चयनित लघुकथाएँ-सुमति अय्यर


सिर्फ़ एक बिन्दु
कोई शाम हो या रविवार पूरा घर टीवी के आगे होता. अम्मा, दादी, बुआ, बाउ, छुन्नु, बिन्नी और वह। सीरियल के शीर्षक गीत हों या विज्ञापनों के जिंगल, सबकी जुबान पर तैरते। गोदरेज का स्टोरवेल, लिरिल, ताजमहल चाय, ललिता जी का सर्फ़, माया अलग का प्रामिस या जयन्त कृपलानी की ऊषा, झटपट बिछने वाला मोदी कार्पेट हो या झटपट तैयार होने वाला मैगी नूडल्स — सबकी आंखे खिलती,चमकती,हँसती-सिकुड़ती रहतीं। देखना उनकी आदतों में शुमार हो गया था। पर स्कूल में उसने देखा कि कुछ सह्पाठियों के रोज़मर्रा जीवन में ये चीज़ें शुमार होने लगी थीं। कितना मन होता सवेरे उठकर माँ सवाल करे…
— आज मेरा बेटा क्या खाएगा और वह साँस खींचकर कहे आलू मटर….
और ढेर सारे मटर…।
शाम लौटे तो कहे
— ममी भूख लगी है।
— बस, दो मिनट। और नूडल्स भरी प्लेट आँखों के सामने तैर जाए।
पर माँ सुबह उठते ही कहती — उठना नहीं है क्या? चलो, उठो चाय रखी है, पी लो।
लिहाजा शाम को लौटकर एक दिन विज्ञापन की तर्ज पर भूख लगने की बात चिहुँक कर कही थी, सिलाई मशीन पर झुकी अम्मा झल्ला उठी थी।
— नासपीटे को न जाने कितनी भूख लगती है। स्कूल से आया नहीं कि पेट का चूल्हा सुलगने लगता है। जाओ, पराँठे रखे हैं. भकोस लो।
वह चु्पचाप बैठ गया। कहाँ ग़लत था वह? क्या सिर्फ़ उसके ही घर ऐसा होता है कि सफ़ेद-काली रोशनी के साथ पसरने वाले सपने टीवी के बन्द होते ही रौशनी के बिन्दु में सिमट कर लौट जाते हों।

पोस्टर
चौराहे पर लगा किसी नई फ़िल्म का वह पोस्टर खासा आकर्षण का केन्द्र था। अपनी रक्षा के लिए फ़िल्मी अन्दाज में कसमसाती नायिका के फटे ब्लाउज से झाँकती नंगी पीठ और ब्रा के हुक पर झपटता खलनायक।
चौराहे पर लाल बत्ती के लिए रुकते वाहन-चालकों की आँखों की झुँझलाहट अब चमक में तब्दील होने लगी थी। साइकिल और स्कूटर चालक आए दिन भिड़ने लगे थे। पास की मज़दूर बस्ती के किशोर छोकरे ख़ाली वक़्त में उस पोस्टर के नीचे आ जुटते और एक दूसरे को आँख मार, कोई फ़िकरा कसते। महापालिका के अनुसार शहर की नैतिकता को कोई ख़तरा नहीं था, इसलिए कोई एतराज भी नहीं था।
पर एतराज महिला संगठनों को हुआ। विरोधी दल ने विज्ञापन में नारी देह के प्रदर्शन के ख़िलाफ़ रैली आयोजित की थी। भरपूर आक्रोश में नारे लगाती समाजसेवी महिलाएँ पोस्टरों को फाड़ती, उन पर तारकोल पोतती चौराहे तक आ पहुँची थीं।
आनन-फ़ानन में पोस्टर फ़ाड़ा गया। अगुआ महिला ने पतले गले से चीख़ते हुए शोषण के खिलाफ़ भाषण दे डाला। पास की बस्ती इकट्ठी हो गई थी। महिला का उत्साह दूना हो गया था। सात-आठ बरस की उस अधनंगी लड़की के साथ फ़ोटो खिंचे। लगे हाथ मज़दूरों को बेहतर ज़िन्दगी देने के वादे पोस्टर की चिन्दियों की तरह बाँटे गए। जुलूस आगे बढ गया। पोस्टर की चिन्दियाँ बटोरने लगी थी वह।
— काहे हल्ला मचाय रहीं थीं ये लोग? — सूखी छाती को चूसते बच्चे को खींचकर अलग करते हुए एक महिला ने मासूमियत से सवाल किया।
लड़की रुक गयी.आंखों में सयानापन उतर आया।
— ऊ तस्वीर वाली एक के अन्दर एक दुई जम्पर पहने रही न अम्मा और हमरे पास एको नाहीं हैं न.एही खातिर…।
लड़की ने अपनी नंगी छाती के इर्द-गिर्द हाथ कस लिए और जुलूस की दिशा में मुग्ध दृष्टि से देखती रही।

