वक्त की करवट
“अजी सुनती हो! जानती हो आज दुकान पर कौन आए थे?
“कौन आए थे बताओ? ”
“अरे वही इंदिरा कॉलोनी वाले मेहरा साहब अरे वह कैसे इतने सालों में तो कभी भी कॉलोनी में दुकान होते हुए भी तुम्हारी दुकान पर नहीं आए !”
” हाँ वही मेहरा साहब हमेशा दुकान के सामने से निकल जाते थे कि हम तो ऑनलाइन सामान खरीदेंगे। किसी से कहते सुना था कि इस दुकान में स्टैंडर्ड का सामान नहीं है।मेरा मन बहुत दुखी हुआ था सुनकर।
मेरे मन में आया कह दूँ अभी बिजी हूँ लंच का टाइम हो रहा है या अभी वो सामान उपलब्ध नहीं है ।”
“फिर क्या किया आपने? ”
“मैंने सोचा कि मुसीबत के समय उनकी सहायता करना हमारा फर्ज है ।
वक्त करवट जरूर लेता है यह तो वह जान ही गए होंगे।”
कठिन परीक्षा
आज फिर सुरभि चिंकी को डाँट रही थी । चिंकी अपनी पढ़ाई छोड़कर दादी बाबा के साथ बातें बना रही थी ।यूँ तो वो तीसरी कक्षा में ही थी किंतु सुरभि उसकी पढ़ाई को लेकर बहुत गंभीर थी ।
“देखिए ना मम्मी जी, चिंकी फिर पढ़ाई छोड़ कर यहाँ बैठी है। कल परीक्षा है ।”चलो चिंकी रूम में “!
और चिंकी उदास चेहरा लिए चल दी। सुरभि उसके पीछे पीछे रूम में पहुँची और दरवाजा फेर दिया । लेकिन कमरे से आती आवाज़ पर दरवाजा कोई पहरा नहीं लगा पाया।
“देखो सुमित माँ बाबूजी जब भी यहाँ आते हैं ,चिंकी अपनी पढ़ाई नहीं कर पाती ।”
“लिसिन सुरभि तुमने माँ-बाबूजी से अलग घर में रहने का फैसला लिया ,मैंने मान लिया ,लेकिन उनका भी तो मन होता है हम लोगों से मिलने का ! तुम उस पर भी पाबंदी लगाना चाहती हो ? ”
“मैं मना नहीं कर रही, पर कम से कम परीक्षा के समय तो ना आएँ ! ”
“तुम भी ना ! ”
“अब मुझे डिस्टर्ब मत करो ।”
तारा जी ने ये वार्तालाप सुनकर निर्णय ले लिया ।
‘हम कल सुबह ही घर वापस चलेंगे, हमारी वजह से सुरभि बहुत ज्यादा परेशान हो जाती है ।”
“जैसा तुम कहो ।”
निशांत जी ने मायूस होकर कहा । तारा जी के मन मस्तिष्क में एक ही प्रश्न कौंध रहा था, यह कठिन परीक्षा किसकी है ? चिंकी की या हमारे मोह ममता के भावों पर अंकुश लगा पाने की क्षमता की ।
*हाथों की लकीरें*
“हैलो सुनिधि !क्या हाल हैं?”
“अरे श्रेहा! हाँ मैं तुम्हें कॉल करने ही वाली थी ,फ्री होकर। मैं बढ़िया हूँ। तुम बताओ क्या चल रहा है ?”
“मैंने तुम्हें आज कुछ पिक्स भेजी थी व्हाट्सएप पर ।तुमने देखीं?
आज हमारी फाउंडेशन की तरफ से एक चित्रकला प्रतियोगिता आयोजित हुई थी , उसी में बिज़ी थी। कई बच्चों की पेंटिंग्स तो देखने लायक थीं। तुम शौकीन हो इसलिए पिक्स भेज दीं। विनर बच्ची की पेंटिंग देखी ?”
“गजब है श्रेहा! इस बच्ची के पास तो गॉड गिफ्टेड टैलेंट है। देख कर दिल खुश हो गया । भगवान किसी किसी के हाथ में ऐसी लकीरें देकर भेजते हैं कि करिश्मा कर दिखाते हैं।”
“तुम हाथों में किस्मत की लकीरों की बात कर रही हो सुनिधि ! तुम्हे ये जानकर और भी हैरत होगी कि वो बच्ची तनीषा पैर से पेंटिंग करती है। उसके दोनों हाथ कुछ साल पहले एक्सीडेंट में कट चुके हैं ।”
अब फोन पर दोनों ओर सन्नाटा था।
असली रंग
” बेटा मेरा जी घबरा रहा है मैंने कहा था अस्पताल लेकर न चल,पर तू नहीं माना।जल्दी वापिस घर ले चल।”
माँ आप चिंता ना करो बस एक दिन की ही तो बात है ,सारे टेस्ट हो जाएँ तो हम लोग बेफक्र हो जाएँगे ।अगर घर जाकर फिर से आपकी तबीयत कल जैसी हो गई तो हम कैसे संभालेंगे!यहाँ के डॉक्टर बहुत अच्छे हैं।देखा आपने कितनी अच्छी तरह देखभाल करते हैं।
“मिस्टर रमेश !”
