चांद
कल करवाचौथ के चाँद से ज्यादा कीमती चीज और कुछ न थी , उसके लिए लाखो चाँद सज धज कर छत पर आ गए और भूखे, प्यासे एकटक उसकी राह तकते रहे। “अभी भी नहीं आया” की गुहार इस छत से उस छत गूंजती रही ,नव विवाहिताओं को गाने बजाने और तोहफों से बहलाने का कारोबार चला लेकिन चाँद भला इतनी आसानी से क्यों कर निकलने लगा?
जब निकला तो शंख, घंटियाँ,वाह के साथ नमन किया जाने लगा…सुहागिनें उसके चरणों में बिछ गई और अर्घ्य अर्पित कर चैन की सांस ली गई……मिनटों में सब घरों के भीतर लौट गए और चाँद धुधले नारंगी से कब चटक नारंगी हुआ और फिर सफ़ेद पड गया किसी ने नहीं जाना।
अकेला चाँद और पूरे आसमान का तन्हा सफ़र करता चाँद यकीन नहीं कर पा रहा था अभी थोड़ी देर पहले उसी का इतनी शिद्दत से इंतजार,पूजन, स्वागत हो रहा था!
दोस्त ये दुनिया है लेकिन कम तो तुम भी नहीं हो ! ईद हो या करवाचौथ निकलते बड़े नखरो से हो और हद्द तो ये है कि अपनी लेटलतीफी के लिए बड़े याद भी किये जाते हो। वैसे जो आसानी से मिल जाये उसे पूछता भी कौन है ?याद रखो दिखोगे तो पूजे/पूछे जाओगे,अमावस की काली रात में कोई तुम्हारा जिक्र भी क्यों करेगा? अमावस के अँधेरों से लड़ने का दम भी मानव में है,देखो कार्तिक अमावस्या को तुम न निकले तो लोगों ने दिवाली का चलन निकाल लिया और हजारों चाँद की रौशनी दीपमाला में फीकी पड़ गई।
काले आकाश और सफ़ेद चाँद का वार्तालाप जारी था।
कांटे
दीदी जूते ले लीजिये।
जूते? सड़क किनारे से?
हाँ दी,मेरे पास दुकान नहीं है लेकिन जूते उम्दा हैं। मेरे अब्बा लिबर्टी कंपनी में कारीगर थे अम्मी मर गईं तो हम बच्चों को संभालने के लिए घर से काम शुरू कर दिया। मटीरियल,फिटिंग सब फ़र्स्ट क्लास बस शोरूम की जगह ये तिराहे का कॉर्नर है और एक मीठी सी मुस्कान देकर अदब से हाथ पीछे कर खड़ा हो गया। नजर भर देखा तो तेईस,चौबीस बरस,गोरे रंग का छरहरा मेहनती मुस्लिम युवक जो अभी जमाने के काइयाँपन से दूर लग रहा था। एक जूता हाथ में उठाकर देखा तो एकदम हल्का और साफ सिलाई का लगा। किसी भी तरह से बड़े ब्रांड से टक्कर लेता हुआ लेकिन मेरे दिमाग में तो ब्रांड की खूबियाँ भरी थी जो मुझे तुलनात्मक बनाकर कहती “अगर चीप माल हुआ तो तलवों में जलन न होने लगे, फिटिंग ठीक न हो तो पैर न काटने लगे” और मेरे ब्रांड भीरु मन ने जूता उसकी बांस की रैक पर वापस रख दिया।
भैया अभी तो नहीं चाहिए आगे जरूरत पड़ेगी तो लूँगी।
अरे दीदी कुल तीन सौ का तो है,एक बार ट्राइ तो कीजिये,अच्छा पचास कम दे दीजिये!
मतलब ढाई सौ?ढाई सौ में ढंग की चप्पल नहीं आती तो जूता तो राम जाने कैसा होगा? मुझे नहीं लेना, हूंह…
मेरे हूंह से उसका क्या बिगड़ना था?अविश्वास करने वालों से उस पर विश्वास करने वाले ज्यादा निकले और उस तिराहे पर जूते की दुकान का कोना खूब गुलजार हुआ। डिज़ाइन एक से एक! जो ले जाता वो किसी दूसरे को भी खरीदवाने आता। युवक की दुकान खूब चल निकली।
आज किसी ग्राहक से तू तू मैं मैं हो रही थी। ख़रीदार युवक चार अन्य के साथ था जबकि दुकानदार युवक अकेला उनके सवाल जवाब झेल रहा था। ख़रीदार जिस जिद पर अड़ा था वो दुकानदार के लिए भारी नुकसान का सौदा था और वो आखिर में रुखाई से जूते देने को मना कर बैठा।
ख़रीदार ग्रुप ने धमकाया “कल से आना बच्चू,देखें कैसे दुकान लगाते हो?
इसे कोरी धमकी मानते हुए मुस्लिम युवक ने उन्हें आगे बढ़ने का इशारा कर दिया।
दुकानदार तीन दिन तक दुकान न लगा सका क्योंकि नज़दीकी रिश्तेदारी में गमी हो गई थी। बसंत पंचमी के दूसरे दिन जब अपनी दुकान की जगह पर आया तो देखता है कि गुलमोहर की कुछ डालें होलिका जलाने की शक्ल में उस चबूतरे पर खड़ी की गईं हैं,साफ था कि डालें अभी गीली ही थीं और कल ही खड़ी की गईं लगता था। युवक साइकिल पर जूतों का बैग टांगे दायें बाएँ देखने लगा कि दुकान कहाँ लगाई जा सकती है लेकिन उसके लिए ऐसी कोई जगह छोड़ी ही नहीं गई थी।
बेबसी से होलिका की लकड़ियाँ देखता युवक सोचता रहा मैं इन आस्था की चार डालियों को नहीं हटा सकता,बिन कारण आग लगाने का भागी नहीं बन सकता। दुकान सजाने की जगह होलिका दहन तक घिर चुकी थी। उन गुलमोहर की सूखी डालियों में कोई कांटा न था लेकिन युवक को लग रहा था कि उन डालियों से निकले बेबसी के तमाम कांटे उसके सारे बदन में चुभ रहे हैं और वो एकदम बेबस और अकेला है।
मशीन
प्रकृति से ज्यादा सुन्दर और अदभुत कुछ नहीं। छोटी छोटी चीज़े जिन्हें मानव अपनी ही बनायीं उलझन में अनदेखा कर देता है वो कितनी अदभुत होती है कोई प्रकृति प्रेमी से पूछे। कितना विचित्र है प्रकृति का नियम! करोड़ों मानव लेकिन सबकी आवाजें अलग अलग,,आँखे अलग,उंगलियों की छाप एकदम अलग। कोई तितली एक दूजे सी नहीं। और भी बहुत से आश्चर्य जो प्रकृति के कारनामों में आते हैं। ऋचा का मन आज भी नहीं मानता की सूर्य और चन्द्र स्थिर है और पृथ्वी घूमती है।
ऋचा कल्पना करती सोचो अगर धुरी पर घूमती धरा कुछ पलों के लिए अचानक रुक जाये ? समंदर का पानी उछल उछल कर क्या तबाही मचाएगा? कितना ऊंचा उठेगा और क्या क्या बहा ले जायेगा ?पर्वत कैसे खड़े रहेंगे,दौड़ते यातायात और ऊंची अट्टालिकाओ का क्या होगा?आखिर हम तो “गति ही जीवन है” के सिद्धांत पर जी रहे है..
