भाषा का संबंध भाव और विचार, यानि हृदय और मस्तिष्क से जितना होता है , उतना ही हमारी अस्मिता से भी-सामने वाले से हमारा परिचय और हमारा आकलन प्रायः हमारी वाणी ही करवाती है।
यह बात व्यक्ति पर ही नहीं, राष्ट्र पर भी उतनी ही सार्थक है।
भाषा न सिर्फ हमारे विचार और हमारी संस्कृति की संवाहिका है, हमारे भूगोल और इतिहास यानि हमारे इरादे और उपलब्धि आदि को भी सभी के आगे रखती है। किसी भी राष्ट्र को विश्व के आगे उसकी अपनी पहचान देती है यह। इसलिए जरूरी हो जाता है कि हर देश की अपनी एक सशक्त भाषा हो, जो उसके गुण और उपलब्धियों का सही प्रतिनिधित्व कर सके। इतनी लचीली हो कि अन्य में जो विशेष और उपयोगी हो उसे आत्मसात कर सके। इतनी सक्षम हो कि हर तरह की क्रांति और तकनीकि के लिए उसके पास विकसित शब्दावली हो , जिसके द्वारा वह तथ्यों को खुद भी ठीक से समझ सके और दूसरों को भी भलीभांति समझा सके। एक ऐसी भाषा जो पूरे देश को अपनी लगे, जिस पर सभी का अधिकार व प्रेम हो। जिसकी जड़ें उनके अपने मूल में गहरी धंसी हों। भारत जैसे एक बहुभाषीय देश में यह उत्तरदायित्व निश्चय ही सिर्फ हिन्दी ही निभा सकती है।
हर भाषा का अपना एक वांग्मय होता है जिसके अंतर्गत साहित्य व काव्य तो है ही , सभी प्रकार के शास्त्र भी आ जाते हैं, चाहे वे भौतिक विज्ञान के हों, चाहे समाज विज्ञान और आणविकी के। भाषा और संस्कृति दोनों ही सदानीरा हैं, जैसे कि बहती गंगा जिसमें आस्था और अस्थि दोनों ही बराबर मात्रा में मिली होती हैं। आस्था यानी हमारा खुदपर विश्वास और गौरव और अस्थियाँ यानी हमारे पूर्वजों की पूरी सोच और संस्कार, हमारे सारे रीति-रिवाज, हमारा पूरा वांग्मय है इसमें। यह दोनों को ही समेटकर बहती है, फिर भी सड़ती नही, अपितु सींचती है। इसीलिए तो जल को अमृत कहते नहीं अघाते हम। तरलता और प्रवाह दोनों ही भाषा के भी जीवनदायी गुण हैं और अपनी सास्कृतिक व भौगोलिक विविधता की वजह से हिन्दी में यह दोनों ही गुण प्रचुर मात्रा में मिलते हैं।
आश्चर्य नहीं कि शब्द को बृह्म कहा था कभी हमारे पूर्वजों ने। परन्तु आज ये शब्द और भी ध्यान से चुनने होंगे हमें। त्वरित संचार के इस युग में भावों और ज्ञान का आदान-प्रदान बेहद तीव्र गति से होता है फलतः सही और समर्थ अभिव्यक्ति का सही उपयोग और चयन जितना जरूरी आज है, शायद पहले नहीं था। भारत की बढ़ती साख के साथ हिन्दी का महत्व भी बढ़ रहा है क्योंकि पूरे ही विश्व का भारत के प्रति आकर्षण और जिज्ञासा, दोनों बढ़ रहे है। जैसे शरीर में हाथ पैर, पेट और गर्दन हर अंग का अपना महत्व है । कुछ का तो इतना अधिक कि इनके बिना आदमी जीवित ही नहीं रह सकता, फिर भी पहचान चेहरे से ही होती है, वैसे ही हिन्दी आज हमारी जरूरत है। हमारे देश का असली चेहरा है। अपनी बात कहने के लिए हमें दासता की प्रतीक और उधार की भाषा अंग्रेजी की अब और जरूरत नहीं।
अपने हर दायित्व को हिन्दी भलीभांति निभा सकती है, निभा पाएगी। इसलिए नहीं कि इसके बोलने वाले भारत में सर्वाधिक हैं, अपितु इसलिए क्योंकि इसकी क्षमता, लचीलापन, शब्दकोष और विकास अन्य भारतीय भाषाओं के बनस्पति कहीं अधिक हुआ है। अन्य सभी भारतीय भाषाओं को अपने उद्गम संस्कृत के साथ लपेटे समेटे ही यह आगे बढ़ी है। यही नहीं अपने मुगल शाषकों की अरबी फारसी आदि के कई शब्दों को भी इसने पूर्ण रूप से आत्मसात किया है। फलतः पूरे भारत की संपर्क भाषा भी मुख्यतः यही है और रहनी भी चाहिए।
