लेखनी संकलनः प्रेम कविताएँ


तो क्या हुआ !!

जिन प्रेम रस चाखा नहीं, अमृत पिया तो क्या हुआ,
जिन इश्क में सर ना दिया, सो जग जिया तो क्या हुआ !

ताबीज औ तूमार में सारी उमर जाया किसी,
सीखे मगर हीले घने, मुल्ला हुआ तो क्या हुआ !

जोगी न जंगम से बड़ा, रंग लाल कपड़े पहन के,
वाकिफ़ नहीं इस हाल से कपड़ रँगा तो क्या हुआ !

जिउ में नहीं पी का दरद, बैठा मशायख होय कर,
मन का रहत फिरता नहीं सुमिरन किया तो क्या हुआ !

जब इश्क के दरियाव में, होता नहीं गरकाब ते,
गंगा, बनारस, द्वारका पनघट फिरा तो क्या हुआ !

मारम जगत को छोड़कर,दिल तन से ते खिलवत पकड़,
शोकी पियारेलाल बिन, सबसे मिला तो क्या हुआ ….. !!

– प्यारेलाल शोकी

प्रेम
द्रव्य नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
रूप नहीं कुछ मेरे पास
फिर भी मैं करता हूं प्यार
सांसारिक व्यवहार न ज्ञान
फिर भी मैं करता हूं प्यार
शक्ति न यौवन पर अभिमान
फिर भी मैं करता हूं प्यार
कुशल कलाविद् हूं न प्रवीण
फिर भी मैं करता हूं प्यार
केवल भावुक दीन मलीन
फिर भी मैं करता हूं प्यार ।

मैंने कितने किए उपाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब विधि था जीवन असहाय
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
सब कुछ साधा, जप, तप, मौन
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
कितना घूमा देश-विदेश
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम
तरह-तरह के बदले वेष
किन्तु न मुझ से छूटा प्रेम ।

उसकी बात-बात में छल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
माया ही उसका संबल है
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह वियोग का बादल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
छाया जीवन आकुल मेरा
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
केवल कोमल, अस्थिर नभ-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर
वह अंतिम भय-सी, विस्मय-सी
फिर भी है वह अनुपम सुंदर ।

-शमशेर बहादुर सिंह

एक सोने की…
एक सोने की घाटी जैसे उड़ चली
जब तूने अपने हाथ उठाकर
मुझे देखा
एक कमल सहस्रदली होठों से
दिशाओं को छूने लगा …
जब तूने मुझे आँख भरकर देखा,
तूने मुझे दूरियों से बढ़कर
एक अहर्निश गोद बनकर
लपेट लिया है..!
-शमशेर बहादुर सिंह

विदा वेला मे
पाया स्नेह, पा सकीं न पर तुम विदा-रीति का ज्ञान
पगली! बिछोह की बेला में बिन मांगे ही प्रीति का दान
दो मुझे। कहो इस अन्तिम पल में एक बार ’प्रियतम’ धीमे
पूछो : ’कब लौटोगे वसन्त में? वर्षा में? शारद-श्री में?
शीत की शर्वरी में?’ सरले! मत रह जाओ नतमुख उदास
लाज से दबी। कल जब यह पल होगा अतीत, तब अनायास
मुखरित होगी यह नीरवता, बन व्यथा, वियोगी प्राणों में
तब तुम सोचोगी बार-बार : ’क्यों आँसू में, मुस्कानों में
दुख-सुख की उस अद्वितीय घड़ी को किया न मैंने अमर?’ प्रिये!
यह कसक तुम्हें कलपाएगी : ’क्यों मैंने प्रिय के अश्रु पिये
नयनों से नहला दिया न, संचित किया न क्यों कुछ आश्वासन
इस विरह-काल के लिए हाय! भर आलिंगन, पा कर चुम्बन!

-भारत भूषण अग्रवाल

सूचना
कल माँ ने यह कहा –
कि उसकी शादी तय हो गई कहीं पर,
मैं मुसकाया वहाँ मौन
रो दिया किंतु कमरे में आकर
जैसे दो दुनिया हों मुझको
मेरा कमरा औ’ मेरा घर ।

-दुष्यंत कुमार

फिर कर लेने दो प्यार प्रिये .

अब अंतर में अवसाद नहीं
चापल्य नहीं उन्माद नहीं
सूना-सूना सा जीवन है
कुछ शोक नहीं आल्हाद नहीं

तव स्वागत हित हिलता रहता
अंतरवीणा का तार प्रिये ..

इच्छाएँ मुझको लूट चुकी
आशाएं मुझसे छूट चुकी
सुख की सुन्दर-सुन्दर लड़ियाँ
मेरे हाथों से टूट चुकी

खो बैठा अपने हाथों ही
मैं अपना कोष अपार प्रिये
फिर कर लेने दो प्यार प्रिये ..

-दुष्यंत कुमार

याद तुम्हारी लेकर सोया, याद तुम्हारी लेकर जागा

याद तुम्हारी लेकर सोया, याद तुम्हारी लेकर जागा।

सच है, दिन की रंग रँगीली
दुनिया ने मुझको बहकाया,
सच, मैंने हर फूल-कली के
ऊपर अपने को ड़हकाया,
किंतु अँधेरा छा जाने पर
अपनी कथा से तन-मन ढक,

याद तुम्हारी लेकर सोया, याद तुम्हारी लेकर जागा।

वन खंड़ों की गंध पवन के
कंधो पर चढ़कर आती है,
चाल परों की ऐसे पल में
पंथ पूछने कब जाती है,
शिथिल भँवर की शरणजलज की
सलज पखुरियाँ ही बनतीं हैं,
प्राण, तुम्हारी सुधि में मैंने अपना रैन-बसेरा माँगा।
याद तुम्हारी लेकर सोया, याद तुम्हारी लेकर जागा।
-हरिवंश राय बच्चन

रात आधी, खींचकर मेरी हथेली एक ऊंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने

फ़ासला था कुछ हमारे बिस्तरों में और चारों ओर दुनिया सो रही थी
तारिकाएं ही गगन की जानती हैं जो दशा दिल की तुम्हारे हो रही थी
मैं तुम्हारे पास होकर, दूर तुमसे अधजगा-सा और अधसोया हुआ था
रात आधी, खींचकर मेरी हथेली एक ऊंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।

एक बिजली छू गई, सहसा जगा मैं, कृष्णपक्षी चांद निकला था गगन में
इस तरह करवट पड़ी थी तुम कि आंसू बह रहे थे इस नयन से उस नयन में
मैं लगा दूं आग उस संसार में है प्यार जिसमें इस तरह असमर्थ-कातर
जानती हो, उस समय क्या गुजरने के लिए था कर दिया तैयार तुमने
रात आधी, खींचकर मेरी हथेली एक ऊंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।

और उतने फासले पर आज तक सौ यत्न करके भी न आए फिर कभी हम
फिर न आया वक़्त वैसा, फिर न मौका उस तरह का, फिर न लौटा चांद निर्भय
और अपनी वेदना मैं क्या बताऊं क्या नहीं ये पंक्तियां खुद बोलती हैं
बुझ नहीं पाया अभी तक उस समय जो रख दिया था हाथ पर अंगार तुमने
रात आधी, खींचकर मेरी हथेली एक ऊंगली से लिखा था ‘प्यार’ तुमने।

-हरिवंश राय बच्चन

हर कुछ कभी न कभी सुन्दर हो जाता है
बसन्त और हमारे बीच अब बेमाप फासला है

तुम पतझड़ के उस पेड़ की तरह सुन्दर हो
जो बिना पछतावे के
पत्तियों को विदा कर चुका है

थकी हुई और पस्त चीजों के बीच
पानी की आवाज जिस विकलता के साथ…
जीवन की याद दिलाती है
तुम इसी आवाज और इसी याद की तरह
मुझे उत्तेजित कर देती हो

जैसे कभी-कभी मरने के ठीक पहले या मरने के तुरन्त बाद
कोई अन्तिम प्रेम के लिए तैयार खड़ा हो जाता है
मैं इस उजाड़ में इसी तरह खड़ा हूँ
मेरे शब्द मेरा साथ नहीं दे पा रहे
और तुम सूखे पेड़ की तरह सुन्दर
मेरे इस जनम का अंतिम प्रेम हो।

