वन्दना गुप्ता, प्रबोध गोविल, शैल अग्रवाल, बलराम अग्रवाल


ये_तेरा_घर_वो_मेरा_घर
मम्मी की अलमारी में से एलबम निकालते हुए एक डायरी नीचे गिर पड़ी। एलबम में हमारे बचपन की यादों के चित्र थे और डायरी में मम्मी ने भावनाओं के शब्दचित्र उकेरे थे। जो पन्ना खुला, उस पर मेरा नाम देख उत्सुकतावश पढ़ने लगी…
20 अप्रैल
लॉकडाउन से परेशानी है किन्तु कुछ सुकून भी… आखिर इतने लंबे समय के बाद पूरा परिवार एक साथ एक छत के नीचे ज़िन्दगी का जश्न मना रहा है। कोरोना संक्रमितों के बढ़ते आँकड़े और मृत्युदर खौफ पैदा करते हैं, किन्तु अपनों का साथ होना और सलामत रहना राहत की बात है।
2 मई
एक ही शहर में शादी होने से बेटियों को मायके का सुख नहीं मिलता। हमारे घर में आज भी बेटी का कमरा खाली है, किन्तु वह कभी रात में रुकी ही नहीं। स्वप्निल कहता भी है कि दीदी के कमरे में मेरा सामान शिफ्ट कर लूँ, किन्तु मैंने मना कर दिया। वह भी तो हॉस्टल में रहता है। घर पर तो सेमेस्टर ब्रेक में ही आ पाता है। अब इस समय बेटी और दामाद ने आग्रह स्वीकार कर ही लिया। उनके बेटे नील की तोतली बोली से घर चहकने लगा है।
10 मई
स्वरा बहुत बदल गई है। हर बात में मुझे टोकती है और मेरे हर काम में मीनमेख निकालती है। कहती है कि “हमारे घर तो ऐसा होता है, आप भी ऐसा करो..” मुझे खुशी है कि उसने ससुराल को अपना घर बना लिया, किन्तु यह घर भी तो उसी का है। क्या वह भूल गई कि उसकी मम्मा सुपर वुमन है? क्या चार साल पच्चीस साल पर भारी पड़ गए?
20 मई
आज दोपहर में स्वरा का मोबाइल बजा। अमेज़न से नील के लिए सामान मंगवाया था। डिलीवरी बॉय को वह एड्रेस समझा रही थी… “नहीं! वहाँ नहीं, अभी मैं अपने घर पर हूँ, वही पुराने एड्रेस पर डिलीवरी दे दो।” मुझे खुशी हुई कि वह इस घर को अभी भी अपना समझती है।
पढ़कर आँखों के साथ मन भी भीग गया। एक पन्ने में सिमटे एक महीने ने मुझे पूरी ज़िन्दगी में अपने घर की पीढ़ी दर पीढ़ी बदलती परिभाषा समझा दी।

स्फूमैटो

“सुनो! तुम्हें बारिश में भीगना पसन्द है न?”
“नहीं, मुझे बारिश में भीगना पसन्द था।” था शब्द उसने कुछ जोर देकर कहा और मैं खुद को उसका अपराधी महसूस करने लगा।
मेरी नज़र ड्राइंग रूम में लगी मोनालिसा की तस्वीर पर ठहर गयी। वह पहले मुस्कुरायी, फिर मुस्कान फीकी हुई और फिर हँसी गायब और चेहरे पर उदासी छा गयी। न जाने क्यों, मुझे अंशु और मोनालिसा के चेहरे में साम्य प्रतीत हुआ। शादी के चार साल तक अंशु के चेहरे पर मुस्कान खिली रहती थी। धीरे धीरे वह फीकी होती गयी।
“इस बार हम कपल गरबा खेलने चलेंगे।”
अंशु की बात को मैंने नकार दिया था “ये सब बकवास मुझे पसन्द नहीं।”
“किन्तु.. शादी के पहले तो आप..” उसके चेहरे पर उत्साह का रंग आश्चर्य और निराशा में बदल गया।
“मेरी भोली अंशु! तुम पहले प्रेमिका थीं अब पत्नी हो, और फिर तुमने कभी सुना कि मछली पकड़ने के बाद मछुआरे ने उसे गोली खिलायी?” कहीं सुना हुआ चुटकुला उछालकर खुद को विद्वान समझने की भूल में उसके चेहरे के बदलते रंगों पर मैंने ध्यान ही नहीं दिया था, या शायद अनदेखा कर दिया था।
अंशु.. उत्साह से लबरेज़ और जिंदगी को खुलकर जीने वाली, कब मेरी नज़रों से दिल में उतरती चली गयी, और उसे पाने के जुनून में खुद को भूलकर मैं उसके रंग में रंगता गया, कभी जान ही नहीं पाया। शादी के बाद मैंने अपना मुखौटा उतार फैंका। अब वह मुझे भारी लगता था, लेकिन मैं अंशु के चेहरे पर चढ़ते मुखौटे को देख नहीं पाया।
हम दोनों एक थे, किन्तु अलग अलग रंग में रंगे हुए। अंशु को पाना मेरा लक्ष्य था, पूरा हो गया। उसे खुश भी रखना था, भूल गया। क्या इसी अंशु से मैंने प्यार किया था? वह बदल गयी थी, इसका कसूरवार मैं था। मैंने उसे जो सब्जबाग दिखाए थे, उन्हें सूखता देख वह भी मुरझाने लगी थी।
“सुनो! मुझे तुम्हारे साथ बारिश में भीगना पसन्द है।” मैं अंशु का हाथ पकड़कर बाहर ले आया। हम दोनों हाथों में हाथ लिए रेन डांस कर रहे थे.. उसके चेहरे पर उदासी का रंग पानी में घुलकर बह रहा था.. उसके अंदर से वही पुरानी अंशु झाँक रही थी.. मैंने देखा एक नया रंग.. प्यार का, विश्वास का, उल्लास का….
……..और फिर लियोनार्दो दा विंची को स्फूमैटो कौशल के लिए धन्यवाद देकर मैं अंशु के साथ उसी में खो गया…।

