परिचर्चाः बच्चे-मंजु रुस्तगी, चंद्रप्रभा सूद


हम अपने बच्चों को संस्कारित कैसे करेंः मंजु रुस्तगी

बालक ईश्वर की सृष्टि का सबसे निर्मल, पवित्र और निर्दोष सृजन होता है। वह जीवन के ताजा संस्करण के रूप में उभरता है। संस्कार व्यक्ति का समाजीकरण करते हैं, उसकी आंतरिक शक्तियों का उन्नयन करते हैं, उसके आत्मिक सौंदर्य को अभिव्यक्ति प्रदान करते हैं जिसका पहला सोपान घर है तत्पश्चात विद्यालय। विद्यालय उन्हें किताबी ज्ञान देता है लेकिन अच्छे गुणों की नींव घर में ही रखी जाती है।
छोटे बच्चे का मस्तिष्क गीली सीमेंट की तरह होता है। उस पर जो गिरता है,छाप छोड़ता है और बड़े होने तक यह छाप स्थाई बनी रहती है इसीलिए संस्कारों की नींव रखने का यही उपयुक्त समय होता है।
संयुक्त परिवारों के विघटन और एकल परिवार प्रणाली के प्रचलन ने सभ्यता और संस्कृति के अकूत भंडार, संस्कारों का बीजारोपण करने वाले बागबां यानी बुजुर्गों से बच्चों को दूर कर दिया है। यही कारण है कि संस्कारों के अभाव और अकेलेपन की संस्कृति ने उन्हें इंटरनेट की दुनिया में धकेल दिया है जहाँ बौद्धिक विकास के साथ-साथ बौद्धिक पतन का सामान भी सुलभ है।
माता-पिता दोनों के कामकाजी होने के कारण बच्चे आया के हाथों पलते हैं जबकि इस समय उन्हें उनके मार्गदर्शन और साथ की सबसे अधिक आवश्यकता होती है। बढ़ते बच्चे के साथ अपने अनुभव साझा करें जिससे संबंध तो प्रगाढ़ होगा ही आप के प्रति सम्मान की भावना भी बलवती होगी। उसका आत्मविश्वास भी बढ़ेगा। स्वयं मर्यादित रहें, अपशब्दों का प्रयोग न करें क्योंकि आप ही उसके आदर्श हैं।उसे ‘नहीं ‘ शब्द की पहचान भी बचपन में ही कराएँ… नहीं का मतलब… यह काम नहीं करना है। क्यों नहीं करना है? यह भी स्पष्ट करें। उसकी योग्यतानुसार कोई काम देकर जिम्मेदार बनाएँ ताकि वह आत्मनिर्भर बन सके। इससे उस में सहयोग की भावना भी आएगी।
वर्तमान समय की माँग भी है और प्रासंगिक भी कि बेटा-बेटी में भेद न करें। आप दोनों को घर और बाहर के सारे कामों में दक्ष बनाएँ। सत्य और ईमानदारी जैसे गुणों को विकसित करें। उनमें धैर्य और सहनशीलता की भावना को जाग्रत करें ताकि निराशा के क्षणों में वह कोई गलत कदम न उठाए (आत्महत्या जैसा) न ही उग्र और हिंसक हो।
बच्चे बहुत ही संवेदनशील प्रेक्षक होते हैं। वयस्क होते बच्चों से मित्रवत व्यवहार करें ताकि यदि उनसे कभी कोई गलती भी हो जाए तो वह निःसंकोच आपसे कह सकें, झूठ का सहारा न लें। विश्वास का वातावरण निर्मित करें। उन्हें उनकी पसंद का कार्य करने दें। अपने बच्चों की तुलना किसी से न करें, न ही उन्हें किसी के सामने अपमानित करें क्योंकि एक बार हीन ग्रंथि पनप गई तो जीवन भर उसकी प्रगति में बाधा बनेगी। प्रशंसा करना उनके व्यवहार में शामिल करें।
आज के राष्ट्रव्यापी अनैतिकवाद प्रदूषण का कारण है– अपने संस्कारों के प्रति उदासीन होकर पाश्चात्य सभ्यता का अंधानुकरण। शिक्षा और संस्कार का समन्वय बहुत आवश्यक है। शिक्षा व्यक्ति के जीवन को दिशा और दशा दोनों देती है, जीविका देती है जबकि संस्कार जीवन को मूल्यवान बनाते हैं जिससे व्यक्तित्व का निर्माण और विकास होता है।
विद्यालय स्तर पर पाठ्यक्रम में नैतिक शिक्षा संबंधी विषय शामिल करें जिसे पढ़ने से बच्चों में सद्गुणों का विकास होगा जैसे–सत्य बोलना, माता-पिता, गुरु, बड़ों का सम्मान करना, ईश्वर में आस्था, सहनशीलता, कर्तव्य-बोध, देश के प्रति सम्मान, उज्ज्वल चरित्र, बुजुर्गों के प्रति सकारात्मक सोच इत्यादि। बच्चों को बाल साहित्य पढ़ने के लिए प्रेरित करें। समय-समय पर ऐसी गतिविधियों का आयोजन करें जिससे बच्चों में अनुशासन, आत्मसंयम, उत्तरदायित्व, आज्ञाकारिता, विनयशीलता, सहानुभूति, स्वस्थ प्रतिस्पर्धा आदि गुण हृदयस्थ हों।
ध्यान रहे ‘एक ही तो है’ की तर्ज पर पालन-पोषण कर बच्चे के मोह में धृतराष्ट्र की तरह अंधे न बनें उसकी गलतियों को अनदेखा न करें वरना वह भी दुर्योधन और दुशासन ही बनेगा। अंत में बस इतना ही कि–
“शिक्षा अगर स्तम्भ है तो नींव है संस्कार।
सद्गुण सुख की खान है जिस पर टिका संसार।”

