एकलव्य
एकलव्य भीलों के सरदार का साहसी और योग्य पुत्र था जो आज भी अपनी लगन और त्याग के लिए याद किया जाता है । एकलव्य अर्जुन की तरह एक कुशल और अपराजेय धनुर्धर बनना चाहता था । जंगलों में शिकार करके जीवन-यापन करना उसे रुचता नहीं था वह भी गुरु द्रोणाचार्य से धनुर्विद्या सीखना चाहता था परन्तु गुरु द्रोणाचार्य सिर्फ क्षत्रियों को ही शिक्षा देते थे और एकलव्य नीच जाति से था फलतः उन्होंने एकलव्य को अपने आश्रम में शिष्य की तरह लेने से अस्वीकार कर दिया परन्तु एकलव्य इससे निराश नहीं हुआ और ना ही उसने अपना प्रण छोड़ा । उसने वहीं पास में ही जंगल में द्रोणाचार्य की प्रतिमा बनाई और उसके पैर छूकर अपनी शस्त्र विद्या खुद ही आरंभ कर दी। धीरे-धीरे वह अपनी साधना के बल पर निपुण से निपुण तम होता चला गया। एक दिन जब अर्जुन अपने मित्रों के साथ आखेट पर गए हुए थे उनका कुत्ता भटककर एकलव्य के पास पहुंच गया और भोंक-भोंककर उसके अभ्यास में विघ्न डालने लगा। कुत्ते को चुप कराने के लिए एकलव्य ने अपने बाणों से उसका मुँह भर दिया वह भी ऐसे कि उसके मुँह से एक बूंद भी खून नहीं बहा। अर्जुन और उसके साथी अचंभित थे । द्रोणाचार्य भी एकलव्य की निपुणता पर स्तब्ध थे। तुरंत ही सबने गरीब भील बालक एकलव्य को ढूँढ निकाला। एकलव्य ने गुरु का भरपूर आदर सत्कार किया और अपने को धन्य माना कि वे स्वयं चलकर उस तक आए। परन्तु द्रोणाचार्य नहीं चाहते थे वकि उनके प्रिय शिष्य अर्जुन से बड़ा धनुर्धर कोई हो अतः उन्होंने एकलव्य से गुरु दक्षिणा में उसके दाहिने हाथ का अंगूठा मांग लिया ताकि वह भविष्य में कोई भी लक्ष न साध सके। एकलव्य ने भी तुरंत ही अपने दाहिने हाथ का अंगूठा काटकर गुरु के चरणों में गुरु दक्षिणा की तरह समर्पित कर दिया और अपने इस त्याग की वजह से अमर हो गया।
बच्चों सोचने पर आज हम इसे शायद एकलव्य की बेवकूफी भी कह सकते हैं क्योंकि द्रोणाचार्य ने तो उसे कभी कुछ सिखाया ही नहीं था फिर उनकी गुरु दक्षिणा कैसी? पर सीधे-सच्चे एकलव्य की नजर में यह गुरु का अपमान होता। मन-ही-मन द्रोण को ही गुरु मानकर उसने उनकी प्रतिमा के आगे सबकुछ सीखा था, उनसे प्रेरणा ली थी। और वह उन्हें ही मनसा, वाचा, कर्मणा से वह अपना गुरु मानता था, इसीलिए गुरु दक्षिणा देने की जिम्मेदारी भी उसने उतनी ही ईमानदारी से निभाई जितनी लगन और मेहनत से धनुर्विद्या सीखी थी। अब आप पूछोगे, फिर इस लगन और मेहनत का फायदा क्या हुआ, तो बच्चों, सिद्धांतों पर जीने वाले ही लगन और मेहनत कर सकते हैं, लक्ष्य साध पाते हैं। जो समर्पित लोग होते हैं नफे और नुकसान की परवाह नहीं करते। गीता के उपदेश की तरह कर्म करते रहना ही जीवन है, बिना फल की कामना के।
उठो
सूरज चंदा से नित नित उगो
अंधियारा तोड़ो
झरनों की तरह पत्थरों से फूटो
राह खुद अपनी तुम मोड़ो
नदी है जीवन, सागर जिसका अंत
अंत एक अकेला नहीं है ये पर
फूल खिलाओ जिधर से गुजरो
सींचो प्यासी धरती को
महक अपनी तुम छो़ड़ो।
शैल अग्रवाल