“जी डॉक्टर साहब ।
“आप की माता जी की दो टेस्ट रिपोर्ट आ गई हैं, थोड़ी दिक्कत है पर ज्यादा चिंता की कोई बात नहीं है । एम आर आई की रिपोर्ट ठीक नहीं है कुछ टैस्ट और कराने होंगे। फिर देखते हैं।”
“जी डॉक्टर साहब।
डॉक्टर साहब अभी-अभी मेरी नज़र माँ की उंगलियों पर पड़ी देखिये ये नीली पड़ रही हैं।”
” अरे कैसे हो रहा है !नर्स जल्दी से ड्रिप लगाओ। मिस्टर रमेश तुरंत न्यूरोसर्जन को बुलाना पड़ेगा । कार्डियोलाजिस्ट से भी संपर्क करेंगे। फीस उनकी थोड़ी ज़्यादा है लेकिन बहुत फेमस हैं।”
डॉक्टर साहब अब तक डेड़ लाख खर्च हो चुके हैं, अगर फीस थोड़ी —-”
” अरे पैसे मरीज की जान से ज्यादा कीमती थोड़े ही हैं ! चलो सिस्टर आपरेशन थियेटर में पहुँचना है।”
“बेटा क्या हुआ ? मुझे पानी तो पिला दे!”
ये लो। अरे गिर गया !कोई बात नहीं ।”रमेश ने माँ का एप्रिन साफ करते हुए कहा।
“अरे यह क्या मेरी उंगली नीली कैसे !”
रमेश को माजरा समझते देर न लगी और अब अस्पताल वालों का असली रंग भी दिखाई दे गया था।
नविता जौहरी
भोपाल
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छोटी सी चिडिया.
“ रामदीन…जरा बडॆ बाबू को मेरे कमरे में भिजवाना”. बडॆ साहब ने चपरासी को हुक्म बजा लाने को कहा.
“ मे आई कम इन सर”. बडॆ बाबू ने कमरे में प्रवेश करने के पहले कहा. “ हाँ, तुम अन्दर आ सकते हो”. साहब ने कहा. “ देखो, मुझे बार घुमा-फ़िराकर कहने की आदत नहीं है. एक हफ़्ते के अन्दर मुझे पचास हजार रुपये चाहिए. इसका इन्तजाम कैसे हो सकता है,वह तुम जानो.”
. “ बिल्कुल हो जाएगा सर. अप चिन्ता न करे.” “ बडा बाबु अपनी कुर्सी पर आकर बैठ गया. उसने अपने टेबल की ड्राज से कोरे कागज निकाले. टाईपराईटर में फ़ंसाया और एक लेटर टाईप किया. और साहब के कमरे में जा पहुँचा. “ ये क्या है ?” साहब ने कहा. “ कुछ नहीं हुजूर…..यह एक छोटा सा कागज का पुर्जा है. “ बडॆ बाबू, तुम्हारा दिमाक खराब तो नहीं है. तुम जानते हो कि बीच सेशन में किसी का ट्रान्सफ़र नहीं किया जा सकता.” “ हुजूर जानता हूँ. प्यारेलाल इसी शहर में कई बरस से कुण्डली मारे बैठा है. फ़िर उसकी बीवी भी सरकारी नौकरी में है. फ़िर हमने उसका ट्रान्सफ़र थोडॆ ही किया है. उसे तो हमने प्रमोशन दिया है. मैं जानता हूँ वह इतनी दूर नहीं जाएगा. आर्डर मिलते ही वह सिर पर पैर रखकर दौडा चला आएगा. और हमें मनचाही रकम दे जाएगा. बस आप इस कागज पर अपनी छोटी सी चिडीया बिठा दीजिए और देखिये ये चिड़िया क्या कमाल दिखाती है”.
“ समझ गया. तुम बहुत ही होशियार आदमी हो”.
“सर, ऐसी बात नहीं है. मैं तो आपका सेवक हूँ. और आपकी सेवा करना ही मेरा धर्म है”.
