को बैठक में बिठा लिया था !पिता जी जब मिलने आये और उस व्यक्ति ने नोटों से भरा बैग पिताजी को दिया यह कह कर,”बच्चों के लिए तुच्छ भेंट ! तो पिताजी का चेहरा गुस्से और अपमान से तमतमा गया था ! बैग दरवाज़े से बाहर फैंक उन्होंने उस व्यक्ति को हाथ से पकड़ यह कहते बाहर का रास्ता दिखाया था,”आप मुझे खरीदने आये हैं महोदय लेकिन हर शख्स बिकाऊ नहीं होता !”
बाद में राज को डांटा था,”कितनी बार समझाया तुम्हें कि किसी अपरिचित को घर में मत घुसने दो ! कब समझोगे ?”
राज ने उसी दिन माँ से कहा था,”घर आयी लक्ष्मी भला कोई ठुकराता है ऐसे ?” राज को नहीं पता था कि उसके पीछे खड़े पिता जी सुन रहे हैं ! उन्होंने राज को अपने पास बुलाकर प्यार से समझाया था,”बेटे,लालच की कोई सीमा नहीं होती और पहली बार रिश्वत लेते हुए ज़मीर धिक्कारता है ! तब नहीं सम्भलो तो इसकी आदत पड़ जाती है ! यह आदत कभी तो कानून के कटघरे तक ले ही जाती है और तब दुःख और बदनामी के सिवाय कुछ हाथ नहीं आता !”
मन का अंतर्द्वंद अब शांत होकर पिता का पथगामी बना चुका था ! बैठक से विवेक बाबू को बैरंग वापिस लौटा जब कमरे में आया तो माँ पिताजी की तस्वीर के आगे प्रसन्नचित बुदबुदा रही थी
,”माँ पर पूत,पिता पर घोडा
बहुत नहीं तो थोड़ा थोड़ा !”

प्रबंध

पंडित किशोरीलाल ने घर में कदम रखा ही था कि बेटी कम्मो पानी का गिलास ले आयी, तिपाई पर रख कर चाय बनाने ,टीन की नाममात्र की छोटी रसोईनुमा ओटक में घुस गयी ! पानी पीकर दम भी नहीं ले पाए थे कि पंडिताइन ने धोती की छोर से पत्र निकाल कर पकड़ा दिया !
पत्र होने वाले समधी का था जिसमे शादी की तारीख पूछी थी ! उन्होंने एक उसाँस ली !
” बिटिया की शादी की कौन सी तारीख सोची है ?”सहमते और ठन्डे स्वर में पंडिताइन ने पुछा !
” हम्म ! यही गणना कर रहा था ! लगते अगहन की पञ्चमी बता देना उनको !” कहकर पंडित जी बुदबुदाने लगे …..
“पंद्रह दिन कनागत के नौ दिन नवरात्रि के,फिर दशहरा पूजन ,दीपावली के पांच त्यौहार शादी करने लायक दक्षिणा ,कपडे-लत्ते ,बर्तन सब जुट जाएंगे,बस दावत के पैसे जुटाने हैं । ईश्वर ही कुछ प्रबंध करेंगे तो हो जाएगा।”एक ठंडी निःश्वास
लेकर कपडे बदलने लगे।
तभी दरवाज़े की कुण्डी खटकी पंडिताइन ने जाकर खोला,कुछ देर में वापिस आकर बताया,
“बगल की गली के सेठ धर्मदास का नौकर रामदीन था,सेठ जी के पड़पोता हुआ है !”
दोनों की आँखों में जुगनू सी चमक कौंध उठी !