अपमान
स्वच्छता अभियान के अन्तर्गत उसे झोपड़-पट्टियों में जाकर स्वच्छता [पर्सनल हाईजिन] का महत्व समझाना था। उसने झोले में साबुन की टिकियों के साथ-साथ समाज सेवा के सपने भी भर लिए।
दोपहर के वक़्त लगभग सभी झोपड़ियां खाली थीं। एकाध बच्चे ज़रूर धूल में खेल रहे थे, माँ-बाप की अनुपस्थिति से बेख़बर। उसकी उपस्थिति भी वहाँ बेमतलब ही रही। निराश लौटने लगी थी कि इत्तफ़ाक से एक झोपड़ी खुली मिल गई।
मैली-कुचैली साड़ी में लिपटी एक किशोरीे और छोटे दो अदद बच्चे.बीड़ी के बण्डल बना रहे थे। फटाफट चलते हाथ उसे देख कर रुक गए। वह अपने आने का मकसद समझाने लगी। स्वास्थ्य विभाग का वही रटा-रटाया भाषण। झोले से महकता साबुन निकाल लिया। बच्चों का कौतुहल जाग गया। किशोरी की ललचाई आंखें भी उसके हाथ के साबुन पर फिसल गईं।एक बच्चे ने उसे हाथों में ले लिया, सूंघा और रख दिया।
— पर, हमारे पास पैसे नहीं हैं — किशोरी ने कहा।
— नहीं ,यह तो हम मुफ़्त में दे रहे हैं — उसने साबुन की टिकिया उसके आगे रख दी।
एक अधेड़ उम्र की औरत कमर और सिर पर घड़ा लिए भीतर आई। लड़की ने सिर का घड़ा उतार लिया। कमर के घड़े को जमीन पर रख कर सुस्ताने लगी।
— देखिेए, मैं स्वास्थ्य केन्द्र से आई हूँ…।
उसने अपना रटा-रटाया भाषण फिर शुरू कर दिया। बच्चों के बण्डल बनाते हाथ रुक गए। कभी उनकी आँखे साबुन की टिकिया को देखतीं, कभी माँ को.चेहरे को। आँचल से मुँह पोंछते हुए उसने बच्चों को झिड़क दिया — जल्दी हाथ चलाओ। शाम तक तीन सौ बण्डल बनाने हैं। फ़ालतू बातों का वक़्त नहीं हैं यहाँ…।
फिर उठ कर चूल्हे के पास चली गई। उसने एक बार बच्चों की ओर देखा, फिर साबुन की टिकिया वहीं छोड़ कर बाहर निकल गई।
— आ जाती हैं झोला लटकाए। अरे तीन मील चल कर पानी लाने को परी तौ जानें. हिंया पीने का पानी लाये मा ही कमर टूट जात है, नहाने की एय्यासी कौन करे. कोइ पूछे उनसे। साबुन की टिकिया बाहर नाली में आ गिरी। उसका चेहरा लाल हो गया। उसे लगा उस औरत की गालियों ने उसे
इतना अपमानित नहीं किया, जितना झोले में भरे सपनों और साबुन ने।

