बाल कहानीः समय, बाल कविताः शैल अग्रवाल

समय

Dawn
बात बहुत पुरानी है। सदियों पुरानी, सृष्टि से भी पुरानी। समय तब एक इकाई था और निरंतर नदी सा बहता था। दिन रात के बीच दो टुकड़ों में नहीं बंटा था और सूरज चंदा पृथ्वी, सागर व तारे, सभी एक ही घर में साथ-साथ प्यार से रहते थे। कोई भी तब बेहद गंभीर नहीं था, सभी हंसमुख और चपल थे। सागर तो कुछ ज्यादा ही चंचल और खुश मिज़ाज था। पृथ्वी तारे चंदा सबसे छेड़छाड़ करता रहता। पृथ्वी प्यार में डूबी खिलखिलाती रहती और तारे गाने लग जाते, पर शर्मीली चंदा बस दूर-दूर से ही निहारती, उनके बीच न आती। और तब एक दिन चंदा के मौन सम्मोहन में फंसे सागर ने आगे बढ़कर चंदा को बांहों में भरा और बाहर खींच लिया, वह भी इतनी कसकर कि नाजुक चंदा का एक टुकड़ा टूट कर उसके पास ही रह गया, जो आज भी उसके मन में हलचल मचाए हुए है, अनगिनित लहरें बनकर उठाता गिराता रहता है इसे। इसी वजह से तो अक्सर थिर नहीं रह पाता सागर। चंदा के गोरे सुंदर मुंह पर भी दाग पड़ गया है। एक बड़ा-सा काला दाग। सभी पूछने लगे थे उससे- अरे यह कैसे हुआ?
सुंदर चंदा ने जब आइने में अपना चेहरा देखा तो वह सबसे छिटककर दूर अपने ही गम के अंधेरे में जा छिपी। गम भी इतना गहरा कि चारो तरफ ही अंधेरा हो गया और तभी से समय दो हिस्सों में बट गया-एक चंदा के हिस्से का नया अंधेरे वाला समय- जिसे अब हम रात कहते हैं और दूसरा सूरज का उजाला भरा हुआ। सूरज ने देखा- कैसे दिन प्रतिदिन कमजोर होती जा रही थी उसकी चंदा। कैसे छुपाए अब इस दाग को, जहाँ मानो खुद सागर ही लहलहाता दिखता उसे चंदा के चेहरे पर। सब ने समझाया वक्त के साथ भर जाएगा दाग, पर दाग नहीं भरा। आज भी तो ज्यों का त्यो ही है वह दाग। सबने देखा रात के अंधेरे में भी इसे। सूरज का दुख कम नहीं था, उसकी गोल मटोल सुंदर-सी चंदा सागर की याद आते ही, पतली सी एक रेखा मात्र रह जाती है घटती-घटती।
तब ‘ तेरे लायक नहीं यह आवारा सागर’ -कहकर सूरज ने सागर को घर से बाहर निकाल दिया। सागर के अपमान से दुखी पृथ्वी भी सागर के साथ ही सूरज का घर छोड़ आई। अब इतना तमतमा रहा था क्रोध में सूरज का सुर्ख चेहरा कि डरे-सहमे नन्हे तारे भी रोते-सुबकते चंदा के पास चले गए। चंदा ने तुरंत ही उन्हें अपने सियाह आंचल में समेट कर इतना प्यार किया कि मारे खुशी के आजतक टिमटिमा रहे हैं वे उसी के इर्दगिर्द।
एक जरा से गुस्से की वजह से सभी उसे छोड़ गए, कोई प्यार नहीं करता उसे-सोच-सोचकर अकेला सूरज अब बहुत उदास रहता है। अकेला जो पड़ गाया । सूना घर काटने को दौड़ता है। बेचैन सूरज अब पूरे आकाश में ढूंढता रहता है चंदा तारों को, पर सब के सब उसे देखते ही जाने कहाँ छुप जाते हैं… सूरज का सुर्ख और थका चेहरा भी उनका मन नहीं पिघला पाता।…
पृथ्वी, उसकी बात दूसरी है , वह तो आज भी सूरज की तरफ ही देखती है और सागर को सीने से लगाए आज भी बस सूरज की ही तो परिक्रमा किए जा रही है , बस एक इसी आस में कि शायद एक दिन सूरज को भी दया आ ही जाए और माफ ही कर दे वह उन्हे! अपने घर वापस बुला ही ले।
वह तो यह भी जानती है कि सागर बुरा नहीं, जैसा कि सूरज ने उसे समझा था। और चंदा भी कब अपने दुख से उबरी।
सागर आज भी तो चंदा को हंसाने की कोशिश करता है, मनाना चाहता है उसे। उछल कूद करती लहरों को देख-देख कम से कम पखवाड़े में एकबार तो चंदा को खिललिलाकर कर हंसते भी देखा है पृथ्वी ने। और तब उसका रूप भी तो फिर ज्यों का त्यों चमकने-दमकने लग जाता है पर अगले पल ही याद आते ही फिर घटने भी तो लग जाती है उसी गम में चंदा।
मानें या न मानें, चंदा और सागर का आकर्षण आज भी वैसा ही है। चंदा चौबासों घंटे उसी के चक्कर लगाती है और सागर की उछाल खाती लहरें भी चंदा के बढ़ते-घटते सुख-दुख के साथ ही उठती-गिरती हैं। ज्वार-भाटा लेती हैं।
जब सभी इतना प्यार करते हैं, ख्याल रखते हैं, तो गलती किसकी थी , सागर की, चंदा की या फिर खुद सूरज की?
शायद समय की ! धरती का मन करता है पूछे, पर पूछ नहीं पाती। …

-शैल अग्रवाल

पूछे नन्ही

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सागर की गीली रेती पर
नन्ही पूछे बनाकर एक घर
ये सीप, घोंघे और मछली
जल महल में क्यों रहते हैं पर
बोलो माँ, क्या क्या और कौन कौन
छुपा हैं इस समुद्र के अंदर
रहता जो इनके संग
लहर लहर ये लहरें जातीं कितनी दूर
तैरकर इनके साथ क्या हम भी
दुनिया का चक्कर लगा पाएंगे
घूम-घूमकर देश-विदेश
वापस घर को फिर आ जाएँगे ?

-शैल अग्रवाल

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