राधा-कृष्ण के निश्छल शाश्वत प्रेम की अनगिनित लीलाओं की साक्षी रही है बृजभूमि। बरसाने की वह बृषभान लली और नन्दगांवके छलिया मनमोहन आज भी इस क्षेत्र के कण-कण में बसते ही नहीं, गूंजते हैं। उनके प्रेम की महक से आज भी गमकता है यह वन, कभी माथे पर लगा चंदन बना, तो कभी होठों पर भजन बनकर। जन्मभूमि और कर्मभूमि है यह कृष्ण की जो 64 कलाओं से परिपूर्ण थे। योगेश्वर कृष्ण थे। एक ग्वाले के रूप में बचपन बिताया पर अप्रतिम योद्धा और द्वारिकाधीश बने, गीता के रूप में जीने का बेहद व्यवहारिक सार्थक दर्शन व संदेश दिया। आजभी आते ही रहते हैं श्रद्धालु यहाँपर और खो जाते हैं इनकी कथाओं और लीलाओं में। भक्तों का जन सैलाब उमड़ा ही रहता है बारहों महीने, कभी चौरासी कोस की परिक्रमा देता तो कभी चौरासी खंबों के भ्रम में उलझा।
राग-रस भरा वह कालिंदी तट.. जहाँ कभी कंदुक लीला और कालिया मर्दन किया था इन्होंने, या फिर कदंब के पेड़ पर गोपियों का वह चीर हरण…किसका मन नहीं करता कि एकबार जाकर देखे नंदगांव और गोकुल, माखनचोर गोपाल का नटखट बचपन… क्रीडास्थली बरसाना और बृंदावन। बांसुरी से गूंजता बंसी बट, अनगिनित रास लीलाएँ…जितनी गोपियाँ उतने ही कृष्ण। और फिर कर्तव्य की पुकार आते ही बांसुरी छोड़, चक्र धारण करके कृष्ण का वह मथुरा की ओर प्रस्थान। यहाँ का वह मधुर . गौरवमय इतिहास, सूरदास, मीराबाई व रसखान जिसे गाते न अघाते थे…जिस भूमि के कागा तक को अहोभाग्य माना उन्होंने क्योंकि वह हरि हाथों से माखन रोटी ले गया। भरी पड़ी हैं ऐसी अनगिनित रचनाएँ दोहे और पदावलियाँ। भावविह्वल रसखान तो यहाँ तक लिख गए –
मानुस हौं तो वही रसखान, बसौं मिलि गोकुल गाँव के ग्वारन।
जो पसु हौं तो कहा बस मेरो, चरौं नित नंद की धेनु मँझारन॥
पाहन हौं तो वही गिरि को, जो धर्यो कर छत्र पुरंदर कारन।
जो खग हौं तो बसेरो करौं मिलि कालिंदी कूल कदम्ब की डारन॥
बदल कर भी तो कुछ नहीं बदला। इनकी कथाओं ने, पदों ने बचपन से ही आकर्षित किया और मेरी भी चाह थी यहाँ घूमने की, बांके बिहारी से मिलने की। सब ने कहा, तीन दिन बहुत हैं बृंदावन के लिए, पर मन नहीं माना और पूरे हफ्ते का कार्यक्रम बना ही लिया । अंततः इसबार भारत भ्रमण के दौरान, दिसंबर 2015 की एक गुनगुनी सुबह, हम टैक्सी में बैठकर दिल्ली से मथुरा हाइवे की तरफ मुड़ गए ।
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कुछ निजी वजहें और भी थीं इस अदम्य आकर्षण की। पूर्वजों और ननिहाल की अनगिनित स्नेहपगी स्मृतियाँ बिखरी पड़ी थीं इस रज में। हाइवे पर गाड़ी दौड़ रही थी और उससे भी तेज मन, खुशियों की पेंगें लेता , स्मृतियों में डूब-उतरा रहा था…मन के छुपे कोनों से मुस्कुराते कुछ चेहरे स्वतः ही उभरने लगे… माँ, बाबूजी, मामा-मामी…। मन जानता था कि इस यात्रा के दौरान हम अड़ींग से भी गुजरेंगे… वहीं रहते थे वे। माँ का मायका था अड़ींग। हर वर्ष ही जाया करती थीं माँ और हम महीने के अंत में बाबूजी के साथ उन्हें लेने। तब सुबह-सुबह अपने ही कमरे में माँ से बाहर से ताला लगवाकर खुद को बन्द करवा लेते थे मामा-मामी, फिर माँ कहतीं, यदि यह बताशे मिला दूध झट से नहीं पिया तो मामा-मामी आकर पी जाएँगे। वो दोनों, वहीं बन्द कमरे की खिडकी पर खड़े-खड़े हमें हंसते हुए मां के हाथों से दूध पीते देखते रहते और हम दूध का गिलास खतम होते ही किलककर वापस उन्ही की गोद में जा बैठते… उनके लाड़ दुलार में डूबे-भीगे।… रोज का ही खेल था यह।
आज झोली में पड़ी बस ये चन्द यादें ही पर्याप्त हैं आजीवन गमकने के लिए। …गांव किनारे, बांध पर सुबह-सुबह नहाने जाना, फिर गीली मिट्टी से घंटों तरह तरह के खिलौने बनाते रह जाना। बंजारिनों को अपनी रंगबिरंगी पोशाकों में सिर पर कलसी पर कलसी रखे पानी लेने जाते विस्मित आँखों से देखना… सूरज की निकलती और डूबती रोशनी में उनके रंग-बिरंगे गोटे लगे लहगों का लहरों सा झिलमिलाना, शादी ब्याहों पर उनका वह घर के दरवाजे आकर सामूहिक घूमर नृत्य -कुछ भी तो नहीं भूल पाया है बावरा मन।