साझेदारी
“तुम मुझसे नाराज़ हो?” उसे बहुत हिम्मत जुटानी पड़ी थी, यह पूछने के लिए।
“नहीं… तुम्हें ऐसा क्यों लगा..?” वह एकदम सहज थी।
“मैंने तुम्हें धोखा दिया, फिर भी…” अब उसकी आँखों में विस्मय और गहरे उतर गया।
“प्यार में धोखा खाना मेरे लिए नई बात नहीं है…” वह अभी भी एकदम निश्चल थी।
“क्या…. पहले भी…..? लेकिन तुमने कभी बताया नहीं, कौन थी वह…?” अब विस्मय की लकीरें रोमा की आँखों से चेहरे पर उतर आयीं और माथे पर चिंता की लकीरें और गहरी हो गईं।
“वह सौरभ था, उसके धोखे से आहत होकर मुझे मर्द जाति से नफरत हो गई थी। प्यार का स्वाद चखने के बाद नफरतों में जीना आसान नहीं था, मेरी तन मन की चाहतें पूरी करने के लिए मैंने तुमसे झूठ बोला था, वह झूठ कब मेरा सच बन गया, मैं जान भी नहीं पाई, शायद मेरी ही तरह तुम्हारी भी कोई मज़बूरी रही होगी, कोई दर्द तुमने भी सहा होगा, इसलिए मुझे तुमसे कोई शिकायत नहीं है, मुझे खुशी है कि तुम स्ट्रेट हो…” स्निग्धा अभी भी शून्य में निहारती बोल रही थी।
“तुम्हारे पास धन संपत्ति है, किन्तु प्यार नहीं, मेरे पास प्यार है किंतु सिर के ऊपर छत नहीं… हम दोनों की ज़िंदगी की धारा विपरीत बहते हुए भी एक बिंदु पर आकर मिल गई… सौरभ की नफरत ने तुम्हें और आशीष की मोहब्बत ने मुझे लेस्बियन बनने के लिए मजबूर किया।” अब रोमा का विस्मय दर्द बनकर आँखों से बहने लगा।
“तुम्हें पता है, समाज में हमारे रिश्ते को हिकारत की नज़र से देखा जाता है, किन्तु किसी ने गहराई में झाँककर असलियत नहीं देखी… वृत्ति और मनोवृत्ति, प्राकृतिक और अप्राकृतिक के बीच एक झीना पर्दा होता है…” रोमा पहली बार चट्टान सी अडिग स्निग्धा को पिघलते हुए देख रही थी।
“हाँ और इस पर्दे के उठने पर मैं जान गई हूँ कि प्यार के साथ दर्द भी साझे हो सकते हैं…” रोमा ने स्निग्धा के विचारों के प्रवाह को बाधित करते हुए उसका हाथ पकड़ लिया।
दोनों देर तक एक दूसरे के स्पर्श को अनुभूत करते हुए साझे दर्द में भीगती रहीं।


खामोशी बोलती है

“नीति अभी तक नहीं लौटी..” सुधा की गेट पर चिपकी आँखे उसकी चिंता बयां कर रहीं थीं।
“आ जाएगी, तुम्हारी समझदार और लायक बेटी वही तो है” भुवनेश निश्चिंत थे।
परन्तु वह बेचैन हो रही थी… नीति उसकी छोटी बेटी वाकई जरूरत से ज्यादा समझदार है। बड़ी बेटी प्रीति जिद्दी और गुस्सैल है।
“मम्मा ये टॉप कितना सुंदर है, मुझे चाहिए ही..” प्रीति ने उसकी अधिक कीमत जानकर भी जिद की थी और सुधा को वह खरीदना पड़ा था। तब नीति ने कितनी आसानी से खुद के लिए पसन्द की हुई ड्रेस रिजेक्ट कर दी थी। सुधा बेटी की समझदारी पर खुश हो गयी थी।
प्रीति की आवाज़ और नीति की खामोशी घर की पहचान बन चुकी थी। खाने में भी प्रीति अपनी पसंदीदा डिश जिद कर बनवाती और नीति चुपचाप दीदी की पसन्द को अपनी पसन्द बनाती रही।
प्रीति कई बार देर से लौटी, तब इतनी चिंता नहीं हुई थी, शायद उसकी बेतरतीबी की आदत हो गयी थी। दोनों बहनें एक ही कमरे में रहती किन्तु बेड और स्टडी टेबल को देखकर ही पहचाना जा सकता था कि कौन सा हिस्सा किसका है। सुधा भी हमेशा नीति की तारीफ करते हुए प्रीति की जिंदगी को संवारने का प्रयास करती रही। नीति को भी उसकी जरूरत हो सकती है, यह सोचने का मौका कभी मिला ही नहीं।
इसीलिए आज उसका समय पर नहीं लौटना बेचैन कर रहा था। मोबाइल भी स्वीच ऑफ आ रहा था। अचानक से मैसेज नोटिफिकेशन ने ध्यान भंग किया..
“मम्मी! मेरा इंतज़ार मत करना, आपने हमेशा दीदी को ही पैम्पर किया है, मैं तो आपकी जिंदगी में होकर भी नहीं हूँ। मैं हमेशा इंतज़ार करती रही कि आप मेरा वार्डरोब भी जमाओ, मेरी चादर की सलवटें भी निकालो या कि मेरी किताबें ठीक करते हुए कभी उसमें रखा गुलाब भी देखो और बिना कहे ही मेरी पसंदीदा डिश मेरे सामने परोसो… पर….. आपका फोकस दीदी पर ही रहा हमेशा… नीरव मेरा बहुत ध्यान रखता है.. मैंने अपनी जिंदगी उसके साथ बिताने का फैसला कर लिया है क्योंकि वह मेरे बिना कहे ही मेरी हर बात समझता है। मैं चाहती तो आपसे मिलवा भी सकती थी, फिर लगा कि मेरी जिंदगी में आपने दखल नहीं दिया, कभी झांका ही नहीं… इसलिए उससे शादी कर रही हूँ। माँ आपका इंतज़ार करूँगी… बाय..”
आज सुधा को पहली बार प्रीति की आवाज़ से ज्यादा नीति की खामोशी का शोर सुनाई दिया।


