कुमुदिनी
रंग बिखरा साँवला गोधूलि बेला में
खामोश सी दिशायें हो रहीं अनमनी
पंखुड़ियाँ फूलों की बिखरीं टूटकर
झकझोर रही पेड़ों को पवन सनसनी।
न हो रही हलचल तरु-तड़ाग में
आँखों को मूंदकर सोई है कुमुदिनी
शाम का आँचल फिसला है धरा पर
अब रात की भी पलकें हो रही हैं घनी।
नभ पर मुस्कुरा रहा चाँद मंद-मंद
है शाखों में उलझी-उलझी सी चाँदनी
धरती पर फैलाये अपना स्याह आँचल
भीग रही तुहिन कणों में यामिनी।
सरोवर में डूबी, सपनों में खोई
अब धीरे से खिलने लगी है कुमुदिनी
हम कहते उसको लाल कमल
चंद्र प्रिया, जल लिली, या नलिनी।
आये मेरी याद अगर
आये मेरी याद अगर तो
प्रणय-कथा दोहरा लेना।
पूर्ण चंद्र जब हो यौवन पर
मध्य-निशा अलसाई सी
प्रकृति खिलखिला पड़े अचानक
चंद्र-ज्योति में नहाई सी
ऐसे में तुम याद मुझे कर
हॄदय-समाधि लगा लेना।
आये मेरी याद अगर तो
प्रणय-कथा दोहरा लेना।
जाकर निर्झर पास
जहाँ लहरों की कलकल
पलकें उठा देख लेना
उनको तुम दो पल
करना हो अहसास जो मेरा
हाथ बढ़ा कर छू लेना।
आये मेरी याद अगर तो
प्रणय-कथा दोहरा लेना।
उठें घटायें जब अंबर में
धरती में जब प्यास जगे
मेरी भी कर याद अचानक
हॄदय तुम्हारा उमस उठे
प्रेम-बेल का सिंचन करने
दो आँसू ढरका देना।
आये मेरी याद अगर तो
प्रणय-कथा दोहरा लेना l
आऊँगी मैं तुम्हे देखने
जहाँ अवनि मिलती अंबर से
सुन लेना मेरी पुकार
अकुलाहट भी अपने अंतर से
तुम अतीत की यादों से ही
अपना मन बहला लेना।
आये मेरी याद अगर तो
प्रणय-कथा दोहरा लेना l
.किसने जाना
भोर और दोपहर बीती
संध्या अपना रंग घोले
कुछ जाग मुसाफिर
कुछ सो ले…..
मन मेरा जब-तब बोले।
भूल-भाल दुनिया के झमेले
अब कुछ आनंद शांति का ले
किसने जाना कब क्या होगा
अब ऊँच-नीच को ना तोले
मन मेरा जब-तब बोले।
जीवन-पथ पर चलते-चलते
झेले बहुत ही आँधी-शोले
पहुँच रही मंजिल तक नैया
बीच-बीच में अक्सर डोले
मन मेरा जब-तब बोले।
स्मृति के पट बंद हो रहे
शिथिल-शिथिल से अंग हो रहे
खच्चर सी काया कहती है
कुछ दिन और बोझ को ढो ले
मन मेरा जब-तब बोले।
भोर और दोपहर बीती
संध्या अपना रंग घोले
कुछ जाग मुसाफिर
कुछ सो ले…..