इन यादों में बेसवाँ गांव का भी विशेष महत्व है। कहते हैं विश्वामित्र ने बसाया था इसे और हमारे पूर्वज यहीं से थे। अड़ींग आने से पहले बाबूजी वर्ष में एकबार, तीर्थयात्रा-सी श्रद्धा के साथ पीछे छूटे उस बेसवाँ के पूर्वजों के मकान को अवश्य ही खोलते थे। पूरा बचपन बीता था उनका वहाँ पर। आंगन में नीम के नीचे बने चबूतरे पर 10-पंद्रह मिनट बैठना और फिर बताना कि यहीं बैठकर पूरी पढ़ाई किया करता था मैं, एक रात तो चोर भी उतर आया था इसी डाल के सहारे, पर डरा नहीं था। फिर आंखों में सबकुछ समेटे-समेटे वापस ताला लगाकर लौट आना। वह धरनीधर तालाब… चन्द मकानों की बस्ती का छोटा-सा गांव, सबकुछ आज भी तो ज्यों-का त्यों ही चित्रांकित है स्मृति पटल पर। खो जाया करती थी मैं भी उनकी यादों में। अभी तक बस इतना सा और यही परिचय था बृज से। बचपन में कई बार गई थी, परन्तु नानी के गांव अड़ींग और पितामह के गांव बेसवाँ जाकर ही यह यात्रा समाप्त हो जाती थी । और किसी चीज के लिए कभी वक्त ही नहीं रहा। हाँ, दाऊजी जाने का अवश्य मौका मिला था एकबार, जो कि चाची के मायके वैरनी गांव के पास है और एक बार गिरिराज जी भी। सारे पूर्वज और उस पीढ़ी के सभी परिवार के सदस्य इसी भूमि से थे। माँ, दादी और पिताजी के मुंह से कई रोचक कहानियाँ सुन रखी थीं, विशेषकर गोकुल, बृंदावन और बरसाने के बारे में और मन कल्पना के पंख लगाकर अक्सर ही उन गलियों में घूम आता था। बहुत कुछ था इस बृजभूमि में, जिसे ढूंढने और पाने को यायावरी मन उत्सुक और बेचैन रहता था… जाना पहचाना ही नहीं, अनदेखे अनजाने या सुने सुनाए को भी ढूंढने निकल पड़े थे इसबार हम ।
वाकई में यह यात्रा, आम नहीं , खुद की और पूरे इतिहास की, धार्मिक परंपराओं, लोकगीत और उन कथाओं की कौतुकमय तलाश थी… जिन्हे मां और दादा-दादी आदि के मुंह से बारबार सुना और जिया था बचपन में। रास्तेभर मन य़थार्थ और कल्पना के ताने-बानों पर कई-कई मोहक स्वप्न रच रहा था ।…
मथुरा के बाद से जगह-जगह माइक पर भजन आदि का शोर और कोने-कोने मशरूम सी उगती नई-नई इमारतें, जिनपर लगे बोर्ड जो जमीन या फ्लैट खरीदते ही बृजवासी बना देने का दावा कर रहे थे, दिखाई और सुनाई देने लगे। इन्हें देखकर होठों पर मुस्कान आ गई, परन्तु आँखें दुखी थीं। आसपास की सारी हरियाली करीब-करीब पूरी कि पूरी निगल चुके थे ये। कितना बदल चुका था कृष्ण के समय से ही नहीं. बचपन से भी यह बृज , बृज ही क्या पूरा भारत, यहाँ तक कि हम खुद भी तो… सब कुछ ही तो व्यापार और विज्ञापन ही था-फिर यह खोज , यह अपेक्षा क्या बेमानी नहीं ? देहली मथुरा हाइवे पर दौड़ती कार और सड़क, दोनों ही आरामदेह और भारत के हिसाब से अति आधुनिक थे। बृंदावन का वह पांचतारा होटल भी, जो अगले पांच दिन के लिए हमारा घर था, राजाओं के महलों जैसा था- हर तरह की सुख सुविधाओं से भरपूर। …अब ऐसे में उस गाय चराते, बांसुरी बजाते, रास रचाते कृष्ण और उसके समय को कैसे और कहाँ ढूँढ व महसूस कर पाउंगी- नहीं जानती थी। अतीत को पुनः पूरी प्रामणिकता के साथ जीवित कर पाना कल्पना में भी , इतना सहज और आसान तो नहीं, विशेषकर तब जब सारी बातें मात्र पढ़ी और सुनी-सुनाई ही हों। अंदर ही अंदर आस्था और बुद्धि का द्वंद लगातार चलता रहा। जिज्ञासु मन ने परन्तु अभी हार नहीं मानी थी और मन में उछाह लेती उमंग को अद्भुत चैन मिला, जब कमरे में प्रवेश करते ही, परदे खोलते ही खिड़की पर बैठे 10-12 मोहक तोतों के झुंड ने स्वागत किया । कंक्रीट के उस जंगल में भी, प्रकृति अपनी पूरी छटा के साथ उपस्थित थी। सामने फैली अनंत तक जाती-सी वह लम्बी सड़क और अगल-बगल के खेतों पर शाम के हलके धुंधलके के साथ रहस्यमय धुंध की बिछी सुरमई चादर, परन्तु खुले आसमान में डूबते सूरज ने गजब के सुनहरे और सिंदूरी रंग बिखर दिए थे, जो बीच-बीच में गहरी सलेटी लकीरें पड़ जाने के कारण और भी आकर्षक लग रहे थे । आँखें कभी डूबते सूरज की लाली निहारतीं तो कभी उस नीले-काले और सिंदूरी-सुनहरे आकाश में खो जातीं। दृश्य अज्ञात का रहस्यमय आश्वासन और संदेश देता-सा ही लगा मुझे । मानो रेशा-रेशा कह रहा हों ‘ मैं हूँ और सदा रहूंगा। बदलूंगा नहीं। सदियों से यही हूँ और यहीं रहूँगा।‘
