गौरा पन्त ‘शिवानी’ को याद करते हुए-विजय कुमार मल्होत्रा

आज हिंदी की लोकप्रिय लेखिका शिवानी की 98 वीं जयंती है। अगले साल से उनकी जन्मशती मनाने का सिलसिला शुरू हो जाएगा। साठ और सत्तर के दशकों में जिन लोगों का बावस्ता पठन – पाठन से रहा वे शिवानी के लेखन और उनसे अवश्य ही परिचित रहे बल्कि यूँ कहिये वे घर-घर में जानी और पढ़ी जाती थी।लोग उनकी रचनाओं का बेसब्री से इंतज़ार करते थे लेकिन गत 30 वर्षों में शिवानी क्यों विस्मृत हो गईं, क्यों उनकी कहीँ कोई चर्चा नहीं। यह सवाल मन मे घुमड़ता रहता है।क्या वह हिंदी की मुख्यधारा में कभी शामिल ही नहीं की गईं ? क्या हिंदी के शीर्ष आलोचकों ने उनकी उपेक्षा की ? हिंदी में एक तरह की चुप्पी है उनको लेकर ।आइए आज उस चुप्पी को तोड़ते हैं । और उनके जन्मदिन पर अपने – अपने अन्दाज़ में अपनी प्रिय लेखिका को याद करते हैं ।
यद्यपि शिवानी किसी परिचय की मोहताज तो नहीं फिर भी उनका संक्षिप्त परिचय जान लेते हैं । 17 अक्तूबर 1923 को, ठीक विजय दशमी के दिन गौरा पंत यानी शिवानी का जन्म राजकोट, गुजरात में हुआ । उनके पिता श्री अश्विनी कुमार पाण्डे एक राजकोट के ही कॉलेज में प्रधानाचार्य थे । उनके माता – पिता दोनों ही कई भाषाओं के ज्ञाता विद्वान और संगीत प्रेमी थे । साहित्य और संगीत के प्रति शिवानी की समझ और लगाव अपने माता – पिता से आनुवंशिक रूप से आए । शिवानी के पितामह संस्कृत के प्रकाण्ड विद्वान थे । वे बनारस हिंदू विश्वविद्यालय में धर्मोपदेशक थे और विचारों से कट्टर सनातनी । उनकी मदन मोहन मालवीय जी से अंतरंग मैत्री थी । वे अधिकांशतः अल्मोड़ा और बनारस में ही रहे । शिवानी भी अपने भाई – बहनों के साथ उनके सानिध्य में पली – बढ़ीं, और उनसे उत्तम संस्कार पाए ।
शिवानी की प्रारम्भिक शिक्षा राजकोट और उसके आस-पास ही हुई । मदन मोहन मालवीय जी के परामर्श के कारण शिवानी को शिक्षा के लिए शांति निकेतन भेजा गया था । जहाँ शिक्षा लेते हुए शिवानी की किशोरावस्था बीती । उसके बाद उनका विवाह हो गया और वे अपने शिक्षाविद पति के साथ उत्तर प्रदेश के कई स्थानों पर रहीं । दुर्भाग्यवश उनके पति का असामयिक निधन हो गया । जिसके बाद वे लम्बे समय तक लखनऊ में रहीं । फिर वे अपनी बेटियों के साथ दिल्ली और अपने पुत्र के साथ अमरीका में भी रहीं ।
शिवानी जब पैदा हुईं तो वे शिवानी नहीं थीं । यह नाम उन्हें एक टाइटल के रूप में मिला । उनके माता – पिता ने उन्हें गौरा पंत नाम दिया था । नन्हीं गौरा पंत जैसे लेखन का जन्मजात गुण, या कोई उपहार लेकर जन्मी थीं । दूसरों की भावनाओं को अपनी कल्पना शक्ति, अनुभूति और अपने शब्दों की शक्ति से साकार कर देने का उपहार । यदि वे अपनी इस विशेषता के साथ ना जन्मी होतीं तो बारह बरस की अबोध आयु में एक ऐसी कहानी ना लिख पाई होतीं, जिसे अल्मोड़ा से प्रकाशित होने वाली बालपत्रिका “नटखट” में प्रकाशित भी किया जा सकता । उन्होंने अपना लेखन गद्य रूप में ही अपनाया । उनके कहानी और उपन्यास हिंदी साहित्य के लिए बहुत महत्वपूर्ण साबित हुए हैं । साठ और सत्तर के दशक में, इनकी लिखी कहानियाँ और उपन्यास हिन्दी पाठकों के बीच अत्यधिक लोकप्रिय हुए और आज भी उनके पाठकों की कमी नहीं । शिवानी ने पर्वतीय समाज का वर्णन बहुत गम्भीरता और प्रतिबद्धता से किया और पर्वतीय क्षेत्र से जुड़े उनके यात्रा वृत्तांत बेहद रोचक हैं ।
साहित्य को शिवानी का योगदान
हिंदी साहित्य जगत में शिवानी एक ऐसी लेखक रहीं, जिनकी हिंदी, संस्कृत, गुजराती, बंगाली, उर्दू तथा अंग्रेजी पर अच्छी पकड़ रही। शिवानी अपनी कृतियों में उत्तर भारत के कुमाऊँ क्षेत्र के आसपास की लोक-संस्कृति की झलक दिखलाने और पात्रों के बेमिसाल चरित्र चित्रण करने के लिए जानी गई। उन्होंने अपनी रचनाओं में कुमाऊँ की तमाम शब्दावली और लोकभाषा का बहुत ही सुंदरता और सहजता से प्रयोग किया है । इस तरह उनका आंचलिक लेखन पाठक के मन को मंत्रमुग्ध कर देने वाला है ।
