धारावाहिकः काव्या-इन्दु झुनझुनवाला

भाग 1
2010 की वो खामोश, पर कितनी यादों को समेटती-बिखेरती रात।

मन बहुत भारी हो गया है, ना जानें क्यूँ । ऐसा कौन-सा रिश्ता था, जिसकी टीस अभी भी बाकी है, नहीं समझ पा रही हूँ मैं।
डिवोर्स फाइल किया था यानि सम्बन्ध -विच्छेद, उस रिश्ते के लिए जो कभी बँधा भी था दिल से?
सम्बन्ध तो कभी भी नही बना दिल से दिल का । बरसों हो गए उससे मिले, एक रिश्ता जो सामाजिक स्तर पर ही था बस। हाँ, पारिवारिक स्तर पर भी कहा जा सकता है।

उसके दो बच्चों की माँ भी तो बनी थी , इसलिए शारीरिक स्तर पर भी जुडना तो हुआ ही था , चाहे-अनचाहे।
आज तक दिल से इस रिश्ते को कोई नाम नहीं दे पाई थी। पर आज जब बात टूटने की है तो समझ में नहीं आ रहा, क्या टूट रहा है मेरे मन के भीतर भी । एक हूक-सी उठ रही है दिल में,,, आखिर क्या है जो पिघल रहा है मेरे भीतर, और बहने लगा है बाहर भी ,,
अब काले पन्नों पर भी बिखरने लगी है उसकी कुछ बूंदें !

सालो से यूँ ही तो भी बूंदें छलक रहीं थे, और स्याह होते रहे थे पन्ने कोरे कागज के मेरे जीवन की तरह ही ,,,,,,

जिंदगी के नाज़ुक से धागे में,
खूबसूरत मोतियों का पिरोना । हसरत के साए में था ,
एक भूल का पिरोना । सोचा न था ये धागे मजबूत कितने हैं। मोतियों के भार से टूट भी सकते हैं । लड़ियां पिरोने में ही
मशगूल रही इतनी । सुध रहा न हसीन घड़ियां बिता चुकी हूं कितनी । वो हसीन घड़ियां
जो लौट के नहीं आतीं । याद करने को रह जाती हैं बस एक दुख भरी कहानी।
(डॉ मंजरी की डायरी से 1987)

अजीब होता है ना स्त्री का मन ! मैंने तो कभी भी चाहा ही नहीं उसे,,,, और उसकी चाहत ?
क्या वो सचमुच का प्यार था? या बस एक जिद्द, मुझे पाने की । आज क्यूँ चलचित्र की भाँति सब घूमने लगा है बन्द आँखों के पर्दे पर,,,,।

कहीं दुबकी-सी, छुपी,
एक मासूम बच्ची
टुकुर-टुकुर देखती है
समय रूपी पंछी को,
जो अपने
नन्हें-नन्हें पंखों को फैलाए
पल से दिन,
दिन से महीनों
और सालों का सफर
तय करता रहा।

सोचती है वो,
मैं वहीं- की-वही खडी,
बदलते आकाश को
देखती रही।

बदला तो बहुत कुछ है,
बूढ़ी होती श्वासे ,
अनुभवों की झुर्रियाँ,
पके बालों की सिलवटें,
झुकी उम्मीदों की कमर ,
अनचाही चाहतों की डगर।
नन्हीं-नन्हीं कलियाँ
फूल बन गई।
जो कभी सिर-माथे थी ,
रास्ते की धूल बन गई।
पर एक चीज
जो नहीं बदली
आज भी,ज्योँ की त्यों,
वो मैं हूँ, हाँ मैं ही हूँ,
जस की तस ।
अपनी उम्र से परे ,
एक छोटी-सी बच्ची,
जिसके दूध के दाँत भी,
मानों टूटे नही है।
जिसकी प्यास
बुझी नही है।
जो आगे बढना चाहती है,
खिलखिलाती है ,
कभी गुनगुनाती है,
कोने में छुपकर,
कभी आँसू बहाती है।
माँ के आँचल से लिपटकर,
सोना चाहती है।
पिता की बाहों में अब भी,
झूला झुलना चाहती है।
बात-बात पर जिद्द करती है,
इतराती भी है,
कोई कुछ बोल दे,
तो शरमाती भी है।
अपनी उम्र से परे,
अपनी उम्र को,
नजरअंदाज कर,
अपनी ही उम्र से,
जूझना चाहती है।
जो है उसे मानती नही,
जो नही है उसे,
मनवाना चाहती है ।
बडों के इस बदलते शहर में,
एक नया सहर चाहती है।
बदलते आसमां के रंगों में,
इन्द्रधनुष तलाशती-सी,
समय रूपी पंक्षी के पंखों को थामकर,
चक्र को मानो
उल्टा घुमाना चाहती है।
सालों से महीनों
महीनों से दिन
और फिर दिन से
सिर्फ कुछ पलों की ख्वाहिश
बुनती-सी,
मरने के पहले
जीना चाहती है,
बस पल-दो-पल,
मस्ती भरे नगमें
बचपन के ,
अल्हड़पन के,
छेड़ना चाहती है,
मन में छुपी एक मासूम-सी बच्ची।
(डॉ इन्दु)

याद आने लगे वो खूबसूरत दिन ,,,,

सावन की पहली बारिश थी, मैं अपनी सहेली अंजु के साथ कालेज से घर के लिए निकली। हल्की-हल्की फुहार रिक्शे पर, हमारे कपड़ों पर, मानों छोटे-छोटे मोती चमकने लगे हों।
सोलह साल की कमसिन,अल्हड़ मैं और अंजु। थोडे सूखे, थोडे भीगे से कपडे, घर के गेट तक पँहुचे, माँ ऊपर खिडकी पर शायद मेरे ही इन्तजार में खडी थी , आते ही मीठी डाँट लगाई -‘भीग गई है,,,जा, जाकर पहले कपडे बदल ले , मैं तेरे लिए गरम चाय बनाती हूँ, तेरे पापा भी पोस्ट आफिस से आते होंगे ।’

चहकती-सी मैं अपने कमरे की ओर बढ गई ,जल्दी-जल्दी कपडे बदले ,पापा के साथ ढेर सारी बातें जो करनी थी । पाँच भाई-बहनों में पापा की लाडली थी ना मैं ।
वैसे तो पापा भैया से भी बहुत प्यार करते थे , पर मुझसे कुछ ज्यादा ही करते थे, क्यूँ, ये तो पता नहीं।
पर मेरे भैया कभी भी इस बात से चिढ़ते नही थे ,उनकी भी लाडली थी ना मैं ।
प्यार तो माँ भी बहुत करती थी, पर अब वो मेरे अल्हड़पन से थोडा डरने लगी थी ।
कालेज के लिए तैयार होकर जाती, तो थोडी हिदायतें देतीं, लड़कों से दूर रहने की सलाह देती , समय पर घर आने का आदेश देती और हर रोज खिडकी पर खडे होकर मेरा इन्तजार भी करती ।
बडा अटपटा लगता था मुझे तब ये सब।

जब मैं भी माँ बन गई एक बेटी की, तब समझ पाई हूँ उनका वो डर ,,,,

नहीं,,शायद और बहुत पहले, तीन साल बाद का जो हादसा मेरे साथ धटा, शायद तभी समझ गई थी मैं माँ के उस डर को ,उस चिन्ता को,,,,,
होनी को वही मंजूर था। मेरी सुन्दरता भी माँ के डर का बडा कारण थी शायद ।
——-
एक दिन कालेज से लौटी ,घर के दरवाजे तक पँहुचती, तभी एक आवाज ने रोका मुझे, मेरे घर से सडक के दूसरी ओर इशारा करते हुए कहा उसने,
‘ माफ करें, मैं पास के गाँव से आया हूँ, आपके घर के सामने रहता हूँ ,नया हूँ इस शहर में, क्या आप बता सकती हैं, यहाँ से पोस्ट आफिस कितनी दूर है ? ‘

मैंने मुडकर देखा, एक नौजवान था वो शायद मुझसे दो तीन साल बडा होगा , मै अल्हडपने में उसके प्रश्न पर चहक उठी और कहा,
‘ जरूर, मेरे पिताजी पोस्ट मास्टर है, गली के दूसरे छोर पर ही पोस्ट आफिस है, गली की ओर इशारा करते हुए मैंने कहा, वो कुछ और कहता , शायद धन्यवाद देता , पर उसके पहले ही इतना कहकर मैं अपने घर की ओर मुड गई ।

माँ रोज की तरह खिडकी से देख रही थी , आते ही ढेर सारे प्रश्न दाग दिए, कौन था , क्या बात की , क्यूँ बात की ?
मैने हँसते हुए कहा,” कोई था, रास्ता पूछ रहा था, शहर में नया है शायद, सामने वाले घर में रहने आया है ।”
“अब छोडो ना ,मुझे भूख लग रही है, जल्दी से कुछ खाने को दो ।”
माँ के चेहरे पर एक हल्की चिन्ता की रेखा देखकर मैंने कहा ।
माँ खाना लगाने लगी । कुछ सोच भी रही थी । मैंने ध्यान ही नही दिया ।
——
दो तीन दिनों बाद मेरी दोस्त अंजू मेरे घर आई , मैं उसके साथ बाजार जाने के लिए घर से निकली, सामने वही युवक टकराया, अंजू को देखकर पूछा ,’आप भी यही इसी घर में रहती हैं क्या ? ‘
अंजू थोडा सकपकाई , एक अजनबी के इस तरह सवाल पूछने पर ।
वो मेरी ओर प्रश्न भरी निगाह से देखने लगी । मैं हँसकर बोली , “नही ये मेरी दोस्त है। आपके मकान के बगल में ही रहती है ।”
इतना कहकर हम आगे बढ गए ।
इसी तरह कभी-कभार वो मिल जाता और हम एक आध बातें कर लेते, लेकिन हमने एक-दूसरे का नाम पूछने की जरूरत कभी नहीं समझी।
माँ की निगाहें अब ज्यादा खोजी हो गई थी। अब वो मेरे घर से निकलने पर भी खिडकी पर हर रोज खडी होती ।
मैंने इस बारे भी कभी सोचा भी नही ।
पर एक दिन जब माँ ने कहा , “वो तुम्हारे पीछे-पीछे घर से निकलता है, तो तुमलोग कहाँ मिलते हो?”
मुझे बडा आश्चर्य हुआ , मुझे तो वो कभी कभार ही मिलता है आते -जाते। हम क्यूँ मिलेंगे,भला ।
मैने समझाया माँ को , “आप क्यों इतना सोचते हो , मै तो ठीक से उसे जानती तक नहीं, ना ही कहीं मिलते हैं हम ।”

पर शायद माँ को विश्वास नहीं हो रहा था । ऐसा तो नहीं था कि उन्हें मुझ पर भरोसा नही था ,पर वो मेरे भोलेपन और सुन्दर चेहरे से डरने लगी थी। शायद माँ को शक की बीमारी है उस
समय मुझे यही लगा था । शक का इलाज तो हकीम लुकमान के पास भी नहीं था ना, फिर मैं तो बच्ची थी ।
—–
भोली तो थी मैं , आज सोचती हूँ तो लगता है ,वो हादसा भी मेरे भोलेपन के कारण ही तो हुआ था ।
हँसी नहीं आती है सोचकर ,,,, गुस्सा अधिक आता है खुद पर ,,पर अब पछतावे होत क्या जब चिडिया चुग गई खेत।

सर्दी लग रही थी ,जाड़े के दिन थे और मुझे साइनेस की तकलीफ ।
डाक्टर ने तीन समय खाने के लिए दवाईयाँ दी और पापा सुबह आफिस जाते समय हिदायत देकर गए थे, दवाइयाँ समय से ले लेना ।
पर मैं लापरवाह ,, भूल गई दवाई लेना ।
शाम हो गई, अचानक याद आई दवाईयाँ ,,
पापा आकर डाँटेगे, बस जल्दी-जल्दी सारी दवाइयाँ बिना सोचे-समझे एक साथ ले ली ।
पता नहीं क्या और कितना लेना था और क्या ले लिया ।
पापा के इन्तजार में घर के दरवाजे पर जाकर बैठ गई, दवाइयों का नशा चढने लगा,
उलुल-जलूल जाने क्या बोले जा रही थी ?
थोडी देर में पापा आए, तब तक कुछ अनमनी-सी हो गई थी मैं ।
पापा ने देखा, फिर मुझे कुछ पता नही क्या हुआ ,
आँख खुली तो मैं हास्पिटल में थी, पापा सिरहाने खडे थे और माँ की आँखे रोते-रोते सूज गई थी। मैं कुछ पूछना चाहती थी पर मेरी आवाज जैसे अन्दर-ही-अन्दर धुट रही थी, ना जाने कितने दिनों तक हास्पिटल में रही मैं ।
सामने वाला वो लड़का भी कभी-कभार आता था मुझसे मिलने, मुझे आश्चर्य होता था,माँ को तो वो पसन्द नहीं था बिल्कुल भी, फिर कैसे आने देती हैं उसे ।
तब पापा ने बताया, मैं वहीं दरवाजे पर बेहोश हो गई थी, उन्होंने धबराकर माँ को पुकारा, तब तक सामने से वो लडका भी आ गया था उसने हास्पीटल लाने में उनकी मदद की और रोज कोई-न-कोई काम करने लगा माँ का। माँ को वो अच्छा लगने लगा है । वो ब्राह्मण भी है ये जानकर माँ उसे खाने पर भी कभी-कभार बुलाने लगी थी ।
तबतक मैं तो उसका नाम भी नही जानती थी। उस दिन पापा ने बताया कि उसका नाम नीरज है ।
मैंने पहले कभी उसका नाम पूछा ही नही । मेरा नाम वो जानता था या नहीं मुझे ये भी पता नहीं ।
मुझे हुआ क्या था माँ से बहुत बार पूछा ,पर किसी ने नहीं बताया ।

हाँ ये जरूर पता चला कि इस हादसे से ऐसा कुछ जरूर हुआ है कि उसके माँ के सामने मुझसे शादी का प्रस्ताव रखा था । तब माँ ने भी कहा था कि हमारी जाति अलग है अतः पहले अपने परिवार से पूछ लें।

तब समझ में नही आया कि आखिर माँ ने ऐसा कहा ही क्यूँ! अभी तो मैं बहुत छोटी थी। मुझे पढकर कुछ और ही बनने की ख्वाहिश थी। पापा भी चाहते थे कि मैं अच्छी तरह पढाई करूँ। मैं पढने में तेज थी, मेरा गला भी बहुत अच्छा था, गाना और बजाना भी सीख रही थी, कालेज के मंच पर अभिनय का मौका भी मिल जाता था। मेरे संगीत के गुरूजी, जो बचपन में भी मुझे संगीत सिखाते थे, कालेज में भी आते थे।
मुझे याद आता है, मैं छोटी थी तो तुतलाकर बोलती थी, पर गाने का शौक बहुत था। पता नहीं गुरूजी जी को क्या दिखता था मुझमें उसी समय से । वो मुझे तब भी गाना सिखाते थे। जब कालेज में पहले दिन मुझे देखा तो हँसते हुए पूछा था , अभी भी तोतली बोलती हो क्या ?

बचपना तो गया नहीं था मेरा , मैंने ठुनककर बोला-” गुरूजी अब मैं बडी हो गई हूँ ।”
वे हँसें और आशीर्वाद देकर आगे बढ गए।
अब रोज उनसे संगीत सीखने लगी थी फिर से ।
वे मुझे बहुत प्यार करते थे वे कहते थे मैं अपने पापा का नाम रोशन करूँगी ।
अभी तो मुझे बहुत कुछ करना था ।

फिर माँ ने शादी की बात क्यों की, आखिर इस बीच ऐसा क्या हुआ ?
पर आज कुछ-कुछ समझने लगी हूँ ,पता नही मेरा अन्दाज सही है या नही ।
पर मुझे लगता है कि उस दिन मेरे गलत दवाईयों के कारण होनेवाली बेहोशी के मायने माँ ने कुछ अलग ही लगा लिए थे ।
———–
माँ बहुत अच्छी थी। माँ तो अच्छी ही होती है ना । पर हाँ, मेरी माँ की ये शक करने की आदत मुझे बिल्कुल भी नही भातीं थी ।
मुझे याद आती है वो धटना जब मैंने दसवीं कक्षा की परीक्षा दी थी। गर्मी की छुट्टियों के दिन थे।
मेरी बुआ की बेटी की शादी थी, बुआ बहुत बडी थी और मेरे मम्मी-पापा उनका बहुत सम्मान भी करते थे, उनकी बात का पलटकर जबाब देने का साहस भी नही था उन्हें ।

यूँ तो मुझे भी बुआ से बहुत लगाव था,छुट्टियों में बुआ के घर जाकर रहना बडा भाता था।
फिर अभी तो शादी भी थी दीदी की । हम सभी गए बुआ के घर, खूब मौज-मस्ती की।
शादी में नाच-गाना और ढेर सारे स्वादिष्ट पकवान ।
विदाई हो गई दीदी की ।

रात हम सभी खाना खाने बैठे।
आम का मौसम और दाल में कच्ची कैरी का स्वाद । हम सभी चटखारे ले-लेकर खा रहे थे , बुआ का बेटा यानि भैया और उनके कुछ मित्र भी साथ थे। जिसकी दाल में कैरी का टुकडा मिलता, वो दूसरों को चिढाता था। अचानक मेरी दाल में आम का एक टुकडा मिला और मैं खुशी से चहक उठी, भैया और उसके दोस्तों को चिढ़ाया आम दिखाकर ।
भैया का एक दोस्त मुझे देखने लगा और उसने चुपके से मेरी थाली से वो टुकडा उठाकर खा लिया ।
मुझे गुस्सा भी आया, बाकी सभी हँसने लगे, तो मैं भी हँस पडी ।
पर मेरी माँ की शक्की निगाहों को ये बात बिल्कुल अच्छी नही लगी ।
वो उस समय तो कुछ नही बोली, पर दूसरे दिन सुबह उठते ही कहा ‘ गुडिया, अब अपना सामान बाँध लो हम घर लौट जाएंगे। मेरा नाम काव्या है, पर घर पर मुझे प्यार से सभी गुडिया ही बुलाते थे , सबकी लाडली जो थी मैं ।

मैंने कहा ,”अभी तो मेरी छुट्टियाँ हैं ना माँ! फिर इतनी जल्दी क्या है, दो-तीन दिन बाद आ जाऊँगी । आपलोग जाइऐ।

गाँव का प्यारा-सा माहौल ।
शहर का कृत्रिम जीवन,
साँसों में जहर अधिक,
पास-पास पर मन से दूर सभी ।
एक सपना फिर से जीने का ,
वो जीवन ,
छोटे से गाँव का।
आज पूरा हो चला ,
हर तरफ ठंडी, सुकून पहुँचाती ,
जीवन से भरपूर निर्मल हवाऐं।
खेतों में बहते जल की मधुर स्वर लहरी,,
उडते पक्षियों की कतारें,,
मीठे भोर के गीत गुनगुनाते ,चहचहाते।
झूमते वृक्ष,इठलाते पौधे,
हरी-भरी धरती।
खिलते फूल और गुफ्तगू पत्तों की।
दूर ताड -नारियल के ऊँचे -ऊँचे पेड़,
पहरेदारों से ।
खुले गगन की छाँव तले
सूर्य की नरम-गरम किरणों से
अठखेलियाँ करते
रूई से श्वेत बादलों की जमात,
स्वयं भी गुलाबी-सतरंगी हो जाते।
कहीं दूर मोर की पिहू-पिहू,
और कोयल की कुहू कुहू ।
इन सबके साथ बैठा मेरा मन ,
सोचता है स्वर्ग की बात ,,,
क्या इससे अधिक सौन्दर्य!
नहीं , नहीं हो सकता ।
फिर एक सवाल ,
तब क्यूँ उगाए हमने
शहर रूपी जहरीले पौधे ,,,?
किस विकास की चाहत ,,?
किस आनन्द की तलाश ,,?
(डॉ इन्दु)

खेत-खलिहानों में धूमना, कच्ची इमली और कैरियाँ पेड से तोडना, फिर सभी को दिखाना ,किसने कितना जमा किया, रात को बिजली न रहने पर छत पर अपनी-अपनी चादर -तकिया लेकर जाना और कभी तारों की गिनती, तो कभी नींद ना आने पर अंताक्षरी खेलना, भूत बनकर डराना। सुबह गंगा के किनारे जाना, ढंठे पानी में डुबकी लगाना और मिट्टी की सौंधी खुशबू को अपने अन्दर भर लेना ,,,सबकुछ बडा ही मनभावन होता था, फिर बुआ के हाथों के गरम -गरम पराठे और प्याज की कचरी ,,,कभी-कभी लिट्टी-चोखा भी ।बुआ को बनाकर खिलाने का बहुत शौक भी था, फिर हम कभी- कभी ही आते थे , अतः हमारी फरमाइशें भी बुआ पूरी करती थी शौक से। बुआ हमें प्यार भी बहुत करती थीं।

इसलिए मैंने जिद्द की, तो माँ ने अजीब निगाहों से देखा, कुछ कहती उसके पहले ही बुआ आ गई और बोली ,”ठीक ही तो कहती है गुडिया, ये अभी नहीं जाएगी । तुम लोगों को जाना हो तो जाओ ।
बुआ की बात न मानने का तो सवाल ही नही था । बस माँ-पापा के साथ वापस चली गई ।
पर दूसरे दिन ही पापा मुझे लेने भी आ गए और बुआ से कहा कि इसकी माँ की तबीयत ठीक नहीं है और भाई की भी। इसलिए इसे ले जाना होगा। बुआ भेजना तो नही चाहती थी पर इस बहाने के कारण कुछ नही कह सकी ।
भैया की तबीयत थोडी खराब तो थी, पर ये नई बात नहीं थी, मैं समझ गई, माँ के शक ने ही हमें बुलाया है। खैर बात आई गई हो गई ।

कुछ दिनों बाद ही शाम को बुआ के लडके के साथ उनका वह दोस्त भी हमारे घर आया , जिसने मेरी दाल का आम का टुकडा खा लिया था ।
उन्होंने बताया कि उन्हें किसी अच्छे ज्योतिष की तलाश है और हमारी बुआ ने उन्हें बताया है कि मेरी माँ किसी ज्योतिषी को जानती है , इसलिए वे लोग आए हैं ।
मेरी माँ को उस लड़के का घर आना बिल्कुल पसंद तो नही आया, पर बुआ ने भेजा था इसलिए चुप रही और उसे लेकर ज्योतिष के पास भी गई ।
इसी प्रकार फिर से वो किसी-न-किसी काम के बहाने घर आने लगा।
माँ अब समझ गई थी। आखिर उन्होंने अपने बाल धूप में सफेद तो नही किए थे ना ।
पर बुआ का डर ,,,ना माँ कुछ बोल पा रही थी ना पापा ।
बस जब वो आता माँ किसी -न-किसी बहाने से मुझे ऊपर भेज देती ।

जब सिलसिला रुका नही तो अन्ततः पिता जी बुआ के घर गए और डरते-डरते इतना ही कह पाए कि जवान लडकी घर में हो, तो इस तरह लड़कों का आना-जाना ठीक नहीं ।
बुआ को थोडा बुरा लगा, क्योंकि वो उनके बेटे का दोस्त था, और अब समझ में आताहै कि बुआ क्या चाहती थी,,, उन्होंने गुस्से से कहा ,”क्या तेरे घर में ही लडकी है, मेरे घर में भी तो है और वो तो अपनी जात-बिरादरी का ही है, भले घर का लड़का है ।”
पापा चुपचाप सुनते रहे और वापस आ गए।
माँ को सारी बात बताई तो मैंने भी सुना ।

पहली बार बुआ पर क्रोध आया मुझे ।
क्या जात-बिरादरी एक होने से भला होने का ठप्पा लग जाता है क्या ।
खैर बात आई गई हो गई और मैं भी भूल गई उसे ।
————-

स्कूल से कालेज,,, इंटर से डिग्री में पहुंच गई , पर मेरा अल्हड़पन कम नही हुआ , पढने में अच्छी तो थी ही , कालेज में शिक्षक -शिक्षिकाओं की भी चहेती बन गई ।
घर के सामने वाला लड़का जिसका नाम उस हादसे के बाद जान गई थी नीरज , कभी- कभार आने लगा था ।
पर मेरा ध्यान अपनी पढाई और सहेलियों पर ही रहता था ।

अचानक एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि वो भी मेरे जीवन का एक शाप ही बन गया, तब तो बात बहुत खास नही लगी थी मुझे ।

मैं कालेज जाने के लिए निकली , बाहर मेरी बुआ के बेटे का वो दोस्त इतने दिनों या कहूँ कुछ सालों बाद अचानक मेरे सामने आ गया । मैं चौंक उठी, उसने कहा,
” मैं किसी काम से निकला था ,रास्ते में तुम्हारा घर आया और इत्तिफाक से तुम मिल गई ।”

मैं आगे बढती गई और वो मेरे साथ-साथ ही चलने लगा। मेरे माता-पिता की तारीफ और उधर-उधर की फालतू बातें,,, मुझे जल्दी थी कालेज पहुँचने की ,बस हूँ, हाँ करती हुई मैं बढती जा रही थी ।
कालेज करीब एक किलोमीटर दूर था । मुझे पैदल चलना अच्छा लगता था और वैसे भी उस समय रिक्शा आदि का उपयोग हम कम ही करते थे, आज अंजू भी साथ नहीं थी, उसे कुछ काम था , इसलिए नहीं आई थी ।
आधे रास्ते में मेरे ममेरे भाई ने देख लिया मुझे और साथ में उस लडके को भी। उसे समझ नही आया मैं किसके साथ हूँ, उसने पहली बार उस लडके को देखा था।
वो वक्त वास्तव में आज की तरह नही था, जहाँ लड़के- लडकी की दोस्ती ,धूमना-फिरना आम बात हो ।

मेरा ममेरा भाई मेरा पीछा करने लगा । मैं इन सबसे बेखबर अपनी धुन में चली जा रही थी। महाविधालय के दरवाजे पर वो भैया मेरे सामने आ गए और पूछा यह कौन है, मैं उसका नाम भी भूल चुकी थी, आज भी नहीं पूछा था, सो भैया से बताया कि वो बुआ के बेटे का दोस्त है, भैया ने कुछ नहीं कहा और चले गए। कालेज की गेट से अन्दर की ओर थोडी दूर पर मेरे संगीत के गुरूजी ने भी उस लडके को देख लिया था मेरे साथ उन्होंने भी देखा । गुरू जी अब मुझे संगीत सिखाने मेरे घर भी आने लगे थे, मुझे सगी बेटी की तरह प्यार करते थे वो । जब गेट पर पहुँच कर मैंने उस लडके से विदा ली और अन्दर चली गई , तभी मेरे गुरूजी ने मुझे पास बुलाया और उस लडके के बारे में पूछा, मैंने मासूमियत से सब बता दिया, तब उन्होंने मुझे समझाया कि इस तरह रास्ते में चलते हुए किसी लडके से बातें नही करनी चाहिए, अगर किसी को बात करनी हो तो उसे घर आना चाहिए ।