प्राचीन और अर्वाचीन के इस विरोधाभास के बीच बहुत कुछ बिखरा पड़ा है, जो अपरिवर्तनीय ‘उस’ का आभास दे ही देता है। समझा ही देता है कि बस मन की आंखें चाहिएँ ‘उसे’ जानने, ढूंढने और समझने के लिए ।
थकान और संशय खुद ब खुद उड़ गए और मन पूरी तरह से प्रकृति से जुड़ चुका था। आश्वास्त था कि अगले पांच दिन विशेष और यादों की धरोहर होंगे।
होटल के गाइड डेस्क से सुबह सर्व प्रथम निधिवन जाने की सलाह मिली । उनका मानना था कि इसे दिन में ही देख लेना ठीक है। अंधेरे में कोई नहीं देख पाया इसे। शाम होते ही बन्द हो जाता है मंदिर। जिसने भी रात में वहाँ रहने की कोशिश की, सुबह उसका शव ही मिला है या फिर वह अंधा, बहरा और गूंगा हो जाता है, कुछ भी कहने और बताने में असमर्थ । विश्वास तो नहीं हुआ पर शायद ऐसा क्या था निधि वन में, जानने की जिज्ञासा और रोमांच ही था कि सुबह 10 बजे निकलकर भी शाम के छह बज तक ही निधिवन पहुँच पाए।
पहले पास का चीरघाट, कालिया-मर्दन और यमुना की आरती देखी फिर लंच लेने के बाद और आसपास के एकआध मंदिर व आश्रम देखने के बाद ही वहाँ पहुंचे। कोना-कोना घूमने की ललक में समय का अनुमान ही नहीं रहा था। अब मन में धुकधुक थी। घंटेभर में ही मंदिर बंद होने वाला था और आरती का भी वक्त हो चला था। अतः गाइड और पतिदेव दोनों ने ही जल्दी-जल्दी देखने का आग्रह किया। पहली नजर में तो सब साधारण और अन्य मंदिरों जैसा ही लगा । वही गली के मोड़ से लेकर मुख्यद्वार तक मूर्तियों और खेल-खिलौने व प्रसाद सामग्री से सजी छोटी-छोटी दुकानें और पंक्तिबद्ध बैठीं भीख मांगती सिरमुड़ी वृद्धाएँ, जो मन में करुणा और अवसाद-सा जगा रही थीं । परन्तु सबको ही अनदेखा करते तेज कदमों से हम शीघ्र ही निधि वन जा पहुंचे।
कक्ष और मंदिर तो विशेष नहीं थे परन्तु वन के हिस्से में घूमते हुए वनतुलसी के आपस में गुथ्थम गुत्थ रूप ने एक सिहरन-सी अवश्य पैदा की। वृक्षों का आकार और रूप लुभावना था पर उनपर बिखरा सिंदूर और भी रहस्यमय बना रहा था उन्हें । पूछते ही कि बड़े सुंदर हैं यह पेड़ –कौनसे हैं? गाइड ने जबाव दिया-राधे-राधे, बृक्ष नहीं, गोपिकाएं हैं ये , दिन में तो जंगली तुलसी, रात में सजी-धजी कृष्ण के साथ रास रचाती गोपिकाएं। यही तो खासियत है इस मंदिर की। आज भी रात में बांसुरी की तान और घुंघरुओं की छनछन सुनी जा सकती है यहाँ पर। –शाम होते-होते पक्षी, बंदर आदि, सभी खाली कर देते हैं वन को। यह घुंघुरुओं और बांसुरी की आवाज सुनी तो कइयों ने है,पर देख कोई कुछ नहीं पाया है। निधि वन में तुलसी का हर पेड़ जोड़े में है। इसके पीछे यह मान्यता है कि जब राधा संग कृष्ण वन में रास रचाते हैं तब यही जोड़ेदार पेड़ गोपियां बन जाती हैं। जैसे ही सुबह होती है तो सब फिर तुलसी के पेड़ में बदल जाती हैं। साथ ही एक अन्य मान्यता यह भी है की इस वन में लगे जोड़े की वन तुलसी की कोई भी एक डंडी नहीं ले जा सकता है। लोग बताते हैं जो भी ले गए वो किसी न किसी आपदा का शिकार हो गए। इसलिए कोई भी इन्हें नहीं छूता। वन के आसपास बने मकानों में खिड़कियां नहीं हैं। यहां के निवासी बताते हैं कि शाम सात बजे के बाद कोई इस वन की तरफ नहीं देखता। जिन लोगों ने देखने का प्रयास किया या तो अंधे हो गए या फिर उनके ऊपर दैवी आपदा आ गई। जिन मकानों में खिड़कियां हैं भी, उनके घर के लोग शाम सात बजे मंदिर की आरती के वक्त अपनी खिड़कियाँ बन्द कर लेते हैं। कइयों ने तो ईंटों से अपनी खिड़कियाँ बन्द करवा ली हैं। ’
पुनः पूछने से न रोक पाई खुद को- ‘सबूत क्या है फिर इन बातों का ?’