-तुम ऐसे ही रहना –

अभी अभी अरुण,वसुधा के भाई की तेरहंवी का ब्रह्मभोज ख़त्म हुआ था,पंडितों के बाद परिवार वालों ने और करीबी मित्रों ने भी किसी तरह मुहँ जुठार लिया था ! असमय की मृत्यु से सभी शोकमग्न थे तिस पर अरुण की पत्नी और बेटी का विलाप देख किसी से भी भोजन गले से निगलते नहीं बन रहा था !सभी जन माँ-बेटी को ढांढस बंधाने का असफल जतन कर रहे थे !
दूर खड़ी वसुधा पर किसका ध्यान जाता भला ? अरुण के बड़े भाई शमशान से आने के बाद ही जा चुके थे,तबियत ठीक ना होने की कह कर,मंझले भाई का परिवार भी दो दिन बाद चला गया ! बस बचे थे तो वसुधा और उनके पति ! बाकी सब भाभी के घरवाले थे ! वो कैसे जा सकती थी भला ,काम अधूरा छोड़कर ?
तभी उसका बुलावा आया ,अब अंतिम दुखदायी रसम भी पूरी तो होनी ही थी ! भाभी को चादर ओढानी थी ! वसुधा ने देखा,एक बड़े थाल में सफ़ेद ऊनी शाल,गुड़ की ढली,चावल के साथ सोने की दो चूड़ी ! वसुधा की अब तक रोकी रुलाई अब बाँध तोड़ बह चली थी ! जिस भाभी को लाल सुर्ख जोड़े में सजा कर घर की लक्ष्मी बनाकर लायी थी, जिसके आने से चहका चहका रहता अरुण,दिन रात मोबाइल से विभिन्न परिधानों में तस्वीर ले कोलाज़ बनता थकता नहीं था उसे कैसे इन्ही हाथों से….. .. कलेजा मुहं को आ रहा था,पैरों में कम्पन्न हुए जा रहे और पेट में दर्द के मरोड़ उठ रहे थे ! कुछ दस मिनट वातावरण में स्तब्धता रही,फिर वसुधा ने अपने हेंड बेग से गुलाबी रंग का शाल निकाल भाभी के कंधे पर ओढ़ाया,सूने माथे पर छोटी सी बिंदी लगायी और हाथ में चूड़ी डालते हुए बोली,
“तुम ऐसे ही रहोगी,जैसे अरुण तुम्हे रखता आया था, मैं कोई ऐसी रस्म नहीं करुँगी जिससे भाई की आत्मा दुखी हो !” आंसू अभी भी सबकी आँखों में थे पर तासीर बदल चुकी थी ! चौकी पर रखी भाई की तस्वीर भी शायद मुस्कुरा रही थी !

कृतघ्न

दालान मे बैठे पिता जी अखबार पढने की चेष्टा रहे थे। मगर अंदर से आती सामान के उठा-पटक की तेज आवाजें उन्हें परेशान कर रही थीं। संशय के बादल घुमड़-घुमड़ कर उन्हें डरा रहे थे, कहीं उन्होंने गलत तो नहीं किया?
अमरीका से हज़ारों डॉलर कमा कर लौटा बेटा अब पिता के दो कमरों के घर पर नज़र गढ़ाए था। पहले उसने उनका बिस्तर शयन कक्ष से हटा कर बैठक में लगवा दिया। क्योंकि उसे शयनकक्ष अपनी पत्नी और खुद के लिए चाहिए था।
जब उसने बैठक को भी अपने बच्चों के सोने और पढने के लिए माँगा और उनका बिस्तर बैठक से खुले दालान में पहुंचाने की बात उठाई, तो अचानक उनका मोह भंग हो गया।’ ओह ! यह वही बेटा है जिसकी पढाई के लिए न जाने कितनी बार उन्हौंने अपनी इच्छाओं का दमन किया था।’
बाप तो बाप ही होता है। उन्होंने उसे एकांत में बुला कर इशारों में समझा ही दिया, “बेटा, यह छोटा घर तुम्हारे आलीशान सामान और मोर्डन बच्चों के हिसाब से फिट नहीं बैठता, बेहतर होगा कि तुम नया और बड़ा घर अपने लिए खरीद लो यहाँ रहने पर, मेरे मित्र आयेंगे तो बहु को नाहक चाय-पानी के लिए परेशान होना पड़ेगा ।”
पिता को तो जवाब देते नहीं बना । खिसिया कर उसने अपना सामान बाँधना शुरू कर दिया। बड़े सामानों के साथ खुद की खरीदी चटाई, जूते की अलमारी,झाड़ू भी साथ में बाँध लिया।
जाते हुए बेटे को देखने के लिए उन्हौने जैसे ही अखबार हटाया। नजर ऊपर की ओर चली गयी। जहाँ आसमान बिल्कुल साफ था और चमकता हुआ सूरज मानो उन्हीं को देखकर मुस्कुरा रहा था।

