कहानी समकालीनः भय-शैल अग्रवाल


पतझर में भी बसंत तलाशता इन्सान आशा और निराशा की सतरंगी परछाइयों के बीच ही तो जीता है। जीते जी हाराना तो आता ही नहीं, भले ही सच्चे झूठे जाने कितने ही भय जकड़े रहें उसे और उसकी खूबसूरत जिन्दगी को! फिर भय भी तो निर्बल को ही तो सताता है और बुढ़ापा खुद एक ऐसा भय है कि एकबार जकड़ ले तो बड़े-बड़े सूरमाओं के तन और मन दोनों को ही तोड़ सकता है।

पर सुमी और रूपम न निर्बल या हारे इन्सान नहीं थे। उम्र के 60 बसन्त और करीब-करीब उतने ही पतझणों से गुजरने के बाद भी तन और मन की हरियाली सूखी नहीं थी उनकी। कभी खुदको साठा तो पाठा कहते, तो कभी ऐ मेरी जोहरा जबीं गाने लग जाते। कभी तेरी दुनिया से दूर चले होकर मजबूर, हमें याद रखना, कहते-कहते आंखें भी भर लाते और फिर तुरंत ही खुल कर हंसने लग जाते, मानो मौत आई भी तो उससे निपटना भलीभांति जानते थे वह।
इतना मस्तमौला और संवेदनशील जीवन जीने का सौभाग्य कम लोगों को ही मिल पाता है। अक्सर पत्नी को बांहों में भरकर शीशे के आगे खड़े हो जाते फिर खड़े-खड़े घंटों निहारते खुदको और कहते, ‘नज़र ना लगे किसी की, अभी भी बहुत अच्छी लगती है अपनी जोड़ी।’ और इधर-उधर कनपटी के आसपास झांकते सफेद बालों को बेवजह ही नोंचकर पत्नी की हथेली पर रख देते और तब सुमी तिरझी नजरों से देखती हुई पति से पूछती, ‘क्या मेरे लिए विग बनवाने का इरादा है इनसे? ‘ और खिलखिल खिलखिल हँस पड़ती, मानो खुशी का झरना बह रहा हो चारो तरफ। नाज था उन्हें सुमी की फूलों-सी झरझर झरती हंसी पर। घने चमकते लहराते काले बालों पर । बालों को सहलाते , उनसे खेलते जी न भरता उनका, ‘अरे नहीं मेम साहब यह देश निकाला तो इन बेचारों को इस लिए मिला है कि आपके बगल में उतना ही जंचूँ। अरे हाँ जंचने पर याद आया तुमने अपने दोनों की वह कल की दावत की तस्बीर सोशल मीडिया पर डाली या नहीं? डाल दिया करो । यारों के रस में डूबे और जले-भुने सभी कमेंट अच्छे लगते हैं मुझे। ‘ ‘तुम भी… ।’ कहकर पत्नी तब परे धकेलने की कोशिश करती पति को परन्तु हंसते-हंसते दोहरे होते दोनों की ही गिरफ्त अपने आप और मजबूत हो जाती, मानो कभी बिछड़ेंगे ही नहीं।

सुमी और रूपी, यानी कि सुमित्रा देवी और रूपम साहूकार, खुदको बूढ़ा मानें और जानें इतनी फुरस नहीं थी उनके व्यस्त और सफल जीवन में । नित नए देशों की सैर, नई-नई दावतों का स्वाद और उससे भी अधिक नए लोग और नई संस्कृतिओं के बारे में जानने की भूख और जिज्ञासा… जिन्दगी नहीं, मानो एक स्वप्न को जी रहे थे दोनों ।
देखने वाले ईर्षा करें, इतनी सुचारु और नियमित ढर्रे पर चल रही थी उनकी जिन्दगी, वह भी पूरे ऐशो-आराम के साथ।
भरा-पूरा परिवार था…मिलने-मिलाने और तीज त्योहारों में ही दिन-रात गुजर जाते। बचा-कुचा वक्त भी शौक-मौज में ही बीतता था उनका। चौबीसों घंटे बच्चों जैसी ललक और चमक रहती आंखों व पैरों में। युवाओं वाला जोश और उल्लास दिखता । नतीजा था कि बीस वर्ष छोटे लगते थे दोनों ही अपनी उम्र से।

