बात बहुत पुरानी है, साठ साल से भी अधिक पुरानी पर आज भी स्मृति में ज्यों की त्यों ही हैं सारी यादें।
गली का वह नन्हा भूरा सफेद चितकबरा पिल्ला कूं-कूँ करता सुबह-सुबह ही आकर पैरों से लिभड़ गया था। भूखा था शायद। ठंड बेहिसाब थी और उसकी आँख-नाक से लगातार पानी बह रहा था। दयनीय इस हालत के बारे में कुछ सोचूँ तक कि उंगली पकड़कर साथ चलते चार साल के छोटे भाई ने गोदी में उठा लिया उसे और मेरे ही नए रूमाल से जिसे मैंने उसकी नाक पोंछने के लिए दिया था उसे, बड़े ही प्यार और हिफाजत से उसकी नाक पोंछ डाली। अगले पल ही वह उसे गोदी में उठाकर लड़ियाने भी लगा था। अजब स्नेह भरा दृश्य था वह। पिल्ला भी अब कूँ-कूँ नहीं कर रहा था और गोदी में लेटा आराम से अपनी बड़ी-बड़ी काली आंखों से हमें देखे जा रहा था। पर मेरी खुद अपनी उम्र 12 साल के लगभग ही थी उस वक्त और हम बच्चे अपने मन से कोई भी इस तरह का निर्णय नहीं ले सकते थे।
कुत्ते की देखभाल का काम बड़ी जिम्मेदारी भरा काम था। इसमें हमें बड़ों का सहयोग और अनुमति दोनों ही चाहिए थी। परन्तु उस कुत्ते के बच्चे के मोह में बंध चुके थे हम दोनों। डाँट न पड़े या बड़े उठाकर इसे बाहर न फेंक दें, इस डर से घर के अंदर न ले जाकर वापस कारखाने में ले गए हम उसे। ऊपर ताऊजी का कमरा बड़ा था और ताऊजी मिल पर गए हुए थे। वहाँ कुछ देर हम आराम से उसके साथ खेल सकते थे। तुरंत ही घर से एक कटोरा दूध मंगाया । पिल्ला गटक-गटक एक ही सांस में पूरा पी गया। अब हम उसे बड़े प्यार से मोती बुला रहे थे। शायद उसकी चमकती बड़ी-बड़ी काली आँखों की वजह से। वहीं कमरे के बाहर वाले नल के नीचे धूप में हमने उसे साबुन लगाकर नहलाया और फिर चंदन की महक वाला अपना पाउडर भी लगाया । अब मोती बिल्कुल साफ-सुथरा चमक ही नहीं, महक भी रहा था और हमारे मन में कोई हिचक नहीं थी उसे गोदी में बिठाने में। हम आराम से उसके साथ खेल सकते थे।
मोती को गोदी में उठाए हम कमरे में आमने-सामने जा बैठे।
मोती आवाज देने पर वह कभी मेरी तरफ दौड़ता तो कभी भाई की तरफ।
हम जितना हंसते मोती को उतना ही अच्छा लगता और वह और तेजी से दौड़ने की कोशिश करता। जिधर से आवाज आती उधर ही पुलक-पुलक दौड़ता रहा मोती। छोटा सा रूई के गोले सा मोती अब हम दोनों के बीच एक बॉल सा अपने नन्हे नन्हे पैरों पर लुढक -पुड़क रहा था और हमें बहुत ही प्यारा लग रहा था। शायद उसे भी हमारा साथ उतना ही अच्छा लग रहा था जितना कि हमें उसका। जी भरकर खेले हम एक-दूसरे के साथ। बारबार गोदी में लेकर खूब लाड़ भी किया। पर स्कूल तो जाना ही था। बाहर बरामदे में पड़ी डलिया उठाई और वहीं एक कोने में मोती के लिए रख दी। मोती को उसमें लिटाकर तौलिया भी उढ़ा दी। खेल समझा या वाकई में थक गया था, मोती एक समझदार बच्चे की तरह चुपचाप जा बैठा और तुरंत ही सो भी गया। शाम को स्कूल से लौटे तो मोती डगमग-डगमग वहीं बरामदे में टहल रहा था। देखते ही लपककर दौड़ता हुआ आया। और तब हम उसे उसकी डलिया सहित कारखाने से घर में उठा लाए और बगीचे में ले जाकर वहाँ भूसे की कोठरी के सामने छप्पर के नीचे रख दिया रात भर के