पूर्णिमा राघव शर्मा
सांताक्रुज वेस्ट
मुंबई

चिड़िया की दोस्ती

बहुत अकेला अनुभव कर रहा हूँ। घर के अंदर के सन्नाटे से डर कर बाल्कनी में आ बैठा हूँ। शाम उतर आई है। गली में कुछ बच्चे अपने घरों से बाहर निकल आए हैं। उनका शोर है, पर मुझे सुनाई नहीं देता। मैं न जाने किस दुनिया में गुम हूँ। जीवन निस्सार लग रहा है। दुख अपनी हदें तोड़ कर मुझसे लिपटा हुआ है। किसी का कांधा पास नहीं कि अपना सिर उस पर रख कर फूट-फूट कर रो लूँ और अपने को हलका कर लूँ।
ये दुख का पहाड़ रह-रह कर क्यों टूटता है। एक बार ही पूरी तरह टूट्कर अपने भारी मलबे में समा क्यों नहीं लेता। मैं अपने पूरे परिवार को किस मज़बूती से कस कर पकड़े था। फिर इन हथेलियों में न जाने कहाँ से, कैसे यकायक चिकनाहट आ गई कि सभी एक-एक कर फिसलते चले गए, छूटते चले गए। एक लम्बे समय से मुझे नहीं पता कि हँसी किस चिड़िया का नाम है।
एक चिड़िया बॉल्कनी की रेलिंग पर आ बैठी है। चोंच खोले तेज़ी से गर्दन इधर-उधर घुमा रही है। रेलिंग पर बार-बार फुदक रही है। पर शायद वह डर भी रही है मेरी उपस्थिति से। हल्की-सी आहट पर ‘फुर्र’ हो जाती है और कुछ ही पल में दुबारा आ बैठती है। ऐसा वह कई बार करती है। जैसे कोई बच्चा आपको छूने को आए और करीब आते ही दूर भाग जाए।
मुझे लगता है कि पलकें झपकने मात्र से वह डर कर भाग जाएगी। मैं जैसे स्टैचू हो जाता हूँ। मैं चाहता हूँ कि वह वहाँ बनी रहे, अपनी फुदकन के साथ, अपनी ‘चीं-चीं’ के साथ… पर तभी मेरी आँखें दुखने लगती हैं और मैं तेज़ी से पलकें झपकने लगता हूँ। वह एक पल रेलिंग पर ठिठकती है और फिर ‘फुर्र…’ हो जाती है। मुझे उसका जाना अच्छा नहीं लगता, पीड़ा देता है। मैं फिर अपने अकेलेपन से जूझने लगता हूँ। फिर पीड़ा के गहरे अहसास से भर उठता हूँ। कुर्सी पर बैठे-बैठे मैंने अपनी टांगें पसार ली हैं और शरीर को ढीला छोड़ दिया है।
फिर न जाने मैं किस दुनिया की यात्रा पर चला जाता हूँ। इस दुनिया में न पहाड़ हैं, न जंगल, न कोई पेड़, न पौधा, न नदियाँ हैं, न झरने, न रेगिस्तान, न समन्दर… न कोई गाँव, न कोई कस्बा, न कोई शहर। न बच्चे, न बूढ़े, न जवान। न औरत, न मर्द… यह बहुत उजाड़ दुनिया है। दुनिया की ऐसी हालत किसने बना दी?… मैं घबरा जाता हूँ।
तभी इस खाली-खाली सी दुनिया में मुझे चिड़िया की ‘चीं-चीं’ सुनाई देती है। इस बार चिड़िया रेलिंग पर नहीं, मेरे दाएँ कंधे पर आकर बैठती है, कुछ देर फुदक-फुदक कर अपनी दिशा बदलती है, फिर मेरे सिर पर बैठ जाती है, मेरे बालों में चोंच मारने लगती है। मुझे अपनी माँ याद हो आती है जो बचपन में मेरे सिर में से ठूंएं मार-मार कर जुएँ चुगा करती थी।
मैं दम साधे बैठा हूँ। एक अजब निर्वचनीय सुख और आनंद की अनुभूति होती है। चिड़िया उछल कर मेरे दूसरे कंधे पर आ बैठती है, कुछ देर वहीं फुदकती है, ‘चीं-चीं’ करती है, फिर कुर्सी के हत्थे पर रखे मेरे बाएँ हाथ पर आ बैठती है। मैं आहिस्ता से दाएँ हाथ की हथेली उसके पास ले जाता हूँ। वह बिल्कुल नहीं डरती। मानो उसने मुझसे दोस्ती कर ली हो। वह चोंच खोले अपनी भाषा में जैसे कुछ कह रही है। मैं अपना दुख और अकेलापन भूल जाता हूँ। एकाएक खाली-खाली सी सारी दुनिया फिर भरी-भरी सी लगने लगती है जिसमें पहाड़ हैं, जंगल हैं, नदियाँ हैं, झरने हैं, गाँव हैं, कस्बे हैं, भरे-पूरे शहर हैं, बच्चे हैं, जवान हैं, बूढ़े हैं, औरतें हैं, मर्द हैं।
मैं चिड़िया का शुक्रिया अदा करता हूँ।

