दोनों के क़दम आगे बढ़ते बढ़ते रुक गए।
-तो तुमने तय कर लिया है।
-हाँ… तय तो यही हुआ है। क़दम पीछे नहीं हटेंगे….।
-यह क़दम उठाने से जो परिणाम सामने आएंगे, उनके जिम्मेदार तुम रहोगे मैं नहीं।
-तुम मुझे सोच के दायरे में बांधना चाहते हो।
-नहीं मैं तुम्हें आज़ादी देना चाहता हूँ।
-तुम आज़ादी दोगे…? तुम्हारे पास देने के लिए सोच की क़ैद है और क़ैद आज़ादी की पक्षधर नहीं होती।
-हाँ निर्णय लेने की आज़ादी दे सकता हूँ।
-उस आज़ादी का दायरा….!
-तुम्हारी आज़ादी तुम्हारी है, और मेरी आज़ादी मेरी।
-यह कौन से नई परिभाषा पा ली है?
-बंधनों की जंजीरें तोड़ते-तोड़ते… ।
-या फिर नई कड़ियाँ जोड़ते-जोड़ते…!
-यही समझ लो, शायद यही सच है।
-तो तुम मेरे परिवार का हिस्सा बनना चाहते हो?
-चाहता नहीं हूँ, तुम्हारी बहन मुझे चाहती है.
-और तुम…. ?
-मैं भी उसे अपनाने में पीछे नहीं हटूँगा।
-पहल किसकी है?
-मेरी…!
-तो तुमने मेरी बहन को अपनाने के लिए उसे बहकाया है, फुसलाया है।
-वह नाबालिग नहीं है, अपने फैसले ख़ुद कर सकती है…!
– तब मुझे क्या करना चाहिए ?
– उससे बात करके देखलो, उसकी मर्ज़ी जान जाओगे।
-वह तुम्हें चाहती है और यही उसकी मर्ज़ी है…. ?
-हाँ, वह मुझे बेइंतेहा चाहती है।
-चाहत और प्रेम में अंतर जानते हो?
-बहुत नहीं, थोड़ा कुछ…! आप बताएं।
-चाहत समय के साथ शक्लें बदलती है, प्यार समय की सीमाओं की विशालता है जो अपनी जवाबदरियों और हकों को पाने और देने की तौफ़ीक़ रखता है। क्या तुम कायल हो ऐसे प्यार के…?
-मैं निभाने की रस्म से वाकिफ़ था और हूँ…, पर टिक नहीं पाता उन लकीरों की सीमाओं पर।
-कारण…..?
-उसकी उम्र मेरी सोच में ख़लल पैदा करती रही , …मैं किसी निर्णय पर नहीं पहुँच पाया।
-कोई ठोस कारण…. ?
-उसकी उम्र से बड़ी मेरी छोटी बेटी है।
-लगता है रिश्तों के जंगल में फंस गए हो…!
-हाँ ख़लिश महसूस करता हूँ, साथ में लहूलुहान होने का खतरा भी महसूस करता हूँ…!
-वह कैसे…?
-बस, एक मिसाल नहीं बनना चाहता अपनी बेटी के लिए…!
-और किसी भाई के लिए…?
-क्या कहना चाहते हो…?
-अपने सिवा कभी किसी की बात, किसी की जज़बात को समझने की कोशिश ही नहीं की तुमने ….!
-ऐसा नहीं कि मैं कोशिश नहीं करता, पर हमेशा नाकाम हो जाता हूँ।
-यहीं पर तुम स्वार्थी साबित होते हो। अपने सिवा किसी की कोई परवाह नहीं…यही छोटे बड़े फ़ैसले, ये ग़लत फ़ैसले आगे चलकर बड़े-बड़े मसाइल बन कर सामने सर उठाने लगते हैं, जहां लगने लगता है कि ज़िंदगी का कोई भी छोर तुम पकड़ नहीं पाए…!
-क्या मतलब…?
-मतलब…? मतलब यह कि जैसा तुम चाहते हो ऐसा भी नहीं कर पाते, थामी हुई डोर को भी छोड़ना नहीं चाहते ताकि दूसरे को ढील मिल सके, राहत मिले…!
-मैं अपनी खुशी को ताक पर रखकर कोई ऐसा क़दम कैसे उठा सकता हूँ…?