मै इनसब बातों से अनजान-सी थी । इसलिए भाई और गुरूजी के टोकने पर मुझे उस लडके पर भी गुस्सा आया ।
घर आकर मैंने माँ को सारी बात बता दी ।
माँ तो वैसे ही मुझे लेकर डरती रहती थी, यह सब सुनकर उन्हें बहुत क्रोध आया, शाम को उन्होंने पापा को सारी बात बतलाई और कहा कि अब गुडिया बच्ची नही । बदनामी होते देर नही लगती । अतः अब बुआ के पास जाकर उन्हें कहना ही होगा कि उस लडके से कहदे कि अब कभी भी गुडिया से मिलने की कोशिश ना करे ।

पापा को भी यह बात नागवार गुजरी थी, उन्होंने कहा-” आज दो लोगों ने देखा है कल चार देखेंगे ,किस-किस का मुहँ बन्द करेंगे । अब तो बुआ को बतलाना ही होगा। ”

पापा बुआ के घर गए और उन्हें सारी बात बताई । पर बुआ तो किसी और ही प्लानिंग में थी। जैसे ही पापा ने बोलना शुरू किया उस लडके की हरकतों के बारे में, बुआ बोल उठी,” क्यों ना दोनों की शादी कर दे । अच्छा लड़का है, खानदान भी अच्छा है। जात-बिरादरी का भी है, और वो गुडिया को पसन्द भी करता है। ”

पापा मुझसे बहुत प्यार करते थे। मेरी शादी की बात तो अभी सोच ही नही सकते थे, मुझसे दूर जाने की बात उन्हें चोट पहुंचाती, और फिर अभी तो ना मेरी शादी की उम्र हुई थी, ना ही पढाई पूरी हुई थी । इसलिए उन्होंने बुआ से कहा,”नही अभी तो वो पढ रही है , अभी शादी की बात नही कर सकते और अभी तो छोटी भी है ।”

बुआ को एक बार फिर बुरा लगा ,पर पापा की दृढता देख वो कुछ बोल नही पाई ।
पापा ने वापस आकर जब यह बात बताई तो मुझे बुआ पर बहुत क्रोध आया ।
अब पहले वाला आदर कम होने लगा था ।

गुस्सा आया कि “अगर वो लडका इतना ही अच्छा है तो बुआ की बेटी तो मुझसे बडी है, क्यूँ नही बुआ उनकी शादी कर दे । मेरे पीछे पडी हैं” ,मैंने गुस्से से पापा को कहा । पापा मेरे गुस्से पर ना जाने क्यूँ मुस्कुराने लगे ।
मैं चिढ गई , माँ भी आश्वस्त होकर हँसने लगी। बात वही खत्म हो गई ।

भाग -2
दिन बीतने लगे । माँ मेरी ओर से अब थोडी आश्वस्त-सी होने लगी । उन्हें समझ आने लगा था कि मेरा ध्यान अपनी पढाई और सहेलियों में ही रहता है ।
कालेज की परीक्षा नजदीक आ रही थी । मुझे पढना था और दवाई वाले हादसे के बाद मेरी तबीयत भी कम ठीक रहती थी, अतः छुट्टी लेकर मैं घर पर ही रहकर पढ रही थी ।

एक दिन बुआ घर आईं , हम सब साथ बैठकर बातें कर रहे थे। अचानक बुआ ने अपने बेटे के दोस्त की बात फिर से छेड दी,और वही बात दोहराते हुए पापा से कहा – “लडकी बडी हो गई है , क्यूँ ना उसकी शादी अब तय कर दें ।वो लडका बहुत ही अच्छा और जात बिरादरी का है ।

पापा कुछ कहते उसके पहले ही मैंने कहा -“बुआ, मुझे अभी शादी नहीं करनी ।अभी पढाई करना है ।”
बुआ को गुस्सा आ गया। गुस्से में उन्होने कहा – “हाँ, हाँ, जानती हूँ मैं, तुझे तो उस सामने वाले लडके से शादी करनी है ना । जात-बिरादरी का नहीं है वो, हम सबकी नाक कटवानी है क्या ? अच्छा -भला लडका है अपनी बिरादरी का भी है , पर आजकल की लड़कियों के दिमाग तो देखो ?
पता नही बुआ की उन बातों का मम्मी-पापा जबाब देते या नहीं?
पर पहली बार मुझे इतना गुस्सा आया कि मैं जैसे होश ही खो बैठी, मैंने गुस्से से चिल्लाकर कहा ,
“हाँ, अब तो मैं उसी सामने वाले लडके से ही ब्याह करूँगी, आपको जो करना हो, कर लें। आप मेरे पीछे क्यूँ पडी हैं, अगर इतना ही अच्छा लड़का है तो आप जीजी की शादी उससे क्यूँ नहीं कर देती ।”
मेरा क्रोध सातवें आसमान पर था, मम्मी-पापा का उनके प्रति डर, आज मुझे और भी गुस्सा दिला रहा था और मेरे मम्मी-पापा मुझे काबू में करने की कोशिश करते रहे और मैं चिल्लाती रही ।
शायद वो ही मेरे जीवन का एक शाप बन गया , जिसने लाडली गुडिया को आकाश से मानो पाताल में ही पटक दिया हो ।
———
गुस्से में जो मैंने कहा, वही मुझे झेलना होगा जीवन में, ये समझ से परे है आज भी मेरे लिए , पर सच भी है कि मैंने जिन्दगी भर इस अभिशाप को भोगा है।

आज लगता है कि क्रोध में निकाले गए शब्द जीवन भर दर्द देते हैं। शायद तब व्यक्ति वह नहीं रहता जो हो जाता है उस क्षण। हमारी समझ उस समय खो जाती है , बुद्धि पर हमारा अधिकार नहीं रहता और न ही जबान पर । क्रोध स्वयं ही एक आग है, जिसमें दूसरे से ज्यादा खुद को जलना पडता है ।

पता नही वो कौन-सा पल था, जब ईश्वर ने मेरे मुँह से निकली इस अनचाही वाणी को एवमस्तु कह दिया ।
आज भी सोचती हूँ तो सिहर उठती हूँ ।

बुआ तो गुस्से से आधे खाने पर से उठकर ही चली गई ।
मैं भी रातभर रोती रही ।
सुबह माँ-पापा ने बहुत समझाया, तब जाकर कहीं शान्त हो पाई । पापा जानते थे मुझे । इतना गुस्सा मुझे पहली बार ही आया था, इसलिए सभी ने मुझे शान्त करने की कोशिश की।
पर मेरी उस बात से माँ भी थोडा परेशान रहने लगी थी। हालाँकि उन्होंने खुद ही पहले नीरज के सामने मेरी शादी का प्रस्ताव रखा था, क्योंकि उन्हें लगा था कि मैं भी शायद ऐसा चाहती हूँ, पर बात तब आई गई हो गई थी। मैंने भी इसबार में कभी नही सोचा, मैं तो बस अपने-आप मैं मस्त रहती थी ।
तब तक धीरे-धीरे हम सबने जान लिया था कि नीरज अच्छा लड़का नही है, उसकी राजनैतिक घुसपैठ भी है, अतः अब माँ ने उसका आना-जाना भी बन्द कर दिया ।
————
पता नहीं क्या हुआ , मैं अपने कमरे में पढ रही थी। अचानक शोर सुना तो नीचे आई , दरवाजे पर पुलिस थी, मेरे बारे में पूछ रहे थे, पापा बहुत परेशान थे।
वो दिन,,, मेरी जिन्दगी का सबसे अभिशापित दिन , पता चला,,, नीरज ने मेरे ही मम्मी-पापा के खिलाफ थाने में शिकायत कर दी ।
पता नही क्यों ,,,पर बाद में लगा , मेरे गुस्से में कही बात ना जाने कैसे नीरज तक पहुँच गई थी और शायद वो मुझे पसन्द करने लगा था, मैंने परीक्षा की तैयारी के लाए कालेज जाना बन्द किया था और उसने समझा मुझे नजरअन्दाज कर दिया गया है उससे दूर रखने के लिए, उसे लगा कि मै भी उसे चाहती हूँ । इस एक गलतफहमी ने मुझे आज इस मोड पर लाकर खडा कर दिया है ,,,,।

बस फिर क्या था, उसने मुझे पाने के लिए झूठी रपट लिखा दी कि मेरे परिवार ने मुझे कैद कर लिया है।
पहली बार घर पर पुलिस आई और मम्मी-पापा को लेकर गई ।
राजनैतिक सम्बन्धों के कारण पुलिस भी उसकी और गवाह भी । किसी ने हमलोगों की एक भी ना सुनी ।
अन्त में जज ने मुझे बुलाया , मैं इन सब धटनाओं से अन्दर तक सहम गई थी, सत्रह साल की एक कमसिन भोली -भाली अपने में मस्त रहनेवाली काव्या,,,, बस रोने के अलावा कुछ नही सूझ रहा था । कोर्ट में जज ने मुझसे क्या पूछा, मुझे पता नही, मैं तो बस रोती रही थी , अपने माता-पिता के दर्द से भींगे चेहरे ने जैसे मेरी बोलने की शक्ति ही छीन ली थी।
मेरी धबराहट,डर और परेशानी को समझते हुए अन्त में जज ने मुझसे अकेले में बात करने के लिए बुलाया ।
किसी ने मुझे पकडा और जज के कमरे में बिठा दिया। उन्होंने पूछा, ” क्या तुम नीरज से प्यार करती हूँ? मुझे सच -सच बताओ, मैं किसी से कुछ नहीं कहूँगा। उससे तुम्हारी शादी करा दूँगा।”
मैंने तो प्यार के बारे में तब तक कभी सोचा ही नहीं था, शादी होती है जानती हूँ, शादी के मायने नहीं पता थे और फिर नीरज ? हम सभी जानते लगे थे वो तो अच्छा लडका नहीं ।
फिर ये जज साहब क्यों ऐसी बात कर रहे हैं ,, समझ नहीं पाई रही ,,,बोलने की हिम्मत तो थी ही नहीं, पूरी दुनिया ही जैसे घूमती नजर आई , बस किसी तरह रोते रोते “ना” में सिर हिला पाई ।
मेरी मासूमियत से व्यथित जज साहब कहने लगे ” देखो बेटी, अपने परिवार की भलाई चाहती हो तो हाँ कर दो, वैसे भी मैं इसके परिवार को जानता हूँ, भले लोग हैं । ये लड़का जिद्दी है मानेगा नही, इसकी पहुँच बहुत ऊपर तक है , तुम्हारे छोटे भाई-बहनों की जिन्दगी का भी सवाल है ,,,,
और भी नए जाने वे क्या-क्या कहते रहे और मैं बस रोती रही ।

हद तो तब हो गई जब मुझे उठाकर जबर्दस्ती गाडी में बिठाकर ले गए, मेरे ही परिवार, जज साहब और पुलिस के सामने से,,,, और कमाल का प्रशासन और बेजोड कचहरी, ,,,जो एक मासूम बच्ची के लिए कुछ भी ना कर सका ।
मेरे पापा-मम्मी पर उस पल क्या बीत रही होगी, आज समझ सकती हूँ।
उस दिन तो मुझे सबकुछ एक बहुत बुरा और बहुत ही डरावना सपना-सा ही लग रहा था ।

——–

उस समय समझ में नहीं आया,मुझे नारी सुधार गृह में क्यूँ ले जाया गया, मुझे तो अपने मम्मी-पापा के पास जाना था। मैंने तो कुछ भी गलत नहीं किया था फिर ये कौन -सी जगह मुझे लेकर आ गए।
कालेज से पाँच मिनट भी देर होती थी तो मम्मी धबरा उठती थी ।
मेरे पापा मेरे बिना खाना भी नहीं खाते थे,,,और भैया वो तो अपनी गुडिया को गिलास भरके दूध पिलाऐ बिना सोने भी नहीं जाते थे ।
मम्मी चाहे कुछ भी ना जताए पर मैं जानती हूँ मुझे देखे बिना उन्हें शाम की चाय बनाने में मजा नहीं आता था । फिर मुझे खाने का इतना शौक भी तो था ,,अब मम्मी अच्छा खाना किसके लिए पकाएगी।

फिर डर लगा कहीं मम्मी पापा को भी ऐसी ही किसी बुरी जगह तो नहीं भेज दिया होगा । हमने भला नीरज का क्या बिगाडा था । मेरे पापा तो बहुत सीधे थे । बस उसकी नेतागिरी और संगत के कारण हीतो हम सबने उसके पास आना जाना बन्द किया था ,,, क्या इसकी इतनी बडी सजा ,,,?
क्या हम अपनी इच्छा से दोस्त नहीं चुन सकते।
और फिर ये प्यार और शादी की बात ,,? जजसाहब ने मुझसे ये सब क्यों पूछा,,,माँ को तो वो बिल्कुल पसन्द नहीं था,,, और मेरी भी उससे कोई दोस्ती नहीं थी ,,,अब तो महीनों से मिले भी नहीं हम ,,।?
ढेर सारे सवाल मेरे बाल मनमें ,,पर जबाब एक भी नहीं ,,,,
साथ में अकेलेपन का डर ,,,, स्थिति बहुत ही विषम थी और मेरे लिए असहनीय भी ।
पर मेरे तो सोचने -समझने की स्थिति ही नही रही ,बस हर समय रोना-ही-रोना आता था। पापा-मम्मी का प्यार और भैया का दुलार जैसे खींचता रहता था अपने घर की ओर । पहली बार अपनों के ना होना के अहसास को मन समझ पाया और एक ही दिन में वो अल्हड़-सी बेबाक लडकी जैसे उम्र से बहुत पहले ही बडी हो गई । अभी तक कभी ये बातें सोची ही नहीं थी ,,,,
दो दिन बाद मम्मी-पापा मिलने तो आए , उन्हें देखकर मन छटपटा उठा, ढेर सारी बातें बताने थी, बहुत कुछ पूछना था,,,,और अपने घर भी तो जाना था,,,मन खुश हुआ ,,,पर ये क्या ,,
पापा ने इतना ही पूछा,” गुडिया तू ठीक है ना?”
मैंने रोते हुए कहा ,” पापा मुझे आपका पास रहना है , मुझे यहाँ से ले चलो”
पापा की आँखें भर आई,,मम्मी ने रोते हुए गले से लगाया,,, पर पापा ,,,बस सिर पर हाथ रखा और चेहरा घूमा लिया ,,, शायद अपनी विवशता के आँसू नहीं रोक पाए थे ,,,विवशता
अपनी प्यारी गुडिया के लिए कुछ नहीं कर पाने की ,,,चुपचाप चले गए,,बिना कुछ कहे ,,,मुझे रोता छोडकर ,,,साथ नहीं ले जा सके । और ढेरों सवाल कुलबुलाने लगे मेरे छोटे से मस्तिष्क में ,,,आखिर उनकी बेटी हूँ ,,पूरा हक है उनका मुझपर ,,,फिर क्यों नहीं ले जा सकते वे मुझे यहाँ से छुपाकर ,,आखिर कौन-सी मजबूरी है जो एक बच्ची को अपने माँ बाप से यूँ जुदा कर देती है ,,,कैसा समाज है ये ,,कैसी दुनिया ,,।नहीं रहना मुझे यहाँ ,,,।मैं जोर -जोर से रोने लगी ,,,दरवाजे की ओर भागी ,,तो दो मजबूत हाथों ने कसकर जकड लिया और धसीटते हुए मुझे एक खाली कमरे में बन्द कर दिया ,,,,मैं बेबस सिसकती रही ।
असहाय से उनके पीले चेहरे पर विवशता की उलझी-सी रेखाओं में मैं भी घुलती जा रही थी ।
उस सीलन भरे बन्द कमरों की चार दिवानी गवाह थी बस मेरे दर्द की,,,मेरी बेबसी की ,,,।

———-

उसपर नारी सुधार गृह के सिहरन पैदा करनेवाले अमानवीय किस्से ।
एक कमसिन-सी प्यारी बच्ची मुझसे भी उम्र में बहुत छोटी, अपने ही पिता द्वारा हवस का शिकार, तो एक खूंखार से चेहरे वाली लम्बी-चौडी औरत छः खून किया हो जिसने ,
एक विधवा समाज द्वारा सताई गई, तो एक कन्या जो पैदा होते ही माँ बाप द्वारा त्यागी हुई ,,
जितनी नारियाँ उतने किस्से,,

मैने तो ऐसी दुनिया के बारें में कभी सोचा ही नहीं था,
जेल में कैदियों-सी बदतर जिन्दगी , शायद कीडों-मकोडों की-सी , बस श्वासें हैं इसलिए जी रहे हैं , जिन्दा लाश बनकर ।
रात में सोचते-सोचते और रोते-रोते कब आँख लग गई, पता ही नही चला ।

सुबह आँख खुली तेज शोर सुनकर, कमरे के बाहर झांका तो डरकर रो पडी फिर से, वो सात खून करके आई औरत ने तोड-फोड और मार-पीट शुरू कर दी थी, ना जाने किस बात पर,,, और उसे रोकने वाला वहाँ कोई भी नही था ।
अचानक बगल के कमरे से एक बूढ़ी औरत आई और मुझे सम्भाल कर अपने कमरे में ले गई, प्यार से सहलाया, अपनी बाहों में भरकर चुप कराया और गोदी में सिर रखकर मुझसे मेरे बारे में पूछने लगी। मैंने सुबकती हुए उन्हें सारी बातें बताई,,मैं कालेज में पढती हूँ, गाना भी गाती हूँ। उन्होंने मुझे सांत्वना दी,,और थोडा-सा कुछ खिलाया भी। उनका प्यार मेरे लिए ,
जैसे तपती हुई धरती पर कहीं से खुशबू भरा पानी का झोंका आ गया हो ।

मुझे पहली बार उस दिन वहाँ अच्छा लगा , मैंने गाना भी गाया और सबने ताली बजाकर मेरी तारीफ भी की । बस फिर धीरे-धीरे मैं वहाँ रहना सीखने लगी ।

करीब छः दिनों बाद नीरज फिर से आया दो दोस्तों के साथ, पुलिस भी थी साथ में, पुलिस को देखकर मेरे हाथ-पाँव फिर से सुन्न होने लगे। अपराधी की भाँति मैं चुपचाप जीप में बैठ गई,,, धीरे-धीरे दिमाग भी सुन्न होने लगा , मुझे कचहरी लेकर गए और मुझसे कुछ सफेद छपे हुए पन्नों पर साइन करवाया , मैं कठपुतली की भाँति साइन करती चली गई। अचानक देखा मम्मी-पापा भी सामने खडे थे, जोर से फफक पडी, उनके सीने से लगना चाहती थी, पर लेडी कांस्टेबल ने पकड लिया । मम्मी-पापा बेबस निगाहों से मुझे देखते रह गए,,,उन्होने भी वहाँ दस्तखत किए, मुझे लगा शायद अब सब ठीक हो जाएगा ,,,।
पर ये क्या ,,, आँसू भरे नैनों से वे मुझे वहीं छोडकर चले गए, मेरी भीगी पलकें उन्हें पुकारती रही, दिल आवाज लगाते रहा, पर कौन सुनता मेरे दिल की आवाज,,,,वहाँ अब वकील का काला कोट पहने एक अनजान चेहरा,,नीरज और उसके दोस्त,,,एक जीप ,,,और अकेली मैं,जिसका कोई भी तो नहीं था,,लगा किसी बियाबान जंगल में कहीं खोने लगी हूँ मैं ,,, तभी वहाँ खडे वकील ने कहा ,” बधाई हो आप आज से पति-पत्नी हो गए। ”
मैं अवाक्,,,, वकील को देखती रह गई ।
नीरज ने मेरी बाहँ पकडी और लगभग धसीटते हुए मुझे वापस अपनी जीप में बैठाया और चली पडी।जीप उस अनजान सफर पर, जिसके न रास्तों का पता था, न मंजिल की कोई उम्मीद,,,आज बनारस की वे सडकें भी अपरिचित की भाँति मुझे डरा रही थीं,,,साथ में बैठा नीरज ,,,एक डरावना चेहरा ,,जैसे मुझे निगलता हुआ,,,और जब उनके दोस्त हँसते तो उनकी हँसी में मुझे पापा की चीख सुनाई देती ,,,वो आधे धंटे ,पता नही कैसे बीते और मैं पहुँच गई
दो कमरे के एक छोटे से घर में।
बस ,,
एक अल्हड़-सी लडकी एक गृहस्थन बन गई पल में ।
पापा की लाडली ,अनचाहे पति नामक के जीव के साथ बँध गई जीवन भर के लिए ।
—-

आज सोचती हूँ तो सबकुछ एक बुरा सपना-सा लगता है , पर ये मेरे जीवन का वो कडवा धूँट था जिसे अनचाहे ही मुझे पीना पडा । ये भी नही कह सकती कि मीरा की तरह जहर पिया ।
वो तो कृष्ण दीवानी थी, पर मैं,,, मै तो ना प्यार जानती थी ना दिवानापन ,,,
हाँ दिवानी तो थी मैं, अपनी पापा के प्यार की दिवानी ,, अपनी ही मौज में रहने वाली।
एक बात और भी थी , मै संगीत की भी दिवानी थी ।
गाना और सितार बजाना, ये शौक भी था और मेरे गुरूजी की नजरों से कहूँ, तो मैं बहुत अच्छी शिष्या थी ।
आज भी याद आता है जब गुरूजी मुझे घर पर सिखाने आते तो मैं उनके सितार पर जब उँगलियाँ फिराती तो उन्हें मुझमें भविष्य का उभरता बडा कलाकार नजर आता था, यही कारण है कि उनकी कृपा ने मुझे और मेरे पिता को अभिभूत कर दिया। वो मेरे पिता की आर्थिक स्थिति से वाकिफ थे। मेरे सितार और संगीत प्रेम और मेरी लगन को देखकर उन्होंने पापा से एक दिन कहा कि मुझे अभी महीने के पैसे नहीं चाहिए । जब जरूरत होगी तब ले लूँगा ।
कुछ महीनों बाद उन्होंने जमा किए हुए पैसे माँगे और वो एक सितार लेकर आए और मुझे देते हुए कहा कि ,,बेटी ,ये तुम्हारे लिए है। खूब बजाना और हम सबका नाम रोशन करना ।पापाउन्हें देखते रह गए ,, पापा ने उसकी कीमत पूछी तो उन्होंने कहा ,ये बडी होकर मेरा नाम रोशन करेगी ,यही कीमत है इसकी ।
तब पापा को समझ में आया कि उन्होंने इतने महीनों से पैसे क्यूँ नहीं लिए थे। ऐसे थे हमारे गुरूजी ।
निश्चित ही मैं बहुत भाग्यशाली रही थी गुरू पाने की दृष्टि से , फिर भले ही वो कालेज के प्राध्यापक हो या संगीत के गुरूजी ।
——

एक दिन मुझसे नारी सुधार गृह में गुरू जी भी मुझसे मिलने आए, उनका वो चेहरा आज याद करती हूँ तो उनके उस दर्द से मन तडप उठता है, जैसे उन्होंने भी कोई बहुमूल्य रत्न खो दिया हो ।
तभी तो नीरज के घर से शादी के कुछ महीनों बाद जब संगीत की परीक्षा दी, तो गुरूजी इतने हतोत्साहित हो गए और एक ही शब्द कह पाए, तुम्हें क्या हो गया बेटी ?

