बच्चों की दुनिया का हर रंग है आज की बाल कहानियों मेंः प्रकाश मनु

बाल कहानियों के बारे में जब भी सोचना शुरु करता हूं तो बचपन की सपनीली दुनिया में पहुंचे बगैर नहीं रह पाता। वह दुनिया जिसमें मां और नानी द्वारा सुनाई गई एक-से-एक खूबसूरत और अचरज भरी कहानियों का अकूत खजाना था। उन्ही में ’अधकू की कहानी’ भी थी। एक हाथ, एक पैर वाला दुबला-पतला सीकिया अधकू, जो अपने कद्दावर, बलशाली भाइयों से लगातार तिरस्कृत होता है। उसे बे-काम का समझकर मारने की कोशिशें भी होती हैं। तब एक मां है, जो उसे हर बार बचाती है। वही सीकिया अधकू बड़ा होता है तो इतना समझदार बनता है कि राजकारा में बंदी अपने भाइयों का ’मुक्तिदाता ’ साबित होता है। कहानी का अंत होते-होते अधकू राजदरबार में भरपूर सम्मान पाता है और अपने भाइयों को भी ढंग का काम-काज दिला देता है।

मां जब यह कहानी सुना रही होती थी तो लगता था , वह दुबला-पतला सीकिया अधकू मैं ही हूं। और फिर कहानी के आगे बढ़ने के साथ-साथ एक तेज झंझावत की तरह अधकू का दर्द मेरे भीतर बहने लगता था। आंखों के आगे भविष्य के सपने और उजली कामनाओं के चिराग जलने लगते थे।

बचपन में सुनी ऐसी ही एक और कहानी थी उस राजकुमार की, जिसे चेतावनी दी जाती है कि वह महल की छह कोठरियां देख सकता है, पर सातवीं कोठरी में जाने की उसे मनाही है। वह राजकुमार भी पगला है, धुनी है। वह मन ही मन तय करता है कि चाहे जो हो, वह सातवीं कोठरी भी देखेगा कि आखिर इसमें क्या है?…और फिर एकाएक कहानी में तेज गति, बल्कि एक भूचाल-सा आ जाता है। राजकुमार के सिर पर एक के बाद एक मुसीबतें खौफनाक बिजलियों की तरह टूटने लगती हैं। …इधर कहानी सुनने वाला नन्हा बालक – जो कि मैं हूं – लगभग सम्मोहन की हालत में है। छाती में धड़-धड़, धड़-धड़ शुरू हो जाती है। अजब-सा खौफ भरा मंजर ! लेकिन बड़ा मजा आता है।…कहानी भागती हुई आगे बढ़ती जा रही है और एक के बाद एक तिलस्मी दरवाजे खुलते जाते हैं। राजकुमार बड़े से बड़े दुख उठाता है, लेकिन हारता नहीं है, उफ तक नहीं करता। …और अंत में वह विजयी भाव से सामने आता दिखाई पड़ता है। उसका माथा दमक रहा है…आंखों में चमक है!

मुझे याद है, बचपन में यह कहानी सुनते हुए लगता था, सातवीं कोठरी में जाने वाला वह अधपगला दुस्साहसी राजकुमार मैं हूं। बड़ा हुआ तो मैं भी उस सातवीं कोठरी में जाकर देखूंगा कि उसमें क्या कुछ रहस्य छिपा है। जो भी मुसीबतें आएंगी, झेलूंगा। लेकिन रुकूंगा नहीं, हारूंगा नहीं।

आज लगता है मेरी कलम को बचपन में सुनी उन्ही कहानियों का ’वरदान ’ मिला है। हृदय में करुणा, सहृदयता और परदुखकातरता शायद उन्ही कहानियों से आई हो, जो जाने-अनजाने मुझे इंसानियत का गहरा पाठ पढ़ा रही थीं।…जाने क्या बात है कि उसके बाद सुनी-पढ़ी सैकड़ों कहानियां फीकी पड़ीं, मुरझा गईं, पर बचपन में सुनी कहानियों का असर आज तक कम नहीं हुआ।

यह है बाल कहानियों की अदम्य शक्ति या ताकत जिस पर अक्सर कम ही गौर किया जाता है। वरना आज के ज्यादातर बड़े लेखक बाल कहानियों से इस कदर उदासीन न होते। और न दोयम दर्जे के तमाम लेखकों द्वारा बाल कहानी के नाम पर रद्दी भाषा में कुछ भी लिख देने का सिलसिला चल पाता। कुछ लोग तो बाल कहानी को उपदेश देने का बहाना भर ही मानते हैं और अपनी हर कहानी पर भारी-भरकम उपदेशों की ऐसी गठरियां लाद देते हैं कि कहानी उसके नीचे कलपती-कराहती और दीर्घ निश्वास लेती नजर आती है। इन कहानियों को पढ़ने वाले बच्चों की जो हालत होगी, उसकी कल्पना सहज ही की जा सकती है।

फिर एक बात हमें यह भी नहीं भूलनी चाहिए कि ’कल की कहानी’ से ’आज की कहानी’ का मिजाज एकदम बदला हुआ है- बल्कि सच तो यह है कि वह लगातार बदलता गया है और बदल रहा है। आज की बाल कहानी पर आज के समय और हालात का तथा निरंतर बदलती हुई दुनिया की सच्चाइयों का इतना सीधा असर पड़ा है कि उसे नजरअंदाज करना मुमकिन नहीं है। आज के बच्चों को तिलिस्म उतना नहीं भाता, जितना अपने आसपास की दुनिया की छोटी से छोटी हलचल। या कि अपनी नन्ही-मुन्नी दुनिया की नन्ही-नन्ही मुश्किलें, सुख-दुख, सपने, आकांक्षाएं , यहां तक कि शिकवे-शिकायतें भी। यह दीगर बात है कि यहीं एक ’अच्छे ’ और ’बुरे’ कहानीकार की परख भी अच्छी तरह हो जाती है। एक बुरा कहानीकार किसी चीज को उपदेशात्मक ढांचे में, मुर्दा भाषा में कहेगा और झट से एक तीसरे दर्जे की फार्मूला कहानी लिख मारेगा, जिसका आदि और अंत एकदम तय है, जिसके चरित्र बेजान हैं और संवाद फीके, नीरस। लेकिन बढ़िया कहानीकार भाषा की जिंदादिली और किस्सागोई में ढालकर यही सब कहेगा तो उसमें जीवन का रस छलछला रहा होगा। औऱ ये ऐसी कहानियां होंगी, जिन्हें एक बार पढ़ना शुरू करने के बाद बच्चे छोड़ नहीं पाएंगे, बल्कि बार-बार उनकी ओर खिंचेंगे। इन्हें पढ़ते हुए उनकी कल्पनाशीलता और ’क्रिएटिव उर्जा’-दोनों का खुद-ब-खुद विकास होगा।

अलबत्ता अच्छी कहानी क्या होती है और बच्चों पर उसका असर कितना गहरा और रचनात्मक किस्म का होता है, इस पर खूब बिस्तार से ढेरों बातें कही जा सकती हैं। पर मुझे लगता है कि इससे कहीं बेहतर है जो बढ़िया कहानियां मैंने गुजरे कुछ बरसों में पढ़ी हैं और जिनकी गूंजें-अनुगूंजें आज भी मैं लगातार अपने भीतर महसूस करता हूं, उनकी यहां चर्चा हो जाए. क्योंकि कोई अच्छी कहानी शायद खुद-ब-खुद यह बता देती है कि वह अच्छी क्यों है या कि उसमें दूसरी कहानियों से अलग और असरदार चीज क्या है।

गुजरे कुछ बरसों में पढ़ी कहानियों में जिस कहानी की याद सबसे पहले आती है, वह बैजयन्ती टोणपे की कहानी है। दीवाली के माहौल पर लिखी गई एक बहुत सादा-सी कहानी। दीवाली आई तो अपने साथ बहुत-सी चहल-पहल लेकर आई, बहुत-सी उमंगें और सपनों के रंग। दीवाली की यह रौनक एक छोटे से बच्चे के मन में भी हलचल मचा रही है। वह अपनी मां से पूछता है- “ मां, यदि मैं आज के दिन अपने दोस्तों को दावत पर बुला लूं, तो कैसा लगेगा!“ मां खुशी-खुशी दावत की तैयारी में लग जाती है।