गुड़िया

“नाशपिटा कहीं का…हद ही कर दी इसने तो।” डेढ़ वर्षीय पिंकी को गोद में उठाये प्रभा बड़बड़ाती हुई बालकोनी से कमरे में घुसी।
“क्या हो गया? इतना गुस्सा किस बात पर ?” प्रकाश ने पत्नी का तमतमाया चेहरा देख पूछा।
“वो सामने वाले ब्लॉक में कोने का दूसरी मंजिल का मकान है न, उसकी बालकोनी में से एक बूढ़ा खूसट कई दिनों से मुझे घूर रहा है।” प्रभा ने पिंकी को बेड पर लिटाते हुए कहा।
प्रकाश ने बाहर बालकोनी में जाकर देखा, एक सफेद दाढ़ी वाला बूढ़ा अपनी बालकोनी में टहलता हुआ उसे दिखाई दिया।
“लगता है कोई नया परिवार अभी हाल में ही आया है।” प्रकाश अंदर कमरे में जाकर प्रभा से बोला जो पिंकी को थपकियाँ देकर सुलाने का प्रयत्न कर रही थी।
“हाँ, बीसेक दिन ही हुए हैं आए को। पर बालकोनी में सिवाय बूढ़े के किसी और को नहीं देखा मैंने। कभी कुर्सी डालकर बैठा मिलेगा, कभी टहलता। पर नज़रें इधर हमारी बालकोनी पर ही गड़ाए रखेगा, बूढ़ा खूसट ! अपनी सफेदी का भी ख्याल नहीं।” प्रभा का बड़बड़ाना जारी था।
“इन फ्लैटों में बूढ़े बेचारे भी क्या करें। ऊपर टंगे रहते हैं। बालकोनी में थोड़ा टहल लिया या बैठकर धूप सेंक ली…। तुम नाहक बेचारे पर गुस्सा हो रही हो।” प्रकाश ने हँसते हुए प्रभा को समझाने का प्रयास किया।
“बेचारा?… अकेले या पिंकी को लेकर जब भी बालकोनी में जाती हूँ, इस खूसट की नजरें इधर ही गड़ी मिलती हैं। और …और…” प्रभा कहते कहते रुक गई।
“और क्या ?”
“कल शाम तो इसने हद ही कर दी। ये मोबाइल लेकर खड़ा था। मुझे लगा, इसने चुपके से मेरी फ़ोटो भी ली है।”
“क्या ? तुमने कल ही क्यों नहीं बताया?” अब तो प्रकाश को भी बूढ़े की इस हरकत पर गुस्सा हो आया।
“अभी जाता हूँ , लेता हूँ इस ठरकी की क्लास।”
“मैं भी चलती हूँ, बूढ़े की ऐसी अक्ल ठिकाने लगाऊँगी कि याद रखेगा। भूल जाएगा ताकना-झाँकना।”
तभी कामवाली आ गई।