क्या कहती उनसे कि गुरूजी, “अब आपकी बेटी काव्या खो चुकी है, जो आपके सामने है वो तो एक जबरदस्ती के रिश्ते को ढोती, सम्भालती जीने की कोशिश में रोज मरती काव्या है, जिसके पास न आपका दिया हुआ उपहार है, न वो उत्साह और प्रोत्साहन ,,जिसके बल पर वो दुनिया जीत सकती थी।”

अब अन्दर की काव्यात्मा मर चुकी है , जिसके शौक और पसन्द पर आप, उसके भैया और पापा अपना सब कुछ न्योछावर करने के लिए तैयार रहते थे ।

अब तो वह जिस मानुष के साथ रह रही है, उससे वो क्या कहे और क्या सुने ।
एक हस्ताक्षर और जिन्दगी स्वाहा ,,,।

यही तो हुआ था ना उस दिन सुधारगृह से निकलकर कोर्ट पहुँचकर, तब तो ना मैं कोर्ट जानती थी ना सुधारगृह के बारे में ही पहले कभी सुना था,,,क्या ऐसा होता है सुधारगृह,,,,अपनी संज्ञा से बिल्कुल विपरीत,,, एक यातना भरी जेल, जहाँ न ढंग का खाना है न आदमियों-सा जीना।

और शादी ,,,उसके भी कितने किस्से सुने , कितनी शादियों में शामिल हुई ,,
पर मेरी शादी ,,वो हुई तो पर मैं नही देख पाई , शायद कोई भी नहीं ,,, क्या ये शादी थी ,,, ?
बस वकील ने कहा और सबने मान लिया ,,?
ना गाजा-बाजा, ना बाराती, ना मीठे पकवान, ना कोई साजो श्रृंगार, ना दोस्त ना परिवार, ना भाई के लावों की बौछार,,,,, हाँ एक ही चीज मिलती थी,,, अपनों की भीगी पलकें विदाई में ,,,,,पर उन आँखों में भी मेरे भविष्य के सपने नहीं थे , कोई उम्मीद नहीं थी,,,।
बस चार सूनी आँखें अपनी हसरतों के जनाजे उठती देखती रही और मैं उन आँखों में अपने मम्मी-पापा के प्यार को तलाशती मन-मन भर के कदमों से बाहर निकलकर कब उस दो कमरों वाले एक फ्लैट में पहुँच गई, पता ही नही चला ।
—–
होश आया जब रात में बिस्तर पर दो रेंगते हुए हाथ मेरी ओर बढे और मैं चीख पडी । मेरी चीख उन हाथों के लिए भी शायद अजनबी थी, वे भी डरकर पीछे हट गए ।
और ये सिलसिला महीनों ऐसे ही चलता रहा ।
एक मशीन-सी मैं सुबह उठकर कुछ कच्चा-पक्का पकाती , घर की सफाई करती और एक कोने में चुपचाप पडी रहती ।
रात के आने से पहले ही एक अंधेरी धुप्प गुफा में जैसे अकेली होने के अहसास से डरी-सहमी रात को महसूस करने लगती ।
बहते आँसुओं का सबब ना पूछो,
कैसे गुजरी शबे-रात , ना पूछो।
अब झुकी-झुकी-सी दिखती है
बारहां क्यूँ खुली थी ना पूछो।

चाँद भी छुप गया था बदली में,
रात आँचल यूँ ही भिगोती रही,
बाहों में भरके तन्हाई की कसक,
पलकें मेरी भी नम होती रही।

अनछुए से सवाल बिखरे-से ,
जाने-पहचाने चेहरे उभरे-से।
रोशनी में जो खो से जाते हैं,
अंधियारों में वो भी उजले-से।

उसके गम आज मेरी आँखों में,
चू-सी पडती वो बातों-बातो में।
मुझसे कुछ भी वो कह ना सकी,
जलते तारे छुपाए साँसों में।

रात, तेरी दास्ताँ नई ,ना सही,
तेरी खामोशी पर सही ना गई।
आज कुछ लफ्ज़ मुझको कहनेे दे,
जो किसी ने कभी सुनी, ना कही।
डॉ इन्दु

अहसास जैसे थे ही नही अब और कोई ,,,सबकुछ यंत्रवत,, बस श्वासें चल रही थी , दिन में कच्चा -पक्का ईंधन इस शरीर रूपी मशीन में डालती और सारे दिन घर के काम में लगी रात को बर्फ-सी डंठी पडी होती बिस्तर पर, थककर चूर ।

याद आती थी तब मुझे उन दिनों की , जब मैं अपनी सहेली अंजु के साथ कालेज से आते- जाते कभी उसके घर चली जाती, उसका घर मेरे घर के सामने नीरज के घर से सटा हुआ ही तो था और अंजु के भाई से नीरज की भी दोस्ती हो गई थी, तो वह भी वहाँ मिल जाता । अंजु की माँ कभी पकौड़ा तो कभी कुछ और बनाकर खिलाती तो हम सभी खाने के बाद प्लेट उठाकर रखते तब सभी अपनी-अपनी प्लेट धोकर रखते , मुझे आदत नही थी , इसलिए आंटी कहती रहने दो बेटी ,तुमने अपने घर में कभी भी ये काम नही किया, फिर यहाँ करने की क्या जरूरत है ।सच मे मैं तो बडी लाडली थी ना मम्मी -पापा की , कभी एक पानी का गिलास भी नही उठाया और आज,,, आज पूरे घर का काम इन्हीं सुकुमार हाथों से कर रही हूँ।
—–
वक्त भी कितना अजीब होता है ना ।
पर मेरा मन जैसे कहीं गुम-सा हो गया था, उसे क़ोई फर्क ही नहीं पडता था ।
हाँ रात में वे रेंगते हाथ बर्दाश्त नहीं कर पाती ,और जैसे ही आगे बढने की कोशिश करते, चीख पडती ।
आसपास के लोग ना सुनले, इस डर से वो हाथ ठहर तो जाते , पर कोशिश हर रात करते ।
सच कहूँ तो मुझे प्यार नही था नीरज से, पर नफरत भी नहीं थी।
पर जिसप्रकार से जोर-जबरदस्ती से शादी की गई और मेरे मम्मा-पापा को जो दर्द दिया गया जीवन भर का उसने, उसकी तेज धूप से मन का पौधा झुलस गया था ।
——

करीब छः महीनों तक ये सिलसिला चलता रहा, मुझे रात से ही नफरत होने लगी , लगता रात ही ना हो कभी ।
पर इन सबके बीच जो एक बात थी, वो बडा सुकून देती थी इस अनचाहे रिश्ते के साथ जो एक और रिश्ता मिला सास ससुर और चाचाससुर का ,जैसे खोए माँ बाप ही मिल गए हों ।पहली बार जब वो मेरे दो कमरों के फ्लैट में आए तो मुझे देखकर धन्य हो गई मेरी सास।
उन्होंने मुझे इतना प्यार दिया था जिसे मैं आज भी नही भूल पाती । मै तो बडी नादान थी, पर सास ने मेरी हर नादानी को मेरी मासूमियत माना और मुझे प्यार से सहेजती रहीं । पर ये सुख भी मेरे लिए ऊँट के मुहँ में जीरे के समान ही रहा , क्योंकि वो गाँव में रहती थी और मैं शहर में।
वो जानती थी और मानती भी थी कि गलती उनके बेटे की ही है , पर अब तो कुछ हो नही सकता था , इसलिए वो मुझे समझाती भी रहती थी कि बेटी ये दिल का बुरा नहीं है पर संगत के कारण राजनीति से जुडकर थोडा बिगड गया है ।
जिद्दी भी हो गया है शहर में रहकर । तुम निभा लोगी जानती हूँ ।
उन्हें क्या पता ,,इतना आसान नहीं था मेरे लिए ये सबकुछ । एक नाबालिग लड़की को , उसके माता-पिता को बिके हुए कानून के बल पर अगवा करना, मानसिक यातनाओं ए भरे वे कुछ दिन ,,,पूरी जिन्दगी पर भारी ,,,समाज की छेदती नजरें , छोटे भाई-बहनों मासूम सवाल,,,और फिर पापा की सरकारी नौकरी पर आँच,,,, वो सुधारगृह की डरावनी रातें और सहमते दिन ,,क्या आसान था ये सबकुछ,,?
मैं नाबालिग थी, इसलिए मुझे सुधारगृह ले गए थे ,अठारह साल होने में दस दिन बाकी जो थे।
ये तो मैं बाद में समझ पाई कि नीरज को डर था कि मुझे फिर से मिलने नहीं दिया जाएगा और कानूनन वो अठारह साल के पहले मुझसे विवाह नहीं कर सकता ,अतः वकील की सलाह पर उसने मुझे अपने पापा के पास नहीं जाने दिया , सुधारगृह भेजा ,,जिससे मुझसे शादी कर सके ।
———

सुख हो या दुःख, वक्त ठहरता नहीं, गुजर ही जाता है । बस छः महीने इसी तरह बीत गए।
खाना बनाना नहीं आता था ,बनाते-बनाते वो भी सीख गई।
नीरज अपने दोस्तों को अक्सर घर लेकर आते थे । उम्र में लगभग एक दो को छोडकर सभी मुझसे काफी बडे थे । स्वभाव से सभी बहुत अच्छे थे ।
हालाँकि छात्र संगठन में नेतागिरी के कारण कुछ बदनाम भी थे । पर सभी मेरी बहुत इज्जत करते थे ।
सबसे मेरे मधुर सम्बन्ध हो गए थे। इन सबका असर ये हुआ कि धीरे-धीरे नीरज के साथ की कडवाहट भी कम हो गई ।

कुछ यादें मेरे उस जीवन की आज भी मन को सहलाती है, जो जुडे थी इनके बाबा से ,,,
इनके बाबा जो की सन्यासी थे और बनारस के मठ में रहते थे, वे वहाँ के महन्त थे ।
उन्हें जब पता चला कि नीरज की शादी हो गई है तो उन्होंने मुझसे मिलने के लिए नीरज को मठ में लेकर आने के लिए कहा ।
मै नीरज के साथ गई ,,,मुझे देखते ही उनके पहले शब्द थे,जो उन्होने इनके चाचाजी से कहा इस लडकी का जीवन बर्बाद हो गया। ये बात मुझे बहुत बाद में पता चली ।
उन्होंने मेरा स्वागत बहुत स्नेह से किया और मुझे अपने पास बैठाकर पूछा ,,बेटी तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं ? नीरज तुम्हें परेशान तो नहीं करता ?
मुझे प्रसाद दिया और नीरज से कहा कि इसे लेकर आते रहना और इसे परेशान मत करना, नहीं तो इसे लेकर मैं आ जाऊँगा ।
फिर जब भी हम जाते, वे मुझसे अवश्य पूछते थे ,” बेटी तुम्हें कोई दिक्कत तो नहीं ,”
उनका एक सेवक हर रोज या एक दो रोज में घर आता, मुझसे मिलता और चला जाता। मुझे समझ में नही आता था कि वो बिना किसी काम के हर रोज क्यों आता है । एक दिन मैने उससे पूछ ही लिया ,,तब उसने बताया कि महन्त जी का आदेश है, रोज आपको देखने आँऊ। मुझे बडा आश्चर्य हुआ ऐसा उन्होने क्यूँ किया है । पर आज जब सारी बातें जुडती है तो समझ में आता है कि उन्होने ऐसा आदेश क्यूँ दे रखा था ।
एक दिन उन्होंने मुझे खासकर बुलाया । नीरज के साथ गई तो उन्होने नीरज को कहा ,”तुम कमरे के बाहर जाओ ,मुझे बहुरिया से कुछ बात करनी है । नीरज को समझ नहीं आया पर उनका आदेश टालना उसके बस में नहीं था।
वो दृश्य और वे पल मैं आजतक नहीं भूली ।
स्वामी जी कहती थी मैं उन्हें।
वे मेरे ठीक सामने गद्दी पर बैठे थे । उन्होंने कहा बेटी दरवाजा बन्द कर लो ।
मुझे थोडा अजीब लगा , पर उनका आदेश ,,
मैंने दरवाजा अन्दर से बन्द कर लिया और उनके ठीक सामने आकर बैठ गई।
उन्होंने कहा ,” बेटी मुझे स्वामी जी नहीं ,एकबार अपने मुँह से बाबा कहो ”
आज उन्होने मुझसे ऐसा पहलीबार कहा था । सभी उन्हें स्वामी जी ही कहते थे तो मैं भी वही कहने लगी थी ।
वो नीरज के बाबा थे तो मेरे भी तो बाबा ही हुए ना!
मैंने उन्हें बाबा कहा ।
जैसे ही मैंने उन्हें बाबा कहा, उनके आँखों से आँसू की अविरल धार बह निकली ,,मै अवाक् ,,बस उनके उस प्यार के अमृत जल से जैसे अपने बंजर हृदय को सींच रही थी ,,।
पर समझ नहीं सकी , वो क्यों रोए ।
फिर कुछ देर बाद स्वयं ही बोले ,”बेटी, तुम्हारे मुख से बाबा शब्द सुनकर मैं तृप्त हो गया।
एक बात मैं जानता हूँ बेटी , नीरज अच्छा लडका नहीं है । वो तुम्हारे योग्य नहीं । पता नहीं ईश्वर ने तुम्हारे भाग्य में इतने दुःख क्यों लिखे हैं ।
पर तुम चिन्ता मत करना । मैं हमेशा तुम्हारे साथ हूँ ।”
उनके इस अतिरिक्त स्नेह ने मुझे भी भाव विभोर कर दिया था । उनसे मिलना तो मेरे लिए हमेशा ही उत्सव की भाँति होता था पर उस दिन ,,उसदिन की बात कुछ और ही थी ।
लगा सच में मैं अपने बाबा से ही मिली हूँ ।
उन्होंने उसदिन मुझसे कहा था कि तुम संस्कृत में एम ए करना ।
मैं तो प्राचीन भारतीय इतिहास से एम ए करने वाली थी । मुझे आश्चर्य हुआ उन्होंने ऐसा क्यूँ कहा । साथ ही उन्होंने ये भी कहा था कि जब भी तुम्हें पैसे की जरूरत पडे, तुम रिक्शे में बैठकर मेरे पास चली आना।
बाहर आई तो नीरज ने पूछा ,”बाबा ने क्या कहा ,क्या बताती उसे कि तुम्हारे बाबा जानते हैं कि तुम कैसे हो । बस बात धुमा दी मैने।
पर थोडे ही दिनों में एकदिन खबर मिली बाबा ने समाधि ले ली।
पंचतत्व में विलीन हो गए।
यह खबर जब नीरज ने दी तो मुझे लगा मैंने अपने बाबा को खो दिया ,,
पर नहीं ,,जीवन के हर कदम पर आज तक भी मैने महसूस किया है कि बाबा मेरे साथ-साथ हैं। उनके आशीर्वाद की छाया आज भी मुझपर वैसे ही बनी हुई है ।
जब नीरज छोडकर चले गए थे मुझे, मेरा सिन्दूर पोंछकर, तब भटकते-भटकते एक दिन मुझे बाबा की बात याद आई और मरे आन मन से मैने रिक्शा लिया और पहुँच गई मठ में ,,,बाबा को तलाशते, बाबा तो नहीं थे हाँ उनकी एक आदमकद तस्वीर थी, जो मुझे बाबा के होने का अहसास करा रही थी। पता नहीं क्यूँ ,पर मैने वहाँ के महंत से कहा ,मुझेबाबा की ये तस्वीर चाहिए , मुझे दे दें। मैं इसकी दूसरी कापी करवाकर वापस दे दूँगी ।
उस तस्वीर को लेकर इधर -उधर घूमी रिक्शे से ही और फिर किसी वैसी ही एक तस्वीर बाबा की बनवा ली मैंने । वो आज भी मेरे पास है और जब भी मुसीबत आती है लगता है बाबा उसके समाधान कर देते हैं।
उसदिन भी तो तस्वीर घर लेकर आई तो गोहाटी से इंटरव्यू का पत्र आया हुआ था , मुझे ये बाबा का ही आशीर्वाद लगा था ।
बाबा के कहने पर ही मैने संस्कृत से एम ए किया था ,,तब कहाँ पता था मुझे कि ये विषय ही मेरे जीने का सम्बल बन जाएगा ।
सोचती हूँ तो लगता है बाबा इतने बडे सिद्ध पुरूष थे, वे मेरा भविष्य जान गए थे तभी रोए भी थे और तभी उन्होंने संस्कृत से एम ए करने की बात भी कही थी ,जिससे करने का मैने सोचा नही था ।
आज भी उन्हें याद करती हूँ, दिल दर्द से भर जाता है और आँखें छलकने लगती हैं।

——–

भाग 3
घर में अकेलापन और फिर पढाई का शौक मुझे खींचने लगा । शायद नीरज ने भी महसूस किया होगा मेरा अकेलापन और मेरी पढने की चाहत ,,, मैंने कहा तो मुझे कालेज जाने की इजाजत मिल गई,,,,,किसी तरह बैचलर की डिग्री की पढाई पूरी की।
दो साल जिन्दगी की गाडी और खींचती गई ।
नीरज डाक्टर थे, खर्चा चल जाता था किसी तरह ।

पर समस्या ने तो जैसे मेरा पीछा ना छोडने की कसम ही खा रखी थी ।
पीने-खाने और ताश खेलने की आदत तो नीरज में शुरू से थी । हालाँकि नीरज उच्च कुल के ब्राह्मण परिवार से थे, पर जन्म और कर्म का मेल हमेशा तो नही हो सकता ना?

एक दिन मुझे पता चला कि मैं माँ बनने वाली हूँ, मुझे पता नही मुझे खुश होना चाहिए या नहीं , अभी एम ए की पढाई शुरू ही तो की थी और नीरज अपनी आदतों की वजह से पैसे फूँकने लगा था। मैं भी बहुत सामान्य तो नही हो पाई थी ना !

मेरे लिए तो इस दुनिया में वो भी अपने नही रहे थे, जिन्होंने पैदा किया था और जो जान से ज्यादा चाहते थे मुझे कभी । अपने भाई-बहनों से दूर, सारे रिश्तों को भूलने की कोशिश में नाकाम मैं, कालेज से कभी -कभी पूजा अपने घर ले जाती।

एक दिन गई तो देखा माँ वहाँ बैठी थी, मेरे इन्तजार में,,,,इतने दिनों बाद माँ को देखना,,,कहीं सपना तो नहीं ,,,दौड़कर लिपट गई उनके दामन से ,,,हम दोनों कितनी देर एक-दूसरे से लिपटकर रोते रहे, पता नहीं ,,फिर पूजा ने ही कहा ,,,अरे देखो , माँ तुम्हारे लिए क्या लाई है ,,,माँ के हाथ के लड्डू ,,मुझे बेहद पसन्द थे ,,और माँ मेरे लिए बनाकर लाती थीं,,,पापा और सबसे झूठ बोलकर ,,,

पापा नहीं चाहते थे कि मुझसे मिला जाए या मुझे घर बुलाया जाए ,,शायद उनके कमजोर क॔धे अब मेरे छोटे भाई-बहनों के लिए कोई अडचन नहीं खडी करना चाहते थे ।
पर ये सिलसिला अब चलने लगा ,मेरे लिए माँ से मिलना ही मानो एक त्योहार हो गया था ।

अपनी दोस्त पूजा की शुक्रगुजार थी कि वो मुझे खुश करने के लिए कभी – कभी अपने घर ले जाती और वहाँ माँ छुपकर मुझसे मिलने का इन्तजार करती , उसे पाकर मेरा रेत-सा सूखा मन जैसे बारिश की कुछ बूंदों से ही मानो तृप्त हो जाता ।
घर से दूर जाने के बाद कभी-कभी माँ से मिलने का सुख कितना खास होता था, आज भी सोचती हूँ, तो पूजा के प्रति मन से दुआ ही निकलती है ।

मेरी माँ भी शायद सभी से छुपते-छुपाते मेरे लिए कुछ बनाकर लाती और मुझे खिला कर जैसे तृप्त हो उठती, आखिर उनकी लाडली तो थी मैं ।
आज माँ बन गई हूँ तो माँ के उस दर्द और उस संतोष को और अच्छी तरह समझ सकी हूँ।
—-
पर पापा,, ?
आज समझ सकती हूँ पापा की उलझनें ,,,और जानने लगी हूँ , पापा भी जरूर जान गए होंगे , माँ के मुझसे मिलने आने की बात ,,,भला छुपी रह सकती है ये बातें ,,जब मुझसे मिलकर घर वापस जाती होंगी तो उनके चेहरे का संतोष ही कह देता होगा सब कुछ । पर अंजान बने रहते बस।
पापा बहुत प्यार करते थे ना ,,शायद इस सदमे से कभी नहीं उभर पाए !
एकबार मुझे ही जाना पडा उनसे मिलने, घर जाने की इजाजत नहीं थी तब, पोस्ट आफिस ही गई थी, जब मुझे बीएड में दाखिला लेना था और सर्टिफिकेट तो सारे मैंने फाड दिए थे गुस्से में ।
वो भी एक छोटा-सा हादसा ही था मेरे लिए ,, जब कालेज जाना शुरू किया था तो पहले तो नीरज ने कुछ नहीं कहा, पर बात-बात में ताना देने लगे कि तुम्हें तो घर अच्छा ही नही लगता बस बाहर जाने का बहाना चाहिए इसलिए कालेज जाती हो ,,।
रोज सुनते-सुनते थक गई तो एक दिन अपने पास रखे सारे सर्टिफिकेट फाड डाले,,ना रहेगा बांस ना बजेगी बांसुरी ।
पर जीवन इन उत्तेजना भरे लम्हों से बहुत अलग होता है। कब किस चीज की जरूरत पड जाती है ,पता नहीं चलता। अतः जो मिल जाता है उसे सहेजकर रखना जरूरी है, यह उस दिन समझ में आया।

————
एम ए की पढाई और थोडे दिनों में ही मेरी माँ बनने की खबर , नीरज के परिवार वाले बहुत खुश थे, पर मुझे अपनी पढाई फिर से बीच में ही छोडनी पडी ।
अब स्थिति और भी मुश्किल हो गई । बीस साल की उम्र और जीवन के सच से अनजान-सी मैं । पता नहीं कैसे बीते नौ महीने ,बस बीत गए किसी तरह । पर अभी तो कुछ हुआ ही नही था ,जैसे अभी तो बस छोटी-छोटी लहरें ही उठ रही थी जीवन में,,, मै माँ बन गई एक बेटी की ।
पर ये क्या, हास्पीटल में बडा शोर है , भीड भी बहुत है आखिर क्या बात है , समझ में नहीँ आया , थोडी देर बाद माँ आई तो उसने बताया मेरी बेटी दाँतों के साथ पैदा हुई है और ये अजूबा है समाज के लिए, इसलिए इतनी भीड हैं। बाहर पत्रकार भी हैं, डाक्टर, नर्स और समाज के लोग भी। किसी के लिए ये कौतुहल का विषय है, किसी के लिए शोध का तो किसी के लिए एक मनोरंजक समाचार ।
मैं चकित रह गई और बेटी को देखा तो हैरान भी ।आम बच्चों से हटकर रंग-रूप, शरीर पर बाल भी और बहुत ही दुबली- पतली बीमार-सी ।
पर बेटी थी हमारी । नीरज बहुत खुश हुए थे पिता बनकर, मैं खुश तो बहुत हुई पर थोडा परेशान भी , मेरे लिए ये सब कुछ बहुत नया था, फिर घर के सारे काम के साथ एक बच्चे को भी सम्भालना ,कैसे कर पाऊँगी अकेले यह सब, बहुत कमजोर थी मेरी नन्हीं,,,उसे उठाने में भी डर लगता था ,,
शायद भगवान ने जान ली मेरी समस्या और मिल गई मदद एक किशोर लडके से , जो नीरज के साथ ही काम करता था, वो मेरे घर आता था कभी-कभी, अब रोज आने लगा मैं उसे कुछ पढना-लिखना सीखा देती और वो मेरे साथ घर के कामों में हाथ बटाता, फिर वो हमारे साथ ही रहने लगा था।
मेरी बेटी नीरजा एक साल की हो गई, पर चलना नही सीख पाई , मुझे फिक्र होने लगी ।
तभी एक और मुसीबत, तीन महीने बीत गए, मुझे पता ही नही चला कि मैं फिरसे माँ बनने वाली हूँ ।
थोडा अजीब-अजीब-सा लग तो रहा था पर सोचा ही नहीं था कि इतनी जल्दी फिर से माँ बन जाऊँगी ।
पर अब कोई उपाय भी नही था ।
बस देखते-देखते दो बच्चों की माँ बन गई । इस बार बेटा हुआ था। मेरे लिए बडी परेशानी दोनों को सम्भालना ।
हाँ शंकर था तो थोडी राहत मिल जाती थी ।
एक अच्छी बात और हो गई , मेरे पडोसी के पास एक खरगोश था , पडोसी कुछ दिनों के लिए बाहर गए तो खरगोश मेरे पास छोड गए। मेरी बेटी डेढ साल से ज्यादा की हो गई थी, चलना फिरना नहीं सीख पारही थी , दिन -प्रतिदिन मुझे ज्यादा चिन्ता होने लगी, परन्तु उस खरगोश को पकडने के चक्कर में ना जाने वो कैसे चलना सीख गई और तब जाकर मैंने राहत की साँस ली ।

नीरज की बुरी आदतों ने मुझे आगाह किया कि मुझे भी अपने पैरों पर खडा होना होगा । मेरा सपना तो एम ए करने का था, कर भी रही थी पर बीच में ही माँ बन गई और पढाई अधूरी रह गई।
जब फिरसे पढने की बात सोचती तो लगा कि नहीं पहले बी एड करना बेहतर होगा जरूरत हुई तो शिक्षिका की नौकरी तो मिल जाएगी ।
तब किसे पता था कि मेरी जिन्दगी में मेरी पहचान ही सर्वश्रेष्ठ शिक्षिका के रूप में होगी ।
खैर, अब किसी तरह बी एड में दाखिले के लिए सोचा तो सर्टिफिकेट ही नहीं। वो तो पिछली बार फाड दिए थे,,,?
हर समस्या के लिए तो हमेशा पापा के पास ही जाती थी ना शादी के पहले।
आज पापा बहुत याद आए, तब शादी के तकरीबन चार साल बाद पापा से मिलने गई ।

पता नहीं कैसे पापा जानते थे कि ये समस्या आएगी, उन्होंने मेरे पहले सभी सर्टिफिकेट की काॅपी अपने पास सम्भाल कर रखी थी, बी ए बाद में किया था सो उसके लिए भी पापा ने एक कापी अपने पास ना जाने कहाँ से मँगाकर॔ रख रखी थी ।
उन्होने कहा भी था-“बेटा मैं जानता था एक दिन ये हो सकता है इसलिए सम्भाल कर रखी है मैंने ,तू ले जा पर इसकी एक कापी यही छोड जा ।”
वो दिन, जब मैं पोस्ट आफिस में पापा से मिली शादी के दो साल से अधिक होने को आए तब । देखा तो लगा कितने कमजोर हो गए थे ना पापा ।
देखा तो बहुत रोईं उनके गले से लिपटकर , कहीं-ना-कहीं अपने-आप को भी कुसूरवार समझने लगी थी मैं तब ।
पर पापा ने कुछ भी नही कहा । बडे प्यार से पास बैठाया, खिलाया-पिलाया और पेपर देकर वापस भेज दिया ।

मैंने फिर से अपनी पढाई शुरू कर दी । तब कहाँ सोचा था कि यही मेरी और मेरे बच्चों की जिन्दगी का आधार बन जाएगा । पापा से लाए सर्टिफिकेट काम आ गए।
दो छोटे-छोटे बच्चे, बेटी बहुत कमजोर और बीमार भी रहती थी।
ऐसे में पढने के लिए समय निकालना बहुत मुश्किल था, फिर पुस्तकों के पैसों की भी किल्लत।
लाइब्रेरी में जाकर बैठने का वक्त नहीं ।
रहा-सहा शंकर भी गाँव चला गया।

रात में बच्चों के सोने के बाद पढती थी। परीक्षा के दिनों का संधर्ष तो इतना अधिक था कि मुझे लगा मैं पास नहीं हो पाऊँगी।
बेटी को बुखार हो गया था , उसे छोडकर परीक्षा देने जाने का बिल्कुल भी मन नहीं हो रहा था, जाना जरूरी था। नीरज के रंग-ढंग धीरे-धीरे बहुत बदल गए थे, अकेली थी तो इतनी चिन्ता नहीं थी, अब तो दो बच्चों की जिम्मेदारी थी कंधों पे और नीरज बेफ्रिक,,,।
किसी तरह परीक्षाऐं दी और ईश्वर की अनुकम्पा से पास भी हो गई।
——–

नीरज की बात सोचती हूँ तो याद आती हैं आज भी धटनाऐं , जो नागवार तो बहुत थी , शायद आम पत्नी इसे सह भी नहीं पाती ।
पर मैं अब आम कहाँ रही और पत्नी ,,?

हम जिस मोहल्ले में रहते थे, वो परिचितों का मोहल्ला था । एक परिवार जो कि बहुत परिचित था हम सभी से। हम सभी एक-दूसरे से मिलते-जुलते रहते थे, हालाँकि वो ईसाई थे। उनकी बेटी जो मुझसे उम्र में छोटी थी, मुझे भाभी कहती थी।
मेरे घर से चार घर बाद एक रास्ता जो उत्तर की ओर मुडता था, उस गली के अन्तिम छोर पर उसका घर था। अक्सर उसके पिता के इलाज के लिए नीरज उसके घर आया जाया करते थे, ऐसा नीरज ने मुझे बताया था ।
एक दिन मैं किसी काम से घर से बाहर निकली तो इनका एक दोस्त मिल गया। पूछा भाभी नीरज घर पर है क्या ?
मैंने कहा,” नहीं, किसी काम से निकले हैं।’

“जरूर, जेनिफर के घर गया होगा। ”

” हो सकता है, उसके पिता का इलाज जो चल रहा है । ”

“भाभी , थोडा ध्यान रखा करो। ”
“मैं समझी नहीं, इसमें ध्यान रखनेवाली कौन -सी बात है।”

उसने कुछ कहा नही और चला गया ।

मैं भी भूल गई।
कुछ दिनों बाद फिर एक दिन इनके दोस्त घर पर आए, तब नीरज नहीं थे।

मैंने कहा ,”नीरज तो घर पर नहीं हैं ।”

“हमें पता है भाभी । वो कहाँ हैं । ”

“तो फिर आप लोग मुझसे मिलने आए हैं ?”