दिनान्त
वर्षों से युद्ध चल रहा था.शहर खण्डहर में तब्दील हो गया था। न खेत थे, न जंगल। बस, झाड़ थे झुलसे। भूमि के नीचे एक समानान्तर शहर उग आया था। वही जन्म, मृत्यु, प्यार, नफ़रत, निराशा, आशा…
गो कि एक पूरी दुनिया थी। पर फ़ूल-पत्तियों, सूरज-तारों वाली कतई नहीं। वहाँ सिर्फ़ हथियार बनते थे।
देर रात, उस अन्धेेरी नगरी से लोग ऊपर निकल आते। भोर होने तक कुछ लौट आते, कुछ के कपड़े वापस आ जाते। जो छूट जाते उनकी लाशें चील कौओं के काम आ जातीं।
उस रात उसका भाई नहीं लौटा था। परेशान माँ ने उसे भी अपने साथ बाहर निकाला था। जीवन के पूरे पाँच वर्षों में वह पहली बार बाहर निकला था। मिट्टी, तारे, चान्द — वह कौतुहल से देखता चल रहा था। मिट्टी को छूने को झुका तो माँ ने रोक दिया। कहा था — मिट्टी की सोंधी गन्ध को लाश और बारूद की गन्ध ने विषैला बना दिया है।
वे लोग भाई की खोज करने लगे थे। भाई मिल गया वहीं। लाश की शक़्ल में झाड़ियों के पीछे। भाई — जो युद्ध के ख़त्म होने की प्रतीक्षा में था, क्योंकि उसका यक़ीन पुख़्ता था कि जब युद्ध के लिए केवल लाशें ही बचेंगी तो युद्ध तो ख़त्म होगा ही। माँ उसकी लाश को चिपका कर रोती रही थी, फ़ूट-फ़ूट कर।अब वह शेष था माँ के लिए, सिर्फ़ वह।
वे लोग तेज़ी से लौटने लगे थे। दिशाएँ लाल होने लगी थी।
— वह क्या है, माँ? — वह कौतुहल से देख रहा था। रोशनी की डोरियों से लटकते इस लाल गोले को पहली बार देख आँखे चौधियाने लगी थीं। माँ ने क्षण भर उसे देखा था, फिर उसे गले लगाकर फूट-फूट कर रो पड़ी। कैसे बताती वह कि इन्हीं रोशनी की डोरियों में उनका एक-एक दिन गुँथता था। अब वह डोर टूट गई है। उनके बीच कुछ नहीं रहा। अब.उनके शब्दकोश में जो कई शब्द अर्थहीन और अनावश्यक हो गए हैं, उनमे यह भी एक है। क्या करेगा वह जान कर इसे?

सलीब
बस तेजी से कच्ची-पक्की सड़क पर बढ़ रही थी। उस अनाम से गाँव में बस रुकी। वह ख़ाकी रंग के झोले को कसकर थामे, हाँफ़ती हुई चढ़ी थी। यात्रियों की दृष्टि उसके नमकीन चेहरे से फिसलती हुई उसके पेट की गोलाई पर जा टिकी। पूरे दिन थे शायद। बेहद थकी-सहमी लग रही थी वह। बस के भीतर के यात्रियों की मानवता जग गई। उसके लिए जगह बन गई। धीमे से सामने सीट पर बैठी बुढ़िया मुस्कुराई और उसे अपने पास बैठा लिया।
सहमी दृष्टि से उसने चारों ओर देखा, फिर झोले को गोद में रख कर धीमे से सकुचाती हुई बैठ गई। बुढ़िया ने जाने क्या पूछा, उसने धीमे से सिर हिला दिया। यात्रियों ने ड्राइवर से संभल कर बस चलाने को कहा। बस रेंगने लगी। अगले गाँव की सरहद पर ख़ाकी वर्दी ने हाथ दे कर बस रुकवा ली। अगले गेट से वह भीतर आ गया। उसकी दृष्टि सभी यात्रियों से होती हुई युवती के चेहरे पर जा टिकी। एक धूर्त मुस्कान उसके चेहरे पर उभर आई। ठसक के साथ वह उसकी सीट के ठीक सामने वाली सीट पर बैठ गया।
— क्यों री, छम्मक-छल्लो, कैसा चल रहा है धन्धा?
युवती ने घबराकर आस-पास देखा, फिर सिर झुका लिया। यात्रियों में फ़ुसफ़ुसाहट फैलने लगी।
— मन्दा होगा आजकल? क्यों?
उसके पेट की ओर उसने आँख से इशारा किया और हँस दिया।
युवती सिर झुकाए बैठी रही। यात्रियों की नैतिकता अब मानवता पर हावी होने लगी।
— किसका है? कुछ पता है?
इस बार का प्रश्न फ़ुसफ़ुसाहट के अन्दाज़ में पूछा गया था। बुढ़िया ने हिकारत से युवती को देखा, फिर खिसक कर खिड़की के बाहर थूक दिया। युवती की आँखे लबालब भरी थीं। उसने अपनी मुट्ठियों में झोले को भींच लिया।
थानेदार और भी फ़िकरे कसता,पर इस बीच सरकारी अस्पताल आ गया था। युवती उठी और दरवाज़े तक आ गई। ड्राइवर ने बस झटके के साथ रोकी। उसने हकबकाकर हैण्डल पकड़ लिया।
— उई माँ — उसके मुँह से निकला। बस के यात्रियों में कोई हरकत नहीं हुई।
— मर जाती तो अच्छा था। पाप तो कटता न — सामने वाली बुढ़िया बडबड़ाई।
बस में अजीब सा मौन छा गया था। सबकी नैतिकता जैसे सलीब तलाशने लगी थी। पिछले दो स्टाप पहले जगी मानवता को ठोकने के लिए।.