ऋचा अपनी सोच लौटा लाती है। कल्पनाओ के जंगलो,पहाड़ो,पगडण्डी,फूलों और उगते डूबते सूरज और चंदमा में खुद को भुला देती है और सिर्फ प्रकृति की सुन्दरता पर खुद को केन्द्रित कर लेती है। उसे तीसवीं मंजिल से लिफ्ट में आते जाते अहसास होता है वो एक अणु और मशीन के कल पुर्जे से चलने वाली मशीन से ज्यादा और कुछ नहीं…
लाडली
घनघोर बादलों के बीच भी वर्षा कही गुम सी..लेकिन ठंडी हवा और सूरज की लुकाछिपी सुबह को और सुहानी बनाये दे रही थी|
मेरे घर की रोड पर, पेड़ो के साए तले कई कामगार अपना बसेरा बनाये हुए है,सुबह होते ही उनके जलते चूल्हे और पकती रोटियां मुझमे जीवन का संचार करती है,कुछ अपने परिवारों को भी ले आये है और उनकी गृहणियां अपने साथ, अपना गाँव भी ले आई है जो दिखता है उनके लिपे पुते चूल्हे,टेंट नुमा घरों के प्रवेश द्वार पर लटकते नींबू मिर्च, तार बाँध कर कपड़ो को सुखाने की व्यवस्था,,बाहर पड़ी खाट पर रोते ,हँसते बच्चे ,गपियाती सहेलियाँ और शाम को मिलने आते मेहमान…
भरा पूरा संसार…सड़क पर है तो क्या हुआ? भावनाओ में कोई कमी नहीं…
आज सुबह एक पिता अपनी पत्नी और गदबदी सी करीब नौ दस महीने की बच्ची के साथ सेल्फी लेने में लगा था….
लेकिन उसका प्रयास सफल नहीं हो पा रहा था, उससे कुछ न कुछ छूट जा रहा था। मैंने इशारे से मोबाइल मुझे देने को कहा और उन तीनो की फोटो खींच कर उसे दिखाई, उसकी कृतज्ञ मुस्कान अनमोल थी!!
उस सस्ते से चाइनीज मोबाइल की, धुंधली सी तस्वीर, उसके लिए कितनी चमकीली होगी ये समझ पा रही थी और वो मोबाइल में खुद को देख कर बड़े खुश थे….
ये सोच कर खुद को बहला रही हूँ कि ख़ुशी कुछ पलों की ही सही लेकिन उसकी रगों में,, दिमाग में और यादो में दौड़ी तो सही!! यहाँ तो सब कुछ नश्वर है ! जो पल ख़ुशी दे क्यों ना सिर्फ उन्हें जिया जाए….जैसे वो जी रहे थे…
अगले पल सोचा, मूसलाधार बारिश में,इस अस्थाई झोपड़ी में वो अपनी लाड़ली को कैसे बचाता होगा?
खुद छाता बन कर ?
उसे अपने कलेजे से लगा कर?
जब बड़ी होगी तो उसका क्या भविष्य होगा?
बड़ी होती बिटिया पिता की छाती, माँ के आँचल और इस झोपडी में कैसे समाएगी भला? पिता किस किस से कैसे बचाएगा ? सेल्फी लेने की तरह सेफ़्टी लेने में भी आत्मनिर्भरता होनी चाहिए, है कोई उपाय?
मोहल्ले की दुकान गर्मियों के दिनों में शाम पाँच बजे से पहले न खुलती। इस दुकान पर निर्भर लोगो के घर में अगर कुछ सामान खतम हो जाए तो एकाध चक्कर यूं ही लगा कर देख लेते कि दुकान खुल तो नहीं गई? लेकिन दुकानदार मोहल्ले के लोगों की आदतें न खराब हो जाएँ इसलिए ज़्यादातर समय होने पर ही खोलता। दोपहरबाद ढाई बजे किसी तरह बंद कर पाता सो सुबह से खड़े खड़े उसे भी कुछ समय के लिए आराम की दरकार होती। हालांकि दुकान में पत्नी भी हाथ बंटाती और छोटा भाई भी लेकिन भीड़ बनी ही रहती और कई ग्राहक एकसाथ निपटाने होते। दिल्ली जैसे शहरों में लोग हवा के घोड़े पर सवार होकर आते हैं और जिन दुकानों पर सामान देने में ज्यादा समय लगता उनके अन्य विकल्प ढूंढ डालते। ये बात दुकानदार के परिवार भर को फुरतीला बनाए रखती। उनकी तरफ से एक सुविधा हमेशा थी कि यदि किसी घर में अकस्मात मेहमान आ जाएँ दूध या नाश्ते की जरूरत हो तो ग्राहक एमेरजेंसी में समान पा सकते हैं लेकिन यह सुविधा का बेजा इस्तेमाल न हो इसके लिए गलत कारण बता कर लिए गए समान के लिए बाकायदा बेइज्जती भी कर दी जाती।
कड़ी दोपहर में करीब साढ़े चार बजे कमजोर हाथों से डरते हुए दुकानदार का पिछला दरवाजा थपथपाया गया,तीसरी बार में आराम करते लोगों ने भीतर आवाज सुनी। दरवाजे की जाली से देखा तो त्रिखा आंटी छड़ी के सहारे खड़ी थीं। चट बरामदे में आराम करती दुकानदार बहू उठ आई।
आज आप आंटी जी?सुबह नौकरानी से कुछ मंगाना भूल गईं थी क्या?