– चन्द्रकांत देवताले


मैंने प्रेम अचानक पाया

मैंने प्रेम अचानक पाया
गया ब्‍याह में युवती लाने,
प्रेम ब्‍याह कर संग में लाया।
घर में आया घूँघट खोला
ऑंखों का भ्रम दूर हटाया
प्रेम पुलक से प्रेरित होकर
प्रेम-रूप को अंग लगाया।

केदार नाथ अग्रवाल

हम दोनों का प्‍यार रहे।
जिस दूर्वा पर हम तुम लेटे
कोमल हरित उदार रहे।
रजनी की ऑंखों में जागृत
ईश्‍वर साक्षीकार रहे।
तरु में प्रेम-विकार,लता में
पुलक, वासना-भार रहे।
हम-तुम दोनों को मद विह्वल
चुम्‍बन का अधिकार रहे।
हम-दोनों का प्‍यार रहे।

केदार नाथ अग्रवाल

रेत मैं हूँ जमुन जल तुम
रेत मैं हॅूं–जमुन जल तुम।
मुझे तुमने
हृदय तल से ढँक लिया है
और अपना कर लिया है
अब मुझे क्‍या रात–क्‍या दिन
क्‍या प्रलय–क्‍या पुनर्जीवन।
रेत मैं हॅूं –जमुन जल तुम।
मुझे तुमने
सरस रस से कर दिया है
छाप दुख-दव हर लिया है
अब मुझे क्‍या शोक-क्‍या दुख
मिल रहा है सुख–महासुख
केदार नाथ अग्रवाल

प्राण में जो मेरा बहुत मेरा है
प्राण में जो मेरा बहुत मेरा है
शब्‍दातीत- अर्थातीत मेरा है
प्रेयसी। वह तेरा बहुत तेरा है
न काल का, न दिक् का वहॉं घेरा है।
केदार नाथ अग्रवाल

हम मिलते हैं बिना मिले ही
हे मेरी तुम।
हम मिलते हैं
बिना मिले ही
मिलने के एहसास में
जैसे दुख के भीतर
सुख की दबी याद में।
हे मेरी तुम।
हम जीते हैं
बिना जिये ही
जीने के एहसास में
जैसे फल के भीतर
फल के पके स्‍वाद में।

भुक्‍खड़ शाहंशाह हूँ
हे मेरी तुम।
गठरीचोरों की दुनिया में
मैंने गठरी नहीं चुरायी
इसीलिए कंगाल हूँ,
भुक्‍खड़ शाहंशाह हूँ,
और तुम्‍हारा यार हूँ,
तुमसे पाता प्‍यार हूँ।
केदार नाथ अग्रवाल

चली गयी है कोई श्‍यामा
चली गयी है कोई श्‍यामा
ऑंख बचाकर , नदी नहा कर
कॉंप रहा है अब तक व्‍याकुल
विकल नील-जल।
केदार नाथ अग्रवाल

मैं पहाड़ हूँ
मैं पहाड़ हूँ
और तुम
मेरी गोद में बह रही नदी हो।
केदार नाथ अग्रवाल

सदेह सौंदर्य का समारोह
तुम एक
सदेह सौंदर्य का समारोह हो
मेरे मंच पर बज रहे हैं अब
तुम्‍हारे अंग-प्रत्‍यंग
जैसे वाद्य-यंत्र
केदार नाथ अग्रवाल

लिपट गयी जो धूल पॉंव से
लिपट गयी जो धूल पॉंव से
वह गोरी है इसी गॉंव की
जिसे उठाया नही किसी ने
इस कुठॉंव से।
केदार नाथ अग्रवाल

ब्‍याही – अनब्‍याही
ब्‍याही
फिर भी अनब्‍याही है
पति ने नही छुआ:
काम न आई मान मनौती
कोई एक दुआ:
ऑंखें भर-भर
झर-झर मेघ चुआ
देही नेह विदेह हुआ।
केदार नाथ अग्रवाल

बार-बार प्‍यार दो
ऑंख से उठाओ और बॉंह से
सँवार देा
अंतरंग मेरा रूप रंग से
उबार लो
बार बार चूमो और बार बार
प्‍यार दो।
केदार नाथ अग्रवाल


वल्लरियाँ जैसे समेंटे बृक्ष को
बूंदें भर-भर बरसें नित बादल से
भिगोती जाएं पूरे जल-थल को
खयाल तुम्हारा फिर फिर उमड़े
भिगोए मेरे तनमन को
शैल अग्रवाल

जैसे….
जैसे पहाड़ों की परछांई
सीने से लगाए
नदिया एक चुपचाप बहे
याद तुम्हारी
साथ चली
मीलों तक….
मीलों तक….

जैसे तारों को लिए
चंदा झील में उतरे
मन में उगी फिर
एक सोन कली
और महक उड़ी
मीलों तक…
मीलों तक…

जैसे निर्जन में
भटके पथिक अकेला
और डाल-डाल पे
पंछी गाएं
गूंजी उन
गीतों की हुमक
मीलों तक…
मीलों तक…!!
शैल अग्रवाल

प्रेम में
——

प्रेंम में यह भी
एक कौतुक ही तो था
उछाल खाती लहरें
और वो कागज की नाव
बहा दी जाती हवा संग
जाने किस उम्मीद में
लहरों पर किनारे से…
आसान था, रोमांचक था
वो बहना, छूटना और
लौट आना फिर फिर के
सहज था सब
जैसे आती जाती सांस
जैसे जिन्दा थे हम
बहना ही खुशी थी तब
मिलने बिछुड़ने का अहसास
बस डूब जाना लहरों बीच
अचानक फिर एकदिन
पार जाने की ख्वाइश में
रुख लिया नया पुरवाई ने
सुलझी ना सिमटी
डूबी ना किनारे लगी
बहती गई दूर तक
हो नजरों से ओझल
बीच भंवर जा के बिखरी
कागज की थी नाव हमारी …

शैल अग्रवाल

पूछा है…
———
हवाओं से, चांद तारों से
पंछी पहाणों से
सागर की शांत बहती लहरों से
पूछा है पता तुम्हारा,
संदेश भेजे हैं, बातें की हैं मैंने

कभी कभी इस एकाकी वार्तालाप पर
हंसी भी हूं नम नयनों से
सोचा है-पागल तो नहीं,
पागल ही तो हूं पर…

धूप हवा पानी और हम
जगह बदलते हैं स्वभाव नहीं
हिस्सा हैं उसी अनंत के
नदी सा उमगता जो निरंतर
चारो तरफ, अंदर और बाहर

यादें बना ,
प्यार, आभार, प्रतिकार ही क्या
लगातार का आघात कभी
कभी एक पहचान बना,

नित नई वादियों और
पथरीली घाटियों से बहता गुजरता
मिलता, बिछुड़ता,

अंदर ही अंदर
फैलता जाता जो
हरी दूब के
नम विस्तार सा…
शैल अग्रवाल

रोशनी के लिए
—————-

क्या कभी देखा है तुमने
रात के इस सियाह में
तारों को लहरों पे
अठखेलियाँ करते
जैसे तुम्हारी आँखों के
ये जलते-बुझते दिये

लेकर सारी खुशियाँ
सपनों की, अपनों की

वो कल आए या न आए
पर सहेज कर रखूँगी मैं
इस मंजर को सदा
रोशनी के लिए।

शैल अग्रवाल

देखो, फिर ना कहना….
—————————-

देखो, फिर ना कहना….
—————————-

देखो, फिर ना कहना
तुम मुझे भूल नहीं पाओगे
भूलना जरूरत उस किरण की
डूबता जो न देख पाए सूरज

भूलना जरूरत उस पीर की
मन की परतों को चीर-चीर
टीस-सी जो उभर आती है
पीर देती है नित नयी
और मीत बन भरमाती है

भूलता जो बादल सिंधु को
नभ तक छा जाता है
भूलता जो पल आज को
बाँहों में कल नया लाता है

सूखता जब यह नेह गारा
चटक आती इसमें भी दरार
सपनों की गहरी नींव मांगती
ठोस ईंटों की ऊँची दीवार

मीरा जब मैं कान्हा तुम थे
शबरी हूँ तो तुम ही मेरे राम
आत्मा से बसे हम रोम-रोम
हरियाली-सा यह अपना साथ

सच तुम बस इतना ही जानो
बरसते रोज रोज जरूर, पर चुकते नहीं कभी
उमड़े जो घन-श्याम।
शैल अग्रवाल


मेरा-तुम्हारा प्रणय

मेरा-तुम्हारा प्रणय इस जीवन की सीमाओं से बँधा नहीं है।
इस जीवन को मैं पहले धारण कर चुका हूँ।
पढ़ते-पढ़ते, बैठे-बैठे, सोते हुए एकाएक जाग कर,
जब भी तुम्हारी कल्पना करता हूँ,

मेरे अन्दर कहीं बहुत-से बन्ध टूट जाते हैं,
एक निर्बाध प्रवाह मुझे कहीं बहा ले जाता है,
मेरे आस-पास का प्रदेश, व्यक्ति, सब कुछ बदल जाता है;
मैं स्वयं भिन्न रूप धारण कर लेता हूँ।

पर ऐसा होते हुए भी जान पड़ता है,
मैं अपना ही कोई पूर्वरूप,
कोई घनीभूत रूप हूँ।
और तुम, उस पूर्व जन्म में भी
मेरे जीवन-वृत्त का केन्द्र होती हो।
चिरप्रेयसि! पुनर्जन्म असम्भव है।
और सम्भव भी हो, तो यह स्मृति कैसी?

