मंजुला दूषी, सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा, अनिता रश्मि, शेख़ शहज़ाद उस्मानी


ठंड
मम्मा आज स्कूल नहीं जाना, कितनी ठंड है, और बारिश भी हो रही है” गुड्डू नें रजाई खींचते हुए कहा।
“अल्ले मेरा बच्चा ठीक है सो जा, वाकई बाहर बहुत ठंड है।” कहते हुए मधु कमरे की लाइट बंद करके बाहर आ गई।
“कमली देख ज्यादा शोर ना करना, बाबा सो रहे है, इस बार कुछ ज्यादा ही ठंड पड़ रही है, तेरी बेटी कहाँ है?”
“स्कूल गई है मेमसाब” कमली नें झाडू लगाते हुए कहा”
“अरे क्यों भेज दिया इतनी ठंड़ में, उसपर तू कह रही थी कि उसके पास स्वेटर भी नहीं है” मधु नें रूम हीटर पर हाँथ सेकते हुए कहा।
“आज ठंड मे स्कूल जाएगी तो कम से कम कल को अपनें बच्चों के लिए रजाई और स्वेटर का इंतजाम कर पाएगी.. वरना मेरी तरह ही..”कहते हुए कमली के शब्द गले में ही जम गए|

आवरण
अरे मीनू सुना तूने दो घर छोड़कर जो मिसेज वर्मा रहती हैं ना ,वो पागल हो गईंं है”
“अच्छा तुझे कैसे पता”मीनू नें आश्चर्य से पूछा
“अरे उसके घर वाले बता रहे थे,कह रहे थे आजकल अपनी मर्जी से सोती है,अपनी मर्जी से जागती है,झल्ली बनकर घूमती है,अपनी पसंद का खाना बनाकर खाती है,और तो और कभी बच्चों की तरह खिलखिला कर हंस पडती है,तो कभी किसी के कुछ कहनें पर ज़ोर ज़ोर से रोने लगती है।सुना है वो लोग उसे दिमाग के डाक्टर के पास ले जाने वाले हैं”
मीनू सोच में पड़ गई “ओह बेचारी मिसेज वर्मा, लगता है उन्होंने अपना आवरण उतार कर रख दिया,वही आवरण जो हर औरत पहनती है,या यूं कह लो पहनना पड़ता है ,इस सभ्य समाज में बनें रहनें के लिए,वर्ना जीना तो हर औरत इसी तरह चाहती है आज़ाद और स्वछंद”सोचते हुए उसनें अपनें मन के भावों को अंदर ही दफना दिया,और अपने सभ्यता के आवरण को अच्छी तरह अपनें चारों ओर लपेट लिया।

चिट्ठी

“वो चिट्ठियों का जमाना था।मैं ठहरी अनपढ़… लेकिन बड़ी इच्छा थी कि तेरे दादाजी मुझे चिट्ठी लिखें, अक्सर उनसे कहती जब वो गाँव आते…फिर आखिर एक दिन उन्होंने चिट्ठी भेज ही दी” कहते हुए दादी कहीं खो सी गईंं।
“फिर…फिर क्या हुआ?दादी,आपने वो चिट्ठी पढ़ी कैसे?” पोती की उत्सुकता कम नहीं हो रही थी।

“अरे! तब घर से बाहर निकलने की इजाजत न थी हमें…और घर में सास, ससुर, देवर थे…. किसी से कहती तो बेशरम कहलाती। किससे पढ़वाती…बस रोज उलट पलट कर देखती और छुपा कर रख लेती…अब तक न पढ़वाई हमने वो चिट्ठी…बस ऐसे ही तेरे दादाजी से झूठ मूठ कह दिया कि पढ़वा लिया वरना उन्हें बुरा लगता ना”। दादी के स्वर में एक उदासी सी पसरी थी।

“क्या कह रही हो दादी…अब तक नहीं पढ़वाया…बताओ, बताओ कहाँ है वो चिट्ठी, मैं पढ़ देती हूँ” पोती ने आश्चर्य से कहा।
“तू …सचमुच पढ़ेगी” दादी की बूढी आँखों में चमक आ गई। “चल ठीक है…ज़रा सुनूँ तो क्या लिखा था तेरे दादाजी ने”। दादी ने संदूक से चिट्ठी निकालते हुए कहा “ले” ।
पोती ने दो घड़ी चिट्ठी को निहारने के बाद पढ़ना शुरू किया –
“प्यारी कमला,
ढेर सारा प्यार, मैं यहाँ कुशल से हूँ। मेरे वहाँ न होने पर भी तुमने इतने अच्छे से घर को सम्हाला है, तभी तो मैं यहाँ बेफिक्र होकर काम कर पा रहा हूँ। तुम मेरी ताकत हो। सबके साथ अपना भी खयाल रखना।
तुम्हारा,
किशोर

दादी आँखे बंद किए चिट्ठी सुन रही थी। जाने कब आँसू आँखो के कोरों से बह निकले।पोती ने चुप चाप चिट्ठी दादी को पकड़ा दिया। उसमें कुछ नहीं लिखा था, सिवाय टेढ़ी मेढ़ी रेखाओं के।दादाजी भी तो अनपढ़ थे…ये बात शायद दादी कभी न जान पाईं।

चाँद सी रोटी
“भइया माँ कब आएगी? भूख लगी है।” छोटे से रघु ने अपने से थोडे़ ही बड़े बिरजू से पूछा।
“आ जाएगी तू ऐसा कर, आँखें बंद कर, जैसा माँ कहती है ना..ठीक वैसे ही।” बिरजू ने दरवाजे की ओर टकटकी लगाए हुए कहा,और उसे अपनी गोद मे सुला लिया।
“कर ली भईया”
“अब सोच कि तू आसमान में है,एक नर्म बिछौने मे सोया है, चारो ओर बादल ही बादल, कहीं पेड़ पर चाँद सी रोटियाँ टँगी है, तो कहीं दाल की नदी बह रही है, एक ओर कुएँ मे मेवे वाली खीर है।”
“और भइया सब्जी ?” रघु ने आँख बंद किए ही पूछा।
“हाँ, हाँ, सब्जी के तो पहाड़ हैं, पहाड़, जितनी मर्जी खा लो।” बिरजू की नजरें अब भी दरवाजे पर थीं। जाने वो साहब लोग माँ से ऐसा क्यों कह रहे थे- “बस एक रात की बात है शांति, फिर सोच महीनों तक तेरे बच्चों को भूखा नहीं सोना पड़ेगा।” फिर माँ भी चुपचाप ‘रघु का खयाल रखना’, ये कह कर उनके साथ चली गई।
” भइया..मैंने पेड़ से रोटी तोड़ ली।” रघू नींद में चिल्लाया।
“बस ऐसे ही कस के पकड़े रहना, माँ के आते ही मिलकर खाएँगे।” बिरजू ने कहा तो रघु ने कस के चाँद सी रोटी को पकड़ लिया।