लिए। आज से यही मोती का घर होगा। मन में निश्चय कर चुकी थी मैं। माँ आवाज देती रहीं। पर मोती को दूध में भिगोई और मसली रोटी खिलाने के बाद ही वहाँ से हिली। अब यह रोज का ही नियम हो चुका था। मोती करीब करीब हमारे साथ ही दोनों वक्त खाता। स्कूल जाने से पहले और स्कूल से लौटकर। किसीने कुछ नहीं कहा। सिवाय ताई जी के , जिन्हे उससे अक्सर कई शिकायतें रहने लगी थीं। कभी उन्हें उसका हमारे साथ खेलना और शोर मचाना…दौडना-भागना पसंद नहीं आता तो कभी अपने नन्हे पैरों के निशान से साफ-सुथरा घर आंगन गंदा करना। पर मोती अब बगीचे में नहीं आंगन में ही रहने लगा था दिन भर। बस रात में बगीचे में जाता। चोर उचक्के, बिल्ली , सभी की नाक में दम किए रहता था मोती। कान बहुत तेज थे उसके और दौड़ता भी बहुत तेज था। चिड़िया तो उसे देखते ही उड़ जाती थीं। लपक-लपककर जाने कितनी चिड़िया का शिकार कर चुका था वह।
धीरे -धीरे बच्चे बड़े सभी लिभड़ते चले गए मोती के लाड़ में। मोती समझदार भी बहुत था। कहती तो कभी मुंह में पकड़कर किताब कौपी ला देता तो कभी अखबार। भाई की बौल तो बगीचे के किसी भी कोने से ढूंढकर ले आता था।
फिर एकदिन वह दिन भी आया , जब हम स्कूल से लौटे और मोती कहीं नहीं था। पूरा घर और कारखाना ढूंढ-ढूंढकर जब थक गए तो ताईजी ने बताया कि मोती को मोहनिया मिल पर भेज दिया गया है। वहाँ उसकी ज्यादा जरूरत है। खा-खाकर मलंग हो गया है । अब मिल पर रखवाली करेगा। मन उदास था पर बड़ों की बात तो माननी ही थी। इतवार आते ही जिद करके मिल पर पहुँच गए हम। दिनभर मोती के साथ रहे और शाम को चार बजे की गाड़ी से लौट आए। मोती भी आया था हमें स्टेशन पर छोड़ने। फिर तो हम अक्सर ही जाने लगे मिल पर। दिनभर खेलते उसके साथ और शाम को लौट आते। मोती बिना नागा स्टेशन पर हमें छोड़ने आता। अगर चौकीदार नहीं लाता तो भी दौड़ता-दौड़ता खुद ही चला आता था। अब तो वह डिब्बे के अंदर भी चढ़ने लगा था । सीटी बजते ही, नौकर उसे उतार लेता। मोती को गए ज्यादा दिन नहीं हुए थे कि एक दिन पता चला मोती ट्रेन के नीचे आ गया। सुनकर धक्का-सा लगा, विश्वास ही नहीं हुआ। जब बात पूरी तरह से समझ में आई तो खूद को एक निर्दयी पर बेबस राक्षस-सा महसूस किया मन ने।
स्टेशन पर खड़े, बगीचे में खेलते मोती की यादें आँखों से हटती ही नही थीं। सभी ने कहा-नया ला देंगे। पर विश्वास ही नहीं होता कि मोती जैसा कोई और दूसरा कुत्ता हो भी सकता है, या उसकी जगह ले सकता है। समझदार और इतना प्यार करने वाला तो निश्चय ही नही ।…
मिलने पर मिल के चौकीदार ने भरे गले से बताया था -‘ क्या करें बिटिया रोज स्टेशन पहुंच जाता था शाम के जैसे ही चार बजते और गाड़ी के आने का वक्त होता। फिर डिब्बे-डिब्बे आपको ढूँढता था। पता नहीं कैसे पता लग जाता था उसे कि चार बज गए हैं। बांधकर भी रखने लगे थे हम तो उसे। बस उस दिन ही जाने कैसे चूक हो गई।’
पत्थर बनी सुन रही थी सब। कई पालतू जानवर आए और चले गए। पर मोती की जगह कोई नहीं ले सका। मन का वह हिस्सा आज भी पत्थर ही तो है।…
शैल अग्रवाल
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