मगर जब बालक के दोस्त दावत खाने के लिए आते हैं तो एक क्षण के लिए उसे झटका लगता है। वे झुग्गी-झोपड़ियों के मैले कपड़ों वाले गरीब बच्चे थे। अगले ही क्षण मां के चेहरे पर मुस्कान आ जाती है और वह प्यार से उनका स्वागत करती है, प्यार से उन्हें खिलाती-पिलाती है। उस समय उन गरीब बच्चों के चेहरे पर जो दमकती हुई खुशी थी, उसने मानों दीपों के त्योहार में ऐसे अद्भुत रंग भर दिए थे, जैसे पहले कभी नजर ही नहीं आए थे। एक सादा, बहुत सादा कहानी भी कैसी पुरअसर हो सकती है, इसे वैजयंती टोणपे की यह कहानी पढ़कर समझा जा सकता है।

ऐसे ही एक अलग-सी कहानी है मोहम्मद अरशद खान की ’किराए का मकान’। एक बहुत छोटी-सी कहानी। लगभग घटनाहीन। लेकिन जब से मैंने इसे पढ़ा है, इसका असर और गूंजें-अनुगूंजें लगातार बढ़ती ही गई हैं। हुआ यह कि एक किराए के मकान में पुराने किरादार गए और उनकी जगह नए आ गए। इन नए किराएदारों में एक छोटा-सा बच्चा भी है, जिसका ध्यान पुराने किराएदारों की छूटी हुई छोटी-छोटी चीजों पर जाता है। तब उसे मालूम पड़ता है, इस मकान में उस जैसा ही एक छोटा-सा बच्चा भी रहता था। उसकी एक बहन थी। वे कैसे-कैसे मजेदार खेल खेलते थे, क्या-क्या उनके शौक थे, छूटी हुई चीजें मानो उनकी कहानी बता रही हैं। और अब इस बच्चे के मन में उन दो छोटे बच्चों के लिए, जो यह मकानछोड़कर जा चुके हैं, जैसा गहरा लगाव पैदा होता है, उसे कह पाना निश्चित रूप से एक मुश्किल काम था। लेकिन मोहम्मद अशरद ख़ान ने बड़े कमाल के ढंग से एक छोटी-सी कहानी में वह सब कुछ इस ढंग-से गूंथ दिया है कि यह कहानी भुलाए भूलती ही नहीं।

इसी से मिलती-जुलती कहानी है मोहम्मद साजिद ख़ान की ’ट्रांसफर’। इसमें एक छोटी-सी प्यारी बच्ची निकी का बड़ा ही कोमल मन है, जिसकी पीड़ा शब्दों के पीछे से बार-बार उचकती-झांकती है। निकी को सहेली नेहा को घर छोड़कर जाना होता है, क्योंकि उसके पिता यानी राहुल अंकल का ट्रांसफर हो गया है। नेहा के जाने के बाद भी निकी उसे भूली नहीं और उसके साथ बीते क्षणों के साथ-साथ छोटी एक-एक चीज उसे याद आती रही। फिर एक दिन नेहा का पत्र आया, जिसमें उसका नया पता था। निकी ने झट नेहा को पत्र लिखा और उसका जवाब भी आया। पत्रों का सिलसिला चल पड़ा। लेकिन पढ़ाई की व्यस्तता के कारण पत्र-व्यवहार का यह सिलसिला बीच-बीच में धीमा भी पड़ जाता। कुछ अंतराल के बाद निकी ने एक-एक कर चार पत्र डाले, लेकिन एक का भी जवाब नहीं आया। हां, उस मकान में रहने वाले एक अंकल का छोटा-सा पत्र उसे मिला, जिसमें लिखा था कि अब यहां नेहा नाम की कोई लड़की नहीं रहती। पिंकी समझ गई कि नेहा के पापा का फिर कहीं ट्रांसफर हो गया है। अब फिर कभी मिलना हो न हो, सोचते ही निकी की आंखों की कोरों से दो बूंद आंसू ढुलक पड़े।…

एक मामूली चरित्र पर लिखी गई ऐसी ही अद्भुत कहानी है-देवेन्द्र कुमार की ’ रिक्शा डॉक्टर’। यह एक मामूली रिक्शा चालक रामदास की कहानी है जो मरीजों को, रात हो या दिन, डॉ. राय के क्लीनिक पर पहुंचाता है और इसमें उसे अजानी खुशी मिलती है। खराब से खराब मौसम में भी वह अपना काम करने से हिचकता नहीं था। और धीरे-धीरे हालत यह हुई कि लोग रामदास रिक्सेवाले का नाम ही भूल गए और उसका नाम पड़ गया ’रिक्शा डाक्टर’। इसी नाम से लोग उसे जानते और पुकारते थे। फिर एक दिन यही रिक्शा डाक्टर बीमार पड़ा तो डॉ.राय कैसे उसका घर तलाशते हुए उसके पास पहुंचे और उसे प्यार के साथ क्लीनिक ले गए। कहानी के अंत में इसका वर्णन मन पर बहुत गहरा असर छोड़ता है।

एक और यादगार कहानी है ओमप्रकाश कश्यप की ’नन्ही का बटुआ’। यह नन्ही कितनी समझदार है, कैसे एक-एक पैसा जोड़कर बटुए में रखती है और कैसे सावधानी से अपने बटुए की संभाल करती है, इसका वर्णन मैं करने नहीं जा रहा। कहानी पढ़कर ही इसे अच्छी तरह से समझा जा सकता है। लेकिन इसी नन्ही को एक दिन पता चलता है कि मित्ती –जो कि एक नौकरानी की बेटी है, सिर्फ इसलिए परीक्षा में नहीं बैठ पाएगी, क्योंकि उसके पास फीस देने के लिए पैसे नहीं हैं। यह पता चलते ही नन्ही के भीतर जैसे हलचल मचती है और एकाएक मानो वह बहुत बड़ी होकर अपना बटुआ लेकर मित्ती के स्कूल में उसकी फीस चुकाने पहुंच जाती है, इसका वर्णन ओमप्रकाश कश्यप ने बहुत अच्छे और प्रभावशाली ढंग से किया है। बाल कहानी में बच्चे के मनको टटोलने की जैसी कोशिश इस कहानी में है, वैसी कम ही नजर आती है।बच्चे के मन को पढ़ने की ऐसी ही कुछ उम्दा कोशिशें ससि बिष्ट की ’ बब्बू जी की तीर्थयात्रा’, मनोहर वर्मा की ’शक्कर आंदोलन’, ऊषा रानी की ’ चीं-चीं चूं-चूं’, क्षमा शर्मा की ’पेड़ पर स्कूल’, उषा यादव की ’ डायरी ’, मेधाविनी मोहन की ’ हंसती कली’ तथा मुकेश नौटियाल की ’स्कूल में अन्ना’ जैसी कहानियों में नजर आती है। ये कहानियां आश्चर्यजनक ढंग से एक-दूसरे से अलग हैं। लेकिन अपने जुदा तरीकों से वे बच्चे के मन को टोहने-टटोलने में कामयाब होती है। इसी से समझा जा सकता है कि अब बाल कहानियों में ’ टाइप्ड ’ चरित्रों और निश्चित अंत वाले बने-बनाए कथानकों का जमाना चला गया। जब तक हर कहानी अपने बिल्कुल अलग अन्दाज में बच्चे तक नहीं पहुंचती, तो उसे बाल कहानी या कोई ’ क्रिएटिव’ रचना कहना मुश्किल है। मगर इतना तय है कि कहानियां याद वहीं रहती हैं जिनमें चरित्रों और कथानक का अपना अलग गठन ही नहीं, कथा भाषा का भी अपना एक अलग रंग और अंदाज होता है।

ये कहानियां सिर्फ बानगी के तौर पर पेश की गई हैं। यह बताने के लिए कि आज की कहानी कया है या उसका बदला हुआ मिजाज कैसा है। निस्संदेह आज की बाल कहानियां इस यकीन के साथ लिखी जा रही हैं कि आज के बच्चे न सिर्फ ज्यादा ’ सयाने ’ हैं बल्कि वे संवेदनशील भी अधिक हैं और वे कहानी सिर्फ सुनने के लिए ही नहीं सुनते, बल्कि कुछ कर गुजरना भी चाहते हैं। चाहे वे एक छोटी-सी थाप ही दे पाएं, लेकिन सच्चाई और सच्चाई के पक्ष में वे अपनी छोटी-सी भूमिका निभाने में हिचकते नहीं हैं। इस लिहाज से कहानी उनके लिए सिर्फ ’ रस ’ या मनोरंजन का खजाना ही नहीं, बल्कि जीवन का निर्माण करने वाली किसी जिंदा शख्सियत या उत्फुल्ल प्रेरणा की तरह भी है।