महज 12 वर्ष की आयु में पहली कहानी प्रकाशित होने से लेकर 21 मार्च 2003 को उनके निधन तक वे लेखन में निरंतर सक्रिय रहीं । उनकी दृष्टि स्त्री के दुःख दर्दों के आस – पास आकर अधिक ठहरती थी, यही कारण था कि उनकी अधिकांश कहानियाँ और उपन्यास स्त्री प्रधान रहे हैं । उन्होंने अपनी कृतियों में नायिका के सौंदर्य और उसके चरित्र का वर्णन बहुत ही रोचक ढंग से किया है।
उनके शांतिनिकेतन प्रवास के दौरान उनकी रचनाएँ स्कूल कॉलेज की पत्रिकाओं में बंगला भाषा में निरंतर प्रकाशित होती रहीं । गुरुदेव रवींद्र नाथ टैगौर उन्हें गौरा पुकारते थे एक बार उन्होंने परामर्श के तौर पर गौरा से कहा कि उन्हें अपनी मातृ भाषा में अवश्य ही लिखना चाहिए । गुरुदेव का परामर्श मान कर गौरा पंत शिवानी ने अपने लेखन का माध्यम हिंदी को चुना ।
जैसा कि पहले कहा गया कि उनकी पहली रचना मात्र बारह वर्ष की अवस्था में प्रकाशित हुई, उसके बाद उनकी पहली लघु रचना “मैं मुर्ग़ा हूँ” 1951 में धर्मयुग में प्रकाशित हुई थी । उसके बाद उनकी कहानी “लाल हवेली” । और फिर चला उनके जीवन के अंत तक उनके लेखन का अनवरत सिलसिला । उन्होंने उपन्यास, कहानी, व्यक्तिचित्र,संस्मरण, बाल उपन्यास, यात्रा वृत्तांत आदि लिखे । इन सबके अतिरिक्त उन्होंने लखनऊ से प्रकाशित पत्र “स्वतंत्र भारत” के लिए “वातायन” नाम से एक स्तम्भ भी लिखा जो कि तत्कालीन समय में काफ़ी चर्चित भी रहा । शिवानी सामाजिक मेल – मिलाप में भी बहुत सहज थीं । उनके आवास पर सदा मिलने वालों का ताँता लगा रहता था ।
कई तत्कालीन पुरुष लेखकों की तरह कहानी के क्षेत्र में पाठकों और लेखकों की रुचि निर्मित करने तथा कहानी को केंद्रीय विधा के रूप में विकसित करने में शिवानी का बहुत बड़ा योगदान रहा है । उनकी रचनाओं को पढ़ने के लिए तब भी लोगों में जिज्ञासा पैदा होती थी और आज भी काफ़ी मात्रा में उनके पाठक उन्हें पढ़ने के जिज्ञासु हैं । उनका लेखन उदारवादिता और परम्परा का कुशल मिश्रण सरीखा है । उनकी भाषा शैली बहुत सधी हुई है । उनकी भाषा संस्कृत निष्ठ शुद्ध भाषा है और कहने की सहजता के कारण पाठक का उनके लेखन के आकर्षण से छूट पाना काफ़ी कठिन होता है ।उन्होंने अपनी कृतियों में तत्कालीन यथार्थ को बिना किसी हर – फेर के, जस का तस स्वीकारा । शिवानी अपनी कृतियों में पात्रों का चरित्र चित्रण बड़े रोचक और सधे हुए अन्दाज़ में करती दिखाई देती हैं । उनकी भाषा किसी चरित्र को कुछ इस तरह प्रस्तुत करती है कि पाठक के सामने उसका सजीव चित्र उभरता चला जाता है । शिवानी ने अपनी रचनाओं में पात्रों का मानसिक द्वंद्व बड़ी कुशलता से दिखाया है ।
जब उनके उपन्यास कृष्णकली का धर्मयुग में धारावाहिक प्रकाशन हो रहा तो हर जगह उसकी चर्चा हुई । उनके इस उपन्यास ने उन्हें एक सशक्त लेखक की पहचान दी । उनके कई उपन्यास अद्भुत हैं, उपन्यास ही क्यों उनकी कहानियाँ भी भुलाई ना जा सकने वाली हैं । वे पाठक के चित्त में बस कर रह जाती हैं । शिवानी काफी सहज और सादगी से भरी थीं।
उनकी महत्वपूर्ण रचनाएँ
हालाँकि उन्होंने विपुल साहित्य सृजन किया है परंतु हर लेखक की तरह उनकी लिखी कुछ महत्वपूर्ण कृृृृतियों ने उन्हें आसमान की ऊँचाइयों पर पहुँचा दिया । लेखक की जिन भी रचनाओं से पाठक खुद को जोड़ने लगता है, रचना के पात्रों में खुद को देखने लगता वे उसे विशिष्ट प्रसिद्धि प्रदान करती चलती हैं । उनकी ऐसी ही कुछ रचनाएँ हैं, कृष्णकली,भैरवी, कालिन्दी,चल खुसरो घर आपने, भिक्षुणी, शमशान चम्पा, चौदह फेरे, अतिथि, पूतों वाली, मायापुरी, कैंजा, गेंदा, स्वयंसिद्धा, विषकन्या, रति विलाप, आमादेेर शान्तिनिकेतन, विषकन्या, झरोखा, मृण्माला की हँसी,विप्रलब्धा,पुष्पहार,विषकन्या, चार दिन, करिये छिमा, लाल हवेली,चील गाड़ी, मधुयामिनी आदि ।
उन्होंने सामाजिक स्थितियाँ, मानसिक द्वंद्व और परम्परागत कुप्रथाओं को, जैसे सती प्रथा आदि को अपने लेखन में महत्वपूर्ण स्थान दिया, कहीं उन पर कटाक्ष किया और कहीं उन पर सीधा, कठोर प्रहार किया । तत्कालीन समाज की दिखावटी प्रवृत्ति का मूल्यांकन भी उन्होंने अपनी कहानियों में खूब किया है । समाज का शायद ही कोई पहलू होगा जिसपर उनकी क़लम नहीं चली ।

