माह की कवियत्रीः मुक्ता

लौटना चाहती हूँ

वर्ष के आरंभ में आया था तुम्हारा संदेश
उस पल घटित हुआ था तुम्हारा आना
पोर -पोर आलिंगन, अधरों का तप्त कंपन
कुछ अंतराल के बाद ही छा गई उदासी
काले बादल भेजने लगे शोक संदेश
ओझल होने लगे प्रेम के दस्तावेज
खामोशी में तैरने लगे मूक..बोझिल शब्द
विदा से पहले……
मैं लौटना चाहती हूँ अपने अरुणोदय में
सन्नाटे को तोड़ती आ रही है… बुलबुल की आवाज
करा रही है अहसास…मेरे साथ तुम्हारे होने का
प्रेम के बचे रहने का… पृथ्वी पर।

उपला दीवार और स्त्री

पुरानी दीवार वर्षों से तपती धूप, तूफानी बारिश झेलते हुए खड़ी है
दीवार के ऊपर चढ़ा रंग रोगन पलस्तर झड़ चुका है
दीवार पर गोबर की आकृतियों ने अपना घरौंदा बना लिया है
चिर परिचित इन आकृतियों का रिश्ता रोटी से है
सदियों से इनका आकार लगभग एक सा है बदल रहे हैं…..हाथ
दीवार पर सजी आकृतियों को किसी भी नाम से पुकारा जाय
आकृति के अंदर से झाँकता है स्त्री का श्रम
आकृति पर छपी पाँचों उंगलियाँ –
किसी युवती के सजग मन का बयान हैं
खरगोश सी उभरी गोल आँखों वाली आकृति
किसी स्त्री के प्रौढ़ हो जाने का संकेत है
दीवार का खाली कोना स्त्री की मृत्यु की सूचना देता है

दीवार की ओर पीठ किये लड़की की आँखें जमी हैं आकाश पर
वह नाप रही है अंतरिक्ष को अपनी ऊँगलियों से।

हम स्वर्ग में होते हैं

युवा आम के तने पर झुकते
गुड़हल के लाल गर्म फूल
तुम्हारे सीने से लगे
मेरे होठों जैसे फुसफुसाते हैं
हम जन्नत की बातेँ करते हैं
हमारी ऊँगलियोँ में थिरकती हैं आशायें
पोर – पोर अमराई में
बौर पनपते हैं
पल्लवित होती है पूरी धरती
समूचा आकाश
खिलखिलाते हैं हम
दहकने लगता है
सूरज हमारी पीठ पर
समुद्र ऊपर से गुजर जाता है
ओढ़े रहते हैं
हम एक दूसरे को
आग , दरिया और समुद्र के बीच भी
हम स्वर्ग में होते हैं

पिता और शहर

कहाँ वह सृजन है
कहाँ वह राग ? …
पिता , तुम्हारी टूटी आवाज
मुझे याद है मसूरी की वह शाम
युवा चिंगारियों का उन्माद
मेरे कँधे पर लावे – सा जमा था
मेरे माथे की एक – एक झुर्री में
तुम्हारा बरजना था ।
गन हिल के ऊपर चढ़ते सूर्य को
हम कौतुक से निहारते रहे
पहाड़ के नीचे हम थे
दो मुक्त शिशु
मैंने खरीदी थी छड़ी
तुमने चुने थे शुभकामनाओं के नगीने – अपने मित्रों के लिये
और वर्षों बाद तुम ठहाका मार –
कर हँसे थे
तुम्हारी हँसी की रुई
मेरे घावों पर फाहों सी रक्खी है
पिता , वह छड़ी तुम्हारी बैसाखी – नहीँ , मेरे हाँथ हैं ।
तुम्हारी टूटी आवाज से
मेरा पूरा शहर चटक जाता है
नन्हे पैरों वाला वह शहर
जो मेरे अँदर कोसों तक फैला है ।

कैनवस की औरत

खुली सड़क के किनारे दरख्तों के बीच
चित्रकार औरत के चेहरे को कैनवस पर उतार रहा है
उसकी सधी उँगलियाँ औरत के चेहरे की बारीकियाँ तलाश रही हैं
अचानक चली आई बारिश…
गरज के साथ चमकती बिजली पेड़ों के झुरमुट में खो गई
औरत के होंठों के तिरछे कोनों में अटक गए अनगिनत वर्ष
अंतिम बार न जाने कब मुस्कुराई थी मोनालिसा

चिनार पत्तों ने मोमजामे से फैला दिए हैं हाथ
हवा,पानी, मिट्टी की गंध औरत की कोख तक पहुँचने लगी है
और उसका चेहरा बदलता जा रहा है प्रार्थना में
उधर एक और औरत होटल के भव्य कक्ष में नाच रही है
मरजीना जैसे तराशे बदन वाली औरत का शरीर नाच रहा है
आँखों की पुतलियाँ थिर हैं
बदन पर हैं लाल धब्बे और पाटी गई सूराखों के निशान
शराब के टकराते जामों के बीच छाया सी डोल रही है नाचती औरत
और उसकी आँखें तलाश रही हैं अलीबाबा।

यह समय है या अनंत सुरंग
चेहरे के अंदर घूमने लगे हैं कई चेहरे
कैनवस समेट उतर चुका है अलीबाबा।

मुक्ता
बी. 4/1, अन्नपूर्णा नगर कॉलोनी ,
विद्यापीठ रोड, वाराणसी-221 002
मोबाइल- 09839450642

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