दूसरी खास बात यह है कि आज की बाल कहानी जीवन के एक छोटे हिस्से नहीं, बल्कि बालक के संपूर्ण जीवन को अपने समूचेपन से चाहने की जिद पर आ गई लगती है। लिहाजा आज की बाल कहानी सिर्फ कल्पना की दुनिया की फंतासी कथा नहीं है जो जीवन से भागकर बच्चे को किसी तिलिस्म में शरणइ लेने को मजबूर करे। इसके बजाय आज का बच्चा उन कहानियों को कहीं ज्यादा पसंद करता है जो उस की दुनिया को कुछ इतने कल्पनापूर्ण तथा असरदार ढंग से उनके सामने रखें कि बच्चा चकित होकर उस खिलंदड़ी में न केवल खुद-ब-खुद शामिल हो जाए बल्कि खुद को उसका एक हिस्सा महसूस करे। यही वजह है कि आज की बाल कहानियों में न सिर्फ बच्चों की सक्रिय उपस्थिति बढ़ी है, बल्कि यहां वे अपनी पूरी रचनात्मक शक्ति, उर्जा और खिलंदड़पन के साथ मौजूद नजर आते हैं। जैसे इन बाल कहानियों से उन्हें जो शक्ति और रचनात्मक प्रेरणा मिलेगी, उससे वे अपनी पढ़ाई, खेलकूद और दूसरे तमाम कामों को बेहतर ढंग से कर पाएंगे।

आज की बाल कहानियों में तीसरी बड़ी खासियत दुखी और कमजोर लोगों के साथ कहानीकार ही नहीं, बल्कि बच्चे का भी सच्चा प्यार और गहरी हमदर्दी का होना है। इन बाल कहानियों में कमजोर और गरीब लोगों के लिए बच्चे का यह प्यार या हमदर्दी कोरा हवाई या दिखावटी नहीं है, बल्कि बच्चे उस दर्द को महसूस करके अपने आप को बदलने और कुछ कर दिखाने को विकल होते हैं। आज की बाल कहानियों में ऐसे उदाहरण कदम-कदम पर नजर आते हैं और यह, मैं समझता हूं, , एक बड़ी चीज है। क्योंकि आज के बच्चे के नजरिए में जो बदलाव आया है, उससे कल की दुनियी बदल जाने वाली है।

इस तरह की कहानियों में ओमप्रकाश कश्यप की बेहद संवेदनशील कहानी ’ नन्ही का बटुआ’ का हम जिक्र कर चुके हैं। गोपीचंद श्रीनागर की ’पानी वाली लड़की’, सरोजनी कुलश्रेष्ठ की ’ बबीता’, और देवेन्द्र कुमार की

ईमानदार रौशनी ’

जैसी कहानियां इसी संवेदना को अपने-अपने ढंग से विस्तार देती हैं। गोपीचंद श्रीनागर की ’पानी वाली लड़की’ एक गरीब लड़की है जिसने फटा-पुराना फ्राक पहना हुआ है और वह पानी बेचकर दो पैसे कमा लेने के लिए घर से निकलती है। पूछने पर पता चला, ट्रेन में लोटा भरकर स्वच्छ पानी बेचने वाली इस लड़की का नाम मीना है और फिर उसकी कहानी भी पता चली कि वह यात्रियों को जो मीठा पानी पिलाकर पैसे इकठ्ठे करती है, ये पैसे उसके पढ़ने के काम आएंगे। यह लड़की पानी जरूर बेचती है, लेकिन बेइमानी से पैसे कमाने में उसका यकीन नहीं है, इसले जैसे ही ट्रेन रेंगती है, वह बाकी पैसे लौटाती हुई सुरीली आवाज में कहती है-“बाबू जी, यह लीजिए अपने पचास पैसे।“ और तब उन यात्रियों के चेहरे उतर जाते हैं जो उसे बेईमान कहकर मजाक उड़ा रहे थे।

सरोजनी कुलश्रेष्ठ की ’बबीता ’ भी ऐसी ही गरीब लड़की की कहानी है जो दूसरों के घर काम करके भी हर हाल में पढ़ लेना चाहती है।

देवेन्द्र कुमार की कहानी ’ईमानदार रोशनी’ एक सनकी-से बाबा रंगी बाबा की कहानी है जो खाली मोमबत्तियां बेचते हैं। जब कभी रात को बिजली चली जाती है, तो वह झट छोटी-सी चौकी दरवाजे के पास रख लेते हैं और मोमबत्तियां बेचना शुरू कर देते हैं। लेकिन रंगी बाबा मोमबत्तियां बेचते क्यों हैं? जब यह राज समझ में आता है, तब उनके आगे पाठकों का सिर खुद-ब-खुद झुक जाता है। क्योंकि तब समझ में आता है कि रंगी बाबा उन लोगों में से हैं जो घुप्प अंधेरे में भी रोशनी की उजास को खत्म नहीं होने देना चाहते, भले ही उन्हें इसके लिए जीवन भर क्यों न खपना पड़े।

जगजीत सिंह की खूबसूरत कहानी ’नन्ही शिक्षिका’ की नायिका एक नन्ही बच्ची है जो अड़ोस-पड़ोस के धोबियों को पढ़ाना शुरू करती है और इस काम में उसे इतना आनंद आता है कि अपनी अद्भुत लगन के कारण सब ओर इस भली-भली-सी नन्ही शिक्षिका की कीर्ति फैल जाती है।

इधर की कहानियां निस्संदेह आदर्श की बात करती हैं पर ये आदर्श हवाई आदर्श नहीं हैं और जीवन के रोजमर्रा के व्यवहार और सुख-दुख से उनका गहरा रिश्ता है। इसीलिए दामोदर अग्रवाल की कहानी के ’मास्टर जी’ आदर्श होकर भी हमें इतने प्यारे और अपने लगते हैं। उनका अभिमानी छात्र भले ही साधारण वस्त्रों के कारण उनका मजाक उड़ाए, पर जब वह अपने पिता को आदर से मास्टर जी के आगे झुकते देखता है और जब यह राज उसके आगे खुलता है कि मास्टर जी ने बहुत से विद्यार्थियों को धन से मदद करके उन्हें पढ़ाया और जीवन में आगे बढ़ने में मदद की है, तो इस गर्वीले छात्र का अभिमान खुद-ब-खुद चूर-चूर हो जाता है।…यानी आज की कहानियों के आदर्शवाद में यथार्थ जीवन की चमक मौजूद है।

एक दौर था जबकि हिन्दी में बड़े-से बड़े सेखकों ने बच्चों के लिए बेहतरीन कहानियां लिखीं। कृश्न चंदर, इस्मत चुगताई, भीष्म साहनी, मन्मथनाथ गुप्त, रघुपति सहाय ’फिराक ’ , मैथलीशरण गुप्त, श्यामू सन्यासी, निर्मल वर्मा, शैलेश मटियानी, नागार्जुन, कमलेश्वर, मोहन राकेश, मन्नू भंडारी, सावित्री देवी वर्मा, दिलीप कौर टिवाड़ा, अभिमन्यु अनंत, यादवेन्द्र शर्मा ’चन्द्र ’, राजेन्द्र अवस्थी, गोविन्द मिश्र, शशिप्रभा शास्त्री, शकुंतला सिरोठिया और यहां तक कि पूर्व राष्ट्रपति तथा शिक्षामंत्री डॉ. ज़ाकिर हुसैन की लिखी ऐसी खूबसूरत कहानियां भी पढ़ने को मिलती हैं जिनमें बब्चे का मन और इच्छा-संसार शामिल है और बच्चे बिना पूरा पढ़े उन्हें छोड़ नहीं पाते।