भक्ति
मैं हिचकोले खाते हुई आगे बढ़ रही थी। अतिवृष्टि से खस्ताहाल हुई सड़क से गुजरते हुए रफ्तार काफी धीमी थी। इस घाट के रास्ते से मैं रोज ही गुजरती हूँ और गन्तव्य से थोड़ा पहले कनिया भील की टूटी झोंपड़ी के आगे रुकती भी हूँ।
“अरे! दरगाह आ गयी, जुम्मे की नमाज़ पढ़नी है।” कुछ आवाज़ें आयीं और मुझे रुकना पड़ा।
“मेरे बच्चे को बुखार है, प्लीज जल्दी चलिए..” उस माँ की करुण पुकार से मैं द्रवित हो गयी किन्तु अल्लाह के बंदों को फर्क नहीं पड़ा।
आगे एक हनुमानगढ़ी थी। रोज़ ही दिखती है, किन्तु अली के साथ बजरंगबली को मनाना भी जरूरी था। प्रतिस्पर्धा का जमाना है। एक को खुश और दूसरे को नाराज़ कैसे किया जा सकता था।
“मुझे देर हो रही है… प्लीज रुकिए मत, मेरी ट्रैन छूट जाएगी।” एक और कातर पुकार… मैंने देखा कि मेरा चालक कुछ बेचैन था। मैं बेबस थी।
“आज कनिया भील को मत्था टेके बिना ही चलते हैं, देर हो गयी।” परिचालक की बात सुनकर चालक ने सहमति में सिर हिलाया।
“कनिया भील… ये कौन है..?” एक नयी आवाज़ थी।
“नए लगते हो इस इलाके में… वरना कनिया भील को कौन नहीं जानता?”
“जी हाँ पहली बार ही आया हूँ और इस ऊबड़ खाबड़ रास्ते को देख परेशान भी हूँ।”
“अब तो बहुत सुधर गया है ये रास्ता, जब आज़ादी के दीवाने इस कच्ची और संकरी पगडंडी से देशभक्ति के नारे लगाते हुए गुजरते थे, तब कनिया भील अपनी झोपड़ी से उन्हें देख इतना प्रभावित होता था कि दिन भर रास्ते से कंकर और काँटे चुनता, सूखे पत्ते इकट्ठे कर रात में जलाता, ताकि देश पर मर मिटने वालों के पैरों में घाव न हों और सर्द रातों में गर्मी और रोशनी मिले… उन सेनानियों के नाम इतिहास में दर्ज हैं किन्तु कनिया का नाम सिर्फ इस इलाके के रहवासियों के दिलों में, यह स्थान हमारे लिए मंदिर और मस्ज़िद से ज्यादा पवित्र है।”
उस मोड़ से गुजरते हुए आज चालक ने मुझे रोका नहीं, किन्तु कनिया भील को याद कर मैं थोड़ा झुकी और हिचकोला खाकर रुक गयी।
“बस को भी आज ही खराब होना था.. पहले ईश्वर-अल्लाह और अब ये… आज तो पता नहीं क्या होगा..?”
आवाज़ें गूँजने लगीं… “मैं देखता हूँ… डीज़ल तो है… टायर सही है… मेरा बच्चा… मेरी ट्रैन.….”
दो बूंदे डीज़ल की श्रद्धांजलि के रूप में टपका कर… मैं फिर स्टार्ट हो गयी… अपने आप… यही तो कनिया भील ने सिखाया था… निःस्वार्थ सेवा में निमग्न रहकर अपने कर्तव्य पथ पर सतत चलते रहना…..!

वंदना गुप्ता, उज्जैन
********

ईश्वर कुछ न कर सका”
बात तब की है जब ईश्वर स्वर्ग में बैठा दुनिया बना रहा था।
दुनिया बन जाने के
बाद जब उसे रंगने की बारी आई तो अचानक ईश्वर ने कुछ कोलाहल सुना। आवाज़ रंगों के डिब्बे से आ रही थी। सब रंग दुनिया में जाने को उतावले थे।
मुस्कुरा कर ईश्वर ने डिब्बा खोला और तूलिका उठाई।
सबसे शांत दिखने वाले नीले रंग को सारा आकाश मिला। पीला रंग मिट्टी के हिस्से में आया। आंखों को लुभाने वाले हरे रंग ने पेड़ – पौधों और वनस्पति का राज पाया।
जब इंसान रंगने की बारी आई तो अच्छी – खासी जद्दोजहद हुई।
ईश्वर को गुलाबी, गेहुंआ, सांवला, भूरा, गंदुमी, गोरा, काला, बादामी सभी रंगों की बात सुननी पड़ी।
फ़िर भी रंग भेद से सब लड़ें नहीं, यह सोच कर सबमें लाल ख़ून भरा गया।
सब रंग आपस में मिल कर रहें, यह संदेश देने के लिए आकाश में सात रंग का इंद्रधनुष टांगा गया।
इंसान की ख़ुशी के लिए सैंकड़ों रंग फूलों को मिले।
– “अच्छा अब बताओ, इंसान के दुःख में कौन सा रंग साथ देगा?” ईश्वर ने पूछा।
सब चुप। कोई आगे न आया। सबको जैसे साँप सूंघ गया।
विवश होकर ईश्वर को “आंसू” बिना रंग के बनाने पड़े, रंगहीन!