सेतु
बनारस से पहले काशी सेतु आते ही ट्रेन में बैठी महिलाओं ने पर्स से पैसे निकाल नदी में फेंकना शुरू कर दिया ।इतना ही नहीं वे बच्चों से भी नदी में पैसे डलवा कर यूँ ख़ुश हो रही थीं मानो बच्चों को जीवन का सारा पुण्य बिना कर्म ही मिल गया हो।उसी समय ट्रेन के एक डिब्बे में झाड़ू लगाता एक बच्चा उस वृद्ध महिला के पास आकर खड़ा हो गया जो सारे पुण्य को अपने परिवार के लिए इकट्ठे कर बच्चों को डिब्बे से निकाल मठरियाँ बाँट रही थी।
“दादी!भूख लगी है”
“कुछ खाने को दे दो—-
दाsssदी! भूख लगी है—
“ओ दाsssss
“तो क्या करें?”बच्चे की बात को अनसुना करती बैठी वृद्ध ने चिढ़ कर कहा और सामने बैठे पोते से,
जो उठ कर रो रहा था,पर्स से सिक्का निकाल जल्दी से पार होते पुल से नदी में डलवाया।
लड़का हंस कर मुड़ गया-“दादी भूख तो हमें लगी है और पैसा नदी को दे रही हो ——/
वृद्धा ने सुना।पैसा निकाल कर देना भी चाहा पर तब तक बच्चा दूसरे डिब्बे में जा चुका था।
रेणुका अस्थाना
मेरी सहेली
यूँ तो मैं टीवी देखती नहीं बस टीवी सुनती हूँ। आज मन किया तो एक मूवी लगाकर बैठ गयी । हल्की सी नींद आने लगी । या यों कहें बोरियत होने लगी । आदत नही है न टीवी देखने की । तभी अचानक किसी आवाज के कारण ध्यान उधर गया,”अरे ! इतनी धूप ऊपर से लॉक डाउन , कौन हो सकता है ! आलस के कारण मन नही हुआ कि देखूँ कौन है । मुँह फेर लेटी ही थी कि वही आवाज पुनः डिस्टर्ब करने लगी । झुँझलाते हुए उठी और उस आवाज की दिशा में बढ़ चली, पर्दा खिसकाया ही था कि दूसरी तरफ से खिलखलाती हुई आवाज़ आयी, “जरा सामने का पर्दा तो हटाओ !”
मैं हैरानी में अब भी थी, पलटकर पीछे का पर्दा खिसका दिया ।
‘अहा! तो आप हैं जो मुझे सोने नही दे रहीं।’ पर्दे के पीछे उनको खिलखिलाते देखकर मन प्रफुल्लित हो गया । मेरी प्यारी सखियाँ मुस्कुरा रहीं थी ।
आश्चर्य में हैं न आप सब ! वो कोई और नही मेरी प्रिय किताबें थीं । जिनको इस लॉक डाउन के कारण भूल सी गयी थी ।
पिंजरे की चिड़िया
‘देखिए मम्मी ! बीनू मुझे बिना बताए घर से आपके पास गई थी । आपको समझा बुझा कर वापस भेज देना चाहिए था लेकिन आप हैं कि अपनी बेटी को समझाना तो दूर उसे मुझसे बात भी नही करने देतीं ताकि मैं ही अपनी पत्नी को कुछ समझाऊँ !’ पति ने माँ को फोन कर कहा ।
माँ का भी सब्र टूट गया बिफर गयीं, ‘ बेटी ब्याही थी , बेची नही थी । जो आप मेरी बेटी को इतना मारते पीटते रहते हैं दामाद जी !’
‘आपकी माँ से मिलकर तो लगा था भला परिवार है मेरी भी अकेली ही बेटी है सब कुछ देखभाल कर ब्याह किया था ‘ उन्होंने आगे कहा ,
‘मैंने तो सोचा था मेरी बेटी राज करेगी परन्तु आप तो !’
कहने को तो वह कह गयीं लेकिन मन में डर था कि दामाद जी भड़क गए और बिटिया को यहीं छोड़ गए हमेशा के लिए तो बड़ी बेइज्जती होगी । इसलिए उन्होंने बिटिया को समझा बुझा कर भेज दिया ।
पति के साथ घर के लिए निकलते समय वह अनेक जालों में उलझी हुई थी ।
‘हे !भगवान आपका ही सहारा है मेरे बिना बताए घर छोड़ कर चले जाने का बदला ये अहंकारी पुरुष जरूर लेगा ।’
घर के अंदर प्रवेश करते समय उसकी आँखे किसी परकटी चिड़िया की भाँति दिख रही थीं ।
एको भुक्त
ए ! अम्मा तुम हमका कुल्फी खिलाओगी जैसे वो लड़का खा रहा है ? माँ के साथ साथ चलते हुए उस अधनंगे बालक ने अपनी माँ से पूछा ।
माँ सिर पर कुछ कपड़ों की गठरी लादे आगे की तरफ लपकी जा रही थी । बालक पुनः दौड़ माँ के पास पहुँचा और हाथ पकड़ कर उसे झकझोरा । माँ ने मुस्कुराते हुए बालक की ओर देखा और आइसक्रीम खाते हुए बच्चों की ओर निगाह दौड़ायी । अपने कुर्ते की जेब में हाथ डाला उसमें से कुछ सिक्के निकले जिन्हें हाथ पर रख कर गिना । कुछ सोचते हुए उसने उन सिक्कों को वापस अपनी जेब में डाल लिया । बालक को समझाते हुए बोली , ‘ मेरा बचवा! कुल्फी तो तुम्हारे जितने बच्चे नहीं खाते हैं उनके छोटे छोटे दाँत होते है, कुल्फ़ी खाने से वो पिघल कर पेट में चले जाते हैं । और तुम भी तो छोटे हो तुम्हारे दाँत भी पिघल जाएँगे तब तुम रोटी नही खा पाओगे ।’
बच्चा सकपकाया ,’ हैं ! हम एस्किरिम खायेंगे तो दाँत पिघल जाएँगे । फिर वो बच्चे कैसे खा रहे हैं ।’ उसने सवालिया निगाहों से दूसरी ओर देखकर इशारा किया । माँ ने कहा , ‘बचवा! वो सब लोग खा सकते हैं क्योंकि वो डॉक्टर के पास जाते हैं ।’
भोलेपन से बालक ने कहा , ‘ अच्छा ! ये लोग एस्किरिम खाते हैं और डॉक्टर के पास जाते हैं डॉक्टर इनको सुई लगाता है , हम एस्किरिम नहीं खाते , हम डॉक्टर के पास नही जाते , हमको सुई भी नही लगती , और हम चंगे रहते है ।’
माँ ने विवशता और सुकून भरी निगाहों से उसको देखकर कहा , ‘ हाँ बचवा !’
