पद्मा मिश्रा, श्रुतकीर्त अग्रवाल, कुसुम पारीक, सुरेश वाहने


आजादी

कमरे में टीवी तेज आवाज के साथ मौजूद था –गणतंत्र दिवस की धूम और जश्न का मुख्य समारोह दिल्ली से प्रसारित हो रहा था,गाँव से वर्षों बाद अपने बेटे के पास आये स्वतंत्रता सेनानी दादाजी पूरे जोश में थे,और पास बैठे पोते-पोतियों के साथ उत्साहपूर्वक स्व्तंत्रता की लड़ाई की यादें ताजा करते करते–कभी प्रसन्नता के आवेग में उछल पड़ते तो कभी धीरे से आँखें पोंछने लगते थे, .छोटे बच्चे तो कुछ अनुशासित – -एकाग्र हो टीवी पर आ रहे गणतंत्र दिवस कि परेड पर नजरें जमाये थे, परन्तु बड़े -युवा बच्चों को तो यह सारा आयोजन ही नागवार गुजर रहा था ,-किसी का क्रिकेट मैच तो किसी का फ़िल्म समारोह का प्रसारण समारोह छूटा जा रहा था,–”अरे,अब हो गया न? ,झंडा फहरा दिया जायेगा,फिर थोड़ी देर में राष्ट्र-गान , ,फिर क्या बचेगा ?दादाजी टीवी छोड़ देंगे,” ,सब धीरे धीरे फुसफुसाते हुए एक दूसरे को सांत्वना दे रहे थे , ,
उधर दिल्ली में राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी मंच की ओर बढ़ रहे थे -इधर दादाजी का फरमान जारी हुआ –” सब खड़े हो जाओ ” ,-”क्यों?”-, छोटे बच्चे ने धीरे से पूछा ,
”राष्ट्रीय ध्वज को आदर देने के लिए” , , वाक्य समाप्त ही हुआ था कि झंडा फहरा दिया गया और राष्ट्रीय गान प्रारम्भ हो गया –”जन-गण-मन ,अधिनायक जय हे ”दादाजी सावधान की मुद्रा में खड़े गुनगुना रहे थे ,बच्चे भी साथ गा रहे थे अपनी अनगढ़ -भाषामे -स्कूल में तो रोज ही गाते हैं,और जो खड़े नहीं थे दादाजी की घूरती नजरों के डर से खड़े हो गए पर राष्ट्र-गान तो याद ही नहीं था,-गाया होगा स्कूल में कभी ,- – अब इतने साल हो गए ,कौन याद रखता है! ,अब टीचरजी थोड़े ही न डांटने आएँगी ?”
राष्ट्र-गान समाप्त हो चूका था -दादाजी ने जोरदार आवाज में -कहा -”यही सीखा है तुमने अपनी शिक्षा से ,देश का, राष्ट्रीय ध्वज का सम्मान करना तुम्हे नहीं आता ?”
”अरे दादाजी,जब स्कूल में थे तब याद था,अब इंजीनियरिंग की मोटी मोटी किताबें पढ़ें ,उनके प्रोजेक्ट बनाएँ या राष्ट्र-गान याद करें?”
–” शर्म आनी चाहिए तुम्हे-तुम लोग देश की उम्मीद हो,जब तुम्ही उसको आदर नहीं दोगे तो, , ,”, उस समय सारे बच्चे तो शांत होकर चुपचाप चले गए पर दादाजी के मन में सैकड़ों सवाल उठा गए – -एक स्वतंत्रता सेनानी,कर्मठ अधिकारी की भावी पीढ़ी को राष्ट्र-गान याद न हो,
–गणतंत्र का महत्त्व मालूम न हो ,–यह बात उन्हें पीड़ा पहुंचा रही थी, अपने बेटे को उन्होंने जो संस्कार दिए,उसे जिंदगी के उबड़ खाबड़ रास्तों पर ,चलना सिखाया,-देश व् समाज के लिए जीना सिखाया,-वह तो अपनी जिम्मेदारियां निभाते हुए जीना सीख गया है,-अब उसकी भी उम्र हो गई है,शायद वह बच्चोंको संस्कार देना भूल गया,या जीवन की आपाधापी में धन कमाने की लालसा में ,सब कुछ छोड़ आगे निकल
गया, — बहू भी अपनी दुनिया में खुश है,-तभी तो ये बच्चे एक अनजानी -कल्पना कि दुनिया में जी तो रहे हैं पर अपनी पुरानी पीढ़ी के त्याग, आदर्श व् अनुभवों को पीछे भूल कर , ,’बाहर बगीचे में टहलते हुए दादाजी इन्ही गम्भीर विचारों में खोये हुए थे,-तभी गेट पर उनके मित्र शर्माजी ने पुकारा ,दादाजी अपने परम मित्र को देख कर खुश हो गए और लान में पड़ी कुर्सियों पर उनके साथ बैठते हुए –‘बोले ‘आज तुमसे बातें करने की तीव्र इच्छा हो रही थी,”-
-”क्या बात हुई ”शर्माजी ने वहीँ पड़ा अख़बार उठा लिया था, कुछ देर पढ़ने के बाद तुरंत बंद कर दिया,–”क्या हो रहा है चारो तरफ,-एक दिन भी ऐसा नहीं जाता -जब अख़बार अमन-शांति की बातें करता हो ‘ , ,दादाजी का मौन टूटा –”कैसी अमन -शांति?,सारा परिवेश ही उलटी धारा में बहा जा रहा है,-सबको जल्दी है आगे बढ़ जाने की,भौतिकता कि तलाश में -संस्कार-नैतिकता -आदर ,सब कुछ खो दिया है ,इस पीढ़ी ने ,-अब आज ही की बात लो,टीवी पर गणतंत्र दिवस की परेड आ रही थी ,लेकिन बच्चों को यह तक पता नहीं था कि राष्ट्र-गान क्या होता है,झंडे का आदर क्यों करें ?” , , ,
शर्मा जी ने उनके थरथराते हाथों को थाम कर कहा –”हाँ,अब उन्हें फिल्मो के गीत जरुर याद और राष्ट्र-गान तो शायद ही किसी को याद हो ठीक से,अभी मै अपनी पोती के स्कूल में गया था,छोटे बच्चों की नृत्य-प्रतियोगिता,-कहाँ आठ से दस साल के बच्चे –‘छैया,छैया ,डिस्को दीवाने ,मुन्नी बदनाम हुई जैसे गानो पर नाच रहे थे,मैं शर्मसार होकर लौटा,,-चाय आ गई थी ,अनुज उनका बड़ा पोता कहीं बाहर जा रहा था,शर्मा जी ने हाल -चाल पूछा,खेल रहे छोटे बच्चों ने समझा -अब भैया को डांट पड़ेगी,वे सब पास आगये -शर्मा जी ने पूछना शुरू किया –”तुम लोग बड़े होकर क्या बनोगे ?”
किसी ने कहा -‘हीरो,किसी ने डाकटर और डांसर तो किसी ने जहाज उड़ाना पसंद किया -सबसे छोटे पोते ने कहा –मैं तो दादाजी बनूँगा,मार दूंगा सब दछमनो को -सब दर कर भाग जायेंगे -अंगरेज भागे थे न ,.है ना दादाजी ?’
”लेकिन कैसे ?-तुम तो छोटे हो अभी”, शर्मा जी को आनंद आ रहा था ,–‘अपने माथे पर सलाम कि मुद्रा में हाथ रखते -कदम ताल करते हुए विभु ने जवाब दिया –ऐछे -वंदे मातरम -वंदे मातरम ‘और लैफ्ट राइट करता अंदर चला गया ,प्रसन्नता के आवेग में दादाजी ने अपनी आँखें पोंछते हुए कहा –”देश अभी जिन्दा है शर्मा जी ,यही आजादी तो हमने चाही थी ”