-किसी और की खुशी में इज़ाफ़ा लाने के लिए भी नहीं…. ?
-मेरा दिल नहीं मानता किसी और के हक़ में फैसला करने के लिए….!
-यही तो मैंने कहा कि तुम स्वार्थी बन जाते हो, किसी और की खुशियों के बारे में कभी सोचकर तो देखो।
-उससे क्या होगा?
-शायद खुशियाँ खुशियों को दावत दे दें।
-यह मेरे लिए एक नया तजुर्बा होगा।
-करना तो तुम्हें ही है, किसी और को नहीं…..!
-पर मैं यह ख़तरा नहीं उठा सकता।
-ख़तरों से खेल तो शुरू हो गया है, पहल भी तुम्हारी है। अब पीछे हटने की सोच बेकार है।
-मुझे इस बात पर गौर करने के लिए मौक़ा दो …।
-फैसला दिल से करोगे या दिमाग़ से… ?
-अभी तक तो दिल की बात मानता चला हूँ।
-एक बार सोच लो, दिमाग़ से काम लो शायद ऐसा हल निकल आए जिसमें दोनों का भला हो…!
‘……………..’
-तुम्हारे सामने तुम्हारी बेटी भी है…!
-कहने का मतलब…?
-मतलब यह कि किसी की बेटी के बारे में सोचो न सोचो, पर अपनी बेटी के हक़ में ज़रूर सोचना।
-क्यों…? वह बालिग़ है, अपना भला बुरा समझती है।
-फिर भी नदानियाँ करने की संभावनाएं बनी रहती है, ग़लत फैसला करने में देर ही कितनी लगती है। तुम्हें यह नहीं भूलना चाहिए।
-उसके बारे में इतना क्यों सोच रहे हो?
-क्योंकि वह तुम्हारी अपनी है। जिससे नाता जोड़ने में लगे हो वह अभी तक तुम्हारी हुई नहीं है।
-सोचों में अब दरारें पैदा करने की कोशिश कर रहे हो।
-नहीं सच को सामने रख रहा हूँ।
-क्या इसे मैं तुम्हारी शातिरता समझूँ।
-तुम्हारी बेटी किसी के बहकावे में आने से रही, वह बालिग है, और समझदार भी !
-उसे सब कुछ मालूम है ?
-हाँ मैंने उसे अंधेरे में नहीं रखा।
-तो फिर एक काम और कर दो।
-वह क्या?
-‘कामनी’ से मिलकर ये सारी बातें उसे समझादो। अगर वह क़दम पीछे हटाना चाहे तो मैं आगे नहीं बढ़ूँगा।
-तुम ख़ुद क्यों नहीं करते यह कोशिश….!
-नहीं कर सकता। पहल हम दोनों ने की -उसने कहा, मैंने सोचा और साथ-साथ क़दम बढ़ाया।
-फिर क्या करने की सोच रहे हो?
-यही वह मोड़ है जहां से न आगे जाने की राह मिल रही है, न पीछे हटने की …..!
-पर रुकना भी तो मुनासिब नहीं।
-रुकना कौन चाहता है। ज़िंदगी तो चलने का नाम है, और मैं जीवन जीने में विश्वास रखता हूँ, यह तुम भी जानते हो।
-भलीभाँति जानता हूँ, इसीलिए तो कहा रहा हूँ।
– क्या कहना चाह रहे हो…. साफ़ साफ़ कहो।
-यही कि अब पुराने निशानों को छोड़कर नए मोड़ पर मुड़ जाओ, जहां तुम्हारे घर की दीवारें तुम्हारा इंतज़ार कर रही हैं।
-और इस ओर ‘कामनी’ इंतज़ार कर रही है…उसका क्या ?
-वह आपने आप ही सिमट जाएगी।
-बिना ‘कामनी’ के जीवन…..!
-तुम अपनी कमानाओं की भीड़ में खो गए हो। इच्छाओं की पूर्ति में खुशी ढूंढते हो…. जीवन ढूंढते हो…वह भी….बेसुर बेताल….. !
-इसमें ग़लत क्या है?