किन्तु इस तर्क से मेरी अन्तर्दृष्टि पर
मोह का आवरण नहीं पड़ता।
मैं फिर भी अपने पूर्व जन्म का दृश्य
स्पष्ट देख पाता हूँ।
मैं देखता हूँ,
तुम मेरी अनन्त-प्रणयिनी हो।
इतना ही नहीं,
मैं इस से भी आगे देख सकता हूँ।

प्रत्येक जीवन में तुम आती हो,
एक अप्राप्य निधि की तरह
मेरी आँखों के आगे नाच जाती हो,
और फिर लुप्त हो जाती हो-
मैं कभी तुम्हें पहुँच नहीं पाता।
मैं जन्म-जन्मान्तर की अपूर्ण तृष्णा हूँ,
तुम उस की असम्भव पूर्ति।

इस तृष्णा और तृप्ति का कहाँ मिलन होगा,
कहाँ एक-दूसरे में समाहित हो जाएँगी,
यह मैं नहीं जानता,
न जानने की इच्छा ही करता हूँ।
इस तृष्णा में ही इतना घना जीवन भरा पड़ा है

कि और किसी चाह के लिए स्थान ही नहीं रहता!
केवल यह बात मन में कौंध जाती है
कि शायद यह एकीकरण कभी नहीं होगा।

– अज्ञेय


“अब विदा लेता हूँ

मेरी दोस्त, मैं अब विदा लेता हूँ
मैंने एक कविता लिखनी चाही थी
सारी उम्र जिसे तुम पढ़ती रह सकतीं
उस कविता में
महकते हुए धनिए का ज़िक्र होना था
ईख की सरसराहट का ज़िक्र होना था
उस कविता में वृक्षों से टपकती ओस
और बाल्टी में दुहे दूध पर गाती झाग का ज़िक्र होना था
और जो भी कुछ
मैंने तुम्हारे जिस्म में देखा
उस सब कुछ का ज़िक्र होना था
उस कविता में मेरे हाथों की सख़्ती को मुस्कुराना था
मेरी जाँघों की मछलियों को तैरना था
और मेरी छाती के बालों की नरम शॉल में से
स्निग्धता की लपटें उठनी थीं
उस कविता में
तेरे लिए
मेरे लिए
और ज़िन्दगी के सभी रिश्तों के लिए बहुत कुछ होना था मेरी दोस्त
लेकिन बहुत ही बेस्वाद है
दुनिया के इस उलझे हुए नक़्शे से निपटना
और यदि मैं लिख भी लेता
शगुनों से भरी वह कविता
तो वह वैसे ही दम तोड़ देती
तुम्हें और मुझे छाती पर बिलखते छोड़कर
मेरी दोस्त, कविता बहुत ही निसत्व हो गई है
जबकि हथियारों के नाख़ून बुरी तरह बढ़ आए हैं
और अब हर तरह की कविता से पहले
हथियारों के ख़िलाफ़ युद्ध करना ज़रूरी हो गया है
युद्ध में
हर चीज़ को बहुत आसानी से समझ लिया जाता है
अपना या दुश्मन का नाम लिखने की तरह
और इस स्थिति में
मेरी तरफ चुम्बन के लिए बढ़े होंठों की गोलाई को
धरती के आकार की उपमा देना
या तेरी कमर के लहरने की
समुद्र की साँस लेने से तुलना करना
बड़ा मज़ाक-सा लगता था
सो मैंने ऐसा कुछ नहीं किया
तुम्हें
मेरे आँगन में मेरा बच्चा खिला सकने की तुम्हारी ख़्वाहिश को
और युद्ध के समूचेपन को
एक ही कतार में खड़ा करना मेरे लिए संभव नहीं हुआ
और अब मैं विदा लेता हूँ
मेरी दोस्त, हम याद रखेंगे
कि दिन में लोहार की भट्टी की तरह तपने वाले
अपने गाँव के टीले
रात को फूलों की तरह महक उठते हैं
और चांदनी में पगे हुई ईख के सूखे पत्तों के ढेरों पर लेट कर
स्वर्ग को गाली देना, बहुत संगीतमय होता है
हाँ, यह हमें याद रखना होगा क्योंकि
जब दिल की जेबों में कुछ नहीं होता
याद करना बहुत ही अच्छा लगता है
मैं इस विदाई के पल शुक्रिया करना चाहता हूँ
उन सभी हसीन चीज़ों का
जो हमारे मिलन पर तम्बू की तरह तनती रहीं
और उन आम जगहों का
जो हमारे मिलने से हसीन हो गई
मैं शुक्रिया करता हूँ
अपने सिर पर ठहर जाने वाली
तेरी तरह हल्की और गीतों भरी हवा का
जो मेरा दिल लगाए रखती थी तेरे इन्तज़ार में
रास्ते पर उगी हुई रेशमी घास का
जो तुम्हारी लरजती चाल के सामने हमेशा बिछ जाता था
टींडों से उतरी कपास का
जिसने कभी भी कोई उज़्र न किया
और हमेशा मुस्कराकर हमारे लिए सेज बन गई
गन्नों पर तैनात पिदि्दयों का
जिन्होंने आने-जाने वालों की भनक रखी
जवान हुए गेहूँ की बालियों का
जो हम बैठे हुए न सही, लेटे हुए तो ढंकती रही
मैं शुक्रगुजार हूँ, सरसों के नन्हें फूलों का
जिन्होंने कई बार मुझे अवसर दिया
तेरे केशों से पराग-केसर झाड़ने का
मैं आदमी हूँ, बहुत कुछ छोटा-छोटा जोड़कर बना हूँ
और उन सभी चीज़ों के लिए
जिन्होंने मुझे बिखर जाने से बचाए रखा
मेरे पास आभार है
मैं शुक्रिया करना चाहता हूँ
प्यार करना बहुत ही सहज है
जैसे कि ज़ुल्म को झेलते हुए ख़ुद को लड़ाई के लिए तैयार करना
या जैसे गुप्तवास में लगी गोली से
किसी गुफ़ा में पड़े रहकर
ज़ख़्म के भरने के दिन की कोई कल्पना करे
प्यार करना
और लड़ सकना
जीने पर ईमान ले आना मेरी दोस्त, यही होता है
धूप की तरह धरती पर खिल जाना
और फिर आलिंगन में सिमट जाना
बारूद की तरह भड़क उठना
और चारों दिशाओं में गूँज जाना –
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हे कभी नहीं आएगा
जिन्हें ज़िन्दगी ने बनिया बना दिया
जिस्म का रिश्ता समझ सकना,
ख़ुशी और नफ़रत में कभी भी लकीर न खींचना,
ज़िन्दगी के फैले हुए आकार पर फ़िदा होना,
सहम को चीरकर मिलना और विदा होना,
बड़ी शूरवीरता का काम होता है मेरी दोस्त,
मैं अब विदा लेता हूँ
जीने का यही सलीका होता है
प्यार करना और जीना उन्हें कभी आएगा नही
जिन्हें ज़िन्दगी ने हिसाबी बना दिया
ख़ुशी और नफ़रत में कभी लीक ना खींचना
ज़िन्दगी के फैले हुए आकार पर फ़िदा होना
सहम को चीर कर मिलना और विदा होना
बहुत बहादुरी का काम होता है मेरी दोस्त
मैं अब विदा होता हूँ
तू भूल जाना
मैंने तुम्हें किस तरह पलकों में पाल कर जवान किया
कि मेरी नज़रों ने क्या कुछ नहीं किया
तेरे नक़्शों की धार बाँधने में
कि मेरे चुम्बनों ने
कितना ख़ूबसूरत कर दिया तेरा चेहरा कि मेरे आलिंगनों ने
तेरा मोम जैसा बदन कैसे साँचे में ढाला
तू यह सभी भूल जाना मेरी दोस्त
सिवा इसके कि मुझे जीने की बहुत इच्छा थी
कि मैं गले तक ज़िन्दगी में डूबना चाहता था
मेरे भी हिस्से का जी लेना
मेरी दोस्त मेरे भी हिस्से का जी लेना ।