बुद्धिजीवी

“उफ्फ़ …इसका हाल तो बहुत बुरा है।” डॉ. निशा उस पगली की हालत देखकर घबरा गईं।

शरीर में कई जगह जख्मों के निशान थे…कुछ घाव तो सड़ गए थे…कितनी गहन पीडा हो रही होगी..लेकिन उसे तो जैसे कोई होश ही नहीं था…..एक हाथ की मुठ्ठी कस कर भींच रखी थी।

“मैम देखिए ना..जाने क्या दबा रखा है..मुठ्ठी खोलती ही नहीं..।”नर्स ने कहा।

“जाने दो…बेचारी को और परेशान मत करो…लाए कहाँ से हो इसे।” डॉ. निशा ने उसके घाव साफ करते हुए पूछा।

“मैम शांति नगर कॉलोनी के पास से…शायद किसी ने वहीं इसके साथ…”नर्स कहते-कहते रुक गई।

“क्या कह रही हो तुम…जानती भी हो वो बुद्धिजीवियों का इलाका है…शरीफ लोग रहते हैं वहाँ… मैं भी वहीं रहती हूँ..कुछ भी कहने से पहले सोच लिया करो…। चलो इसे नींद का इंजेक्शन दो,कम से कम कुछ देर के लिए ही सही…अपने दर्द से मुक्ति पाए”।नेहा ने सख्त स्वर में कहा।

“यस डॉ…सॉरी”। कहते हुए नर्स ने उस पगली को नींद का इंजेक्शन दे दिया..और वो बेचारी कुछ ही पलो में सो गई.. और उसकी बंद मुठ्ठी खुल गई।

जिसे देख डॉ नेहा के होश उड़ गए….. ये..तो रवि की कमीज़ का टुकड़ा है…..जो…उस रात.. उसके पूछने पर उन्होंने कहा था कि….ऑफिस से लौटते हुए छोटा सा एक्सिडेंट हो गया था और शर्ट फट गई थी।

मंजुला दूसी
हैदराबाद

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इकरा
घर में गरीबी के मारे बुरा हाल था . रात का खाना बन जाता तो सुबह के लिए थोड़ा सा बचाकर रख दिया जाता कि अगली सुबह काम पर खाली पेट जायेंगे तो दिन भर काम कैसे करेंगें ! उस पर बेशर्मी यह कि बाप ने एक के बाद एक सात औलादें अम्मी से यह कहकर पैदा करवा दी कि यह सब तो उपरवाले की नेमत का नतीजा है । वो जन्म देता है तो चुग्गे का इंतजाम पहले ही कर देता है ,फिर जितने ज्यादा हाथ होंगे उतना ही ज्यादा काम भी करेंगें । घर में बरकत अपने आप आ जाएगी । उसकी इस समझदारी की वजह से कौम भी उस पर मेहरबान थी और गाहे – बगाहे मदद्त के हाथ उसकी और बढ़ जाते थे । इकरा उसकी खेती का सबसे बड़ा पौधा थी । शुरू – शुरू में तो इकरा को अपनी नादान बुद्धि के कारण कुछ समझ नहीं आ पाया कि आखिर अब्बा- अम्मी मिलकर ऐसी कौन सी खिचड़ी पकाते हैं कि साल बीतते – बीतते एक नया आमिर या आयना घर में दाखिल हो जाता है और उसकी थाली की रोटी के एक हिस्से को कम कर दिया जाता है । जब तक उसकी समझ में ये बाते आयी , तब तक बहुत देर हो चुकी थी पर उसे इन बातों से नफरत हो गयी । इससे पहले कि वह कुछ सोच या कर पाती ,एक दिन अब्बा के पास फरहद नाम का शख्स , जो रिश्ते में दूर का भाई लगता था , अपने रिश्तेदारों के साथ आया और कुछ रस्में करवाकर इकरा को अपने साथ ले गया ।
नए माहोल का फलसफा कुछ अलग था ।वहां भरपेट रोटी थी और काम भी कुछ ख़ास नहीं था पर यहां भी उसे यही दलील दी गयी कि साल चढ़ते – चढ़ते घर में एक नया चाँद जरूर दिखना चाहिए । इकरा को तो इस बात से सख्त चिढ़ थी क्योंकि इस रूप में वह अपनी अम्मी की बदहाली अच्छी तरह से देख चुकी थी । उसने जिरह की कि यह काम उसके बूते का नहीं है । अभी उसकी उम्र ही क्या है जो इस पचड़े में पड़े । फरहद की माँ को उसका तर्क भला लगा और वो उसके साथ हो गयी ।पर बात तो फरहद और उसके अब्बा की थी ।दोनों ने सुर में सुर मिला कर कहा , ” अगर दुल्हन का यही फैसला है तो यहां रोटियां तोड़ने की कोई जरूरत नहीं है ।” इतना सुनना था कि फरहद की माँ बोली , ” बहुत हो चुके तुम सबके फतवे . जाना होगा तो अब ये अकेली इस घर से नहीं जायेगी , यह गयी तो इसकी ये अम्मी भी इसके साथ ही जायेगी ।लगता है ये फैसला मेरा नहीं , उपरवाले का है ।उसने इतनी बड़ी दुनिया बनाई है , उसका कोई भी जहीन बाशिंदा दो जून की रोटी दे दिया करेगा । कम से कम तुम अपने कहे जाने वालों की हैवानियत से तो हमेशा के लिए छुट्कारा मिल जावेगा ।बोलो मंजूर है ? ”
इतना सुनते ही बाप – बेटे के पाँव तले की जमीन खिसक गयी .
इकरा ने खुद को इस अम्मी के आँचल से ढक लिया .