पर्वतीय यात्राएँ उनके लेखन का महत्वपूर्ण हिस्सा रही हैं । वे जैसे कुमाऊँ अंचल की प्रतिनिधि लेखक हैं । कुमाऊँ अंचल के लोगों की मनोभावनाएँ और व्यक्तिगत अनुभवों को उनकी क़लम ने बहुत गहराई और गम्भीरता के साथ उकेरा है । साथ ही तत्कालीन समाज की आर्थिक, राजनैतिक, सामाजिक समस्याओं का मूल्यांकन भी उन्होंने बड़ी ही कुशलता से किया है । उन्होंने विशेषकर स्त्री की समस्याओं को बहुत गहराई से उकेरा है । उसमें चाहे वे धनी स्त्रियाँ रहीं या निर्धन , शिक्षित या अशिक्षित, सभी तबकों की स्त्रियों की समस्याओं, पीड़ाओं और दुविधाओं को उन्होंने समानता पूर्वक कहा है । स्त्रीगत स्वानुभूतियों के कारण, उनकी सहानुभूति सकल स्त्री समाज के साथ रही है । इस तरह वे स्त्रियों के साथ बहनापा निभाती चलती हैं ।
उन्होंने अपने संस्मरण भी लेखनीबद्ध किये ,आमादेर शांति निकेतन, स्मृति कलश, एक थी राम रति,मरण सागर पारे, काल के हस्ताक्षर जालक आदि । उन्होंने चरैवेति, यात्रिक आदि यात्रा वृत्तांत भी लिखे जो बहुत रोचक हैं । सुनहुँ तात यह अकथ कहानी, तथा सोने दे उनके आत्मवृत्तात्मक आख्यान हैं । जिसे उन्होंने बहुत सच्चाई और ईमानदारी से लिखा है । स्पष्ट है कि शिवानी हिंदी साहित्य की एक बेजोड़ महत्वपूर्ण और एक बहुमुखी प्रतिभा सम्पन्न लेखिका रही हैं।