नहीं बेटा अभी घर पर कुछ लोग आने वाले हैं,शायद बेटे ने कुछ सामान भिजवाया है सो उन्हें कुछ नाश्ता तो कराऊँ न?पाँच बजे आती तो काफी देर हो जाती,तुम्हें तो पाता है मैं कितना धीरे चल पाती हूँ। हाँ आंटी कोई बात नहीं,थोड़ी देर में खोलने ही वाली थी तो थोड़ा जल्दी ही सही। सामने से आकर बताए कि क्या क्या सामान देना है?
बहू बताया गया सामान देती जा रही थी और आंटी की बहू बेटे के व्यवहार पर अफसोस तथा टीका टिप्पणी भी करती जा रही थी। सारे सामान का मिलान करने के बाद आंटी के काँपते हाथों से बटुए से रुपये निकालने में भी मदद की। उनके बुढ़ापे पर सहानुभूति जताकर अपने बुढ़ापे के प्रति आशंका भी जताई कि न जाने मेरा क्या हाल होगा? आंटी का हिसाब होने के बाद दुकान की दो सीढ़िया ठीक से उतरने की हिदायत देती बहू काउंटर पर तब तक खड़ी रही जब तक आंटी सुरक्षित उसकी आँखों से ओझल नहीं हो गई।
एक गहरी सांस लेकर पलटी ही थी कि अपनी सास को ठीक पीछे खड़ा पाया। पल में ठंडी सांस फुफकार में बदल गई और बोली आप यहाँ क्या कर रही हैं?आपसे कितनी बार कहा है कि अपने काम से काम रखिए और दुकान में मत आइये और एक तरह से घसीटती सी रसोई कि तरफ धकेलती बोली जाइए और जाकर सबके लिए चाय बनाइये। सास धकेले जाने से अपमान और अशक्त पैर के दर्द से कराह उठी ओर बेहद धीमी आवाज में इतना ही बोल पाई “मैं दुकान में दूध की थैली लेने ही आई थी” और फ्रीजर का दरवाजा खोलकर दूध की थैली पहचानने की कोशिश करने लगी, डबडबाई आँखों से सब कुछ धुंधला दिख रहा था।
शशि काण्डपाल
अल्मोड़ा
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कुर्सी संवाद
कॉफी हाउस की दो अलग मेजों के साथ रखी दो कुर्सियों को बेयरे ने उठाकर खुली छत पर आमने-सामने रख दिया. काफी देर तक चुप रहने के बाद एक ने दूसरे से पूछा, “बहन, बहुत दुखी दिखाई दे रही हो.”
“बात ही कुछ ऎसी हो गई है.” उसका स्वर भीगा हुआ था.
“क्यों क्या हुआ?”
“मैं अपवित्र हो गई हूं.”
“क्या बात कह रही हो, बहन.”
“मैं सच कह रही हूं—.”
“आखिर हुआ क्या?”
“मुझे यहां आए चार साल हुए—आज तक यहां आने वालों में साहित्यकार, कलाकार ही होते थे, लेकिन आज-.”
“आज क्या—?”
“आज—आज एक नेता यहां आया और पूरे डेढ़ घण्टे तक जमकर मुझ पर बैठा रहा—मैं तो कहीं की न रही, बहन.” वह फफक उठी.
दूसरी की आंखें भी गीली हो गयीं, क्योंकि उसे अपनी पवित्रत्रा भंग हो जाने की चिन्ता सताने लगी थी.
निराशा
उस दिन मोहल्ले में एक खतरनाक वारदात हो गयी थी. किसी सिरफिरे ने एक ग्राहक की हत्या कर दी थी. चारों ओर सनसनी फैली हुई थी और पुलिस की गश्त जारी थी. कोठे और दुकानें बंद थे. सारा दिन गुजर चुका था, लेकिन सड़क में गश्ती सिपाहियों के अलावा किसी आदमी की शक्ल दिखाई नहीं पड़ी थी. कभी कभार कोई कुत्ता दुम हिलाता हुआ अवश्य गुजर जाता था.
वह सुबह से ही इन्तजार कर रही थी कि शायद कोई आ जाए, लेकिन सारा दिन खाली बीत गया था. इस समय उसकी जेब में दस-दस पैसे के मात्र पांच सिक्के पड़े थे और वह सुबा से ही भूखी थी. वह निराश होकर पलंग पर लेट गयी और सिपाहियों और कातिल को मन ही मन कोसने लगी. उसे अभी भी आशा थी कि शायद कोई ग्राहक सिपाहियों की नजर बचाकर आ जाए. उसके कान जीने की ओर लगे हुए थे. एक बार उसे लगा कि कोई जीना चढ़ रहा है. वह हड़बड़ा-कर उठ बैठी. शीशे के सामने जाकर बाल और कपड़े ठीक करने लगी. लेकिन तब तक आगन्तुक दो बार दरवाजा खटखटा चुका था. उसने खुश मन से दरवाजा खोला. आने वाला, गश्ती पुलिस का एक सिपाही था.
वह घबड़ायी-सी एक ओर हटकर खड़ी हो गयी. सिपाही ने मुड़कर दरवाजे की कुण्डी चढ़ा दी और बोला, “घबराओ नहीं, मैं तो यह देखने आया हूं कि तुमने कोई ग्राहक तो नहीं छुपा रखा.” और वह उसकी बांह पकड़कर अन्दर की ओर ले गया. वह कोई प्रतिरोध नहीं कर पायी. थोड़ी देर बाद सिपाही के वापस लौट जाने पर दरवाजा बन्द कर वह पलंग पर ढह गयी. अब वह और अधिक निराश थी, क्योंकि उसकी जेब में अभी भी दस-दस के पांच सिक्के ही पड़े थे और उसे बहुत जोरों से भूख लर रही थी.