उड़ान
एक बार एक आदमी को स्वप्न में एक तोता दिखा।
खास बात ये थी कि वह तोता बोलता था और वह बात कर रहा था। बात भी आम तोतों की तरह नहीं कि बस जो सुना, दोहरा दिया। बाकायदा वह तोता अपनी बुद्धिमत्ता का प्रयोग कर रहा था और प्रभावशाली मौलिक बातें कर रहा था।
उसने आदमी को प्रस्ताव दिया कि वह तोते से कुछ मांग ले, क्योंकि वह तोता उसे देने में सक्षम है।
आदमी ने अवसर का लाभ उठाना श्रेयस्कर समझा। उसने तुरंत तोते से कहा कि वह लगातार अंतरिक्ष में घूम कर धरती को देखते रहना चाहता है।
तोते ने कुछ सोचकर पूछा – “वह ऐसा कितनी देर के लिए करना चाहेगा?”
आदमी ने कहा – “अनंत काल तक!”
अचानक तोते की जिज्ञासा बढ़ी, वह बोला – “मैं ‘तथास्तु’ कहूंगा, किन्तु मैं यह जानना चाहता हूं कि तुम आख़िर धरती में ऐसा क्या देखना चाहते हो जो तुम्हें अंतरिक्ष से ही दिखाई देगा?”
आदमी बोला – “मैं एक चरवाहा हूं, जब मेरी बकरियां चरती – चरती इधर -उधर निकल जाती हैं तो उन्हें ढूंढने में मुझे बड़ी परेशानी होती है।”
तोता तुरंत बोला – “ओह, यह आसान है, पर तुम इस अवसर को खो दोगे।”
आदमी मायूसी से बोला – “लेकिन क्यों?”
तोते ने कहा – “अभी तुम नींद में हो, जागते ही तुम मेरी शक्ति का प्रताप खो दोगे, और अभी तो तुम्हारी बकरियां तुम्हारे बाड़े में ही बंधी हैं, क्या तुम अनंत काल तक सोना चाहोगे?”
आदमी की नींद और तोता, दोनों उड़ चुके थे।


“कानून”
चूहों ने एक सभा की। कई अनुभवी चूहों ने भाषण दिए। एक अत्यंत बुजुर्ग चूहे ने कहा – “कानून का राज सबसे अच्छा होता है। कानून से सब डरते हैं और अपराध नहीं करते।”
बात सभी को पसंद आई। आख़िर सर्वसम्मति से कानून बनाया गया कि अब से किसी चूहे को खाना कानूनन अपराध माना जायेगा और इसके लिए उम्र कैद तक सज़ा हो सकेगी।
अब बेचारी बिल्ली को क्या मालूम, कानून क्या है, तो जैसे ही उसने झपट्टा मारकर एक चूहे को उदरस्थ किया, झट पुलिस आ गई।
बिल्ली पर मुकदमा चला और उसे जेल हो गई।
बिल्ली ने जेल में रोटी खाने से साफ़ इंकार कर दिया। तब प्राणी अधिकार आयोग के दबाव में आकर जेलर साहब को निर्देश दिया गया कि बिल्ली के लिए जेल में रोज़ सुबह – शाम चूहे परोसे जाएं।


“वोटर”
एक बार जंगल में घूम रहे शेर से आसमान में उड़ते एक परिंदे ने पूछा – “क्यों भाई, तू किस बात पर दहाड़ता रहता है, तेरे जबड़े दुखते नहीं?”
शेर ने कहा – “मुझमें ताक़त का घमंड है, मेरे स्वभाव में श्रेष्ठता की गर्मी है, मुझे अच्छा लगता है सबको अपनी उपस्थिति का एहसास कराते रहना!”
पंछी बोला – “ये सब तो ठीक है मगर याद रख, तू सूरज के टुकड़े पर रहता ज़रूर है, लेकिन वो ठंडा हो चुका है।”
शेर ने कहा – “तू जानता है न मैं कौन हूं?”
– “हां, राजा है, पर मेरा नहीं… जानवरों का!” पक्षी ने लापरवाही से कहा।
– “तो तेरा राजा कौन है?” शेर ने आश्चर्य से पूछा।
– “मोर!” परिंदा बोला।
शेर ने सोचा इसके मुंह लगना ठीक नहीं, इसे मेरी कोई बात पसंद नहीं आयेगी, वैसे भी, ये मेरा वोटर तो है नहीं!” शेर अपने रास्ते पर बढ़ गया।