इस लिहाज से ज़ाकिर हुसैन की ’ अब्बू खां की बकरी’ तो पहाड़ के परिवेश पर लिखी गई लाजवाब कहानी है, जो बच्चों का मन मोह लेती है। यह पहाड़ पर रहने वाले एक बहुत प्यारे और खूबसूरत इन्सान अब्बू खां की कहानी है जिन्हें बकरियां पालने का शौक है। वह कितने प्यार से बकरियों को पालते थे और उनका इतना ख्याल रखते थे कि क्या कहना ! मगर इसके बाद भी अब्बू खां की बकरियां रस्सी तुड़ाकर पहाड़ के उंचे शिखर पर चली जाती थीं। वहां एक भेड़िया रहता था जो उन्हें खा जाता था। अब्बू खां इससे परेशान थे। वह बकरियों को और कसकर बांधते और ज्यादा ख्याल रखते, मगर बकरियां थीं कि उन्हें पहाड़ पर जाए बगैर चैन न पड़ता। वहां वे पूरी आजादी के साथ सांस लेती थीं, भले ही भेड़िया उन्हें क्यों न खा जाए। ऐसे ही अब्बू खां की एक बहुत प्यारी खूबसूरत बकरी थी चांदनी, जिस पर वह बहुत प्यार लुटाते थे और उन्हें लगता था, यह बकरी उन्हें कभी छोड़कर नहीं जाएगी। मगर चांदनी भी उसी तरह रस्सी तुड़ाकर पहाड़ की चोटी पर गई। वहां उसने पूरी आजादी के साथ सांस ली और भेड़िए का शिकार हो गई। उसकी सफेद काया रक्तरंजित होकर पहाड़ के शिखर पर गिर पड़ी और भेड़िया उसे खा गया।

लेकिन कहानी का असली मर्मांतक बिंदु यह है कि मरने से पहले अपने दो सींगों के बल पर उस नाजुक-सी बकरी ने रात भर उस दुष्ट भेड़िए का मुकाबला किया और उसे बार-बार पचाड़ा। सुबह जब मस्जिद से अजान की आवाज आई, चांदनी ने मन में कहा- “ अल्लाह तेरा शुक्र है। मैने अपने बस भर तेरा मुकाबला किया, अब तेरी मर्जी। “ यों उस खूबसूरत बकरी चांदनी की साहस कथा खत्म हो गई। मगर पेड़ पर बैठी एक बूढ़ी-सी चिड़िया इस बात को जरूर जानती है कि चांदनी खत्म जरूर हो गई, मगर आखिरकार तो भेड़िया नहीं, चांदनी ही जीती।

श्यामू सन्यासी की ’ खरहा भाई और भेड़िया दादा’ भी खासी रोमांचक कथा है। हर बार भेड़िया खरहा के बच्चों पर घात लगाकर हमला करता है और खा-पीकर डकार लेता है। खरहा भाई-भौजाई रोते-धोते हैं और उनका रोना-कलपना देख, पेड़-पौधे तक के आंसू आ जाते हैं, आसमान की छाती फटने लगती है। मगर बार-बार यह कहानी दोहराई जाती है तो खरहा भाई-भौजाई के आंसू आखिर सूख गए और फिर उन्हें लगा कि कुछ तो रास्ता निकालना चाहिए। अंततः वे कारीगरों को बुलाकर शीशण के तख्तों से एक पक्का मकान बनवाते हैं और फिर भेड़िया दादा और खरहा भाई की कहानी एकाएक उलट जाती है। भेड़िया दादा संदूक में बंद हुए और आखिर ’ परमधाम ’ पहुंच गए। कहानी के अंत में खरहा भाई-भौजाई और उनके बाल-बच्चों की खुशी का बड़ा प्यारा-सा चित्र है।

कृश्न चंदर की कहानी ’गंडक का भूत’ यों तो परंपरागत परी कथाओं जैसी है, लेकिन लिखने का अंदाज और भाषा जिंदादिली से ऐसी भरपूर है कि समज में आता है कि एक बड़े कहानीकार की कलम का स्पर्श कहानी को क्या से क्या बना देता है। ’ गंडक का भूत ’ में राजा उदास है क्योंकि उसके खजाने पर एक भूत ने कब्जा कर लिया है और इस भूत का कोई मुकाबला नहीं कर पाता। मजे की बात यह है कि इस जबर्दस्त ताकतवर भूत को एक छोटा, बहुत छोटा बच्चा ही काबू करता है और उससे माफी मंगवाता है।

कृष्ण बलदेव वैद की ’ जादू का चोगा ’ और भीष्म साहनी की ’ अनोखी हड्डी ’ भी राजाओं के परिवेश पर लिखी गई कहानियां हैं। मगर उन्हें इस बात के उदाहरण के रूप में देखा जाना चाहिए कि किसी राजा की कहानी में भी आज के जीवन का सत्य कितने पुरजोर ठंग से आ सकता है।

खास बात यह है कि इन बड़े लेखकों की लिखी हुई कहानियों में जीवन का सुख-दुख और करुणा सहज ही समा गई लगती है। शैलेश मटियानी की ’रुनझुना दीदी रुनझुना’ में छोटे भाई का दर्द कहानी का अंत आते-आते अगर उसकी अमीर और क्रूर हृदय वाली बहन की संपन्नता की खिल्ली उड़ाता है, तो निर्मल वर्मा की कहानी ’ बाज और सांप ’ में आकाश में उड़ने वाला साहसी बाज मरकर भी डरे हुए घर-घुसरे सांप से मानो जीत जाता है। इस्मत चुगताई की बच्चों के लिए लिखी गई अलमस्त कहानी ’ कामचोर’ इस लिहाज से इन सब कहानियों से अलग है कि यहां बच्चे अपने पूरे नटखट अंदाज, शरारतीपन और क्रिएटिव उर्जा के साथ मौजूद हैं।

मैथलीशरण गुप्त की ’ जगतदेव ’ सावित्री देवी वर्मा की ’बर्फ का दूल्हा’ मन्मथनाथ गुप्त की ’ जैसी करनी वैसी भरनी’, रघुपति सहाय ’ फिराक’ की ’ बेताल का भूत’, अभिमन्यु अनंत की ’ मायापुर की अगमजानी ’, दिलीप कौर टिवाड़ा की ’ सेमल ’ भी बच्चों के लिए लिखी गई दिलचस्प कहानियां हैं। यादवेन्द्र शर्मा ’चन्द्र’ की’ टिड्डी पुराण ’, गोविन्द मिश्र की ’ कवि के घर में चोर’ और शकुन्तला सिरोठिया की ’गुलमोहर ’ भी बच्चों के लिए लिखी गई यादगार कहानियां हैं।

वरिष्ठ कथाकारों में देवेन्द्र सत्यार्थी और विष्णु प्रभाकर की बाल कहानियों की अलग ही सजधज है। इनमें कथा-कौशल के साथ-साथ भाषा का जादुई सम्मोहन भी बांधता है।

देवेन्द्र सत्यार्थी की ’ अदारंग सदारंग ’, ’मौसी पपीते वाली’, ’ चिड़िया की आंख ’ और ’ बस एक फूल’ इस लिहाज से लाजवाब कहानियां हैं। खासकर ’ अदारंग सदारंग’ नाम के दो बड़े कद और बड़े दिल वाले खासे लहीम-शहीम भाई राजा के दरबार में जाकर जादू जैसा जो दृश्य उपस्थित करते हैं, उसे भूल पाना नामुमकिन है। इसी तरह ’ मौसी पपीते वाली ’ बड़ी भावात्मक कहानी है और अपने मीठे सम्मोहक प्रभाव तथा सच्ची खुरदरी आत्मीयता के लिहाज से यह कहानी कुछ-कुछ रवीन्द्रनाथ ठाकुर की ’ काबुली वाला’ की याद दिलाती है।

विष्णु प्रभाकर की ’ पहाड़ चढ़े गजानन लाल’, ’ दक्खन गए गजानन लाल’ , ’ कहीं कुछ नहीं बदला ’, ’ सबसे सुन्दर लड़की ’, ’ धन्य है आपकी परख ’ भी सुन्दर कहानियां हैं जिनमें ’ पहाड़ चढ़े गजानन लाल’ तो कहानी की भाषा और गजानन लाल की जिंदादिली के कारण कभी भुलाई नहीं जा सकती।

हिन्दी में पशु-पक्षियों को लेकर लिखी गई कहानियों के बड़े स्पष्ट ढांचे बन चुके हैं। और इस तरह की ज्यादातर कहानियां सांचों में ढली कहानियां हैं। एक सांचा तो पंचतंत्र ढली कहानियों का ही है, जिन्हें निर्लज्जता से ज्यों का त्यों अपने नाम से छपवाने में बहुत-से तथा कथित बड़े कहानीकारों को झिझक नहीं होती। फिर पशु-पक्षियों का बेतुके ढंग से मानवीकरण करके उन पर बेतुके करतब लाद देने वाली हड़बड़िया कहानियों का भी एक अलग सांचा बन गया है। इन कहानियों में हल्का-सा मजा भले ही हो, लेकिन ये बच्चे के अनंत संसार में उतरकर उन्हें गहराई से छू नहीं पातीं।