‘सबूत।’ , इस बार वह रहस्यमय ढंग से हंसा – ‘रंगमहल में सुबह बिस्तर पर सलवटें मिलती हैं , दातुन गीली मिलती है। और भोग की तश्तरी खाली।‘
तो क्या भुतही जगह है, चाहकर भी न पूछा। ऐसा सोचना भी आस्था और धार्मिक भावों को ठेस लगाना था। किवदंती हो या अफवाह या सच्चाई, बिना गहरी जांच-पड़ताल के जान पाना संभव नहीं। आस्था और अंधविश्वास के इन छोटे-छोटे फूलों को महकते रहने के लिए रहस्यों का बने रहना भी तो जरूरी है । तुरंत ही वह मेरे मनोभावों को पढ़ गया और रहस्य को और भी गहराते हुए बोला –‘ बांकेबिहारी की लीला है सब। बहुत चमत्कारी और स्वयंभू मूर्ति है। यहीं इसी जगह तो प्रकट हुए थे बांकेबिहारी। तानसेन के गुरु हरिदास को सपना दिया था कि कुँए से निकालो हमें और मंदिर बनबाओ। तब उनके वंशजों ने ही यह बांकेबिहारी का भव्य मंदिर बनवाया था। हरिदास की भी समाधि है यहाँ पर, इसी आहते में और साथ में अन्य कई साधुओं की भी जिन्होंने प्रभु दर्शन की जिद में और रात यहाँ बिताई, अपने प्राण तजे।‘
कुछ सोचता-सा वह दोनों हाथ ऊपर उठाकर फिर जोर से बोला –‘ प्रेम से बोलो- राधारानी की जय।‘ हमने भी राधारानी की जय बोली और बंसी चोर राधारानी की छवि मन में लिए, तुरंत ही मंदिर से बाहर निकल आए। मन में एक सवाल यूँ ही उमड़ता-घुमड़ता रहा, यदि वाकई में प्रभु के दर्शन और बैकुंठ जाना इतना आसान है, तो फिर मुश्किल कहाँ थी !…
अगले दिन हम बृंदावन की कुंज गलियाँ, इस्कान मंदिर, बांके बिहारी मंदिर व प्रेम मंदिर घूमने निकले।
वही उत्सुकता और उमंग थी मन में भी और कदमों में। जगह-जगह परिक्रमा देते लोगों के झुंड दिखे। आँखें मिलते ही एकाध ने हाथी घोड़ा पालकी, जय कन्हैया लाल की भी कहा, वरना बृज में चारोतरफ राधे-राधे की ही गूंज रहती है। भीड़भाड़ इतनी कि पैदल चल पाना मुश्किल उन सकरी गलियों से। सामने से एक बारात आती भी मिल गई और औटो वाले ने गाड़ी रोककर हमें एक किनारे खड़ा कर दिया । पता चला, तुलसी और केशव की बारात है। याद आया, तुलसी का एक नाम बृंदा भी तो है तभी तो यह बृंदावन।…
बारात रुकी तो मठ के दरवाजे पर द्वाराचार होने लगा और रही-सही गली भी पूरी बंद हो गई। जाने कितना वक्त लगे इसे… निश्चय किया गया कि आगे बांकेबिहारी के मंदिर तक का मार्ग पैदल ही तय करते हैं। औटोवाला यहीं पर खड़ा हमारा इंतजार करे।
…
बृंदावन विधवाओं के आश्रम के लिए भी मशहूर है। यहाँ पर पुरुष और बच्चों के अनुपात में इन विधवाओं की संख्या कहीं अधिक है और हर जगह मंदिरों के साथ-साथ ये भी दिखाई दे जाती हैं। मन खिन्न हुआ जा रहा था अपने समाज की एक और कमजोरी, बुजुर्गों के प्रति इस उदासीनता को देखकर और पूरा बृंदावन, जो कि आनंदवन का प्रतीक है, उदास करुणा से भरा प्रतीत होने लगा था- ‘ क्या इनका अपना कोई नहीं है’। मन से बारबार यही आवाज उठती और फिर तुरंत ही इस संसार की, रिश्तों की निरर्थकता, स्वार्थ लोलुपता भी समझ में आने लग जाती। निरर्थक और कूड़े का ढेर ही तो हैं लाचार बुजुर्ग। अब इनकी किसे जरूरत है…सजा संवारकर संभालने का, पूजने का वक्त कहाँ है युवाओं की व्यस्त दिनचर्या में…
कभी-कभी पूरा अजूबा लगते हैं ये धर्म स्थान। ये स्मृतियाँ ही तो निर्धारित करती हैं हमारी पसंद-नापसंद। भीड़भाड़ और मौज मस्ती देखकर कई बार लगा कहीं यह बृंदावन इन विदेशियों के लिए सस्ते पर्यटन स्थल में परिवर्तित तो नहीं होता जा रहा…भारत का बेनीड्रोम, या फिर दूसरा गोवा, जहाँ सस्ता खाना, नाचगाना और आध्यात्म, सभी तरह के मनोरंजन की भेलपुरी उपलब्ध है … पूर्व का आध्यात्म और पश्चिम का उन्मुक्त आनंद, सभी कुछ? पर कई यूरोपियन वहाँ थे जो बड़ी श्रद्धा से वैदिक संस्कृति को जी रहे थे। उसमें रच-रम गए थे। साथ-साथ मांगते-समझाते जो युवक बांके बिहारी के मंदिर के द्वार तक चला आया था, वह खुद को हिन्दू धर्म का विद्यार्थी बता रहा था और किताबें खरीदने के लिए पैसे चाह्ए थे उसे। एक को देते ही कई आ गए फिर तो वहाँ, गोरे-काले, छोटे-बड़े सभी तरह के, अलग-अलग वजहें लेकर। एक को तो बेटी की शादी करनी थी, इसलिए कम-से-कम 25 हजार रुपए चाहिए थे। भारत के अंदर यह भीख मांगने का नया व रोचक अंदाज दिखा। पहले अधिकतर को खाने और पेट भरने के लिए ही पैसे चाहिए होते थे। क्या वाकई में अब पर्यटक या श्रद्धालु इतने पैसे देकर जाने लगे हैं ! विश्वास नहीं हो रहा था।…