“हाँ दीदी , आपके हाथ की चाय पीने है हमें ।”-शेखर ने कहा , वो मुझे बडी बहन मानने लगा था, इनके दोस्तों में वही था, जो मुझसे उम्र में छोटा था ।

मैं खुशी से फौरन चाय बनाने लगी , सोचा, साथ में थोडी पकौडियाँ भी तल ली जाए, हो सकता है तबतक नीरज भी आ जाएं ।

मैं चाय और पकौडियाँ बनाकर लाई, तबतक वे दोनों बच्चों के साथ खेलते रहे ।
उन्होंने मुझे देखकर बच्चों से कहा ,” जाओ बच्चों, अब बाहर जाकर खेलो।”
सभी के चेहरे थोडे गम्भीर लगे , मुझे लगा वे कुछ कहना चाहते हैं पर संकोच हो रहा है।

निरंजन सबसे बडा दबंग और समझदार था । औरों के लिए भले ही वह लढैत हो , पर मेरे लिए बडे भाई से भी कुछ अधिक ही था ।

उसने पकौडियाँ देखकर खुश होते हुए कहा ,”वाह भाभी, इसे कहते हैं अन्नपूर्णा माता की रसोई,, चाय की तलब थी, पकौड़े भी साथ में मिल गए। ”

शेखर ने कहा , “वाह दीदी , एक पर एक फ्री,,”

“आज आप सब कुछ ज्यादा तारीफ नही करे ? क्या बात है कुछ कहना है क्या?”

अवधेश ने उन दोनों को देखा, फिर एक मिनट रुककर थोडी हिम्मत जुटाते हुए बोला, “भाभी, हमें आपसे नीरज के विषय में कुछ बताना है।”

“क्या बात है , सब ठीक तो है ना? नीरज ठीक हैं ना ? ”

मेरा दिल थोडा-सा धबराया ।

“हाँ, भाभी वो ठीक है, आप घबराऐं नहीं, बस उसके आसार अच्छे नहीं “- निरंजन ने धीरे से कहा ।
“मैं समझी नहीं, थोडा खुलकर बताइए ना, आप लोग क्या कहना चाहते हैं।”

तब अवधेश ने हिम्मत की और एक ही साँस में सब बोल दिया –
” भाभी, वो जेनिफर के घर ज्यादा समय बिताने लगा है, उसके साथ बाहर भी जाता है। हमलोगों ने बहुत समझाया पर मानता नहीं । आपको जब लेकर आया था तो हमलोग को लगा था आप दोनों एकदूसरे से सच्चा प्यार करते हैं, इसलिए हमने उसका साथ दिया। हमें तो बाद में पता चला कि आप उससे प्यार नहीं करती थीं। पर तबतक बात बिगड़ चुकी थी। आपसे मिलकर हमें बहुत अच्छा लगा था। पर आज उसकी हरकतों से हमें बहुत अफसोस और शर्मिंदगी महसूस हो रही है।”

मैं चुपचाप उसकी बातें सुनती रही । एक गहरी टीस बिजली की तरह मेरे दिल में कौंधी, पूरे शरीर में एक सिहरन -सी हुई और फिर शान्त । जैसे कुछ हुआ ही नहीं हो ।

खुद को ही खुद से छुपा ले, कोशिशें करते रहे।
सच ना कहदे आईना पर, सोच कर डरते रहे।

की बहुत मिन्नत कि उनसे, पास ना आए कभी,
बारहां पर हर कदम वो, जाल ही बुनते रहे।

माना उसने ना कभी , मेरी किसी भी बात को,
दोस्ती का जो कि हमसे, दम यूँ हीं भरते रहे।

दूर जाने के लिए, हर बार राहें मोड ली पर,
अगले हर चौराहे पर, वो ही कहर ढहते रहे।

प्यार कब देता है इतना साथ “इन्दु” बोल दो ।
गम ही तो जो साथ जीते, साथ ही मरते रहे।

मैंने कुछ नहीं कहा बस चुपचाप जूठे कपों को ट्रे में रखने लगी, तब शेखर ने धीरे-से कहा -“अच्छा दीदी अब हम चलते हैं ।”

मैं जानती हूँ, ये सभी नीरज के अच्छे दोस्त हैं, पर मेरी बहुत इज्जत करते हैं। ये झूठ नहीं बोल सकते, पर मैं क्या करूँ? अभी तो थोडी स्थिति सामान्य हुई थी। नीरज बच्चों के साथ खुश दिखते थे। बडी मुश्किल से जीना सीख रही थी मैं।
फिर ये विश्वासघात क्यूँ?
अगर नीरज से कुछ कहूँगी तो बिफर जाएगा । उसके स्वभाव को समझने लगी हूँ मैं । पर चुप रहना भी कितना ठीक है ? इसी सोच में शाम सरकने लगी। दीया-बाती भी नहीं की थी, खाना भी बनाना था। बच्चों ने मुझे गुमसुम देखा, तो चुपचाप उनलोगों के लाए खिलौनों से खेलने लगे।
उठी और चौके में गई। एक सब्जी और थोडी -सी चपातियाँ बनाकर बच्चों को खाना खिलाया। आज मन नहीं था कुछ खाने का, बस नीरज के लिए बनाकर रखा, और अपनी भावनाओं से कागज रंगने लगी। शादी के बाद से ये कलम और कागज ही तो मेरे सच्चे दोस्त बन गए थे।
रात गहराने लगी, मन को थोडा सुकून मिला, कुछ लिख लेने के बाद । तभी किसी ने दरवाजा खटखटाया, जानती थी नीरज होंगें। भारीपन से दरवाजा खोला और पूछा “खाना लगा दूँ “।

‘नहीं भूख नहीं । ‘

मन तो चाहा कि पूछुँ ‘किसके साथ खाना खाकर आए हो ‘, पर चुप रही। जाकर सो गई।
सच तो ये है कि जब पहली बार शेखर ने कहा था , “भाभी ध्यान रखा करो “- तब भी मैं समझ गई थी वो क्या कहना चाह रहा है ।

कहते हैं ना “इश्क और मुश्क छुपाए नहीं छुपते” ।
मोहल्लेवालों ने कानाफूसी शुरू कर दी थी , मुझसे भी पास -पडोस के लोगों ने कहा था दो-तीन बार। पर मैं उन सबकी बातों पर ऐतबार नहीं करना चाहती थी । वैसे भी मैं जबतक खुद ना समझ लूँ , देख लूँ , कही-सुनी बातों में नही आती मैं ।
पर आज जब उन्हीं के साथियों ने कहा है तो झूठ नहीं हो सकता।
फिर मन ने ठाना कि रंगे हाथों पकडना है , तब बात करूँगी, बडा दम भरते फिरते थे मुझसे मोहब्बत का ।

नीरज की बडी बहन बनारस में ही रहती थी ,,करीब पैंतालीस मिनट की दूरी थी रिक्शे से ।
दो दिन बाद ही नीरज ने रात में मुझसे कहा, ” कल तुम बच्चों के साथ जीजी से मिल आओ, कल तो छुट्टी है , मुझे कुछ जरूरी काम है, मैं नहीं जा पा रहा । बहुत दिन हो गए, उनका हाल समाचार जाने । ”
“अरे,अभी पिछले महीने ही तो जीजी आई थीं !”

हाँ तो एक महीना होने को आया ना !

जाकर आ जाओ, सुबह जल्दी निकल जाना , वापस आने में रात ना हो जाए ।

यानि मुझ दिनभर वहीं रहना है ।
समझ नहीं पाई ,पहले तो कभी इसतरह नहीं कहा।

खैर मैंने भी जिद्द नहीं की ।
सुबह उठकर शंकर के साथ मिलकर जाने की तैयारी शुरू की । नीरज भी आ गए हाथ बँटाने ,,,दस बजे के पहले निकल जाना , बहुत भीड हो जाती , रिक्शा भी नहीं मिलता ,,, वो कहते जा रहे थे ।
अब मुझे लगा जरूर दाल में काला है । छोटे बच्चों के साथ थोडा वक्त तो लग ही जाते है और मैंने जानबूझकर भी थोडा धीरे-धीरे काम किया ।
खैर किसी तरह मैं बच्चों को लेकर ग्यारह बजे निकली । बाहर दस कदम पर रिक्शा मिल गया , जैसे ही रिक्शे पर बैठी , सामने से जेनिफर आती दिखी। मैंने पूछा अरे, जेनिफर कहाँ जा रही हो ? मुझे देखकर वो सकपका गई । भाभी आपसे ही मिलने आ रही थी , आप कहीं जा रही हो क्या ?
हाँ मैं तो जीजी के घर जा रही हूँ ।
“ठीक है भाभी ।”
इतना कहकर भी वो मुडी नहीं, उसके कदम आगे की ओर बढते चले गए।
तो ये था उनका जीजी प्रेम और जरूरी काम,,,मेरे होठों पर एक व्यंग्य भरी मुस्कान फैली,
मन हुआ रिक्शा धुमा लूँ ।
फिर पता नहीं क्यूँ , मैंने सिर झटका और रिक्शेवाले से कहा ,चलो भैया आगे बढो।

शाम घर आई तो इन्तजार करती रही कि नीरज बताऐं कि जेनिफर आई थी घर पर ।

पर वो चुप रहे तो मैंने ही पूछ लिया ,” सुबह बाहर जेनिफर मिली थी, जाते समय।”
तब भी कुछ नीरज ने नहीं बताया कि वो घर आई थी, उसने मेरी बात को जैसे अनसुना कर दिया ।

एक दिन मेरे मन में आया, आज चाची के घर पर जाती हूँ, जेनिफर की माँ को मैं चाची कहती थी ।
दोपहर का समय था , बच्चे शंकर के साथ खेल रहे थे । धूप सिर पर चढ गई थी । मैने अपनी पुरानी हो गई चप्पल पहनी, एक बास्केट लिया और बाहर निकली।
जाडे का समय था, फिर भी धूप थोडी देर ही अच्छी लगी, चेहरा जलने लगा , सामने जेनिफर का घर था , ऊपर पहली मंजिल पर रहते थे । सीढियाँ चढी,
दरवाजा खुला ,तो सामने चाची खडी थी , मुझे देखकर सकपका गईं , “अरे इस समय तुम काव्या,” थोडा चिल्लाकर बोली । शायद अन्दर मेरे आने की सूचना पहुँचाना चाहती हो ।
मैं रूकी नहीं , अन्दर धुसती गई।
देखा तो सामने कमरे में जेनिफर और नीरज एक ही रजाई को पैर पर डाले बैठे थे । मुझे देखकर सकपका गए। मैने अनदेखा करते हुए कहा ,”चाची बहुत दिन हो गए थे, सौदा लेने निकली थी सोचा चाचा जी का हाल भी पूछ लूँ।”
“हाँ , हाँ ,बैठो ,बैठो बेटी , थोडी चाय बना दूँ , ठंड बहुत है, दिन में भी रजाई के बिना नहीं बैठा जाता । “-सफाई देते हुए कहा ।
“नहीं चाची, बाहर बहुत तेज धूप है, अभी चाय नहीं चाहिए, बस एक गिलास पानी दे दें।”

चाची पानी लाने गई तब तक नीरज भी बाहर आ गए।

“चाचा जी को दवाई देने आया था, चलो साथ में चलता हूँ । ”
पता नहीं बिना कुछ खाए भी मेरा स्वाद कडवा हो गया था, फिर भी फर्क प्रयत्न करते हुए मैंने प्यार से कहा –
“नही-नही, आप अपना काम करें , मैं चली जाऊँगी , अभी मुझे कुछ खरीदना भी है । ”
तबतक चाची पानी लेकर आ गई, मैने दो धूँट पानी पिया और उठ खडी हुई । चाची ने बात बनाते हुए कहा , “नीरज चाचाजी का बहुत ख्याल करता है , भगवान सबको ऐसा बेटा दे।”

मैं मन में व्यंग से मुस्कुराई , पर बिना कुछ बोले चुपचाप नीचे उतर गई ।

नीरज समझ चुके थे कि आज उनकी चोरी पकडी गई है ।
घर जल्दी आ गए तो चुपचाप खाना खा कर सोने चले।
मैंने कहा ,”आजकल क्लीनिक नहीं जा रहे क्या ?”

बस इतना सा कहा ही था कि वो बरस पडे ।

“तुम्हें मेरे ऊपर भरोसा नहीं । मैं तो वहाँ इन्सानियत के नाते जाता हूँ । चाचा जी बिस्तर पर हैं, कोई देखभाल करनेवाला नहीं , बेटा है नहीं ।”

मन में आया जबाब दूँ, चोर की दाढी में तिनका ,,, मैंने तो क्लीनिक के लिए पूछा था ,,,!

आज समझ में आया कि गाँव से आया अनाज पानी का आधा हिस्सा भी वहाँ क्यों भिजवा देते हैं। क्यों अब बच्चों के लिए भी वक्त नहीं । पैसों की भी किल्लत रहने लगी है।
गरीब और जरूरत मंदों की कमी तो नहीं मोहल्ले में । फिर हम कोई धन्नाराम सेठ भी तो नहीं।

वो बोलते रहे मैं सुनती रही चुपचाप ।
जानती हूँ बेकार में बच्चे और पास पड़ोस वाले परेशान होंगे ।
सुबह उठी तो नीरज का मुहँ फुला हुआ था। गुस्से से बोले ,”मैं आज से नहीं जाऊँगा वहाँ ।”

मैंने कुछ भी जबाब नहीं दिया । चुपचाप अपने काम में लगी रही । रात बर्तन भी नहीं धो पाई थी । पूरा घर बिखरा था, कहाँ से और कैसे समेटने , समझ नहीं आ रहा ,,।

थोडे दिनों तक नीरज घर पर ही रहे, पर वे दिन मेरे लिए सबसे बेकार दिन साबित हुए ,,, रोज-रोज कलह ,,, हर छोटी-छोटी बात पर गुस्सा ,,,।
मैंने समझ लिया कि इन्हें वहाँ गए बिना शान्ति नहीं मिलेगी।

इसी बीच एक दिन मेरे चाचा ससुर आए , मुझसे पूछा सब ठीक है ना ?
मैने कहा हाँ ठीक है । थोडी देर बैठे और चले गए । वो अक्सर घर आया करते थे हमारी कुशल क्षेम जानने।
मैंने उन्हें नीरज के लिए कुछ नहीं कहा ।
पर दो दिन बाद फिर आए ,” पूछा , बेटी सब ठीक है ना , कुछ तकलीफ तो नहीं ,,,
इतना जल्दी तो नहीं आते , आखिर क्या बात है ।

मैने कहा , “हाँ चाचा जी , सब ढीक है ,, आप ऐसा क्यूँ कह रहे हैं ,,, ।

नहीं बस ऐसे ही पूछ रहा हूँ ,नीरज क्लीनिक तो जाता है ना ?

हाँ , जाते है पर अभी थोडा काम कम है , इसलिए घर पर ही ज्यादा रहते हैं । तुम्हें तंग तो नही करता ना ? अगर कुछ कहे तो मुझे बताना , उसके कान खींच दूँगा ।”

चाचाजी का यह स्नेह,,,, मेरी आँखें भर आई , ,,,नहीं चाचाजी सब ढीक है ।
मैं उन्हें परेशान नही करना चाहती थी । पर मुझे नहीं पता था कि इनके दोस्तों ने चाचाजी को नीरज और जेनिफर के बारें में बता दिया था ।

रोज -रोज की कलह से तंग आकर मैंने ही नीरज से कह दिया ,एक दिन ,,, तुम जेनिफर के घर चले जाया करो ।
आखिर एक दिन चाचाजी आए ,,,उस दिन उन्होंने सीधे पूछा ,” सच क्या है मुझे बताओ,, मुझे सब पता है ,तुम्हारे मुँह से सुनना चाहता हूँ । मैंने बस इतना ही कहा , आप जानते है तो मैं अब क्या बोलूँ ।
मेरा इतना कहना ही काफी था । चाचा जी ने कहा ,”अब तुम यहाँ नही रहेगी , चल मेरे साथ।
बस , पीछे मुडकर नहीं देखना । ये लडका तेरे लायक है ही नहीं।”
उसे हीरे की कद्र नहीं।
उन्हें नीरज पर बहुत गुस्सा आ रहा था ,,, “पूरे परिवार की नाक कटा दी इसने ।”

पर मैंने धीरे से कहा ,” नहीं चाचाजी , मैं नहीं आ सकूँगी।”

चाचा जी हतप्रभ मेरी ओर देखते रहे । फिर प्यार से सिर पर हाथ रखकर कहा ,” खुश रही मेरी बच्ची । पर जब तक मैं हूँ, तुम अपने-आप को अकेला मत समझना। जब भी जरूरत हो कहला देना ।”

सच कहा था चाचाजी ने,, नीरज के परिवार में उनके पापा चाचा और सभी बहुत ही धार्मिक, सभ्य और उच्च विचारों वाले पुरूष थे, बहुत ही खानदानी घराना ,,,,पर नीरज,,,?

चाचाजी भारीपन लिए चले गए और मैं निठाल-सी गठरी बन कर वहीं पडे बिस्तर पर सिमट गई।
आँखों से अविरल बहती आँसू की धारा जैसे मेरी प्यास बुझाने को आतुर -सी,,, और मैं ,,,,उस खारे समुद्र में बिना हाथ-पाँव मारे जैसे डूब जाने को तैयार ,,,।
जो प्रवाहमान है ।

शांत नि:शब्द ।
निर्मल गंगा-सी ।
निशानी अंतर में
बहती गंगा -सी ।
भगीरथ का
इतिहास समेटे ।
जन्म-जन्मांतर का
लिबास लपेटे ।
उर के बीच
ये गतिमान है ।
मेरे अंदर एक नदी
जो प्रवाहमान है ।

जग की पीड़ा
प्रसव की पीड़ा ।
अपनों के दर्द
सहने की पीड़ा ।
दर्द उलाहने
अनगिनत जग के
पी कर उर में
पलते सपने ।
कुछ आँचल थामे ।
छाती में उतर कर
दुग्धमान है ।
मेरे अंदर एक नदी
जो प्रवाहमान है ।

सद्-असद्
विचार लिये
घायल हिय में
भी भाव लिये ।
प्यार-दुलार
अवसाद लिये।
कभी पलों से
चुराकर लाई ।
ख़ुशियों का
अहसास लिये
आँसू बनकर
इन आँखों से
ये निर्गतवान है ।
मेरे अंदर एक नदी
जो प्रवाहमान है ।
(डॉ मंजरी)

क्या करती , दोनों बच्चों को लेकर चाचाजी को इस उम्र में एक ओर जिम्मेदारी के बोझ तले दबाती ,,, नहीं ,,, ये सही नही था।
ये मेरा जीवन था जिसमें मुझे जनने वालों का ही कोई अधिकार नहीं रहा तो अब दूसरों के कंधे पर क्यों ये बोझ डालूँ , मेरी समस्या है,मुझे ही सुलझानी होगी ,,,जब इतना सीखा है तो ये भी सीख ही लूँगी ,,,,बस चिन्ता तो बच्चों की है। मेरे बच्चों का क्या ,,,

अब नीरज पैसों का रोना रोते लगे थे रोज ही । बडी मुश्किल से घर चल रहा था ।

माँ भी तो नहीं रही ,,,,मेरे हालातों ने उनकी कमर ही नहीं तोडी ,,, उनका जीवन भी इन चिन्ताओं में घुलकर खत्म हो गया । एकदिन चुपचाप उन्होंने विदाई ले ली ।

उसदिन जब घर गई , अपने छोटे भाई-बहनों से मिली तो लगा अनायास ही मैं बडी हो गई हूँ,,,
पिताजी का वो असहाय चेहरा आज भी आँखों के सामने घूम रहा था ,,
जब मुझे पुलिस उठाकर ले जा रही थी , तब पहली बार उनका ये असहाय चेहरा देखा था, दूसरी बार मेरी शादी के कागजों पर हस्ताक्षर करते समय और फिर उस समय ,,, जब माँ उन्हें छोडकर चली गई थी।

आँसू तो बहाना है ।
दिल के जख्मों पर, मरहम जो लगाना है ।

अश्कों को छुपाना है ।
दर्द की दरिया है, बस बहते जाना है ।

मैं अब उस लायक हो गई थी कि अकेलेपन का दर्द समझ सकूँ,,,।
माँ थी तो कभी-कभी आती तो बच्चों के लिए कुछ-ना-कुछ ले आतीं थी ,अब तो वो भी नहीं ।
उनकी गोदी में सिर रखकर थोडी देर सुकून मिल जाता था मुझे ,,,।
अब अंजू और पूजा भी अपने-अपने ससुराल चली गई हैं ,,,,खैर दुःख-सुख बाँटने के लिए मेरी डायरी हैं न ,,,एक लम्बी साँस ली । बिस्तर से ऊठी ,अंधेरा हो चला था, बच्चे शायद बगल के कमरे में खेलते-खेलते सो गए थे, शंकर भी जा चुका था ।
आँसू पोछे और काम में जुट गई।
————

मुसीबतों ने तो जैसे मेरा दामन जीवन भर के लिए पकडा था ना ,,,
हमारे मकान मालिक के घर में एक जवान लडकी थी, जो अक्सर घर में आ जाती थी, नीरज से भी बातें करती थी ,,, धीरे-धीरे मुझे खबर लगी कि उसका चरित्र सही नहीं, वो रोज ही किसी -न-किसी लडके के साथ घूमती है । मैंने सोचा ये अच्छी बात नही , उसका जीवन खराब हो जाएगा , मुझे भाभी कहती थी ,,,इसलिए एक दिन मैंने उसे समझाने की कोशिश की ,, पर ये क्या ,,पासा उल्टा पड गया ,,,उसने तो नीरज पर इल्जाम लगाते हुए महाघमासान छेड दिया ,,, मकान मालकिन ने हमें घर छोडने की ही धमकी नही दी , पुलिस में भी रपट लिखवाने की बात की ।
इनके एक दोस्त ने एक दिन देखा मेरी कविताओं के बिखरे पन्नों को ।तब कहा नीरज से ,भाभी अच्छा लिखती हैं, मेरे एक परिचित का प्रेस है ,अगर चाहो तो वहाँ काम मिल सकता है। मैं बहुत खुश हुई और ना जाने क्या सोचकर नीरज ने भी हाँ कर दी ।

नीरज आजकल घर पर ही ज्यादा रहते थे शायद क्लिनिक ठीक नही चल रहा था ।
मैने प्रेस जाना शुरू किया असिस्टेंट की नौकरी थी , अखबारों के बंडल बनाने थे , पर एक महीने में ही मेरी प्रतिभा से प्रभावित होकर मुझे पत्रकार बना दिया गया और बहुत शीध्र ही मैं एक सिटी कालम में क्राइम रिपोर्ट भी लिखने लगी जिसके कारण बहुत जल्दी मेरी पहचान राजनीतिज्ञों और पुलिस महकमों के लोगों से भी हो गई ।
लेकिन जब मकान मालिक ने वास्तव में हमारी रिपोर्ट लिखवा दी।

तब नीरज ने मुझसे कहा कि तुम्हारी तो बहुत जान-पहचान है अब तो तुम्हीं सम्भाल लो इस मामले को। पहली बार समझ में आया कि नीरज ने मुझे प्रेस की नौकरी क्यों करने दी
निश्चित ही पत्रकार के रूप में मेरी अच्छी धाक हो गई थी ।
मैं डरी नहीं । हमारी पेशी हुई , इन्हें बुलाया पर मैं गई ।
मैंने बडी हिम्मत से उस मकान मालिक की लडकी का सच सबके सामने रखा। मेरी बेबाकी पर सब चकित रह गए। पर वहाँ उपस्थित सभी मुझे अच्छी तरह जानते थे, उन्हें पता था कि मैं झूठ नहीं कह रही ।
खैर वहाँ तो मामला रहा दफा हुआ ,, पर अब उस घर में रहना मुहाल हो गया था ,, रोज मकान मालिक बात-बात पर कलह करने लगे थे।

———————

पैसों की तंगी,,,सस्ते में दूसरे मोहल्ले में घर ले लिया।
एकदिन बात-बात में नीरज को पता चल गया कि मैं किसी के भी हस्ताक्षर की हूबहू नकल कर सकती हूँ ।
अपने दोस्तों के सामने मेरी तारीफ करते हुए उसने कुछ खाली पेपर दिए और मुझसे किसी के हस्ताक्षर की नकल करके दिखाने के लिए कहा । मैंने करके दिखा दिया । यह सिलसिला अक्सर चलने लगा ।
इन दिनों नीरज थोडा ज्यादा पीने लगे थे और परेशान भी दिखते थे । पैसों की तंगी की शिकायत भी करते थे ।

उसपर मेरे पत्रकार के रूप में ख्याति,,,
नीरज को नहीं लगा था कि मैं कुछ ज्यादा कर पाऊँगी प्रेस में,,, पर, मेरे यश की गाथा ने नीरज के अहंकार पर चोट मारी और अब वो मुझसे बात-बेबात छोटी-छोटी बातों पर लडने लगा ।
शराब के नशे में चूर होकर अनाप-शनाप बकना उसकी आदत बन गई और मैं शाम होते ही बच्चों को लेकर दूसरे कमरे में चुपचाप बैठ जाती।
पत्र -पत्रिकाओं के लिए भी थोडा लिखने लगी थी। अभिनय का शौक बचपन से था, पर अब बात शौक की नहीं, जरूरत की थी ।

एक दिन किसी रिपोर्टिंग के सिलसिले में थाने गई थी, थानाध्यक्ष जानते थे मुझे,उन्होने बैठाया और कुछसवाल पूछे नीरज को लेकर। समझ नहीं पाई क्यों ?
मुझसे रहा नहीं गया पूछ ही लिया आखिर क्यों?
उन्होंने जो कुछ बताया वो मेरे लिए किसी सदमें से कम नहीं था । नीरज जैसे भी थे पर इतना बडा धोखा ,इतना बडा क्राइम ,,
आखिर क्यों,,,,सिर्फ पैसों के लिए ?
और मुझसे धोखा ,,मुझे भी फँसाने की कोशिश, अपने इस नापाक इरादे में,,।
उस आफिसर ने कहा वो आपके पति हैं, यह जानकर ही हमने अभी तक कोई एक्शन नहीं लिया है ।
मैं नीरज की करतूतों के लिए शर्म से पानी-पानी हो रही थी ।
उस दिन मैं घर पहुँची तो जैसे बहुत थक -सी गई थी । बच्चों के सूखे और सहमे चेहरों ने मुझे
कुछ नही कहने नहीं दिया ,,,,,हालाँकि बात तो बहुत जरूरी थी ,,,,

पर ये क्या दूसरे ही दिन सुबह-सुबह उनका एक दोस्त आया और फिर वही नाटक ,,,
पेपर पर साइन की नकल करके दिखाओ, थानाध्यक्ष की बात तुरन्त स्मरण हो आई,
पहली बार मैंने थोडा जोर से नीरज के सामने बोला था और उसकी बात से इन्कार करते हुए कहा ,” मैं नहीं करूँगी साइन ।”
नीरज और उसका वह दोस्त चकराया -” आज क्या हो गया है मुझे ?
नीरज के अहंकार को भी चोट लगी थी पर भरसक अपने गुस्से को दबाते हुए उसने प्यार से कहा,” क्यों क्या हुआ ,,,,करके दिखादो ना इसे ,,ये नया है मानता ही नहीं था कि तुम कर सकती हो ” ।
बस , अब मेरा पारा सातवें आसमान पर चढ गया-
“कहा मेरा मुँह मत खुलवाओ , अब मैं सच जान गई हूँ। ये धोखाधडी और जालसाजी मुझे नहीं करनी ।
फिर खुद को थोडा काबू करते हुए कहा मैंने’
“और तुम भी ये सब क्यूँ कर रहे हो , आखिर क्या परेशानी है ,,,”
गुस्से से आग बबूल होकर नीरज ने पेपर पेपर फाड दिए और कथित दोस्त को लेकर बाहर निकल गया । उन फटे हुए टुकडों को समेटा तो देखा नीचे में कार्बन पेपर लगा था, मेरे पैरों तले की जमीन खिसक गई ,,,,इसतरह चन्द सिक्कों के लिए खिलवाड लोगों के भविष्य से ,,,,।
सोचा तो सिहर उठती मैं ।
अगर उस पुलिस अफसर ने मेरा लिहाज नहीं किया होता तो ये होते जेल की सलाखों के पीछे ,,,और मेरे बच्चे ,,,,मन में एक अनजाना भयावह डर ,,,। कभी भी सोचा ही नहीं बस नीरज कहते और मैं किसी की लिखावट की नकल करके दिखाती तो उनकी संतुष्टि से मुझे लगता मेरी प्रशंसा चाहते हैं। अगले ही पल अपने काम में व्यस्त ,पर उनके दिमाग में तो कुछ और ही चल रहा है,,तब मुझे याद आया कि जब भी मैं कहीं कुछ अधिक व्यस्त रहती तभी नीरज आकर पेपर रखकर कहते और मैं तो सपने में भी नही सोच सकती थी ना ये सब ,,,।
अब मुझे नीरज से भी सतर्क रहना होगा । कितना अजीब है ना ये जीवन ,,आपका जीवनसाथी और उससे भी सतर्क रहना ,,,पर जीवन तो जीना ही था नहीं ,,और मेरे दो बच्चों का पिता था वो ,,मैं बच्चों के ऊपर से पिता की छतरी हटाना भी तो नहीं चाहती ।
खैर ,अभी ज्यादा सोचने का वक्त नहीं । लगा अब तो वो ये नहीं कर पाएगा ।
मुझे एक क्राइम की रिपोर्ट तैयार करनी थी , बच्चों को स्कूल भेजकर मैं भी आफिस चली गई ।
———

पर बात तो खत्म नही हुई थी , पुरूष का अहंकार ना सुनने का आदि नही होता ,,,शाम घर लौटी तो बच्चे सहमे से एक कोने में दुबके थे। नीरज एक ओर बैठा शराब के नशे में धुत कुछ बडबडा रहा था , कितनी बार उसे समझाया था , बच्चों के सामने ये हरकतें ठीक नहीं ,,,, पर उसे मेरी बात समझ ही कब आई ,,,,।
मुझे देखते ही बच्चे मुझसे लिपट गए,,,मैं बच्चों के लेकर बाहर के कमरे में चली गई, उन्हें कुछ बनाकर खिलाया, पढाया और सुलाकर सोने की कोशिश करने लगी ,, तभी अचानक किन्हीं दो मजबूत हाथों ने मेरा हाथ पकडा और धक्का देते हुए मुझे घर के बाहर धकेल दिया । तब देखा नीरज का नशे में धुत तमतमाते हुआ चेहरा ,,,

मैं हतप्रभ-सी उसे देखती रह गई,,, आधी नींद में बच्चे ,,,, कहीं उनकी नींद ना टूट जाए ,,सोचकर चुपचाप बस बाहर खडी कुछ कह पाती, उसके पहले ही ” तुम्हारे लिए अब इस घर में जगह नहीं ,” कहकर दरवाजा बन्द कर लिया ,,,,

सवाल खडा करता है!