सपनों की सड़क
तीन दिनों से कालोनी की सड़क बन रही है,लगता है जैसे कोई बड़ा आयोजन हो रहा हो,-सरकारी अफसरों की आवाजाही बढ़ गई है,,मजदूरों का शोरगुल ,कहीं मिटटी काटने और गिट्टी सीमेंट मिलानेवाली मिक्सिंग मशीन की धड़धड़ाती आवाजें विचित्र सा माहौल बना रही हैं,,,पुरे वातावरण में कोलतार की गंध फैली हुई है,,इतनी गर्मी व् उमस के बावजूद बेचारे मजदूरों के हाथ पसीना पोंछने के बाद तुरंत बेलचा उठा अपने काम में जुट जाते हैं,,, अपनी छत से मैं भी इस पूरे दृश्य को आत्मसात कर रही हूँ मजदूर मजदूरिनों के छोटे बच्चे एक किनारे बैठ कर टकटकी लगाये अपने माँ बाप को काम करते देख रहे हैं,,कुछ बच्चे मेरे घर के लोहे के गेट पर चढ़ कर खेल रहे हैं,-बहुत छोटे छोटे बच्चे हैं,जिनके चेहरों पर जिंदादिली की मुस्कान है, और आँखों में चंचलता–उनकी खिलखिलाती हंसी से उस नीरस वातावरण बोझिलता बीच बीच में भंग होती रहती है,
”एई चुप कोरो,”-चटाक् ”-किसी बच्चे ने दूसरे को कस कर थप्पड़ मार दिया था ,बदले में वो भी उससे उलझ जाता है,उसकी माँ आकर उसे शांत करती है,- उसके आंसू पोंछ जब जाने के लिए मुड़ी तो वह बिलख उठा–माँ!,,माँ गो,,आमी भात खाबो ”
”एखने थाक –आश्छि आमी ”,, वह बच्चे की भूख को नकार ,अपने काम में मगन हो गई,ताकि काम जल्दी पूरा कर बच्चे को कुछ खिला सके,चार पैसे कमा सके ,,,
मुझे उस निरीह भूखे बच्चे पर दया आ रही थी धुप भी तेज थी,उस भीषण गर्मी में भला कब तक वह भूख-प्यास बर्दाश्त कर पाता ?अपनी रसोईं से बिस्कुटों का डिब्बा उठाया और बाहर आकर उन छोटे बच्चों में बाँट दिया ,कुछ देर तक सभी बड़ी शांति से बैठकर बिस्कुट खाते रहे फिर सारे लड़ाई झगड़े भूल अपने खेल में व्यस्त हो गए,,,,काश!,,इंसान भी बच्चों जैसा होता -पल भर में सारे लड़ाई झगड़े भूल शांति-सुख की नींद सो पता तो दुनिया में यह मार-काट तो न मचती !,, अपने घर के दरवाजे पर खड़ी थी,धूप तेज होने पर भी कालोनी वाले वहां से टले नहीं थे,उनके घर के सामने की सड़क पर गिट्टी की मोटी चादर बिछ सके और समतल जमीन बने इस बात की परख करते हुए अपना काम जो करवाना था,सरकारी काम है-कहीं जैसे तैसे निपटा कर न चले जाएँ ,,,जिसके लिए वे अघोषित जाँच अधिकारी बने ,डटे हुए थे ,,मेरी कालोनी का वार्ड पार्षद अभी अभी मुझसे पानी की दो बोतलें मांग कर ले गया है, -चार कुर्सियां मैंने पहले ही भिजवा दी थीं ,,,सभी अधिकारी और ठेकेदार एक साथ बैठे थे,गाड़ियों की लम्बी कतार लगी थी,–इसी बीचसड़कों की लम्बाई-चौड़ाई और मोटाई की भी जाँच होती -फिर सड़क आगे बढ़ती , शाम होने लगी थी ,काम रोक दिया गया,सारे मजदूर आजके दिन की पगार के लिए इकट्ठा हो गए थे,,,तभी जोरदार हल्ला हुआ,पता चला की ठेकेदार कम पैसे दे रहा था -बाकि मजदूरी कल देने का आश्वासन देकर जिसका विरोध मजदूर कर रहे थे,-,क्या खाएंगे -बनिए का उधार चुकाना है -साहब,,,बच्चा बीमार है ,,सबकी अपनी अपनी परेशानियां –लेकिन परवाह किसे थी ?,,बहस चल रही थी,,मजदूर नाराज थे और फैसलाहुआ कि वे आगे का काम नहीं करेंगे जब तक पैसे पूरे नहीं मिलेंगे”,,,समझौते की कोशिशें जारी थीं ,,
लेकिन इन सबसे अलग ,,,कुछ नन्हे हाथों ने अपना काम बंद नहीं किया था,,,वे नन्हे कदमों से गिरते-पड़ते ,गिट्टी,बालू सीमेंट मिलकर खेल खेल में ,अपने अनगढ़ हाथों से ,करीब एक मीटर सड़क बना चुकेथे ,,ये उनके सपनो की सड़क थी -जहाँ न भूख थी,न गरीबी,न बनिए का उधार चुकाना था,-न अपने माँ,बाबा की तरह जिंदगी की जद्दोजहद से जूझना था,,-वे तो अपने खेल में -अपने सपनों की दुनिया में वे मगन थे – -!