मेरे पति
और दिनों की अपेक्षा बीना की रोने की आवाज कुछ अधिक तेज थी. प्रतिदिन रात में उसका पति शराब के नशे में चूर होकर आता है और आते ही बीना को पीटना शुरू कर देता है. चार महीने हो गए मुझे इस मकान में आए, लेकिन शायद ही ऎसा कोई दिन बीता होगा, जब मैंने बीना के पिटने और रोने की आवाज न सुनी हो. लेकिन आज उसका रोना हृदय विदारक था और ऎसा लग रहा था, जैसे उसका पति लखना उसे मार डालने का संकल्प करके पिटाई कर रहा है.
कुछ देर तक तो मैं सुनता रहा और ’यह तो रोज का झमेला है’ सोचकर भुलाने की कोशिश करता रहा, लेकिन अन्ततः बीना की चीत्कारों ने मुझे अस्थिर कर दिया और कब मेरे कदम उसके दरवाजे की ओर उठ गए, मुझे पता ही न चला. दरवाजा खुला था. अस्त-व्यस्त कपड़ों में बीना आंगन में पसरी हुई थी और बांस के मोटे डंडे से लखना उसे पीटने में व्यस्त था. तेजी से आगे बढ़कर मैंने लखना को पीछे से पकड़ लिया. डंडा छीनकर दूर फेंक दिया और अपने मजबूत हाथों के कई प्रहार ताबड़तोड़ उस पर जमा दिए. नशे में चूर वह मेरे प्रहार संभाल नहीं सका और एक ओर लुढ़क गया. अब मैंने बीना की ओर देखा. वह अपने कपड़े संभालकर खड़ी हो चुकी थी. मैं उसकी ओर बढ़कर कुछ कहने ही वाला था कि वह नागिन की तरह फुंकारती हुई मेरी ओर बढ़ी और बोली, “आपने उनको मारने की हिम्मत कैसे की?”
“वह—वह—आपको—रोजाना—.” शब्द गले में ही अटककर रह गए. मैं हत्प्रभ था.
“आखिर वह मेरे पति हैं—मुझे मार डालें—लेकिन आप कौन होते हैं बीच में टपकने वाले—चले जाइए यहां से—तुरन्त–.” वह चीख उठी.
उसकी ओर देखे बिना मैं चुपचाप वापस लौट आया था.
हकीकत
बस चलने के लिए कंडक्टर के सीटी बजाने के साथ ही वह बस में चढ़ा. कंडक्टर की सीट के पास खड़े होकर उसने बस में चारों ओर नज़र दौड़ाकर इस बात का जायजा लिया कि सीट कहां खाली है. मेरी बगल में सीट खाली देखकर वह आकर बैठ गया. बस चल पड़ी तो कंडक्टर ने आवाज लगायी, “बिना टिकट कोई हो तो टिकट ले ले.”
कंडक्टर की आवाज सुनकर पैसे निकालने के लिए उसने पंट की जेब में हाथ डाला. क्षण भर तक टटोलने के बाद उसने हाथ बाहर निकाल लिया और दूसरी जेब में दूसरा हाथ डाला. दूसरी जेब टटोलने के बाद उसने वह हाथ भी बाहर निकाल लिया. उसने शर्ट की जेब देखी और अंत में उठ खड़ा हुआ. उसने सारी जेबों की वस्तुएं बाहर निकालकर देख डालीं. उनमें कुछ पुराने कागज तथा पुरानी फटी-मुड़ी टिकटें थीं. वस्तुएं जेब के हवाले करते हुए मेरी ओर देखता हुआ निराशा पूर्ण स्वर में वह बोला, “पैसे कहीं गिर गए.”
“कितने थे?” मैंने पूछा
“दस रुपए का नोट था. पता नहीं कहां—.” और वह पुनः जेबें देखने लगा. कई बार रूमाल तक झाड़कर देखा.
“कहां जाना है?”
“मॉरिस नगर.” अर्थपूर्ण दृष्टि से मेरी ओर देखता हुआ वह बोला. मुझे उसकी दृष्टि में चालीस पैसे देकर टिकट ले देने का भाव नज़र आया. मैंने अपनी जेब का जायजा लिया. कुल दो रुपए साठ पैसे पड़े थे. महीने की अठ्ठाइस तारीख थी. वह अभी भी मेरी ओर देख रहा था. मैंने उसकी ओर से दृश्टि हटाकर आगे की ओर देखा. एकदम आगे एक सीट खाली हो गयी थी. मैं वहां से उठकर उस खाली हुई सीट पर जाकर बैठ गया.
प्यार
रात के आठ बजने वाले थे. लेकिन दोनों का मन अभी घर जाने का नहीं हो रहा था. अतः सेण्ट्रल पार्क के एक ओर घास पर बैठकर बातें करने लगे.
“कल तुम्हारा क्या कार्यक्रम रहेगा?” लड़ने ने लड़की का हाथ अपने हाथ में लेकर सहलाते हुए पूछा.
“अभी कुछ कह नहीं सकती.”
“प्लाजा में बहुत अच्छी पिक्चर लगी है. चलोगी?”
“नहीं.”
“देखो, रंजना मुझे तुमसे यही एक शिकायत है. जब भी पिक्चर के लिए कहता हूं, तुम मना कर देती हो. जब हम दोनों एक दूसरे को प्यार करते हैं तब—अच्छा वोल्गा चलोगी?”
“नहीं.” रंजना कुछ गंभीर हो गयी.
“क्यों?”
काफी देर तक खामोश रहने के बाद वह बोली, “रंजन, मैं आज तुमसे एक बात कहना चाहती हूं.”
“हां—हां—कहो.”
“तुमने मुझसे—तो अब हमें शादी कर लेना चाहिए. तभी कहीं आना-जाना अच्छा लगेगा.”
“हां—हां—क्या—?” रंजन का स्वर लड़खड़ा रहा था. रंजना उसके चेहरे की ओर गंभीरता से देख रही थी. रंजन चुपचाप उठ खड़ा हुआ और लड़खड़ाते स्वर में बोला, “म—म—माफ करना, रंजना. एक जरूरी काम याद आ गया है—अच्छा मैं चलता हूँ.”
