गीत और ग़ज़लः फैज अहमद फैज /लेखनी मई-जून 17

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की

अब कहाँ रस्म घर लुटाने की
बरकतें थीं शराबख़ाने की
कौन है जिससे गुफ़्तगू कीजे
जान देने की दिल लगाने की
बात छेड़ी तो उठ गई महफ़िल
उनसे जो बात थी बताने की

साज़ उठाया तो थम गया ग़म-ए-दिल
रह गई आरज़ू सुनाने की
चाँद फिर आज भी नहीं निकला
कितनी हसरत थी उनके आने की

सारी दुनिया मांगेंगे

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्साा माँगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया माँगेंगे।

यां पर्वत-पर्वत हीरे हैं, यां सागर-सागर मोती हैं
ये सारा माल हमारा है, हम सारा खजाना माँगेंगे।

वो सेठ व्यापारी रजवारे, दस लाख तो हम हैं दस करोड़
ये कब तक अमरीका से, जीने का सहारा माँगेंगे।

जो खून बहे जो बाग उजडे जो गीत दिलों में क़त्लम हुए,
हर कतरे का हर गुंचे का, हर गीत का बदला माँगेंगे।

जब सब सीधा हो जाएगा, जब सब झगड़े मिट जायेंगे,
हम मेहनत से उपजायेंगे, बस बाँट बराबर खायेंगे।

हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा माँगेंगे,
इक खेत नहीं, इक देश नहीं, हम सारी दुनिया माँगेंगे।

तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये

तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गये
तेरे ग़म को जाँ की तलाश थी तेरे जाँ-निसार चले गए
तेरी रह में करते थे सर तलब सरे-रहगुज़ार चले गए
तेरी कज़-अदाई से हार के शबे-इंतज़ार चली गई
मेरे ज़ब्ते-हाल से रूठ कर मेरे ग़मगुसार चले गए
न सवाले-वस्ल न अर्ज़े-ग़म न हिकायतें न शिकायतें
तेरे अहद में दिले-ज़ार के सभी इख़्तियार चले गए
ये हमीं थे जिनके लिबास पर सर-ए-रू सियाही लिखी गई
यही दाग़ थे जो सजा के हम सरे-बज़्मे-यार चले गए
न रहा जुनूने-रुख़े-वफ़ा ये रसन ये दार करोगे क्या
जिन्हें जुर्मे-इश्क़ पे नाज़ था वो गुनाहगार चले गए

बहार आई

बहार आई तो जैसे एक बार
लौट आए हैं फिर अदम से
वो ख़्वाब सारे, शबाब सारे
जो तेरे होंठों पे मर मिटे थे
जो मिट के हर बार फिर जिए थे
निखर गए हैं गुलाब सारे
जो तेरी यादों से मुश्कबू हैं
जो तेरे उश्शाक़ का लहू हैं
उबल पड़े हैं अज़ाब सारे
मलाले-अहवाले-दोस्ताँ भी
ख़ुमारे-आग़ोशे-महवशाँ भी
ग़ुबारे-ख़ातिर के ख्बाब सारे
तेरे हमारे सवाल सारे, जवाब सारे
बहार आई तो खुल गए हैं
नए सिरे से हिसाब सारे

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