जुबां के कोडों से छलनी,
दिल की सिसकती बरनी ।
मान-अपमान की ओट,
अपने अस्तित्व पर चोट।
ना अब सहा जाता है।
प्रहार-सा पडता है , सवाल खडा करता है।

गुलामी का धीमा जहर ,
कहीं तिल-तिल मरने पर ।
पर, जीते चले जाने पर,
फिर प्रश्नचिन्ह-सा तनकर।
ना निदान कर पाता है।
प्रहार-सा पडता है , सवाल खडा करता है।

तन्हाईयों का ये प्याला ,
कहीं धौंस का निवाला।
शर्मिंदगी की दो पाँति,
कडवी दवा की भाँति।
ना अब पिया जाता है।
प्रहार-सा पडता है , सवाल खडा करता है।

दर्शनशास्त्र को जाने तो ,
कर्मों का लेखा-जोखा।
‘इन्दु’ दिल की माने तो,
स्त्री जन्म ना लगे चोखा।
ना रोष मिटा पाता है।
बबाल खडा करता है , सवाल खडा करता है।
(डॉ इन्दु)

जाडे की ठिठुरती , सूई-सी चुभती हवाओं वाली रात और सुनसान गली ,कंपकंपाती मैं, धीरे-धीरे रात गहराती गई ,, शायद रात के बारह बज गए थे ,,,क्या करूँ, कहाँ जाऊँ , कुछ समझ नही आ रहा ,, घर के साथ-साथ दिमाग के भी दरवाजे बन्द हो गए थे शायद कुछ समय के लिए ,,,।
तभी एक जानी-पहचानी आवाज ,,,मेरे पास स्कूटर पर एक 21 का युवक ,, लैंप पोस्ट की रोशनी में अपनी भरी आँखों से पहचानने की कोशिश की तभी वो बोला- “अरे मैडम आप , इतनी रात , इस तरह सडक पर ,, क्या बात है ?”

अरे,सुधीर ,, ये तो मेरे साथ प्रेस में काम करता है , मुझे बडी बहन का सम्मान देता है ,,, पता नहीं कैसे, अपने को सम्भालने की कोशिश करते हुए भी मैं फफक पडी ,,, वो हैरान ,,परेशान ,,, एक बेबाक ,साहसी क्राइम रिपोर्टर ,,,आज इस स्थिति में ,,,। बिना बोले ही वह जैसे सब समझ गया ।
नया खून उसका उबल पडा ,” चलिए मैडम ,पहले पुलिस मे रिपोर्ट लिखवाते हैं , फिर मेरे घर चलें ।
अचानक सजग हुआ मेरा मस्तिष्क, “नही, रिपोर्ट नही लिखवाना है सुधीर। इतनी रात तुम्हारे घर जाना भी उचित नही।”
“फिर ,,,?”
“आपको इसतरह छोडकर नहीं जा सकता मैं ।”
“ठीक है मेरी बडी ननद का घर है दूसरे मोहल्ले में , तुम मुझे वहाँ छोड दोगे।”

उसकी बाइक पर बडे ही संकोच के साथ बैठी करीब 45 मिनट में पहुँची ननद के दरवाजे पर। रात के एक बजे , किसी के घर की धंटी बजाना ,,,पर मजबूरी थी ,, दरवाजे पर आधी नींद में उँधते से मेरे नन्दोई,,,, , मुझे देखकर बिल्कुल चौंक उठे , जैसे बिजली का करंट लग गया हो , नींद काफूर , धबराकर पूछा , बहुरानी सब ठीक तो है ना,? मैं जबाब देने के लिए मुहँ खोलती ,तभी पीछे से सुधा जीजी ने आधी नींद में ही पूछा ,”अजी इतनी रात ठंड में भला कौन आया है?

पता नहीं मुझे क्या हुआ, मैं फफक कर रो पडी,,,मुझपर नजर पडते ही जीती बिल्कुल धबरा उठी, अरे छोटी बहु, क्या हुआ, नीरज और बच्चे कहाँ हैं , सब ठीक तो है ना ?
ठंड से काँपती मैं बस रोए जा रही थी , तब सुधीर ने आगे बढकर उन्हें सांत्वना देते हुए कहा , इनके पति और बच्चे ठीक हैं, इनके पति ने इन्हें घर से निकाल दिया है, इतनी रात अकेली सडक पर रो रही थी, आपके पास आना चाहती थी अतः लेकर आया हूँ ।

अपने छोटे भाई से भलीभाँति परिचित जीजी ने मुझे बाहों में भरकर गले से लगाया और घर के अन्दर ले गई ।
रातभर मरे सिरहाने बैठी मुझे सहलाती रही ।
——————

आज भी सोचती हूँ तो लगता है, मेरे ससुराल वाले देवता थे । मेरी सास और ननद मुझे सगी बेटी की तरह प्यार और दुलार करते थे । एक बात बहुत अच्छी थी कि मुझे ससुराल बहुत प्यारा मिला था । अपनी सास और ननद के स्नेह को भी आजीवन नहीं भूल सकती।
आज भी याद आता है , शादी के कुछ दिनों बाद मेरी सास – ससुर और चार ससुर का मुझसे मिलने आना ।
वे सभी जानते थे कि मेरी शादी किन हालातों में हुई ।इसीलिए शायद मुझे परखने आए थे।
बहुत ही विद्वान और उच्च विचारों वाले धर्मात्मा पुरूष थे वे सभी । सास इतनी सरल हृदय की क्या कहूँ । नीरज को भले ही मैंने तब तक माफ नहीं किया था, किन्तु मैं जानती थी इसमें इन सभी का कोई दोष नहीं । फिर मेरे माता-पिता के संस्कार भी तो थे मेरे साथ ।
अचानक घर में आए मेहमानों को देखकर एक बार तो धबरा गई , अभी साल भी तो पूरे नहीं हुए थे, कुछ ज्यादा जानती तो नहीं थी, किन्तु सिर पर दुपट्टा रखकर सभी के पैर छुए। परम्परानुसार सास के पैर भी धोए और आशीर्वाद भी पाया ।
निर्मल हृदय सासु माँ ने कहा ,” बहुत ही प्यारी बच्ची है। मेरा सिक्का ही खोटा है बहूरानी, पर तुम चिन्ता मत करो , हम सब तुम्हारे साथ हैं ।”
चाचाजी जो कि मठ के बडे पदाधिकारी भी रहे, कहा , ” ये तो नीरज का सौभाग्य है कि इतनी नेक और सुशील कन्या मिली है उसे । ”

शादी के बाद के इन लोगों के ये स्नेह और विश्वास भरे शब्दों ने जैसे मेरे धावों पर मलहम का कार्य किया । मुझे पहली बार लगा कि मैं अनाथ नही हूँ ।
सासु माँ तो गाँव से आई थी, अतः जल्दी ही वापस भी चली गई, पर चाचाजी तो उसी शहर में थे , जो आते रहते थे मेरा हालचाल जानने ।
सभी परिचित थे अपने बेटे से । मेरा भोलापन और नेकनीयत उन्हें समझ आती थी, इसलिए ज्यादा ख्याल रखते थे ।

थोडे दिनों बाद ही तो फिर सास ने मुझे गाँव भी बुलाया, नीरज के साथ गई ।
वे कुछ दिन मेरी जिन्दगी के अविस्मरणीय दिन हैं ।

बहुत छोटा-सा गाँव था । बडा-सा घर ,,परम्परागत ,,, पर बाथरूम नदारद ,,,।
सासु माँ ने सोचा , शहर की पढी-लिखी लडकी है, खेतों पर कैसे जा पाएगी। आनन-फानन में घर के पिछवाड़े एक बाथरूम बनवा दिया । जेठानी को थोडी चिढ तो हुई, मेरे लिए कभी नहीं सोचा सासु माँ ने ,,,पर वे स्वभाव की बुरी नहीं थी । जेठ भी बहुत सीधे थे ,, बस देवर ,,,, ज्यादा ही तेज था ,,और चरित्र हीन भी ,,,आज कह सकती हूँ ,,,अपने बडे भाई की तरह ही ।

हालांकि तब तक इनकी चरित्रहीनता के बारें में नहीं जानती थी मैं ।

खैर, मुझे कोई परेशानी नही हुई , उसने पहली बार ही जब बात-बात में कमरे की कुण्डी चढाई तो मैंने पूछा ,
“आपने कुंडी क्यों लगाई ,”

“आपसे कुछ बात करनी है। ”
औरत बहुत जल्दी ही पुरूषों के भाव समझ जाती है ,शायद ईश्वर से उसे यह जन्मजात गुण प्राप्त होता है ।

मैंने चिल्लाकर कहा –
“बात तो दरवाजा खोलकर भी की जा सकती है। ”

मेरे इस रूख के लिए वो शायद तैयार नहीं था,, बस घबराकर वो चुपचाप बाहर चला गया और फिर उसने ऐसी कोशिश कभी नहीं की । पर उसका अहंकार आहत हुआ था और वो चिढाने लगा था,मेरी सच्चरित्र से,,,,,ये तो मुझे बहुत बाद में पता चला ।

जो भी हो, उस समय तो मुझे इस बाद का इल्म भी नहीं था, छोटा है समझकर भूल गई मैं ।
ससुराल का वो सफर मेरे लिए बहुत ही प्यारी यादों में लिपटा हैं, जिसकी खुशबू आज भी अन्तर्मन को भिगो देती है ।
मेरी सासु माँ का एक नन्हें बच्चे की तरह मुझे दुलारना , मेरी हर छोटी -मोटी सुविधाओं का ख्याल रखना ,,, इतना ही नहीं, मेरे बचकानी ख्वाहिशों को भी पूरा करना ।
वो किस्सा याद करती हूँ, तो उनके प्रति मन श्रद्धा से भर जाता है और अपनी उन हरकतों पर हँसी भी आती है ,,,।
गाँव मुझे बचपन से ही बहुत पसन्द आते थे, फिर नया गाँव, पहलीबार आई थी यहाँ,, धूमने का मन किया।
शाम होने वाली थी, सासु माँ से कहा,” मुझे खेत पर जाना है,” वो चकराई ,,, “अरे बहू, शाम हो गई है, फिर पिछवाड़े जाकर आ जाओ । ”
मैंने कहा नहीं , “मुझे बाहर जाना है ।”
आखिर इसे मेरी जिद्द मानकर वो मुझे लेकर चली । मुझे परदा करना नही आता था , गाँव के बडे-बूढें देख ना लें , यह भी सोच रही थी वो ,,, पर मैं इन सब से बेखबर मौज में खेतों पर पहुँची ,, बहुत ही मनोरम दृश्य था , धानी चुनरिया ओढे पृथ्वी का श्रृंगार देखते ही बनता था , सरसों के फूल जैसे बूटे टँके हो उसपर।
एक ओर कलकल करता नदिया का पानी,,,,।

धूमते-धूमते थकान महसूस होने लगी, तो लगा सासू माँ बीच-बीच में कुछ कहने की कोशिश करती रहीं और मैं अपनी धुन में बेखबर ,,। तभी एक खलिहान में लम्बी-सी खाट बिछी देखी और धम से मैं बच्चों की तरह कूदकर उस खाट पर चढ गई । सासू- माँ का हाथ पकडकर उन्हें भी बैठा लिया और उनकी गोद में सिर रखकर लेट गई, उन्होंने आश्चर्य से कहा ,” तुम्हें तो खेत पर जाना था ना?
हाँ , खेत पर ही तो हैं हम ।
वो चकराई ,,, पर मैं नासमझ,,,,,
सुरमई आकाश और रूई से तैरते बादल,,,, पंक्षियों का झुंड कतारों से सजा अपने ठिकानों पर लौट रहा था ,,,सासु माँ ने फिर कहा ,”तुम्हें बाहर जाना था ना ,,”,
“हाँ, बाहर तो घूम लिया ना माँ ,, बहुत मजा आया ,, गाँव कितने सुन्दर होते हैं न माँ ,,बहुत अच्छा लग रहा है ।”
“अच्छा माँ अब घर वापस चलें । ”
उन्होंने असमंजस में सिर हिलाया और मैं उठ खडी हुई , उनकी चौकस निगाहें चारों ओर घूमी , कोई देख तो नही रहा , नवकी कमनिया इसतरह रास्ते में बिना परदे के खुले आम खाट पर लेटी ,,,।
कोई नही दिखा तो चैन की साँस लेते हुए वे मेरे साथ घर आ गई।
‘तब बाहर जाना’ या ‘खेत पर जाना’ इन मुहावरों के अर्थ मुझे नहीं पता थे ,,,पर आज सोचती हूँ, तो उनकी धबराहट और अपनी नादानियों पर हँसी आती है और थोडा गुस्सा भी , उन्हें जाने -अन्जाने तंग करने पर । पर उनका मातृत्व प्रेम मेरे लिए कभी कम नही हुआ ।बाद में भी वे अक्सर अनाज और फलों के साथ मेरी पसन्द के पकवान भी साथ मिलने पर शहर भेजती रहती थीं। जब तक वो स्वस्थ रहीं ।

यह और बात है कि मेरे बच्चे होने के बाद उनसे अधिक सम्पर्क नहीं रह पाया । वे बूढे हो गए थे और हम शहर की परेशानियों में फँसे ,,। नीरज के व्यवहार और जीवन शैली में मुझे मेरे बच्चों का भविष्य अंधकारमय नजर आने लगा था ।
—–
उसदिन एक छोटी -सी बात पर उसने मुझे धक्का देकर घर से निकाल दिया था। जबकि दोष की तो बात ही नहीं ,,,इतनी बडी जालसाजी वो कर रहे थे, पता नहीं कब से ,अब मुझे भी इस दलदल में समेटना चाहते थे मैंने इन्कार कर दिया और मैंने तो उन्हें गलत रास्ते पर जाने से रोकने का ही प्रयास किया था ना ?
नहीं तो वो जेल में पडे होते ।
और मुझे ही सजा देते हुए घर से निकाल दिया। मनुष्य का अहंकार नशे में उसकी विवेक बुद्धि को पूरी तरह नष्ट कर देता है, उसे और भी दानव बना देता है। यह बात मुझे उस रात भली- भाँति समझ में आई।
जीजी और जीजाजी रात भर नहीं सोए। मैं तो जैसे सुन्न हो गई थी रोते-रोते ,,,शायद दिमाग ने काम करना बन्द कर दिया था, दिल तो बहुत पहले से ही खामोश हो गया था।

रोते-रोते ही कब आँख लगी, पता नहीं चला ।
सुबह सूजी हुई आँखें अपनी ही ,, दर्पण में खुद का चेहरा ,,देखा तो जैसे एक विद्रूप-सी मुस्कान होठों पर ,,, वो हँसी थी या अपने भाग्य पर करारा प्रहार ,,,पता नहीं । पर अब दिमाग और दिल दोनों ही थोडे सजग हो गए थे।
वो दिल , जिसमें मातृत्व का अमृत भरा था, बच्चों की याद से बेचैन हो गया । पता नहीं उन्होंने रात कैसे गुजारी होगी । सुबह उन्हें खाना मिला या नहीं । मेरे लिए वे बेहद परेशान हुए होंगे ।
आखिर उनकी उम्र भी कितनी है ,,, सोचते-सोचते कलेजा मुँह को आने लगा, मेरे लिए मेरे बच्चे ही तो जीने का सहारा थे,और उनका सहारा मैं,,नीरजा सुबह उठते ही सबसे पहले माँ पुकारती है, उसे जल्दी भूख भी लग जाती है , मैं उसके लिए कुछ-न-कुछ रात को बनाकर रखती हूँ।
पिंकू तो बहुत ही चंचल है, नीरजा रहेगी तो वो उसे चिढाएगा, मैं होती तो उसे डाँट देती, पर नीरज को तो बच्चों से कोई मतलब ही नहीं रहा अब, फिर उसे बच्चों को डाँटा -समझाना भी नहीं आता। अभी तो उसका नशा भी नहीं उतरा होगा , फिर पिंकू को भी तो भूख लग जाएगी ,,क्या करूँ, नीरज जल्दी उठते भी नहीं ,बच्चों को स्कूल भी भेजना था ,,,,,,मेरे नन्हें मुन्नें,,, बस वही तो थे, जिनकी मुस्कान के लिए जी रही थी मैं,,,, आज वही मुझसे दूर हैं, नहीं- नहीं , मैं अपनों बच्चों के बिना नहीं रह पाऊँगी,,, फिर से झरने लगे आँसू,, पर आज ये मेरे बच्चों के लिए थे ,,,।

जीजी परेशान हो गई, दोपहर हो गई थी, उन्हें लगा था कि नीरज की कोई खबर आएगी , वो ढूँढ़ना आएगा इसे, फोन की हर धंटी पर उनके कान सजग हो उठते और मेरे भी। पर नहीं,, उनकी कोई खबर तक नहीं।
मैं कहाँ हूँ, कैसी हूँ ,,, । मेरी कोई बात नहीं,,, पर बात तो थी ,,मेरे बच्चों की बात थी, वो थे उनके पास, मेरे बिना व्याकुल ,,,रात सोच तो मेरे साथ ही थे पर सुबह माँ कहाँ चली गई?;मैं उन्हें बिना बताए कहीं नहीं जाती थी , भले ही वो समझे या नहीं समझे । आज पहली बार उन्हें यूँ छोडा है मैंने , पर मैंने थोडे ही छोडा था ,,,,,,।पर क्या करूँ ,,,।

हाँ, विनय भैया को फोन करती हूँ , कुछ-न-कुछ किया जा सकेगा ।

विनय इनका दोस्त था, अच्छा और करीबी दोस्त । यूँ तो नीरज के ढेर सारे दोस्त थे जो अक्सर घर आया जाया करते थे, सभी अलग-अलग स्वभाव के थे, कुछ राजनीतिक भाषा में दादागिरी और भैयागिरी ही ज्यादा करते थे, बनारस विश्व विद्यालय के छात्र संध के कुछ, कुछ बस पीने- खाने वाले ।
पर एक बात जो सबसे ज्यादातर आम थी वो ये कि सभी मुझे समझने लगे थे, नीरज को तो जानते ही थे । किसी ने मुझे बहन बना लिया था और किसी ने भाभी का सम्मान दिया । मेरे लिए वे नीरज से भी लड लिया करते थे ।
उन्हीं में एक था विनय जो मुझसे उम्र में छोटा था , बहुत दबंग पर मुझे दीदी कहता ही नहीं, दीदी का सम्मान भी देता था और उसके पिताजी भी मुझे अपनी बडी बहू ही मानते थे । नीरज भी इस परिवार के बहुत निकट थे ।

मेरे ननदोई अपने साले की करतूत से बेहद खफा थे, अतः उन्होंने कहा “आने दो नालायक को , जबतक तुमसे माफी नही मांगेगा, तब तक नहीं भेजूँगा ।”

मैं जानती थी उनका अहंकार और उनकी जिद्द, वो नहीं आएगें ।
पर मुझे जाना था अपने बच्चों की खातिर ।
शाम होने को आई , मेरे हलक से एक निवाला भी नहीं निगला गया। मेरे बच्चे भूखे या नहीं ,,जाने बिना एक माँ के गले से एक निवाला क्या पानी का धूँट भी नही लिया जा सकता ।
विनय को फोन किया और कहा, “भैया आप यहाँ जीजी के घर पर आओ , जरूरी काम है।”

थोडी देर में ही विनय घर पर आ गया और साथ में उसके पिता जी भी आए।
मैंने जालसाजी की बात किसी से नहीं बताई।
सारी बातें जानने के बाद उन्होंने कहा ,”कहा बहू मेरे घर चलो, देखते हैं क्या करना है।”

मेरे पास पहनने के लिए दूसरे कपडें भी नही थे। सुबह जीजी का कपडा चोगा की तरह पहना, जीजी मुझसे थोडी मोटी थी । शाम तक मेरे कपडे भी सूख गए थे, वापस उन्हें पहन कर उनके साथ विनय के घर चली गई। विनय का घर मेरे घर के पास ही था ।
बाबुजी ने कहा, “बेटा उसे बुलाकर डाँट लगाता हूँ फिर भेजूंगा तुम्हें उसके पास ।”

मैं अपने बच्चों के लिए तडप रही थी । बस दो बूँद आँसू ही गिरा पाई ।

विनय मेरे घर गया । जल्दी ही वापस आ गया बदहवास -सा । कहा उसने ” वहाँ तो ताला जडा है, घर ही खाली कर दिया।”
मैं धबरा गई ,, “भैया मुझे लेकर चलो अभी वहाँ ,,।”
घर के दरवाजे पर लटका था बडा-सा ताला।
तभी वहाँ से गोवर्धन बाबू गुजरें, वो हमारे मोहल्ले के दबंग व्यक्तियों में से एक थे, मेरे पिता का बहुत सम्मान करते थे। मेरी हालत देखकर चौंक उठे , “अरे काव्या बेटी, तुम यहाँ इस हालत में ?”
हमदर्दी का मलहम रुके आँसूओं की बाड को तोडकर बह निकलता है , मैं फफक पडी-” कहा चाचाजी मेरे बच्चे ? ”
“अरे, क्या हुआ बच्चों को ? सुबह ही तो नीरज मुझसे फार्म हाउस की चाभी लेकर गया है बोला कुछ काम है , थोडे दिन तुम सबके साथ वहाँ रहना चाहता है। ”

तब विनय ने उन्हें सारी बात बताई, सुनकर आग बबूला हो उठे,” मैने तो तुम्हारे कारण ही उस नालायक को चाभी दी थी। इतना नीच है वो और मुझे चकमा देता है!”
” चलो मेरे साथ, आज उसकी अच्छी खबर लूँगा । पर अब रात हो चुकी है । फार्म हाउस शहर से बहुत दूर है बेटी । हम कल सुबह चलेंगें ।”

वो रात मेरे जीवन की दर्दभरी रातों से भी कहीं लम्बी और काली थी।अपने अबोध बच्चों से दूर पहली बार ,,।
पूरी रात बस रोते हुए ,मुझे ढूँढते , माँ, माँ पुकारते मेरे बच्चे, मेरी आँखों के सामने घूमते रहे, और मैं एक पल के लिए भी पलक नहीं झपक सकी । दोपहर जीजी ने एक पराठा जबर्दस्ती मेरे मुँह में ठूँसने की कोशिश की थी बस ।
रात विनय और बाबुजी ने बहुत जिद्द की ,पर एक कौर भी मुहँ में नहीं रख सकी , बस यही लगता रहा कि पता नही ,बच्चों ने कुछ खाया होगा या नहीं ,,,।