और वह सड़क की ओर लंबे-लंबे डग भरता हुआ बढ़ गया. रंजना हत्प्रभ उसे जाता देखती रही.
रूपसिंह चन्देल
संपर्क- फ्लैट नं. ७०५, टॉवर-८, विपुल गार्डन, धारूहेड़ा(हरियाणा)-१२३१०६
मो. ८०५९९४८२३३
ई मेल : rupchandel@gmail.com
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ज़रूरत”
आज कमली बहुत खुश थी,आते ही बोली “सुखना का बापू आया है भाभी….”
एक तीर-सा लगा मुझे! सन्न-सी रह गयी मैं!जो आदमी तीन बरस पहले, 3-3 बेटियों के साथ उसको बीच मझधार में रोती छोड़, दूसरी औरत के साथ रहने चला गया था, उसके लौट आने पर ये खुशी?
तभी दूसरा वज्रपात हुआ…”हमको साथ ले जाने आया है भाभी, दूसरी बाई का इंतजाम करना पड़ेगा आपको।” लाज से दोहरी होती कमली के शब्द चुभ-से रहे थे कानों में।
“कितनी भोली है तू कमली!” मैं कुछ सोचकर बोली । “अब क्या जरूरत आ पड़ी तेरी? क्यों रखेगा साथ? वो कहाँ गयी? ”
“भाग गयी उसको छोड़ के अपनी माँ के पास !” कमली झूमकर बोली !”अकल आ गयी सुखना के बापू को”उसने आगे जोड़ा ।
“और बच्चियों का क्या होगा?कितनी मुश्किल से सरकारी स्कूल में दाखिला करवाया था उनका और अब अच्छा पढ़ भी रही हैं ! वहाँ क्या करेंगी?” मेरी चिंता अब भी बनी हुई थी।
“कौन कलक्टर बनना है उन्ने! और उसने बोला है उधर पहचान है उसकी, दाखिला मिल जाएगा।”कमली तो मेरी चिंता से बेखबर और पति की तरफ से निश्चिंत थी।
न जाने क्यों मेरा मन नहीं मान रहा था।समझ नहीं पा रही कि नयी बाई ढूंढ़ने की सिरदर्दी से बचना चाह रही थी या सचमुच उन चारों की चिन्ता थी,पर कुछ था जो मुझे खटक रहा था।
मैंने उसे बहुत समझाया और इस बात पर राज़ी कर लिया कि अभी तो सुखना के बापू को किसी तरह से अकेले वापस भेज दें! फिर कुछ दिन बाद वो पहले खुद अकेली जाकर सब मामला देखेगी समझेगी फिर लड़कियों के बारे में तय करेगी।
कुछ दिन बाद दो-तीन दिन की छुट्टी लेकर वो चली गयी। मैंने भी अपने सर्कल में नयी बाई की खोज एहतियातन शुरू कर दी।
तीसरे दिन मुरझाया चेहरा और मुंह पे गालियों की बौछार लिए कमली मेरे सामने थी।
“वो कहीं ना भागी है…लड़का हुआ है!अपनी मां के घर है दो महीने से! थड़ी पे अकेला पड़ गया और खाने-पीने की भी सुध नहीं तो उसको हमारी याद आई।” डबडबाई आंखों से शून्य में ताकती वो कुछ देर चुप रही…. फिर टूटे अरमानों का दर्द दिल में समेटे उस ने झाड़ू सम्हाल ली “भला हो भाभी तुम्हारा जो छोरियों को बचा लिया तुमने…उसका क्या है? जरूरत पूरी होते ही फिर छोड़ देता हमें…”
मुझे तो समझ ही नहीं आया कि कमली के हमेशा के लिए वापस आने पर खुश होऊं कि उसके फिर से छले जाने पर दुखी होऊं….
“दायित्व-निवृत्ति”
सेवानिवृत्ति के पैसों में से मधु और सुरेश ने अपने मकान में कुछ पुनर्निर्माण करवाया और नये सिरे से पूरा घर सजाया। फिर घर में एक छोटी सी दावत रखी जिसमें बेटी-दामाद, बेटा-बहू, मधु और सुरेश के भाई-बहन के परिवार ही आमंत्रित थे। सालों साल जिस घर में रहे थे, बच्चे उसका नया रूप देखकर आश्चर्यचकित रह गए!
बिटिया बोली “मम्मा!ये हैंडीक्राफ्ट और स्टाइल का फ्यूज़न किससे डिज़ाइन करवाया? बहुत प्यारा लग रहा है! आर्किटेक्ट से मिलवाना भई ,अब तो हम भी उसी से काम करवाएंगे!”
मधु और सुरेश ने मुस्कुराते हुए एक-दूसरे की ओर देखा। फिर मधु ने कहा “हम दोनों ने अपनी अपनी पसंद और सपने को मिक्स एंड मैच करके सब डिज़ाइन किया है।”
“आप?आप दोनों ने? आपकी अपनी-अपनी पसंद और सपने! मतलब हमें तो कभी पता ही नहीं चला कि आप दोनों की पसंद और सपने ऐसे है!” अब बेटे ने चौंकते हुए कहा!
“हां! क्योंकि तब हमारी पसंद और सपने तुम दोनों का सुंदर और सुरक्षित भविष्य था!अब जब वो दायित्व पूरा हो गया तो इसकी बारी आई!” सुरेश ने बेटे के कंधे थपथपाते हुए मुस्कुराहट बिखेरी।
दोनों बच्चों की आंखों में नमी और दिल में अजीब सी टीस थी!
शिवानी जयपुर
“हिस्सेदारी”
“तुम हर समय बच्चों की प्लेट में से कुछ न कुछ क्यों खाती हो?कितना चिड़चिड़ करते हैं कभी कभी वो!” राघव ने अपनी पत्नी ऋचा से कुछ नाराज़गी जताई।
“कभी कभी चिड़चिड़ाते हैं पर जब मैं नहीं खाती तो खुद ही कहते हैं कि आओ चख लो! ये नहीं दिखाई देता तुम्हें?”
“पर तुम ऐसा करती ही क्यों हो? अपना-अपना खाएं ना सब! इसमें क्या बुराई है?”