किरायेदार
” भैया ये छह पाईप हैं जो पास की दूकान पर ले चलने हैं , ले चलोगे ? ” मैंने ई – रिक्शे वाले को रोककर कहा ।
” जी, ले चलेंगे । ”
” बताओ किराया क्या लोगे ? ”
” सत्तर रुपए लगेंगे ।”
” भैया , पचास लो । सत्तर का काम तो नहीं है । ”
” ठीक है , पचास दे दीजिएगा ।”
” तो फिर लाद लो । ”
वो अपने काम पर लग गया ।
” भैया ! संभाल कर लादो , वरना इन पाइपों का तो कुछ नहीं बिगड़ेगा , अलबत्ता तुम्हारे रिक्शा की गद्दी जरूर छिल जाएगी तब तुम्हें मरम्मत में पैसे खर्च करने पड़ेंगे ……देखो छिल गई न ! ”
” लग तो रहा है कि छिल गई है ।”
” रिक्शा तुम्हारी अपनी है या किराए पर लेते हो ? ” मैं उसकी लापरवाही पर झल्लाया ।
” बाबू? यहां अपना क्या है ? जिंदगी हो या फिर उससे जुड़ा ये शरीर , सभी कुछ तो किराए का ही है । ” कहकर वो उधड़ी हुई रेक्सीन पर हाथ फेरने लगा ।
वो अजीब सी नज़रों से मुझे देख रहा था और मुझमें अब उससे कुछ भी पूछने या कहने की हिम्मत नहीं थी ।

दाने मीठे हैं

” जरा चखो इन्हें।”
” मीठे हैं क्या ? ”
” नहीं ! कड़वे हैं । ”
” तो मैं क्यों खाउं ? ”
” नहीं खातीं तो मैं ही खा लेता हूं । ”
” नहीं । मुझे दो । जिंदगी कि शुरुआत से ही मेरे हिस्से की भी हर कड़वाहट को अपने अंदर ज्जब करते रहे हो ।”
” भाग्यवान , ये कड़वे नहीं , बहुत मीठे है । अकेले कैसे खा सकता हूं ? ”
” नटखट आज भी वैसे ही हो । ”
” वैसे मतलब ? ”
” क्या सुनना चाहते हो ? ”
” जो तुम कहने में आज भी शर्माती हो ।”
” देखो , अब कुछ और कहोगे तो मैं रो दूंगी ।”
” तो फिर चख कर ही देख लो ।”
” चखने की क्या जरूरत है ? मैं तो पूरे ही खाऊंगी । ”
” बदली तुम भी नहीं हो ।”
” दांत नहीं हैं मेरे अब। ”
” कोई बात नहीं , मैंने मसल दिया है इनको । ”
” नहीं , इन्हें थोड़ा चबा कर दो । ”
” कोशिश करता हूं । ”
उसने , उसके हाथ से दाने लिए और अपने मुंह में रख लिए ,ये तो मीठे हैं बिलकुल तुम्हारी तरह। ”

जवानी
” अबे कभी तो जवानों जैसी बात भी कर लिया कर । हर मामले में नैतिक शिक्षा बखारता फिरता है । ”
” भाई , वो अपने अमित की बहन है ? अमित को पता चलेगा तो उसे कितना बुरा लगेगा ? ”
” हर लड़की किसी न किसी की बहन होती है । यही सोचते रहे तो हो गया ? ”
” अबे ! अमित अपना दोस्त है और दोस्त कि बहन से , कुछ तो सोच । ”
” दोस्त है तो क्या हुआ ? दोस्त क्या साला नहीं बन सकता । निशा जो भी है ,कमाल की चीज है और अपन को तो वो भा गयी है । ”
” शादी करेगा उससे ? ”
” अभी तो दोस्ती करूँगा , बाकी सब बाद बाद में देखा जायगा । ”
” मतलब तय नहीं है !”
” अरे यार ,तय तो जिंदगी ही नहीं है। अपना दिल निशा पर आ गया तो बस आ गया। अब कुछ भी और सोचने – समझने की हालत अपनी तो है नहीं। ”
बातचीत का सिलसिला किसी नतीजे पर पहुँचता कि उससे पहले ही एक जोर का थप्पड़ उसके गालों पर चिपक गया , ” अबे ओ बेवक्त की औलाद फिर कभी इस तरह की बकवास की तो तेरी औकात को बेदम होते देर नहीं लगेगी। ” सामने अजीत खड़ा था।
पहले तो उसकी समझ में ही नहीं आया कि निशा के नाम पर अजीत क्यों भड़क गया। वो तो इसकी कुछ भी नहीं लगती। चेहरे पर अजीत के करारे थप्पड़ की अंगुलिओं के निशान छप चुके थे। आखों से आंसूं निकलने को तैयार थे। दबी जबान से बोला , ” भाई ! निशा से तेरा कोई चक्कर है क्या ? ”
” अबे तू निशा की बात कर रहा था या नीरा की ?”
उससे कुछ बोला नहीं गया। बस इतना ही कह पाया ,” ठोकने से पहले पूछ तो लेता कि मेरा दिल निशा पर आया है या नीरा पर। बिना सोचे – समझे इतना करारा थप्पड़। मन कर रहा है तेरा खून पी जाऊं। ”
” अरे छोड़ भाई ! गलतफहमी में लग गयी थी । मैंने सोचा तू नीरा के चक्कर में पड़ गया है। वो तो अपनी चीज है ,याद कर ले भाई । ”
दोनों ने एक – दूसरे को गहरी नजरों से परखा , हाथ मिलाया और फिर अपने – अपने जवान ख्यालों में खो गए।