खैर सुबह हो गई। गोवर्धन चाचा जी भी शायद मेरे इस दर्द को समझ रहे थे। पौ फटते ही बाहर आकर आवाज लगाई , “बिटिया चलो मेरे साथ ।” मैं तो जैसे तैयार ही बैठी थी, अपने बच्चों को देखने के लिए व्याकुल, बेचैन ,उतावली ,,,। विनय और उसके पिता जी भी साथ गए।
करीब एक धण्टे का सफर , फार्म पर पहुँचे तो बच्चे एक कोने में चुपचाप गुमसुम से ,,जैसे ही मुझे देखा,,दौड़कर मेरी ओर दौडे और ऐसे लिपटे जैसे बरसों बाद मिले हो, आखिर पहली बार वो दो दिन मुझसे दूर रहे थे । मैने उन्हें कभी अकेला नहीं छोडा था । हमतीनों ही फूट-फूटकर रो रहे थे।
विनय, बाबूजी और चाचा जी , सभी की आँखे भी बहने लगी । नीरज उस समय घर में नहीं थे । थोडी देर में नीरज आए , हम सभी को देखकर सकपका गए । चाचाजी ने उसे पकडा और जोर की डाँट लगाई , गुस्से से वे आगबबूला थे ,” मुझसे झूठ बोला और मेरी बेटी के साथ ये सलूक ,, तुम्हें कभी माफ नहीं करता, अगर तुम काव्या बेटी के पति नही होते ।” विनय के बाबुजी ने भी उसे बहुत डाँटा ।

उसने अपनी गलती स्वीकार की , विनय भैया ने फिर उससे अलग से बात की, समझाया । फिर मैंने सभी के लिए नाश्ता बनाया । बच्चे भी शायद तीन दिनों बाद पहली बार ठीक से खा रहे थे , देखकर फिर से एकबार आँखें नम हो गई सबकी , तब सोचा मैंने, मैं अपने बच्चों को कभी भी छोडकर नहीं जाऊँगी।
नीरज से अब और भी विरक्ति-सी हो गई थी। शहर का घर छोडकर इस फार्म हाउस के घर पर आना , मुझसे दूर जाना था या कोई और कारण ,, पता नही। पूछने का मन भी नही किया । करीब एक महीने से ज्यादा हो चला था। बच्चों की पढाई भी छूट गई थी शहर से बाहर आने के कारण । थोडे दिनों बाद बस मैंने इतना ही कहा -” बच्चों को स्कूल भेजना है, अतः शहर में ही घर लेना होगा ।”
————
सोच रही थी, आखिर इतनी तंगी कैसे आ गई।
नीरज डाक्टर थे , अच्छा चलता था ,,पर धीरे -धीरे गलत आदतों ने इन्हे यहाँ तक पहुँचा दिया है ,,क्लीनिक भी बन्द होगा , इतनी दूर रहने के कारण , बच्चों को स्कूल भी भेजना है ,, आखिर इस तरह कब तक चलेगा ।
अब मुझे ही कुछ न कुछ करना होगा ।नीरज का रत्तीभर भी भरोसा नहीं। अपने बच्चों के लिए तो जीना होगा।
बस यही सब सोचते- सोचते कितनी रातें बीती रही, पता नहीं चला।

रामनगर एक जगह जान पहचान के कारण छोटा -सा घर मिल गया। दो कमरा, एक चौका, छोटा-सा बरामदा मकान मालिक के घर से लगा हुआ ।

पुरूष जितना ऊपर से सख्त होता है मन से उतना ही कमजोर भी ,,, उसके चेहरे पर डर के भाव भी दिख रहे थे, शायद अपनी नाकामियों और गलतियों का भी अहसास हो रहा हो, ऐसा सोचकर मैंने विनम्रता से कहा,” हम कब तक इस जंगल में निर्वासित जीवन जीऐंगे। बच्चों के भविष्य की भी सोचना जरूरी है ।
कुछ देर चुप रहकर बडे ही कमजोर स्वर में बोला नीरज,” वहाँ पैसे कहाँ से आएँगे?
यहाँ किराया नहीं लगता ,मेरे पास कुछ नहीं। ”
अच्छा भला कमाता एक डॉक्टर आखिर किस चक्करों में पडकर ऐसी स्थिति में पहुँच गया है, समझ नहीं आ रहा था, पूछकर कोई फायदा नहीं, हाँ वापस झमेला ही होता । अतः मैंने इतना ही कहा, “कोई बात नहीं, दोनों मिलकर कुछ कर लेंगे ।”

1986 सोमवार की सुबह ,

शादी के सात साल बीत चुके थे।
नीरजा चार साल की और पिंकू तीन साल का ।
हम रामनगर के ही दूसरे मकान में चले आए जहाँ से बच्चों का स्कूल नजदीक था , किन्तु समस्या थी पैसों की कैसे कमाया जाए, नीरज ने शायद दवाखाना बन्द कर दिया था, उल्टे सीधे धन्धों से कमाना आसान नहीं था। जुए और शराब में सारे पैसे वैसे ही चुक जाते हैं। मुझसे कुछ बताते तो नहीं, बस इतना ही कहते रहे कि पैसे नहीं है । खाने जितना भी नहीं हो रहा था ऊपर से महीने का भाडा और बच्चों के दाखिले की रकम,,,,?

नीरज कुछ नहीं कर रहे थे, घर पर ही होते सारा दिन। वे दिन मेरे लिए बच्चों की भूख के लिए भी बहुत ही मानसिक तनाव से भरे थे । खाने के भी लाले पडने लगे थे। जिस काव्या ने कभी भी किसी के सामने हाथ नहीं फैलाया, आज अपने ही बच्चों की भूख से मजबूर होने लगी ,,,।
ऐसे कबतक चलेगा ,,,
पहले मेरी प्रेस की नौकरी अच्छी ही चल रही थी,नीरज ने एकदिन कहाप्रेस फिर से ज्वाइन कर लो ।मुझे आश्चर्य हुआ पर मैंने सोचा अच्छा ही है , क्यूँ न फिर से कोशिश करूँ । वहाँ गई तो मेरा बडे सम्मान के साथ स्वागत हुआ और मैं अब पूरी लगन से वहाँ काम करने लगी ।
चलो थोडे पैसे तो आने लगे, कम-से-कम गुजारा तो होने लगा। थोडी चैन की साँस ली मैंने।

पर घर पर रहते-रहते नीरज मानसिक रूप से कमजोर हो रहे थे, फिर अपनी आदतों से भी परेशान।
मेरी कमाई से घर चल रहा था, ये अहंकार भी कचोटने लगा।
किसी तरह काम चल रहा था, पर किराया ,,? मेरी नौकरी में इतना सब कुछ नही हो सकता था। किराए की रकम हर महीने बढती चली जा रही थी, मन मालिक मेरी स्थिति समझने लगा था, इसलिए कुछ नही कहता। अभी तीन चार महीने भी नहीं बीते थे उस घर में आए। नीरज को भी पैसे चाहिए थे, क्यों मैं नहीं जानती। पर मेरे पास तो बच्चों के लिए भी पूरे नही पडते थे, किराया देना तो दूर की बात,,,।
——————–

एक दिन जो घटा, उसकी कल्पना तो मैंने सपने में भी नहीं की थी, सच तो यह है कि मेरा जीवन ही मानो अनहोनी को धटित करने के लिए बना हो ।

शाम नीरज घर आए तो साथ में एक शेख था,जो पहले भी फार्म हाउस वाले घर पर एक बार आ चुका था।
मैंने चाय और नाश्ता तैयार किया और देने गई तो नीरज ने जो कहा वो सुनकर तो मेरा दिमाग ही भन्ना गया, आजतक सब कुछ सहती आ रही थी , पर ये,,,,, ये नही हो सकता , ये मैं नहीं कर पाऊँगी,,,।
पानी सिर के ऊपर आने लगा था ।
नीरज ने कहा ,” शेख साहब के सिर में दर्द है , थोडा दबा दो , इन्हें खुश करोगी तो हम मालामाल हो जाएँगे। ”
पहली बार मैं चिल्लाई ,” ये मुझसे कदापि नही होगा, पैसों के लिए तुम इतना गिर जाओगे, मैं सोच भी नहीं सकती, इससे तो बेहतर है तुम मेरा गला धोंट दो । पर ये तो मैं कभी भी नही कर सकती । ”

नीरज गुस्से से आग-बबूला हो उठे , नाश्ते की प्लेट फेंक दी मुझपर, उनके अहंकार को चोट लग गई थी ना ,,,?
और वो बेशरम शेख आग में धी डालते हुए कहता है ,” कैसी औरत है तुम्हारी , तुम्हारी बात नहीं सुनती , अरे, मैं तो तुमलोगों पर दया करने आया था, पर इसे तो तुम्हारी कद्र ही नहीं । ”
पहली बार मन में आया कि इस शेख का मुँह नोच लूँ ,,,।
मेरे दुर्गा रूप को देखकर वो डरकर भाग गया ,,,,पर मैं ,,मैं तो बर्फ ही हो गई जैसे ,,, बिल्कुल ठंडी और अचेतन ,,, निर्जीव ,,,। एक कोने में चुपचाप ,,,। उस रात शायद बच्चे भी भूखे ही सोए होंगे,,, नीरज तो शेख के पीछे-पीछे चला उसे मनाने या मुझसे नाराजगी जताने,, पता नही,,, पर पूरी रात वो नहीं लौटा ।
सुबह उठी तो मेरा पूरा बदन बुरी तरह तप रहा था ,,समझ गई यह सदमा इस शरीर के लिए भी भारी था , बुखार हो गया है ,,, बच्चों का ख्याल आया तो देखा, वे बेचारे चुपचाप सोए पडे हैं ,,।
ये कैसा जीवन दे रही हूँ मैं अपने बच्चों को ,,, ये कैसे संस्कार ,,, पिता रोज शाम शराब और जुए में बिताता है और फिर माँ के साथ लडाई -झगडा ,,,,।
पर जाऊँ कहाँ इन्हें लेकर ,,,, माँ के घर के दरवाजे तो उसी दिन बन्द हो गए थे जब नीरज ने अगवा करके मुझसे जबर्दस्ती शादी की था ,, वैसे भी वहाँ छोटे-भाई बहन है , सभी का जीवन बर्बाद नही हो दे सकती ।

पर क्या करूँ ,,, नीरज कुछ करने भी नहीं देता ,,, खुद भी कुछ ढंग का नहीं करता ,,,।
और आज तो उसने हद कर दी। मेरे मन में उनके प्रति रही-सही जो भी थोडी सहानुभूति थी , अब वो भी खत्म हो गई।

अपनी बेबसी पर आज रोना भी नही आ रहा ,,, शायद आँखें भी रोते-रोते ऊब चुकी थी । पूरा दिन बीत गया, नीरज नहीं आए ,,, मन भी नही किया किसी से पता लगाने का ।

पर रात दस बजे बच्चों के सोने के बाद किसी ने दस्तक दी तो देखा नशे में धुत नीरज थे ,,, अन्दर आकर चिल्लाने लगे ,,,” तुम्हें पता है कितना कर्जा ले चुका हूँ कहाँ से चुकेगा ,,,।”
मैं चुपचाप बच्चों के कमरे में चली गई और कमरा बन्द कर लिया ।

बदन के दर्द ने कुछ भी करने की इजाजत नहीं दी । प्रेस भी जाना था, पर आज कैसे जा पाऊँगी ,, सोचते हुए उठी, बडी मुश्किल से नाश्ता बनाया , बच्चों को तैयार करके स्कूल भेजा। नीरज सो रहे थे,,,।
क्या करूँ,, एक स्पिरिन की गोली पर्स से निकाली और खाकर किसी तरह आफिस चली गई। याद आया मुझे, बचपन में जब कोई कहता था सिर में दर्द है, तो जोर से ठहाके लगाकर हँसती थी , भला इतनी मजबूत खोपड़ी कैसे दुःख सकती है । और आज ,,,आज मेरे पर्स में पैसे हो ना हो, दर्द की गोली जरूरत होती है जो गाहे-बगाहे अक्सर खानी पड़ती है।

पर मकान मालिक भी आखिर कितने दिन सब्र करता। अब साल होने को आ रहा था, नीरज दिन प्रतिदिन और चिड़चिडे होते जा रहे थे। पुरूष का हर वक्त घर पर रहना उन्हें भी मानसिक रूप से कमजोर करता है और घर भी घर नहीं रह पाता , जहाँ बच्चे और स्त्री खुलकर साँसे ले सकें, और मानसिक रूप से अपने-आप को स्वतंत्र महसूस कर सकें,, अपने काम पर पूरी तरह ध्यान दे सकें।
उन्हें फिर से मेरा काम पर जाना अखरने लगा था।
आखिरकार रोज-रोज की कलह से तंग आकर मैंने फिर से प्रेस जाना बन्द कर दिया था।

कभी- कभी मकान मालिक को कुछ पैसे बचाकर दे देती थी , वो भी बन्द हो गया । तब एक दिन नीरज का मकान मालिक से झगडा हो गया, अब कोई चारा नही था घर छोडना था, पर किराए के पैसे कैसे चुकता हो,,,,? बडा सवाल था, हल उसके पास नहीं था,, मुझे ही ढूँढना था आखिर कैसे ,,,कहाँ से लाऊँ पैसे ? किससे मागूँ,,, वैसे भी अपने माता-पिता से भी कभी कुछ नहीं माँगा था मैंने ,,,किसी और से तो माँगने की बात सोच ही नहीं सकती थी ।

गहने के नाम पर कुछ भी तो नहीं था मेरे पास। शादी जिन हालातों में हुई, न ससुराल से कुछ मिला ना मायके से ।
अचानक उस अंगूठी की याद आई जो मेरे पिता की निशानी के रूप में थी मेरे पास । शादी के कुछ सालों बाद पिता जी मुझे कुछ गहने देना तो चाहते थे, पर पिताजी की रिटायर्मेंट और फिर मेरे छोटे भाई-बहनों की जिम्मेदारी, मैंने ही लेने से इन्कार कर दिया था, तब पिताजी की जिद्द पर मैंने वो अंगूठी रख ली थी ।
आज पहलीबार स्त्रीधन की अहमियत समझ में आई ।

उस अंगूठी से बहुत लगाव था, मेरे बाबूजी जी ने बडे ही प्यार और मनुहार से दी थी । पर बच्चों के लिए इसे अपने से दूर करना मजबूरी थी । कुछ पैसे आए , भाडा चुकता हुआ, और
हमने रामनगर छोडकर सन 1987 में यानि पूरे एक साल बाद वापस मदेसर में उस घर में आ गए , जो कि मेरे पिताजी के परिचित थे और मुझे अपनी बेटी की तरह मानते थे ।

दबंग थे , किसी की गलत बात नही सह सकते , पर किसी का बुरा होते न देख सकते थे , न कर सकते थे ।
घर में एक बूढ़ी माँ भी थी, दालान में बैठी बच्चों का दिल भी बहलाती और मेरी सब्जी भाजी भी सुधार देती ।दो प्यारी बेटियाँ थी ।

लेकिन पैसों की तंगी का तो कोई हल ही नहीं निकला था।
प्रेस का काम तो छोडना पडा था , वापस जाने की अब हिम्मत नही हो रही थी ,, , अब क्या करूँ ।
अचानक एक दिन मेरे पिता जी के एक दोस्त गिरधारी चाचा से मुलाकात हुई, उन्होंने कहा कि बच्चों की स्कूल बस यहाँ पास के स्टेंड से जाती है , जिसका हिसाब-किताब रखने के लिए किसी की जरूरत है, अगर तुम चाहो तो वो काम कर सकती हो । मरता क्या न करता, मैंने फौरन उनकी बात मान ली । अब थोडे पैसे आने लगे, बच्चों को दो वक्त का खाना किसी तरह जुटाने की कोशिश करती । पर आखिर इस तरह कितने दिन चलता। गिरधारी चाचा ने बिना फीस लिए बच्चों का एडमिशन भी अपनी स्कूल में करवाया दिया था,पर इसके अलावा भी तो कितने ख़र्चे होते हैं, किताबें और यूनिफार्म इत्यादि ।

मेरे पिताजी पोस्टमास्टर थे और हम पाँच बहन- भाई । तब उनकी परेशानी नही समझ पाई, पर अब समझ में आया जब दो बच्चों का खर्चा भी पहाड की तरह लगने लगा था । खुद तो आधा पेट खाकर सो जाती, पर बच्चों को कैसे भूखा रखती । किसी तरह एक साल बीत गया,,,। बेटी पाँच साल की हो गई थी और बेटा चार साल का । दोनों ही बहुत कमजोर थे। जहाँ खाने के ही लाले हो, वहाँ पौष्टिकता की बातें कितनी बेकार-सी लगती है ।

(भाग 4)

1988

आज याद आया , मुझे पनीर की भाजी बहुत पसन्द थी, इसलिए पापा कभी-कभार बाजार से पनीर खरीद लाते थे , उस दिन हमारे घर में मानो भोज होता था। हम सभी भाई बहन बडे शौक से खाना खाते।
एक बार महीने का अन्तिम दिन था मैने जिद्द की , मुझे आज पनीर की सब्जी ही खानी है, उस महीने भाई के इलाज में पैसे ज्यादा लग गए थे। अतः पापा पनीर नहीं ला पाए थे।
मेरी जिद्द पर पापा पनीर लेकर तो आ गए, पर माँ ने बहुत गुस्सा किया था,, तब तो मम्मी पर मुझे बडा क्रोध आया था , लगा सिर्फ पापा ही मुझे प्यार करते हैं।
पर आज समझ पाई हूँ जरूर पापा ने अपनी दवाई में कटौती की होगी मेरे लिए, तभी माँ लडी होगी । अपनी उस नादानी पर आज रोना आता है मुझे।

जो उम्र खिलौनों से खेलने की है, उस उम्र में मैं अपने बच्चों को ढंग से खाना भी नही दे पा रही,फल -दूध, खिलौने और अच्छे कपडें तो दूर की बात है।

सोचते-सोचते मन बहुत दुःखी हो गया, उसी समय नीरज घर में धुसे । मैंने कहा ” इसतरह कैसे चलेगा, न आप कुछ करते हैं न मुझे कुछ करने देते हैं, मैं तो दो-चार दिन भूखी रह लूँगी , लेकिन बच्चों का क्या होगा ।”

पता नहीं नीरज को क्या हुआ, आग-बबूला हो गए, जोर-जोर से चीखने लगे,
” तुम्हें घर में मन नही लगता, बस बाहर मौज करनी है, नौकरी का बहाना ढूँढती रहती हो, नहीं है मेरे पास पैसे तो मैं क्या करूँ। अगर उस दिन शेख को खुश कर दिया होता तो आज ये दिन नहीं देखना पडता । सती सावित्री बनकर क्या हासिल होगा , ऐसी कोई रूप की परी भी नहीं, इतना गुमान किस बात का ” ,,,,

वो बोलते रहे ,,, मैंने आज तक जल्दी कभी जबाब नहीं दिया था और आज तो मैं उनकी इन बातों से ही सुन्न हो गई,,,, होश तब आया जब उन्होंने हाथ बढाकर मेरा सिन्दूर पोंछने की कोशिश की, कहा कोई जरूरत नहीं मेरे नाम का सिन्दूर लगाने की, मैं अब तुम्हारे साथ नहीं रहूँगा ,,,,।

आज सारी सीमा लाँध दी थी नीरज ने ,,, दस साल से खामोशी से सब सहती, हर नही की जाने वाली गल्ती के लिए माफी माँगती मैं , कभी पलट कर कुछ भी नहीं कहती मैं, घर और बच्चों की खातिर सबकुछ सहती मैं अपने माँ-पापा की लाडली उनके संस्कारों में जीती मैं ,,,

आज भी नही रोका उन्हें ,पानी सिर से ऊपर आ गया था,,बिफर कर पहली बार
कहा मैंने,”पोछ दो सिन्दूर , मैं भी थक गई हूँ इसका भार ढोते-ढोते। अब ओर नहीं ,,, बस और नहीं,,,,। ”
शोर शराबे से मकान मालिक भी आ गए, मेरे चाचा जी को भी खबर किया गया, वो भी आ गए, सबने मुझे समझाने की कोशिश भी की ।
सब जानते थे मैं बचपन से ही बहुत जिद्दी थी, पर शादी के बाद तो मैं भूल ही गई थी कि मैं क्या थी बचपन में,,। बस जिन्दगी ने जैसे चलाया ,,,नीरज ने जैसे कहा चलती रही थी आजतक ,,,पर आज ,,,अब और नहीं । आसान तो नहीं था ये निर्णय पर ,,,जो जी रही थी जीवन ,,क्या वो आसान था ?

चाचा जी ने भी जान लिया था कि आज ये नहीं मानेगी। उन्होंने शान्ति से मुझे अलग कमरें में बुलाकर पूछा , ” बेटी तू क्या चाहती है?

मैंने कहा “चाचा जी , अब मुझे नहीं रहना साथ में ।”

“सोच समझकर तय कर बेटी।”

“मैं दस सालों से सोच ही तो रही हूँ चाचाजी । आप नहीं जानते, ना ही मैंने कभी आपको बताया ,पर अब नहीं चाचा जी ।अब पानी सिर से ऊपर जा चुका है, मैं आपको सारी बात बातकर दुखी नहीं कर सकती । ”

चाचाजी जानते थे बचपन से मुझे । मैं अपने इरादों की पक्की हूँ पता था उन्हें ।
मैंने इतना ही कहा ,” अब मैं नही देखूँगी पीछे मुडकर, मुझे मेरे बच्चों के लिए जीना है। ”

माँ कहती थी मैं बचपन से जिद्दी थी, ढीक कहती थी, मैं बचपन से जिद्दी तो थी, पर शादी के बाद आज मैने पहली बार अपनी जिद्द दिखलाई , पहले कभी नीरज को पलट कर जबाब भी नहीं दिया था पर उसदिन ,,,
जब नीरज ने मुझे छोडने की धमकी देते हुए मेरे सिन्दूर को पोछने की हिमाकत की तो सबने मुझसे माफी मांगने के लिए कहा । पर मैं उस दिन जिद्द पर अड गई , बहुत माँग ली माफी,, अब मुझे नहीं माँगनी माफी।
चाचाजी चले गए।
सोचती हूँ इतना बडा निर्णय क्षणभर में ,,कोई कैसे ले सकता है। दो अबोध बच्चे और अकेली औरत ,,क्या आसान था ,,पर मैंने लिया ,,आज सोचती हूँ तो लगता है मेरे पास खोने के लिए था ही क्या ? छिपाने और ढकने के लिए बचा ही क्या था ,,,
सबकुछ तो खुली किताब सा था ।
उसने मेरी जिन्दगी को एक तमाशा ही तो बना दिया था ।
मेरे परिवार के नाम पर क्या था मेरे पास ,,माता पिता को भी उसने कब का पराया कर दिया था। हो गए थे । पति ,जो वो कभी बन ही नहीं पाया , पिता कहलाना अच्छा तो लगा था ,,पर उसकी जिम्मेवारी कभी नहीं समझी ।
दौलत के नामपर मेरे पास थे मेरे दो नन्हें मुन्ने ,जो नहीं जानते थे कि जिन्दगी क्या होती है ।
जब खोने के लिए कुछ न हो तो पाने की भी क्या उम्मीद ,,अपने बारें में तो सोचने का वक्त ही नही था ,,हाँ ,अपने बच्चों के लिए सोचा था ,,,,
बस ,कर लिया वो फैसला ,,,जो इस भरी दुनिया में एक अकेली औरत के लिए बहुत ही मुश्किल था । और आज उसी फैसले की अन्तिम किस्त चुका रही हूँ मैं , पूर्णाहुति ,,उस रिश्ते की ,जो बनकर भी कभी नही बन पाया ,,,दनों ढोते रहे बस समाज और परिवार के नाम पर शायद ,,,या एक कोशिश थी जीने की एक छत के नीचे ,,,,बिना नींव वाली छत,,,,कैसे टिकती भला,,,

मैं स्थिर ,,,,,सोचने की स्थिति से ऊपर ,,,,,,
तभी गुस्से से तमतमाए हुए नीरज कमरे से निकल कर आए, तुम निकल जाओ मेरे घर से , बच्चे मेरे हैं मेरे पास रहेंगे ।
मैं अवाक्,,,,,,आज बच्चे सिर्फ इनके हो गए,,,,,
पास खडे मकान मालिक ने कहा ,” ये घर तेरा कब से हो गया? तू कौन होता हैं इन्हें घर से निकालने वाला ,और बच्चे कबसे तेरे हो गए,,,, तुझे जहाँ जाना है जा। ये मेरी बेटी है कहीं नही जाएगी , ये इसका घर है । बच्चे इसके भी हैं ,तू हाथ लगाकर तो देख । ”
मकान मालिक के रौब और गुस्से को देखकर नीरज और गुस्से से बस इतना ही बोले-
“मैं जा रहा हूँ लेकिन वापस आऊंगा बच्चों को लेकर जाऊँगा, देखता हूँ कौन रोकता है मुझे।”

वहाँ बूढ़ी अम्मा जी ने दोनों बच्चों को सीने से लगाया और अपने कमरे में लेकर चली गई।
और मैं,,,,,
————

वो रात मेरे जीवन की आज की रात की तरह ही सबसे लम्बी रातों में थी । उस रात भी मैंने एक पूरा जीवन जिया , आज की तरह ही ।

चलचित्र की भाँति नीरज से पहली मुलाकात, जेल की सलाखों के पीछे बन्द माँ-पापा के बेबसी भरे चेहरे पर सूनी आँखों से रोती काव्या , सुधार गृह में खौफ में लिपटी काव्या ,
फिर शादी के बाद की डरावनी रातें, हालात से समझौता करती और फिर एक बेटी और एक बेटे की माँ बनने के सुख का अहसास करने का वक्त भी नही पाती काव्या,
जालसाजी के धोखे में धुटती काव्या, पति को दूसरों के साथ रंगरेलियाँ मनाते देखकर भी चुप रहती काव्या, घर से बिना वजह अपमानित होकर निकाल दी जाती काव्या,
और फिर शेख के हाथों बेचने का प्रयास की जानेवाली काव्या,,,,
इन सारी परिस्थितियों में भी खुद पर काबू रखने वाली काव्या, आज इन सबसे निजात पाती काव्या ,,, ।
आज फैसले की वो घड़ी आई है।
जीने में जिन्दगी भी यूँ शरमाई है।

वक्त का मोल क्या करें अब हम,
वक्त ने ही तो, ये घड़ी दिखलाई है।

जीते हुए एक अरसा-सा बीता है ,
जीना क्या है ,ना वो जान पाई है।

भर के छलका ये मन का गागर,क्यूँ,
रोक ले नैनों को,नहीं तो रुसवाई है।

कोशिशें सारी यूँ नाकाम हुई तेरी,
मान ले हार दिल ,भले जगहँसाई है।

किस्मत से लड़ के कहाँ तू जाएगा ,
इन लकीरों से बँधी तेरी खुदाई है।

क्या सचमुच ,,,,नीरज से निजात मिली थी या एक भ्रम था ,, एक डर अपने बच्चों के छीन जाने का ,, दोनों बच्चे को सीने में छुपाए पूरी रात आँखों-ही-आँखों में काट दी मैंने ।

इन सारी बातों के बावजूद उस दिन ना जाने क्यूँ शादी के बाद पहली बार आजादी का अनुभव कर रही थी , आजादी उस बंधन से नहीं, जो शादी के बाद जबरन बाँध दी गई थी, वो बंधन तो कानूनी तौर पर अभी भी कायम था।
पर आजादी अपने उस डर से कि कुछ ऐसा न बोल दूँ, कुछ ऐसा ना कर दूँ, जिससे घर में भूचाल आ जाए। सीधे शब्दों में कहूँ तो श्वास लेने की आजादी ,,,पर एक मन आज सुन्न था सारे दुःख-सुख से परे , दृष्टा की भाँति जैसे एक नाटक देख रहा था, जिसे ना बीते पलों का गम, न आने वाले पलों की चिन्ता ,,,।

सुबह हो तो गई, पर अब आगे क्या होगा , कैसे होगा ,,,।
कहीं नीरज मुझसे मेरे बच्चे तो नहीं छीन लेगा ,,, बच्चों के बिना कैसे जीवन जी पाऊँगी।
मम्मी-पापा से छीनकर ले आए, किसी तरह जी लिया ,,दस साल ,,,,दस साल इस पुरूष के साथ,,,,उससमय तो उम्रकैद की सजा ही लग रही है ,जिससे आजाद तो हुई,,,पर बच्चों के बिना कैसे जी पाऊँगी ,,।
उसदिन जब बच्चों के छीनने के डर से मेरा दिल काँप रहा था, तो मेरे मम्मी-पापा को कितना दर्द हुआ होगा, जब मैं छीन ली गई थी उनसे जबरन, उस दिन पहली बार उनके उन अहसासों उस असहनीय पीडा को मैंने पूरी तरह से जिया ,,।

अचानक पास में लेटी नीरजा ने करवटे बदली,,मेरी तन्द्रा टूटी ,,,

उठकर बिखरे घर की ओर देखा,,, आईने में अपनी शक्ल पर नजर पडी,, तो लगा थोडी बदली-बदली-सी थी।
सूजी हुई आँखें तो रोज का किस्सा था ,,,
उस दिन आँखों में कुछ सवाल थे और उनका जबाब ढूँढती-सी निगाहें भी ?
भविष्य से अनजान एक डर , पर भविष्य के प्रति आशावान भी ।

बदन भी टूट रहा था ,,जाने क्यूँ,,,सोचा एक कप चाय बनालूँ ,,तभी धण्टी बजी ।

मन में एक डर की लहर , कहीं नीरज बच्चों को ले जाने तो नहीं आ गया?