ऋचा गम्भीर हो गई “जब हम छोटे थे तब से मम्मी की आदत थी अपने हिस्से की हर चीज़ भैया को देने की! भैया की आदत ही हो गई सबसे ज़्यादा लेने की! पापा खाने से पहले हमेशा पूछते थे ‘बच्चों ने खाया? तुमने खाया?’ तो अपनी शादी और बच्चे होने के बाद भैया की अपने बीवी-बच्चों का ख़्याल रखने की आदत तो रही पर उन्हें कभी लगा ही नहीं कि मम्मी को भी खाने की इच्छा हो सकती है!पापा तो बहुत पहले ही चले गए थे! बाद में घर में चीज़ें आतीं और खत्म हो जातीं। मम्मी को पता तो रहता था पर…”
बहते हुए आंसुओं को पौंछते हुए भरे गले से ऋचा ने आगे कहा “अक्सर मम्मी कहती थीं कि ‘अपने हलक का निवाला खिलाने का हर्जाना भर रही हूं!’ इसलिए मैं अपनी हिस्सेदारी अभी से तय कर रही हूं!”
अपनी अपनी बारी”
सरकारी कर्मचारियों के अस्पताल में एक डॉक्टर के कमरे के बाहर अपनी बारी की प्रतीक्षा करते लोग बीच-बीच में आपस में बतिया कर समय काट रहे थे। वहीं कतार में एक बूढ़ी अम्मा भी थीं जो प्रतीक्षा के पलों में अपने झोले में से कभी बिस्किट तो कभी चूरन की गोली और कभी सौंफ जैसी कोई चीज़ निकाल कर खा रही थीं और आसपास लोगों को भी खाने के लिए पूछ रही थीं।खाने के बाद पानी पीती, छोटा-सा नैपकिन निकाल कर मुँह पौंछती उन अम्मा में ऐसा कुछ नहीं था जो किसी को आकर्षित करता। पर फिर भी कुछ लोगों का ध्यान उन पर ही केन्द्रित था। क्योंकि उनकी बारी आने पर उन्होंने अपने पीछे वाले दो-तीन लोगों को अपने से पहले भेज दिया और फिर किसी दूसरे डॉ के लिए लगी कतार में लग गईं।वहाँ भी यही क्रम जारी रहा! अनीता के पति कतार में लगे अपनी बारी की प्रतीक्षा कर रहे थे और पति के साथ आई अनीता बार बार उन बूढ़ी अम्मा को ही देख रही थी। अंत में कौतूहल वश अनीता ने अम्मा के पास जाकर पूछा “आपको किस डॉक्टर को दिखाना है?”
“जो भी देख लेगा उसी को दिखा दूंगी।” बेफिक्री से जवाब आया।
“पर ऐसे अपनी बारी पर दूसरों को भेजती रहेंगी तो कैसे दिखा पाएंगी आप?”
“कोई नी! तुम चिंता मत करो।आखिरी में देख कर ही जाएंगे डॉ साहब!” वो हँसकर बोलीं।
“ऐसे तो आपको बहुत देर तक बैठना पड़ेगा!” अनीता आश्चर्य में थी।
“महिने में चार-पाँच बार आ ही जाती हूँ। सब पहचानते हैं मुझे!घर में अकेले बैठने से तो यहाँ बैठना ज्यादा अच्छा है! बहुत सारे लोगों को देख-सुन तो पाती हूँ!” अकेलेपन की पीड़ा में डूबे शब्द अनीता ही नहीं आसपास वालों को भी भीतर तक भेद गए।
शिवानी जयपुर
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अनुराग
मेरे शरीर पर किसीने दिल का आकार बनाकर उसमें तीर घुसेड़ दिया था और दिल के बीचोंबीच लिख दिया ‘P’ ।
जब मैं छोटा था तो पास के बड़े शरीरों पर की गई यह क्रिया देखना मेरे लिए बड़ा कष्टदायी होता था लेकिन अब जब यह क्रिया मेरे ऊपर की गई तो मुझे उतना कष्ट नही हुआ जितना कष्ट मुझे कल हुआ था जब आरा, कुल्हाड़ी लिए हुए कुछ लोगों ने मेरे शरीर पर सफेद रंग से निशान लगा दिया।
यह सफेद रंग का निशान मानो मेरे लिए रिसता हुआ घाव बन गया है क्योंकि सालों पहले ऐसे ही सफेद निशान लगे हुए मेरे साथी काट दिए गए ।
रुको!
वह वापस मेरी ओर ही आ रहा है जिसने मेरे शरीर पर अपनी महबूबा के नाम का पहला अक्षर गोद दिया था।
अब वह उस अक्षर को अपने सीने से लगाये मुझे अपनी बाहों में भर रहा है ।
म..मु..मुझे बड़ा अजीब-सा लग रहा है और मैं भी चाहने लगा हूं कि मैं भी इसे गले लगा लूं लेकिन इससे पहले की मैं ऐसा कुछ करूँ, कल वाले इंसान अपने आरे और कुल्हाड़ी के साथ प्रकट हुए ।
“चल ..ए ..रोमियो बाजू हट! ”
कुल्हाड़ी वाले ने धमकाने वाले अंदाज में कहा ।
“चिपको आंदोलन …जिंदाबाद” रोमियो के साथ-साथ ही आस-पास उसकी तरह पेड़ों से चिपके हुए कई युवाओं की आवाजें एक साथ गुंजायमान हुई ।
मेरे शरीर से निकला गोंद रोमियो के दिल और उसकी महबूबा के नाम के पहले अक्षर को भिगोने लगा ।
कागज की कीमत
एक पुस्तक मेले में पाठकों से आवाहन किया गया कि
‘इस ई-बुक के दौर में ज्यादा से ज्यादा पुस्तकें खरीदें। दस से ज्यादा पुस्तकें खरीदने वाले को बिल पर 90% छूट दी जाएगी ।’
अब उस मेले में रद्दी वालों की भीड़ लगी दिखती है ।
एक खूबसूरत सुबह
मैं रोज सुबह खिड़की खोल बैठ जाता इस इंतजार में की कब वह जानी-पहचानी हरी लाइट जलायेगी और हाय! या गुड़ मॉर्निंग का इशारा देगी ।
अब खिड़कियां भी तो मियां ग़ालिब के जमाने वाली नही रही कि हमेशा खुली रहे और जब चाहे यार आकर अपने नजरे करम कनखियों से हमारी ओर किया करे ।
आज के दौर की खिड़कियों के एक तरफ हम और दूसरी तरफ दुनिया भर के हसीन नजारे होते हैं ।
न यार की कनखियों का कोई ठौर-ठिकाना हमारी तरफ होता है न नजरें करम गाहे-बगाहे होती है ।