“रामरती, पिंकी का ज़रा ख्याल रखना। हम अभी आए।” कहकर दोनों नीचे उतरे और भन्नाए हुए से बूढ़े के मकान की सीढ़ियाँ चढ़ गए।
बेल बजाने पर दरवाज़ा बूढ़े ने ही खोला। उन्हें देख बूढ़े के चेहरे पर मुस्कान तैर गई।
“आओ आओ…अंदर आ जाओ।”
कमरे में नीम उजाला था। दीवार से लगे एक दीवान पर कोई लेटा था। दीवान की बगल में दो कुर्सियाँ और दो मोढ़े रखे थे। तभी एक अस्फुट-सा स्त्री स्वर कमरे में उभरा, जिसके शब्द प्रभा और प्रकाश पकड़ नहीं पाए। बूढ़े ने कमरे की लाइट जला दी तो कमरे की हर चीज़ साफ-साफ दीखने लगी।
“पूछ रही हैं, कौन आया है। पिछले एक साल से अधरंग है इसे। बेड पर ही रहती है।” कहते हुए बूढ़ा, बुढ़िया के करीब सिरहाने की तरफ बैठ गया। तब तक प्रभा और प्रकाश कुर्सियों पर बैठ चुके थे।
“सुखवंती, गुड़िया के मम्मी-पापा आए हैं।”
बुढ़िया ने लेटे-लेटे गर्दन घुमा कर दोनों की तरफ देखा और “अच्छा अच्छा !” कहा जिसे बूढ़ा ही समझ पाया। बुढ़िया ने फिर कुछ पूछा, शब्दों की जगह मुँह से जैसे फूंक-सी निकली हो।
“पूछ रही है, गुड़िया को नहीं लाए?”
प्रभा और प्रकाश ने एक-दूजे की ओर देखा, पर बोले नहीं।
“कल मैंने आपकी गुड़िया की फ़ोटो मोबाइल पर इसे दिखाई तो बहुत खुश हुई। बोली- ये तो बिल्कुल अपनी परी जैसी है।” बूढ़े ने बताया। फिर बूढ़े ने बगल वाली दीवार की ओर इशारा करते हुए कहा, “ये है हमारी परी…।”
दीवार पर एक जोड़ा डेढ़-दो साल की बच्ची को उठाये मुस्करा रहा था।
“ये आपके बहू-बेटा और पोती …” प्रभा के मुँह से बमुश्किल ये शब्द निकले।
“हाँ-हाँ, ठीक पहचाना।” बूढ़े ने चहक कर कहा, “है न हमारी परी आपकी गुड़िया की तरह !” बूढ़े का चेहरा खिला हुआ था।
“ये आपके साथ नहीं रहते ?” प्रकाश ने चुप्पी तोड़ते हुए पूछा।
इस पर बूढ़े का खिला हुआ चेहरा एकदम से मुरझा गया । उसकी आँखें पनीली हो उठीं।
“बेटा… अब ये तीनों वहाँ चले गए जहाँ से कोई लौटकर नहीं आता…”
कमरे का सन्नाटा बहुत देर तक कांपता रहा।