अनमोल रिश्ते
कल स्वाति आ रही है,,पूरा घर चहल पहल में डूबा हुआ है,अम्मा जी के पैर तो धरती पर ही नहीं पड़ रहे,,स्वाति के पसंद की खाने पीने की चीजों की तैयारी हो रही है,, और मुदिता,घर की इकलौती बहू को फुर्सत नहीं कि वह फ्रेश होकर सुबह की चाय भी पी सके,बस मशीन की तरह किचन में व्यस्त हैं तड़के सुबह से ही,,,
परसों रक्षाबंधन है न,,इकलौते भाई की अकेली बहन, सबको प्रतीक्षा रहती है उसके आने की, परसों मनीष ने छुट्टी ले ली है,क्योंकि विदेशी कंपनी होने की वजह से राष्ट्रीय छुट्टियों को छोड़कर और कोई छुट्टी नहीं होती,,मुदिता बस दौड़ती रहती है घर आंगन,, एक दूसरे की सुविधाओं का ख्याल रखती, जरुरी चीजों की व्यवस्था, लेनदेन की जिम्मेदारी सब कुछ मुदिता के ऊपर ही है, दोनों बच्चों को स्कूल के लिए तैयार करना, स्कूल छोड़ना,लौटते समय सब्जियां खरीद कर ले आना,,, और फिर उसकी खरीददारी पर घंटों अम्मा जी के प्रवचन सुनना,,
मुदिता भी चाहती हैं अपने मायके जाना, दोनों छोटे भाइयों को सामने बैठा कर राखी बांधने का सुख जीना चाहती है,,पर विवाह के बाद ये कभी संभव नहीं हुआ,,बस कभी आनलाइन या कभी स्पीड पोस्ट से राखी भेजकर संतुष्ट हो लेती है,, आज की तकनीकी दक्षता ने भले ही यह ,सभव बना दिया है कि वह मोबाइल में अपने भाइयों को देख सकती है, लेकिन उनके स्नेहिल स्पर्श और अहसास की अनुभूति वह कभी नहीं कर पाती,, उन्हें गले लगाकर ढेरों आशिर्वाद देने की लालसा, अतृप्त ही रह गई,, पिता के जाने के बाद अकेली मां के लिए भी वही मनोबल और जिजीविषा की कड़ी है,,,कभी कभी उसे लगता है कि मां के प्रति वह अपने कर्तव्य नहीं निभा पाती,,क्या एक बेटी होने के नाते,,,??हर बार स्वाति के आने की तैयारियों में जुटी मुदिता खुद से सवाल करती है**क्या मुझे हक नहीं??*पर कोई जवाब नहीं होता, दबंग अम्मा जी के उत्साह और आदेश की अवहेलना वह नहीं कर पाती,बेटी के लिए उनके ममत्व को वह बखूबी समझती है, इसलिए अक्सर चुप रहती है और चुपचाप अपने काम पूरे करती रहती है,,,,
अपनी यादों में खोई मुदिता की तद्रा भंग होती है टेलिफोन की कर्कश आवाज से,,अम्मा जी पूजाघर में है और पति मनीष आफिस में,,वह दौड़ कर फोन उठाती है,उधर से मनीष की आवाज सुनाई पड़ी**मृदु ! जल्दी से तैयारी करो, मायके जाने की , मां जी आई सी यू* में है, दोनों भाई अकेले हैं, सुबह ही छाती में दर्द था,पड़ोसी शर्मा जी ने भर्ती करा दिया है,, सुबह एक गाड़ी आयेगी तुमको लेने,जल्दी करो,, मैंने सारी व्यवस्था कर दी है**वह लड़खड़ा गई, आंसू आंखों में बह आये थे,,तभी मनीष ने कहा*अम्माजी को फोन देना**वह दौड़ कर उनको बुला लाई,,पता नहीं मनीष ने क्या कहा उनसे कि वह घबराकर बोली,जल्दी तैयार हो जाओ बहू**मुदिता ने जल्दबाजी में दो चार कपड़े रखे और तैयार हो गई,, बाहर गाड़ी हार्न दे रही थी,मुदिता का दिल घबराहट में न जाने कितने अनाप-शनाप बातें सोच रहा था,, गाड़ी में बैठी हुई मुदिता स्तब्ध थी,साथ ही पीछे छोड़ आए कामों की चिंता भी थी, बच्चों को भी नहीं बता पाई,,,पता नहीं कैसे सब करेंगी अम्मा जी?,, फिर मां के विषय में सोचती,*अकेले वह कैसे संभालेगी मां को?, अचानक क्या हो गया,मेरे दोनों भाइयों का क्या होगा,, फिर अपनी गलत सोचों को परे धकेल देती,,, नहीं नहीं,ये मैं क्या सोच रही हूं?तभी रेलवे स्टेशन आ गया और सामने ही मनीष मिल गये,, उसे टिकट थमाते हुए बोले, आराम से चार पांच दिन तक रुक जाना,जब तक मां की हालत संभल नहीं जाती**और एक बड़ा सा बैग थमा दिया,,लो,इसे संभालो, तुम कुछ जरुरी सामान घर भूल आई थी**ट्रेन आई और वह बैठ गई,,वह चुप थी, केवल मनीष बोले जा रहे थे*बच्चों की चिंता मत करना, मैंने छुट्टी ले ली है,*
ट्रेन आगे बढ़ गई,,
शाम को कानपुर पहुंच कर उसने आटो किया और घबराती हुई घर पहुंची,,,गेट से ही भागते हुए घर में घुसी तो सामने जो दिखा,,वह चकरा कर वहीं सोफे पर बैठ गई,, सुखद आश्चर्य!! मां तो बिल्कुल ठीक थी,वह दौड़ कर उनके गले लग गई**मां तुम्हारी तबियत कैसी है,, तुम तो आइसीयू में,,,,**
अरे नहीं, मैं बिल्कुल ठीक हूं,कल से ही सुजय,विनय जिद कर रहे थे कि इस बार दीदी के हाथों से राखी बंधवायेगे*और शाम तक मनीष जी को फोन कर बात भी कर ली,,ये सब मनीष जी का सुनियोजित नाटक था,,स्वाति के आने से तुम बहुत व्यस्त हो गई थी, इसलिए ये सब करना पड़ा, इसमें स्वाति भी शामिल है***
मनीष जी के दिये बैग में राखियां, मिठाई,फल और मां के लिए साडी भी थी। मुदिता हैरान रह गयी , रिश्तों की जिस डोर को वह संभालने के लिए अपनी इच्छाओं, सपनों को भूल गयी थी,,वे रिश्ते तो बहुत अनमोल निकले, बहुत प्यारे,यह स्नेह बंधन तो रक्षाबंधन की तरह पवित्र और बहुमूल्य है,, इन्हें मैं आजीवन सहेज कर रखूंगी,
वह फोन पर मनीष और स्वाति को। धन्यवाद देते ऱो पड़ी,,