वे राज्य सभा की मनोनीत सदस्य भी रहीं और 1982 में उन्हें “पद्मश्री” से अलंकृत किया गया । 21 मार्च 2003 को उनासी वर्ष की अवस्था में गौरा पंत शिवानी ब्रह्मलीन हो गईं । परंन्तु इस बीच उन्होंने हिंदी साहित्य को जो कुछ सौंपा है उसके बल पर वे हिंदी साहित्य में सैकड़ों – हज़ारों बरस जीवित रहेंगी वो भी अपनी पूर्ण आभा के साथ ।

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उनकी लिखी कहानी “लाल हवेली” के विषय में

शिवानी की लाल हवेली मेरी पसंदीदा कहानी है । 1947 का भारत विभाजन भारत की ही नहीं, विश्व भर की एक भयानक त्रासद घटनाओं में से एक सिद्ध हुआ । जिसमें आम जनता ने अत्यधिक यातनाएँ झेलीं, विशेषकर स्त्रियों ने । कोई युद्ध हो या विभाजन क्रूरतम यातनाएँ हथभागिनी स्त्रियों के हिस्से में ही आती हैं, वही होती हैं शत्रु पक्ष की आसान शिकार । शिवानी की यह कहानी लाल हवेली विभाजन की त्रासदी झेलती ऐसी ही एक स्त्री की कहानी है ।