डॉ. मंजु रुस्तगी,
चेन्नई
9840695994

समालोचक बच्चे
बच्चे महान समालोचक होते हैं। वे हर चीज का मुआयना (observe) बड़ी बारीकी से करते हैं। बड़ों की कोई भी गलती उनकी नजर से बच नहीं सकती। इसका कारण उनकी जिज्ञासु प्रवृत्ति होती है।
वे हर जगह, हर बात पर सदा ही क्या, क्यों, किसलिए, कब आदि को ढूँढते रहते हैं। इन्हीं सारे प्रश्नों के उत्तर वे खोजते रहते हैं। अपनी जिज्ञासा को शांत करने के लिए वे बारबार सबसे प्रश्न पूछते हैं और अपनी शंकाओं का समाधान करते रहते हैं। कभी-कभी हम उनके इन प्रश्नों से झुँझला जाते हैं और डांटकर उन्हें चुप करा देते हैं। पर बालमन को इस डांट-फटकार से कोई लेना देना नहीं होता। अगले ही पल फिर वे किसी नए प्रश्न को लेकर सवालिया निगाहों से देखते हुए पूछते हैं।
उन्हें हम स्वयं गलत आदतें सिखाते है। हम उनके सामने झूठ बोलकर कहीं भी जाते हैं पर उन्हें सच बोलने का पाठ पढ़ाते हैं। घर में नापसंद मेहमानों के आने पर हम उनका सत्कार भार समझकर करते हैं और उनकी पीठ पीछे उन्हें भला-बुरा कहते हैं। परन्तु अपने प्रियजनों के आने पर प्रसन्नता से आवभगत करते हैं। बच्चों के सामने बैठ कर अपने कार्यक्षेत्र की, आस-पड़ोस की, मित्रों की संबंधियों अच्छी-बुरी सभी बातें चटखारे लेकर और शेखी बघारते हुए उनके सामने सुनाते हैं। अपने चेहरों पर लगाए मुखौटों के कारण हम समय-समय पर अलग-अलग तरह से व्यवहार करने का प्रयत्न करते हैं।
इन सबके अतिरिक्त किसी के दुख-सुख में मन माने तो हम शामिल हो जाते हैं अन्यथा बहानों की बड़ी लम्बी लिस्ट हमारे पास तैयार रहती है।
घर-परिवार में हम आपस में कैसा व्यवहार करते हैं? बड़े-बजुर्गों के प्रति हमारा रवैया सहानुभूति पूर्ण है या नहीं? छोटों व बराबर वालों के साथ हमारा बर्ताव कैसा है? आस-पड़ोस से सहृदयतापूर्वक पेश आते हैं या नहीं, ये बातें भी बच्चों के कोमल मन की स्लेट पर लिखी जाती हैं जो समय के साथ -साथ और गहरी होती जाती हैं।
बालमन पर पड़े इन संस्कारों के विषय में वह हैरान होकर सोचता रहता है। उसकी यही सोच उसका मार्गदर्शन करती है। अपने आसपास घटित घटनाओं से वह नोट्स बनाता रहता है और जब मौका होता है तो सबके सामने बिना झिझक कह भी देता है कि फलाँ समय पर आपने ऐसा कहा था या किया था। उस समय घर के बड़ों को शर्मिंदा होना पड़ता है। उस समय वे बगलें झाँकते हुए उस मासूम को डाँटकर अपने दिल की भड़ास निकाल लेते हैं। तब यह भी नहीं सोचते कि बच्चे के कोमल हृदय पर इस व्यवहार का अच्छा असर नहीं होगा।
यदि बच्चों से अच्छा व्यवहार की अपेक्षा रखते हैं तो पहले स्वयं के अंतस में झाँककर देखिए। आत्मपरीक्षण करने पर समझ आ जाएगा कि बच्चे के इस मुँहफट रवैये के पीछे स्वयं से ही चूक हो गई है। बच्चा जिद्दी व अड़ियल होकर बिना कारण बार-बार माता-पिता का सिर क्यों नीचा कराता है? उसे उनकी अवमानना करके खुशी क्यों मिलती है?
बच्चों को हम जैसा बनाना चाहते हैं वे वैसे ही बन जाते हैं। स्वयं पर थोड़ा-सा ध्यान देने व संयम रखने से हम बच्चों के व्यवहार को अनुशासित कर सकते हैं। उन्हें एक सभ्य व सुशिक्षित नागरिक बनाने के अपने दायित्व का निर्वहण कर सकते हैं।

