गीत और गजलः कुंवर बेचैन, सोहन राही

नदी बोली समन्दर से
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नदी बोली समन्दर से, मैं तेरे पास आई हूँ।
मुझे भी गा मेरे शायर, मैं तेरी ही ही रुबाई हूँ।।

मुझे ऊँचाइयों का वो अकेलापन नहीं भाया;
लहर होते हुये भी तो मेरा मन न लहराया;
मुझे बाँधे रही ठंडे बरफ की रेशमी काया।
बड़ी मुश्किल से बन निर्झर, उतर पाई मैं धरती पर;
छुपा कर रख मुझे सागर, पसीने की कमाई हूँ।।

मुझे पत्थर कभी घाटियों के प्यार ने रोका;
कभी कलियों कभी फूलों भरे त्यौहार ने रोका;
मुझे कर्तव्य से ज़्यादा किसी अधिकार ने रोका।
मगर मैं रुक नहीं पाई, मैं तेरे घर चली आई;
मैं धड़कन हूँ मैं अँगड़ाई, तेरे दिल में समाई हूँ।।

पहन कर चाँद की नथनी, सितारों से भरा आँचल;
नये जल की नई बूँदें, नये घुँघरू नई पायल;
नया झूमर नई टिकुली, नई बिंदिया नया काजल।
पहन आई मैं हर गहना, कि तेरे साथ ही रहना;
लहर की चूड़ियाँ पहना, मैं पानी की कलाई हूँ।
-कुँवर बेचैन

रेत समंदर साहिल होगा

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रेत, समंदर, सहिल होगा
रस बरसाता बादल होगा

लहर लहर मन व्याकुल होग
आग लगाता जल थल होगा

छन, छन, छन, छन पायल होगी
नाच नचाता काजल होगा

रंग खिलेंगे नीले आंगन
उनका उड़ता आंचल होगा

आंख से आंख की बातें होंगी
दिल के बावत जो दिल होगा

उनके ख्वाब भरे बोलों पर
और मेरा मन चंचल होगा

सौ परदों में है वो लेकिन
चर्चा महफिल महफिल होगा

उन की शर्मो हया में राही
मेरा प्यार भी शामिल होगा।

-सोहन राही

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