-अवतार सिंह संधू ‘पाश’

प्यार अगर थामता न…

प्यार अगर थामता न पथ में उँगली इस बीमार उमर की
हर पीड़ा वैश्या बन जाती, हर आँसू आवारा होता।

निरवंशी रहता उजियाला
गोद न भरती किसी किरन की,
और ज़िन्दगी लगती जैसे-
डोली कोई बिना दुल्हन की,
दुख से सब बस्ती कराहती, लपटों में हर फूल झुलसता
करुणा ने जाकर नफ़रत का आँगन गर न बुहारा होता।
प्यार अगर…

मन तो मौसम-सा चंचल है
सबका होकर भी न किसी का
अभी सुबह का, अभी शाम का
अभी रुदन का, अभी हँसी का
और इसी भौंरे की ग़लती क्षमा न यदि ममता कर देती
ईश्वर तक अपराधी होता पूरा खेल दुबारा होता।
प्यार अगर…

जीवन क्या है एक बात जो
इतनी सिर्फ समझ में आए-
कहे इसे वह भी पछताए
सुने इसे वह भी पछताए
मगर यही अनबूझ पहेली शिशु-सी सरल सहज बन जाती
अगर तर्क को छोड़ भावना के सँग किया गुज़ारा होता।
प्यार अगर…

मेघदूत रचती न ज़िन्दगी
वनवासिन होती हर सीता
सुन्दरता कंकड़ी आँख की
और व्यर्थ लगती सब गीता
पण्डित की आज्ञा ठुकराकर, सकल स्वर्ग पर धूल उड़ाकर
अगर आदमी ने न भोग का पूजन-पात्र जुठारा होता।
प्यार अगर…

जाने कैसा अजब शहर यह
कैसा अजब मुसाफ़िरख़ाना
भीतर से लगता पहचाना
बाहर से दिखता अनजाना
जब भी यहाँ ठहरने आता एक प्रश्न उठता है मन में
कैसा होता विश्व कहीं यदि कोई नहीं किवाड़ा होता।
प्यार अगर…

हर घर-आँगन रंग मंच है
औ’ हर एक साँस कठपुतली
प्यार सिर्फ़ वह डोर कि जिस पर
नाचे बादल, नाचे बिजली,
तुम चाहे विश्वास न लाओ लेकिन मैं तो यही कहूँगा
प्यार न होता धरती पर तो सारा जग बंजारा होता।
प्यार अगर…

गोपाल दास नीरज

हम तेरी चाह में, ऐ यार !

हम तेरी चाह में, ऐ यार ! वहाँ तक पहुँचे ।
होश ये भी न जहाँ है कि कहाँ तक पहुँचे ।

इतना मालूम है, ख़ामोश है सारी महफ़िल,
पर न मालूम, ये ख़ामोशी कहाँ तक पहुँचे ।

वो न ज्ञानी ,न वो ध्यानी, न बिरहमन, न वो शेख,
वो कोई और थे जो तेरे मकाँ तक पहुँचे ।

एक इस आस पे अब तक है मेरी बन्द जुबाँ,
कल को शायद मेरी आवाज़ वहाँ तक पहुँचे ।

चाँद को छूके चले आए हैं विज्ञान के पंख,
देखना ये है कि इन्सान कहाँ तक पहुँचे ।
गोपाल दास नीरज

दूर से दूर तलक …

दूर से दूर तलक एक भी दरख्त न था|
तुम्हारे घर का सफ़र इस क़दर सख्त न था|

इतने मसरूफ़ थे हम जाने के तैयारी में,
खड़े थे तुम और तुम्हें देखने का वक्त न था|

मैं जिस की खोज में ख़ुद खो गया था मेले में,
कहीं वो मेरा ही एहसास तो कमबख्त न था|

जो ज़ुल्म सह के भी चुप रह गया न ख़ौल उठा,
वो और कुछ हो मगर आदमी का रक्त न था|

उन्हीं फ़क़ीरों ने इतिहास बनाया है यहाँ,
जिन पे इतिहास को लिखने के लिए वक्त न था|

शराब कर के पिया उस ने ज़हर जीवन भर,
हमारे शहर में ‘नीरज’ सा कोई मस्त न था|

गोपाल दास ‘ नीरज ‘

जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे

जिस दिन भी बिछड़ गया प्यारे
ढूँढते फिरोगे लाखों में

फिर कौन सामने बैठेगा
बंगाली भावुकता पहने
दूरों दूरों से लाएगा
केशों को गंधों के गहने
ये देह अजंता शैली सी
किसके गीतों में सँवरेगी
किसकी रातें महकाएँगी
जीने के मोड़ों की छुअनें
फिर चाँद उछालेगा पानी
किसकी समुंदरी आँखों में

दो दिन में ही बोझिल होगा
मन का लोहा तन का सोना
फैली बाहों सा दीखेगा
सूनेपन में कोना कोना
किसके कपड़ों में टाँकोगे
अखरेगा किसकी बातों में
पूरी दिनचर्या ठप होना
दरकेगी सरोवरी छाती
धूलिया जेठ वैशाखों में

ये गुँथे गुँथे बतियाते पल
कल तक गूँगे हो जाएँगे
होंठों से उड़ते भ्रमर गीत
सूरज ढलते सो जाएँगे
जितना उड़ती है आयु परी
इकलापन बढ़ता जाता है
सारा जीवन निर्धन करके
ये पारस पल खो जाएँगे
गोरा मुख लिये खड़े रहना
खिड़की की स्याह सलाखों में

मेरे मन-मिरगा नहीं मचल

मेरे मन-मिरगा नहीं मचल
हर दिशि केवल मृगजल मृगजल

प्रतिमाओं का इतिहास यही
उनको कोई भी प्यास नहीं
तू जीवन भर मंदिर-मंदिर
बिखराता फिर अपना दृगजल

खौलते हुए उन्मादों को
अनुप्रास बने अपराधों को
निश्चित है बांध न पाएगा
झीने-से रेशम का आँचल

भीगी पलकें, भीगा तकिया
भावुकता ने उपहार दिया
सिर माथे चढ़ा इसे भी तू
ये तेरी पूजा का प्रतिफल

प्रिय मिलने का वचन भरो तो

सौ-सौ जन्म प्रतीक्षा कर लूँ
प्रिय मिलने का वचन भरो तो

पलकों-पलकों शूल बुहारूँ
अँसुअन सींचूँ सौरभ गलियाँ
भँवरों पर पहरा बिठला दूँ
कहीं न जूठी कर दें कलियाँ
फूट पड़े पतझर से लालॉ
तुम अरुणारे चरन धरो तो

रात न मेरी दूध नहाई
प्रात न मेरा फूलों वाला
तार-तार हो गया निमोही
काया का रंगीन दुशाला
जीवन सिंदूरी हो जाए
तुम चितवन की किरन करो तो

सूरज को अधरों पर धर लूँ
काजल कर आंजूँ अंधियारी
युग-युग के पल-छिन गिन-गिनकर
बाट निहारूँ प्राण तुम्हारी
साँसों की ज़ंजीरें तोड़ूँ
तुम प्राणों की अगन हरो तो


बिखरा तेरे वक्षस्थल में!
जैसे पूजा में आँख भरे झर जाय अश्रु गंगाजल में
ऐसे ही मैं सिसका सिहरा
बिखरा तेरे वक्षस्थल में!

रामायण के पारायण सा होठों को तेरा नाम मिला
उड़ते बादल को घाटी के मंदिर में जा विश्राम मिला
ले गये तुम्हारे स्पर्श मुझे
अस्ताचल से उदयाचल में!