बच्चों पर अंकुश

Spare the rod and spoil the child- सयाने ऐसा कहा करते थे। माना कि आज युग बदल रहा है और विद्यालय व घर में अध्यापकों व माता-पिता को बच्चों पर हाथ न उठाने के लिए दबाव बनाया जा रहा है। इसका यह अर्थ कदापि नहीं है कि बच्चों पर अंकुश न लगाया जाए।
यदि आप चाहते हैं कि आपके बच्चे संस्कारी व योग्य बनें तो उन्हें अनुशासन में रखना बहुत आवश्यक है। विदेशों का अंधानुकरण करके हम अपने बच्चों के जीवन से खिलवाड़ नहीं कर सकते। हम टीवी की खबरों में देखते हैं और समाचार पत्रों में पढ़ते रहते हैं कि विदेशों में छोटे-छोटे बच्चे पिस्तौल लेकर स्कूल जाते हैं। जरा-सी बात होने पर अपने साथियों पर गोलियाँ चलाकर उनकी जान ले लेते हैं।
अब आप सुधीजन विचार करें कि हम अपनी आनेवाली पीढ़ी को ऐसे ही असहिष्णु व उद्दण्ड बनाना चाहते हैं? यदि आप ऐसा चाहते हैं तो फिर कोई समस्या नहीं। इसके विपरीत यदि आप चाहते हैं कि आपके बच्चे आपकी अवहेलना न करें और संस्कारी बनें तो बच्चों की ओर ध्यान देना आवश्यक है।
बच्चे कच्ची मिट्टी के समान होते हैं। आप बच्चे को जैसा बनाना चाहते हैं वह वैसा बन जाएगा। यहाँ पर मैं एक कुम्हार का उदाहरण देना चाहती हूँ। कुम्हार मिट्टी को मनचाहा आकार देकर इच्छित वस्तुएँ बनाता है। उसी प्रकार मासूम और कोमल बच्चों को हम कोई भी आकार दे सकते हैं। उनमें आप ही की छवि दिखाई देगी।
बच्चा घर के बाहर या किसी मित्र-संबंधी के यहाँ जाकर या स्कूल-कालेज में उद्दण्डता करेगा तो लोग माता-पिता को ही दोष देते हैं कि बच्चों को उन्होंने तमीज नहीं सिखाई। तब उन्हें शर्मिन्दगी का समना करना पड़ता है। उस समय अपनी झेंप मिटाने के लिए वे तर्क देते हैं कि क्या करें बच्चे थोड़ा शरारती हैं। पर ऐसा कहकर वे अपनी जिम्मेदारी से मुक्त नहीं हो सकते।
जो बच्चे हर स्थान पर ही अनुशासित रहते हैं उन्हें बारबार सबसे प्रशंसा मिलती है। ऐसे बच्चों के माता-पिता का सिर गर्व से ऊँचा हो जाता है।
बच्चे पर आप चाहे हाथ न उठाएँ परन्तु उसे आपकी तरेरी हुई नजर का डर अवश्य होना चाहिए। बच्चों के सामने अपने धन का प्रदर्शन व रौब न दिखाएँ और न ही बच्चों को इसकी अनुमति दें। साथ ही स्वयं झूठ बोलने से परहेज करें व बच्चों को भी सच बोलने के लिए प्रेरित करें। जब आपका बच्चा गलत कार्य करे तो उसके मन में आपका डर होना चाहिए पर सम्मान के साथ। वह किसी भी स्थिति में कभी भी आपका तिरस्कार न करे। उसे अपने माता-पिता की आँख की शर्म बनी रहनी चाहिए।।
बचपन से ही अपने बच्चे की हर जायज-नाजायज माँग को पूरा करके उसे जिद्दी न बनाएँ। उसे ‘न सुनने’ की आदत डालिए। उसे हर अच्छाई-बुराई से अवगत कराएँ। जब भी वह कुछ गलती करे तो उसे उसकी गलती को माफ न करें। उसे अपनी गलती का अहसास कराने के लिए हर पहलू के विषय में समझाइए। बच्चे बहुत समझदार हैं वे अपना भला और बुरा बेहतर समझते हैं।
धीरे-धीरे उसे अपने भले-बुरे की पहचान हो जाएगी और वह एक जिम्मेदार बच्चा बन जाएगा। यह आदर्श स्थिति है कि आपका बच्चा सभ्य एवं योग्य बनकर चारों ओर अपना यश फैलाए। वह तो हर स्थान पर प्रशंसा का अधिकारी बनेगा ही और आपको उसे ऐसा बनाने का श्रेय भी मिलेगा।
ऐसा करके सजग व जिम्मेदार माता-पिता होने का दायित्व निभाते हुए बच्चों के उज्ज्वल भविष्य बनाइए और देश व समाज को योग्य विरासत सौंपिए।

चन्द्र प्रभा सूद
देहली, भारत
लेखिका वरिष्ठ और प्रतिष्ठित साहित्यकार व कवियत्री हैं।

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