रूपम का मानना था कि बगल में खूबसूरत और जवान बीबी हो तो मर्द खुद ही जवान दिखने लगता है। देखने वाले भी उन्हें चालीस के ही आसपास का ही समझते थे और सुमी तो वाकई में नहीं जानती थीं कि कितनी बड़ी है वह या फिर क्या उम्र हो चुकी है उसकी। बच्चों के साथ होतीं तो बच्चों-सी कूकने और किलकने लग जातीं और बड़ों के साथ होतीं तो बुजुर्गियत की चादर ओढ़कर बड़ी-बड़ी बातें भी कर लेती। वक्तानुसार ढलना और हर मौके को ताश के पत्तों सा ही संभाल ले जाना अच्छी तरह से आता था उसे भी। आखिर जीवन में ही नहीं, ब्रिज में भी तो पार्टनर थे दोनों।
सबकुछ ऐसे ही चलता रहता यदि वह दिन तूफान की तरह नींव न हिला देता सजे-संवरे जीवन की।…
आम सा ही दिन था वह। बाहर हलकी-हलकी बूंदा-बांदी हो रही थी। चाय बनाने गईं तो देखा दूध खतम। वहीं चौके से ही आवाज दी, ‘ सुनो दूध ले आओ जरा, प्लीज। कतई नहीं बचा।‘
‘ तुम्हारी यह आखिरी वक्त पर दौड़ाने की आदत पसंद नहीं है मुझे। कब व्यवस्थित होना सीखोगी-मेरे मरने के बाद..’.बड़बड़ाते हुए वह घर के स्लीपर में ही बाहर जाने को निकल पड़े, तो सौरी कहती सुमी दौड़ी आई और ‘जूते तो पहन लो, ठंड लग जाएगी।‘ कहकर जूते-मोजे पति के आगे रख दिए।
और तब उनका सारा गुस्सा प्यार की उस खिली धूप में ओस की बूंद-सा ही पल भर में उड़ गया।
तुम केतली औन करो मैं दूध लेकर अभी आया। कुछ और तो नहीं लाना- पति ने पलटकर पूछा। तो – हाँ , जब जा ही रहे तो फल भी उठा लेना। पत्नी ने उतना ही चहककर जवाब दिया और फलों की एक लम्बी फेहरिस्त पकड़ा दी।

पर थोड़ी देर बाद लौटी तो पति को वहीं बैठा देखकर हैरान थी सुमी। ऐसा कैसे?
ओह भूल गया-कहकर उन्होंने एक छोटे बच्चे की तरह मुंह लटका लिया ।…कोई बात नहीं अभी चलेंगे तब उठा लेंगे तुम तैयार हो जाओ । किशन के यहाँ वूवरहैम्पटन चलना है ना…चाय वहीं पीएँगे अब हम लोग।
अच्छा कहकर सुमी चली तो गई पर मन ही मन बेहद परेशान थी । चालीस-पैंतालिस साल की उसकी शादी-शुदा जिन्दगी में पहली बार ऐसा हुआ था जब रूपम् यूँ अनमने और ढीले हुए थे। नाज रहा है उसे अपने फुर्तीले और चुस्त पति पर। तबियत तो ठीक है न; फिर उम्र भी तो हो रही है!
अब एक भय था जो उसके मन को कुतरे जा रहा था।
यह तो रूपम का स्वभाव नहीं…वह कुछ करना भी चाहती, तो रोक देते थे उसे – ‘ क्या करोगी तुम परेशान होकर , मैं जा ही रहा हूँ ना उधर ही…’
और चाय तो हमेशा घर से पीकर ही चले हैं- ‘ घर की चाय का स्वाद बाहर कहाँ!’- जाने कितनी बार दोहराया है यह वाक्य!
झटपट साड़ी बदलकर लौटी तो, ‘चलो मैं तैयार हूँ’ -वाक्य मुंह में अटका ही रह गया।
रूपम वहाँ नहीं थे और बाहर ड्राइव में गाड़ी भी नहीं थी। आते ही होंगे- कहकर वहीं खिड़की के पास वाले सोफे पर बैठ गई वह, ताकि साफ-साफ दिखे कि रूपम कब लौटेंगे।
‘उम्र बढ़ गई पर बेताबी नहीं घटी’ -हंसकर हाथ में पकड़ी पत्रिका के कई पन्ने एक साथ ही पलट दिए।