लाकडाऊन का अंत

आज लाकडाउन का आखिरी दिन है, लंबी प्रतीक्षा के बाद यह शुभ दिन आया तो है, पर शंकाओं आशंकाओं के झूले में झूलता सुमि का मन न जाने क्यों आश्वस्त नहीं हो पा रहा है कि सब कुछ सामान्य हो गया है,, और मृत्यु की भयावहता छट गई है,, सड़कों पर पसरा सन्नाटा अब मुखर होने लगा है, बाजारों की रौनक लौट आई हैं,,,, जीवन फिर उसी पुरानी राह पर चल निकला है,,,, सड़कों पर कुछ बच्चे क्रिकेट खेल रहे हैं,इक्का दुक्का गाडियां भी चल रही हैं,,लोग टहल रहे हैं, फिर भी‌ वो क्या है जो कहीं खो गया है,,वो पहले जैसा उल्लास, उत्साह नजर क्यो नही आता? मन उदास हो गया, फिर सोची कि सबको फोन करके हालचाल पूछ लेती हूं,, बहुत दिनों बाद,यह तनाव खत्म हुआ तो कैसा लगता है?सभी सखियों, रिश्तेदारों से बात भी हुई,, लगभग सबकी स्थिति उसके जैसी ही थी,,एक महीने से घर के नितान्त अकेलेपन में जी गई जिंदगी के बाद थोड़ा सा खुला परिवेश जब मिला,तो कदम बेपरवाह हो कर नहीं उठ रहे थे,,सब जैसे एक बंद जीवन के आदी हो चुके थे,,बाहरी दुनिया से कट कर खुद अपने-आप से मिलना, अपनों के बीच कुछ अनमोल पल गुजारना कभी इतना सुखद भी होगा, सुमित नहीं जानती थी,,, बंद खिड़कियों के अंदर ही सुख सद्भावना की मधुरता मिलेगी,किसे पता था,आज जिस तरह पूरा देश एकसूत्र में बंध कर मानव कल्याण के लिए संकल्पित हुआ था,जाति धर्म भाषा वर्ग भेद को भुला कर प्रधानमंत्री जी के निर्देश का पालन कर रहा था और पुलिस प्रशासन, चिकित्सा विभाग भी सक्रिय था,काश,यह रामराज्य हमेशा कायम रहता,बच्चे इसी तरह अनुशासित रहते, पारिवारिक सुख की अनुभूति,एक दूसरे का साथ,,शायद कभी संभव नहीं होता,यदि यह लाकडाउन नहीं होता,,यही सकारात्मकता हमें जीवन में अपनानी चाहिए,,बस यह कोरोना*न हो,,,,सुमि आज एक दार्शनिक की तरह सोच रही थी, दर्शन शास्त्र की प्रोफेसर जो थी, एक वर्ष बीत जाने के बाद आज मन पर विगत स्मृतियों ने दस्तक दी थी,,न जाने कितने अपने साथ छोड़ गए थे,रात दिन एक अजीब सी आशंका में घिरा मन, कहीं भी चैन नहीं पा रहा था,,, अपनों को खोने का दुःख,, उसे महीनों रुलाता रहा था,,, माता पिता सुदूर बिहार में, एक छोटे-से गांव में थे,भाई दिल्ली में डाक्टर,,,उस समय चारों तरफ कोरोना वायरस की दहशत और उनसे जुड़ी अफवाहों का बाजार गर्म था,, जैसे किसी को भी किसी पर भरोसा ही नहीं था,सुमित ही जानती है ये दिन कैसे गुजारे थे उसने,,भाई नामी अस्पताल में डाक्टर था, और रात दिन मरीजों की सेवा में लगा हुआ था, सप्ताहांत में ही वीडियो काल करके बात हो पाती थी,, गांव में अम्मा बाबूजी परेशान,अम्मा का रो-रोकर बुरा हाल था,वह बार बार कभी भाई को छुट्टी लेकर घर आने को कहती तो कभी सुमि को सब कुछ छोड़ छाड़ कर घर बुलाती,,, लेकिन इस लाकडाऊन ने सब कुछ बंद कर दिया था,, उसे छुट्टी मिलने पर भी बाहर जाने की अनुमति नहीं थी, आवागमन के सारे साधन बंद जो थे, और भाई सुमित किसी भी तरह घर जाने को तैयार नहीं था,रात दिन मरीजों के बीच रहकर,, उनकी सेवा करते हुए वह कहीं जाना नहीं चाहता था,, एक जुनून सा सवार था उस पर,,इस बीमारी पर विजय पानी ही है,,वह लड़ना चाहता है,,सुमि अपने भाई की इस भावना का आदर करती थी,, उसे गर्व था उसकी संवेदनशीलता पर,,
एक दिन उसने सुना कि बड़े अस्पतालंंं में एक डाक्टर संक्रमित हो गये है और जब सुमित की तस्वीर दिखाई गई टीवी पर तो सुमि का कलेजा मुंह को आ गया,, आंसू रूक ही नहीं रहे थे,,वह फोन करती, उसे सांत्वना देती,*तुम ठीक हो जाओगे, चिंता मत करो*लेकिन सुमित उल्टा उसे ही समझाता , दीदी मेरी चिंता मत करो, मैं साहस से सामना कर रहा हूं,हारुगा नहीं, तुम देखना*,,,अम्मा तो जैसे पागल ही हो गई थी और दिल्ली जाने की जिद करने लगी,, अंततः लगभग एक महीने के बाद अम्मा ने बेटे से बात की,,अम्मा रोती रही, सुमित समझाता रहा,, और मां को न जाने क्या समझाया कि अम्मा का मन बदल गया, जिंदगी को, समाज को देखने समझने का नजरिया ही बदल गया,,अम्मा ने घर में रखे अनाज गरीबों के भोजन के लिए दान कर दिए, और खाना बनवा कर खिलाने लगी, बाबूजी की मदद से बच्चों के लिए दूध का प्रबंध किया, अपने सुमित की खुशी के लिए अम्मा बाबूजी का यह छोटा सा प्रयास था,सुमि विह्वल हो गई थी जब सुना कि लगभग ढाई महीने की पीड़ा सहने के बाद सुमित चला गया हमेशा के लिए, लेकिन उसके काम उसकी सेवा, उसकी संवेदना अमर हो गई थी जब उसके सम्मान में पूरा देश तालियां बजाकर और अश्रुपूरित आंखों से उसे विदा कर रहा था,,आज‌ वह न केवल अपने परिवार बल्कि पूरे देश का स्वाभिमान जगा गया,,,,आज बहुत दिनों के बाद सुमित बहुत याद आया था,,सुमित ने आंखें पोछी,, दरवाजे पर कोई दस्तक दे रहा था, कामवाली मीरा थी,*नमस्ते मैडम*वह बाहर ही खड़ी रही,सुमि ने आने का कारण पूछा तो वह रुआंसी हो कर बोली*कुछ पैसे चाहिए, घर में चावल नहीं है,,राशन कार्ड से अभी नहीं मिला बोला कि दो दिन बाद देंगे*
*पर दुकान तो कल सुबह खुलेगी, अभी क्या करोगी,रुको वहीं,वह रसोईघर से चावल,दाल, सब्जियां लाकर देती है, और एक हजार रुपए भी*मीरा खुश हो गई, मैडम मैं आपके पैसे लौटा दूंगी,*कोई बात नहीं तुम जाओ*
ये छोटी सी मदद मीरा के बच्चों को आज भूखा नहीं सोने देगी, लेकिन सरकार की मदद क्यो नही उन गरीबों तक पहुंच पाती है?उनको इस बीमारी की गंभीरता के बारे में समझाना,मास्क, साबुन की व्यवस्था और राशन जरुरत की चीजें उपलब्ध कराना, कैसे संभव होगा? सुमि चिंतित हो उठी थी,जब उसके शहर को रेड जोन में डाल दिया गया था और ये गरीब बस्तियों में रहने वाले लोग बिना मास्क लगाएं, झुंड बनाकर पानी लेने आते जाते,, उनके घर पर पानी का टैंकर नहीं पहुंच रहा था,,,सुमि और उसकी सहेलियों ने मेयर से बात की, और प्रशासन की उपेक्षा पर भी सवाल उठाए,, ऊपर तक बात पहुंचाने की बात कही तब जाकर बात बनी,,,,आज लाकडाउन की कैद से आजाद हो गई है लेकिन इस अकेलेपन के लाकडाऊन से मुक्त नहीं हो पा रही थी सुमि,,इस चहल-पहल के बीच रहकर भी,, उसने मन ही मन निर्णय किया कि वह अब इन गरीबों के लिए काम करेगी,सब कुछ सरकार नहीं कर सकती, हमारी संवेदनाएं, मानवता, करुणा का लाकडाउन भी खोलना होगा,,,अब सुमि उदास नहीं थी,,,

पद्मा मिश्रा जमशेदपुर , झारखंड

अँगूठा छाप
पदोन्नति अपने साथ ट्रांसफर ले कर आई थी। इतने सारे सामानों की पैकिंग अनपैकिंग, बच्चों के एडमिशन, लम्बी लम्बी यात्रा, रोजमर्रा की सुविधाओं को जुटाने की हड़बड़ी….. और भी जाने कितनी परेशानियाँ…. फिर भी रोमाँचित थी वह! मिस्टर आर एस कपूर के बगल वाला फ्लैट मिला था उसे… अरे वही कपूर साहब, जिनकी वकालत के डंके पूरे शहर में बजते हैं। ऊँची-ऊँची डिग्रियाँ, प्रबुद्ध पर्सनैलिटी के मालिक, हमेशा किसी न किसी केस के सिलसिले में टीवी और अखबारों में छाए रहने वाले कपूर साहब, उसने सुना है, एक-एक हीयरिंग के बीस से तीस लाख तक ले लेते हैं। शहर के किसी उत्सव में दिख जाएँ तो वो प्रोग्राम अपने आप ही पेज थ्री पर आ जाए। सही अर्थों में वो इस शहर में किसी सेलिब्रिटी सा ओहदा रखते हैं।
उन लोगों से दोस्ती हो सकेगी भला? यदि वह उनकी पत्नी के पास ढोकला या खीर ले कर जाएगी तो क्या वह भी अपने किचन से कुछ बनवा कर उसके पास प्रत्युत्तर में भेजेंगी या उस जैसी को कोई भाव ही नहीं देने वाली? चाय पर बुलाने पर आएँगें वो लोग?
ढोकला और खीर उन लोगों के कद के सामने बड़ी छोटी चीजें लगीं तो उसने सारे दिन मेहनत की और कपूर साहब के के घर लौटने के बाद वह एक खूबसूरत सा प्लम केक लेकर उनके भव्य और आलीशान दरवाजे पर खड़ी थी जो गलती से उस समय खुला छूटा हुआ था।
अंदर मँहगे सूट-बूट में सजे कपूर साहब और उनकी पत्नी जोर-जोर से छोटी उमर के नौकर पर चिल्ला रहे थे और फिर वहीं रखी एक छड़ी उठाकर वे उसे पीटने लगे …हरामखोर… जाहिल… साला-अँगूठाछाप…आज मैं तुझे जिन्दा नहीं छोड़ूँगा.. तेरी चमड़ी उतार कर जूता बनवा लूँगा… और वह उनका दरवाजे की ओट में भौचक्की सी खड़ी सोंच रही थी… यहाँ कौन है जाहिल? कौन है अँगूठाछाप?