दायित्वबोध
वे दोनों ही उकताने लगे थे, पार्क की बेंच पर के पनपते प्रेम से। दोनों के पास दफ़्तर की कलर्की थी, भरे घर का दायित्व था और चुने हुए सपने थे।उन सपनो का हिस्सा हर शाम पार्क की उस बेंच पर छू लिया जाता था। वे विवाह तब तक नहीं कर सकते थे, जब तक दायित्व से मुक्त न हो जाएँ।
— इस तरह तो मैं पेंशन गिनने लगूँगा — एक दिन पुरुष ने कहा।
— तो फ़िर? — स्त्री के पास सिर्फ़ सवाल था, समाधान नहीं।
— इससे पहले कि तुम मेनोपाज की स्थिति तक पहुँचो, क्या हम इस बेंच के प्रेम को किसी अकेले कमरे तक नहीं पहुँचा सकते? — पुरुष का आक्रोश भरा समाधान था।
दोस्त के कमरे की चाभी ली गई। शामें पार्क की बेंच पर नहीं, दोस्त के कमरे में गुजरने लगीं। तनाव-मुक्त होने का तरीका आ गया। दायितवबोध के अहसास की चुभन अब उतनी तीखी नहीं थी। चार महीने बाद एक दिन पुरुष ने सहसा चाभी लौटा दी और वे उसी शाम फ़िर पार्क की बेंच पर थे।
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— कल तुम छुट्टी ले लेना. नीरू को मेरी स्टोप्स ले जाना है — स्त्री ने स्वीकृति में सर हिला दिया था।
पुरुष की हँसी में कड़ुवाहट घुलने लगी थी — मैंने सिर्फ़ अपने लिए सोचा था, यह भूल गया था कि घर की चारदीवारी में बन्द मुझसे सिर्फ़ चार साल छोटी बहन भी तेज़ी से उम्र की ढलान की ओर बढ रही है और चाभी की जरूरत तो उसे भी रही होगी।
उसका सिर अपमान से नहीं, ग्लानि से झुक गया था।