-इसमें कुछ सही भी नहीं है….! फ़क़त अपनी इच्छाओं की पूर्ति के लिए दो घरानों में अनबन के बीज बो रहे हो।
-ऐसे कैसे कह सकते हो…?
-तुम अपनी बेटी से बात कर लेना, जान जाओगे।
-पहेलियाँ मत बुझाओ, साफ़-साफ़ बताओ कहना क्या चाहते हो?
-यही कि तुम्हारी बेटी अपने आप को सौंपने के लिए तैयार है, मेरी बाहों में आने को तैयार है…यही उसकी चाहत है और यही कामना …….!
-क्या…क्य….क्या…. कह रहे हो….?
-वही जो तुमने सुना, यही सच भी है। सुनकर हैरानी हुई या पाँव तले ज़मीन खिसक गई… ।
“मैं समझा न….. नहीं…..!
-सुनो, मैंने अपना क़दम टिकाये रखा है, अपने स्थान पर अडिग खड़ा हूँ, यही सोचकर कि वह तुम्हारी बहन है, तुम्हारे घर की मर्यादा है ….पर अगर तुम अपने फ़ैसले पर अडिग रहे…तो यह फ़ैसला भी अंजाम तक पहुंचेगा।
-नतीजा क्या होगा?
-वही जो तुम तय करोगे। तुम्हारे फ़ैसले पर मेरा फ़ैसला निर्भर करता है।
-क्या तुम्हारी तरफ़ से ‘हाँ’ शामिल होगी।
-हाँ सोच समझ कर ‘हाँ’ शामिल करनी पड़ेगी।
-उसका कारण…..।
-जिस आंच से मैं अपना आँगन झुलसने से नहीं बचा सकता, उसकी गिरह में अगर कोई ख़ुद झुलसना चाहता है तो उसे बचाने की कोशिश भी नहीं करूंगा।
-यह तो स्वार्थ है…!
-स्वार्थ तो स्वार्थ ही है….!
o
-अरे यार …बल बाल बच गए।
-इस इज़हारे-खुशी की कोई खास वजह …..!
-हाँ खुशी की ही बात है। आज मेरी बेटी ने अपने हाथों से पकवान बनाए हैं। तुम्हें और तुम्हारी बेटी ‘कामनी’ को न्यौता देने ले लिए मुझे भेजा है।
-और हमें क्या करना चाहिए, यह भी बता दो?
-यार अब छोड़ो भी, मुझे मशवरा देते रहे…. अब मांग रहे हो।
-हाँ इसलिए मांग रहा हूँ कि तुमने दिमाग़ से फैसला किया और जो किया बहुत सलीके व समझदारी से किया….दाद दिये बिना रह नहीं सकता।
-तो फिर मेरी मानो, मेरे साथ ही चले चलो। मैं भीतर जाकर उसे यह संदेश देता हूँ…..
-इसकी ज़रूरत नहीं है, वह देखो वह सामने से मुस्कराती हुई आ रही है….।
-वह बहुत खुश दिखाई दे रही है, हर रंजिश से दूर….!
-लग ही नहीं रही, बहुत खुश है। उलझन की गांठें जब खुलने लगीं तब उसे भी एहसास हुआ कि यह तरतीब ठीक है। समझदारी का सबूत देते हुए उसने पाँव पीछे हटा लिए….!
-हाँ, यह तो है। एक बार भी पीछे मुड़कर नहीं देखा।
-अपनी गलती का अहसास जो हो गया उसे….!
-अरे यार…मानता हूँ। अपने स्वार्थ के सामने सब कुछ धुंधला सा हो गया था। पर अब धुंध छंट गया है, सब कुछ साफ़-साफ़ दिखाई दे रहा है।
-हाँ एक नया सवेरा सामने है। चलो चलते हैं।
और उनके क़दम एक साथ सामने बिछे उजाले की ओर हो लिए।
00
देवी नागरानी जन्म: 1941 कराची, सिंध (पाकिस्तान), 8 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, (एक अंग्रेज़ी) 2 भजन-संग्रह, 8 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, महाराष्ट्र अकादमी, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। साहित्य अकादमी / राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद से पुरुसकृत।
संपर्क 9-डी, कार्नर व्यू सोसाइटी, 15/33 रोड, बांद्रा, मुम्बई 400050॰ dnangrani@gmail.com