हम होंगे कामयाब
“पापा मुझे आप से कुछ बात करनी है, बहुत जरूरी!”
इतनी-इतनी व्यस्तता के बीच, बेटी रेखा ने आकर कहा तो जल्दी में मुँह में दाल-चावल ठूँसते हुए रामसेवक जी का हाथ रुक गया…
“हाँ, कहो!”
“पापा मुझे वोट देने नहीं जाना!”
चौंक से गए वह। इस बार, जब इसका पहला वोट है, इसे तो उत्साह से भरा होना चाहिए था। फिर ये ‘उनकी’ बेटी है… पार्टी के उस कर्मठ कार्यकर्ता की, जो चुनाव का एनाउंसमेंट होने के बाद से ही पागलों की तरह भागदौड़ कर रहा है। रैलियों के लिए मंच सज्जा से लेकर भीड़ जुटाने तक, सुदूर गांवों के घर-घर तक पँहुचकर सबको अपनी पार्टी के पक्ष में कर लेने तक, शहर भर में पोस्टर विज्ञापन से लेकर बूथ संचालन तक… है कोई दूर-दूर तक जो इन कामों में उनकी बराबरी कर सके? उनकी पार्टी के सारे बड़े नेता उनको जानते पहचानते हैं, इज्जत करते हैं, यहाँ तक कि उनके घर में भी आते-जाते रहते हैं। लाखों की संख्या में नवयुवक उनके हाथ के नीचे काम करते हैं और एक इशारे पर कुछ भी कर जाने के लिए तैयार रहते हैं। उनको अच्छी तरह मालूम है कि कुछ तो ऐसा है उनके व्यक्तित्व में, कि उनके घर में भी कोई उनसे नजर मिला कर बात करने की हिम्मत नहीं करता।
“क्यों नहीं देना है वोट?” बच्ची की ना समझी भरी जिद को समझने की नीयत से पूछा उन्होंने!
स्पष्ट देखा कि रेखा थोड़ा सहम सी गई थी। थूक निगलते हुए बोली,
“हमको कोई कैंडिडेट पसंद नहीं है।”
अब गुस्सा आ गया उनको!
“अपने नेता को जिताने के लिये तुम्हारा बाप धूप में भूखा-प्यासा ऐसे-ऐसे लोगों की चिरौरी विनती करता घूमता रहता है जिसके पास तुम खड़ी तक नहीं रह सकोगी और तुमको कोई पसंद नहीं है? भूल गईं कि तुम्हारा ये सारा ऐश-आराम इन्हीं नेताओं की बदौलत है।”
पिता ने कहा तो रेखा के चेहरे पर तैश की लकीरें सी खिंच गईं।
“नहीं पापा, ये सब आपकी मेहनत और वफादारी की बदौलत है, किसी की कृपा से नहीं!”
फिर हिकारत से बोली
“ये लोग तो सिर्फ अपनी चिंता में मगन है, देश के लिए कोई नहीं सोंचता। किसी भी पार्टी की सरकार हो, बस वही लोग अपने दोस्तों यारों के साथ अमीर होते हैं, साधन संपन्न होते हैं। जनता अपनी रोजी-रोटी और जरूरतों के लिए जान भी दे दे, किसी को परवाह नहीं।”
बेटी का आक्रोश देखकर वे कुछ सोंच में पड़ गए।
“इतनी छोटी सी उम्र में इतने बगावती तेवर?”
“हाँ पापा, हम पढ़ी लिखी जेनरेशन हैं। सोंचते समझते भी हैं, देख भी सकते हैं कि क्या-क्या हो रहा है। हमें न बेवकूफ बनाया जा सकता है न हम किसी की चाल में आएँगे।”
समझ गए रामसेवक कि इस पीढ़ी को डाँटकर या दबा कर अपनी बात नहीं मनवाई जा सकती।
“तो वोट न देकर तुम क्या बदल लोगी? बल्कि अगर तुम्हारी अपनी भागीदारी न हो तो बाकी लोगों के चुनाव पर ऊँगली उठाने का अधिकार तुम्हें क्यों मिले?”
इस बार रेखा सोंच में पड़ी हुई थी।
“पढ़ी लिखी हो तो पलायन मत करो। सोंचो समझो, सही कैंडिडेट चुनो। सिर्फ टीवी वगैरह देख कर बड़े बड़े नेताओं की बात करने के बजाय अपने एरिया के कैंडिडेट्स के बारे में पता करो। अच्छे लोग भी हैं समाज में, बदलाव चाहती हो तो उन्हें खोजो!”
सही तो कह रहे हैं पापा, रेखा सोंच रही थी। उन्होंने तो एक बार भी अपनी पार्टी को वोट देने की बात नहीं की!
आक्रोश पिघलने लगा था। वह युवा है, स्थितियों को सुधारने की जिम्मेदारी है उसपर।
“ठीक है पापा, मै अपने देश से प्यार करती हूँ इसलिए वोट देने जरूर जाऊँगी।”
उसके चेहरे पर एक प्यारी सी मुस्कान खिल उठी थी।

श्रुत कीर्ति अग्रवाल
shrutipatna6@gmail.com


“अपरिग्रह”
बस से उतर कर मैं घर की तरफ चल पड़ा । परसों ही छोटे भाई का फोन आया था कि भैया एक बार घर आ जाओ ,पिताजी-माँ आपको बहुत याद करते हैं ।”
मैं समझ गया था, ज़रूर पैसों की ज़रूरत होगी ।
कितनी बार समझाया है अंजली को कि यह सब शानो-शौकत मेरी वर्षों की मेहनत का परिणाम है उसे मैं किसी को नहीं बाँटना चाहता परन्तु वह हमेशा मुझे ही समझाने की कोशिश करती रहती है, “जो हमारे भाग्य में लिखा है उसे कोई नहीं ले सकता,लेकिन परिवार वालों व जरूरतमंदों की सहायता से जो दुआएं मिलती है उनसे हमारे सुख बढ़ अवश्य जाते हैं।”
” बस रहने दिया करो यह तुम्हारी दान-धर्म की बातें, अब मैं किसी को कुछ भी नहीं देने वाला ,यह फ्लैट दस साल पुराना हो चुका है,एक नई साइट आई है जहाँ बंगले बन रहे हैं, मैं सोच रहा हूँ कि वहाँ एक पाँच बेडरूम का बंगला बुक करवा देता हूँ।”
“जी, वैसे इतने बड़े घर की क्या आवश्यकता है? हमारा परिवार भी इतना बड़ा नहीं है ,चार कमरे वाला करवा दीजिये व थोड़े पैसे देवर जी को भेज दीजिये उनके बेटे की फीस जमा करवानी होगी न ।
परसों ही सीमा का फोन आया था,चिंता कर रही थी बेटे की फीस की ।” अंजली मुझे टोकते हुए बोली ।
मैं अपने ही विचारों की तंद्रा में दो दिन पहले अंजली के साथ हुई बातचीत पर झुंझलाता हुआ चला जा रहा था,प्यास के मारे गला सूख रहा था ।
बस स्टैंड से घर का रास्ता करीब तीन सौ मीटर था परन्तु जून की गर्मी में हाल, बेहाल होने लगा ।
वहीं पर एक हैण्डपम्प के पास पानी पीने के लिए रुक गया ।
एक छोटा लड़का भी वहाँ पानी लेने आया था , मैंने उसे हैण्डपम्प चलाने को कहा ।
बच्चा था, लगा जोर-जोर से चलाने और मैं प्यास से बेहाल– सोच रहा था घड़ा भर पानी पीने की ।
लेकिन यह क्या ?
जितना पानी मेरी अंजुली में आ रहा था उससे ज़्यादा पानी बह रहा था । मैंने पानी जल्दी-जल्दी गटकने की कोशिश की परन्तु उसे बहने से मेरी अंजुरी रोक नहीं पा रही थी ।
पानी को गले मे गटकते-गटकते मैं हांफने लगा और उस बच्चे को पंप चलाने के लिए इशारों से मना कर दिया। अत्यधिक मात्रा में पानी पीने से पेट भी फूल चुका था लेकिन जो पानी मेरी अंजुरी में था उसे मैं गिराना नहीं चाहता था ।
अचानक से वहाँ दो चिड़ियाएँ आईं और हैंडपम की मुंडेर पर फुदकने लगीं,मैंने अंजुरी का पानी पास ही पड़े एक टूटे घड़े की ठीकरी में डाल दिया ।
फुदकती हुई चिड़ियाएँ पानी पीने लगीं ।
जिसके हिस्से का था ,उसे मिल चुका था ।
आँखों में जमा बरसों का भ्रम, दो बूँद आँसू बन गालों पर लुढ़क आया ।