बच्चा खुशी से माँ का हाथ पकड़ चलने लगा । माँ की आँख से दो बूंद छलक कर गिर पड़े ।
लघुकथाकार
नजरिया
‘अजी! सुनते हो , शर्मा जी की बहू अब जिला मजिस्ट्रेट हो गयी है ।’ दमयंती चाय बनाते हुये रसोईघर से ही बोली ।
बाहर आँगन में बैठे नीलेश को कोई उत्तर न देते देख वह फिर बोली और चाय छानने लगी ।
दमयंती पूरे मोहल्ले की ब्रॉडकोस्ट रिपोर्टिंग ऑफिसर थी । या यूं कहें कि बस खबर इधर से उधर पहुँचाना उनका पसन्दीदा काम था । इसलिए नीलेश ने उसकी बातों में कोई दिलचस्पी न दिखाई।
चाय लेकर दमयंती पास आ गयी और कुर्सी खींच कर बैठते हुए बोली,’ एक तो शर्मा जी का बेटा ही प्रशासनिक अधिकारी है और अब बहू भी डी एम हो गयी । घर के बाहर गाड़ियों की लाइन लगी रहती है और एक हम है कि बहू मिली वो भी कंगाल !’
अब नीलेश ने अपना मुँह खोला , “क्यों ! क्या कमी है हमारी बहू में! सुंदर है, सुशील है, पढ़ी लिखी है, संस्कारवान है! तुम्हारा और हमारा ख्याल रखती है, बच्चों की बेहतर परवरिश कर रही है!”
दमयंती ने मुँह बिचकाया और बोली , “हुँह! इससे क्या फर्क पड़ता है।”
नीलेश आगे कहते रहे, ” इन सबके साथ हमारी बहू सोशल वर्क भी कर रही है जिससे हमारा ही नाम रौशन हो रहा है । अब गाड़ियों की लम्बी कतार भले ही हमारे दरवाजे पर न हो लेकिन उसको लोग ज्यादा सम्मान देते हैं। शर्मा जी की बहू तो केवल पद के रुआब में रहती है। कभी देखा है उसे किसी से भी सभ्यता से बात करते हुए ।” दमयंती की आँखे सोचने वाले अंदाज में सिकुड़ गयीं । “हमें तो हमारी बहू ही सबसे अच्छी लगती है । अब तुम भी उसमे अच्छाई देखो तो सोने में सुहागा हो जाये।” नीलेश ने कहा । इसके साथ दमयंती ने भी सहमति में सिर हिला दिया । उसकी ऑंखे अब चमक उठी थीं ।
रचनाकार
मुफ़लिसी से जंग
कई दिनों बाद आज कलुआ अपने घर से निकला । ठेले को जंजीरों से मुक्त किया और उसको नहलाया धुलाया , बढ़िया सुंदर आवरण से सजाया । उस पर बड़े छोटे ताजे तरबूज लादे जो वह खेत से तोड़ कर लाया था और चल दिया ।
” मीठा रसभरा है, कोरोना से न डरा है” नया स्लोगन सुनकर नैंसी ने खिड़की खोल कर बाहर झाँका बढ़िया ताजे तरबूज देखकर उसका मन ललचा गया । उसने आवाज दी,’ ऐ ! लड़के ! सुनो कहाँ से लाये हो ! क्या भाव दोगे ?’ तमाम प्रश्न उत्तर के बाद उसने एक तरबूज कटवाया । लेकिन उसे लिया नही । कलुआ काफी गिड़गिड़ाया , ‘आपने तरबूज कटवा दिया और लिया भी नही । हमारा नुकसान जो जाएगा मैडम जी !’ नैंसी भी क्या करती अंदर से डरी हुई थी ‘कहीं कोरोना इसको भी हुआ तो !’