मैं राग हुआ तेरे मनका यह देह हुई वंशी तेरी
जूठी कर दे तो गीत बनूँ वृंदावन हो दुनिया मेरी
फिर कोई मनमोहन दीखा
बादल से भीने आँचल में!

अब रोम रोम में तू ही तू जागे जागूँ सोये सोऊँ
जादू छूटा किस तांत्रिक का मोती उपजें आँसू बोऊँ
ढाई आखर की ज्योति जगी
शब्दों के बीहड़ जंगल में!


बनफूल

मैं हूँ बनफूल भला मेरा कैसा खिलना, क्या मुरझाना
मैं भी उनमें ही हूँ जिनका, जैसा आना वैसा जाना

सिर पर अंबर की छत नीली, जिसकी सीमा का अंत नहीं
मैं जहाँ उगा हूँ वहाँ कभी भूले से खिला वसंत नहीं
ऐसा लगता है जैसे मैं ही बस एक अकेला आया हूँ
मेरी कोई कामिनी नहीं, मेरा कोई भी कंत नहीं
बस आसपास की गर्म धूल उड़ मुझे गोद में लेती है
है घेर रहा मुझको केवल सुनसान भयावह वीराना

सूरज आया कुछ जला गया, चंदा आया कुछ रुला गया
आंधी का झोंका मरने की सीमा तक झूला झुला गया
छह ऋतुओं में कोई भी तो मेरी न कभी होकर आई
जब रात हुई सो गया यहीं, जब भोर हुई कुलमुला गया
मोती लेने वाले सब हैं, ऑंसू का गाहक नहीं मिला
जिनका कोई भी नहीं उन्हें सीखा न किसी ने अपनाना

सुनता हूँ दूर कहीं मन्दिर, हैं पत्थर के भगवान जहाँ
सब फूल गर्व अनुभव करते, बन एक रात मेहमान वहाँ
मेरा भी मन अकुलाता है, उस मन्दिर का आंगन देखूँ
बिन मांगे जिसकी धूल परस मिल जाते हैं वरदान जहाँ
लेकिन जाऊँ भी तो कैसे, कितनी मेरी मजबूरी है
उड़ने को पंख नहीं मेरे, सारा पथ दुर्गम अनजाना

काली रूखी गदबदा बदन, कांसे की पायल झमकाती
सिर पर फूलों की डलिया ले, हर रोज़ सुबह मालिन आती
ले गई हज़ारों हार निठुर, पर मुझको अब तक नहीं छुआ
मेरी दो पंखुरियों से ही, क्या डलिया भारी हो जाती
मैं मन को समझाता कहकर, कल को ज़रूर ले जाएगी
कोई पूरबला पाप उगा, शायद यूँ ही हो कुम्हलाना

उस रोज़ इधर दुल्हा-दुल्हन को लिए पालकी आई थी
अनगिनती कलियों-फूलों से, ज्यों अच्छी तरह सजाई थी
मैं रहा सोचता गुमसुम ही, ये भी हैं फूल और मैं भी
सच कहता हूँ उस रात, सिसकियों में ही भोर जगाई थी
तन कहता मैं दुनिया में हूँ, मन को होता विश्वास नहीं
इसमें मेरा अपराध नहीं, यदि मैं भी चाहूँ मुसकाना

पूजा में चढ़ना होता तो, उगता माली की क्यारी में
सुख सेज भाग्य में होती तो, खिलता तेरी फुलवारी में
ऐसे कुछ पुण्य नहीं मेरे, जो हाथ बढ़ा दे ख़ुद कोई
ऐसे भी हैं जिनको जीना ही पड़ता है लाचारी में
कुछ घड़ियाँ और बितानी हैं, इस कठिन उपेक्षा में मुझको
मैं खिला पता किसको होगा, झर जाऊंगा बे-पहचाना


तस्बीर अधूरी रहनी थी

तू मन अनमना न कर अपना, इसमें कुछ दोष नहीं तेरा
धरती के काग़ज़ पर मेरी, तस्वीर अधूरी रहनी थी

रेती पर लिखे नाम जैसा, मुझको दो घड़ी उभरना था
मलयानिल के बहकाने पर, बस एक प्रभात निखरना था
गूंगे के मनोभाव जैसे, वाणी स्वीकार न कर पाए
ऐसे ही मेरा हृदय-कुसुम, असमर्पित सूख बिखरना था
जैसे कोई प्यासा मरता, जल के अभाव में विष पी ले
मेरे जीवन में भी कोई, ऐसी मजबूरी रहनी थी

इच्छाओं के उगते बिरुवे, सब के सब सफल नहीं होते
हर एक लहर के जूड़े में, अरुणारे कमल नहीं होते
माटी का अंतर नहीं मगर, अंतर रेखाओं का तो है
हर एक दीप के हँसने को, शीशे के महल नहीं होते
दर्पण में परछाई जैसे, दीखे तो पर अनछुई रहे
सारे सुख-वैभव से यूँ ही, मेरी भी दूरी रहनी थी

मैंने शायद गत जन्मों में, अधबने नीड़ तोड़े होंगे
चातक का स्वर सुनने वाले, बादल वापस मोड़े होंगे
ऐसा अपराध किया होगा, जिसकी कुछ क्षमा नहीं होती
तितली के पर नोचे होंगे, हिरनों के दृग फोड़े होंगे
अनगिनती कर्ज़ चुकाने थे, इसलिए ज़िन्दगी भर मेरे
तन को बेचैन विचरना था, मन में कस्तूरी रहनी थी

भारत भूषण

प्रेम
पहले-पहले जब
प्रेम ने मेरे हृदय पर क़ब्ज़ा किया, तब
मेरे रोने की आवाज़ से
पड़ोसी रात भर जागते,
अब
मेरा प्रेम गहरा हुआ है
मेरा रोना थम गया है
जब आग भड़कती है
तो धुआँ ग़ायब हो जाता है.

मैं एक शिल्पकार हूँ
रोज़ नये स्वरूप बनाता हूँ
पर जब मैं तुम्हें देखता हूँ
वे सब पिघल जाते हैं.

मैं एक चित्रकार हूँ
मैं अक्स बनाकर-
उनमें जान फूंकता हूँ
पर मैं जब तुम्हें देख हूँ
वे सब अदृश्य हो जाते हैं.

ऐ दोस्त! तुम कौन हो
वफ़ादार प्रेमी या फरेबी दुश्मन
तुम वो सब बर्बाद करते हो
जो मैं बनाता हूँ

मेरी रूह तुमसे अंकुरित हुई है
और
उसमें तुम्हारी खुश्बू की महक है
पर तुम्हारे बिन
मेरा हृदय चूर-चूर है
दया करो लौट आओ
या
मुझे यह तन्हा वीराना छोड़ने दो!

मैं बिना शब्दों के
तुमसे बात करूँगा
सबसे छुपा रहकर
और कोई नहीं,
तुम सिर्फ़ मेरी कहानी सुनोगे
अगर मैं उस भीड़ के बीच में भी कहूँगा.

तन्हा न रहोगे
जो तुम प्रियतम को दोस्त बना लोगे
तुम कभी तन्हा न रहोगे
जो तुम लचीला होना सीख लोगे
तुम कभी मायूस न रहोगे
चाँद चमकता है, क्योंकि
वह रात से नहीं भागता
गुलाब महकता है, क्योंकि
उसने काँटों को गले लगाया है

मैंने बहुत सारी रातें जाग के बिताई है
मेरी अनकही पीड़ा की
मेरी थकी हुई बुद्धी की
आओ मेरी जान, मेरी ज़िन्दगी की सांस
आओ और मेरे ज़ख्मों को पैरहन ओढा दो
और
मेरी दवा बन जाओ
बहुत हो गए शब्द
निशब्द होकर मेरे पास आओ.

पिछली रात
मेरा प्रियतम चाँद जैसा था
अति सुंदर !

वह सूरज से भी ज़ियादा रौशन था
उसकी रहमत मेरी पकड़ के बाहर है
बाकी सब मौन है.

आत्मा की वेदना
मैं तुमसे पागलों की तरह प्यार करता हूँ
मुझे सलाह देने का कोई मतलब नहीं!
मैंने प्यार का ज़हर पिया है
दवा लेने का कोई मतलब नहीं!
वो मेरे पावों को बांधना चाहते हैं
उसका कोई मतलब नहीं
जब मेरा दिल ही पागल हो गया है .

