आज उसने मन की करने की ठान ली. बहुत हो गया, हर बार प्यार दुलार की चिकनी चुपड़ी बातों से बहला फुसलाकर उसे भविष्य के सुहाने सपने दिखाकर उसे सुलह करने पर मजबूर कर देता था मनजीत. पर आखिर कब तक?
माँ थी वह, अमेरिका हुआ तो क्या हुआ? वह अपनों से दूर हुई तो क्या हुआ? क्या पास या दूर रहने से रिश्तों के मतलब बदल जाते हैं? इसी उलझन भरी वेदना से गुज़रते हुए वह रात भर करवट बदलते बदलते खुद से हर सवाल का जवाब तलबती रहती.
राहुल उसकी पहली औलाद, सात महीने का होने को आया था, अभी तक उसे वह अपनी माँ से नहीं मिलवा पाई थी. उसने मन ही मन में तय कर लिया अब वह किसी भी सूरत में नौकरी नहीं करेगी. अपने बच्चे का लालन-पालन ख़ुद करेगी, दूसरी सूरत में वह विदेश को तज कर अपने वतन भारत लौटेगी, जहाँ की मिट्टी उसे अपने आलिंगन में लेने को आतुर थी.
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उसी निगोड़ी नौकरी के लिए वह अपने नन्हे बच्चे को सुबह 8:00 बजे से शाम छः बजे तक ‘डे केयर’ में छोड़ देती, जहाँ उसकी देखभाल के लिए हफ्ते के $300 भर रही है. बावजूद इसके सोमवार से शुक्रवार तक हर रोज़ नियमानुसार 7-30 बजे बच्चे को तैयार करना, मौसम के हिसाब से कपड़े पहनाना, दिन तमाम के लिए ज़रूरी सामान, खाना जूस, खिलौने, बदलने के लिए कपड़े, सभी कुछ एक बास्केट में भरकर, कार में रखने के बाद वह खुद तैयार होकर फिर बच्चे को क्रिब से उठाती. ममत्व चाहता कि बच्चा कुछ पल और सो ले, पर मजबूरी का पालन करते हुए बच्चे को उठाकर जैसे-तैसे उसे साफ कर, पाउडर लगाकर कपड़े बदलती, एक बोतल दूध की लेकर उसे कार-सीट में बिठाती. गर्मी हो या सर्दी, बरसात हो या बर्फ़, यह सिलसिला तीन माह से शुरू हुआ है. तीन माह तो मैटरनिटी लीव रही, चार माह से दोनों पति-पत्नी ने मिल बाँट कर सुबह शाम जवाबदारी ले ली. एक सुबह काम पर तो दूसरा रात की ड्यूटी. और इसी जागने और सोने की कशमकश ने दोनों अक्सर सवालों जवाबों की क़तर में उलझे रहते.
अपनी नादानी पर शर्मिंदा होते हुए वह महसूस करती कि 1500$ कमाते हुए भी वह अपने अधूरेपन के अहसास को खुद से अलग नहीं कर पा रही है. न पूर्ण रूप से माँ बन पाई है और न ही एक अच्छी शिक्षिका. कारण उसका अपना बँटवारा-अपने बच्चे और शिक्षा पाने वाले बच्चों के बीच. एक विध्यापीठ में शिक्षिका थी वह.