प्रत्यक्ष में बोली , ‘चल भाग यहाँ से !’ कलुवा भी घर की बेजारी से तंग होकर ठेला लेकर निकला था चार पैसे मिलेंगे तो राशन का जुगाड़ करे ।
भरी दुपहरी ,पानी का कोई ठिकाना नही , कोई खुली दुकान नही , क्या करे ? भूख प्यास से बेहाल होकर उसने अपने उस कटे हुए तरबूज को खाने के लिए उठाया और मुँह को लगाया ही था कि पीछे से पुलिस वाले ने जोर का लठ्ठ उसकी पीठ पर जमाया , “क्यों रे! कटे फल बेचता घूम रहा है ।”
तरबूज उसके हाथ से छूट कर दूर जा गिरा । सामने दुकान की शेड से एक बदहाल सा साया निकला और वह छाया धीरे धीरे आगे बढकर और लपक कर सड़क पर पड़े उस तरबूज को उठाकर अपनी गुदड़ी में छुपा कर भाग गई । बड़े चाव से उसने उस तरबूज को खाया और पेट पर हाथ फेरा । एक लंबी डकार ली । और वहीं लुढ़क कर सो गया । इधर कलुवा अपनी पीठ पर पड़े डंडे की जलन अभी तक महसूस कर रहा था । कुछ सोच कर उसने एक और तरबूज उसी गुदड़ी वाले के पास रख दिया और ठेला लेकर आगे बढ़ गया । उसकी आँखों के सामने उसका अपना भूखा परिवार तैर रहा था , दिमाग में फलों को बेचने की जुगत !!
फैशन
“अरी रंगीली ! सुन तो जरा!” मुँह में पान का बीड़ा दबाते हुए जुलेखा ने कहा , ” भाग के जा सब बहनों को बुला ला ।”
“क्यों??” रंगीली बोली,”कहीं प्रोग्राम में जाना है क्या?”
“हाँ ! ऐसा ही समझ ले” जुलेखा के स्वर में कुछ तल्खी थी ।
“अच्छा नही बताना तो मत बता, सूखे मिर्चे की तरह मुँह क्यों बना रही है ।” और बल खाती हुई वहाँ से चली गयी ।
“चलो – चलो सखियों ! गुरु मां बुला रही हैं ।” रंगीली अभी भी मटक रही थी ।
सबने हैरत से उसको देखा फिर सोचा लगता है कोई मुर्गा फिर फँसा । और सबकी सब उसके साथ चल दीं ।
जुलेखा जो इन सबकी बड़ी बहन , गुरु मां, सखी सब कुछ थीं ,सबको आते देख मुस्कुरायी और बोली ,”चलो सभी खूब अच्छी तरह तैयार हो जाओ, आज शाम पाँच बजे सम्मान समारोह में जाना है ।”
सभी के मुँह आश्चर्य से खुल गए ,”सम्मान समारोह!!”
“हाँ!” जुलेखा बोली ।
“वहाँ हमारा क्या काम ??? ” ,सबने एक साथ बोला ।
“है न ! हमारा सम्मान !” जुलेखा ने कहा ।
सभी एक दूसरे का मुँह ताकने लगीं। ऐसा तो कभी नही हुआ हमें तो पैदा होते ही बिरादरी से निकाल दिया जाता है । सम्मान कैसे ?
“मरी! इतना बड़ा डिब्बे सा मुँह न खोल ! आजकल ये भी फैशन है फैशन। अपना नाम बनाने के लिए लोग हमें भी पहचानने लगे है। अब तो हम पर किताबें लिखी जा रहीं किताबें। तो इतना न सोच चल तैयार हो जा । लोग अपनी लोकप्रियता के लिए आज हम किन्नरों का भी सम्मान करने लगे हैं । ” जुलेखा ने कड़वा सा मुँह बनाया ।
इस सबसे इतर सारी बहनों के चेहरों से खुशी टपक रही थी ।
अंजू बाजपेयी कानपुर
कानपुर
‘फलसफा’
“आप एक असन्तुष्ट कौम हैं।”
“कैसे?”
“आप जिस भी मुल्क में हैं, वहीं सामने वाली कौम से खफा हैं।”
“यानी सामने वाली कौम हमारे मजहबी मामलों को नेस्तनाबूद करने की कोशिश करती रहे और हम चुप बैठे रहें?”
“जिस मुल्क में सिर्फ आप ही आप हैं, वहाँ अपने ही लोगों से खफा हैं!”
“गरज यह कि हम जाहिलों को काफिरों-जैसी हरकतें करते देखते रहें और चुप रहें?”
“कमाल है यार! बाकी कौमें भी हैं न दुनिया में! अकेले आपको ही चुप रहने से इतना गुरेज क्यों है?”
“वाह मियां! हम कहाँ-कहाँ रहते हैं, क्या-क्या करते हैं, आप हमारी हर हरकत पर नजर रखे हुए हैं और उम्मीद करते हैं कि हम चुप रहें?”