…
बांकेबिहारी के मंदिर के अंदर बेतहाशा भीड़ थी। पुलिस अपने बेटन के साथ भीड़ का संचालन कर रही थी और दर्शन की सुविधा जेब के भारीपन के अनुसार ही थी। धक्कम-धक्का और भीड़ की रेलमपेल चारो तरफ। हमारी दुविधा को समझते हुए पुलिस वालों ने ही आगे बढ़कर रास्ता बनाया और मिनटों में भीड़ को पार करते हुए हमें बांके बिहारी के आगे ले जाकर खड़ा कर दिया।
काले पत्थर की वह मूर्ति आँख मिलते ही मानो सजीव हो उठी थी। कहीं कुछ सम्मोहन अवश्य ही था उस मूर्ति में। आँख भरकर देख तक पाएँ, इसके पहले ही पुजारी ने परदा खींच दिया और प्रसाद लेते तुरंत ही हम बाहर निकल आए। श्रद्धालुओं की भीड़ अंदर-बाहर, चारोतरफ बेहद लम्बी और बेचैन कर रही थी।
गली से निकलते ही बृजवासी की मशहूर दुकान दिख गई और औटोवाले की खास फरमाइश पर हमने वहाँ की मशहूर खुरचन व पेड़े लिए।
अगला पड़ाव बृंदावन का खूबसूरत इस्कान मंदिर था। यहाँ का दृश्य बांके बिहारी के मंदिर से भिन्न था। खुली चौड़ी सड़क पर मंदिर स्थित था इसलिए भीड़भाड़ के बावजूद घुटन नहीं थी यहाँ । घुसते ही खाने-पीने की दुकान, गिफ्ट स्टोर और रेस्टोरेंट दिखे और मंदिर के अंदर लोग आनंदमग्न झूमते, नाचते नजर आए। मंदिर में साफ-सफाई का भी विशेष ध्यान रखा जा रहा था और धार्मिक पुस्तक की दुकान में भी बृहत व रोचक संग्रह था। मूर्तियों का फूलों से श्रृंगार भी बेहद रुचिपूर्ण और कलात्मक। बेचैनी व रहस्यात्मकता की जगह यहाँ की भीड़ शांत और नियंत्रित थी। हवा के साथ आती गुलाब के फूलों और धूपबत्ती की मिलीजुली महक को न सिर्फ हम महसूस कर पाए, अपितु उसकी शीतल सुगंध का भरपूर आनंद भी लिया। यहाँ की एक और चीज मन को भाई, हर पांच मिनट पर पुजारीजी खुद ही उठकर भगवान के सिंहासन की झाड़ू और साफ सफाई कर रहे थे।
शाम होने को आ रही थी और चार बजे से बगल का प्रेम मंदिर भी खुलने वाला था। हमें बताया गया था कि इसकी बिजली की रंगीन सजावट ही यहाँ का प्रमुख आकर्षण है। भीड़ बहुत होती है और प्रतीक्षा करते श्रद्धालुओं की कतार बेहद लम्बी, अतः जल्दी ही पहुंचना। आरती के वक्त दुबारा लौट आएगे, सोचकर हम प्रेममंदिर की ओर चल पड़े।
प्रेम मंदिर का जैसा वर्णन था, वैसा ही था और आधुनिक बृंदावन का एक खास व प्रमुख पर्यटन-स्थल जैसा। बिद्युत संचालित कृष्णलीला पर आधारित मूर्तियाँ और रंगीन बत्तियों व ट्यूबलाइट की सजावट ने मेले जैसा वातावरण पैदा कर रखा था यहाँ पर। प्रसाद के अलावा आइस्क्रीम और गुब्बारे बिक रहे थे और रंगबिरंगी रोशनी से झिलमिल करती बगल की झील में नौका-बिहार की भी सुविधा थी। फलतः दौड़ते भागते बच्चे भी दिखे यहाँ पर।
सफेद संगमर्मर से बना यह मंदिर भव्य और आधुनिक सजावट से भरपूर तो था ही. अंदर की मूर्तियाँ भी बेहद आकर्षक थीं। इतनी खूबसूरत राधारानी अभी तक कहीं और नही देखी थीं, पर तस्बीरें खींचना पूर्णतः निषिद्ध था। सात बजने को हुए तो एकबार फिर हम इस्कॉन मंदिर में वापस आ गए जहाँ पर आरती शुरु हो चुकी थी और वातावरण अभिभूत करने वाला था। रोमांचित और नतमस्तक हमने भी कुछ पल उस श्रद्धा और आनंद के संगम में डुबकी लगाई, कुछ तस्बीरें खींची और आज रात का खाना इनके यहाँ ही, निश्चय करते, वहीं रेस्टोरेंट में जा बैठे। डोसे के बाद बृज का गाढ़ा कुल्हण का दूध याद आया, तो वह भी पी लिया। फिर अंदर से जो बेचैनी हुई वह बिल्कुल ही जानलेवा थी। प्रण किया कि अब और बहकना नहीं। और दूध तो दोबारा बाहर कभी हरगिज ही नहीं, क्योंकि चीनी अब भी मुठ्ठी भरकर ही डाली जाती है यहाँ पर। …
अगला दिन कोसीघाट और यमुना किनारे बिताया। कहने को तो कंस के छोटे भाई कोसी का वध हुआ था यहाँ पर परन्तु जगह बेहद रोमांटिक और दर्शनीय थी। लाल पत्थर से बना यमुना का घाट आज भी बेहद आकर्षक और अपनी संपूर्ण प्राचीन गरिमा को लिए हुए है। लम्बे भूलभुलैया से बने कौरीडोर में विदेशी पर्यटक और धूनी लगाए, या चरस पीते साधु, सभी मिल जाते हैं। बाहर यमुना के किनारे उन बुर्जों पर बैठना मन को अद्भुत शांति से भर रहा था। इस जगह को छोड़कर कहीं भी उस असीम विस्तार की अनुभूति नहीं हुई थी, जो राधा-कृष्ण की रासलीला और बंसीबट की कल्पना मात्र से मन में उमड़ती है। पास के बंसी बट और चीरघाट तो बस प्रतीक चिन्ह जैसे ही लगे और कालिया मर्दन की जगह तो इतनी छोटी थी कि पूर्णतः गरिमाहीन।