तो भी हिंदी में ऐसी बाल कहानियों की कमी नहीं है जो नायक के रूप में पशु-पक्षियों को लेकर उन्हें सचमुच बालक के मन और कल्पना की मनोरम दुनिया से जोड़ देती हैं। देवेन्द्र कुमार, अमर गोस्वामी, हरिकृष्ण देवसरे, शोभनाथ लाल, क्षमा शर्मा, अजामिल आदि कहानीकारों की पशु-पक्षियों के इर्द-गिर्द घूमती कुछ ऐसी दिलचस्प कहानियां पढ़ने को मिलती हैं जो मानो यह प्रकट कर देती हैं कि इस दिशा में काम करने की अभी बहुत गुंजाइश है। देवेन्द्र कुमार की ’ चिड़िया का सच’ और ’ कौन जाने’ कहानियों में चिड़िया का होना हमें मनुष्य से कहीं ज्यादा बड़े सच के होने जैसा लगता है। इसलिए कि ’ चिड़िया का सच’ में खुशामद पसंद राजा को साधारण जनता के दुख-दर्द की कथा कोई और नहीं, महज एक नन्ही चिड़िया ही सुना पाती है। कहानी का अंत दुख भरा है, क्योंकि सच्चाई कहने के बदले चिड़िया की जान भी जा सकती थी। लेकिन चिड़िया उदास फिर भी नहीं है, क्योंकि जितनी उसकी सामर्थ्य थी, उतनी कोशिश करके उसने एक बड़ा और असुविधाजनक सच राजा तक पहुंचाया तो।

क्षमा शर्मा की ’ तितली की खुशी ’ कहानी में एक नन्ही-सी तितली की नन्ही-सी खुशी बस इतनी है कि उसने एक रोते हुए बच्चे को थोड़ी रंग भरी उड़ान देकर चुप करा दिया। ’ पप्पू चला ढूँढने शेर ’ भी क्षमा शर्मा की बड़ी खूबसूरत कहानी है जिसमें शेर की कहानी पढ़ते-पढ़ते पप्पू एकाएक जंगल में जा पहुंचता है। अब पप्पू जंगल में शेर ढूंढ रहा है और वहां शेर तो नहीं मिलता, मगर एक के बाद एक ऐसे मंजर नजर आते हैं, जो बच्चे के मन को मोह लेते हैं।

अमर गोस्वामी की ’ शेरसिंह का चश्मा ’, ’ खुशबू की ताकत ’ जैसी कहानियां भी शेर, हाथी बगैरह को लेकर लिखी गई बड़ी दिलचस्प कहानियां हैं। उनकी कहानी ’ नन्ही दोस्त ’ में एक नन्हे बालक मनोज और गौरैया की दोस्ती है। यह दोस्ती इतनी गहरी और सच्ची है कि मनोज जब बीमार पड़ता है, तो गौरैया भी उदास हो जाती है। फिर जब वह अच्छा हो जाता है, तो गौरैया अपनी चोंच में एक नन्हा-सा रंग-बिरंगा फूल दबाए लौटती है और उसे मनोज की गोदी में गिरा देती है। अपनी चूं-चूं की बोली में मानो वह गा रही है- ’ तुम जिओ हजारों साल!’

रामगोपाल वर्मा के बृहद संग्रह एक सौ एक बाल कहानियां में भी पशु-पक्षियों को लेकर लिखी गई कई नन्ही-मुन्नी कहानियां हैं। इनमें ’ तितली और फूल ’ में तितली और फूल की दोस्ती बहुत भली-भली-सी है। तितली फूल से रस लेती है और उड़ जाती है। लेकिन वही फूल जब मुरझाने लगा तो तितली को देखकर रो पड़ा। बोला- ’ तितली बहन मैं मर रहा हूं।’ सुनकर तितली उदास हो गई। सोचने लगी, भले ही जीवन छोटा हो, पर फूल जैसा सुन्दर होना चाहिए। रामगोपाल वर्मा की ’ कुट-कुट’ एक चूहे को लेकर लिखी गई नन्ही मजेदार कहानी है। लेकिन उनकी इससे भी दिलचस्प कहानियां वे हैं, जिनमें ’ चूहे सिंह ’ के चुहिया रानी के नाम लिखे गए अलग-अलग पत्र हैं और वे पत्र चूहे सिंह और चुहिया रानी के दाम्पत्य के सचमुच बड़े मनोहर चित्र आंखों के आगे उपस्थित कर देते हैं।

प्रसिद्ध कथाकार मन्मथनाथ गुप्त की कहानी ’ ज्ञानी चूहा ’ भी खासी चर्चित हुई है।

अजामिल की ’ एक थी गिल्लू’, गिल्लू मौसी की कहानी है। पेड़ पर चढ़कर चूहे और तोताराम को सड़े-गले फल देने वाली गिलहरी-गिल्लू मौसी की कहानी। लेकिन ऐसी गिल्लू मौसी को भी एक दिन अक्ल आ ही गई। और जब अक्ल आई तो वह मन की सारी कड़वाहट भूल गई।

शोबानाथ लाल की ’ कछुआ और पाजी खरगोश ’ भी कुछ लीक से हटकर अलग कहानी है। राजा को खुजली है और उसे राजवैद्य ने तालाब के साफ पानी में नहाने की सलाह दी है. मगर सारे दरबानों की आंख में धूल झोंककर न जाने कौन उस तालाब का पानी गंदला कर जाता है। तब कछुए ने उसे पकड़ने की जिम्मेदारी उठाई और पीठ पर चारकोल चिपकाकर जैसे नाटकीय ढंग से उसने पाजी खरगोश को पकड़ा, उससे कहानी खुद-ब-खुद एक मजेदार शक्ल लेती चली गई।

लेकिन हरिकृष्ण देवसरे ने ’ खरबूजे ने बदला रंग ’ और ’ तोता मैना का नया संवाद’ में पशु-पक्षियों को लेकर लिखी गई कहानियों का एक अलग विन्यास ही नहीं दिया, बल्कि एक अलग राह भी खोज निकाली है। इनमें ’ खरबूजे ने बदला रंग ’ की खासियत यह है कि इस पुष्तक की कथाओं में हरिकृष्ण देवसरे ने पंचतंत्र के कथाशिल्प को एक आदुनिक कलेवर में पेश किया है। इनमें कई कहानियां ऐसी हैं जिनकी पृष्ठभूमि में पंचतंत्र की कोई न कोई कथा है। बल्कि पंचतंत्र की कथा जहां खत्म होती है, ’ खरबूजे ने बदला रंग’ की बहुतेरी कथाएं वहां से शुरू होती हैं। हरिकृष्ण देवसरे पुराने चरित्रों को आधुनिक संदर्भों की रोशनी में ऐसा रूप देने चलते हैं कि आज वे कहीं ज्यादा हमें अपने आसपास के लगते हैं।

नागार्जुन, आनंद कुमार, प्रेमलता वात्स्यायन और उषा रानी की भी पशु-पक्षियों को नायक बनाकर लिखी गई कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। बाबा नागार्जुन की कथा मंजरी के दो खंडों में पंचतंत्र वाले शिल्प को अपनाकर पशु-पक्षियों की बड़ी रोचक और जानदार कहानियां बुनी गई हैं, जो आज के जीवन से भी जुड़ती हैं और खेल-खेल में नए पाठ सिखाती चलती हैं। आनंद कुमार की ’ कपटी-बिलाव ’ ’ चतुर सियारिन ’ जैसी कहानियां खासी मशहूर हुई हैं। प्रेमलता वात्स्यायन की ’ काना गीदड़’ कहानी भी खासी मजेदार है। पशु-पक्षियों को लेकर लिखी गई कहानियों में उषा रानी की ’ चूं-चूं-चीं-चीं’जैसी कहानियां इसलिए एकदम अलग नजर ती हैं क्योंकि यहां बच्चा कहानी के एकदम केन्द्र में है और बच्चे तथा पशु-पक्षियों की नैसर्गिक दोस्ती खुद-ब-खुद कहानी की शक्ल लेती, आगे बढ़ती है।

और अब जरा हास्य प्रधान कहानियों की चर्चा की जाए, जो निस्संदेह अलग से चर्चा की हकदार भी हैं।

