कहानीः झिलमिल, कविता-शैल अग्रवाल

कहानी-झिलमिल

घर के पीछे वाले बगीचे में ही उसका अपना वह छोटा-सा तलाब है, जिसका कमल ने झिलमिल नाम रखा है, क्योंकि धूप में दीदी की सीक्विन ड्रेस से भी ज्यादा झिलमिल करता है तलाब और बारिश में बूंदों के साथ मगन ऐसा नाचता है इसका पानी मानो कोई डिस्को पार्टी चल रही हो वहाँ पर।

फिर अब तो माँ के साथ मिलकर बहुत सारे कमल और कुमुदनी के फूल भी लगा लिए हैं उसने अपने इस तलाब में जो पूरे वक्त, किसी भी मौसम में एक सुंदर तस्बीर से ही खूबसूरत लगते हैं। सुबह-सुबह जब सूरज की सीधी किरन पड़ती है इनपर तब तो इनका रूप देखते ही बनता है। पूरा का पूरा तलाब ही नहीं, बगीचा तक झिलमिला उठता है।

अच्छा लगता है उसे अपनी खिड़की से उन्हें यूँ खुशी खुशी हवा में झूमते देखना। गुलाबों से भी ज्यादा सुंदर लगते हैं उसे ये कमल के फूल …सिर्फ इसीलिए नहीं, कि उसका और फूलों का एक ही नाम है…वाकई में सुंदर हैं ये और भीनी-भीनी ताजी महक भी है इनमें तभी तो वह रोज एक फूल मम्मी की ड्रेसिंग टेबल पर भी गुलदस्ते में सजा आता है और जब मां उसे देखकर मुस्कुराती हैं तो उनकी आंखों में भी तो खुशी का एक आंसू तारे-सा झिलमिल करता दिखता है उसे।

इतना प्यार करता है कमल अपने इस तलाब से कि इसकी साफ-सफाई की सारी जिम्मेदारी भी उसने अपने ऊपर ही ले ली है। पहले तो माँ ने आठ वर्ष के कमल को साफ मना कर दिया था यह कहकर कि अभी बहुत छोटा है वह और इस तरह की जिम्मेदारी नहीं निभा पाएगा। परन्तु जब उसने बहुत विनती की थी , कई बार हाथ जोड़कर प्लीज, प्लीज कहा था, तो माँ ने अनुमति दे ही दी थी । पर साथ में उनकी एक शर्त और सख्त हिदायत भी थी, कि बड़ों की निगरानी में ही वह उस तालाब से पत्ती आदि अपनी जाल-टोकरी में उठाएगा। साफ-सफाई करेगा। गिरने पर डूबने का खतरा तो कम ही था वहाँ क्योंकि तलाब सिर्फ तीन चार फीट ही गहरा था फिर भी माँ किसी दुर्घटना का खतरा नहीं लेना चाहती थीं। वहाँ उन फूलों पर अक्सर सुंदर-सुंदर तितली भंवरे और चिड़िया आदि भी तो आ जाती थीं जो फव्बारे पर बैठकर अक्सर पानी पीती थीं। उन्हें देखने में मगन कमल ध्यान न दे तो पानी में गिर भी तो सकता था। और मां तो मां थीं-ऐसा खतरा कैसे लेतीं?

पर कमल कोई साधारण बालक तो था नहीं, हमेशा ही शांत परन्तु चौकस और सतर्क…जितना की दूसरों का, अपने आसपास का ध्यान रखता, उतना ही अपना भी ध्यान रखता। अतः माँ के इस आग्रह को कमल झट से मान गया। यह कौनसी मुश्किल बात है-अकेले रहना तो उसे वैसे भी अच्छा नहीं लगता ।
जून की खुशनुमा दोपहर थी वह और कमल दीदी के साथ पहुँच गया खेलने अपने प्रिय तलाब के किनारे। पर वहाँ उसे कुछ पत्तियाँ तैरती दिखीं, जिन्हें उसी वक्त निकालना जरूरी लगा उसे। तुरंत ही अपनी जाल टोकरी ले आया वह। अब दीदी और कमल दोनों तैयार थे तलाब की साफ-सफाई के लिए परन्तु देखने से जो बस तीन चार टोकरी ही लग रही थीं, वे पत्तियाँ पन्द्रह बीस टोकरी निकाल देने के बाद भी खतम होने का नाम ही नहीं ले रही थीं । और भी ज्यादा आश्चर्य उसे तब हुआ उसे जब अगली टोकरी में पत्तों के ऊपर एक मेंढक पैर पर पैर रखे आराम फरमाता पत्तियों के साथ ऊपर चला आया। यही नहीं अब तो अपने हाथ पैर हिलाहिलाकर कमल से कुछ कहना भी चाह रहा था वह। परन्तु उसकी आवाज इतनी धीमी और अस्पष्ट थी कि बस टर्र टर्र सी ही सुनाई दी उसे। कमल ने आगे बढ़कर बात ठीक से सुनने के लिए हाथ में उसे उठाकर कान के पास ले जाना चाहा तो झपाक् से हाथ से फिसलकर वापस तलाब में कूद गया वह मेंढक। असल में अभी उसकी इतनी दोस्ती नहीं हुई थी मेंढक के साथ कि वह उसपर पूरा भरोसा कर पाता।