इस खिन्नता की एक वजह शारीरिक और मानसिक थकान व ऊब भी हो सकती है जो धीरे-धीरे तन मन पर फैलने लगी थी। वैसे भी बृंदावन में मंदिरों की फेहरिश्त ढाई हजार से अधिक है। सबको घूम पाना संभव नहीं। हाँ राधावल्लभ मंदिर न जा पाने का दुख रहेगा। कहते हैं कृष्ण के पदचिन्ह हैं इस मंदिर में।
अगले दिन गोवर्धन, मथुरा, बरसाना, नंदगांव और गोकुल घूमना था अतः दिन को विराम देते हुए, होटल जाने से पहले पुनः इस्कान की आरती देखने जा पहुंचे, जो कि हमारे रास्ते में ही पड़ता था।
गाइड के हिसाब से एक दिन में ये सब जगहें घूम लेना संभव था, परन्तु इसके लिए सुबह सात बजे ही चलना होगा हमें। उसकी यह बात मान लेना शायद हमारी इस यात्रा की सबसे बड़ी भूल थी।
अगली सुबह गाइड व ड्राइवर के साथ ठीक सात बजे हम दोनों कार में थे।
पहला पड़ाव गोवर्धन पर्वत पड़ा , जिसे कृष्ण ने तर्जनी पर उठाकर इंद्र के कोप से बृज वासियों और पशु पक्षियों की रक्षा की थी। इस मंदिर में दूध चढ़ाने की प्रथा है, इसके पहले कि आपत्ति कर पाऊँ और कहूँ कि दूध बाहर खड़े किसी गरीब बच्चे को पिला देंगे, पतिदेव और पंडा मंदिर के अंदर थे। बाहर आए तो मन बना कि हम कार से ही गोवर्धन पर्वत की परिक्रमा करेंगे। बचपन में मां से सुना था कि हर वर्ष वह यह परिक्रमा देती थीं। एकबार तो उन्होंने लेट कर भी दी थी, हमें मौका मिला है तो कार से ही सही, इसी बहाने कुछ और दर्शनीय स्थल देखने को मिलेंगे। पूरे बृज की परिक्रमा 84 कोस की है और यह गिर्राज जी की परिक्रमा ७ कोस की यानी लगभग २१ किलोमीटर की। मार्ग में पड़ने वाले प्रमुख स्थल आन्यौर, राधाकुंड, कुसुमसरोवर, मानसी गंगा, गोविंद कुंड, पूंछरी का लोटा, दानघाटी इत्यादि हैं। परिक्रमा में राजस्थान का वह डीग गांव भी शामिल है, जो मां का ननसाल था । अब अपनी इस ललक का असली रहस्य समझ में आने लगा, पर मुझे तो किसी का नाम पता कुछ भी नहीं पता था। बस इतना पता था कि डीग गांव का एक प्रमुख पढ़ालिखा परिवार था वह। जिसने राजस्थान को एक चीफ मिनिस्टर और कई जज व वकील दिये। पर, ये अतीत के वे पन्ने थे जिनपर वक्त की बहुत धूल चढ़ चुकी थी। डीग गांव का जो हिस्सा देखा, वह अन्य राजस्थान के गांवों जैसा ही लगा। नीले दरवाजों के साथ साफ-सुथरे, लिपे-पुते घर और सफेद चूना पुती दीवारों पर भित्ति चित्रकारी । वह किला, जो राजा सूरजमल ने बनवाया था और बेहद खूबसूरत था, जिसके बारे में माँ बताती थी, उसे देखने या उसके बारे में पूछने की तो हिम्मत ही नहीं हुई। हम परिक्रमा पर थे, पर्यटन पर नहीं।
रास्ते में पड़ा कुसुम महल बेहद खूबसूरत था। कहते हैं राधा की प्रिय सहेली के लिए इसे कृष्ण ने खुद अपने हाथों से बनाया था।
परिक्रमा पूरी करते ही हम अड़ींग पहुंच गए, यानी कि मेरी अपनी ननसाल।
ड्राइवर से सड़क पर एकतरफ गाड़ी रुकवाकर सामने की दुकान में दौड़ती-सी जा पहुंची और पूछने लगी-‘ क्या आप श्यामसुंदर नंबरदार की दुकान या घर का पता बता सकते हैं?‘ किससे मिलने चाहती हैं आप?’ डेस्क के पीछे से ही आवाज आई। ‘ उनके बेटे ओम प्रकाश जी, या केदारनाथ जी से, जो भी हों…’ अचानक वह अपनी जगह से उठ खड़े हुए, ‘ कौन शैला, तुम ? मैं मुरली।‘
एक लम्बे अरसे के बावजूद भी उन्होंने मुझे पहचान लिया था।
‘ अरे, मुरली भैया…’ मुंह से बस इतना ही निकला उस वक्त। मैं हर्षातिरेक से छलकी आँखों से उन्हें देखे जा रही थी और वह मुझे। मामा के जुड़वा बच्चे थे मुरली और लीला, मुझसे छह महीने छोटे। वहाँ उस सड़क पर आसपास की सभी घर दुकानें मामा और उनके परिवार की ही निकलीं, जो अब काफी बढ़ चुका था और मैं बावली अपनों के बीच खड़ी होकर अपनों का ही पता पूछ रही थी।
अचानक ही उनकी आंखों में दुख के बादल घिर आए । ‘ ओमी भाईसाहब तो साल भर पहले ही गए और उनके तीन महीने बाद ही केदार भैया भी।… ‘
मैं सदमे में थी । जिनसे मिलने आई थी, उन्ही के बारे में ये खबरें …वह भी तब, जब पिछले पचास साल में हमारी यह दूसरी या तीसरी ही मुलाकात थी ।
‘और लीला…?’