हिन्दी में हास्य की कमी की अक्सर शिकायत की जाती है और इसे तो लगभग तय ही मान लिया गया है कि बड़ों के कथा साहित्य में भी ज्यादा बढ़िया हास्य कथाएँ नहीं हैं। इस लिहाज से हिन्दी का बालकथा साहित्य थोड़ा सौभाग्यशाली है। यहां बहुत अधिक मात्रा में तो नहीं, लेकिन ऐसी चुस्त, खिलंदड़ी बाल कथाएं हर दौर पर लिखी गईँ, जो बच्चों के मन को गुदगुदाएँ और उदासी के कोहरे को चीरकर उन्हें हंसना हंसाना सिखाएँ। हिंदी के वरिष्ठ कथाकारों में शैलेश मटियानी, द्रोणवीर कोहली, हरीश तिवारी, नारायण प्रसाद, मुबारक अली, विद्याधर शुक्ल आदि की जोरदार बाल कहानियां पढ़ने को मिलती हैं। इनमें कुछ कथाकार श्रुति परंपरा से चली आती पारंपरिक हास्य कथाओं को ही नए अंदाज में छालकर पेश करते हैं, तो कुछ के यहां हास्य की एकदम मौलिक उद्भावना है।

शैलेष मटियानी की ’ धनुषभंग’ इस लिहाज से बड़ी मजेदार बालकहानी है, जिसमें रामलीला के मैनेजर ख्यालीराम और बांकेराम साह जी के घराने की पुश्तैनी दुश्मनी रामलीला में नाटक के अंदर एक और रसीले नाटक को जन्म देती है। इधर जनता रामचंद्र की जय बोलने को उतावली है और उधर राम जी का धनुष टूटने को ही नहीं आ रहा।

विश्वनाथ मुखर्जी की कहानी ’झबरा की मुसीबत ’ में एक बाल न कटवाने वाले बच्चे का किस्सा है, जिसे बचाने के चक्कर में अपने एक सहपाठी दोस्त के अनाड़ी हाथों से उल्टे-सीधे बाल कटवाकर चला आता है। और उसे देखने वाले हैरान हैं कि ’ अरे, यह क्या ! झबरा के बालों को बकरी खा गई!’

हरीश तिवारी की ’ उधार की वसूली’ और ’ अरे मैं लम्बा हो गया’ में दूसरों को बेवकूफ बनाकर उधार सामान ले जाने औसे मजे से डकारने वाले कज्जन बाबू की बड़ी चुहल भरी कथा है।

मगर विद्याधर शुक्ल की ’ चोर से मुठभेड़’ शायद इससे भी दो कदम आगे है, जिसमें सारा घर चोर का मुकाबला करने के लिए लाठियां-डंडे लेकर निकल आता है। बड़ी सावधानी से उसे पकड़नेकी रणनीति बनती है। पग-पग पर भय, रहस्य और रोमांच, लेकिन कहानी के अंत में छत का दरवाजा खोलकर, टीन पर चढ़कर देखा गया तो एक उल्लू जोर से फड़फड़ाता हुआ उड़ गया। और उस वक्त चोर को पकड़ने वालों का जो हाल था, वह शायद बयान से बाहर है।

कुंदनलाल की कहानी ’ कल्लू चाचा जागे ’ और हसन जमाल छीपा की ’कल्लू चाचा ने सिनेमा देखा’ में भी शुद्ध हास्य की बड़ी अजब-गजब छटाएँ हैं।

विष्णु प्रभाकर की ’ पहाड़ चढ़े गजानन लाल’ में हास्य का एक अलग मोहक अन्दाज है। गजनंदन लाल के भारी शरीर को देखकर किसी को यकीन नहीं था कि वह पहाड़ की दुर्गम चढ़ाई चढ़ पाएंगे। मगर गजनंदन लाल बाकायदा पहाड़ पर चढ़े और अपने सहयात्रियों के दिलों के साथ-सात सारे वातावरण में उन्होंने ऐसी जिंदादिली घोल दी कि वह सहयात्रा सभी के लिए एक यादगार घटना बन गई।

बाद की पीढ़ी के कथाकारों में सरोजनी प्रीतम, अमर गोस्वामी, भगवती चरण मिश्र और ओमप्रकाश कश्यप की कुछ बढ़िया हास्य कथाएं पढ़ने को मिली हैं। इसमें अआमर गोस्वामी का ’शेरसिंह का चश्मा’ , ’ खुशबू की ताकत’ , ’ हड़पराम गड़प’ जैसी कहानियों में शिष्ट हास्य के बड़े सुन्दर नमूने हैं।

ओमप्रकाश कश्यप की ’ अकली बकली की पाठशाला’ और ’ बेद चाचा और उनके करामाती लट्टू’ कहानियां भी ग्रामीण परिवेश में हास्य की बड़ी अजब-अनोखी झांकियां पेश करती हैं। अकली-बकली चाहे खुद पढ़े न हों और उन्हें ’अ ’ से ’ अनार’ भी याद न हो, मगर जब वे जोश में आकर पूरे गांव को पढ़ाने की ठान लेते हैं, तो उनके पढ़ाई के नायाब ढंग में ऐसी-ऐसी मौलिक उद्भावनाएं निकलकर आती हैं कि पढ़ते-पढ़ते बरबस नन्हे पाठकों के चेहरे पर मुस्कान खिंच जाती है। मगर बेद चाचा और उनके करामाती लट्टुओं की कथा तो ऐसी अचरज भरी है कि उसे पढ़ते हुए अतिशयोक्ति अलंकार के सारे पुराने उदाहरण फीके पड़ जाते हैं और बेद चाचा एक ऐसे किस्सागो के रूप में उभरकर सामने आते हैं कि उनका जादू सचमुच पाठकों पर हाबी हो जाता है।

हास्य कथा के फलक को विस्तार देने वाली कहानियों में यादवेन्द्र शर्मा ’ चन्द्र’ की ’ टिड्डी पुराण ’ और सरोजनी प्रीतम की गिनती लाल की छींक ’ का जिक्र भी जरूरी लगता है जिनमें हास्य की सहज बानगी देखने को मिलती है।समय और परिवर्तनों की तेज उथल-पुथल के बावजूद यह एक अजीब-सी सच्चाई है कि हिन्दी में अब भी ज्यादातर बाल कहानियां पारिवारिक ढंग की ही लिखी जा रही हैं। इधर बाल कहानियों की छोटी-बड़ी सौ से ज्यादा किताबों से गुजरने पर पता चला कि उनमें लगभग तीन-चौथाई पारंपरिक परिवेश की ही थीं। दुख तो इस बात का है कि इनमें से ज्यादातर कहानीकार बगैर यह जाने कि समय कितना बदल चुका है और दुनिया कहां से कहां पहुंच चुकी है, या कि इधर बच्चों की रुचियां कितनी तेजी से बदली हैं- उससे निहायत बेपरवाह रहकर पिटे-पिटाए ढंग से बासी कहानियां लिख रहे हैं। ऐसी कहानियां जिनमें न भाषा नई है, न कथन। यहां तक कि पुरानी लोककथाओं को ही उठा-उठाकर टीपा जा रहा है और उन्हें बहुतेरे लोग बड़े मूर्खतापूर्ण दंभ के साथ अपने नाम से छपा भी डालते हैं। मगर ये बाल कहानियां नहीं हैं। हिन्दी बाल कहानी के शुरुआती दौर में भले ही उनका महत्व रहा हो, लेकिन मौजूदा कथा परिदृश्य में तो इनका कोई योगदान हो नहीं सकता। यह दीगर बात है कि हिन्दी बाल कहानी के नाम पर ज्यादातर ऐसी लोककथाएँ ही चारों ओर बिखरी पड़ी हैं और और उससे बाल कहानियां और बाल कहानीकार दोनों ही उपहास की वस्तु बनते जा रहे हैं।