‘जैसी तुम्हारी मर्जी’- कहकर कमल वापस अपने घर जाने को मुड़ा ही था कि कूदकर वही मेढक फिर बाहर आ गया और उसके पैरों के पास फुदक-फुदककर कहने लगा-‘सुनो दोस्त, मेरा नाम फ्रैंकी है और मैं अपने परिवार के साथ तुम्हारे इसी पौंड में बचपन से ही रहता हूँ। पैदा भी यहीं हुआ था। तुम चाहो तो इसे मेरा घर, देश सभी कुछ कह सकते हो। इसकी रक्षा करना मेरा धर्म है। तुम अगर इस तरह से एक-एक पत्ती तलाब से निकालोगे, तो हमारी पूरी व्यवस्था, पर्यावरण ही गड़बड़ा जाएगा । क्या कभी सोचा है तुमने, तब मेरा और मेरे परिवार का क्या होगा? मेरे बच्चे क्या खाएंगे? तुम्हारी गोल्डी बिल्ली से बचने तक के लिए उनके पास जगह नहीं रह जाएगी। सभी को चट कर जाएगी वह तब एक ही मिनट में। सफाई करने के साथ-साथ थोड़ा हमारे बारे में भी तो सोचो।

‘ पर तुम्हारा और उन सूखे, टूटे पत्तों का क्या रिश्ता? बड़े-बड़े कमल के ताजे पत्ते भी तो हैं ही ना, वहाँ पर! ‘

कमल पूर्णतः मोहित और अभिभूत था अपने नए मित्र से। न सिर्फ वह उसकी तरह से पर्यावरण और अपनों के लिए चिंतित था, अपितु उसी की तरह नन्हा फ्रैंकी अपनी बात ठीक से कह और समझा भी सकता था।

‘ अच्छा तो तुम चाहते हो कि हम तुम्हारे सुंदर कमल के फूल पत्तों को सड़ा दें, उनमें कीड़े पैदा कर दें और उनसे ही अपना पेट भरें? नहीं दोस्त, इतने निर्दयी नहीं हम। बहुत मेहनत से तुमने और तुम्हारी माँ ने इन्हें उगाया है। फिर इसकी जरूरत भी नहीं। प्रकृति में कुछ भी व्यर्थ नहीं, हर चीज का एक दूसरे से रिश्ता है और किसी न किसी के काम की है। तुम्हारी ही तरह हमें और मछलियों को भी सुंदर और ताजे फूल-पत्ते प्रिय हैं। हमारा खाने-पीने का काम तो बस ऐसे ही इन थोड़ी गिरी पत्तियों और कीड़े-मकोड़े से ही चल जाता है।‘

‘ मछली…कौन-सी मछली …क्या यहाँ मछलियाँ भी रहती हैं इस तलाब में? ‘

‘ बहुत सारी। तुम कल दोपहर को आना, एक-एक करके सभी से मिलवाउँगा तुम्हें। ‘

परियों में विश्वास करो, तो परियाँ हैं। भगवान में विश्वास करो तो भगवान है। अच्छाई में विश्वास करो तो न सिर्फ अच्छाइयाँ हैं, अपितु अच्छे फल भी देती हैं।
विश्वास तो करना ही होगा कि न सिर्फ उसने और फ्रैंकी ने एक दूसरे से बात ही की थी, एक दूसरे को भलीभांति समझा और जाना भी था। कल ही वह दो बड़े ड्रम मंगवाएगा । जिसमें न सिर्फ वह बगीचे की सारी पत्तियाँ रखेगा, बल्कि माँ के चौके से बचा खाना, सब्जी फलों के छिलके वगैरह सभी कुछ।…फिर तो बहुत सारे कीड़े-मकोड़ों का पेट भर जाया करेगा और उसके बगीचे के पेड़ों को खाद भी मुफ्त ही मिल जाया करेगी।

अब कमल कान तक मुस्कुरा रहा था। उसका वह तलाब सिर्फ तलाब ही नहीं, रहस्यों का खजाना था, जिसके अन्दर उसके न जाने कितने छोटे-बड़े मित्र रह रहे थे।

***

नौनिहाल हम


वेश, खान पान चाहे जो भी हो
अब यही देश हमारा, परिवेश हमारा
नौनिहाल हम इसके, यही तो अब
पहला प्यार हमारा
गौरव दो देशों के हम
रूप गुण सोच और समन्वय में
इन्ही पर रहेगा सारा ध्यान हमारा
आन मिटे ना साख घटे इसकी
आचरण में दिखे सदा प्यार हमारा

सोचो ना बदल गए पर
भूल गए सब जो अपना था
हमसे है जो पीछे छूटा
जड़ें ना बदलीं नई माटी में भी
खुशबू नवेली लिए खिलते अब
राजदूत हम दो संस्कृतियों के
नौनिहाल हम दो माँ गोदी खेले
भारतवंशी जो ध्वज फहराएंगे
विश्व-बन्धुत्व और माँ भारती के।
शैल अग्रवाल

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