कसक
दिन ढलने के बाद शाम, रात की बाहों में सिमटने को मजबूर थी और वो कमरे में अकेला था । उसने अपने सोफे को ही बैड की तरह कर इस्तमाल कर लिया। ऐसे में कई बार वो मोबाईल पर पुराने फिल्मी गाने सुनने लगता था । आज , उन गानों के सुरीलेपन के बीच उसके दिमाग की नसों में वे कोमल और संगीतमय पल एक बार फिर जीवन्त हो उठे जो उसने , शिखा के साथ गुजारे थे । शिखा बड़ी शीद्द्त से उसकी हर क्रिया पर अपनी सकारत्मक और ह्रदय में उतर जाने वाली प्रतिक्रिया देती थी । उन दोनों ने एक – दूसरे को बिना कहे बहुत कुछ देने की ठान ली थी।उन दिनों उसे कभी लगता ही नहीं था कि इस जिंदगी में वो कभी एक – दूसरे से अलग भी हो सकते हैं। कुदरत का अतीत कुछ भी हो ,उसके भविष्य के गर्भ में क्या है ,कोई नहीं जानता।
हालात कुछ ऐसे बने कि उसकी लाख मिन्नतों के बाद भी शिखा उससे अलग हो गई और वो भी ऐसी कि फिर उसने कभी वापस मुड़कर उसकी तरफ नहीं देखा ।
वो जल बिन मछली की तरह छटपटा कर रह गया ।
समय की चढ़ी धूल में भले ही उसकी छपटाहट में कुछ कमी आ गयी पर अलगाव के इतने साल बाद भी उसे बहुत बार लगता कि शिखा के सानिध्य में बीते हुए वे साल भले ही बहुत सुरीले थे पर अब वे उसके जहन पर परत दर परत इस कदर चिपके हैं कि अब वे कभी – कभी किसी बोझ से लगते हैं ।
जब कभी वो जिन्दगी की भागमभाग से हट कर अपने करीब आता तो खुद को फिर शिखा के ही करीब पाता । उसके अन्दर का हर कोश शिखा से मिलने या कम से कम एक बार ही सही , बात करने के लिये बेताब हो जाता। जबकी वो जानता था कि इसमें से कुछ भी मुमकिन नहीं है । वो बड़ी कसक के साथ अपने आप से पूछता , ” कभी – कभी समय अगर बेहद इंद्रधनुषी होता है तो वही समय खुद को बदल कर इतना बदरंग कैसे हो जाता है ? ”
वो अपने ही सवालों से टकराकर रह जाता ।
आज की शाम के पुराने गानों के साथ वो , फिर अपनी इसी कसक में डूब गया था, जिसमें सिर्फ दर्द ही था । इस दर्द को हल्का करने की गरज से उसने मोबाईल में से मेसेज वाला आपशन निकाल कर शिखा का नम्बर निकाला और लिखा , ” समय के तार कितने भी कठोर हो जाएँ , उनका तारत्त्व कभी समाप्त नहीं होता।तमाम प्रहारों के बाद भी , यादें कभी मिटती नहीं है। ये आदमी तुम्हें जीवन की अन्तिम सांस तक वैसे ही याद करता रहेगा जैसे कभी तुम किया करती थीं । ”
उसने लिख तो दिया पर जब उसकी अंगुलियां सेंड वाले बटन की तरफ बढ़ी तो ठिठक गयीं ।
उसने मोबाईल से मेसेज बाक्स हटाया और कमरे में घिर आये अन्धेरे को उजाले में बदलने के लिये बिजली के स्विच की तरफ अपना हाथ बढ़ा दिया । कमरे में रोशनी पसर गई । अँधेरा बाहर चला गया।
गाने अब भी पहले की तरह ही बज रहे थे। रौशनी में उसे दीवार पर टंगा वो केलेंडर दिखाई दिया जिसमें समुंदर के किनारे खड़ा बच्चा दूर क्षितिज पर नजरें टिकाये मुस्कुरा रहा था ।
उसे लगा कि उसे भी मुस्कुराना चाहिये ।


तुम्हारे बिना
‘ सुनो , मुझे कभी छोड़ कर मत जाना। ‘
‘ पूरी कायनात में अगर कुछ स्थिर है तो उसका नाम लो। ‘
‘ तुम्हारा मतलब , इतने सालों का हमारा साथ भी कभी न कभी खत्म हो जायेगा। ‘
‘ मैंने कहा न कि प्रकृति कभी जड़ नहीं होती । जड़ता मृत्यु की प्रतीक है । जो आज का सच है , वही कल भी हो , यह जरुरी नहीं है।’
‘ पर हम तो इतने दिनों से साथ हैं और हमने एक – दूसरे से हमेशा साथ रहने का वायदा किया है। ‘
‘ वायदा कल किया था , आज नहीं। जो कुछ भी कल हुआ था ,वो उस कल का सच था , जरुरी नहीं वही सच आने वाले कल का भी हो । ‘
‘ अगर सच सिर्फ उन छणो का खेल है ,जब वो घट रहा होता है तो फिर असल में सच क्या है ?’
‘ यह मत पूछो तो ही अच्छा होगा। ‘
‘ किसके लिए ?’
‘ मेरे लिए भी और तुम्हारे लिए भी।’
‘ तुम मेरे बहुत पुराने हमसफर हो। तुम्हें मुझे बताना ही पड़ेगा। ‘
‘ तुम्हारी ज़िद है तो बताता हूँ कि मैं तुम्हें छोड़कर जा रहा हूँ और जाने के बाद मुझे नहीं पता कि मैं वापस आऊं या न भी आऊं । ‘
‘ तुम ये फैसला अकेले कैसे कर सकते हो। हमने जिंदगी के ढेर सारे खूबसूरत पल एक साथ बिताये हैं। वे पल आने वाले कल की बुनियाद थे । तुम कहीं नहीं जा रहे। ‘
‘ तुम भूल रही हो कि वो कल का सच था जो कल के साथ आज तक नहीं आ सका। आज का सच ये है कि मैं जा रहा हूँ। हो सकता है तुम्हारा आज का सच मैं हूँ पर यह कोई नहीं जानता कि कल तुम्हारा सच क्या होगा ! ‘
‘ ऐसा है तो तुम्हें चले ही जाना चाहिए। कल जब सुबह होगी तब सोचूंगीं कि तुम्हारे कहे में सच कहाँ खड़ा है ? मुझे भी लगता है कि मैं अब इस काबिल हो गयी हूँ कि तुम्हारे बिना भी अपना सच देख या खोज सकूँ । ‘
उसे इस उत्तर की उम्मीद नहीं थी। वो चलने के लिए उठा तो सही पर उसे लगा कि उसके पैरों ने उसका अपना ही बोझ उठाने से मना कर दिया है। वो लड़खड़ा कर गिर गया और वो उसे गिरता हुआ देखती रही।