समय की माँग
पापा को जब भी देखा, तुर्रम खाँ ही देखा ।वे घर में होते, तो किसकी मजाल थी, जो चूँ-चाँ करता ! वे हमेशा कुछ सोचा करते या लिखा-पढ़ा करते, इसलिए हल्ले-गुल्ले से उन्हें सख्त नफरत थी ।कहते-“किसी से कुछ पूछना हो या माँगना हो तो धीमे से बात करो ।मुझसे कोई काम हो तो दूर से चिल्लाओ मत, पहले मेरे पास आकर खड़े हो जाओ, मैं समय मिलते ही बात कर लूँगा ।” हम बच्चे तो बच्चे, मम्मी तक उनसे डरी-दुबकी, सिकुड़ी-सहमी रहतीं ।
कभी-कभार हम बच्चों की देखरेख के बाबत मम्मी की उनसे हल्की-फुल्की नोकझोंक भी हो जाती ।पर वे खुद की ही बात पर अडिग रहते ।कहते -“बिट्टो की माँ, दिन भर तो आॅफिस में खटता हूँ और तुम चाहती हो कि शाम को आॅफिस से आकर बच्चों को होमवर्क निबटवाने में मदद करूँ या इनके पास अपना समय जाया कर बैठूँ और इन्हें दुनिया-जहान के सलीके सिखाऊँ ।यह सब काम माँ का है ।आखिर जब इन्हें नहलाने-धुलाने से लेकर, इनका लंच पैक करने और इन्हें स्कूल तक पहुँचाने का जिम्मा उठाती ही हो तो यह भी कर लिया करो, पर मुझे डिस्टर्ब मत किया करो ।”
मम्मी रुआँसी हो उठतीं, पर जानतीं थीं कि कुछ भी कहो, इन पर कोई असर नहीं पड़ने वाला, इसलिए ज्यादा जिरह-बहस न करतीं ,बस कोल्हू के बैल की तरह अपने काम में जुटीं रहतीं ।बड़बड़ातीं-“हे भगवान, मुझे ऊपर उठा ले तो इस जंजाल से पीछा छूटे ।”
पर भगवान इतनी जल्दी सुन लेगा , हमें कतई यकीन न था ।एक दिन वे मार्केट से सब्जी लेकर लौट रही थीं कि ट्रक के चपेट में आकर दुर्घटना की भेंट चढ़ गईं ।कभी न रोने वाले पापा उस दिन इतना रोये कि चुपवाने वाले पनाह माँग गये ।
“आओ बच्चों, चलो ब्रश करो, नहाओ और फटाफट स्कूल के लिए तैयार हो जाओ ।” घटना के चार-पाँच दिन बाद पापा ने बिस्तर से आकर हमें उठाया ।
हमारी आँखें नम हो आईं ।देखा, कभी खूब दिन चढ़े तक सोने वाले पापा कभी के उठकर, पूरे घर का झाड़ू-पोंछा कर गैस चूल्हे पर लंच का भगोना तक चढ़ा चुके हैं ।पहले बिट्टो सिसकी, रोई, फिर हम सभी बच्चे फूट-फूटकर रोने लगे ।
“पापा, आप •••!” बिट्टो ने कुछ कहना चाहा ।
“हाँ मेरे बच्चों, “-पापा ने रोते हुए हम सभी बच्चों को अपने सीने में समेट लिया -“अब तुम्हारा पापा वह सब कुछ करेगा, जो तुम्हारी मम्मी करतीं थीं ।यही समय की माँग है ।”
पैलगी*
” आप किस धर्म के हैं ?” चलती हुई रेलगाड़ी में किसी ने किसी से सवाल किया ।
वह आदमी भारी असमंजस में पड़ गया । क्या धर्म बता दे2 ! उसके बापदादे तो कई पीढ़ियों से हिंदू ही रहते आये थे, जब वे एक-एक करके ईश्वर को प्यारे हुए तो उन्होंने अपने इस एकमात्र वारिस को ताकीद की कि बेटा , कभी भी हिन्दू धर्म का दामन न छोड़ना ,भले जान गंवानी पड़े, हमने तो घोर विपत्ति वाले काल में भी अपना ईमान न छोड़ा, भले कितने भी लालच दिए गये।
“आपने कुछ बताया नहीं भाई साहब ।” उस आदमी ने फिर पूछा।
“मैं हिन्दू ही था, पर अब मैंने बौद्ध धर्म की दीक्षा ले ली है।”
“क्यों भला ऐसी क्या जरूरत आ पड़ी ?”
“बस , बहुत हुआ अब, मैं फिजूल का ढोंग नहीं कर सकता । राह चलते उच्च वर्णो को मैं पैलगी करूँ, वे सिर भी न हिलाएँ, यह सब अब नहीँ देख सकता, कुछ लोग तो सिर्फ इसीलिए चेहरा देखा करते हैं कि यह मुझे कब पैलगी करता है। अब किसी को पैलगी नहीं करनी, समानता वाला व्यवहार चाहिए।”
बुद्धू
शाम हो गई है। दादा जी घूम-टहलकर
लौटे हैं और बरामदे में बैठे खाँस रहे हैं।
तभी दादी जी आती हैं । पूछती हैं
“कुछ खाओगे, पकाऊँ ?”