‘ लीला भी नहीं रही। अभी महीने भर पहले ही वो भी…। ‘
बस अब और कुछ नहीं पूछना और जानना था मुझे।
‘और भाभी?’
‘ भाभी दोनों हैं। घर नहीं चलोगी? अपनी तीनों भाभियों से नहीं मिलोगी ? ‘
अब मैं चुपचाप उनके पीछे सिर झुकाए चल रही थी। अचानक भरे पूरे परिवार के बीच खड़ी थी और यादें बांध से छूटी नदी की तरह चारो तरफ से घेरने लगी थीं। न चाहते हुए भी पंद्रह-बीस मिनट में ही भारी मन से परिवार से विदा ली और हम आगे बढ़ गए। वक्त की निर्ममता का, किसी के लिए ठहरता नहीं यह, इस बात का पूरा अनुभव हुआ उस पल। उदास हाथ में लड्डू लिए खड़े मुरली भैया के लड़्डू का टुकड़ा डॉक्टर पति की नाराजगी के बाद भी मुंह में डालकर बिना पीछे देखे, चुपचाप कार में आ बैठी थी। वहाँ कुछ देर और न रुक पाने का जितना दुख उन्हें था, उतना ही मुझे भी।
आधा दिन बीत चुका था और मथुरा एक विकसित व बड़ा शहर था। गाइड ने आगे का कार्यक्रम अब अपने हाथ में ले लिया था। बोला, द्वारिकाधीश का मंदिर और विश्राम घाट आदि देखने का तो वक्त नहीं है अब अपने पास, सीधे कान्हा की जन्मस्थली ही चलते हैं।
कुछ ही मिनटों में हम उस जेल के आगे खड़े थे जहाँ कंस द्वारा देवकी और वासुदेव को बंदी बना कर रखा गया था और जहाँ द्वापर में देवकीनंदन का जन्म हुआ था।
यहाँ की सुरक्षा व्यवस्था कड़ी थी और परिसर बड़ा व श्रद्धालुओं की कतार काफी लम्बी। पर जेल के अंदर की देखरेख अच्छी थी और आज भी सबकुछ बहुत अच्छी तरह से ज्यों-का-त्यों संजोया हुआ व प्रदर्शित था। विश्वास ही नहीं हो रहा था हम इतिहास के उस पल के साक्षी हो रहे हैं, लकड़ी के उस उठे स्थान को तो दो तीन बार हाथ से सहलाया और महसूस किया जहाँ कृष्ण जन्मे थे।
मथुरा छोड़ते ही तय किया गया कि नंदगांव को छोड़, अब सीधे बरसाने चला जाए। नंदगांव अगली बार सही, संतोष कर लिया था हमने और हम बरसाने की ओर ही चल पड़े।
कहते हैं ब्रज में निवास करने के लिये स्वयं ब्रह्मा भी आतुर रहते थे और श्रीकृष्ण की बाल लीलाओं का आनन्द लेना चाहते थे। अतः उन्होंने सतयुग के अंत में विष्णु से प्रार्थना की थी कि आप जब ब्रज मण्डल में राधा जी एवं अन्य गोपियों के साथ दिव्य रास-लीला करें तो मुझे भी उन लीलाओं का साक्षी बनायें एवं अपनी वर्षा ऋतु की लीलाओं को मेरे शरीर पर संपन्न करके मुझे कृतार्थ करें। ब्रह्मा की इस प्रार्थना को सुनकर भगवान विष्णु ने कहा -“आप ब्रज में जाकर वृषभानुपुर में पर्वत का रूप धरिये। पर्वत होने से वह स्थान वर्षा ऋतु में जलादि से सुरक्षित रहेगा और उस पर्वतरूप आपके शरीर पर मैं ब्रज गोपिकाओं के साथ अनेक लीलाएं करुंगा और आप उन्हें प्रत्यक्ष देख सकेगें। इन पर्वतों पर श्री राधा-कृष्ण जी ने अनेक लीलाएँ की हैं।
बरसाना में ब्रह्मा आज भी पर्वत के रूप में विराजमान हैं। पद्म पुराण के अनुसार यहाँ विष्णु और ब्रह्मा नाम के दो पर्वत हैं जो आमने सामने खड़े हैं। दाहिनी ओर ब्रह्मा पर्वत और बायीं ओर विष्णु पर्वत।
राधारानी का महल और मंदिर उंची पहाड़ी पर स्थित है। इसके पहले कि हम कुछ जाने या समझें, पंडा पालकी वाले को बुला लाया/ और कुछ कहूँ , इसके पहले ही बोला, बैठ जाओ बहन, गरीब लोगों को चार पैसे मिल जाएंगे। अब तो पालकी में बैठना ही था और वहीं से रास्ते भर पड़ती उन छोटी-छोटी स्मृति चिन्हों की दुकानों को ललचाई नजर से देखती रही, जिनमें घूमना पर्यटन का आनंद दुगना कर देता है। वैसे तो अच्छा ही था क्योंकि वाकई में हमारे पास वक्त नहीं था।