श्रम
एक बार एक निर्जन टापू पर एक हरे – भरे पेड़ पर एक बगुला कहीं से भटकता हुआ आ बैठा। कुछ देर इधर – उधर देखने और व्यवस्थित हो लेने के बाद उसके जेहन में आया कि इस समय फुरसत का आलम है, तबीयत भी चाक चौबंद है, क्यों न कुछ सार्थक किया जाए।
उसने मन ही मन निश्चय किया कि वह आज अपने चारों ओर दिख रहे दृश्य की किसी भी एक समस्या को हल करके ही भोजन ग्रहण करेगा। उसे अपना विचार उत्तम लगा और इस बात पर उसे गर्व हो आया। उसने बारीकी से चारों ओर देखना शुरू किया ताकि समस्या को चुन सके।
उसने देखा कि पानी के किनारे की रेत में सूरज की तेज़ किरणें पड़ने से बार बार बाहर झांक रहे एक केकड़े को बड़ी पीड़ा हो रही है और वह मिट्टी से बाहर नहीं आ पा रहा है।
बगुले ने आलस्य छोड़ कर उड़ान भरी और केकड़े के ऊपर इस तरह मंडरा कर फड़फड़ाने लगा कि उस पर धूप न पड़े। सचमुच इसका असर हुआ, केकड़ा बाहर निकल कर रेत पर रेंगने लगा।
बगुले को प्रबल संतुष्टि हुई। उसके अंतर्मन से आवाज़ आई कि तुमने आज अपने हिस्से का श्रम पूरा कर दिया है, अब तुम संसार से भोजन पाने के पात्र हो।
बगुले ने एक भरपूर अंगड़ाई ली और झपट्टा मारकर केकड़े को खा गया।

* * *

प्रबोध गोविल, जयपुर , राजस्थान

गुलाम

हफ्ते में एकदिन, इतवार-की इतवार पढ़ाई जाने वाली हिन्दी की वर्णमाला का अभ्यास करते हुए सात साल की बेटी ने पूछा- ” पापा हम हिन्दी क्यों पढ़ते हैं ?”
” क्योंकि यह हमारी मातृभाषा है।”
” मातृभाषा क्या होती है?”
” मां की बोली- हमारी अपनी बोली ; जो हम अपने घरों में बोलते हैं।”

” फिर अंग्रेजी..?”.बेटी की अगली जिज्ञासा थी। ” फिर हम अपने घर में अंग्रेजी क्यं बोलते हैं…?”

” अंग्रेजी, अंग्रेजों की भाषा है, जिसे वह अपने साथ हिन्दुस्तान… हमारे घरों और विद्यालयों में ले आए थे। जहाँ-जहां अंग्रेज गए, वहीं अंग्रेजी भी गई। सैकड़ों साल हिन्दुस्तान अंग्रेजों का गुलाम रहा। कई-कई लड़ाइयां हुईं, लोगों ने बड़ी-बड़ी कुर्बानियां कीं, तब कहीं जाकर बड़ी मुश्किल से हिन्दुस्तान से अंग्रेजों को खदेड़ कर इंगलैंड वापस भेज पाए। तुम्हारे दादा जी ने भी यह लड़ाई लड़ी थी।”- मैने उसे गर्व से बताया।

” अच्छा। … तो क्या हम अभी भी इनके गुलाम हैं और इसीलिए ये हमें पकड़कर अपने साथ यहां ले आए हैं!”

बेटी की बालसुलभ जिज्ञासा और निष्कर्ष पर मैं अब निरुत्तर था।…

अपराधी
वह खुदको इस वातावरण में कैद और डरा-डरा महसूस कर रहा था । लालच का इतना असभ्य और आक्रामक रूप कम से कम सभ्य कहे जाने वाले अपने इस देश में तो उसने नहीं ही देखा था। वह आश्चर्य और अवसाद में डूब चुका था। जिन लोगों ने लूटपाट शुरू की थी वह अपने कद से भी ज्यादा उंची लूट बांहों में भरे, लोगों को रौंदते-फांदते बाहर दौड़ गए। अब कोने- कोने से सीक्योरिटी अलार्म कान फोड़ू आवाज कर रहे थे और हर आदमी तुरंत ही बाहर निकलना चाहता था परन्तु आम आदमी का बाहर निकलना मुश्किल से मुश्किलतर् होता जा रहा था। अनायास मची इस भगदड़ से अब एक उत्तेजित वातावरण था चारोतरफ, फिरभी अधिकांश सभ्य शहरी शांति बनाए रखने में पूरा सहयोग कर रहे थे और कतार बद्ध ही बाहर निकल रहे थे फिर भी थोड़े भयभीत लोगों की वजह से कुछ धक्का-मुक्की तो थी ही।
इस रेलमपेल में अचानक बटुआ उसके हाथ से छूटा और नीचे गिर गया। रकम थोड़ी सी ही सही, पर वह जो कि पिछले चार साल से बेकार था बटुए में रखी हफ्ते भर की सोशल सीक्योरिटी के पैसों का बहुत महत्व था उसके लिए। झुककर बटुआ ढूंढने लगा तो लोगों के पैरों से रुंदते एक गरम ऊनी स्वेटर पर नजर जा गिरी। इसके पहले कि स्वेटर लोगों के पैरों के नीचे घिसट-घिसटकर फटे, उसने झटपट स्वेटर भी बटुए के साथ उठा लिय़ा और बाहर निकल आया, हड्डियां कड़कड़ाती ठंड में पड़ोस की बुढ्ढी नेली के बहुत काम आएगा यही गुनता बुनता। अभी मुश्किल से बाहर आ ही पाया था कि सीक्योरिटी गार्ड ने धर दबोचा और गिरफ्तार कर लिया। वह शर्म से जमीन में गड़ा जा रहा था क्योंकि अपराध न करने वाला, नेक इरादों वाला नागरिक होकर भी , कमजोरी के उस एक पल में, भावावेश में, वह भी तो अपराध में भागीदार हो ही गया था। खुद पकड़े जाने से ज्यादा अफसोस उसे इस बात का था कि जिन्होंने वाकई में स्टोर लूटा था वे सब तो कबके पहुंच से दूर आंखों से ओझल हो चुके थे और गार्ड खुश थे कि ड्यूटी पूरी हुई और कानून में देने को कम-से-कम एक अपराधी तो पकड़ा उन्होंने।…