बच्चे को गोद में उठाकर डे-केयर पहुँचते ही, भीतर जाकर, इंचार्ज के हाथों में अपना बच्चा सुपुर्द करती, और साथ में उसके जरूरत के सभी सामान उसे देते हुए बच्चे का चुम्बन लेकर अपने काम पर चली जाती. पर उसका मन वहीं कहीं, बच्चे के आस पास मंडराता रहता, भटकता रहता. शाम ६. 00 बजे लौटते समय भी यही सिलसिला, बच्चे को लेना, उसकी चीजों को समेटना, संभाल कर उठाना, कभी बेटा सोया होता, तो कभी जागा हुआ, कभी हंसता तो कभी रोता हुआ. इन सभी चुनौतियों से उसे अकेले ही जूझना पड़ता. अब यह सिलसिलेवार नियमित स्थिति उसे नागवार सी गुज़रने लगी. माँ की ममता उमड़ती तो थी, पर वह अपना प्यार छलकाए तो किस पर? दिल तमाम बच्चा औरों के हवाले, और दूसरों के बच्चे उसके हवाले. स्कूल के बच्चों को पढ़ाते उसकी आंखों के सामने अपना बेटा राहुल आ जाता- कभी डे केयर के झूले में पड़ा हुआ, कभी रोता हुआ, कभी बिलखता हुआ. वह बस सोचती रहती, क्या सोलह नन्हें मासूम बच्चों को केवल दो औरतें संभाल पाती होंगी? उन्हें छाती से लगाकर, लोरी गाकर सुना पाती होंगी? यह सम्भव नहीं था.
एडमिशन लेने के बाद, डे-केयर के नियमानुसार पहले तीन दिन माँ या बाप का बच्चे के साथ रहना लाज़मी था, ताकि बच्चा माँ के आंचल या पिता के आगोश में रहते हुए विद्यालय के आंगन के स्पर्श की पहचान पा सके.
यक़ीनन माधुरी का अपना समय जैसे सिमटने लगा. एक घंटा पहले और एक घंटा ऑफिस के बाद डे केयर से घर आने जाने में लगता. घर पहुंचते ही पहले रसोई घर जाना, एक भाजी, चावल, या चपाती बनाना, फिर बच्चे को गर्म पानी से नहलाना, पाउडर लगाकर साफ सुथरे कपड़े पहनाना और तब कहीं जाकर वह पलंग पर बैठ कर उसे गोद में लेकर, छाती के दूध की बजाय बोतल का दूध पिलाते हुए उसकी ओर देख देख कर मुस्कुराने की नाकाम कोशिश करती.
जब बच्चा पैदा हुआ, तीन माह वह घर में थी, खुश थी. बच्चे के साथ समय बिताते, अपनी ममता लुटाने और उसकी देखभाल करते हुए आनंदित होती, पर जबसे काम पर लौटने के दिन आए, हंसी तो जैसे उसे अलविदा कह गई. कभी-कभी उसका मन बागी बन जाता. क्यों बच्चे के लालन पालन में, उसकी सार संभाल करने में, सिर्फ माँ का योगदान हो? क्या पिता का योगदान सिर्फ़ उसकी उत्पत्ति और नाम के साथ जुड़ा हुआ है. माँ की कोख में पनपने वाले नाज़ुक कोंपल को प्यार से सींचना क्या फकत माँ का फ़र्ज़ है? क्या पिता सिर्फ घर का मालिक होता है, वह जो चाहे करे, जो फैसला करे वही हुकुम बन जाये.
इसी विचारधारा पर पहले भी कई बार उन दोनों में वाद-विवाद हुआ है. माधुरी अपने पति मनजीत से हमेशा ही हार जाती, बस थकी-हारी हुई मात्र एक गृहणी, एक मां होकर रह जाती.
‘ तुम नौकरी छोड़ोगी तो यह गाड़ी कैसे चलेगी? घर का किराया, दो गाड़ियों का प्रीमियम, हेल्थ इंशुरंस का प्रीमियम, बच्चे का 300$ मिलाकर 700-800$ खर्चा होता है. कम से कम उसके बाद 700$ तो बचते हैं. अगर यह आमदनी न होगी तो क्या एक के वेतन से इस घर की गाड़ी चल पाएगी? ‘ तीन लोगों का गुज़ारा हो पायेगा?’
‘पर मैं ऐसी बंटी हुई जिंदगी कब तक गुजारूंगी मनजीत?’ माधुरी गुस्से में पूछ बैठती.