पानी

उसे इतने बरस बाद अचानक अपने घर आया देख मैं चकित भी हूँ और खुश भी। यही भाव मेरी पत्नी के चेहरे पर हैं। कभी हम एक ही कालोनी में रहते थे, प्राय: यह हमारे घर आ धमकता था, छुट्टी के दिन।
उसने बताया कि वह इधर से गुज़र रहा था, सोचा अपने मित्र से मिलता चलूँ। बहुत देर तक इधर-उधर की बातें होती रहीं। चाय-पानी हुआ। बीच बीच में वह उदास भी हो जाता है। चुप और गंभीर-सा ! मानो अंदर कुछ उठा-पटक हो रही हो। फिर हँसने लगता है किसी बात पर। जैसे पहले हँसा करता था। वह बहुत कुछ पूछता भी है, मेरे बारे में, मेरे परिवार के बारे में, मेरे बेटे के बारे में और मेरी बेटी के बारे में। उलाहना भी देता है कि मैंने उसे बेटी के विवाह पर नहीं बुलाया।
इधर मेरे अंदर भी उठा-पटक जारी है। यह उठा-पटक चल तो कई दिन से रही है, पर जब से वह आया है, एकाएक तेज़ हो उठी है। सोच रहा हूँ कि शायद ईश्वर ने ही मित्र को रास्ता भुलवा दिया और वह मेरे घर आ गया। पुराना मित्र है। इससे तो बात की ही जा सकती है। मैं भूमिका के लिए शब्द तलाशने लगता हूँ। इसके बेटे यहीं दिल्ली में हैं, अच्छा कमा रहे हैं। इसकी भी मेरी तरह पेंशन लगी हुई है। अब कोई जिम्मेदारी भी नहीं रही इसके कंधों पर। पत्नी का देहांत नौकरी पर रहते ही हो गया था। किसी चीज की इसे क्या कमी होगी? यह अवश्य मेरी… मैं कुछ कहने को होता हूँ, पर हकला जाता हूँ। कह नहीं पाता।
नहीं, यह पहली बार इतने बरस बाद मेरे घर आया है। मुझे अपनी परेशानी इससे साझा नहीं करनी चाहिए। क्या सोचेगा, विदेश में बेटा नौकरी कर रहा है। बेटी की शादी कर दी। पेंशन लगी हुई है। पर इसे क्या मालूम कि पिछले एक साल से बेटे ने एक पैसा नहीं भेजा। न ही फोन पर बात करता है। घर की हालत पतली होती जा रही है बेशक घर में दो ही जीव है- एक मैं और दूसरा मेरी पत्नी। पेंशन का बड़ा हिस्सा मकान के किराये में, बेटी की शादी पर लिए कर्ज़ की किस्त और बिजली-पानी के बिल चुकाने में ही खर्च हो जाता है। जो थोड़ा-बहुत बचता है, उसमें हारी-बीमारी, दवा-दारू और घर का राशन-पानी। पिछले दस दिन से तो घर की हालत…
एकाएक वह उठकर विदा लेने लगता है। उसके चेहरे पर पल पल बदल रहे भाव से लगता है, वह बहुत परेशान है। मैं पूछ बैठता हूँ, “क्या बात है विपिन? कुछ परेशान से हो?”
“यार क्या बताऊँ? इधर से गुजर रहा था। बस में किसी ने जेब साफ़ कर दी।…एकाएक ख्याल आया, तुम यहीं पास में रहते हो, क्यों न तुमसे मिल भी लूँ और…और…” वह मेरी ओर देखता देखता एकाएक नजरें झुका लेता है। मेरी पत्नी भी करीब खड़ी है। मेरे दिल की धड़कन तेज़ होने लगती है।
“यार, तुम्हारे पास हजार रुपये हों तो देना, जल्द ही लौटा दूँगा…” वह मरी-सी आवाज़ में कहता है। मैं कुर्ता उठाकर इसे अब अपना पेट कैसे दिखाऊँ? भीतर ही भीतर पानी हो चुका मैं निरीह नज़रों से पत्नी के चेहरे की ओर देखता हूँ। वह मुझे संकट से उबार लेती है, “भाई साब, हजार तो नहीं हैं। पाँच सौ का एक नोट बचा है, चलिए आप ले लें।” और पत्नी पाँच सौ का नोट लाकर उसके हाथों में थमा देती है। वह खुशी-खुशी हमसे विदा ले सीढ़ियाँ उतर जाता है!
मेरा चेहरा उतरा हुआ है, पर पत्नी के चेहरे पर पानी चढ़ा हुआ है!