इंतजार
” साब जी ! ”
” हूं ! ”
” साब जी , आज फिर बलात्कार की खबर है ।”
” ये तो रोज की बात है ।”
” साब जी , ये वाली कुछ खास है । ”
” कोई दंगा भी हुआ है क्या ? वैसे लड़की मर गई या जिंदा है ? ”
” वही तो बता रहा हूं साब जी ।दंगा अभी हुआ तो नहीं पर होने की उम्मीद तो है । ”
” वो कैसे ? ”
” साब जी , लड़की एक खास समुदाय की है , अस्पताल में है और है और उसकी हालत सीरियस है ।”
” खबर पर नजर रखो । जब मर जय ,तब बताना । हो सकता है ,बात बन जाय । वैसे बलात्कार करने वाले कौन थे ? ”
” साब जी ,अभी पक्का तो नहीं पता पर उड़ती खबर है कि या तो किसी दूसरी जाति के थे या किसी दूसरे धरम के ।”
” लगता है बात बन जाएगी । सारे केडर को सतर्क कर दो और कह दो कि पैसे की कोई कमी नहीं आने दी जाएगी । लड़की अगर मर गई तो आंदोलन के लिए तैयार रहें । ”
” साब जी , चिंता न करें । ईश्वर से दुआ है कि बस काम हो जाय , इस बार तैयारी एसी होगी कि जनता का हर तबका सड़क एसा टूट पड़ेगा कि सरकार का हर पाया दरकता नजर आएगा ।
हां ! अपराध कुछ दिनों के लिए जरूर कम हो जाएंगे ।”
” वो क्यों ? ”
” साब जी , सारे अपराधी तो हमारे साथ विरोध प्रदर्शन में होंगे तो अपराध कौन करेगा ? ”
” साब जी के चेहरे मर मुस्कान आते – आते रह गई । उन्होंने इतना ही कहा , तुम्हारा भविष्य बहुत उज्जवल है ।


सुरेन्द्र कुमार अरोड़ा
डी – 184 , श्याम पार्क एक्सटेंशन , साहिबाबाद – 201005 ( ऊ प्र )
मो : 9911127277

मुस्कानः
रजनीश आज अत्यधिक चिढ़ गया। चिल्लाया – क्या पानी-पानी का रट लगाए हो। बूँद-बूँद बचाने के पीछे पागल।
– बचाना जरूरी है। आप समझते क्यों नहीं, कुछ दिनों बाद पानी के लिए मर्डर होगा।…..पानी बिना जीवन मुश्किल।
– बस! अब और एक फिकरा नहीं। छोड़ो और जाओ उधर नाश्ता लगाने।
उसने बाल्टी छीन पानी जमीन में बहा दिया। गुस्सा था, बचपन में पानी की किल्लत झेल चुकी रेवा जैसे मैनिया का शिकार हो चुकी है। हर फ्लैट में थोड़ी-बहुत तकलीफ़ रही, यह भी असर कर रहा है शायद। हर समय पानी बचाने की फिक्र में दुबली हुई जाती है।
– यहाँ तो पानी की बहा-बही है, फिर क्यों संजोना। जब चाहो, जितना चाहो मोटी धार से ले लो।
पति की नाराज़गी चरम पर। रेवा ने हौले से अपनी उँगली बाहर की ओर उठा दी। बाहर पाँच-छः छोटी लड़कियाँ अपनी माँओं संग सर पर घड़ा, डेगची, हाथों में बाल्टी थामे बहुत दूर से चली आ रही थीं। उबड़-खाबड़ रास्ते पर सस्ती हवाई चप्पलें डाले या खाली पैर। कई कमर पर भी पानी से भरी डेगची थामे हुए थीं। आस-पास के सारे जल स्त्रोत सूखे।
रजनीश की नजरें झुकीं। फिर उठीं नहीं।
अब सब्जी, चावल धोकर बचे जल से रजनीश ने पौधों की मुस्कान बचाना शुरू कर दिया। रेवा के होठों पर भी मुस्कान !

लड़ाई
आज हमेशा की तरह दोनों परिवार के बीच जमकर दोषारोपण, जमकर बहस-मुबाहिसे। जमकर झगड़े….हमेशा की तरह। मदन सिंह को बीच में कूदना ही पड़ा। वे अपने दरवाजे को पकड़ खड़े हो गए।
– क्या बात है? सोशल डिस्टेंसिंग मानने की बजाय तुम सब फिर लड़ पड़े। घर के बाहर क्यों आए? चलो सब अंदर।
– भैया! इसने लड़ाई शुरू की है।
– मैंने की? मैंने?…. मुँह तोड़कर रख दूँगा।
– तो मैंने चूड़ियाँ पहन रखी है क्या?….मेरे मुँह मत लगना, टाँग तोड़कर हाथ में दे दूँगा, समझा।
– समझना मुझे है कि तुझे! ….तेरी तो….!
अपने दरवाजे से ही बोल पड़े मदन सिंह,
– अरे! जाओ अंदर, पूरी सोसायटी को कोरोना का सौगात दोगे क्या? गाइडलाइन मानने की बजाय…..।
मदन सिंह की बात मान एक परिवार घर के अंदर जाने लगा। तभी पलीता – मैं कायर नहीं कि इस चूहे की तरह बिल में घुस जाऊँ।
– अरे! बचोगे, तब ना लड़ोगे ? बच गए तो लड़ लेना पूरी जिंदगी। भगवान ने इसीलिए तो धरती पर भेजा है हम सबको!
मदन सिंह के ठहाके वैश्विक गाँव के सारे कोने-कतरों में गूँज उठे।

प्राथमिकता
घर आते ही रेवा का दुखी, उदास चेहरा देखने को मिलेगा, सतीश ने सोचा ना था। छुट्टियों में आने पर सतीश को देखते ही रेवा की बाँछें खिल जातीं। पुष्प की तरह उसका चेहरा प्रस्फुटित। इस बार वह और खुश होगी, सोचा था उसने। मौका जो खास था। अपने बच्चे के जन्म के तीन महीने बाद आया था।
रेवा की भड़ास शिकायत में बदल आँखों की राह बह निकली – माँजी की मौत पर क्यों नहीं आए? सारा कुछ अकेले किया मैंने। आपका सहारा ही नहीं, क्या उम्मीद करूँ।
– उस वक्त चिल्लै कलां था। चिल्लै कलां कहे जानेवाले चालीस दिनों तक इतनी अधिक ठंड ! पूरा कश्मीर बर्फ से ढँक जाता है। कोई फ्लाइट नहीं, कोई आवागमन का साधन नहीं। मुझे माँ की मौत का गम नहीं है क्या।
– और आपने वादा किया था, आप इसके जन्म के समय मेरा दर्द बाँटने, खुशी शेयर करने के लिए हर हाल में मेरे साथ रहेंगे। रेवा की सुबकी तेज हुई।
– कैसे आता, उसी समय सीमा पर आतंकी हमला हुआ था। मेरी ड्यूटी वहीं लगी थी।
– मतलब जरूरत पर आप मेरे साथ नहीं होंगे।….है ना ?
सतीश तपाक से बोला – शायद।
सतीश की समझानेवाली, रेवा की समझ जानेवाली गीली मुस्कान पूरे घर में फैल गई।