हर शब्द के साथ तुम मेरा दिल तोड़ते हो
तुम देख रहे मेरे चहरे पर
खून से लिखी हुई मेरी कहानी
क्यों अनदेखी करते हो?
क्या तुम्हारा दिल पत्थर का है?

मेरे दिल को
खोज की, और निराशा की
उलझनों से आज़ाद कर दो
मुझे प्यार का जाम ला दो, और
मेरी रूह अपने पर खोल देगी
आपके पास हर प्यारे के लिए
सम्पूर्ण जाम है.

वह लौट आया है
जो कभी ना-हाज़िर रहा ही नहीं
पानी जो कभी नहर को छोड़ कर गया ही नहीं
कस्तूरी की सुगंध, जिसकी हम ख़ुशबू हैं,
क्या सुगंध और ख़ुशबू अलग हो सकते हैं.

तुम मेरे ह्रदय की रोशिनी हो
और मेरे ह्रदय की राहत हो
पर तुम उलझन खड़ी करते हो
क्यों पूछते हो “क्या तुमने मित्र को देखा है?”
जब तुम अच्छी तरह जानते हो
वह दोस्त देखा नहीं जाता.

अगर तुम खुश्बू को साँसों में नहीं भरते
तो इश्क के गुलज़ार में मत जाओ
अगर तुम अपने आवरण नहीं उतार सकते
तो सच के सरोवर में मत उतरो
जहाँ भी हो वहीं रूको
हमारी राह मत आओ.


ह्रदय से होटों तक एक तार है
जहाँ ज़िन्दगी का तार बुना जाता है
शब्द तार को तोड़ देते हैं
पर
खामुशी में राज़ बोलते हैं.

रूमीः अनुवाद-देवी नागरानी


मैं जब भी लिखूंगी प्रेम

मैं जब भी लिखूंगी प्रेम
रेत के आँगन में दिल नही उकेरुंगी
ना लिखूंगी नाम तुम्हारा मेरे साथ
ना बनाउंगी घरौदा
और किनारे खड़ी नही देखूंगी
उसका बिखर जाना
हमारा सिहरना

अबकी लिखूंगी प्रेम तो देखना
मेरी बनाई रोटियों में
उतर आयेंगे मेरी अँगुलियों के छापे
तुम्हारे बटन पर एकटक सी मेरी नजर
तुम्हारी आँख में तैरता मेरा चेहरा
तुम्हारे बैग में धरुँगी चुपके से एक प्रेम पत्र
जब खोलोगे तो मोती झरेंगे

इस बार लिखूंगी प्रेम तो पेड़
हरे होंगे नदी भरी होगी
हल्दी का रंग पीला और चूड़ियों का लाल होगा
हमारे बिच की दूरियों में उड़ेगा अबीर
दरवाजे पर दस्तक देगा बसंत

तुम्हारे धड़कन में गीत की धमक..मेरा प्रेम

-शैलजा पाठक

एक ख्वाब

अर्सा हुआ
एक ख्वाब देख लिया था
अर्ध जाग्रत अवस्था में
दिल के सिरहाने तह कर
यूँ ही रख छोड़ा था
सुबह तलाशा तो न मिला
रात की चादर की सिलवटो
में कहीं गुम हो गया था
आज यादों की गर्द झाड़ते वक़्त
अनायास मिल गया
तो यूँ लगा बरसों से बिछड़ा
कोई अपना मिल गया
रूह पुलक उठी
दिल ने फिर अंगड़ाई ली
धड़कनो को रवानी मिली
अहसास हुआ कि
मैं ज़िंदा हूँ

-विजय कांत श्रीवास्तव

यादों की धरती पर बने घर में तुम्हारा आना
तुमने
मेरी यादों की धरती पर
अपना घर बना रखा है…
घर कि
जिसके द्वार
खुले रहते हैं सदैव।

जब जी चाहता है
आ जाते हो इस घर में
जब जी चाहता है
चले जाते हो इससे बाहर।

तुम्हारे आने का
न कोई समय तय है
न जाने का।

तुम्हारे आते ही
जीवंत हो उठता है यह घर
जब चले जाते हो
उदासियाँ जमा लेती है डेरा इसमें।

तुम्हें हाथ पकड़ कर
रोक लेने की
चाहत भी तो पूरी नहीं होती…
न जाने कहाँ छोड़ आते हो
अपनी देह
इस घर में आने से पहले।

-सुभाष नीरव


‘अब जब आओ मिलने’

सुनो,
अब जब आओ
मिलने मुझसे
कुछ लाना तुम मेरे लिए
मुझ बिन जो मेरी रही
वो सौग़ातें लाना तुम मेरे लिए

अपनी बाँहों का सुकूं, धड़कनो की बेबसी
अपने मर्म एहसास, उमड़ती
चाहत ज़ब्त कर लाना तुम मेरे लिए

अपनी आँखों की चमक, होठों की महक
अपने छुहन की गर्माहट, वो अनछुई सी
तपिश भर लाना तुम मेरे लिए

अपनी ख़ामोशी सी गुन गुन, प्यार की धुन बुन
ख़ाली पन की याद, मन की बेमौसम
बरसात समेट लाना तुम मेरे लिए

अपनी रातों की करवटें, चादर की सलवटें
दिन की रूखी शुरुआत, वो तस्वूर में आते
ख्याल बाँध लाना तुम मेरे लिए

अपने हर पल की बेचैनी, लम्हों की तलाश
उदासी में तकते नैन, वो सूने दिन रैन
लिख लाना तुम मेरे लिए

तोहफ़े होंगे बहुत मुझे देने के लिए पर
यही लूँगी मैं तुमसे इसबार
अब जब आओ मिलने मुझसे
यही सब ले लाना तुम मेरे लिए

-प्रियंका ”पियु”…

तुम्हारे सुर्ख होंठों के लिए गुलाब

तुम्हारे सुर्ख होंठों के लिए गुलाब
तुम्हारे सयाह लम्बे बालों के लिए
लम्बी रातें तारों से भरी टिमटटिमाती हुई
तुम्हारे आगोश की नर्म घास पर ओस का गीलापन

तुम्हारी आँखों के लिए …
नहीं….. नहीं
उस जैसा कुछ भी तो नहीं

तुम्हारे कांपते ज़िस्म को ढक लेता हूँ
अपनी चाहत की चादर से

तुम्हारी देह के लिए
मेरी देह मदिर और उत्सुक

तुम्हारे लिए
इस जन्म दिन पर
मैं जलाना चाहता हूँ अधिकतम १८ मोमबतियां
तुम्हारी उम्र मेरे लिए वही कहीं आस – पास ठहर गई है..

१८ की उस याद के लिए

वह आइसक्रीम .
देखो अब यह जितनी भी रह गई है समय की आंच से पिघलती हुई

तुम्हारी नर्म हथेलिओं के लिए
मैं खरगोश बन जाता हूँ

अपनी चमकीली आँखों से तुम्हें निहारता हुआ वह लड़का
तुम्हें याद है
अपनी एटलस साइकिल से जो कई चक्कर लगा लेता था तुम्हारे घर का
रोज़ ही
तुम्हारे घर के सामने से तेज़ घंटी बजाता हुआ

इस जन्म दिन पर
क्यों न केवल तुम रहो
सिर्फ तुम

और मैं अपने मैं को छोड़ कर बैठा रहूँ तुम्हारे पास
जब तक बुझ न जाएँ तारें..