हां, बेशक कुछ ऐसे समर्थ बाल-कहानीकार भी हैं जो पारंपरिक कथा-परिवेश का सहारा तो लेते हैं, पर उन्हें एक बिल्कुल नया सर्जनात्मक विन्यास देकर बिल्कुल नए ढंग की कहानियां गढ़कर दिखाते हैं। इस लिहाज से वरिष्ठ कथाकार देवेन्द्र कुमार की कुछ कहानियां अद्वितीय हैं, जो उन्हें उस्ताद कहानीकारों की पांत में बिठाती हैं। देवेन्द्र कुमार की ’ सोने का जूता’ , ’ एक बूढ़ा आदमी’, ’ देवरा का तूफान’ , ’ पशु सेना’ जैसी कहानियां इस लिहाज से बार-बार पढ़े जाने की मांग करती हैं। इनसे पता लगता है कि कोई बड़ा और समर्थ कथाकार परंपरागत कथा-परिवेश का इस्तेमाल करके भी कैसी ताजगी भरी कहानियां गढ़ सकता है, जो आज के नए युग सत्य और जीवन की चिंताओं को प्रकट करती हैं। इस लिहाज से ’ सोने का जूता’ देवेन्द्र कुमार की लाजवाब कहानी है। एक राजा युद्ध जीतकर आया, तो उसने पराजित राजा के द्वार पर अपना जूता टांग दिया कि हर कोई उसे प्रणाम करके निकले और तब विद्रोह किसी और ने नहीं, उसके सेनापति ने ही किया, जिसने उसे बताया कि असली युद्ध तो मन की वीरता से जीते जाते हैं और जो हारता है, वह जरूरी नहीं कि कायर हो।…कि युद्ध जीतने के बाद जूता टांगकर किसी का अपमान करने का हक हमें नहीं है!

वरिष्ठ कथाकार तथा नंदन पत्रिका के संपादक जयप्रकाश भारती ने पारंपरिक कथा शिल्प को लेकर इधऱ कई सुंदर कहानियां लिखी हैं। इनमें ’ दीप जले शंख बजे’ बड़ी भावपूर्ण कहानी है। यह वेल्दी नामक एक विदेशी लड़की की कहानी है जिसने दीपों के त्योहार के बारे में अपनी नानी से सुना था और तभी से उसने तय कर लिया था कि वह भारत जाएगी और स्वयं अपनी आंखों से उस त्यौहार की जगर-मगर देखेगी। आखिर वेल्दी नारायणपुर में आई, स्वामी सदानंद से मिली और भारत में आकर कुछ इस कदर ’ भारतीय ’ हो गई कि गांव की औरतें कहने लगीं- ’यह औरत तो लक्ष्मी है। इसने हमारे गांव को बदल दिया। हमें नई रोशनी में जीना सिखा दिया।’

भगवतीशरण मिश्र की ’जब राजा हंस पड़ा’, ’ असली कौन ’, ’ कंजूस सेठ ’ जैसी कहानियां भी पारंपरिक कथा-परिवेश से निकलकर दूर जाने वाली कहानियां हैं। उमा पंत, मधुमालती जैन, रेखा रस्तोगी, मालती शर्मा, सत्यप्रभा पाल, शकुन्तला कालरा, राज बुद्धिराजा, नगेश पांडेय ’संजय ’, जगदीश चंद्रिकेश, सूर्यनाथ सिंह, साबिर हुसैन, भैरूंलाल गर्ग, सुनील शर्मा, नीरू तिवारी, योगेश चन्द्र शर्मा, श्रीनिवास वत्स, सत्येन्द्र वर्मा, चारुदत्त ’ इंदु’ , विमला रस्तोगी, शशि गोयल, श्याम सिंह शशि, मला मेहता, यादवेन्द्र शर्मा ’ चंद्र’ आदि कथाकारों ने भी पुरानी कथा तकनीकों का सहारा लेकर पारपरिक परिवेश की कहानियों में आज की किसी नई बात या नए सत्य को प्रकट करने की कोशिश की है। लेकिन इनमें से संभवतः किसी को वह सफलता नहीं मिली जो ओमप्रकाश कश्यप जैसे एक अपेक्षाकृत नए और युवा कथाकार की ’ एक राजा था ऐसा’ , ’ गुट्टी काका’ और लालटेन वाली बुढ़िया’ जैसी अद्भुत शक्तिशाली कहानियों में नजर आती है। ’ एक राजा था ऐसा’ का झक्की और शक्की तो है ही, घमंडी भी इतना है कि जरा-सी बात पर पूरी झील को सुखा देना चाहता है। मगर इस अभिमानी राजा से भिड़ गया कच्ची उम्र का एक लड़का, जिसने राजा से हल चलवा लिया और यों राजा ने जाना कि मेहनत की खुशी क्या होती है। उसकी उदासी खत्म हो गई और झील पर जो बेवजह आपद आई थी, वह भी उड़न –छू हो गई।

ओमप्रकाश कश्यप की ’ गुट्टी काका’ कहानी के गुट्टी काका तो इतने प्यारे और लाजवाब हैं और बच्चों पर उनका प्यार कुछ इस कदर निसार होता है कि एक बार इस कहानी को पढ़ने के बाद इसे भूल पाना किसी के बस की बात नहीं।इसी तरह उनकी ’ लालटेन वाली बुढ़िया ’ कहानी की रहस्यमय बुढ़िया शुरू से ही बांध लेती है। शाम होते ही वह अपनी झोपड़ी के दरवाजे पर लालटेन जलाकर क्यों रखती थी और फिर ऊँघती-सी किसकी प्रतीक्षा करती थी? …बुढ़िया की यह प्रतीक्षा किसी को पागलपन भी लग सकती है। लेकिन ओमप्रकाश कश्यप ने ’ लालटेन वाली बुढ़िया ’ कहानी को जैसा करुण और मर्मस्पर्शी अंत दिया है, उसे पढ़ते हुए सचमुच आंखों में आंसू आ जाते हैं।

इधर हिन्दी में परी कथाओं के खिलाफ बड़ा तूमार बांधा जा रहा है, मानो परी कथाएं बच्चों को बिगाड़ रही हों और उनसे बुरी और अस्पृश्य चीज तो आज की दुनिया में कुछ हो ही नहीं सकती। मैं समझता हूं यह दृष्टिकोण भी बड़ा अतिरंजना पूर्ण है। सवाल परी कथा के उतने होने या न होने का उतना नहीं है, जितना अच्छी कहानी होने या न होने का है। बुरी परी-कथाएं यदि बहुतायत से लिखी जा रही हैं तो अच्छी परी कथाएं बिल्कुल नहीं लिखी जा रही हैं-ऐसी बात नहीं है। अमर गोस्वामी, उषा महाजन, सविता चड्ढा , मनहर चौहान, रत्नप्रकाश शील और कई अन्य कथाकारों की भी ऐसी परी कथाएं मुझे याद आ रही हैं , जिनमें एकदम नई सूझ है।और मुझे लगता है वे किसी न किसी तरह से आज के बाल कहानी के फलक को नया विस्तार भी देती हैं। उषा महाजन की ऐसी ही एक जोरदार परी कथा है जिसमें गांव के लोग परी के आगे अपनी यह इच्छा प्रकट करते हैं कि गांव की सब लड़कियों को पालना उनके लिए मुश्किल काम है। और फिर लड़के तो किसी काम आते हैं, जबकि लड़कियां किसी काम की नहीं हैं। परी खुशी-खुशी गांव की सब लड़कियों को अपने साथ लेकर चली जाती है। और उसके बाद गांव कितना रूखा-सूखा, उदास और निरानंद हो जाता है , गांव के लोग किस तरह हाथ जोड़कर और गिड़गिड़ाकर उन लड़कियों से मिलने की इजाजत मांगते हैं, उनके चेहरे पर कैसा अपराध-बोध खुदा हुआ है, यह सब कहानी पढ़कर ही जाना जा सकता है।

इसी तरह सविता चढ्ढा की एक कहानी में परियों की राजकुमारी नहीं, कुरूप है और उसके चेहरे पर कुछ-कुछ चेचक जैसे धब्बे हैं। परियों की राजकुमारी की शादी धरती के एक मेहनती युवकके साथ होती है, जो साफ-साफ परी रानी से यह कहता है कि दहेज उसे नहीं चाहिए, क्योंकि उसे अपनी मेहनत पर भरोसा है। परियों की राजकुमारी उसे बदसूरत नहीं, सुंदर इसलिए लगती है क्योंकि उसका मन बड़ा सरल और उदार है।

इसी तरह अमर गोस्वामी की एक मजेदार परी कथा में परी धरती पर आती है तो उसे एक शादी की दावत में जाने का सुयोग मिलता है। वहां वह खा-खाकर इतनी मोटी हो जाती है कि बेचारी के पंख काम नहीं करते। अब वह उड़े तो उड़े कैसे? लाचार होकर उसे कुछ रोज धरती पर ही रहना पड़ता है और धरती पर उसे जो प्यारे-प्यारे अनुभव हुए, उनका तो कहना ही क्या।