घंटा , दो घंटा और जब तीन घंटे निकल गए तो बेचैनी बढ़ी। मोबाइल पर घंटी बजाई तो वह भी नहीं उठाया।
‘आते ही होंगे , कोई यार दोस्त मिल गया होगा सुपर मार्केट में।’
कुछ ऐसा ही खुदको समझाकर यूँ ही सोशल मीडिया पर घूमने लगी। नेबरहुड वाच में छपे एक अलर्ट पर आँखें गईं तो जमी ही रह गईं। हर वर्ष जाने कितने बेघर जाड़ों में अपने घर के अंदर ही चल बसते हैं, भूखे प्यासे और ठंडे । कृपया अपने अड़ोस-पड़ोस के अकेले बुजुर्गों का ध्यान रखें। तुरंत ही सुमी ने संकल्प लिया कि अपनी सहेलियों के साथ मिलकर एक सहायता संस्था बनाएगी जो अगल बगल जाकर देख आया करेंगे कि किसी को कोई जरूरत तो नहीं है। पर इस वक्त तो सबसे अधिक मदद की जरूरत खुद उसे और रूपम को ही थी। किसे भेजे रूपम को ढूँढने, कैसे पता लगाए कहाँ हैं जनाब!और ठंड भी तो इतनी गजब की है । पूरी तीन इंच बर्फ जमी पड़ी है बाहर।
कलेजा मुंह में आने जैसी बात थी। किसकी मदद ले , क्या करे । बच्चों को परेशान करना व्यर्थ है। 200 मील दूर अपने अपने विद्यालय में बैठे क्या कर पाएँगे, सिवाय चिंतित होने के। मुश्किल तो यह थी कि उसकी कार को भी आज ही सर्विस पर जाना था। क्या करे -क्या न करे जब समझ में नहीं आया तो घबराहट में 999 पुलिस को फोन कर बैठी सुमी और सब स्पष्ट शब्दों में बता दिया कि क्यों अपने पति के लिए बेहद चिंतित हो चली है वह।
अभी उसे फोन रखे पांच मिनट ही हुए होंगे कि दरवाजे पर घंटी थी। खोला तो पुलिस वाला था और उसे अपने साथ आने को कह रहा था। क्या दुर्घटना हो गई- ठीक तो हैं रूपम् ? कुछ कहने या पूछने तक की हिम्मत नहीं थी। भय की फालिज में जकड़ी बड़ी मुश्किल से गाड़ी तक पहुंची और बैठ पाई सुमित्रा। और तब पुलिस वाले ने उसकी बेचैनी को बढ़ाते हुए अजीब सी ढाढस दी- घबराएँ नहीं । कोई और भी हो सकता है, वह। चूँ कि आपने अपने पति की गुमशुदा होने की रपट दर्ज कराई है और इसी पड़ोस में वह एशियाई व्यक्ति हमें मिला है। इसलिए बस शिनाख्त के लिए ले जा रहे हैं हम आपको।
बात खतम होने से पहले ही, अगला मोड़ आते ही गाड़ी रुक गई।
घर से ज्यादा दूर नहीं था वह चारो तरफ काली स्क्रीन से ढका फुटपाथ का हिस्सा. जो अब पीले फीते से घिरा हुआ और डरावना व रहस्यमय लग रहा था। धौंकनी-सी चलती सांस और फटी-फटी आँखों से सुमी ने देखा, पीछे वही चाइनीज टेक अवे था , जिसका खाना उसके परिवार को बहुत पसंद आता है, विशेषकर रूपम् को।
‘हे भगवान, सब ठीक रखना।’
सीने में दर्द के साथ, एक गहरी उबकाई-सी उठी और सिर चकराने लगा। पल भर को तो जम-सी गई थी वह। जब तक व्यक्ति को देख न ले , किसी अशुभ के बारे में नहीं सोचेगी- बारबार ऐसा खुद को समझाते हुए जब उतरने की कोशिश की तो दरवाजा खोले खड़े कौन्स्टेबल ने ही गिरने से रोका, वरना एक और मरीज तैयार हो चुका था उनके लिए।
‘संभल के मैम, संभल के। यह जाड़े के महीने बड़े खतरनाक होते हैं। ब्लैक आइस के चलते फुटपाथ खतरनाक हो जाते हैं। फिर बूढ़ी हड़्डियों को जुड़ने में भी तो वक्त लगता है। किरन मल्होत्रा को जानती ही होंगी, आप? बस अपनी ड्राइव में ही फिसली थीं और सिर अपनी ही गाड़ी से जा टकराया था ….बिचारी कोमा से बाहर ही नहीं आ पाईं।’
‘हाँ, हाँ, अच्छी सहेली थी मेरी।‘