वैसे अपना भी मन कहाँ केवल उसी खिड़की से बंधा होता है ।
जब तक वह खिड़की खुलती है तब तक तो दो-चार के दरवाजों में घुसपैठ कर चुके होते है ।
आहा! याद आता है वह जमाना जब शाम छह बजे दूध का बर्तन लिए वह अपने घर के बाहर आती थी ।
और हम उस के घर के बाहर उस छह बजने का इंतजार मुद्दतों से करते ।
अब मुद्दतों बाद मिली भी तो 6 इंच की एक दीवार पर जिसपर उसके पति के नाम की तख्ती पहले ही लटकी मिली उस फ़ोटो के साथ जिसमें उसके दो बच्चे भी नमूदार हो रहे थे ।
खैर हमनें भी कौनसा उसके लिए ब्रह्मचर्य का पालन कर रखा था । इस जमाने में वैसे भी ब्रह्मचर्य विलुप्तता की कगार पर है और गृहस्थ आश्रम को तो जैसे किसी कलमुंहे कि नजर लग चुकी है ।
इस बेपर्दा खिड़की से उसे देख लेता हूं और बात कर लेता हूं तो लगता है मानो टाइम मशीन में बैठकर अपनी किशोरावस्था में गोता लगा आया हूँ।
आज तो मानो उसने न आने कसम खा रखी थी ।
“ए….जी सुनते हो … आपका कोई दोस्त आपके लिए पूछ रहा है”
हॉल से आती मेरी पत्नी की आवाज से मेरी तन्द्रा टूटी ।
“आता हूं” कहते हुए मैंने छह इंच की खिड़की बंद की और हॉल की ओर कदम बढ़ाए ।
आज तो जैसे एंड्रॉइड ने खुद को अपडेट कर स्क्रीन पर नया वॉलपेपर लगा दिया था और उस जानी पहचानी हरी लाइट को हरी साड़ी में अवतरित कर थ्री डी इमेज में मेरे सामने लाकर खड़ा कर दिया था।
“गुड़ मॉर्निंग मिस्टर अमित … उम्मीद है आपने मुझे पहचान लिया” खनकती हंसी के साथ सुनने का यह अहसास कभी भी उसे पढ़कर महसूस न हुआ था ।
किताबों में बंद प्रेम
“कल्पना… पूरी शेल्फ छान मारी लेकिन मेरी एक किताब दिख नही रही है।” मेरे स्वर में खीज का पुट था।
“कौनसी…नाम बताओ?” कल्पना ने किचन से ही ऊंचे स्वर में पूछा।
“जुडिस की जस्टिफाई माय लव…!”
मेरी पत्नी नही जानती थी कि उस किताब में एक लम्हा दफन था जिसे मैं कुछ महीनों में एक बार किताब रूपी कब्र से बाहर निकालकर वह खुशनुमा पल फिर से जी लेता था।
मेरे दोस्त के उस खूबसूरत लॉन की खुशबू भी किताब में लम्हे के साथ ही कैद थी, जिस लॉन में हम कुछ दोस्त खेलने जाते थे और वहीं आयशा से मेरी पहली मुलाकात भी हुई थी।
उम्र का वह दौर ऐसा था कि हम कुछ ही दिनों में बहुत अच्छे दोस्त बन गये और मैं रोज उस लॉन में स्थित गुलाब की झाड़ी का सबसे खूबसूरत गुलाब तोड़कर पेश करता और वह बदले में मुझे आयशा की खूबसूरत मुस्कुराहट मिलती, जिसे देखकर मेरे दिल के तार झनझना उठते।
गुलाब झाड़ी ऊंची थी और कांटे बहुत ज्यादा जिससे बचकर ऊंचाई से गुलाब तोड़ना बेहद मुश्किल काम था।
शाम का धुंधलका छाते ही मैं लॉन में बैठा आयशा के आने का इंतजार कर रहा था कि कुछ लड़कियां लॉन में पँहुची और मुझसे कुछ गुलाब तोड़कर देने का आग्रह करने लगी।
“तेरी हाइट अच्छी है इन्हें तोड़कर दे दे कुछ गुलाब।” दोस्त की बुआ ने लॉन में आते ही फरमान सुना दिया।
मेरे न करने का कोई सवाल ही नही था ।
उन लड़कियों ने सारे गुलाब मुझसे तुड़वा लिए सिवाय एक मुरझाए हुए गुलाब को छोड़कर ।
आयशा ने आते ही फूलों रहित गुलाब की झाड़ी देखी और मुस्कुराकर मुझसे धीरे से कहा “चलो लाओ मेरा गुलाबों का बुके।”
यह सुनते ही मेरा चहेरा घुटनों तक लटक गया और बड़ी मुश्किल से मैंने आखिरी बचा हुआ मुरझाया गुलाब, आयशा को पेश कर दिया।
“आज इसने सारे गुलाब दूसरी लड़कियों को तोड़कर दे दिए।” दोस्त की बुआ ने मुरझाए गुलाब की सुगंध भी छीन ली।
आयशा ने कुछ न बोला लेकिन उसकी नम आंखे मुझसे देखी न गई ।
मैं लॉन छोड़कर बाहर चला गया और जब वापस आया तो उस मुरझाए गुलाब की पंखुड़ियां पूरे लॉन में बिखरी हुई थी।
“अच्छा याद आ गया! … वह किताब तो मैंने हफ्ताभर पहले स्टोर रूम में रख दी थी।” कल्पना की आवाज ने पच्चीस साल पहले की समय यात्रा को मंजिल दिखा दी ।
मैं अभी स्टोर रूम की ओर लपका ही था कि
“कल ही स्टोर रूम की सारी किताबें मैंने रद्दी में बेच दी।”
इस एक वाक्य ने उस लॉन में बिखरी उन तमाम मुरझाए गुलाब की पंखुड़ियों को मेरी कैद से आजाद कर दिया।
फ़िसलन
उसने अपने पुरातनपंथी ससुराल के खिलाफ आवाज़ उठाई थी, फलस्वरूप नयी विचारधारा वाले समाज ने उसे महिलावाद की नई ब्राण्ड ऐम्बैसडर बनाकर शहर के सामने पेश कर दिया।
नए ब्यूटी पार्लर का शुभारंभ हो या नग्न शरीरों को आराम देने वाले स्पा का उद्घाटन महिलावाद की उस साक्षात मूर्ति को ही आमंत्रित किया जाता है ।
आज एक राजनैतिक दल की तरफ से, विधानसभा का टिकट पाने हेतु पार्टी अध्यक्ष के साथ उसकी मीटिंग संपन्न हुई। मीटिंग रूम से बाहर निकलते वक्त अध्यक्ष के कुत्सित लहजे में कहे गये शब्द उसके दिमाग में गूँज रहे थे।
“पच्चीस लाख आपको पार्टी फण्ड में देने होंगे और मुझे …आपकी तन्हाई के कुछ लम्हें, बाकी आप समझदार तो हैं ही ?”