दर्पण
पेड़ के नीचे फ़ुटपाथ पर पूरा जीवन गुजारने वालों में वह भी थी। जन्म, मृत्यु, विवाह से ले कर जचगी तक, इसी प्रकार फ़ुटपाथ पर पेड़ के तने से बंधी साड़ी के पालने में, अगली पीढी पलती। रूखे-उलझे बाल, फटी हुई पैबन्द लगी धोती, आँखो के कोरों में कीचड़।
सुबह नुक्कड़ की दुकान की चाय से मुँह जुठार वह काम में जुट जाती। स्टील के बर्तनों का युग था, पर पीतल के बर्तन अब भी कई घरों में कलई के लिये निकाले जाते थे। उसका आदमी रात को ठर्रा चढा कर सोता तो दिन चढे पड़ा ही रहता। दिन दहकने लगता तो नुक्कड़ की दुकान से चाय और पाव रोटी ले कर वह भी काम में लग जाता। दिन ढलते ही वह चूल्हा सुलगाती। वह पौवा ले आता। खा-पी कर दाम्पत्य निभाते और लुढ़क जाते। यह था उनका जीवन।
उस दिन बंगले से काफ़ी बर्तन मिल गए। वह फटाफट हाथ चला रही थी। तीन-चार फेरों में बर्तन पहुँचाने थे। दूसरे फेरे में बर्तन भीतर रखवा कर जैसे ही उसने सिर उठाया, चौंक गई। सामने के कमरे में लगे शीशे में उसका पूरा बिम्ब प्रतिबिम्बित हो रहा था। अपने को आदमक़द शीशे में देखने का यह पहला अनुभव था। रूखे बालों को हथेलियों से सँवार कर वह एक मिनट घूरती रही। देह गठी हुई है, पर चेहरा? इतना रूखा, मैला-कुचैला? वह घिना गई।
अगले फेरे के पहले उसने मुँह पर पानी के छीटे मार लिए। बालों को झटक कर सँवारा और जूड़ा बना लिया। कमरा इस बार बन्द था, निराश लौट आई। काश ! एक बार देख पाती। खासी कमाई हुई थी आज। आदमी पूरी बोतल ले आया था। रोटी के साथ सब्ज़ी का जुगाड़ हो गया था। उसकी आँखो से नींद ग़ायब हो गई थी। बार-बार वही प्रतिबिम्ब। कैसे प्यार कर लेता है उसे उसका मरद? देह पर पसरते हाथ को खीझ कर झटक दिया।
— का हुआ री ,छिनाल?
— पूरी बोतल ले आए। ओहमा से बचाय के साबुन की टिक्की ले आते….।
— तू तो यूँ भी रानी लागत है — वह फ़ुसफ़ुसाया।
उसने अपने आदमी की आँखो में झाँका। ख़ूब धुली चाँदनी में, उसकी आँखो में कोई झूठ नहीं नजर आया।
बन्द दरवाज़े के भीतर के शीशे में वह अपना प्रतिबिम्ब जैसे बिल्कुल साफ़ देख रही थी। साबुन से महकती देह, माथे पर टिकुली…..।
उसके आदमी की आँखे झूठी नहीं हो सकतीं। तो क्या दर्पण झूठा था? उसे लगा दर्पण की ज़रूरत बंगले वालों को होती होगी क्योंकि वहाँ साफ़ पारदर्शी आँखो के दर्पण नहीं होते।

हत्यारा
यूँ कहने को वह हत्यारा था, पर था एकदम हँसमुख और नेक दिल इन्सान। साइकेट्रिक ने उसे मानसिक रूप से बीमार करार दिया था। उसका शिकार देह-विक्रय में रत वेश्याएँ होती थीं।
मानसिक चिकित्सक की सलाह पर उसे आम क़ैदियों से अलग रखा गया। उसे प्रशिक्षण दिया गया। वह जेल में ही बेंत की सुन्दर टोकरियाँ और फ़र्नीचर बनाने लगा। उसके आजीवन कारावास की अवधि कम कर दी गई। अपने सदाचार के बल पर वह रिहा हो गया। एक स्वस्थ और सुंदर भविष्य उसकी आँखो में था।
नौकरी इतनी आसानी से नहीं मिली। कहीं उसका पिछला इतिहास आड़े आता तो कहीं जेल का प्रमाण-पत्र। उसने निश्चय किया कि अब वह प्रमाण- पत्र के बगैर नौकरी तलाशेगा।
एक अदद नौकरी हाथ लगी। ख़ूब मन लगा कर काम किया। उसके बनाए फ़र्नीचरों की मांग बढ़ी। मालिक की दुकान का हुलिया भी बदलने लगा। ज़िन्दगी चल निकली थी। उसकी ज़िन्दगी में एक अदद पत्नी और बच्चा भी शुमार हो गए।
सहसा एक दिन एक ग्राहक ने उसे पह्चान लिया। वह रिटायर्ड जेलर थे। मालिक ने उसे उसी दिन बकाया थमा कर चलता किया। उसके रोने- गिड़गिड़ाने का, यहाँ तक कि उसकी अब तक की लगन, निष्ठा, ईमानदारी का भी कोई अर्थ शेष नहीं रहा था। वह टूट गया। फिर वही सिलसिला…..।
इस बार चिड़चिड़ाती पत्नी और बिलबिलाता बच्चा भी उसके साथ थे। उस रात लाल बत्ती वाले इलाके में फिर दो हत्याएँ हुईं। आत्मसमर्पण करते हुए उसकी आँखो में कोई पश्चाताप न था। पर इस बार कानून ने उसे फाँसी के तख़्ते तक पहुँचा दिया। हत्याएँ पूरे होशोहवास में की गई थीं। निर्णय सुन कर वह हँस दिया, हँसता रहा….। उसकी हँसी फिर नहीं थमी।