“वामा-ग्रन्थि”
मैं उस अद्भुत इंसान को देखकर सोच में पड़ गया था .. ऐसा साहस विरलों में ही मिलता है ।
जब उसने कहा, “मुझे इस समर्पण व त्याग के जीवन से निजात पानी है शायद भगवान ने ही ऐसी कोई ग्रन्थि बनाई होगी ..…” मैं चाहती हूँ कि आप इसे खत्म करने की दवाई दें।”
कितनी संजीदगी से उसने कहा दिया….” मैं जिस चक्रव्यूह में हूँ उसकी ज़िम्मेदार मैं हूँ न कि मेरे पति” मैने कई बार जोर दिया कि गलती तो आपके पति की ज्यादा है जो आपकी भावनाओं व त्याग को न समझकर आपको मानसिक प्रताड़ित करते हैं लेकिन उसका कहना था…”त्याग ,दया सहनशीलता व समर्पण के गुण मेरे हैं जो मैंने उन्हें इस जीवन में दिए और इतने गूढ़ स्तर तक दिए कि उनके जीवन में यह मात्र व्यर्थ की हवाई बातें बन कर रह गईं।
जब पुरुषोचित अहम के वशीभूत…. यह मुझे अपने इशारों पर नचाना चाहते थे तो वह कठपुतली जैसी मौन स्वीकृति मेरी ही थी जिन्हें मैं पत्नी के कर्तव्यों व प्रेम का नाम देकर निभाती चली गई… और उन्होंने इसे अपना जन्मसिद्ध अधिकार समझ लिया।
“जीवन हो या कैनवास .. आप जितने रंग भरते हो वे खुद की खुशी के लिए भरते हो लेकिन इतराता तो केवल चित्र ही है न !
वह तुम्हें वापसी में कुछ नहीं देता ।”
बड़े-बड़े मनोरोगियों का इलाज करते हुए आज महसूस हुआ कि वह मुझे एक नया पाठ पढ़ा गई ।
“कोई भारतीय स्त्री ही थी ……..”

“छुपा खंजर”
आज जब तुम मेरे पास आये तब तुम्हारी आँखों में दरिंदगी साफ दिखाई दे रही थी .. एक चमकीला सा नया चोला धारण करके आये थे और उसी में छुपे खंजर से तुमने मेरी हत्या कर दी।
तुम कैसे भूल गए कि मैं ही तुम्हारा पहला प्यार थी? सोते-जागते, उठते-बैठते हर वक़्त तुम्हारे चिंतन में मैं ही रहती थी।
बहुत लोगों ने तुम्हें मेरे ख़िलाफ़ भड़काने की भी कोशिश की लेकिन तुमने कभी किसी को तवज़्ज़ो नहीं दी और बड़ी शिद्दत से मुझे प्यार करते रहे ।
मैंने तुम्हारे प्यार को इतनी गहराई से महसूस किया है ,जब तुम्हारे एक मित्र ने तुमसे कहा था ,” इसके भरोसे कैसे तुम अपनी जिंदगी को सौंप सकते हो जो तुम्हें दो वक़्त की रोटी भी बमुश्किल समय पर देती है।”
उस समय तुम्हारा जवाब सुनकर मेरा सर गर्व से ऊँचा हो गया था जब तुमने कहा था ,” यही मेरा पहला प्यार है मैं इसको पूरी शिद्दत से चाहूँगा। जब तक सांस है,यही मेरा मान है..यही मेरा अभिमान है ।”
अब मैं आखिरी सांस गिन रही हूँ ।
“मैं कोई और नहीं..मैं ही तुम्हारी निष्पक्ष पत्रकारिता हूँ।”
“आखिर पीत-पत्रकारिता वालों ने तुम्हें खरीद ही लिया ।”

“अपराध बोध”
“कितनी बार कहा है तुमसे ,इसे अपने आँचल से बाहर निकलने दो ;लेकिन नहीं, तुम्हारा सहारा लेकर हमेशा गोद में दुबकना चाहता है ।”
“ऐसा नहीं है जी ,मैं हमेशा इसे बाहर भेजने की कोशिश करती हूँ और समझाती भी हूँ कि पापा के साथ फैक्ट्री जाना शुरू करो ,लेकिन वह कहता है ,”मम्मी मैं जब भी पापा की फैक्ट्री में जाता हूँ मुझे एक अजीब सा भय लगता है उन मशीनों से आती आवाजें मुझे वहाँ से भागने के लिए मजबूर करती हैं।”
“कोई डॉक्टर भी इसके भय की वजह नहीं जान पाए हैं अब ऐसा कैसे चलेगा ?
तुम अच्छी तरह जानती हो मैंने यह साम्राज्य हमारे बेटे के लिए खड़ा किया है।”राकेश जी थोड़े उग्र होकर बोले फिर बेटे की ओर मुख़ातिब होकर बोले,” बेटा तुम अपनी दीदी से कुछ सीखो ।देखो ,आज वह कितने बड़े पद पर है और डर-भय जैसे उसे छू भी न गया हो ।
अब मैं चाहता हूँ कि तुम भी ऐसे ही हमारा नाम रोशन करो।”
ऐसा कह वे पास ही पड़ी कुर्सी पर निढ़ाल होकर बैठ गए और इसी अन्यमनस्कता में न जाने कब उन्हें झपकी आ गई ।
अचानक उन्हें महसूस हुआ छमछम करती हुई चली आ रही है एक गुलाबी परी ।
“पापा मैं अनगिनत सपनों को पंख देने आ रही थी ;मेरी धड़कन आप दोनों के लिए स्पंदित होने लगी थी लेकिन अचानक आपने मुझे पग धरने से पहले अस्तित्व विहीन करने के लिए हत्यारों को सौंप दिया।
पापा, क्या सच में आपका दिल नहीं पसीजा ?
मुझे भी जीने का हक़ था आपने क्यों वंचित किया मुझे इस हक़ से?
वह लोहे के औजार आज भी मुझे डराते हैं ।
पापा,मैं ही वापिस आई हूँ इस घर में,बस चोला आपके बेटे का पहन लिया ।”

“जिंदा उम्मीदें”
“आज के बाद मैं कभी उससे नहीं मिलूँगा चाहे कुछ भी हो जाये क्योंकि अब मेरे पास ऐसे मित्र हैं जो मुझे हमेशा खुश रखने की कोशिश करते हैं और आज उन्होंने जो वीडियो भेजा उसे देखकर तो अब मै आराम की नींद सोऊंगा।”
बिस्तर पर जितनी शांति महसूस करते हुये वह सोया था उतना ही अशांत होकर अचानक उठ बैठा,भय के मारे पसीने से तरबतर कांपता शरीर। उसकी आँखें बंद थीं जिन्हें खोलना चाहता था लेकिन उन रेंगते हुए कीड़ों को महसूस कर रहा था जो उसे बचपन से डरा रहे थे,अब उसने आँखें और कस कर बन्द कर ली थीं।
उस डर को वह जितना भूलने की कोशिश करता, उतना ही उसे अपने पास पाता था।
काफी ज़द्दोज़हद के बाद उसने हिम्मत कर बिस्तर की साइड में रखा हुआ मोबाइल उठाया और वही वीडियो निकाला जिसे देखकर वह सोया था जैसे-जैसे वीडियो चलता गया उसके मन के भाव बदलते गये और अंत में वह एक दम शांत हो गया था। अब उसे वह जीवन-सूत्र मिल गया था जिसमें जीने के लिये उम्मीदों की रोशनी थी।
वह धीरे से उठा और अलमारी खोलकर वहाँ छुपाई हुई एक डायरी निकाली और उसके एक-एक पन्ने को फाड़ने लगा ,जैसे जैसे वह फाड़ता जा रहा था उसमें लिखी हुई उस डर की हर एक इबारत मिटती जा रही थी जो उसने शब्दों में तब उतारनी शुरू की थी जब वह बारह साल का बच्चा था और चाचा ने पहली बार शिकार बनाया था और उस दिन के बाद पन्ने बढ़ते गये थे।
अपने कुछ आभासी मित्रों की सहायता से आज वह उस दलदल से बाहर आ चुका था।