कहानी, लाल हवेली, संक्षेप में

यह भारत के विभाजन के समय की कहानी है, जिसकी नायिका ताहिरा है । ताहिरा दरअसल एक सुखी विवाहित जीवन व्यतीत करती हिंदू लड़की सुधा है जो अपने मामा की लड़की की शादी में मुल्तान गई और वहाँ विभाजन की अफ़रा – तफ़री में फँस गई । वहाँ एक मुस्लिम युवक “रहमान अली”, जिसकी अपनी पत्नी दिल्ली में दंगों की भेंट चढ़ गई है, उसे ना सिर्फ़ बचाता है बल्कि उसे अपनी पत्नी भी बनाता है और उससे बहुत प्रेम भी करने लगता है ।अब वह सुधा नहीं रहमान अली की पत्नी ताहिरा है, जो उसकी एक किशोरी बेटी की माँ भी है । रहमान अली पंद्रह बरस बाद सपरिवार तीन दिनों के लिए एक आयोजन में सम्मिलित होने भारत आया है । यह भारत का वही शहर है जहाँ सुधा की पहली ससुराल थी और जहाँ उसका पहला पति रहता है । जिस घर में वह ठहरी है वह घर “लाल हवेली” यानी उसके पहले पति के घर के बिल्कुल पास है । वहाँ वह क्या अनुभव करती है यही विशेष है । लाल हवेली शिवानी की महत्वपूर्ण और मार्मिक कहानियों में से एक है । मैंने यह कहानी बहुत पहले पढ़ी थी परंतु मैं आज तक इसे भुला नहीं सकी हूँ ।
विश्व की सबसे रक्तरंजित और दुर्भाग्यपूर्ण घटनाओं में से एक, 1947 के भारत विभाजन में असंख्य लोग मारे गए, असंख्य विक्षिप्त हुए, असंख्य लोगों से उनके घर – परिवार और उनकी, मातृभूमि छिन गई । वे दर – दर की ठोकरें खाने के लिए विवश हो गए । कुछ ऐसे भी थे जो मृत्यु के मुहाने पर पहुँच तो गए थे पर किसी ने मसीहा बनकर उन्हें बचा लिया । ऐसी ही लड़की थी सुधा । सुधा मुल्तान में विभाजन की त्रासदी की भेंट चढ़ने ही वाली थी कि,
यूँ विभाजन की अफ़रा – तफ़री ने आदमी को आदमी छोड़ा ही कहाँ था पर शिवानी की नज़र में थी वहाँ कोई मनुष्यता भी अवश्य ही, किसी कोने में खड़ी अदृश्य सी, चुपचाप साँस भरती ।मुल्तान आई सुधा के लिए वह एक मुस्लिम युवक रहमान अली के रूप में खड़ी थी और उसके द्वारा सुधा बचा भी ली गई । इस तरह सुधा का शरीर तो मरने से बच गया परंतु क्या वह स्वयं जीवित बची थी ? क़तई नहीं सुधा को तो मरना ही पड़ा । सुधा की मृत्यु के साथ ही उसे शरीर बदले बिना ही, एक नया जीवन मिला था, जिसमें उसे ताहिरा का किरदार निभाना था । रहमान अली ने ना केवल सुधा के जीवन को बचाया बल्कि उसने सुधा को अपनी पत्नी बनाया और मोहब्बत भी की वह भी दिल की गहराइयों से, बेशक़ीमती मोहब्बत । पर क्या वे और ऐसे सुहृद रहमान अली अपने सच्चे प्रेम और समर्पण से भी अपनी – अपनी ताहिराओं के मन पर छपी उनके अतीत की चित्रकारी को कभी मिटा भी पाए । नहीं बिल्कुल भी तो नहीं । यही बताती है शिवानी की यह कहानी “लाल हवेली” ।

उफ़ ! कैसी असीम वेदना कि नायिका निकाह के पंद्रह बरस बाद, मात्र तीन दिनों के लिए अपने पति रहमान अली के मामा के इकलौते बेटे के विवाह आयोजन में सम्मिलित होने, अपने प्यारे देश हिंदुस्तान आई है । वह जानती है कि यह उसके पूर्व पति का शहर है । वह चाहती तो भारत ना आने का कोई बहाना भी बना सकती थी । परंतु उसके अवचेतन मन में कहीं गहरी दबी, अपने अतीत को बस एक बार पुनर्जीवित कर लेने की प्रबल चाह ने, उसे ऐसा नहीं करने दिया ।

ट्रेन से उतरकर रेलवे स्टेशन पर वह देखती है कि अभी तक वह स्थान उसकी स्मृति में बसा है, ज़रा भी तो परिवर्तित नहीं हुआ है । कनेर का पेड़ भी जस का तस खड़ा है इतने बरसों से । चाहे जितने भी बरस उसे ताहिरा बने बीत गए पर वह यहाँ आकर पुरानी अनुभूतियों में डूबकर सुधा में परिवर्तित होती चली जा रही है । पति रहमान अली द्वारा बेतहाशा मोहब्बत किए जाने के बावजूद अपने पूर्व पति को एक नज़र देख लेने की चाह उसमें ऐसे जागृत हो गई है जैसे मृत्यु के मुहाने पर खड़े किसी व्यक्ति में दीर्घायु की चाह जाग उठे ।वह उस देव सरीखे इंसान को बस एक नज़र देख लेना चाहती है जिसने उसके बाद ब्याह न करके एक वैराग्य धारण कर लिया है ।
वह खुद तो उन्हें देखना चाहती है पर बिल्वेश्वर महादेव से प्रार्थना करती है कि वे उसे ना देखें।पूर्व पति से अथाह प्रेम के कारण ही वह उनके शांत जीवन को अशांत नहीं करना चाहती । थोड़ा बहुत बुरा अतीत भी वर्तमान के मुक़ाबले बुरा नहीं लगता, वह तो सुखद होकर वर्तमान में आ धमकता है, फिर सुधा का अतीत तो अपने तरुण पति के साथ बहुत सुखद बीता था । सो उसे तो रह-रह कर उसके मन पर दस्तक देनी ही ठहरी ।