बरफ़ी

वह दिल्ली एयरपोर्ट पर उतरा। बाहर निकलकर पहले मोबाइल पर किसी से बात की और फिर नज़दीक के ही एक होटल के लिए टैक्सी पकड़ ली। वह अक्सर ऐसा ही करता है। जब भी इंडिया दस-पंद्रह दिन के लिए आता है, न्यूयॉर्क से दिल्ली की फ्लाइट लेता है। दिल्ली एक रात स्टे करके अगले दिन मुंबई के लिए दूसरी फ्लाइट पकड़ता है। मुंबई में उसका घर है। माता-पिता है, पत्नी है, छोटी बहन है जो अलग रहती है।
होटल के अपने कमरे में जब पहुँचा, रात के आठ बज रहे थे। वह नहा-धोकर फ्रैश हो लेना चाहता था कि तभी बेल हुई। दरवाज़ा खोला। सामने नज़र पड़ते ही उसके माथे पर पसीने की बूँदें चुहचुहा आईं। आगंतुक लड़की ने भी अपनी घबराहट को तुरन्त झटका।
”देखा पकड़ लिया न। मैंने आपको होटल में घुसते और इस कमरे में आते देख लिया था। सोचा पीछा करती हूँ।”
”शिखा ! तुम यहाँ ?”
”हूँ… चौंकते क्यों हैं? कल मुंबई-दिल्ली की चार बजे वाली फ्लाइट से उतरी थी। आज रात की फ्लाइट से वापस मुंबई। अक्सर इसी होटल में रुकना होता है, अगली ड्यूटी पर जाने तक।”
”अरे, मैं तो भूल ही गया कि तुम दो साल से एयर लाइन्स में जॉब कर रही हो।” उसने अपने आप को सामान्य करते हुए कहा।
”पर आप कभी बता कर इंडिया नहीं आते। कोई फोन ही कर दिया करो।”
”मुझे सरप्राइज़ देने की आदत है न। चल छोड़, घर पर सब ठीक हैं न? जाती रहती हो न मम्मी-पापा से मिलने?”
”महीने-दो महीने में एक-दो बार तो चली ही जाती हूँ। आप बताओ, कैसा चल रहा है यू.एस.ए में। और कब बुला रहे हो भाभी को अपने पास?”
”ठीक है, ग्रीन कार्ड मिल जाए तो बुला लूँगा उसे भी।”
”मम्मी-पापा के पास कब पहुँच रहे हो?”
”कल दिन में यहाँ कुछ काम है, इसलिए यहाँ रुकना पड़ा। कल शाम की फ्लाइट से मैं मुंबई पहुँच रहा हूँ।
”अच्छा भैया चलती हूँ… रात दस बजे की मेरी फ्लाइट है।”
”ओ.के. बाय…।”
”बाय!”
शिखा के जाते ही उसने मोबाइल पर फोन मिलाया।
”सर! क्या बरफ़ी पहुँची नहीं अभी तक।” उधर से आवाज़ आई।
”ये तुमने … ?” वह भन्नाया।
”क्या हुआ सर! पसंद नहीं आई? दूसरी भेजता हूँ।”
”नहीं रहने दो अब।… इंडिया से लौटते समय देखूँगा।” उसने झटके से फोन बंद किया और फ्रैश होने के लिए बाथरूम में घुस गया।

गुड़ुप !