-अरुण देव

वो मेरे जैसा नहीं…

वो मेरे जैसा नहीं पर मेरा ख्वाब है |
कुछ नादान है पर मेरा ख्वाब है ||

उसकी आँखों में बचपन का अहसास है |
ऐसा लगता है उनमें मेरा चाह है ||

वो मेरे जैसा नहीं पर मेरा ख्वाब है…

गीत गाता है वो जब दिल से कभी |
ऐसा लगता है उनमे मेरा नाम है ||

वो मेरे जैसा नहीं पर मेरा ख्वाब है…

एक मुद्दत हुई हम नहीं हैं मिले |
फिर भी लगता है जैसे मेरे साथ है ||

वो मेरे जैसा नहीं पर मेरा ख्वाब है …

-रचना शर्मा

प्रिये !
तुम्हारा मौन
बहुत कुछ कह जाता है
और बहुत बतियाती है
तुम्हारी आँखे
तुम्हारी मधुर स्मृतियाँ
एकांत में भी
तुम्हारे अस्तित्व का
निरंतर बोध कराती हैं
तुमसे बहुत कुछ कहना चाहता है मेरा मन
यह जानते हुए कि
प्रेम तो शब्दो से परे है

– सत्यनारायण सिंह


उसी मोड़ पर

उसी मोड़ पर तुम मुझसे
कभी
जुदा नहीं हुई
ऐसा मुझे भी कभी
लगा नहीं
तो
फिर
यह अनजानापन
यह मसखरापन क्यों भला –
सुनो,
मैं वहीं हूँ
उसी मोड़ पर
जहां हम मिले थे

-लालित्य ललित


प्रेम में लिखी जाने वाली कविता

प्रेम में लिखी जाने वाली कविता
अंतस को उजास से भर देगी
उदासियों के बिच रास्ता बनाएगी
तुम्हारी साँसों में गुनगुनायेगी

प्रेम में लिखी जाने वाली कविता
इया के पीतल के कटोरे का तेल बन जाएगी
बाबा के झुर्रीदार हाथ पर लगाई जायेगी
उनके बिच अतीत सहलाता सा निकल जायेगा

प्रेम पर लिखी जाने वाली कविता में
धड्केगा दिल खनकेगी चूड़ी
दूरियों में बेचैनी मिलने के रास्तों पर हरसिंगार होगा
रेशमी इन्तजार होगा

धरती के सोलह श्रृगार में लिखी जायेगी एक कविता
नदियों के आईने में निहारेगी अपना चेहरा
समय थमेगा ..समन्दर शांत बहेगा
कलम की आखिरी स्याही की बूंद से कवी एक आखिरी बिंदी
लगा जाएगा

प्रेम पर लिखी जाने वाली कविता मुस्करा उठेगी ……

प्रिये !
अपने मन की व्यथा को
मैं आज किसे सुनाऊँ
इस संसार में
तुम्हारे अलावा इस मन की व्यथा को
दूसरा कौन समझ सकता है
अपमान गरल को
कंठ से लगाकर तुम मीरा तो बन गयी
पर मैं चाहकर भी अब तक
नहीं बन पाया हूँ श्याम
यही मेरे मन की व्यथा है प्रिये !
जिसे तुम्हारे अलावा
और कोई नहीं समझ सकता
इस संसार में

-सत्यनरायण सिंह

प्रेम की पूरकता

तुम कोई गीत लिखो और मैं गाउँ
गीत माटी के ,गीत फसलों के
गीत सुबह -शाम,गोधूलि-विहान के ,
जीवन के दर्पण में तुम पूनम का चाँद बनो और मैं –
आशाओं की चांदनी बिछाऊँ ,तुम कोई सूरज गढ़ो और मैं –
किरणों का परचम सजाऊँ
तुम कोई गीत लिखो और मैं गाउँ,
बूंद बूंद सपनों में रंग भरो ,
पलकों पर सोई हुई सुधियों से प्यार करो
तुम लिखो धूप -छाँह सी कोई कविता ,
और मैं शब्दों की रंगोली बनाऊँ ,
तुम कोई गीत लिखो और मैं गाउँ-
मन की मंजूषा में -यादों के साये हैं,
भूले -बिसरे नगमे बादल बन छाये हैं ,सूने मन- आंगन में तुम ,
सावन की पहली फुहार बन बरसो और मैं बूंदों की पालकी उठाऊँ
तुम कोई गीत लिखो -और मैं गाऊँ ,
भावना के मंदिर में -देवता विराजे हैं ,
प्रिय की अभ्यर्थना में साज सभी साजे हैं ,
सूने मन मंदिर में तुम आरती का दीप बनो ,
और मैं समर्पिता सी वर्तिका हो जाऊँ ,
तुम कोई गीत लिखो और मैं गाउँ-
नदिया ने सीखा है केवल बहते जाना ,
लहरों की सरगम पर -सपने बुनते जाना ,
नैनों की गागर में -सागर सा प्यार लिए
बादल सा राग बनो और मैं –
मनुहारों की रागिनी सुनाऊँ –
तुम कोई गीत लिखो और मैं गाउँ,

-पद्मा मिश्रा


अतृप्त प्यास
मैं तुम्हारी आँखों में बस झाँक कर रह गया
तुम्हारी चाहत के असीम सागर मुग्ध-दग्ध देखता
तट पर ही खड़ा रह गया
उनमे उठती लहरें मुझे बुला रही थी
मुझे लील लेने को आतुर
बेसब्र उछाल ले रही थी
तुम्हारी आँखों में उफनता आवेग
मुझे अपने में समाहित कर
मेरे तमाम अस्तित्व को
मिटा देना चाहता था
मै उनका आवेश देख डर गया
कमजोर पड़ गया
आगे कदम न बढ़ा सका
उतेजित लहरों से बेपरवाह सागर ने
लज्जा-बंध न तोड़ा
अमर्यादित लहरों को काबू में रखता
अपनी सीमा रेखा से बंधा रहा
मैं अतृप्त प्यास लिये दूर खड़ा
लहरों की रवानी देखता रहा

-विजय कांत श्रीवास्तव

मेरा उससे ….

मेरा उससे अज़ब रिश्ता रहा है ।
मैं अँधा और वो बहरा रहा है ॥

नफ़ा-नुक़सान ही सोचा किये, बस ।
हमारा प्यार भी – सौदा रहा है ॥

भिंचे हैं ओंठ, आँखें डबडबायी ।
कोई अपना था शायद !, जा रहा है ॥

मेरे बरसों के सन्नाटे हिले हैं । …
कहीं तो कोई सुर में गा रहा है ॥

अकेला कब से चुप था, जी रहा था ।
मुझे क्यूँ छेड़ कर उकसा रहा है ??

मेरी मुस्कान खिलती भी तो कैसे ?
मुसलसल दर्द का पहरा रहा है ॥

नदी के घाट पीछे छोड़ आया ।
समंदर सामने लहरा रहा है ॥

-त्रिवेणी पाठक

वो, जो

वो
जो
सूनी आँखों मे
सितारे चमकाता था,…

खाली हथेलियों में
चाँद उतारता
वो
अल्हड़

आज
सितारों के बीच
चाँद की हथेली पर है!

-अमित आनंद

हाइकू-सा

एक परिपक्व प्रेम में
विरह कितना सादा
चुप्पा होता है
जैसे रेतीले तल में
गहरे धधकता
ज्वालामुखी
तमाम सौजन्यता के साथ
नपीतुली उदासी
नपीतुली मुस्कान
सारी गंभीर लिखाई – पढ़ाई
के बीच, चुपचाप लिख दी गई
हाईकू सा! –

-मनीषा कुलश्रेष्ठ

सच कहूं

सच कहूं तुम्हारी बातों से
‘डर’ लगता है।
तुम उम्र बार-बार
पूछती हो,
गरीब, संवेदनशील, भावुक मन,
बूढा होकर बैठने लगता है।

घबडा कर, अपने आप से
कहीं मैं,
मेरी उमर,
सावला चेहरा,
गंभीर विचार,
मेरा आस-पास
और मेरे संस्कार
तुम्हें पसंद नहीं
ऐसा लगता है।

चाहता हूं आजादी दूं
दुबारा सोचने की।
कहीं ऐसा न हो कि
समय चला जाने के बाद
आफत न आए,
तुम पर पछताने की।

कृपा करो मेरा डर
सच या झूठ में
तब्दील करने की।

-विजय शिंदे

मुग्ध

मुग्ध हो कर देख रहा हूँ
और बह रहा हूँ
अस्तित्व की बाढ़ में
तेरी अविजित मुस्कान
इधर झनझनाती तंत्रियों में शुरू
सामूहिक गान

तू झुलसा रही मेरे अहं को
उमड़ रहा न जाने क्या
झुकती नज़र, कभी उठती नज़र
पर इसके माने क्या ?