कुसुम पारीक


देख लिया था

900 वर्ग फीट का सामूहिक आंगन था। चारों तरफ कमरे बने हुए थे। मकान मालिक का संयुक्त परिवार और अन्य किरायेदार वहाँ रहते थे।
एक किशोर चिल्लाया -“सॉंप! सॉंप!”
लोग कमरे से दौड़कर बाहर आए। तब तक सॉंप उबड़ी रखी बाल्टी में घुस गया। उसे उम्मीद थी कि अब वह लोगों की पहुंच से दूर है। कोई आदमी अब अंदर घुसकर मार नहीं सकता। वह बाल्टी को चट्टान समझ बैठा था कि इसे कोई हटा नहीं सकता।
सुधीर सॉंप से बहुत डरता था। वह सोचता कि सॉंप पूरे संसार से खत्म हो जाते, तो कितना अच्छा होता? ये चूहे खाकर जीते जरूर हैं, मगर मौका पाकर लोगों को मौत की नींद सुला देना इनका प्रमुख काम हैं।
सुधीर लम्बी लाठी लिए दूर से ही बाल्टी का मुआयना किया। कड़ी के पास से घुसा सॉंप बाहर न निकल जाए, इस चिंता से उसके रोंगटे खड़े हो गए। उसने चिन्दी से बाल्टी को चारों ओर से लपेट दिया। अब विमर्श शुरू हुआ कि इस सॉंप को मारा कैसे जाए? अंततः मिट्टी तेल चिन्दी पर छिड़ककर सॉंप को जीवित दहन करने का दर्दनाक उपाय सुधीर को सूझ ही गया।
इधर सॉंप अंधेरे में अपने को अधिक सुरक्षित महसूस कर रहा था कि बाल्टी के भीतर धुआं भरने लगा। वह धुएँ और गर्मी से तड़प-तड़पकर उछलने लगा। बाल्टी के भीतर से ठन-ठन की टकराहट सुनकर दर्जन भर लाठीधारियों ने मोर्चा संभाल लिया। असहनीय वेदना से वह बाल्टी से बाहर जाने व्याकुल हो उठा।
सॉंप मरता, क्या न करता। कल्पना चावला की स्पेस शटल से पृथ्वी पर वापसी की अंतिम यात्रा की तरह सॉंप जल रही चिन्दी को ठेलते हुए बाहर निकलने का प्रयास करने लगा। किसी तरह झुलसता आधा शरीर बाहर आया। लोगों की आक्रांत भीड़ देखकर जले मुंह से कॉंपते-रोते सॉंप ने रहम की भीख मांगी -“अरे आदमियों! मुझे मत मारो। मुझे जाने दो। मैंने किसी का कुछ नहीं बिगाड़ा है।”
सुधीर ने वीर रस में हुंकार भरते हुए आदेश दिया -“मारो, मारो, बचने न पाए।”
एक लाठी सॉंप के मुॅंह पर लगी। वह अर्द्धबेहोशी की हालत में जान बचाने पुनः बाल्टी में घुसना चाहा। मगर ताबड़तोड़ लाठियों की मार से उसका शरीर ऐंठते हुए जल रही चिन्दी में समाने लगा। लोग विजेता की तरह इस लोमहर्षक घटना को देख रहे थे। सॉंप की ऐंठन बंद हो चुकी थी। अब वह रस्सी की तरह निर्जीव होकर जल रहा था।
दूसरे दिन सुबह एक कमरे से रोने-चिल्लाने की आवाजें आने लगी। एक बच्चा सोते में सॉंप के काटे जाने से मृत पड़ा था। दरअसल सॉंप के मॉबलिंचिंग का दृश्य दूसरे सॉंप ने छुपकर देख लिया था।

जोखिम

मनीषा शहर के एक कपड़े की दुकान में सेल्सगर्ल थी। वह गाँव लौटती, तब तक प्रायः रात के आठ बज चुके होते। आज घरवाले कुछ चिन्तित दिख रहे थे। मनीषा का फोन आया था। वह बता रही थी कि उसकी सायकिल पंक्चर हो गई है। मगर मनीषा के मोबाइल की बैटरी डाउन होने के कारण बात पूरी नहीं हो सकी।
शहर से गाँव आने के दो रास्ते थे. एक रास्ता उबड़-खाबड़, घुमावदार जंगल से होकर आता था। दूसरा रास्ता मुरूम वाला था। सबकी आँखें इसी रास्ते पर जमी हुई थी।
आखिर एक घंटे विलम्ब से मनीषा सकुशल घर आ गई। मां ने प्यार से डांटते हुए कहा -“तुम जंगल के रास्ते से क्यों आई बेटी? खूंखार जानवर भरे पड़े हैं जंगल में। इस रास्ते से तो दिन में भी कोई अकेले आने-जाने की हिम्मत नहीं जुटा पाता।”
मनीषा ने बड़े आत्मविश्वास के साथ उत्तर दिया -“इसीलिए तो इस रास्ते से आई माँ!”
हतप्रभ माँ ने पूछा -“मतलब?”
मनीषा ने गंभीर होते हुए समझाया -“माँ! मुझे जंगल के चौपाया आदमखोर जानवरों से उतना डर नहीं लगता, जितना दोपाया नारीखोर जानवरों से डर लगता है। मैं दूसरी निर्भया बनने की जोखिम नहीं उठा सकती थी।”
माँ को बेटी की समझदारी पर अब गर्व हो रहा था।


जूठन
वह आदिवासी बहुल क्षेत्र का ऊर्जावान पत्रकार था। वह पीड़ित रखैलोंं और यौन शोषण की शिकार महिलाओं की मुक्ति के लिए आंदोलन खड़ा करना चाहता था। आज उसका साक्षात्कार चल रहा था परी से।
परी किशोरावस्था में झाड़ू-पोछा करने का काम सरकारी दफ्तर में करती थी। वहाँ के बाबू ने उसे झूठे प्रेम-जाल में फॅंसा लिया। गाँव के बाहर सूने मंदिर में माला पहनाकर शादी हो जाने का झांसा दिया। फिर क्या था, बाबू उसका शारीरिक शोषण करता रहा। अंततः परी की गोद में एक बच्ची आ गई। परेशान घरवालों ने सामाजिक रीति से शादी के लिए बाबू पर दबाव बनाया। बाबू ने अपनी ऊँची जाति और सामाजिक मर्यादा का हवाला देकर अलग से खर्चा देते रहने का भरोसा दिलाया। एक दिन बाबू का स्थानांतरण हो गया। इधर परी समाज की दृष्टि में एक हरामी बच्ची की माँ बनकर रह गई। अपनी आप बीती परी ने कह सुनाया।
पत्रकार ने पूछा -“अब आप क्या चाहती हैं?”
बिस्कुट चबाती हुई परी को जैसे हंसी छूट गई -“लो इसे आप खा लो।” जूठे आधे बिस्कुट के टुकड़े को परी ने आगे कर दिया।
पत्रकार के लिए यह अनपेक्षित घटनाक्रम था। उसने संयमित होकर कहा -“इससे आपकी समस्या हल होती तो जरूर खा लेता। पर मुझे दिखावा पसंद नहीं।”
परी का दर्द मुस्कुरा उठा -“देखिए क्रांतिकारी पत्रकार साहब! मेरे एक जूठे बिस्कुट को तो आप खा नहीं सकें। क्या आप मुझे अपना सकोगे? जबकि मैं खुद पचासों की फेंकी हुई जूठन हूँ।”
साक्षात्कार खत्म हो गया।