क्या करूँ , दरवाजा खोलूँ या नहीं ,,,?
तभी बाहर से आवाज आई ,”गुडिया , दरवाजा खोल ,,,।” अरे पापा ,,,?
शादी के बाद पहलीबार पापा आए थे मेरे घर ,,,
बस दौड़कर बचपन की तरह ही दरवाजा खोला, पर बचपन के जैसे उनसे लिपट ना सकी , कदम ठिठक गए, उनका चेहरा पीला-पीला-सा , दर्द में भीगा,
आँखे जैसे रात भर सोई ही नहीं ।
पापा के साथ आज छोटा भाई भी था ।
भाई के हाथ में कुछ था , शायद टिफिन और कुछ फल के थैले ।
तब सोचा
निश्चित ही चाचा जी ने बता दिया होगा रात में ही ।
मैंने पापा के पैर छुए, और अन्दर लेकर आई ।

पापा ने कुछ भी नहीं पूछा , अगर पूछते तो मैं क्या-क्या बताती और क्या छुपाती ,,,अब खुली किताब की-सी जिन्दगी हो गई है , जिसके पन्ने भी बिखरने लगी है ।
मेरे पापा बहुत समझदार थे,और उनका प्यार मेरे लिए ,,, मुझसे दूर रहकर भी उन्होंने अपनी गुडिया का हाथ नहीं छोडा था, पल -पल की खबर रखते थे।धीरे-धीरे ये सारी बातें मुझे पता चल जाती थी ।

बस इतना ही कहा ,” गुडिया बच्चों को लेकर घर चल अब । ”

जिन आँसूओं को अपनी पलकों में छुपाकर रखा था मैंने , वे अब बाँध तोडकर बह निकले । उस दिन बहुत दिनों बाद दिल खुलकर रोना चाहता था, पापा और भैया जो थे सामने।

वे जिनके साथ जीवन के सबसे हसीं पल बिताए थे, मेरे आँसुओं को पहली बार वे कंधे मिले थे, जिनपर सिर रखकर मैंने अपनी हर थकान भुला दी थी, वे हाथ मिले थे, जिन्हें इन आँसूओं की कीमत पता थी और जो अपने दामन में इन्हें समेट कर मेरे सूखे होठों पर मुस्कान बिखरेना चाहते थे हमेशा ही ,,।
आजतक इस घर में बहाए आँसू तो पानी बनकर ही बहते रहे, देखने वाला भी कोई नहीं था।

आँसू तो उस दिन बहाए मैंनें ,,, पर पापा के ढलते कंधों पर अपनी जिम्मेदारियों का बोझ कैसे डालती, साथ में मेरे दो बच्चे । भैया भी नौकरी ही तो करते थे, पापा के रिटायर्मेंट के बाद पूरे घर की जिम्मेदारी भैया के कंधे पर ही तो आ गई थी।
और मैं जो कि अब उनकी जिम्मेदारी नहीं थी, उसका अतिरिक्त बोझ क्यूँ डालूँ उनके कंधों पर।
जिसकी जिम्मेदारी थी, वो तो अपने अहंकार अपनी अभिमान और अपनी आदतों से कभी ऊपर ही नहीं उठ पाया । इन दस सालों में मैंने जिससे कभी कुछ भी नहीं चाहा अपने लिए, जब उसने ही नहीं समझा अपनी जिम्मेदारी, तो फिर पापा और भैया ही क्यूँ पिसें । पापा ने हर सम्भव कोशिश की मुझे अच्छा जीवन, अच्छी शिक्षा देने की, जबतक उनका मुझपर अख्तियार था। अब नहीं।

माता-पिता जीवन भर के उत्तरदायी नहीं होते, शिक्षा और संस्कार देने के बाद उन्हें बच्चों की जिम्मेदारी से मुक्त हो जाने चाहिए। प्रकृति के हर प्राणी यही तो करते हैं । चिडिया के बच्चे उडना सीख जाते हैं ,तो चिडिया मुक्त हो जाती है।

मैंने रातभर सोचा ही तो था । पापा से मैंने कहा ,”नहीं पापा मैं अब वापस घर नहीं आऊँगी।
आपने अपनी बेटी को इस लायक तो बनाया ही है कि वो अपनी जिन्दगी जी सके।
कुछ-न-कुछ तो कर ही लूँगी । ”

भैया ने बडे प्यार से कहा , ” गुडिया तू अब अकेली नहीं , दो बच्चे भी हैं , कैसे करेगी सब?”

भैया ठीक ही कह रहे थे, छोटे -छोटे बच्चों के साथ सब कुछ इतना आसान तो नहीं था, जानती हूँ , फिर भी ये मेरी लडाई है, मुझे अकेले ही लडनी होगी।
अन्ततः मेरी जिद्द के आगे सभी झुक गए।
पर उन लोगों ने मुझे छोडा नहीं,,,।
सब जानते थे कि इतना आसान नहीं मेरे लिए ये सब। कोई नौकरी भी नहीं, पैसे भी नहीं ।
अगर कुछ अच्छा था तो यह कि मेरे मकान मालिक मुझे अपनी बेटी की तरह मानते थे।पापा के अच्छे दोस्त थे। उनकी दोनों बेटियाँ मेरे बच्चों का बहुत ख्याल रखती थी ।

पर अभी तो सभी के मन में एक डर और था कि कहीं नीरज मेरे बच्चों को ना ले जाए । उसे स्कूल भेजने में भी डर लग रहा था । कुछ दिनों तक तो मैं भी घर से बाहर नहीं निकली। मकान मालिक चाचा जी कि सख्त हिदायत थी कि मैं दरवाजा बिना समझे ना खोलूँ । कोई आता तो वे लोग सामने खडे मिलते मेरी ढाल बनकर ।

इनके चाचा जी जो हमेशा मेरे लिए फ्रिकमंद थे , संन्यास ले चुके थे ।

भाभी रोज कुछ-न-कुछ लेकर आ जाती खाने-पीने के लिए । भैया बच्चों के लिए दूध फल ले आते । पापा भी कभी-कभी आ जाते ।

नीरज तो नहीं आए, किन्तु दो चार दिनों बाद ही मेरा छोटा देवर आया। उसने मुझे हुक्म देते हुए कहा कि ” मैं भैया से माफी मांग लूँ ।”
“किस बात की माफी ? ”
उसके पास इसका जबाब नहीं था।
उसे वैसे भी मुझसे चिढ थी, शायद वो गाँव की बात नहीं भूला था।

तब उसने जो किया मैं दंग रह गई । उसने मेरे मकान मालिक चाचाजी से जाकर कहा कि वे मुझे और मेरे बच्चों को घर से निकाल दें , तब मजबूर होकर मैं नीरज के पास चली जाऊँगी ।

चाचाजी ने उसे जोर से डाँटा -,” अपने भाई को समझाने की बजाय तुम एक स्त्री और उसके बच्चों पर अत्याचार करने की बात कर रहे हो ?”

देवर के अहंकार ने फुंफकार मारी -” मेरा भाई पुरूष है ,यह दो-कौडी की स्त्री अपने-आप को क्या समझती है । अगर मेरी बात नहीं मानी तो इसका हश्र बहुत बुरा होगा । ”

वो शायद चाचाजी के रुतबे और उनके स्वभाव से परिचित नहीं था ।

चाचाजी ने चिल्लाकर कहा ,” तू मुझे घमकी देता है ,,, जा कर ले क्या करता है ,, आँख उठाकर भी तूने या तेरे भाई ने अगर मेरी बेटी की ओर देखा तो देखना मैं क्या करता हूँ । निकल जा घर से अभी ,,और अगर इस मोहल्ले में भी नजर आया तो तुम्हारी खैर नहीं ।”

देवर चला तो गया ,पर मेरे दिल का डर और बढ गया था, ये सभी गुंडागर्दी में माहिर थे । मेरे बच्चों के साथ कोई अहित न हो जाए ।

स्कूल भी भेजना बन्द कर दिया था ।
दो महीने हो चुके थे, इसतरह कब तक चलता ,,, आखिर मुझे कुछ-न-कुछ तो करना ही होगा ,,,,पर क्या ?
पापा को मेरी बहुत फ्रिक रहती थी । उन्होंने अपने दोस्तों से बात की। उनके एक दोस्त ने मुझे विश्व विधालय की कापियाँ एवम् उपन्यास जाँचने का कार्य दे दिया था, उनकी मदद से बच्चों को वापस स्कूल भी भेजने लगी। पर दिनभर कापिया जाँचने के लिए बाहर रहना पडता था ।
बच्चों को स्कूल भेजकर कापिया जाँचने जाती। उनके आने के समय घर वापस आ जाती ।
थोडे पैसे आने लगे। किसी तरह गुजारा होने लगा ,,पर उसने से क्या होता ,,।कभी एक समय ,कभी दो समय बडी मुश्किल से खाना मिल पाता । बच्चों को अम्मा जी भी अपने पास से खिला देती । मेरी परिस्थियों को वो बेहत समझती थी । मैं मठरियाँ और लड्डू भी अच्छे बनाती थी । इस बात को जानते हुए कभी-कभी कोई बनाने कह देता और बनाने के बाद थोडी-सी मुझे ही दे देता बच्चों के लिए ,,,कितने अजीब थे न जीवन के ये पल,,
फिर एक ट्युशन भी मिला।
एक छोटा प्यारा-सा बच्चा,पर बहुत लाडला।
जिसे पढाना एक टेडी खीर था,पर मैं सफल रही। उसके साथ खेल खेलते, उसे खाना खिलाती , कभी बगीचे में दौड लगाती तब जाकर थोडी देर पढा पाती। मेरा समय तो बहुत बर्बाद होता था , पर क्या करती,,,।
वहीं ट्यूशन में एक और अधिकारी मिले जिनकी दो छोटी बच्चियों को भी पढाने का काम मिल गया ।

इन दोनों ट्यूशन से घर आती तो शाम हो जाती थी, लेकिन चाचाजी की दोनों बेटियाँ मेरे बच्चों को बडे प्यार से रखती , खिलाती -पिलाती।
उनके बारें में सोचती हूँ तो लगता है दुनिया में अच्छे लोगों की भी कमी नहीं ,तभी तो दुनिया चल रही है । मेरी दुनिया की गाडी तो इन लोगों की मेहरबानियों से ही चल पा रही थी ।

नीरज के दोस्त अब मेरे सगे भाईयों की तरह हो गए थे ,वे भी मेरी मदद के लिए हरवक्त तैयार रहते
उपन्यास जाँचने के दौरान ही मेरा सम्पर्क एक प्रेस से करा दिया गया, जहाँ प्रूफ रीडिंग के लिए किसी की जरूरत थी। उसके बाद तो मैं कई प्रेस से जुड गई थी और प्रूफ रीडिंग करने लगी थी ।

पूरी रात जागकर अपना हर काम समय से पूर्व कर पाने के कारण सभी मुझे बहुत पसन्द करने लगे थे। अब काम बहुत था और समय कम। मेरी काबिलियत एक से एक तार जोडती चली गई और मैंने विश्व विधालय के लिए गाइड बनाने का कार्य भी करना शुरू कर दिया।
बस , समस्या इतनी ही थी कि मैं अपने बच्चों को समय नहीं दे पा रही थी ,, जो मुझे कचोटता था , पर वो मेरी मजबूरी थी । शायद मेरे बच्चे भी समय से पहले ही बडे हो गए थे, अतः उन्होंने न तो मुझसे कभी कुछ माँगा, न ही कोई शिकायत की।
भाभी का अतिरिक्त स्नेह भी मुझे सहलाता रहता था । हाँ पापा अब टूटने लगे थे, खुद का अकेलापन और मेरा दर्द,,,दोनों ही उनके शरीर के दुश्मन बन गए थे। वे बीमार रहने लगे थे ।

दीपावली का समय था। सभी प्रेस वाले मेरी स्थिति से वाकिफ थे । सभी ने मिठाईयों के डिब्बे घर भेजे । आज बच्चे बहुत खुश थे। मैं घर पर नहीं थी । शाम हो गई थी , हल्की-हल्की बारिश ,,, मौसम सुहाना हो गया था ।
घर पहुँची तो बच्चों के खिलखिलाने की आवाज ने मन को और सुकून दिया ।
पर अन्दर कदम रखा तो चौंक उठी , अरे नीरज ,,,?
एक डर ने सिर उठाया इतने महीनों बाद ,,,? करीब साल होने को आ गया ,आज उसे याद आई हम सबकी ?
खैर , अब तक तो मैं मन से और भी मजबूत हो चुकी थी । कुछ कहा नहीं , उसने कहा,” चाय नहीं पिलाओगी ?”

चुपचाप अन्दर गई, चाय बनाकर सरका दी । रात देर तक बच्चों के साथ खेलते रहे ,, मैंने सोचा अब चले जाएँगे,, पर नहीं,,, । उनके मन में तो कुछ और ही था । बच्चे सो गए तब मेरे पास आए ,,, “मैनें कहा अब क्यों आए हो “,,
“पति हूँ तुम्हारा ,, हक है तुम पर । ”
मुझे उसकी इस बात पर उस दिन क्रोध नहीं आया, हँसी आई, मैंने कहा,” हक तो आप साल भर पहले खो चुके हैं और रही कर्तव्य की बात,,, आप कितना जानते हैं उसके बारें में,, मैं कुछ कहूँ, इसकी आवश्यकता नहीं ।”

फिर भी नीरज ने मेरे पास आने की कोशिश की तो पूरी दृढता से मैंने उन्हें हटाते हुए कहा ,”आप बच्चों से मिले ,मैंने कुछ नहीं किया ,पर मुझसे कोई रिश्ता जोडने की कोशिश मत कीजिए । अब नहीं हो सकता ये सब। ”
मकानमालिक चाचाजी ने नीरज को देख लिया था शाम को ही, इसलिए मुझे बुलाकर कहा था , “सतर्क रहना ,जरा -सा भी कुछ गडबड करे तो जोर से चिल्लाना, अगर रात में नहीं गया तो चिन्ता मत करना , मैं बीच का दरवाजा खोलकर रखूँगा, पुकार लेना।”

पर मुझे चिल्लाने की आवश्यकता नहीं पडी । नीरज चुपचाप सो गए। भोर में उठकर चुपचाप चले गए, तब मैंने चैन की साँस ली ।
तब बच्चों ने बताया कि इतनी मिठाई के डिब्बे कहाँ से आए हैं पापा पूछ रहे थे । हमने बताया कि मम्मी जहाँ काम करती है प्रेस में उनलोगों ने भेजे हैं ।
इसका अर्थ यह हुआ कि उसने मेरे बारे में तहकीकात की थी । कोई बात नहीं ।
मैंने बच्चों को तैयार किया और फिर प्रेस के काम से चली गई। शाम लौटी तो फिरसे नीरज घर पर मिले बच्चों के पास।
मकान मालिक को ये बात नागवार गुजरी, उन्होंने उस समय तो कुछ नहीं कहा पर बाद में उसे डाँटते हुए कहा -” इसतरह चोरों की तरह छुपकर शाम को आना और चले जाना कोई तरीका नहीं। ”
उस दिन के बाद नीरज उस घर में फिर नहीं आए ।
——–

चुनौतियाँ मेरे हर कदम पर ही जैसे मेरा इन्तजार करती रहती थी।
ट्यूशन का काम अच्छा चल रहा था , तभी एक दिन कुछ ऐसा हुआ कि न चाहते हुए भी मुझे दो प्यारी बच्चियों का ट्यूशन छोडना पडा । बच्चे तो निश्छल होते हैं , किन्तु उनकी बातों से भी जीवन बदल जाता है, ये उसदिन अहसास हुआ मुझे, जब मैं उस अधिकारी के घर पर उनकी दोनों बेटियों को पढा रही थी , बहुत ही सभ्य और सुसंस्कृत परिवार था ।
पढाते समय उनके पिता जी कमरे में आए तो छोटी बेटी दौड़कर अपने पापा के गले से लिपट गई और बोली , ” पापा , ये टीचर जी मेरी मम्मी होती तो बहुत मजा आता ,,।
सुनते ही वो भी सकपका गए और मैं भी संकोच में पड गई । वे चुपचाप बाहर चले गए ।

पर मैं अगले दिन वहाँ पढाने नहीं जा सकी ।
वो अगले दिन घर आए तो मैंने बताया कि अब मेरे पास समय भी कम है और मैं नहीं आना चाहती । वे मेरे संकोच को समझ गए थे। बेटी की ओर से मुझसे माफी भी मांगी उन्होंने।

वैसे अब मेरे पास इतना अधिक काम आने लगा था कि आधी-आधी रात तक जागना आम बात हो गई थी । वैसे में बच्चों को खिलाने से सुलाने तक का कार्य मेरी मकान मालकिन और उनकी बेटियाँ बडे ही प्यार से कर देती थी । मुझे तो मानो परिवार ही मिल गया था , जो मेरे हर दुःख-सुख में हरदम मेरे साथ खडा रहता था।
इस बीच मेरे पिताजी के एक दोस्त ने कुछ फार्म भरने की सलाह दी, शिक्षिका के लिए आवेदन पत्र थे वे। मैं भी इन थोडे-थोडे कामों की भागदौड से तंग आ गई थी । कोई स्थायी काम मिल जाए तो ठीक रहेगा, सोच रही थी। मैंने अनेक जगह फार्म भरे ।

पर फिर एक असहनीय दर्द,,,
एकबार फिर मैं अनाथ हो गई, जब पता चला कि मेरे पापा हास्पीटल में अन्तिम साँसे ले रहे हैं। माँ तो बहुत पहले ही चली गई थी , अब पापा भी ,,,,,।
पता नहीं और क्या बाकी है अब जीवन में,,,?

उसदिन बहुत रोई थी मैं, किससे बताती कि मेरे पापा मेरे लिए क्या थे । इधर के डेढ साल में वे छाया की तरह मेरे पीछे-पीछे थे । इधर-उधर सबसे मेरे लिए बात करना और मुझे कोई-न-कोई काम दिलाने की कोशिश करना ,बस यही उद्देश् रह गया था पापा का । शायद अब वो बहुत थक गए थे, कही-न-नही , थोडी निश्चिंतता भी आई थी जब मैं रात-दिन काम में लग गई थी ,,, शायद इसीलिए सो गए वो चिर निद्रा में ,,,,।
पापा आपका प्यार और दुलार तो मैं इस जीवन में कभी नहीं भूल सकती दिल चाहता है कि हर जीवन में आप ही मेरे पापा बने ,,,,।
मुझे याद है पापा मुझे कही स्थायी रूप से व्यवस्थित करना चाहते थे। एक नौकरी बनारस में ही मिल रही थी, किसी रेजिडेंशियल स्कूल में । मैंने सोचा था मेरे बच्चों की पढाई-लिखाई भी ठीक से हो जाएगी और मैं उसी कैम्पस के अन्दर रहूँगी ।
मैं खुश हुई थी , पर जब मैंने पापा को बताया था कि उस स्कूल के हेडमास्टर चाहते हैं कि मैं वहाँ आकर रहूँ और शिक्षिका का काम करूँ तो मेरे पापा को ये बात समझ में नहीं आई , क्योंकि वो स्कूल बहुत ही सुनसान जगह पर और शहर से दूर था। इसलिए उन्होंने मना कर दिया था,,।
अब कौन मुझे समझाएगा,,माँ गई तो पापा थे , एक संतोष था मन में ,,पर उसदिन ,,,अपने माँ-पिता को खो देना ,,। जब नीरज ने उनसे जबरन जुदा किया था तब भी सालों रोती रही ,पर तब कहीं तसल्ली तो थी कि पापा से मिल सकती हूँ। पर अब ,,अब तो पापा भी चले गए,,,उसदिन तो मैं पूरी अनाथ हो गई,,,,।मेरी जिन्दगी में रोना ही क्यों लिख दिया भगवान ने ,,,,।
——-
1990

पापा को खोने का गम तो जिन्दगी भर रहेगा जानती थी,,पर बच्चों के लिए तो फिर भी जीना था ,,,कोशिश में हाथ-पाँव मारती रही ,,तब मुझे एक प्राइवेट स्कूल में नौकरी मिल गई।
कुछ दिनों वहाँ काम किया, अच्छा लगा ।
उस समय का एक किस्सा बहुत ही मजेदार था। उन दिनों अक्सर कुछ न कुछ दंगे-फसाद होते रहते थे और उस पर काबू पाने के लिए कर्फ्यू लगाना आम बात थी।
15 अगस्त का दिन था, पूरे शहर में कर्फ्यू ,,, और मुझे पहले से ही झंडा फहराने की जिम्मेदारी विधालय की प्रधानाचार्य ने दे थी।
अब कर्फ्यू में कैसे विधालय जाया जा सकता है ।पर मैं अपनी धुन की पक्की। जिम्मेदारी को निभाने के लिए हर सम्भव प्रयास हमेशा ही करती आई थी । तभी तो दस साल तक किसी भी तरह नीरज के साथ अपने कर्तव्यों को सर्वोपरि मानकर निभाती आई थी, मन का तो पता नहीं, पर देह को सौंपा था और जीवन भी।
ये और बात है कि नीरज इसे नहीं समझ सके।
अब झंडा फहराने जरूरी था मेरे लिए। मैंने अपनी एक साथी शिक्षिका जो कि विधालय के पास ही रहती थी उसे एक निश्चित समय पर विधालय आने के लिए कहा और हिम्मत करके घर से निकली, जहाँ पुलिस दिखती, किसी ओट में छिप जाती।
अपना शहर था, सारी गलियों से अच्छी तरह परिचित थी, छिपते-छिपाते विधालय से थोडी दूर पँहुची थी, कि एक पुलिसवाला अचानक सामने आ गया,, पर नाटकों का शौक तो बचपन से ही था ना, फिर दिखने में मैं वैसे ही बहुत मासूम थी, रोते हुए कहा कि मेरा घर पास में ही है, कर्फ्यू के कारण सहेली के घर में फँस गई थी।
मेरे आँसूओं से वो पिघल गया और चैन की साँस लेते हुए विधालय पँहुची, तो वहाँ मेरी साथी शिक्षिका भी मौजूद थी। हम दोनों के झंडा फहराया और फिर राष्ट्रीय गान करके वापस घर को लौटे ,,, घर लौटना भी जोखिम से भरा था , पर इस बार मैंने ज्यादा सतर्कता बरती और सही-सलामत घर पहुँच गई। बाद में जब हमने प्राचार्या को यह बात बताई तो उसने मुझे मेरी कर्त्तव्यपरायणता के लिए बहुत सराहा।
—-

कुछ ही महीनों मुझे महाबोधि सोसाइटी की ओर से एक बुलावा आया।
मुझे समझ में नहीं आ रहा था कि अब मैं किससे सलाह लूँ । पापा बहुत याद आए ,,,।

तब चाचा जी और नीरज के दोस्तों की सलाह पर मैं वहाँ साक्षात्कार के लिए गई ।

बहुत डर लग रहा था। परन्तु अब ईश्वर शायद मुझपर थोडा मेहरबान होने लगे थे ।
वहाँ के बडे बाबू ने जब मेरा फार्म पढा तो उसमें मेरे पिताजी का नाम देखकर चकित रह गए।

उन्होंने बताया कि वे मेरे पिता के साथ पोस्ट आफिस में काम करते थे और उन्होंने बचपन में मुझे भी गोदी में बहुत झूला झूलाया है।
उन्होंने मेरे बारें में फिर विस्तार से पूछा। सबकुछ जाना, फिर कहा, “बिटिया यहाँ डरने की बिल्कुल जरूरत नहीं, हमारे यहाँ सारी व्यवस्था है । तुम्हारे बच्चों को भी कोई हाथ तक नहीं लगा पाएगा । तुम यहाँ आराम से काम करो। रहने की सभी व्यवस्था यहीं होती है। बस तुम्हें खाना खुद बनाना होगा ।”

पिताजी के दोस्त थे अतः मैं उन्हें चाचाजी कहने लगी और मेरे बच्चे उन्हें नानाजी कहते थे। मेरी संगीत और अभिनय की शिक्षा भी बहुत काम आई वहाँ।
वहाँ होने वाले सांस्कृतिक आयोजन के लिए किसी की सख्त आवश्यकता थी।

मेरी लगन और सीखने की क्षमता ने मुझे स्कूल के साथ-साथ आफिस में भी काम दिला दिया था ।
हुआ यों कि , मेरे भाई के बेटे ने टाइपिंग इंस्टीच्यूट खोला था, मेरी स्थिति को देखते हुए उसने कहा कि बुआ ये आपके घर के पास ही है, जब भी समय हो थोडा सीख लिया करो, क्या पता कब काम आ जाए।
सचमुच सीखा हुआ गुर काम आता ही है। मैं दो चार बार चली जाती थी, थोडा सीख गई थी
महाबोधि सोसाइटी में आफिस में पत्र टाइपिंग का बडा काम होता था।