फुलवारी कुछ सिमट गई है
और थोड़ी-सी आहट से
कांपने लगी है
तूफ़ान के अंदेशे ने
क्या क्या जुर्म किये
मजबूर हो गया
खुद को सहने के लिये
क्योंकि बिच्छू ने मारा डंक
पावक चेतना पर
एक एक क्षण का बोझ
वाचाल तन-मन
पर जिव्हा ने एक न कही
नीरवता खाये जा रही
क्योंकि हिमालय खड़ा अपनी जगह
और गगन अपनी जगह
अव्यक्त भाव

-हरिहर झा

प्रेम की कथा में

प्रेम की कथा में मनुष्य नहीं था
पर हर कहानी की
दहलीज़ पर और पिछवाड़े
खड़ा रहता था मनुष्य
गोकि प्रवेश वर्जित था मनुष्य का
प्रेम प्रेकोष्ठ में

मनुष्य पहले दिन से आगे बढ़ा है …
अपने उद्यम से
उसने आग जलाई
भीतर-बाहर; और चीखा
यह प्रेम है

प्रेम प्रकोष्ठ में बाहर की आवाज़ नहीं जाती
सो नहीं हुआ प्रतिवाद
फिर, आग प्रेम है, तय रहा

मनुष्य ने फिर प्यास जगाई
उसे प्रेम कहा
प्रतिवाद न हुआ इस बार भी
प्यास को कहा गया प्रेम

उद्यमी मनुष्य ने
एक एक कर हजारों बिंब गढ़े प्रेम के
उसकी संतानें
प्रेम के विषय में बुरी तरह उदार हुई

प्रेम प्रकोष्ठ में आज भी वर्जित है
मनुष्यों का प्रवेश
पर प्रेम कथाओं पर पूरा कब्ज़ा है
मनुष्यों का
भले ही नहीं होता हो मनुष्य
प्रेम की कथा में.

रवीन्द्र के दास

प्रेम

जो कहते हैं प्रेम पराकाष्ठा है…
वे ग़लत हैं
जो कहते हैं प्रेम आंदोलन है
वे ग़लत हैं
जो कहते हैं प्रेम समर्पण है
वे भी ग़लत हैं
जो कहते हैं प्रेम पागलपन है
वे भी इसे समझ नहीं पाए

प्रेम इनमें से कुछ भी नहीं है
प्रेम एक समझौता है
जो दो लोग आपस में करते हैं
दरअसल प्रेम एक सौदा है
जिसमें मोल-भाव की बहुत गुंजाइश है
प्रेम जुआ है
जो परिस्थिति की चौपड़ पर
ज़रूरत के पांसों से खेला जाता है।

-आकांक्षा पारे

वो…

वो पोंछता रहा
कपोए हाँथों से
बर्फ़ निचोड़ निचोड़ कर
रात भर की ओस और
ठण्ड में जागे स्वप्न
कार के शीशे पर से
एक बेनाप स्वेटर पहनें
मफ़लर में बाँधे मुख
और पेट काँख में दबाए
सपाट आँखों से मुटराता …
एक मटमैली सी बाल्टी
पोछा और गर्द भरा
ताज़ा पानी लिए गुनगुनाता
हाँ !
वो था प्रेम में पूरी तरह
उसके प्रेम की भूख़
बर्फ़ होते जंजाल से सिमट
आती थी पेट की भूख तक
और चाबी थामते हुए
मैंने सोचा था कि
मैं भी हूँ प्रेम में ही
पर भूख से आगे बढ़
मधुर संगीत के प्रेम में
महबूब की यादों में
डूब जानें के प्रेम में
औ’ जीवन की कविता
जी लेने के प्रेम में
सच !
प्रेम एक, परिभाषाएँ अनेक

-रमा भारती

एक दृश्‍य

पानी पर ज्‍यूँ गिरता हो पानी
छाया पर गिरती हो छाया
बिंबों पर प्रक्षेपित होते हों दूसरे बिंब
एक उदासी मढ़ती हो दूसरी को

यह सब मैंने ऐसे देखा जैसे यह कहीं और घटित हो रहा हो

स्‍वप्‍न के फूल

इन दिनों वह जाती है जिधर कुछ गुनती हुई
जिधर का रुख़ वह करती है
उन बिस्‍तरों में ख़ालीपन के सिवा कुछ भी नहीं
सच्‍ची वासना पथराई हुई वहॉं
जगा नहीं सकती देह को सौंदर्य को जो

कमरे के किनारे की गोल मेज़ पर
सजे प्‍लास्‍टिक के फूलों की तरह
वह यथार्थ है जिसे वह कुछ और समझ बैठी है
कोई भरमाए हुए है उसको
जबकि वह जाए अगर अपनी प्रिय कविताओं की तरफ
वे दिखा सकती हैं किस तरह चीज़ें रहती हैं
अपनी उदास कृत्रिमताओं में
कैसे ठंडे वध की तरह संभोग है वहॉं
हमारी लिप्‍साओं से कैसे
जन्‍म लेती हैं पुरुषार्थ की शक्तियॉं
महत्‍वाकांक्षाएं किस तरह वेश्‍याएं बनाती हैं

हमें जो चाहिए ऊष्‍मा जो ताप चाहिए हमें
वह मिलेगी हमें हमारी भाषा में
सदियों से जिसे हम बोलते आए हैं समझते भी
अपने बिस्‍तरों में हम आरामदेह नींद की फिक्र करें,
खोजें अपनी वासना के सच्‍च आनंदलोक को
कविता काफी है हमें वहॉं ले जाने के लिए अभी

जीवन के हैं कितने ही दूसरे स्‍वप्‍न अब
रात के रंग में लिपटे हुए नीले—नीले फूल

चांदनी रात में खेत लैविंडरके ज्‍यों
और लो ये चली स्‍वर्ग से कैसी ठंडी हवा !
हिलने लगे हैं कितने फूल स्‍वप्‍न के देखो

भटकाव

मैं ही नहीं भटकती रही थी सच की खोज में
वह भी आया था मुझे खोजता
मैं ही विचलित हो देखने लगी थी दूसरी तरफ
मुस्‍कुराता हुआ वह निकल गया था उधर
जिधर भटकना था फिर मुझे वर्षों

सुंदर मृत्‍यु

सुंदर मृत्‍यु
जैसे किसी चित्र का हिस्‍सा हो जाना
एक दृश्‍य का बढ़कर समेट लेना दूसरे को
एक आलिंगन में थिर हो जाना देह का

सुंदर मृत्‍यु
स्‍वप्‍न देखते स्‍वप्‍न हो जाना

चिरकाल तक रात हो जाना

सफेद पंख

जाओ उन्‍हीं आलिंगनों में
जो तुम्‍हारे थे
उड़ेल दिया था जिनमें तुमने
सारा प्रेम अपना

जाओ अब तक वहीं पड़ा है वह चुंबन
जिसे छोड़ गई थी लाल आंखों वाली चिडि़या

उठा लाओ वह सफेद पंख
जिसे गिरा गई थी वह किसी और के लिए

असर

नीले रंग और उसके असर में
अब कोई फर्क नहीं था
जो मेरा था वह नहीं था
एक देह थी गीली भीतर तक
आतंकित उस घटित से
जो घट कर भी नहीं घट

क्‍या है जिसके लिए फिर भी
यूँ गिरती है देह अपने भीतर

स्वप्न और प्यास

किसी ने सुनी है वह सांस हवा की
जिसमें चलती रहती है प्‍यास जीवन की
पैदल कोई लड़की किसी सुनसान में जैसे

किसी ने देखा है वह नीला गाढ़ा अंधकार
स्‍वप्‍न के भीगे चुंबन से जिसका रंग बदलता है

· सविता सिंह,


अनुदित प्रेम कवितायें
प्रेम कविता
तब सूरज डूब रहा था जब तुझसे मैं मिला था
तूने बड़े मजे में उस खाड़ी को पार किया था
सफ़ेद फ़्रॉक में थी तू, रूप तेरा खिला-खिला था
पर सपना टूट चुका था कि हमने प्यार किया था
हम दोनों चुप रहते थे, जब होती थीं मुलाक़ातें
रेतीली ढलान पर बैठे, करते नहीं थे कुछ बातें
फिर शाम गुज़र जाती थी, होती थी दीया-बाती
देख पीली शक़्ल वो तेरी, धड़के थी मेरी छाती
तेरी नज़दीकी पाकर, तब मन मेरा दहके-दहके
नीलवर्णी मौन वो तेरा औ’ मन मेरा लहके-लहके
धुन्धली उन शामों में, जब मुलाक़ात हमारी होती
सागर जल की लहरें, जहाँ सरकण्डों को धोतीं
ना तड़प उठी थी मन में, ना प्रेम था कोई ना रोष
बीत चुका था प्यार, फीका हो गया मन का जोश
सफ़ेद कोहरा-सा फैल गया, था रुदन सुनाई देता
नाव हमारी बह गई, तेरा सोन-चप्पू जिसे था खेता
1902
अलेक्जेन्दर ब्लोक
अनुवाद अनिल जन्विजय

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