मन मेरा जब-तब बोले।
बुढ़ापा
कितनी भी हो भीड़ मगर
यह दुनिया लगे पराई है
संग-संग चलती रहती
बस अपनी ही परछाईं है।
हाथों की यह जीवन रेखा
देती नहीं उम्र का लेखा
किस्मत भी अपने खेलों से
रखती है सबको अनदेखा।
जब चुपके से जीवन संध्या
उतर उम्र के तट पर आती
पीछे मुड़कर देखो लगता
जीवन है एक जलती बाती।
नयी परंपरा देती दस्तक
नया समय, नया परिवेश
बच्चे नीड़ छोड़ जब जाते
लगता जीवन बचा न शेष।
आसपास होता है कलरव
पर जीवन में तन्हाई है
नैया पार लगायेगा
जिसने यह नाव बनाई है।
अपनी ही साँसों की हलचल
अपने ही कदमों की आहट
अंग शिथिल होने लगते हैं
मन में होती है अकुलाहट।
जाने कहाँ चला जाता वह
पहले सा उत्साह
जीवन क्रम चलता रहता
साँसों का रहे प्रवाह।
इस पड़ाव के आने पर
न चाहत कोई रहे विशेष
यादें धूमिल होने लगतीं
चाँदी से हो जाते केश।
कोई जाये फिसल अगर
न साथ में कोई उठाने को
काम सभी मुश्किल लगते हैं
और न कोई बतियाने को।
हँसते-रोते किसी तरह
कटती रहती तन्हाई है
अंतकाल में हर कोई
अपनी राहों का राही है।
कितनी भी हो भीड़ मगर
यह दुनिया लगे पराई है
संग-संग चलती रहती
बस अपनी ही परछाईं है।
विश्वास
कंटकों के पंथ पर भी
मैं सहजता से चलूँगी
छाँह में विश्वास की मुझको
बिठाते हो अगर तुम।
घिर आये जब संध्या बेला
चाहें पंथ सहज हों न हों
रुकने का मैं नाम न लूँगी
चाहें कितने थकित चरन हों
चाहें पग-पग शूल बिछे हों
चाहें पथ सब धूल सने हों
अक्षत समझ सदा शूलों को
चंदन लगा धूल का लेंगे
राह जीवन में दिखाते
चल रहे होगे अगर तुम।
कंटकों के पंथ पर भी
मैं सहजता से चलूँगी
छाँह में विश्वास की मुझको
बिठाते हो अगर तुम।
चाहें मावस की रजनी हो
सुप्त पड़ी सारी अवनि हो
तम की कारा में घिर कर भी
सौ-सौ योजन तक चल लेंगे
चाहें उन्मादित मंझा हो
चाहें मेघों का गर्जन हो
होंगे न यह प्राण विकल
न चरन वहाँ से तनिक डिगेंगे
प्यार और विश्वास से
जीत लेते हो अगर तुम।
कंटकों के पंथ पर भी
मैं सहजता से चलूँगी
छाँह में विश्वास की मुझको
बिठाते हो अगर तुम।
5.सावन की विदाई
सुहाना सा मौसम
हवा का मचलना
तितलियों का उड़ना
भंवरों का गुंजन
पल-पल क्षितिज में
सिमटती है लाली
नीरवता भरता है
खगकुल का कुंजन ।
राग सुनाते हैं
झींगुर कहीं पर
आती है सांवली
संझा लजाकर
आँगन में
मदमाती है रातरानी
हवा में खुशबू
छा जाती बिखरकर ।
बरसने के पहले
गगन पर उमड़ती
उन काली घटाओं का
लहराता दामन
चाँदनी को छुपाये
उतरती यामिनी
बूँदों की रिमझिम से
भरता है आँगन ।
फूलों और पातों से
मांगे विदाई
सावन बहारों का
दामन पकड़ कर
भिगोकर मखमल सी
चूनर धरा की
रोता है सावन
उससे लिपट कर।
मन करता है
नील गगन के बिस्तर पर
ओढ़ रजाई बादल की
चुपके से मैं सोकर
सपनों में खो जाऊूँ ।
जब धरती हो प्यासी
तब मैं बदली बन बरसूूँ
और माटी में घुलकर
उसजैसी हो जाऊूँ ।
कोहरे में लिपटे सूरज से
मुट्ठी भर किरणें लेकर
भू के आँचल पर उनको
मैं सोना सा बिखराऊूँ ।
जब स्याह रात हो गहरी
और चाँद कहीं छिपा हो
चाँदनी चुराकर उससे
मैं धरती पर ले आऊूँ ।
मैं शन्नो अग्रवाल इस समय आस्ट्रेलिया में रहती हूँ। मेरा जन्म उत्तर प्रदेश जिला पीलीभीत के छोटे से कस्बे में हुआ था। भारत से ही मैंने M.A. तक की शिक्षा प्राप्त की। मुझे बचपन से काव्य रचना का शौक था। शादी के बाद 1970 में लंदन आई तो कई बरसों तक काव्य साधना न कर पाई। करीब पिछले 16 बरसों से फिर से जुड़ी। और शीघ्र ही दो काव्य संग्रह ‘रोशनदान’ और ‘ओस’ नाम से प्रकाशित हुये। तमाम लेखक व लेखिकाओं की कहानियों व उपन्यासों पर मेरी समीक्षायें भी प्रकाशित हो चुकी हैं। जिनमें प्रसिद्ध कहानीकार और उपन्यासकार दयानंद पांडे, कादंबरी मेहरा जी और उषा राजे सक्सेना जी का नाम भी सम्लित है। मेरे कई आलेख, कवितायें, व कुछ कहानियाँ कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं। और मैने बहुत सारी बाल रचनायें भी लिखी हैं। अब भी लिखना जारी है। मेरे दो काव्य संग्रह और प्रकाशित होने जा रहे हैं। जिनमे से एक बाल रचनाओं पर है।
-शन्नो अग्रवाल