माँ

वह शाम तक हरिद्वार पहुँच गया। माँ भी साथ। बहुत दिनों से कह रहीं थीं – गंगा जी में स्नान करा दे। पापा के जाने के बाद एक बार भी नहीं गए। पहले हर साल हरिद्वार की यात्रा….. चल बेटा, इस बार।
वह टालता जाता था। दो बच्चे, एक पत्नी का खर्च सँभाले नहीं सँभलता था उससे। उस पर ‘ माँ ‘ का अतिरिक्त ‘ बोझ ‘….। अस्सी की उम्र तक जीकर कोई क्या करेगा, उसे यह चिंता खाए जाती।
वह खुद से कहता रहता – ईश्वर भी अन्याय करते हैं। हाथ-पैर चल नहीं रहा और….। कितनी लंबी जिंदगी दे दी।….और कितना ढोएँ?
इस बार तो पत्नी से भी कह डाला। बीवी ज्यादा समझदार। उपाय बताया और वह माँ के सामने।
– चलो अम्मा हरिद्वार, तुम यही चाहती थी ना।…. अब वहीं रहना, आखिरी समय भजन-कीर्तन गंगा जी के किनारे….सवेरे स्नान-पूजा, शाम को गंगा आरती। है ना?
माँ चुप! चोट सीधे मन पर।
हरिद्वार में रिक्शा से उतरते वक्त जोर की ठेस लगी। झिड़क दिया – अम्मा, तुम भी ना। देखकर नहीं उतर सकती?
आश्रम में सारी व्यवस्था कर वह लौटने लगा। माँ को आस, एक बार पलटे। नहीं पलटा। मन-तन की चोट गहराई। बेटे ने बाहर गेट की ओर बढ़ते हुए गर्दन झुकाई कि जोरदार ठोकर लगी।
– अरे बेटा, सँभल। …. तुम्हें चोट तो नहीं लगी?

आस्थाः
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टूटे-फूटे, कटे-छिजे मास्टर साहब अंतिम साँसें गिन रहे थे। जीवन के कई रंग देखते, सहते, झेलते पतझड़ आ गया। उन्हें लगा, जीवन नीरस है। दुखों से भरा है। संघर्षों से तोड़नेवाला है। मनुष्य पर आस्था -विश्वास कम करनेवाला है। टूटन की तमाम बातों ने उन्हें घेर लिया।
एकाएक एक आदमी कमरे में आकर उनके पैर छूने लगा। – सर, पहचाना? मैं आपका स्टूडेंट श्यामू। आपने मुझे मुफ्त में पढ़ाया था।
थोड़ी पहचान उभरी।
– आजकल मैं कलेक्टर बन यहीं अपनी सेवाएँ दे रहा हूँ। आपने इतनी अच्छी शिक्षा और संस्कार दिए। नहीं तो मैं अभी जूत्ते ही सिलता रहता।
वह पुनः पैर छूने लगा। उनकी अधमुंँदी आँखों में भोर का उजास भर गया। वे आँखें खोल, टकटकी बाँध नए सूर्य की चमकदार रश्मियों को देखते रहे। फिर से जीवन, संस्कार, नैतिकता पर आस्था जमने लगी। साश्चर्य बुदबुदाहट,
– सबसे ईमानदार कलेक्टर मेरा शिष्य!
और उनकी कब की बेचैन, तकलीफ़ से तड़पती, हताश वृद्ध आँखों में विश्वास का बिरवा अंकुरित हो उठा।

मिस करता हूँ
डॉक्टर अनुराग ने दिनभर से पहने भारी पीपीई किट, मास्क और कैप को उतारकर अपने केबिन के टेबल पर रखा। पसीने से लथपथ डाॅ. हाथ धोकर सेनिटाइज करने के बाद चेयर पर ढह गए।
उनकी आँखों में नमी थी। आँखों की कोरों पर एक-एक बूँद अटकी। असिस्टेंट ने चाय ढालते हुए गौर से उन्हें देखा। दिन भर के भूखे डाॅ. अनुराग ने चाय, बिस्किट लेने से इंकार कर दिया।
– क्या बात है सर?
– नहीं… नहीं! कुछ नहीं।…. वह नंदन नहीं बचेगा।
– कोई बात तो है सर, इस बच्चे से पहले किसी के लिए मैंने आपको इतना विचलित होते नहीं देखा। परिचित ?
– नहीं। पेशेंट की एज का ही मेरा बेटा है, जिससे मैं दस दिनों से नहीं मिला हूँ।
उन्होंने आँखों पर रूमाल रख लिया।
– और उसकी माँ डाॅ. सुधा अभी-अभी आइसोलेशन से घर लौटी है। तो….।


अनिता रश्मि

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‘कैन यू हिअर मी?’

“मैं तुम्हारी ख़ातिर अपने तहज़ीबी लिबास के बजाय स्कर्ट-टॉप में इस जगह पर तुमसे मिलने आ गई!” अपना मुस्कुराता गाल अपने महबूब की छाती पर टिका कर उसने कहा, “अब मैं तुमसे कुछ अच्छा सुनना चाहती हूँ!”

“ग़ज़ब ढा रही हो ‘ऐसे’ में!” महबूब ने उसके दूसरे गाल के उभार पर मुस्कुराते डिम्पल पर अपनी उंगलियों का स्पर्श देते हुए कहा।

“अच्छा! तुम कब ग़ज़ब ढाओगे ‘वैसे’ में!” उसने महबूब के मुस्कुराती ज़ुल्फ़ों के छल्लों पर अपनी उंगलियाँ फँसाते हुए कहा।

“….. ‘कैसे’ में!” महबूब ने चौंक कर पूछा।

” … ‘जैसे’ में … मैं और मेरे अम्मी-अब्बू चाहते हैं!” अब वह तनिक गंभीर होकर बोली और पालथी मार कर नज़दीक़ के हरे-भरे पेड़ के नीचे बैठ गई। महबूब ने स्मार्ट फ़ोन में दोनों की ख़ूबसूरती को क़ैद करने के बाद उससे कहा, “बेहद ख़ूबसूरत समा है, मूड ख़राब मत करो!”