हर अशुभ सोच को साड़ी के पल्लू-सा ही समेटती-संभालती सुमी उतरी और बातें करते-करते पुलिस औफिसर धीरे-धीरे उसे उस घेरे के अंदर ले आया, जहाँ आपतकालीन सहायता देने वाले मुंह लटकाए खड़े थे और अपनी मशीन और पम्प वगैरह के ट्यूब मरीज के शरीर से निकालकर वापस डिब्बों में रख रहे थे।
उसे देखते ही सब-के-सब ‘ सौरी मैम ‘ कहकर उठे और एक ओर को खड़े हो गए ।
पर सुमित्रा की आँखों में अब अभूतपूर्व चमक थी और चेहरे पर खुशी के आंसू बह रहे थे।
सामने जमीन पर लेटा और रूपम से दुगना लम्बा-चौड़ा वह आदमी एशियाई मूल का अवश्य था, पर रूपम नहीं।
प्रभु के प्रति आभार की एक लम्बी सांस मुंह से निकली पर तुरंत ही फिर उसी पुराने भय ने वापस जकड़ लिया ।
‘पर हैं कहाँ, आखिर रूपम? कहीं और तो नहीं, … इतना गैर जिम्मेदाराना व्यवहार! भगवान सब ठीक ही रखना।’
…अब उसके भय ने गुस्से की शकल ले ली थी।
‘आने दो एकबार…अकेले तो अब कहीं नहीं ही जाने दूँगी। यह उम्र थोड़े ही है, यूँ मुंह उठाए अकेले-अकेले घूमते रहने की!’
‘…पर गलती भी तो उसी की थी , क्या जरूरत थी यूँ शोर मचाने की ….घर में पाउडर मिल्क भी तो था। उससे भी तो चाय बन ही सकती थी। ‘
अब वह हवा में इधर-उधर हाथ फेंकती खुद से ही बातें किए जा रही थी, या फिर शायद अपने भय से उबरने की कोशिश कर रही थी जिसकी जकड़ से अभी भी वह अपने को पूरी तरह से बाहर नहीं ला पा रही थी।…मिनटों में ही पुलिस वापस उसे उसके घर के दरवाजे तक ले आई और जाते-जाते अपनी तरफ से भरसक सान्त्वना देने की कोशिश भी की –‘ चिन्ता न करें, आपके पति कहीं व्यस्त हो गए होंगे। यार दोस्तों के साथ पब वगैरह तो नहीं चले गए? सकुशल लौटने पर हमें खबर अवश्य कर दें, ताकि हम निश्चिन्त होकर फाइल बन्द कर सकें।‘
‘अवश्य, औफिसर । मेरी भी यही प्रार्थना है।‘
कहते हुए भय , गुस्सा और प्यार की उमड़ती लहरों में डूबी सुमी ने जैसे-तैसे घर का दरवाजा अंदर से बन्द कर लिया ।