शारीरिक शोषण और दहेज अब केवल पुरातनपंथियों के हथियार नही रह गये हैं, यह उसे आज समझ आ गया था।
अपने शरीर पर लिपटे सफेद आधुनिक आवरण को ठीक करती हुई वह गीले फ्लोर पर आगे बढी ही थी कि,
“मैडम टाइल गीला है.. तुम फिसल जाएगा, उधर से जाओ…उधर नया टाइल नही लगा है, पुराना फर्श ही है तुम गिरेगा नही।”
पोंछा लगाती हुई महरी ने उसे नसीहत दी ।
संकरे रास्ते की दौड़
आठ बाय आठ की टीन लकड़ी से बनी खोली पर आधे-खुले आधे-लटके दरवाजे से आवाज आती है ।
“ए ….धारावी”
एक 11 साल की लड़की दूर से सुनकर उस दरवाजे की ओर दौड़ लगाती है ।
चौड़ी गटर के दोनों बाजू छोड़ी हुई कुछ फुट की जगह ही संकरी सड़क है यहां के रहिवासियों के लिए, जिसपर कूद-फांदकर दौड़ रही है ‘धारावी’ ।
रास्ते में एक मैला-कुचला आदमी पूछता है।
“अरे… इतनी तेजी से कहाँ चली ?”
“इस्..कुल चालली मी”
जवाब देते ही लड़की आवाज वाले दरवाजे तक पहुंच गई ।
“हे घे…बस्ता, जा जल्दी नाही तर इंजीनियर कैसे बनेगी तू?”
उसकी मां की मुस्कुराहट ऊंची इमारतों के बर्तन धोकर भी निर्मल थी ।
“काय हो वहिणी ?… कामवाली की बेटी इंजीनियर कैसे बनती है ?”
वही मैला-कुचला आदमी धारावी की माँ से पूछता है ।
जवाब धारावी देती है ।
“तसेच.. जिस तरह कामवालों की झोपड़पट्टी मजबूत घरों की सोसायटी में बदलती है…… शिक्षा से”
धारावी बस्ता लिए दौड़ पड़ी स्कूल की ओर ।
ऑनर किलिंग
भालचंद्र मिश्रा और सैयद शब्बीर ने आज वे दोनों वृक्ष कटवा दिए क्योंकि वे पेड़ अब सरहद तोड़ने लगे थे ।
मिश्राजी और सैयद साहब के आंगन में लगे वृक्षों की डालियां जब भी साझा दीवार रूपी सरहद को पार करती तो दोनों घरों में से किसी एक घर से जोर की आवाज आती ।
“अपने झाड़ को संभालो उसके पत्ते हमारे आंगन में नही गिरने चाहिए।”
उस आवाज के तत्काल प्रभाव से वृक्ष का मालिक अपने दोषी पेड़ की डालियां छांट डालता।
दोनों में से किसी वृक्ष का फल उस दीवार के परली तरफ न गिरा न गिरने दिया गया फिर भी गाहे-बगाहे दोनों वृक्षों की डालियां गलबहियां करने को तैयार हो जाती । लेकिन अब तो प्यार की पींगे बढ़ाने वाले वृक्ष ही नही रहे ।
रह गयी तो केवल जमीन के नीचे न दिखने वाली आपस में गुंथी हुई उनकी जड़ें ।
कुन फाया कुन
उसे महज इतना याद है कि वह छह दिनों में अपनी रचना मुक़म्मल करने के बाद आराम करने चला गया था और उस दिन के बाद वह आज नींद से जागा है।
वह कुछ उनींदा-सा अपनी आँखें मलता हुआ हजारों साल पहले बनाई अपनी रचना को ढूँढ रहा है।
चाँद, तारे और सूरज सब उसे अपनी जगह पर यथावत मिल गए लेकिन उसकी बनाई हुई धरती कुछ अलग दिख रही है।
जिनके लिए उसने यह धरती बनाई थी, वही इंसान उस वसुंधरा को नष्ट करने पर आमादा था। जब बाढ़, भूकम्प और अन्य प्राकृतिक आपदाओं के रूप में भेजी हुई चेतावनी से भी बात न बनी तो धरती का प्रतिक्रिया तंत्र, ईश्वर की सर्वश्रेष्ठ रचना का अस्तित्व धरती से खत्म करने के लिए मजबूर हो गया।
ऐसी ही किसी प्रतिक्रिया के नतीजतन आई भयंकर प्राकृतिक आपदा से उजड़े घर में बैठा एक पिता अपने नवजात शिशु को संभालता हुआ अपनी पत्नी से बोला। “इंसान के इस धरती पर पैदा होने से अब तक, ईश्वर ने ही तो हमारी रक्षा की है और अब भी वही रक्षा करेंगे।”
नवजात की नज़रें, आँखें मलते हुए उनींदे से ईश्वर की ओर उठी और वह शिशु खिलखिलाकर हँस दिया।
ईश्वर ने तर्जनी अपने होंठों पर रखी और शिशु से कहा “श..श्श्श्श”
अनिल मकारिया
जलगांव, महाराष्ट्र