वह साहस करती है अपने पूर्व पति को बस एक नज़र देख लेने का । रहमान अली के साथ पंद्रह बरस बिताने और उसकी किशोरी बेटी की माँ बन जाने के बावजूद वह अपने पूर्व पति के साथ बिताई गई चंद रस भरी रात्रियाँ नहीं भुला सकी है । और जब वह पिछली सीढ़ियों से उन्हें देखने के लिए चढ़ रही है तो उसके मन – मन भर भारी हुए पैर पाठक के मन को सिहराते चलते हैं । हर सीढ़ी की चढ़ान के साथ सैयद वंश में जन्मे, उसके पति रहमान अली का अस्तित्व मिटता जा रहा है । सुधा के अंतःकरण में एक नज़र प्रिय को देख लेने का वह प्रेमिल राग और उसके भीतर तीव्रता से घटित होती अंतःक्रियाओं को शिवानी ने ऐसे दर्शाया है जैसे उन्होंने पाठक के सामने उसका स्पष्ट चित्र ही खींच कर रख दिया हो । नसें चटका देने वाली पीड़ा है, उमगती करुणा है जो ना केवल नायिका के अंतस में बल्कि खुद पाठक के मन में भी गहरे पैठती चली जाती है । जिन स्त्रियों ने यह सब सचमुच सहा होगा वे कितनी अभागी होंगी उनके विषय में सोचकर पाठक का रोम – रोम सिहर उठता है ।

अतीत में विभाजन द्वारा सुधा के सुख का लील लिया जाना उसके वर्तमान सुख को भस्म कर देने वाला है ।यही कारण है कि उसे हर तीज, होली, दीवाली उदास कर जाती हैं । उस समय ताहिरा के भीतर सुप्त पड़ी सुधा का अस्तित्व उभर आता है । ताहिरा होकर भी उसे ईद ज़रा भी ख़ुशी नहीं देती । कैसी विडम्बना है । इंसान अपनी जड़ों को कभी नहीं भूल पाता, अपनी जाति, अपना देश, अपने संस्कार कभी खुद से अलग नहीं कर पाता । यही शाश्वत सत्य शिवानी की यह कहानी दर्शाती है । सुधा को सभी सुखों में रहते हुए भी अपना प्यारा देश याद आता है । यदि वह पुरुष होती तो भी क्या उसे अपनी पहचान बदलनी होती, अपना धर्म अपने संस्कार बदलने होते ? हर्गिज़ नहीं । यह विडम्बना तो स्त्री होने का दंड है । सुधा को अपने पूर्व पति का दर्शन हो जाता है, वह इस मन्नत के बदले अपने वर्तमान प्रेमी पति रहमान अली की दी हुई अपनी हीरे की अंगूठी बिल्वेश्वर महादेव को अर्पित कर आती है । रहमान को बताती है कि अंगूठी ना जाने कहाँ गिर गई । रहमान बिना किसी पश्चाताप, तेहरान से चौकोर हीरे की अंगूठी मँगाने के लिए ताहिरा को आश्वस्त करता है ।
सुधा ने त्रासदी जो भी झेली वह तो नियति का खेल था, परंतु यह सब होने के बावजूद, वह उतनी भाग्यहीन भी नहीं है क्योंकि उसे तो दोनों ही पतियों का असीम प्रेम मिला है और वह सभी सुख – सुविधाओं में रह कर जी रही है । इस तरह शिवानी की इस कहानी में कहीं एक भरी – पूरी सकारात्मकता सजगता के साथ खड़ी है ।

लाल हवेली की लाइट बंद हो जाने के साथ ही अंधकार छा जाता है और कहानी समाप्त हो जाती है । लाल हवेली पर छाया अंधकार सुधा नाम की चंचल लड़की को सदा के लिए खुद में समाहित कर लेता है । अंत में कहूँगी कि इस कहानी की तरह ही शिवानी का कथा संसार गहन मानवीय संवेदनाओं से भरा पड़ा है ।

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