“रहने दो अम्मा जी, ” भीतर से बड़ी बहू निकलकर बोलती है, “बाबू जी मेरे यहाँ खा लेंगे। दिन की काफी दाल बची रखी है, यूँ भी, कुत्ते-बिल्ली खायेंगे।” फिर आश्वस्त हो, वापस लौट जाती है।
दादी जी के चेहरे पर मुस्कान पसर गई है। कहती हैं—”तब तो ‘गठ’ गया ।
छोटी बहू ने पहले ही मेरी दावत ले रखी है, पकाने से छुट्टी।”
“क्या उसके यहाँ भी दिन की दाल बची हुई है?” दादा जी पूछ रहे हैं।
“नहीं, उसे खुशी है। उसके मायके में झगड़ा हुआ है। उसके मम्मी-पापा उसके भाई से अलग रहने लगे हैं, हमारी तरह। कह रहे हैं, सारी सम्पत्ति बेटी को दे देंगे, बेटे को एक धेला नहीं देंगे।
उसके खराब चाल-चलन के चलते सारी सम्पत्ति से बेदखल कर देंगे।”
“अच्छा!”
“हाँ, और हो न हो, दस-पाँच दिन बाद छोटी बहू और छोटा बेटा वहीं जाकर रहने वाले हैं, उनकी सेवा के लिए । बहू कह रही थी । उसके पापा का फोन आया था। उन्होंने बुलाया है।”
“उसके मम्मी-पापा ने अब तक बेटे के नाम नहीं लिखी थी जायदाद?”
“चुप भी रहो, गुस्सा तो लगवाओ मत!
सभी हमारी तरह बुद्धू थोड़े हैं !”
दावत
फुटपाथ पर इमली बेचने वाली बुढिया घर पहुँची तो बहुत खुश थी। उसकी पोती ने पूछा-” दादी, क्या हुआ? आज बड़ी खुश हो।”
बुढिया चहकती हुई बोली- “जानती है, आज पुलिसवाले ने मुझसे बैठकीनहीं ली। उसका परमोसन हुआ है…बोला- ‘जा, आज इसी पैसे से कुछ बढिया-सा बनाकर खा ले और अपनी पोती को भी खिला दे।”
“अरे वाह! फिर तो दादी आज बच ही गये बीस रूपये!”
“हाँ बेटी, जा खरीद ला जो खाना है।”
“दादी, आप एक बार कह रही थीं कि आपको अरहर की दाल खाए एक जमाना हो गया।”
“हाँ रे, जब तेरे दादा थे, लाते थे कभी-कभार। शाम को रिक्शा चलाकर लौटते वक्त।” उनकी आँखें नम हो आईं।
“तो वही ले आऊँ दादी। मेरा भी खाने का मन है, मैंने तो कभी चखी ही नही।”
“अरे ना रे! बीस रुपये में कितनी मिलेगी अरहर की दाल! सुना है डेढ- दो सौ का भाव है।”
“कुछ तो मिलेगी, दादी! सौ-पचास ग्राम ही सही। आज हम भी दावत करेंगे।” कहती हुई वह भाग गई।
पात्रों का विद्रोह
अभी मैंने लिखने के लिए कलम उठाकर कागज पर टिकाया ही था कि संभावित रचना के दोनों पात्र अचानक मुखर हो उठे ।
पति बोला -“तुम लेखकों को दूसरों के फटे में टाँग अड़ाने में बहुत मजा आता है न ! कभी अपने बारे में क्यों नहीं लिखते? ”
“क्यों लिखेंगे भला,” पत्नी ने नाक बिचकाया-” इनके घरों में तो हमेशा सब ठीक-ठाक ही रहता है न ! बस इन्हें दूसरों की फजीहत कराने से मतलब है ।उसमें भी मेलमिलाप जरा कम ही दिखायेंगे, अलगाव में इन्हें लाख सुख ।अरे, ये मेरे पति हैं; चाहे लुच्चा हैं, लफंगा हैं, बदमाश हैं या फिर चरित्रहीन ही हैं तो मैं झेलूँगी, भला इनसे क्या वास्ता ! कुछ कहा तो नहीं मैंने इनसे कि जाकर पूरीु दुनिया में मुनादी पीट दो कि मैं अपने पति को तलाक देने जा रही हूँ, अदालत में इन्हें खड़ाकर इनसे गुजारा भत्ता लेने जा रही हूँ , पर नहीं भई, लेखक हैं न ,जा रहे हैं दिखाने, कोई इनका क्या कर लेगा, कागज-कलम लिए तैयार बैठे हैं !”