“ये मूड की बात नहीं है, हम दोनों की ज़िन्दगी की बात है!” वह और अधिक गंभीर होकर बोली और उसके नज़दीक़ जाकर स्मार्ट फ़ोन छीनकर उसकी ज़ेब में रखकर उसका हाथ थामते हुए बोली, “मैंने तुम्हें मज़हबी क़िताबों के हिंदी और अंग्रेज़ी तर्ज़ुमे पढ़ने को दिये; तुमने वादा किया था कि तुम दुनियावी तालीम के साथ मज़हबी तालीम भी इन लम्बी छुट्टियों में हासिल कर लोगे!”

“मैंने निभाया भी! बहुत कोशिश की। सोशल मीडिया पर भेजे तुम्हारे मज़हबी मैसिज और ऑडियो-वीडियोज़ में बहुत वक़्त भी दिया! लेकिन… लेकिन मैं आज के विज्ञान के दौर का इंसान हूँ! मेरा मन नहीं टिक पाता उन सब पर!” उसने अपनी महबूबा का हाथ झटक कर कहा, “तुमने भी तो वादा किया था दुनिया की मेन स्ट्रीम में आने का!”

“मैंने कोशिश ही नहीं की, करके दिखाया भी है! लड़कियाँ हालात के मुताबिक़ अपने को ढाल लिया करती हैं! लेकिन तुम जैसे लड़के नहीं! दरअसल मॉडर्न कल्चर में ढलते-ढलते तुम्हारा ईमान कमज़ोर हो रहा है… सँभालो अपने को… हम मुसलमान हैं!”

“हाँ… हैं! मैंने कब कहा कि नहीं हैं! … लेकिन नयी सदी के; नये दौर के!”

“ऊँह! मुझे तो तुम नयी सदी की नयी दौड़ और होड़ के लगने लगे हो… इस्लाम से दूर… ईमान से दूर! … और मुझे भी मज़बूर कर रहे हो!”

यह सुनकर उसके महबूब ने उसके हाथ की पकड़ ढीली करते हुए कहा, “तो … हमें भी अब दूरी बढ़ा लेनी चाहिए! मेरा दिल कहता है!”

“मेरा दिल तो कहता था कि जब मैं तुम्हारे लिए कुछ हद तक मेन स्ट्रीम में आ सकती हूँ; तो तुम भी कुछ हद तक मज़हबी स्ट्रीम में आ सकते हो!”

“ज़िन्दगी और लाइफ़ स्टाइल को मज़ाक़ समझ रखा है तुमने!” यह कहकर वह वहाँ से रुख़्सत होने लगा। तभी उसकी महबूबा ने उसकी कलाई पकड़ कर कहा :

“उस मेन स्ट्रीम को छोड़, एक बार इस बात पर भी ग़ौर करना कि मुहब्बत की स्ट्रीम में कहीं तुम मुझे मज़ाक़ में तो नहीं ले रहे हो!”

पानी वाँ छे! (बालमन की लघुकथा) :
“चल अंदर चल!”
“पानी वाँ छे!”
“हाँ, तो अंदर आ!”
ये आवाज़ें सुनकर ऊपरी मंज़िल पर मैं अपने फ़्लैट की बालकनी पर आ गया। आवाज़ें मेरे से नीचे वाले फ़्लैट की बालकनी से आ रहीं थीं। कुछ देर नीचे देखता रहा। नीचे वाली बालकनी पर एक मासूम चेहरा आसमाँ की ओर देख रहा था। उसकी चंचल आँखें और उसके माथे पर जमे बार्बी डॉल जैसे घने चमकीले काले बाल उसके होठों की मुस्कान की तरह मुस्कुरा रहे थे और उसके पास रखा टैडी बिअर भी ख़ूबसूरत लग रहा था। यह सब देखकर मेरा सारा तनाव और थकावट दूर हो गई। घने रौबीले काले बादल आसमाँ पर छाये हुए थे। रुक-रुक कर बूँदें गिर रहीं थीं। मैं कभी ऊपर देखता, तो कभी नीचे। तभी उसने अपना नन्हा हाथ ऊपर उठा कर मेरी ओर देखकर ज़ोर से कहा :
“पानी वाँ छे! अंतल, देथो… पानी वाँ छे!” यह सुनकर मैं मुस्कुराने लगा और अपना सिर हिलाकर उससे “हाँ..हाँ” का इशारा किया ही था कि उसके डॉक्टर पिता जी उसका हाथ खींचते हुए अंदर ले गये। मैंने सिर्फ़ इतना सुना :
“मना किया था ना… मत जाना बालकनी पर! नीचे टपकना है क्या! कितनी बार डिस्टर्ब करेगा मुझे!”
इस वाक्य में आये शब्द ‘डिस्टर्ब करेगा’ ने मुझे चौंका दिया; वरना डॉक्टर साहब के उस बेटे के मासूम ख़ूबसूरत चेहरे में मैं अपनी दिवंगत बिटिया को देखने का सुख हासिल कर रहा था। तभी मैंने पुनः बालकनी से नीचे झांँका। नीचे के कमरे से सिसकती आवाज़ में मुझे बस यही सुनाई दिया :
“पापा, पानी.. पानी वाँ छे!”
तेज़ बारिश होने लगी थी। लेकिन… मेरे दिलो-दिमाग़ में दृश्य उभर रहा था उस सिसकते बच्चे का और उसके टैडी बिअर का, बस!”

मुखाग्नि
आज सुबह उस चाय की गुमटी पर गरमा गरम चाय पीते-पीते कुछ मुखों से शब्दों के अग्नि-बाण से निकल रहे थे।
“अरे सुना तुमने, मज़हब की बंदिशें तोड़ ग़रीब दोस्त संतोष को मुस्लिम युवक रज़्ज़ाक ने कल मुखाग्नि दी !”
यह सुनकर एक पंडित जी बड़बड़ाने लगे, “सारा अंतिम संस्कार अपवित्र हो गया, पता नहीं आत्मा को कैसे शान्ति मिलेगी ?”
इस पर एक शिक्षित युवक बोला, “अरे ये सब वो धर्मान्तरित मुसलमान हैं जो आज भी अपने मूल धार्मिक कर्मकांड गर्व से करते हैं।”
तभी एक दाढ़ी वाले ने दाढ़ी पर हाथ फेरते हुये धीरे से कहा, “सही कहते हैं हमारे चच्चाजान, इस्लाम संकट में है !”
एक छिछौरे ने चुटकी लेते हुए कहा, “अरे, मुझे तो लगता है उसकी पत्नी से पहले से कोई यारी रही होगी !”
इन बातों को सुनकर चाय वाला बोला, “छोड़ो भैया, रात गई, बात गई; आप तो चाय पियो। मेन बात तो समझ नईं रये, मूंह चलाये जा रये !”