पर, यह क्या? गुलाम अली की ग़ज़लों की मीठी धुनों पर सवार सिटिंग रूम से मिली-जुली ठहाकों की आवाजें आ रही थीं और सामने सोफे पर अपना-अपना ग्लास थामे रूपम और जीतू बैठे हुए थे।
ऐसा कैसे हुआ कि बाहर खड़ी रूपम की कार तक पर उसका ध्यान नहीं गया।
‘कब आए?’ मारे खुशी के बस यही दो शब्द मुंह से निकले खुशी की उस अद्भुत हड़बड़ाहट में।
‘बस, अभी दस मिनट पहले ही। पर, तुम कहाँ चली गई थीं? नोट ही छोड़ देतीं, पता है न मैं कितना परेशान हो जाता हूँ !‘
‘उलटा चोर कोतवाल को डांटे, मैं किस चिंता से गुजरी हूँ, खबर भी है तुम्हे, तुम अनुमान तक नहीं लगा सकते। ‘
सुमी को समझ में नहीं आ रहा था कि दौड़कर गले लग जाए या कसकर लड़ ले सामने बैठे पति से।
‘ओह!’ छेंप मिटाते हुए इतना ही निकला रूपम के मुंह से, फिर तुरंत ही खुदको संयत करते हुए बोले, ‘ सेन्सबरी में ही जीतू मिल गया था। कल ही आया है भारत से अपनी बेटी के पास। जिद करके मुझे अपने घर ले गया। फिर बातों में वक्त का पता ही नहीं चला…और बिटिया दमाद ने भी बिना खाना खाए आने ही नहीं दिया। मैंने कहा भी था कि तुम परेशान हो रही होगी पर सुनता कौन है!’
रूपम ने पिछले चार घंटों की उसकी त्रासदी को एक ही मिनट में हवा में उड़ा दिया था अपने जोरदार ठहाकों से।
‘मैंने अपनी और जीतू की तस्बीर भी फेसबुक एकाउन्ट पर डाली थी और तुम्हें टैग भी किया था।। यह सोचकर कि देर-सबेर देख ही लोगी। ‘
सुमी को अब दीवार का सहारा लेना पड़ा। फुस्स हुए गुब्बारे-सा सिर चिन्ता मुक्त तो था पर हवा में चक्कर पर चक्कर लिए जा रहा था-इतनी लापरवाही , वह भी इस उम्र में….इतनी गैरजिम्मेदार हरकत….वाकई में बूढ़े बच्चे एक हो जाते हैं, एक उम्र पर पहुँचकर।
‘तबियत तो ठीक है न?’ पति ने दौड़कर संभाला। ‘चाय बना दूँ, पिओगी?’
‘नहीं, मैं बनाती हूँ। दूध ले आए?’
‘ अरे, वही तो भूल गया मैं फिर से । तुम बस केटल औन करो हम गए और यूँ वापस आए।‘
पत्नी का कंधा थपथपाते हुए, पल भर पहले के उसके सारे भय और संकल्पों को धता बताते-से मित्र के साथ रूपम उठे और एकबार फिर सुमी को वहीं, वैसे ही अकेला खड़ा छोड़, अपने पुराने उसी मनमौजी अन्दाज में वापस कार में जा बैठे।…


शैल अग्रवाल
जन्मः 21 जनवरी 1947, वाराणसी, भारत
शिक्षाः बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय से एम.ए. अंग्रेजी साहित्य।
e.mail: shailagrawal@hotmail.com

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