मेरे तो होश ही खराब हो गये ।पति अब बहुत प्यार से पत्नी को निहारे जा रहा था ।बोला -“तो जानेमन, क्या तुम कतई मुझे छोड़कर नहीं जाओगी? क्या वाकई मुझे गुजारा भत्ता के लिए अदालत में नहीं खड़ा करोगी? ”
“बशर्ते तुम अपनी सारी कमियाँ दूर कर लो ।”पत्नी गम्भीरतापूर्वक बोली ।
“मैं तैयार हूँ, आ जाओ ।”कहकर पति बाँहें फैलाये हुए पत्नी की ओर बढ़ा ।देखते ही देखते दोनों आलिंगनबद्ध हो गये ।
रचना पूरी न होने की कसक लिए मैं हाथ मलता रह गया ।
बन्दर, कुत्ते और इंसान
जैसे ही पहले से घात लगाये बैठे बन्दरों के झुंड रमुआ के खेत की ओर लपके, रमुआ ने पहले की तरह वहाँ बैठे तीन-चार कुत्तों को उलिहा दिया, कुत्ते बन्दरों की ओर ऐसे दौड़े, मानो वे जिंदा ही उन्हें चबा जायेंगे। बन्दर जान बचाने के लिए गिरते-पड़ते पेड़ पर जा चढ़े। फिर वे कुत्तों को देख-देखकर दाँत चियारने लगे । एक बूढ़े कुत्ते को उनका यह बर्ताव बहुत बुरा लगा। दाँत किटकिटाते हुए बोला-“यह तो कोई बात ही नहीं हुई, अब दाँत क्या चियार रहे हो । नीचे उतरो तब तुमको बताता हूँ। तुम्हें जरा भी छोटे-बड़े का अदब नहीं है। ” सारे बन्दर उसे चिढ़ाने औऱ ठेंगा दिखाने लगे । बोले -“नीचे उतरेगा मेरा… । तुम कुत्तों को आखिर हम बन्दरों से क्या दुश्मनी है… बड़े वो बनते हो..समझ में नहीं आता कि हम बन्दरों ने तुम्हारा क्या बिगाड़ा है ! क्यों हमारे पीछे पड़े हो ?” वही बूढ़ा कुत्ता फिर भभका-” हमारा क्या बिगाड़ा है तुमने और आखिर हमारा क्या बिगाड़ ही सकते हो ! तुम तो बेचारे उस गरीब किसान का बिगाड़ रहे हो, जो हमारा मालिक है औऱ जिसने मर-मर के यह फसल रोपी है । क्या तुम जानते हो कि उसने इस फसल के लिए कितनी कुर्बानी दी है, कितने दुख-तकलीफ सहे हैं , जिसकी फसल को तुम नोच-नोच कर खाने आये हो ? क्या तुम्हें मालूम है कि उसकी पत्नी को कैंसर है, जिसकी दवा-दारू इस फसल से भविष्य में होने वाली आमदनी पर ही टिकी है ?” “हम यह सब कुछ नहीं जानते हैं और जानें भी क्यों ? हम बस इतना जानते हैं कि इस सीधे-सादे दिखने वाले पर हकीकत में धूर्त से आदमी का ही किया-धरा है कि हमें जंगलों से ही बेदखल होना पड़ा है , इसने जंगल ही काट डाले, फिर तुम लोग ही बताओ कि हम कहाँ जाएँ, क्या खाएँ? फिर रिहायशी इलाके में घुसेंगे ही, इसमें किसी को मिर्ची क्यों लगती है ?
बूढा कुत्ता बोला-” कहते तो ठीक ही हो, पर हम क्या करें ! यह इंसान की जाति ऐसी है ही। सच्चाई तो यह है कि है इसकी इच्छाऍ बेलगाम हैं जिनका कहीं कोई कोई अंत ही नहीं है, यह सिर्फ औऱ सिर्फ इच्छाओं के पीछे आँख मूँदकर दौड़ने वाला पुतला है, इसकी एक इच्छा पूरी हुई नहीं कि दम साधकर दूसरी इच्छा के पीछे दौड़ने लगता है, अपने हित-अहित की चिंता किए बिना । यह ना मालूम कितने पेड़ काट डालेगा, ना मालूम कितनी जमीन खोद लेगा औऱ ना मालूम रोज-बरोज कितने प्रदूषण से धरती-आसमान को भर देगा, कुछ पता नहीं। देखना भाई मेरे , यह अपनी मौत आप मरेगा, अपनी खराब आदतों से इस पूरी सृष्टि को होम कर देगा एक दिन ।”
बन्दर बोले-” हमारे विचार कितने मिलते-जुलते हैं ना मेरे भाई।”
“तो अब उतर कर हम फसल खा सकते हैं न !”
“नहीं, तुम ऐसा फिर भी नहीं कर सकते, हम कुत्ते जन्म से ही वफादार होते हैं, वफादार होकर ही जीते हैं औऱ मरते हैं वफादार ही । हम कभी भी इंसानों जैसे कृतघ्न नहीं होते ।”
मुन्नू लाल
बलरामपुर