पुरस्कार
वे अपने को प्रगतिशील लेखक मानते थे। उनकी मान्यता थी कि उनके लेखन से क्रान्ति एक दिन आकर रहेगी।
इस उपन्यास को लिखने में उनकी बरसों की मेहनत थी। इसी उपन्यास के लिए उन्होंने राजधानी के एक प्रतिष्ठित प्रकाशक से बात कर ली थी। उनका विश्वास था कि प्रकाशित होने पर उपन्यास दशक के चर्चित उपन्यासों में से एक होगा। नोबल न सही,अकादमी तो जुट ही जाएगा। प्रकाशक के माध्यम से अंग्रेज़ी अनुवाद और प्रकाशन का जुगाड़ भी होगा ही।
शाम सात बजे का समय मिलने के लिए तय हुआ था। निकलते-निकलते साढ़े छह हो गए थे। तेज़ भागती टैक्सी में वे व्यग्र हो रहे थे। सहसा गाड़ी झटके से रुकी। एक नन्हा बालक टकरा कर गिर गया था। वे हड़बड़ाकर उतरे। लड़का बेहोश था।
अस्पताल ले जाते हैं तो पुलिस, एफ़आइआर का झंझट। बच्चे के माँ-बाप का पता लगा कर प्राइवेट डाक्टर के पास ले जाते है, तो वक्त नहीं। वे क्षणांश के लिए रुके। ड्राइवर उनकी हिचकिचाहट भाँप गया। गाड़ी रिर्वस में ली। उन्होंने ड्राइवर की नज़र बचाकर एक दस का नोट बेहोश बच्चे की मुट्ठी में दबा दिया और टैक्सी में जा बैठे।
उनका मन जैसे हल्का हो गया था। उन्हें लगा अधिकांश लोग इसी तरह अपनी आत्मा के बोझ को हल्का कर लेते होंगे। तभी तो आत्मा हल्की होने लगी है। अब वे पुरस्कार के बारे में सोचने लगे थे।

पेंशन
उनकी पेंशन सहसा बंद हो गई थी। घर की गाड़ी चरमराने लगी। डाक की गड़बड़ी के भ्रम में दो माह निकल गए। बेटे- बहू की भुनभुनाहट से तंग आकर वे पेंशन दफ़्तर पहुँचे। पता लगा सरकारी कागज़ों के अनुसार वे गोलोकवासी हो चुके हैं, लिहाजा पेंशन बंद।
वे तर्क करते रहे, गिड़गिड़ाते रहे। कहा गया यदि वे अपने जीवित रहने का प्रमाण-पत्र दें तो विचार हो सकता है। प्रमाण-पत्र मिलना आसान नहीं था।
वे जहाँ सम्भव था आँसुओं से, नोटों से काम निकालते रहे। घर में बेटे-बहू की झल्लाहट अलग से। बंधी बंधाई रकम जो पाँच माह से नही मिल रही थी। सो एक वक्त की रोटी बंद।
किसी तरह फ़ाइल ने तृप्त हो कर डकार ली। आश्वासन मिला कि अगले माह से पेंशन दरवाज़े पर पहुँचेगी। उछाह में घर लौट रहे थे कि एक गड्ढे में पैर पड़ा और हड्डी तुड़वा बैठे। वे दर्द से बिलबिलाते रहे, पर बेटा घरेलू इलाज कराता रहा। पन्द्रहवें दिन वे सचमुच गोलोक सिधार गए।
मनीआर्डर आया अगले माह। लौटा दिया गया। बेटा खीझ गया। मरने की जल्दी पड़ी थी। पेंशन ले कर मरता बुड्ढा।
अगले माह डाकिये की घंटी फिर टनटनाई। कोई पुराना बकाया’बेटे ने लपक कर सरकारी लिफ़ाफ़ा खोला।.फ़ाइल के मुंह ने बंद होने के पहले मृत्यु प्रमाणपत्र की मांग की थी।

सुमति अय्यर
(18-7-1953 से 5-11-1993)
जन्म चेन्नई मृत्यु कानपुर।

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