महल सुंदर था और छोटी-छोटी वे सैकड़ों सीढ़ियाँ एक वैभव पूर्ण राजसी छटा लिए हुए थीं। बाहर का दृश्य भी मनोरम था। सीढ़ियाँ चढ़ते ही बाहर एक खुला चबूतरा था जिसपर बताया गया कि राधा-कृष्ण का रास होता था यहाँ। मंदिर की मूर्ति के बारे में गाइड ने कहा कि ध्यान से देखें तो राधा कृष्ण मुस्कुराते हुए लगेंगे।
…
अब हम गोकुल की तरफ चल पड़े थे। रास्ते में एक और पंडे को फोन करके बुलवा लिया था गाइड ने। सोचा, मित्र होगा, गोकुल तक की लिफ्ट चाहिए होगी…असली राज तो बाद में ही खुला।
यह नया पंडा रसिक था और बात-बात में बिहारी और रसखान के पद उद्ध्रत कर रहा था। रास्ते में रसखान की कब्र थी सामने पहाड़ी पर, उँगली के इशारे से उसने दिखायी। मन में ध्यान आया तो फिर सूरदास भी यहीं- कहीं आसपास होंगे, तो गाइड ने बताया, नहीं, सूरदास ने गोवर्धन के पास पारसौली गांव में शरीर तजा था। क्षेत्र अभी भी हरा भरा था और आधुनिक विकास से अछूता ।
गोकुल में घुसते ही कई गोशालाएँ और वृद्धाश्रम दिखे। मंदिर और विशेष कर वह मार्ग जहाँ से वासुदेव कृष्ण को जमुना से होते हुए लेकर आए थे, आज भी रमणीय है। मंदिर के अंदर खड़े चौरासी खंबों को कहा जाता है बृह्मा ने खुद अपने हाथों से बनाया था और आजतक कोई भी इनकी गिनती नहीं कर पाया है, कभी एक ज्यादा तो कभी एक कम ही गिनने में आते हैं। मुख्य कक्ष जहाँ यशोदा मैया कृष्ण के साथ सौरी में रही थीं, उसके कपाट बंद थे और सामने वरांडे में श्रद्धालुओं की भीड़ बैठी हुई थी। शायद कोई कथा चल रही थी वहाँ पर। पंडों के इशारे पर हम भी वहीं बैठ गए। थोड़ी देर में वे सभी उठकर चले गए। अब वे हमें उस मुख्य कक्ष के अंदर लेकर गए। जहाँ दो पुजारी पहले से थे।
हमसे श्रद्धापूर्वक पूजा करवाई गई और आरती करने का भी सौभाग्य मिला। अंत में उन्होंने कहा जो चाहें दान कर दें और यहाँ पर 51 हजार, 25 हजार या फिर 11 हजार रुपए का ही दान दिया जाता है। सोच क्या रही हूँ, बढचढ़कर दान करूँ। जशोदा मैया का रूप हूँ, राधारानी का रूप हूँ, घर परिवार ऐसे ही हरा भरा बना रहेगा।
असमंजस में पति की ओर देखने लगी। इनकी आस्था तो थी, पर यूँ अंधभक्ति नहीं। धौंस, दबाव या लालच में आने का तो सवाल ही नहीं उठता था। हमें यूँ सोचते देख, पंडे ने भी अपनी वाणी का पूरा सुर ही बदल लिया। मखौल उड़ाता-सा बोला, सिर्फ घूमना-फिरना, मंहगे-मंहगे होटलों में ठहरना ही तीर्थयात्रा नहीं। आगा-पीछा संवारने के लिए कुछ दान-दक्षिणा भी जरूरी है। आवाज का मास्टराना लहजा अच्छा नहीं लगा और तुरंत ही बोल पड़ी – आपकी बात सही है। पर, संसार रूपी इस धुंध के उस पार क्या है…पाप, पुण्य क्या है? कोई भी तो नहीं जानता, न आप, न मैं । फिर ये दान धर्म सब श्रद्धानुसार होते हैं, जोर जबर्दस्ती से नहीं।‘
पर्स से थोड़े पैसे गायों के चारे के लिए रखकर और प्रणाम करके हम उठ खड़े हुए । अब वह दूसरा पंडा हमें छोड़, गधे के सिर से सींग की तरह जाने कहाँ गायब हो गया था ।
…
दिन समापन की ओर था। गाइड ने बताया था कि जमुनापार ही बंसीबट है । वहाँ तो अवश्य ही जाना था। परन्तु बृंदावन की गलियों से घुमाते , जिस जगह को बंसीबट कहकर दिखाया गया, वहाँ एक आहते में बस प्रतीक ही प्रतीक थे, कल्पना में बसे उस रमणीय बंसीबट जैसा तो कुछ भी नहीं था कहीं।…
शैल अग्रवाल