व्रत
व्रत की तैयारियां बहुत जोर-शोर से चल रही थीं। मीना ने खाना बहुत मन से बनाया था। मालिक-मालकिन का व्यवहार और एक दूसरे के प्रति प्यार और सत्कार उसके मन को भी दिनरात एक अनोखी शांति और पुलक से भरे रखता। बहुत ही धर्मनिष्ठ और धर्म-कर्म में पूरा विश्वास करने वाली थी मीना। एक अच्छे पति, भरी-पूरी गृहस्थी के सपने देखने वाली औसत लड़की। शादी की पहली साल ही मां ने बताया था उसे कि पति की लम्बी आयु और सात जन्मों के साथ के लिए सुहागिनें इस व्रत को रखती हैं और मां के कहने पर उसने भी तो बेहद नियम और श्रद्धा से व्रत रखा था। यहां मालकिन ही नहीं, मालिक भी तो मालकिन के लिए करवा चौथ का व्रत करते हैं। उसने दो पूजा की थालियां पूरे मनोयोग से तैयार कर दीं।
“दीदी पूजा और सरगी की सब तैयारी कर दी है। कल करवा चौथ है न! ”
” हां। पर तुम भी तो करोगी ना, व्रत? तुम्हारी थाली कहां है ? ”
” नहीं। इस बार से नहीं। ” एक फीकी हंसी के साथ उसने जवाब दिया।
” क्यों, ऐसी क्या बात हो गई …. ऐसा कैसे कर सकती हो तुम ? ” मालकिन पूछे बिना न रह सकीं।
” आप ही बताओ, इस पति को अगले सात जनम तक क्यों लेना चाहूंगी, मैं भला? रवैया या व्यवहार; किसी में तो फरक नहीं आया, शादी के दस साल बाद भी! घर परिवार, मेरा, किसी का भी ध्य़ान नहीं इसे। काम का न काज का, ढाई मन अनाज का ! चौबीसो घंटे शराब सिगरेट की लत सो अलग।”
नम आंखों को पल्लू से छुपा, मालकिन को पूरी तरह से चौंकाते हुए, मीना ने अपना व्रत जितनी श्रद्धा से शुरू किया था, उतनी ही दृढ़ता से छोड़ भी दिया।

-साल में बस एकबार-
‘अरे, वह गांधी जी की तस्बीर निकली नहीं अभीतक, वही बड़ी वाली! साल में एकबार ही तो जरूरत पड़ती है, वह भी नहीं हो पाता तुम लोगों से। सबकुछ मैं ही करूँ? कब पल्ली बिछेगी, बाकी इन्तजाम होगा, लोगों के आने का वक्त हो चला! ‘
महापौर शिवमोहन जी का मानना था कि गांधी और गोडसे दोनों ही सही थे, कि आदमी नहीं वक्त सही और गलत होता है । इसलिए जिनके भक्तों के बीच होते उन्ही के गुण गाते। आज गांधी दिवस मन रहा था और वह परेशान व नाराज थे कर्मचारियों पर और तेजी से आगे बढ़ती घड़ी की सूँई पर भी। अभी तक गांधी जी चौकी तक पर नहीं बिराजे।
‘तस्बीर तो निकाल ली थी पापा, पर सामान के संग कोठरी में पड़ी-पड़ी तिरक गई है जरा-सी। सोच रहा था तिरकी तो ठीक नहीं लगेगी और अब इतनी जल्दी कांच बदलवाना भी संभव नहीं।‘
बेटे ने दबी जुबान से समझाना चाहा।
‘वाह बेटे, वाह। शरम आती है कि तुम मेरे बेटे हो। कहाँ , कब क्या कहना और करना चाहिए, कोई शऊर नहीं है तुम्हे। सब ठीक लगेगी । फूल माला से ढक दो तिरकी जगह। दो माला और चढ़ा देना। जिन्दा तो नहीं, कि कांच चुभने का डर हो, एक-आध खरोंच और भी आ जाए तो भी क्या फरक पड़ता है? एक-दूसरे को देखते हैं लोग ऐसी भीड़भाड़ में, तस्बीर तो बस रख दी जाती है। ‘
इसके पहले कि गणमान्य अतिथियों का आना शुरु हो जाए, बात को वहीं खतम करते हुए महापौर जी आगे बढ़े और आदमकद शीशे में खुद को परखते व मुस्कुराते हुए बाल व खद्दर के कुरते पर पड़े मंहगे शॉल को सुव्यवस्थित करने लगे।

भय
पति की मृत्यु हो चुकी थी। बच्चे पहले मौके पर ही घोंसला छोड़कर उड़ चुके थे। मधुमेह की बीमारी से पीड़ित पिचहत्तर वर्षीय सामने वाली मिसेज सिंह नाम, पैसा, इज्जत, सबकुछ के बावजूद महल से घर में अकेली ही रहती थीं।
बातों-बातों में उन्होंने बताया कि – ‘ मेरा पैर ठीक से नहीं उठता और चलने में बेहद तकलीफ होती है। समझ में नहीं आता क्या करूँ?’
‘ऐसे में तो आपको अकेले नहीं रहना चाहिए। बेटा या बेटी जिसपर भी ज्यादा भरोसा हो उसके ही पास जाकर रहें।‘ उनके गिरते स्वास्थ को देखकर मैंने चिंता व्यक्त की।
‘पर, चारो ही तो काम पर जाते हैं। न संभाल पाए तो डरती हूँ कहीं ओल्ड पीपल होम या बुढ्ढों के अस्पताल में न भरती करा दें मुझे। यहाँ अपने घर में मन-माफिक तो रहती हूँ। आजाद तो हूँ, मैं। ‘
‘ऐसी बात है तो मदद के लिए चौबीसो घंटे की नौकरानी रख लें देखभाल के लिए। जाने कब क्या जरूरत पड़ जाए! आपके पास किस बात की कमी है!‘
‘क्या है ऐसी कोई तुम्हारी निगाह में, जो अपनों की तरह मेरी देखभाल कर पाए? जितना मांगेगी उतना दूंगी मैं।‘ एकाकी और असुरक्षित वह अब रुँआसी हो चली थीं ।