पर यदि हम आपस में ही लड़ते रहे तो कभी विश्व को भारत की एक सामूहिक और संतुलित प्रतिनिधित्व करती भाषा नहीं दे पाएँगे। आज जबकि हमें इसकी बेहद जरूरत है क्योंकि विश्व के आगे अपने ज्ञान और पहचान दोनों का ही हमें विस्तार करना है। दूसरों के पास जाना है, उन्हें समझना और समझाना है। अपनी जीविका, विकास और उपस्थिति व प्रभाव को बनाए रखने के लिए भांति-भांति के आदान-प्रदान करने हैं। वक्त की जरूरत यही है कि हम आपसी भेदभाव को भूलकर हिन्दी को ही देश की संपर्क और राष्ट्रभाषा मान लें। हिन्दी में ही देश के अधिकांश अधिकारी व शिक्षण कार्य करें, जैसा कि हमारे ज्ञानी-ध्यानी ही नहीं, भारत प्रेमी और सभी भारत हितैषी जैसे महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, राधाकृष्णन और पुरुषोत्तम दास टंडन जैसे मनीषियों ने जोर दिया था। अंग्रेजी का वर्चस्व आज भी हमने जाने क्यों अपने ऊपर जबर्दस्ती थोपा हुआ है जबकि यह हमारी या हमारे देश की असली पहचान नहीं। जितनी अच्छी तरह से हम अपनी भाषा में अपनी बात कह और समझा सकते हैं, और किसी भाषा में नहीं। क्योंकि इसमें ही हमारी संस्कृति और संस्कारों के डी.एन.ए हैं, यही हमारी माँ की घुट्टी की भाषा है। फिर हमारी हिन्दी तो अब विश्व भाषा बन चुकी है। यह कम गर्व की बात नहीं कि आज इसके जानने, चाहने और बोलने वाले भारी तादात में विश्व भर में फैले हुए हैं। भवभूति से लेकर कालिदास , सूर मीरा तुलसी, शरद टैगोर, प्रेमचंद और प्रसाद से लेकर अज्ञेय और त्रिलोचन व आजके असंख्य हिन्दी सेवी, साहित्य सृजन और एक समृद्ध वांग्मय की भारत की एक दीप्त परंपरा है, जिसमें हिन्दी का बड़ा और बहुमूल्य योगदान है। विभिन्न शाषकों और विदेशियों के संपर्क की वजह से आज हिंदी की शब्दावली सागर की बूंदों सी विपुल है। पठनीय , सहज और सरल हिन्दी मृतभाषा, नहीं, गतिशील और विकासोन्मुख भाषा है और भारतीय संस्कृति एक महत्वपूर्ण और शक्तिशाली संस्कृति के रूप में पूरे विश्व में ही मान्यता पा रही है, बात चाहे तकनीकी की हो , विज्ञान की हो, आयुर्वेद की हो, योग विद्या, ज्योतिष या फिर टेक्सटाइल या कला व संस्कृति की हो। जरूरत बस इस बात की है कि हम अपने महत्व को समझें , इसमें गौरव लें। इस सदानीरा को सूखने न दें, आस्था और अस्थियाँ दोनों को लिए बहती इस गंगा को इसका उचित मान देते रहें।
कई विदेशों में बसे भारतवंशियों ने इस कर्तव्यबोध के तहत अपने घरों , मंदिरों और छोटे-छोटे समूहों में हिन्दी पढ़ने-पढाने का काम शुरू किया है जिससे हिन्दी और भारत के प्रति जागरूकता और जिज्ञासा दोनों बढञी हैं।
समग्र और समस्त में ही चीजों का मूल्यांकन हो सकता है-यह बात बिल्कुल सही है। वरना वह आँख पर पट्टी बांधे हाथी के वर्णन-सी ही बात समझ में आएगी। कहीं पूंछ रह जाएगी , कहीं बस कान और हीं खंबे जैसे चार पैर।
आज भांति-भांति से कई जमीनी तौर पर हिंदी की अलख जगाने का प्रयास हो रहा है परन्तु मेरा अपना मानना है कि कहीं भी रहें हिन्दी हमें अपने मन और परिवार में जिन्दा रखनी होगी। भाषा के रूप में हिन्दी को जिन्दा रखना है तो बोली को नहीं भूला जा सकता, लीपि की अवहेलना नहीं की जा सकती। रोमन लीपि जैसे आसान तरीकों का भरसक इस्तेमाल न करने का प्रयास करना होगा। अगर भारत में या भारत के बाहर हम हिन्दी भाषी मिलते हैं तो अंग्रेजी में नहीं, हिन्दी में बात करके अपना और देश का मान बढ़ाएँ, जहाँ तक संभव हो अपनी ही भाषा में लिखें, पढ़ें और सोचें और अपनी भाषा जीवित रखें।
शैल अग्रवाल
संपर्कः shailagrawal@hotmail.com