दिन ढलान पर है और वे दोनों झील के किनारे कुछ ऊँचाई पर बैठे हैं। लड़की ने छोटे-छोटे कंकर बीनकर बाईं हथेली पर रख लिए हैं और दाएं हाथ से एक एक कंकर उठाकर नीचे झील के पानी में फेंक रही है, रुक रुककर। सामने झील की ओर उसकी नजरें स्थिर हैं। लड़का उसकी बगल में बेहरकत खामोश बैठा है।
“तो तुमने क्या फैसला लिया?” लड़की लड़के की ओर देखे बगैर पूछती है।
“किस बारे में?” लड़का भी लड़की की तरफ देखे बिना गर्दन झुकाए पैरों के पास की घास के तिनके तोड़ते हुए प्रश्न करता है।
इस बार लड़की अपना चेहरा बाईं ओर घुमाकर लड़के को देखती है, “बनो मत। तुम अच्छी तरह जानते हो, मैं किस फैसले की बात कर रही हूँ।”
लड़का भी चेहरा ऊपर उठाकर अपनी आँखें लड़की के चेहरे पर गड़ा देता है, “यार, ऐसे फैसले तुरत-फुरत नहीं लिए जाते। समय लगता है। समझा करो।”
लड़की फिर दूर तक फैली झील की छाती पर अपनी निगाहें गड़ा देती है, साथ ही, हथेली पर बचा एकमात्र कंकर उठा कर नीचे गिराती है – गुड़ुप !
“ये झील बहुत गहरी है न?”
“हाँ, बहुत गहरी। कई लोग डूबकर मर चुके हैं। पर तुम ऐसा क्यों पूछ रही हो?” लड़का लड़की की तरफ देखते हुए पूछता है। लड़की की नज़रें अभी भी दूर तक फैले पानी पर टिकी हैं, “क्या मालूम मुझे इस झील की जरूरत पड़ जाए।”
लड़का घबरा कर लड़की की ओर देखता है, “क्या मूर्खों जैसी बात करती हो? चलो उठो, अब चलते हैं, अँधेरा भी होने लगा है।”
दोनों उठकर चल देते हैं। दोनों खामोश हैं। पैदल चलते हुए लड़की के अंदर की लड़की हँस रही है, ‘लगता है, तीर खूब निशाने पर लगा है। शादी तो यह मुझसे क्या करेगा, मैदान ही छोड़कर भागेगा। अगले महीने प्रशांत इस शहर में पोस्टिड होकर आ रहा है, वो मेरे साथ लिव- इन में रहना चाहता है।’
लड़के के भीतर का लड़का भी फुसफुसाता है, ‘जाने किसका पाप मेरे सिर मढ़ रही है। मैं क्या जानता नहीं आज की लड़कियों को?… कुछ दिन इसके साथ मौज-मस्ती क्या कर ली, शादी के सपने देखने लगी। हुंह ! मेरी कम्पनी वाले मुझे कब से मुंबई ब्राँच में भेजने को पीछे पड़े हैं। कल ही ऑफर मंज़ूर कर लेता हूँ।’
चलते-चलते वे दोनों सड़क के उस बिन्दु पर पहुँच गए हैं जहाँ से सड़क दो फाड़ होती है। एक पल वे खामोश से एक दूजे को देखते हैं, फिर अपनी अपनी सड़क पकड़ लेते हैं।

सुभाष नीरव
न्यू देहली

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