मैं नहीं समझता कि ये कहानियां किसी भी तरह से हेय कहानियां हैं, बल्कि सच तो यह है कि परी कथा के कड़वे से कड़वे यथार्थ को भी बड़े दमदार तरीके से पेश किया जा सकता है। हां, इस शिल्प का रचनात्मक ढंग से इस्तेमाल करने सकने वाले उस्ताद लेखक हमारे यहां सच ही कम हैं और नकलचियों की भीड़ और भभ्भड़ बहुत है।

यों इसमें कोई शक नहीं कि आज की बाल कहानियों में बालक के भीतर बाहर की दुनिया के साथ-साथ आज की तेजी से बदलती हुई दुनिया की बदली हुई सच्चाइयां आनी ही चाहिए- भले ही हम शिल्प या तकनीक कोई भी अपनाएँ। इस लिहाज से हरिकृष्ण देवसरे की पीपल वाला भूत तथा और बिल्ली रास्ता काट गई किताबों की कहानियां मानो फिजूल की रूढ़ियों और अंधविश्वासों के खिलाफ एक मुहिम-सा छेड़ देती हैं। इनमें ’सही रास्ता , ’भविष्यवाणी ’ तथा ’ और बिल्ली रास्ता काट गई ’ जैसी कहानियां तो अंधविश्वासों पर करारी चोट करने के साथ-साथ किस्सागोई का सुर भी बांधे रखती हैं। हालांकि ऐसी कहानियों में ‘टाइप्ड’ होने का खतरा बहुत है।

सुरेखा पाणंदीकर की तीसरी लड़की और कार्बन कापियों की करामात कथा संग्रहों की ज्यादातर कहानियां ऐसी हैं जिनमें नए जमाने की नई लड़की का आत्मविश्वास मानो शब्द-शब्द से झलक रहा है। सुरेखा पाणंदीकर की कहानियों की नायिकाएं ज्यादातर किसोर उम्र की लड़कियां ही हैं जो अपने को इस बात के लिए हेय मानने को कतई तैयार नहीं हैं कि वे लड़कियां हैं। वे अपने बुद्धिमत्तापूर्ण कार्यों, हौसले और दिलेरी से पग-पग साबित करती हैं कि आज की ’ नई लड़की ’ बदल चुकी है और उसे कृपया हीन न समझा जाए ! इसके अलावा उषा यादव, रमश आजाद, सुभाष अखिल, मो. अशरफ खान , अनुकृति संजय, गुडविन मसीह, उषा महाजन जैसे कथाकारों की कहानियां पढ़कर समझ में आता है कि आज की कहानी किस कदर बदल गई है। इनमें रमेश आजाद की ’ और कम्प्यूटर बैठ गया ’ तो सूचना माध्यमों के मौजूदा आतंक तक पहुंचती है।

आज की बाल कहानियों की एक बड़ी खासियत यह है कि उनमें बच्चे का उथल-पुथल भरा खदबदाता मन बार-बार उचक-उचककर सामने आता है। आज की कहानी एक छोटे-से-छोटे बच्चे के इच्छा-संसार को भी नजदीक से जाकर समझना चाहती है। भले ही बच्चे के मन में अनार खाने की इच्छा हो और यह ’ इच्छा बढ़ते-बढ़ते इतनी बड़ी हो गई हो कि उसे अपने आसपास की दुनिया, पढ़ाई-लिखाई और तमाम शौक भी अनार खा लेने की उस नन्ही-सी इच्छा के आगे छोटे लगने लगते हैं। दामोदर अग्रवाल की ’ आपके हिस्से का अनार ’ इस लिहाज से बेमिसाल है और मैने सचमुच इससे पहले किसी कहानी में बच्चे के मन में गूंजती किसी इच्छा का ऐसा चित्रण पहले कभी नहीं पढ़ा। इस कहानी का बच्चा मुरारी स्कूल जाते-आते रास्ते में दुकानदार से अनार का भाव पूछता है और चकराता है। बीमार होने का झूठा बहाना बनाता है, अनार की खीर खाने की इच्छा प्रकट करता है और जब सारे तीर बेकार हो जाते हैं तो वह रोते-रोते आकिर पिता के दफ्तर पहुंच जाता है और रोते-रोते ही कहता है-’ पिताजी, आप चाहे मुझे चाहे मारिए, पर मैं अभी, इसी समय, एक अनार खाऊंगा। साढ़े चार रुपए दीजिए। ’ कितनी सादा-सी कहानी, लेकिन उसमें बच्चे का मन जिस तरह से खिंचा चला आता है, उसका कोई जवाब नहीं है।

इसी तरह शकुन्तला वर्मा की ’ बस पांच मिनट ’ , हरदर्शन सहगल की ’ रंग-बिरंगे पत्र ’ , मुकेश नौटियाल की ’ स्कूल में अन्ना’ , दिनेश पाठक ’ शशि ’ की ’ सपने में सपना’ , यादराम रसेन्द्र की ’ फटीचर’ , नागेश पांडेय ’ संजय ’ की ’ खोया नहीं’ जैसी कहानियों में आज के बच्चे की उपस्थिति कहीं अधिक ठोस और यथार्थ रूप में नजर आती है।

हालांकि यह क्षेत्र इतना चुनौती भरा है कि अब भी यहां असीम संभावनाओं के द्वार कुले हुए हैं। बाल कहानी को अगर सचमुच बाल कहानी रहना है – आज के बच्चे की कहानी, तो उसमें बब्चे के सपने और आकांक्षाओं के साथ-साथ उस जीवन यथार्थ की भी सच्ची और प्रामाणिक शक्लें नी चाहिए, जिनमें आज का बच्चा चाहे अनचाहे जीने और सांस लेने को मजबूर है।

बीसवींसदी की बाल कहानियों का एक बड़ा प्रतिनिधि संग्रह सामने आए तो बाल कहानियों के मूल्यांकन की एक सही आधार पीठिका बन सकेगी। इस लिहाज से अभी तक चुनी हुई बाल कहानियों के जो संग्रह आए हैं, उन्हें नाकाफी ही कहा जाएगा। तो भी जाकिर अली ’ रजनीश ’ के संपादन में निकला इक्कीसवीं सदी की बाल कहानियां ( दो खंड), उषा यादव एवं राजकिशोर सिंह के संपादन में निकला हिन्दी की श्रेष्ठ बाल कहानियां , शमशेर अहमद खान के संपादन में निकला बयालिस बाल कहानियां और रोहिताश्व अस्थाना के संपादन में अभी हाल में निकला चुनी हुई बाल कहानियां (दो खंड) संग्रह इस लिहाज से उल्लेखनीय कहे जा सकते हैं कि उनमें एक साथ बहुतेरे लेखकोंकी कहानियां पढ़ने को मिल जाती हैं। जहां तक सही प्रतिधिनित्व और दृष्टि-संपन्नता की बात है, इनमें कोई भी संग्रह इसलिए सफल नहीं कहा जा सकता, क्योंकि प्रायः इन सभी में भरती की कहानियों की भरमार है और अच्छी बाल कहानी का कोई ’ विजन ’ यहां मौजूद नहीं है। साथ ही प्रायः सभी में अच्छे, समर्थ रचनाकार छूट गए हैं और हर जगह फुदकते ऐसे रचनाकार बहुतायत में मौजूद हैं, जिनके लिए बाल कहानियां लिखना महज एक ’ धंधा ’ है।

तो भी ये नाकामयाबियां और सीमाएं निराश इसलिए नहीं करतीं क्योंकि किसी भी बड़ी सफलता का रास्ता आखिर नाकामयाबियों से ही गुजरता है। उम्मीद की जा सकती है, कभी हिन्दी बाल कहानियों के सचमुच प्रतिनिधि कहे जा सकने वाले बड़े संग्रह भी देखने में आएंगे और हिन्दी बाल कहानी के मूल्यांकन की कहीं अधिक गंभीर और ईमानदार कोशिश भी । मगर इतना तय है कि आज के बच्चे अपने लिए लिखी गई अच्छी कहानियां ढूंढ-ढूंढकर पढ़ते हैं- पढ़ना चाहते हैं और यह बात खुद में बाल कहानी के भविष्य और संभावनाओं के बारे में हमें पूरी तरह आश्वस्त करती है।

error: Content is protected !!