पत्थर
हालचाल लेने के लिए नानी ने फोन किया तो तीन साल की सोनू ने ही फोन उठाया।
‘कैसी है मेरी गुड़िया?’ पूछने पर चहक कर तुरंत ही बोली, ‘ अच्छी हूँ,नानी।
‘ क्या कर रही है मेरी सोनू ?’ लाड़भरी नानी की आवाज टेलीफोन पर ही सही, सोनू को बहुत अच्छी लगती थी।
‘ मैं पापा के संग किताब पढ़ रही हूं और मम्मी किचन में खाना बना रही है।’
सुनकर बहुत अच्छा लगा उन्हें, पर विश्वास नहीं हुआ कि दोनों व्यस्त जूनियर डॉक्टर मां-बाप, दिन में इस समय इसके पास थे !
अब तक रिसीवर मीना ( नौकरानी) ले चुकी थी।
‘ आज साहब, मेमसाहब दोनों घर पर ही हैं….छुट्टी ले रखी है क्या? ‘ उनका जोश और जिज्ञासा भरा अगला सवाल था।
‘ कहां, मम्मी जी, कोई नहीं है घर पर। बस, ऐसे ही मनगढ़न्त कहानियां सुनाती रहती है बेबी दिन भर ! ‘
मीना ने हल्की हंसी के साथ तुरंत ही बात आयी-गयी कर दी।
निरुत्तर थीं नानी। गले में कुछ पत्थर सा जो आ फंसा था।
रुंधे गले से बोलीं ,’ अच्छा, बेबी का ध्यान रखना। खेल भी लिया करो, थोड़ा-बहुत इसके साथ बीच-बीच में ! ‘

शैल अग्रवाल
Sutton Coldfield, U.K.
email: shailagrawal@hotmail.com

********


दरख्त
“आप कहते हैं कि घर के बाहर खड़े आपके दरख्त को ये अपने घर उठा ले गये!”
“जी हुजूर!”
“किस फल का दरख्त था?”
”फलदार नहीं था हुजूर!“
“किसी फूल का था?”
“वह फूलों वाला भी नहीं था!”
“ओह! तो उसके पत्ते काम आते होंगे?”
“वर्षों से सूखा खड़ा था जनाब; लेकिन था तो हमारा ही!”
‘हम्म्म्… ईंधन का लालच!’ सोचते हुए मजिस्ट्रेट ने प्रतिवादी से सवाल किया, “आपको कुछ कहना है?”
“बीवी-बच्चों ने उसकी सेवा-टहल करना, उसे खाद-पानी देना शुरू किया है हुजूर!” प्रतिवादी ने कहा, “कोंपलें फूटने की उम्मीद-सी जागी है। इसकी तरफ गया तो…!”
“हमारी तरफ जिये या मरे… “ यह सुनते ही पहला दूसरे पर बिफर पड़ा, “हमारा बुजुर्ग पड़ोसी के टुकड़ों पर पले, यह बेइज्जती हम सह नहीं सकते!”
मजिस्ट्रेट आँखें फाड़कर उनकी ओर देख उठा। अकेला और बेगाना-सा, ऐसा ही एक दरख्त उसके अपने बरामदे में भी पड़ा है, वर्षों से!

‘फलसफा’
“आप एक असन्तुष्ट कौम हैं।”
“कैसे?”
“आप जिस भी मुल्क में हैं, वहीं सामने वाली कौम से खफा हैं।”
“यानी सामने वाली कौम हमारे मजहबी मामलों को नेस्तनाबूद करने की कोशिश करती रहे और हम चुप बैठे रहें?”
“जिस मुल्क में सिर्फ आप ही आप हैं, वहाँ अपने ही लोगों से खफा हैं!”
“गरज यह कि हम जाहिलों को काफिरों-जैसी हरकतें करते देखते रहें और चुप रहें?”
“कमाल है यार! बाकी कौमें भी हैं न दुनिया में! अकेले आपको ही चुप रहने से इतना गुरेज क्यों है?”
“वाह मियां! हम कहाँ-कहाँ रहते हैं, क्या-क्या करते हैं, आप हमारी हर हरकत पर नजर रखे हुए हैं और उम्मीद करते हैं कि हम चुप रहें?”