‘ क्या मतलब! मैं कुछ भी नहीं करता? तुम्हारी तरह सुबह 8:30 बजे घर से निकलता हूँ और रात को 9:00 बजे घर लौटता हूँ. पर यहाँ भी एक पल सुकून का नसीब नहीं होता. तुमने कभी सोचा है कि मैं कैसे खुद को मार कर जीता हूँ. अपनी तमन्नाओं का गला घोंट घोंट कर बेहसस होता जा रहा हूँ.’
‘मनजीत यह तो तुम्हारा अपना फैसला था, कि हम यहां आकर स्थापित हो जाएँ. मुझे तो ऐसा लगता है कि हम अपने वतन से, अपनों से दूर, यह जिंदगी तो नहीं पर उसकी सज़ा ज़रूर भुगत रहे हैं. बच्चे को सर्दी हो या बुखार, खांसी हो या जुलाब, उसे ‘डे केयर’ तो छोड़ना ही है, क्योंकि मुझे काम पर हाज़िर होना है. हिंदुस्तान में तो लोग अपने बच्चों को पालने में झूला झुलाकर, लोरियां गाकर सुलाते हैं. वहां दादा-दादी, नाना-नानी अपनी पोते पोतियों को लाड़ प्यार से पुचकार कर खिलाते-पिलाते हैं, कहानियां सुनाकर उनका मनोरंजन करते हैं. पर यहां तो हमारे सिवा राहुल का कोई भी नहीं? हम दोनों भी अपने-अपने काम पर होते हैं और राहुल औरों के हवाले. मुझे पांच साल तक की मोहलत चाहिए कि मैं अपने बच्चे की परवरिश करूं, प्यार के पानी से सींचूँ, उसपर अपनी ममता निछावर करूं, उसकी तोतली बोली सुनूं , उसके मुस्कुराते चेहरे को देख कर मुस्कुराऊं. यह सब क्या होता है यह तो मेरे लिए जैसे सपना सा हो गया है.’
‘यह तो है, पर जब वह कुछ बड़ा होगा, तो हम कुछ करने की स्थिति में हो सकते हैं. अभी तो गृहस्त की ज़रूरतें हमारी प्राथमिकता है जिसके लिए हम दोनों का काम करना निहायत ज़रूरी है.’ कहकर मनजीत जैसे किसी सोच में पड़ गया.
‘हम बच्चे को प्यार और समय अब नहीं दे पाते है, तो बड़ा होकर ऐसी महदूद परवरिश के एवज़ वह खिलने से वंचित हो जायेगा. और मैं भी खुद को अधूरा महसूस करने लगी हूँ. मनजीत, मुझे लगता है कि मैं नौकरी छोड़ कर इस मासूम बच्चे का लालन पालन खुद करूं, शायद मेरे प्यासी ममता को कुछ राहत मिले, और हमारा बच्चा भी प्यार से पल जाये.’
‘ मैं सब कुछ समझ रहा हूँ माधुरी, पर….’ अभी मनजीत इतना कहा ही कह पाया था कि माधुरी ने कहा- ’मनमीत हमारा यह ग्रहस्त जीवन अगर प्यार और विश्वास की बुनियाद पर मुकम्मल नहीं बना, तो हम साथ होते हुए भी साथ न होंगे. दिल में दरारें अपना स्थान बना लेंगीं. दिलों में दूरियां आती रहेंगी. क्या तुम चाहते हो कि हम अपने इस संसार की स्थापना निराशाओं पर रखें? तुम तीन साल अकेले नौकरी करो, फिर चाहे मेरी कार बेच दो, भले ही घर छोटा ले…. लो… मैं घर में बैठकर कुछ कर पाई तो जरूर करूंगी, पर यह मौका जो मुझे मिला है उसमें मुझे तुम्हारा सहयोग चाहिए ताकि मैं बच्चे को अपन प्यार दुलार दे पाऊँ, उसमें इंसानियत के बीज बो पाऊँ, उसके बड़ा होने तक उसकी पहचान की बुनियाद रख पाऊँ. आज अगर हम बच्चों के बचपन के साथी बनेंगे तो बड़ा होकर वह हमारे बुढ़ापे के साथी बनेगा. ये रिश्ते नहीं, हृदय के रेशे है, खींचातानी से टूटने लगेंगे. मनजीत प्लीज मुझे समझने की कोशिश करो. मैं इस पहली तारीख को इस्तीफा देना चाहती हूँ, और अगर तुम्हें यह बात बिल्कुल भी मंजूर नहीं है, तो फिर मैं एक फैसला करूंगी. मैं इस बच्चे के साथ हिंदुस्तान चली जाऊंगी.’ यह सब कहते हुए माधुरी की आंखों में आंसू झर झर बह आये.