चतुर व्यक्ति की प्रार्थना

वह अत्यंत चतुर व्यक्ति था। वह बिना चूके प्रतिदिन प्रार्थना करता था।
मेरे अड़ोस में गांधी जैसा अहिंसा का पुजारी पैदा हो, जो अन्यायी सत्ता के खिलाफ लंगोट धारण कर शांतिपूर्ण आंदोलन कर सके।
मेरे पड़ोस में लालबहादुर जैसा देशभक्त नेता पैदा हो, जो अभावों में रहते हुए देश का नेतृत्व कर प्राण न्यौछावर कर सके।
मेरे घर के सामने भगतसिंह जैसा क्रांतिकारी पैदा हो, जो लोकतंत्र के लिए लड़ते हुए फांसी पर हंसते-हंसते झूल सके।
मेरे घर के पीछे अम्बेडकर जैसा महापुरुष पैदा हो, जो अपने परिवार की चिन्ता न कर अपने दलित, शोषित, पीड़ित समाज के स्वाभिमान के लिए जिन्दगी भर संघर्ष कर सके।
मेरे घर के ऊपर रहने वाले परिवार में बुद्ध पैदा हो, जो सारी सुख-सुविधाओं का त्याग कर भारत को विश्वगुरु बनाने में योगदान दे सके.
मेरे घर के नीचे रहने वाले परिवार में नरेन्द्र दाभोलकर जैसा सामाजिक कार्यकर्ता पैदा हो, जो समाज से अंधविश्वास मिटाते हुए गोलियाँ खा सकें.
देश में आईएएस, आईपीएस अधिकारी बनकर देश की सेवा करने वाला भी तो जरूरी है, ऐसा महत्वपूर्ण संतान मेरे घर में ही पैदा हो।

विचारधारा

पुलिस ने पूछा -“तुमने अपने घर को आग के हवाले क्यों कर दिया?”
युवक ने कहा -“छुटकारा पाने।”
“किससे छुटकारा पाने?”
“खून चूसने वालों से।”
“मतलब?”
“खटमलों से”।
“तो खटमलों को मारना था न। गुस्से में अपना ही नुकसान कर लिया बेवकूफ। कल को कोई गाली देगा तो तुम उसे गोली मार दोगे क्या?”
“नहीं साहब! मैं ठहरा अहिंसावादी। मैं ऐसा कैसे कर सकता हूँ? ये देखो मेरे अहिंसक होने का सबूत। इस बाटल में कल तक के सैकड़ों खटमलों को मैंने जिन्दा पकड़ रखा है।”
“अरे! इतने सारे खटमलों को पकड़कर जिन्दा रखा है! तो बाकी खटमलों के लिए घर को आग के हवाले क्यों कर दिया?”
“साहब! पहले हमारी सोच थी कि इनको भी जीने का हक है। इसलिए थोड़ा बहुत खून पी लेने दो। बेचारे हम पर ही तो आश्रित हैं। पर धीरे-धीरे ये बेशरम खटमल दिन में भी खुलेआम खून पीने लगे। फिर भी मैंने बर्दाश्त किया और इनको मारने की बजाय पकड़कर बोतल में कैद करता रहा। सोचता, बोतल में कुछ दिनों तक यें जिन्दा तो रहेंगे और मैं भी अनावश्यक हिंसा करने से बच जाऊँगा। मगर इस चक्कर में मेरी बीबी का खून खटमलों ने इतना अधिक पी लिया कि वो मरते-मरते बची। मैंने जान लिया कि ये अब हमारे अस्तित्व पर ही हमला करने लगे हैं। मेरे सब्र का बांध टूट गया। मैंने अति का अंत करने की ठान ली। इसलिए इन खून चूसने वाले अत्याचारियों का समूल नाश करने अपने ही घर को आग के हवाले कर दिया साहब!”
पुलिस ने पिछले नक्सली वारदात का मास्टर माइंड घोषित करते हुए युवक को गिरफ्तार कर लिया। दरअसल पुलिस को उस युवक की बातें नक्सली विचारधारा की प्रतीत हुई थी।

गणित
काम करने वाली बाई राधा ने काम निपटाकर पूछा -”अब मैं जाऊँ मालकिन?”
मालकिन ने कहा -”लेट तो हो चुकी हो राधा, तो पाँच मिनट और बैठ जाओ। कुछ जरूरी बातें करनी हैं।”
राधा को लगा कि दीपावली के बोनस और पेमेंट बढ़ोतरी के विषय में मालकिन कुछ कहेंगी। इसलिए खुश होते हुए बैठ गई।
मालकिन ने कहना शुरू किया -”इस बार कोरोना काल में सभी परेशान हैं। लाकडाउन में तुम काम पर नहीं आई थी। पेमेंट तो मिलना नहीं था। मगर हमें चिन्ता थी। इसलिए हमने पाँच किलो आटा, दो किलो दाल, एक किलो चीनी तुम्हें दान में दे दिया था। लेकिन अब हमारी हालत खराब है। आवक साठ हजार रूपये महीने मात्र है। इतने में घर चलाना कठिन हो रहा है। इधर पचपन लाख रूपये में एक बंगले का सौदा तय हुआ है। हर महीने वहाँ भी पैसा पटाना पड़ेगा। ऐसे में इस साल तुम्हें बोनस नहीं दे पाएँगे हम और पगार भी नहीं बढ़ा पाएँगे। इसलिए अच्छा होगा कि तुम कहीं और काम खोज लो।”
सुनते ही राधा को जैसे काठ मार गया। बड़ी मुश्किल से उसके बोल फूटे -”लाकडाउन में आपका अहसान मैं जिन्दगी भर नहीं भूल सकती। दस साल से आपके यहाँ काम कर रही हूँ। कुछ ज्यादा पगार के लालच में दूसरी जगह काम करके अहसान-फरामोश नहीं बनना है मुझे। आप बोनस मत दो, पगार भी मत बढ़ाओ। लेकिन मैं यहीं काम करूँगी मालकिन।”
मालकिन को ऐसे उत्तर की उम्मीद नहीं थी। आश्चर्यचकित होकर उसने कहा -”वो सब तो ठीक है। मगर मैं चाह रही थी कि घर का काम मैं खुद करूँ और घर खर्च में पति का हाथ बटाऊँ। वैसे भी तुम कब तक काम कर सकोगी? उम्र पचास पार हो गई है। तुम्हें आज नहीं तो कल आराम तो करना ही पड़ेगा। बहुत काम कर लिया तुमने।”
मालकिन के निहितार्थ को अब राधा समझ गई। दुखी मन से उसने कहा -”जैसी आपकी इच्छा।”
बात बनते देख मालकिन ने झट से कहा -”तो ठीक है। अब तक के हिसाब का ये पेमेंट रखो। मैं कल से ही घर का काम करना शुरू करूँगी।”
राधा गेट से निकलते हुए ऐसा महसूस कर रही थी मानो बहू ने घर से हकाल दिया हो।
दूसरी सुबह धनतेरस का दिन था। मालकिन के घर पाँच सौ रूपये कम पगार पर षोडशी कन्या काम पर उपस्थित हो चुकी थी। शुभ मुहुर्त में मालकिन ने नौलखा हार खरीदा। मालिक ने भी अपने लिए खरीदी एक नई चमचमाती कार। संध्या दीपक जगमगा उठे। मालकिन के गणित से राधा दीये की बत्ती बनकर जल रही थी।

मिक

एक पत्रकार संध्या 7 बजे श्रमिक बस्ती पहुँचा। वह श्रमिकों से अपने चैनल के लिए संवाद करना चाहता था।
उसने एक अधेड़ उम्र के व्यक्ति से पूछा -“आप क्या काम करते हैं?”
व्यक्ति ने सहजता से उत्तर दिया -“साहब! मैं श्रमिक हूँ।”
पत्रकार ने दूसरा प्रश्न दागा -“श्रमिक की परिभाषा क्या है?”
श्रमिक ने सकुचाते हुए बताया -“जो चड्डी-बनियान फटने के बाद भी पहनने मजबूर हो, वही श्रमिक है।”
पत्रकार उत्तर सुनकर सकते में आ गया। उसके मुँह से शब्द नहीं निकल पा रहे थे। उसने भी फटी चड्डी-बनियान पहन रखी थी। उसे अपने श्रमिक होने का पहली बार अहसास हुआ।

सुरेश वाहने

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