चाचा जी ने पूछा,”तुम्हें टाइपिंग आती है क्या ?”
मैंने कहा,” थोडा आती है”
तो उन्होंने एक पत्र लिखने के लिए कहा ।
बस मुझे धुन सवार हो गई, खाली समय में मैं टाइपिंग करने लगी । पत्रकार थी तो बिना डिक्टेशन के भी पत्र तैयार कर देती। महाबोधि के इंचार्ज भिक्षु भंते मेरी इस कला से प्रभावित हो गए।

मेरा काम निश्चित ही बढ गया था। आधा दिन स्कूल और आधा दिन आफिस यानि दो शिफ्ट में काम । पर मुझे बच्चों के लिए ये भी मंजूर था। धीरे-धीरे मेरी गायन कला और अन्य भाषाओं के ज्ञान ने भी सभी को प्रभावित किया और फिर वहाँ खाने-पीने की व्यवस्था और छोटे -मोटे ख़र्चे का जुगाड हो जाता था । भंते भी वहाँ के बडे सहयोगी थे।

परन्तु ये कोई जीवन के लिए निश्चित व्यवस्था नहीं थी, अतः मुझे भविष्य की दृष्टि से कोई पक्की नौकरी करना जरूरी था ।
वहाँ नीरज के दोस्त और मेरे चाचा जी भी कभी-कभी मिलने आते रहते थे उन लोगों ने कुछ सरकारी स्कूलों के फार्म लाकर दिए। चाचाजी भी चाहते थे कि मैं कहीं-न-कहीं पक्की और अच्छी नौकरी पा लूँ ।
वहाँ तीन साल काम करते हुए अनेक खट्टे-मीठे अनुभव हुए जीवन के, जो आगे के जीवन में भी मुझे बहुत काम आए।

एक साल बाद कहीं से पता लगाकर एक बार नीरज वहाँ आए थे, क्यों,, पता नहीं।
बच्चों के साथ खेला पूरे दिन, मुझे फिरसे थोडा डर लगा, वो कहीं मेरे बच्चों को ना ले जाए। उसने मुझसे फिर से रिश्ता बनाने की भी कोशिश की , परन्तु अब तक मैं मन से और मजबूत हो चुकी थी।मैंने अब अकेले जीवन जीना सीख लिया था। मैं अब वो काव्या नहीं थी जो रात में अकेले कमरे से बाहर जाने से भी डरती थी। तब उन्हें लगा था कि मैं अकेली नहीं जी सकती। पर वो नहीं जानते ,वक्त सबकुछ सिखा देता है।
मैंने कडे शब्दों में अवहेलना ही नहीं की , उन्हें दोबारा मिलने आने से भी मना किया ।

बस वो आखिरी मुलाकात थी हमारी।
———–
1993

तीन साल हो गए थे वहाँ काम करते । मेरे फार्म के जबाब आए।
मेरे लिए रास्ते बनने लगे थे । मुझे केन्द्रीय विद्यालय में शिक्षिका के पद नौकरी मिल गई। मेरी पहली पोस्टिंग गोहाटी हुई । उसके बाद छोटी-मोटी परेशानियां तो आती ही रहती है जीवन में ,,पर फिर मैंने पीछे मुडकर नहीं देखा ।
किन्तु बच्चे बडे होने लगे थे,
और बीतते गए साल-दर-साल ,,,,
मेरे बच्चों को पिता का प्यार और दुलार नहीं मिला ,,, इस बात का हमेशा अफसोस होता था ,,,पर मेरे बच्चों ने कभी भी मुझसे कुछ नही कहा ,,,मुझे लगा ,,,उन्हें फर्क नहीं पडता ,मैंने भरसक प्रयत्न किया था उन्हें मम्मी-पापा दोनों का प्यार देने की ,पर मैं गलत थी ।
मेरे बच्चे मुझसे अधिक संवेदनशील थे और मेरे प्रति सजग भी ,,।मुझसे कभी कुछ नहीं कहा।
एक बार उन्हें आपस में अपने दोस्तों से बात करते सुना तब जान पाई कि उन्हें भी फर्क पडता है,,,, बहुत पडता है ,,।
जब स्कूल में सभी के पिता आते थे तब उन्हे फर्क पडता था। जब बच्चे अपने माता-पिता की बातें करते थे ,उन्हें चुभता था , जब बच्चे अपने माता-पिता के साथ घूमने जाते थे उन्हें दर्द होता था ,,,,। उनकी बातों से मेरी आँखों में लाचारी के आँसू भर गए थे । मैं भी कब चाहती थी कि बच्चे अपने पिता से महरूम रहें, पर मैं क्या करती ?

तब मुझे याद आया कि बचपन में मेरे पास कितने किस्से होते थे स्कूल के पापा को सुनाती, मजा आता था । मैं पांचवीं कक्षा में थी ।मेरे स्कूल में एक हिन्दी के शिक्षक थे, बहुत अच्छा पढाते थे । जो कभी भी किसी का सही नाम नहीं याद रख पाते थे, और कुछ ने नए नामों से हमें बुलाते थे । एक सहपाठी जिसका नाम मूलचंद था उसे जडचन्द, दीपिका को दियाबाती और मुझे धन्वंतरि।
उनका एक वाकया बहुत ही मजेदार था । दोपहर के समय जब भोजन के लिए अवकाश मिलता तो हम सभी गुट्टक खेलते थे । सबके बैग में पाँच-पाँच गुट्टके होती थीं।
कभी -कभी हम खेल में इतने मशगूल हो जाते कि घण्टे की आवाज ही नहीं सुनाई देती ।
मास्टर साहब आकर खडे हो जाते ।
उन्हें देखते ही हम सब अपनी-अपनी जगह पर भागकर डर से चुपचाप बैठ जाते ।
तब मास्टरसाहब सबसे पहले गुट्टक खेलने वालों को खडा करते । अगर लडकियाँ होती तो थोडी देर कान पकडवाते और छोड देते ।
पर लडकों को विचित्र सजा देते थे । उन्हीं की गुट्टक से एक की नाक पर एक गुट्टक रखकर दूसरे गुट्टक से टक-टक प्रहार करते।
लडकियों को ज्यादातर डाँट लगाकर ही छोड देते ।
लडकों को लगता कि ये तो गलत है , ये भेद क्यों ।
पर पूछे कौन ? मैं उनकी लाडली थी ,,सबके कहने पर एकबार मैंने पूछ ही लिया । तब उन्होंने हँसकर कहा कि तुमलोग देवियाँ हो, तुमपर हाथ नहीं उठा सकते ।
ये बात जब मैंने घर आकर बताई तो सभी खूब हँसे थे ।

छोटी छोटी यादें अब तो बड़ी हो गईं हैं
अपने नन्हें पाँव उचक कर खडी हो गईं हैं ।
पर न भूल पाए वो दिन न भुला पाईं रातें
जुड़ी हुई जाने कितनी जीवन की सौग़ातें ।
बाँहों का पालना और चंदा मामा की लोरी
( आँखों में काजल माथे पे दिठोरी ।) ?
लगा दिठौना माथे घुघुआ की टिटकोरी ।
दूध पिलाने वाले चम्मच संग कटोरी थी
पेट दर्द पर नुस्ख़ा दवा हींग की घोरी ।
चटनी घुघुना और खिलौने कितने प्यारे थे
गुड्डे और गुड़ियों का घरौंदा बिछौना ।
बाबा का घोड़ा बन पीठ पर घुमाना
चकरी औ लुकाछिपी खेल खिलाना।
गुड़िया और गुड्डे की शादी रचाना
काग़ज़ की डोली में उनको बिठाना ।
मोहल्ले में उनकी बारात ले निकलना
हलवा और पूड़ी का खाना खिलाना ।
चिन्ता न फ़िकर बेख़ौफ़ था ज़माना
बस काम था खेलना खाना सो जाना ।
पता भी लगा नही कब हुए हम सयाने
अपनी साज सज्जा पर गौर फ़रमाने ।
अब स्कूल से जब हम कालेज में आए
दबे पाँव किसीने जैसे सारे पल चुराए।
शादी और गृहस्थी में सब कुछ भुलाए
इस तरह जीवन के समरांगण में आए ।
बुनने लगे सपने कभी घरौंदे सजाए
संस्कारों के उसमें फिर दीये जलाए ।
कहाँ से चले थे और कहाँ ये आ गए
बिरवा लगाया था जो वृक्ष बन गए ।
फल उसपर आते हम ऐसे हरषाए
लगा अपने बचपन में फिर लौट आए ।
मार चिक्का पत्थर आम जामुन गिराना
लीची के पेंड पर चढ़ पत्ते चबाना ।
कैथ तोड़ना फाड़े में चिलबिल बटोरना
चिलबिल से भर दिन चिरौंजी निकालना ।
सुबह होते घासों से बीरबहूटी पकड़ना ।
शीशी में रखना और उनकी रेस कराना ।
कंचे से वो आलू निशाने का साधना
हर्र से एक बारगी सारी गोटी पिलाना ।
विष अमृत छल कबड्डी खेल वो अपना l
इस्टापू खेलने लगा जैसे बचपन हमारा ।
जागा उमंग मचल पड़ीं वो सारी यादें
प्यारा सा बचपन और लंबी सी कहानी ।
वो काग़ज़ की नाव बरसात का पानी
मस्ती ही मस्ती थी सुहानी जिन्दगानी ।

पर मेरे बच्चों के जीवन में ये खुशी नहीं के बराबर ही रही । मैं अपने काम की वजह से उनके साथ कम रह पाती थी ,,,।

पर मास्टर साहब के इस वाकये से मुझे एक अच्छी सीख भी मिली थी । मैंने अपने विद्यार्थियों और बेटे को भी यही सिखाया था ।
एक बार मेरी अनुपस्थिति में पिंकू ने नीरजा पर हाथ उठाया, शरारती तो बहुत था वो ।
नीरजा के चेहरे पर छोटी-सी खरोंच भी आ गई थी । घर वापस लौटकर जब मैंने देखा तो बेटे को सजा दी और आइन्दा ऐसा न करने की हिदायत भी दी।
मास्टर साहब की वह व्यवहारिक सीख समाज के लिए भी कितनी अनुकरणीय है , समझ में आया ।
एक बात बहुत अच्छी थी। मेरी व्यस्तता ने दोनों बच्चों को भाई बहन के साथ-साथ एक अच्छा दोस्त भी बना दिया था और समय से पहले ही बहुत समझदार भी ।
—————-
गोहाटी के बाद मेरी पोस्टिंग चण्डीगढ हो गई थी ,,,,फिर पटना ,,,2005 में,,,
मुझे हर जगह सभी का अच्छा सहयोग मिलता रहा ,,शायद अच्छे दिन आने लगे थे ।

बच्चे बडे हो गए थे ,,,बेटा दिल्ली चला गया था और थोडे दिन में बेटी भी दिल्ली चली गई। पढने में बहुत तेज थी । जल्दी ही उसे हैदराबाद में नौकरी भी मिल गई।

2005 में केन्द्रीय विद्यालय संगठन का राष्ट्रीय पुरस्कार एच आर डी मिनिस्टर अर्जुनसिंह इंसेंटिव अवार्ड प्राप्त करते हुए मेरी आँखों में आज पहली बार आँसू मुझे अच्छे लग रहे थे। बच्चे भी बहुत उस दिन बहुत खुश हुए थे ।
2006 में मेरा पहला काव्य संग्रह “सफीना” भी छपा।
1997 से साहित्यिक पत्र पत्रिकाओं में कविता और साक्षात्कार भी छपने लगे थे ।

अब जाकर एक ठहराव-सा आने लगा जीवन में , ,,,लगा अब थोडी चैन की साँस आने लगी थी ।

2008

उस साल नीरजा ने बताया, रजनीचन्दर के बारें में बताया । उसके साथ काम करता था । दक्षिण-भारतीय था । बहुत अच्छे थे उसके माता-पिता भी । मेरे पास कुछ भी नहीं था देने के लिए । उन्होंने भी दहेज के नाम पर बस बेटी का हाथ ही माँगा , और मैं एक बडी जिम्मेदारी से मुक्त हो गई।
शादी मन्दिर में परम्परागत विधिनुसार ,,,,
पता नहीं ,,,उसदिन नीरज बहुत याद आए ,,, निश्चित ही बेटी ने भी अवश्य याद किया होगा ,,,पता नहीं फेरों के वक्त मेरी नजरें क्यूँ अनायास ही दरवाजे की ओर उठ रही थीं ,,,पता नहीं वो अब कहाँ है ,,मुझे कुछ भी पता नहीं ,,,।
नीरजा चली गई विदा होकर ,,,एक सूनापन ,,जाने क्यूँ घेरने लगा मुझे । बेटी की विदाई का दर्द ,,शायद ऐसा ही होता होगा सभी माता-पिता को ।
——

एकदिन किसी काम से बैंक गई थी वहाँ बातों-बातों शुभचिन्तकों ने समझाया कि अब तलाक के लिए आवेदन देना जरूरी है ।

युग बीत गए थे नीरज से मिले ,,,अब तो उसके बारें में ज्यादा सोचती भी नहीं थी ,, महाबोधि के बाद फिर कभी हम नहीं मिले थे ,,। कानूनन एक ठप्पा भर बाकी था ।वैसे भी अब कौन-सा रिश्ता बाकी था सोचकर,, सबने कहा तो डिवोर्स फाइल कर दिया।

मजबूत तो हो गई थी मन से मैं ,,फिरभी कोर्ट कचहरी के नाम से सिहरन होती थी । बालमन की बातें शायद मन पर गहरा प्रभाव छोड देती है ।
तबतक पटना तबादला हो चुका था मेरा ।
उस समय मेरी भाभी ने बहुत साथ दिया था , वो मेरे साथ जाती थी हर वक्त ।
पर ये सरकारी काम,,,,फिर नीरज का पता भी नहीं था , ,वकील ने तीन चार जगहों पर पत्र भेजे , एक जगह से पत्र नहीं लौटा तब केस फाइल हुआ था । दो साल होने को आ गए,,,अचानक मेरी भाभी चल बसी ,,,,एकबार फिर वही अकेलापन ,,,,।

बढ़ गई है ज़िन्दगी की इस क़दर से पीर
भर गई आँखें हमारी और छलके नीर ।

भींड जुटती जा रही मैं हो गई असहाय
हल न निकले बन गई पर्वत सी ये प्राचीर ।

आइना लगता के चटके हो के अब मायूस
एक चेहरे पे लगा चेहरा दिखे तस्वीर ।

कब तलक मुँह बंद करके हम रहेंगे दोस्त
सच कहेंगे तो चला दो तुम भले शमशीर ।

हक़ की बातें क्या करेँ जब ख़ुद दिया है छोड
बहन का घर बहन लूटे बन के राँझा हीर ।

खोल आँखें ,झाँक मुझ में ,देख कहता जुर्म
जुर्म के पीछे तुम्ही हो ये मेरी तक़दीर ।

“मंजरी” तुम हो मुसाफ़िर , ये तेरा परदेश
लड़ झगड़ कर जीत लेगी कौन सी जागीर ।

अब थक गई थी मैं भी कचहरी के चक्कर लगाते-लगाते ,,,,नीरज कभी आएं ही नहीं थे । मैने वकील से कह दिया भाभी नहीं रहीं अब मैं नही आ सकती , जैसे भी केस खत्म करें ।

2010 अगस्त का महीना सोमवार का दिन,,,,

आज जब फैसले की कापी मेरे हाथ में है तो मुझे क्या हो रहा है ये ,,,,,
ये डिवोर्स के काले अक्षरों वाले पन्ने ,,, पहले भी रिश्ता इन पेपरों ने ही तय किया था और आज भी ये पेपर ही ,,,,
मेरी जिन्दगी तो इन पन्नों की लिखाई के सहारे ही जैसे चलती रही है ,,,।
पर क्या ऐसी ही होती है सबकी जिन्दगी ,,,?

पूरी कहानी जैसे चल चित्र की भाँति घूम रही है आँखों के सामने ,,,। आज फिरसे वे सारे धाव जैसे हरे होने लगे हैं ,,, बात प्यार की हो न हो ,,साथ था दस सालों का और एक कागजी रिश्ता जीवनभर का ,,,आज वो भी खत्म ,,,न कोई राजा था न कोई रानी ,,,माँ तो बचपन में ऐसी ही कहानियाँ सुनाती थी न ,,,कोई राजकुमार भी नहीं आया था फूलों की डोली लेकर ,,,
वे सब कहानियाँ ही होती होंगी बस,,,, पर बालमन के सपने ,,,। अच्छा है मैंने अपने बच्चों को ऐसी कोई कहानी कभी नहीं सुनाई ,। सपने टूटते हैं तो आवाज तो नहीं होती पर जीवन टूटकर बिखर जाता है ,,,,,पतझड की तरह ,,,जिनपर कभी हरियाली नहीं आती ।

प्यार तो मुझे भी चाहिए था न ,,पर कभी नहीं मिला,,,मिला था तो बस दर्द ,,तन्हाई और जीवन के संधर्ष,,,जिसमें इतना उलझ गई कि अपने लिए तो कुछ कभी सोचा ही नहीं ,,,।
आज इन पन्नों पर लगी मुहर ,,,,जाने क्या जानना चाहती है ,,खुली किताब की तरह मेरा जीवन ,,अब और क्या ,,,,।

बहुत अकेलापन क्यूँ आज ,,,शायद बच्चे भी अभी यहाँ नहीं है ,,इसलिए लग रहा होगा ,,अपने मन को बहलाती -सी धडी देखा तो सुबह के पाँच बज गए थे । खिडकी से पर्दा हटाया तो हल्का सा छुटपुटा अंधेरा -उजाला ,,एक दूसरे से गले मिलता या विदा कहता ,,,दोनों का मेल भी तो नहीं था ,,,साथ नहीं रह सकते थे,,, ।
सहर होने को थी ,,,शायद मेरे जीवन की भी एक नई सहर ,,,जहाँ मैं थी अपने साथ पूरी तरह ,अपने लिए ,,,,पहली बार,,,।
मन का गुबार रातभर की बारिश में धुल गया था ,,,।अब एक नई शुरूआत ,,,पहलीबार जीवन के 53 बसंत पार करने के बाद मैंने मुस्कुराकर खुद से पूछा कि मैं क्या चाहती हूँ ,,,,,,?
खाई है चोट दिल पे सँभलने तो दीजिये
सूरत ख़याल कर के बहलने तो दीजिये ।

उम्मीद है यही कि मिलेंगे सुकून से
दिन ढल चुका है शाम भी ढलने तो दीजिये

कीचड़ उछालने का चलन आम है यहाँ
दामन बचा के हमको निकलने तो दीजिये

इस ज़िंदगी के सिर्फ़ सवालात ही तो हैं
अपने जुनूने शौक़ मे पलने तो दीजिये

शिकवे शिकायतों का नगर है ये ” मंजरी ”
दर अब पुराना हमको बदलने तो दीजिये ।
(डॉ मंजरी)

उत्तरार्द्ध

2010 से 2017 तक का सफर ,,,जैसे एक नई जिन्दगी की शुरूआत ,,,नया जन्म तो नहीं कह सकती ,,,,
मेरी बेटी आस्ट्रेलिया में और बेटा दिल्ली में ,,।

मैं सारनाथ में ,,,,सम्पति के नाम पर दोनों बच्चों का प्यार , ढेर सारे दोस्तों का प्यार ,,और स्नेहभरे रिश्ते ,,,यही जमापूँजी है मेरी । घर लान लेकर किसी तरह बन गया था । अधिक कुछ चाहिए भी नहीं था मुझे अब ।

अब समाज के लिए कुछ करने का दिल किया। धन नहीं था पर तन-मन में बहुत लगन थी।
केन्द्रीय विधालय से जो मिल रहा था, संतुष्ट थी मैं। मैंने साहित्य की सेवा को अपना लक्ष्य बनाया।
कवि सम्मेलनों में जाने लगी थी । वहाँ पर मैंने महसूस किया कि महिला कवयित्री को वो स्थान नहीं मिलता , जिनकी वो हकदार हैं । उस समय कवयित्रियाँ बहुत कम भी होती थीं।
उन दिनों के अनुभव भी कुछ कम नहीं थे। भारतीय समाज में स्त्री के लिए कदम-कदम पर दिक्कतें थी ,ये तो समझ में आने लगा था ।
पर साहित्य के क्षेत्र में भी पुरूषों का शासन और महिलाओं का शोषण हो रहा था, जिसकी शिकार होते-होते बची मैं।
एकबार एक कवि सम्मेलन के लिए मुझे दूसरे शहर में जाना था। साथ में एक कवि भी थे बनारस के ही । मैं ट्रेन से जाने वाली थी , पर उन्होंने कहा वो कार से जा रहे हैं अतः मेरे साथ चलें ।
मैं उनके साथ कार में बैठी । एक स्त्री को ज्यादा समय नहीं लगता पुरूष की नियत समझने में।
मैंने जान लिया कि इनके ईरादे कुछ सही नहीं। आधे रास्ते में न उतरा जा सकता था न वापस आया जा सकता था । किसी तरह शहर में पहुँचे । वहाँ होटल में भी उसने एक ही कमरें में सामान रखवाया, जो कि मेरी समझ से परे था । तब मैं रिसेप्शन पर ही बैठी रही और फिर दूसरे आयोजक से बात करके दूसरे होटल में चली गई। यह बात उसे इतनी नागवार गुजरी कि उन्होंने काव्य पाठ के लिए मेरा नाम सबसे अन्त में रखा , जब कि आधे लोग जा चुके थे ।
मैं सब समझने लगी थी , मेरा दम धुट रहा था वहाँ ,,अन्ततः किसी तरह काव्यपाठ के समाप्त होते ही मैं वहाँ से सीधे बस स्टैंड गई और वापस अपने घर । घर आकर मैं बहुत रोई और फिर जिन्होंने मुझे आमंत्रित किया था उनसे उस महानुभाव की शिकायत भी की ।

ऐसे किस्से आए दिन देखने को मिलने लगे दूसरी कवयित्रियों के साथ भी । एक कवयित्री ने मुझे बताया कि चुकि उनकी उम्र 50 साल की है अतः आयोजक ने यह कहकर कि उन्हें 35-40 से कम उम्र की कवयित्री चाहिए। लोग कवयित्री को सुनने नहीं, देखने आते है,अतः आपको नहीं चुना जा सकता ।
मेरा दिमाग बिल्कुल भन्ना गया । साहित्य के क्षेत्र में इतनी ओछी बातें ।
इतना अपमान स्त्री का ,,,,
शो पीस की तरह स्त्री का उपयोग ,,
उसकी योग्यता का मापदंड उसका शरीर ,,।
ये साहित्यिक मंच है या कोई बाजारू ,,,,।
विदेशी आक्रांताओं के लिए क्या कहेंगे ,जब अपने ही देश के पुरूषों की ये मानसिकता बरकरार है ।

तब मैंने एक बहुत बडा कदम उठाया , जो कि बनारस में क्या शायद भारत में पहली बार किसी महिला ने उठाया होगा। स्त्री समाज को न्याय मिलेगा और मंच भी, जिसकी वो भी हकदार है ।
मैंने इस संकल्प के साथ 2011 में कवयित्री सम्मेलन शुरू किया ।
पुरूष सत्तामक समाज में यह कदम भी चुनौतियों से भरा हुआ था । पर अब मैं चुनौतियों से नहीं डरती ,,,चुनौतियाँ झेल-झेल कर तपकर ठोस हो चुकी थी ।
कुछ विद्वान साहित्यकारों ने जब मेरे भावों को परखा तो उन्होंने साथ भी दिया ।पूरे देश का तो पता नहीं , पर बनारस शहर के लिए यह एक विशेष बात थी । सम्मेलन पहली बार अस्सीधाट पर ही हुआ। आज वही अस्सीधाट सांस्कृतिक आयोजनों का गढ बन चुका है ।

मेरी गायकी , मेरी गजलें और साथ में प्रस्तुति के हुनर से बहुत जल्दी ही काव्य जगत में मुझे प्रसिद्ध कर दिया , उसके साथ ही नवोदित कवयित्रियों को मंच प्रदान कर उनकी दुआऐं भी खूब बटोरी। तत्कालीन बडे-बडे साहित्यकारों का सानिध्य और आशीर्वाद भी मिला ।
पर मैंने इन सम्मेलनों के लिए कभी किसी के आगे हाथ नहीं फैलाए। ये और बात है कि धीरे-धीरे लोग सहयोग के लिए आगे आने लगे थे ।

2017
समय पंख लगाकर उडने लगा था ,,,।
मैं उस समय आस्ट्रेलिया में बेटी के पास थी । मेरा छोटा नाती हुआ था । मेरे विद्यालय से
प्रिन्सिपल सर का फोन था । बताया मेरे नाम से मंत्रालय से पत्र आया है । क्या करूँ ? आप
अनुमति दें तो खोलूँ ? जाने क्या सूचना हो । मै तो देश से बाहर थी । अत: बोला खोल
के देखने को । उन्होने पत्र खोल कर फोटो व्हाट्सप पर भेंज दिया फिर फोन पर बधाई
दी । दामाद ने तुरंत प्रिंट आउट निकाल कर हाथ में दे दिया ।
काँपते हाथ पत्र लिये । कई बार पढ़ा । सहसा विश्वास नहीं हो रहा था । कोई सपना तो नहीं देख रही मैं ,,,दोबारा पढा ,,,तभी भारत से एक सर और मैडम की आवाज ,,,बधाई हो काव्या ,,,तुमने हमारे विधालय का भी नाम रोशन कर दिया ,,,मैं खुशी से विह्वल हो गई थी ,, बेटी ने तुरन्त
बेटे को फोन कर बताया ।

मैं सभी की बधाईयाँ बटोरते हुए और एक सरकारी पत्र मेरे हाथ में ,,,।

पहली बार किसी कागज के टुकडे में खुशी लिपट कर आई थी मेरी जिन्दगी में ।
आँखों में आँसुओं की धार पर आज ये पानी नही था,,,ये संतोष और सुख की आँसु थे मेरे लिए हीरे -मोती से कम नहीं थे आज ये ,,,।
दुःख भले ही बाँटने में मैं हमेशा से कंजूस रही ,,,पर खुशी के ये स्वर्णिम पल जीवन के ,,,बच्चों से बात की तो वे खुशी से झूम उठे ,,, सम्मान तो बहुत पाया मैंने केन्द्रीय विद्यालय में काम करते हुए भी ,,,पर यह सम्मान ,,,
” राष्ट्रपति सम्मान ”
मैंने तो सपने में भी नहीं सोचा था ,,,आज पहली बार अहसास हुआ वो जब लेता है तो देता भी बहुत हैं ,,,आखिर मेरी मेहनत और तपस्या रंग लाई है ,,,,,
मन से तो मैंने सभी को बहुत पहले ही माफ कर दिया था ,,किन्तु
राष्ट्रपति के हाथों से प्राप्त उस सम्मान ने ईश्वर के प्रति भी कृतज्ञता का भाव भर दिया ,,,,,।

–00–

इन्दु झुनझुनवाला

सर्वाधिकार सुरक्षित (Copyrights reserved)

error: Content is protected !!