‘गुलाब’—
जैसे ही गाड़ी को पार्क के किनारे रोका, एक कैशोरुन्मुख लड़की ने खिड़की के बंद शीशे को ठकठकाया। उसके एक हाथ में गुलाब के नन्हें-नन्हें अनेक गुलदस्ते थे। एक-एक खिली-अधखिली कली को उसकी लम्बी टहनी से काँटे तराशकर हरी पत्तियों समेत पारदर्शी पन्नी में शंक्वाकार गुलदस्ते का रूप दिया गया था। नीरजा ने दरवाजा खोला और बाहर आ खड़ी हुई।
“गुलदस्ता लो न मेमसाब, “ दूसरी ओर ड्राइविंग सीट से उतरकर बाहर आ खड़े सृंजय की ओर इशारा करते हुए उसने तुरन्त ही उससे विनती की, “साब को देने…।”
“साब को देने के लिए!” नीरजा ने मुस्कुराते हुए पूछा, “क्यों?”
“प्या…ऽ…र… “
“अच्छा! हमें तो पता ही नहीं था आज तक कि प्यार फूल देकर भी जताया जाता है!!” वह मजाक करती-सी बोली, “तुमने दिया है किसी को?”
जवाब में लड़की कुछ नहीं बोली।
“तुम्हें दिया है किसी ने?”
वह इस पर भी चुप रही। नजरें नीची करके शरमाते हुए नकारात्मक सिर हिला दिया, बस।
“नाम क्या है तुम्हारा।” नीरजा ने पूछा।
“सायना।”
“बहुत सुन्दर। एक गुलाब कितने का है सायना?”
“पचास का जोड़ा।”
“जोड़ा नहीं, ‘एक’ कितने का है?”
“एक फूल तो अकेला छोरा या अकेली छोरी ही खरीदे है।” उसने दलील दी, “आप तो दोनों साथ हो, दो लो…।”
“क्यों?”
“एक फूल आप साब को दोगी, एक साब आप को देगा।” उसने समझाया।
“ठीक है; पर… पहले तुम एक ही फूल मुझे दो।” नीरजा ने उससे कहा।
लेकिन इस बात पर ध्यान दिए बिना उसने तुरन्त एक जोड़ा गुलाब नीरजा के हाथ में पकड़ा दिया। नीरजा ने भी इंकार नहीं किया। पर्स की जेब से निकालकर पचास रुपए का नोट उसके हाथ में थमा दिया। फिर हाथ में पकड़े गुलाबों में से एक को उसकी ओर बढ़ाकर वह बोली, “आज तक तुम्हें किसी ने गुलाब नहीं दिया न। यह लो, आज मैं तुम्हें देती हूँ… लव यू सायना!”
यह सुनकर लड़की ने एक नजर अपनी ओर बढ़े ताज़ातरीन गुलाब पर डालते हुए नीरजा के चेहरे को देखा। फिर पैर के अँगूठे से जमीन को खुरचते हुए धीमे-से बोली, “छोरी थोड़े ही ना छोरी को ऐसा बोले है…।”
“तो?”
“छोरा बोले है… इनसे दिलवाके बुलवाइए!” भवों से सृंजय की ओर इशारा करके उसने शरमाते हुए कहा और मुट्ठी में पकड़े गुलाबों के गुच्छे से अपने मासूम चेहरे को ढाँपकर दूसरी ओर मुँह करके खड़ी हो गई।

‘चौराहे पर राजाराम’ —
“कुल मिलाकर तो सारी सड़कें एक-सी ही हैं न राजाराम।” दलाल कह रहा था, “फिर क्यों इलाका बदलवाने पर अड़े हुए हो!” दलाल उसका सरनेम है। चतुराई और चापलूसी के चलते, विभाग में काम भी वैसा ही पकड़ लिया है।
“अड़ा हुआ नहीं हूँ सर, बाल-बच्चों वाला हूँ, प्रार्थना कर रहा हूँ।” राजाराम ने हाथ जोड़कर कहा, “सारी सड़कें एक-सी नहीं हैं, आप अच्छी तरह जानते हैं।”
“हाँ, सो तो है, ” दलाल ने चुटकी ली, “कुछ सड़कें चेचक के बड़े-बड़े धब्बों वाली हैं और कुछ स्लीवलेस ब्लाउज से बाहर जगमगाती जमनाबाई की बाँहों-सी एकदम चकाचक… चिकनी और फर्राटेदार!”
“मजाक में मत उड़ाइए सर,” राजाराम ने दबे अंदाज में कहा, “कुछ सड़कें लक्ष्मी के वरदहस्त जैसी भी हैं…”
“ठीक है, इधर-उधर की बातें बंद, सीधे मुद्दे पर आते हैं…” कुर्सी पर शरीर को ठीक से जमाते हुए दलाल ने कहा, “कौन-सा इलाका चाहिए, बताओ?”
“लाल बाग चौराहा।”
“क्या!… लाल बाग चौराहा?” कुर्सी से उछल ही पड़ा दलाल; बोला, “रेट पता है उसका?”
“पता तो नहीं है सर, लेकिन जितना कहेंगे, मैं कर दूँगा!” राजाराम हाथ जोड़कर घिघियाया।
“पर मंथ लाखों है लाखों!… और छह महीने के एडवांस से कम पर नहीं बिकता है वो, समझे?”
“गाँव में अपने हिस्से की जमीन भाईयों को बेचकर एडवांस पहुँचा दूँगा सर!” राजाराम बोला, “करा दीजिए, प्लीज!”
दलाल ने कुछ देर सोच में पड़ने का नाटक किया। फिर दुविधा से निकलता-सा बोला, “चलो… लाल बाग चौराहा अगले महीने की पन्द्रह तारीख से छह माह के लिए तुम्हारा। शर्त यह है कि इस महीने की आखिरी तारीख तक छह लाख इस मेज पर रखे मिलने चाहिए! ओके?”
“हन्ड्रेड परसेंट ओके सर, बहुत-बहुत मेहरबानी!” कृत-कृत्य राजाराम ने तगड़ा वाला सेल्यूट दलाल के लिए ठोंका और बेटी का रिश्ता पक्का हो जाने जितना खुश होकर हवा में उड़ता-सा उसके ऑफिस से बाहर निकला।

‘अपने अपने आग्रह’—
“तुझे मेरा नाम मालूम नहीं है क्या?” वह उस पर चीखा।
“है न—रामरक्खा!”
“रामरक्खा नहीं, अल्लारक्खा।”
“एक ही बात है।”
“एक ही बात है तो अल्लारक्खा क्यों नहीं बोलता है?”
“मैं तो वही बोलता हूँ भाई। तुझे पता नहीं, कुछ-और क्यों सुनाई देता है!”

बलराम अग्रवाल

error: Content is protected !!