जनता ही तो …
आज़ादी ने लोकतंत्र से कहा, “तुम जनता के, जनता के लिए, जनता द्वारा शासन रूप में पहचाने जाते हो; लेकिन हो ये रहा है कि व्यापारी-उद्योगपतियों के, उनके ही लिये, उनके ही द्वारा तुम हांके जा रहे हो!”
लोकतंत्र ने उसे जवाब दिया, “नहीं! मैं अब भी उसी रूप में परिभाषित, प्रचलित व स्थापित हूँ! इस सदी में जनता ही व्यापारी है; सौदागर है; उद्योगपति है! कोई लघुत्तम, तो कोई मध्यम और कोई बहुत ही बड़ा विश्वस्तरीय!”

तू गांँधी की लाठी ले ले!
“सभ्यता की तरह तुम भी इतिहास और गांँधी जैसे महापुरुषों की लाठियों के सहारे को हमारा सहारा मानने की भूल कर रही हो!” नयी पीढ़ी ने अपने देश की संस्कृति से कहा।
“भूल तो तुम कर रही हो, वैश्वीकरण के दौर में बिक रहे मुल्कों , उनके स्वार्थी नेताओं और बिके हुए बुद्धिजीवियों के बयानों और साजिशों में फंँसकर!” संस्कृति ने अपने हाथों में थामी हुई लाठी चूमते हुए कहा – मसलन ये देखो, गांँधी जी की लाठी! ये लाठी मेरे लिए उनके अनुभवों, विचारों और दर्शन की सुगठित प्रतीक है।
किताबों, काग़ज़ों, चरखों, कलैंडरों से, और खादी से गांँधी को कोई कितना भी दूर कर दे, लेकिन उनकी दी ये लाठी मुझे संबल देती है! मैं तुम्हें कभी गुमराह नहीं होने दूंगी!”
“ख़ूब सुने हैं ऐसे प्रवचन! हमें पेट पूजा, परिवार चलाने और दुनिया के साथ चलने के लिए ऐसी लाठियों के सहारे की ज़रूरत नहीं, जिन्हें देश की सत्ता और क़ानून भी तोड़ डालती है!” नयी पीढ़ी ने अपने अनुभव आधारित कुतर्क करना शुरू कर दिया- “गांँधी अब हमारे लिए प्रासंगिक नहीं हैं! गांँधीगीरी तो महज़ मज़ाक़ बन कर रह गई है!”
“प्रासंगिक तो हैं प्रिय! अवसरों को भुनाने मात्र के लिए टोपियांँ पहन कर अहिंसा, सत्याग्रह, धरने और आंदोलन किए जाते हैं, मात्र सस्ती लोकप्रियता पाने या स्वार्थपूर्ति के लिए; देश और उसके समाज कल्याण के लिए नहीं न! लोगों की मति भ्रष्ट हो गई है!” संस्कृति ने कहा।
“तो मति भ्रष्ट करने वालों को कौन समझाएगा?”
“इन लाठियों का सही उपयोग, सही समय पर… और ये तुम ही कर सकती हो!” संस्कृति ने नयी पीढ़ी से आह्वान किया।

छाया
सच कहूँ, सचमुच मुझे अकेलापन बिल्कुल महसूस नहीं होता। तुमने जैसा अहसास कराया हमेशा, वैसा ही आज भी अहसास होता है। हक़ीक़त कह लो या तसव्वर, ज़माने ने कम से कम हमारे फ़साने को रत्ती भर भी तब्दील नहीं किया। मालूम क्यों? … क्योंकि आज भी मैं तुम्हारी दी हुई तालीमयाफ़्ता दो बाहों में मैं यूँ झूल रही हूँ, जैसे कि मानो तुम्हारी ही बाहों में झूल रही हूँ!
सच्ची, अपने हमसफ़र के दरमियाँ जिस तरह तुम मुझे मेरी बीमारी की हालत में डॉक्टर की सलाह पर घुमाने ले गये थे, बाहों में बाहें डाले आगरे का ताजमहल दिखाया था न तुमने मुझे …. और जिस तरह तुम माह-ए-रमज़ान की सहरी के वक़्त मुझे शहर के पार्कों में ले जाया करते थे फ़ज़र की नमाज़ अदा करने के बाद, हाँ, वैसे ही, ठीक वैसे ही तुम्हारे दोनों लाडले बच्चे मेरे इस बुढ़ापे में मेरा बहुत ख़्याल रखते हैं, वही रुटीन है, दोनों बच्चे उतना ही पढ़-लिख कर उतने ही ऊंँचे मकाम पर पहुँच गये हैं, जैसा तुम ख़्वाबों में सोचा-बुना करते थे। बेटा प्रोफेसर बन गया और बिटिया अपना ख़ुद का बिजनेस संभाल रही है। उनकी शादी मज़हबी तालीमयाफ़्ता ऊँची पढ़ाई-लिखाई वालों में ही करेंगे, सो अभी ज़ल्दबाज़ी नहीं कर रहे; न तो मैं और न ही दोनों बच्चे। वे तो अभी और तरक़्क़ी हासिल करना चाहते हैं शादी करने से पहले, लेकिन ऐसा नहीं है कि वे अपनी अम्मीजान को भूल जाते हों!
आज माह-ए-रमज़ान का अलविदा जुमा है। हम तीनों रोज़े से हैं। आज दोनों बच्चे मुझे क़ुदरत का यह नज़ारा दिखाने लाये हैं।
सच कहूँ, बहुत अच्छा लग रहा है इस ख़ूबसूरत जगह पर यूँ झूला झूलते हुए। दोनों बच्चे मेरा बहुत ख़्याल रखते हैं। दोनों यहीं-कहीं पार्क में योगा कर रहे हैं। ऐसा लग रहा है जैसे कि मानो तुम भी यहीं-कहीं हो। अनुलोम-विलोम कर रहे हो या फ़िर वैसी ही अपनी मनपसंद पोजीशन बना कर ध्यान में मगन हो, और मेरा ध्यान, अल्लाह क़सम हर रोज़ तुम्हारी यादों में खोई रहती हूँ कमबख्त़ ये बच्चे अपनी ख़िदमात से तुम्हारी ही याद तो दिलाते रहते हैं, अल्लाह सबको ऐसा शौहर और ऐसी औलाद दे।

शेख़ शहज़ाद उस्मानी,शिवपुरी (मध्यप्रदेश)

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