मनजीत चुप था, बिलकुल चुप. बात उसके दिल तक दस्तक दे गई. सच ही तो है जब वह अपनी माँ से खुद दो-तीन साल बाद मिलने हिंदुस्तान जाता है, तो वह महसूस करता है कि माँ उसकी ओर निहारते नहीं थकती, उसकी बलाएं लेते लेते अश्रु धारा में नहा जाती, और जब अमेरिका लौटने के दिन पास आते तो कैसे वह घायल पंछी की तरह अपने विछोह की पीढ़ा अपने भीतर ज़ब्त कर लेती.
मनजीत माधुरी की सोच और दृढ़ निर्णय को सुनकर चुप हो गया. उसने अपनी माँ के दिल को तोड़ा था और अब अपने बेटे की माँ का दिल नहीं तोड़ सकता. आखिर मौन को तोड़ते हुए मनजीत ने कहा-’ माधुरी, सच कह रही हो तुम, चलो यह पराया मुल्क छोड़ कर, ग़ैरों को छोड़कर, अपनों के पास अपने वतन चलते हैं. अपने बच्चे को हमारे प्यार की ज़रूरत है, हम दोनों को एक दूसरे के प्यार और साथ की आवश्यकता है. चलो आशाओं की डोर पकड़कर हम आगे बढ़े, जहां खुशी मुस्कुराकर हमारा स्वागत करने को आतुर है. तुम्हारी माँ और मेरी माँ की फैली हुई बाहें राहुल को अपने आंचल में ले लेंगी और हम एक-दूसरे के सहयोगी बनकर इस घर संसार को एक नया स्वरूप देंगे, जहां खुशियों की बारिशें होंगी और नए सुमन महकेंगे.’
सुखद फ़ैसले पर सुलह हुई. दिलों में अमन का एक नया कोंपल अंकुरित होने की आशा लिए, वतन की जड़ों में रोपे जाने की चाह के साथ उड़ान भर रहा था.
देवी नागरानी
जन्म: 1941 कराची, सिंध (तब भारत), 12 ग़ज़ल-व काव्य-संग्रह, 2 भजन-संग्रह, 12 सिंधी से हिंदी अनुदित कहानी-संग्रह प्रकाशित। सिंधी, हिन्दी, तथा अंग्रेज़ी में समान अधिकार लेखन, हिन्दी- सिंधी में परस्पर अनुवाद। श्री मोदी के काव्य संग्रह, चौथी कूट (साहित्य अकादमी प्रकाशन), अत्तिया दाऊद, व् रूमी का सिंधी अनुवाद. NJ, NY, OSLO, तमिलनाडू, कर्नाटक-धारवाड़, रायपुर, जोधपुर, केरल व अन्य संस्थाओं से सम्मानित। डॉ. अमृता प्रीतम अवार्ड, व् मीर अली मीर पुरूस्कार, राष्ट्रीय सिंधी विकास परिषद व् महाराष्ट्र सिन्धी साहित्य अकादमी से पुरुसकृत। सिन्धी से हिंदी अनुदित कहानियों को सुनें @ https://nangranidevi.blogspot.com/
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