अनवरत, अविश्राम यूरोप-यात्राः वन्दना मुकेश शर्मा

मोटरहोम, जैसा कि नाम से ही स्पष्ट है- चलता फिरता घर। अत्याधुनिक सुविधाओं से सुसज्जित, चलता फिरता घर। अपनी घर गृहस्थी साथ लेकर यात्रा। फैशन, किफायत और आनंद, सब साथ-साथ।
हमारी यूरोप-यात्रा मेरे पति महोदय के कॉलेज के प्रिय मित्रों के साथ होने वाली थी जो लगभग बत्तीस वर्षों बाद मिल रहे थे। मैं पति महोदय की तैयारी को देख कर सोच रही थी कि क्या राम और सीता जब वन गये होंगे तो क्या उन्होंने भी साथ में तरह-तरह का सामान बँधा होगा? क्या सीताजी रसोई पकाती होंगी? क्या कुछ खास मसाले ले गयी होंगी? काल्पनिक ही सही, चित्रों में तो कहीं दिखता ही नहीं कि वह कोई सामान लिये हैं…चौदह वर्ष
……और…. यहाँ…. चौदह दिनों की यूरोप यात्रा के लिये सुई धागे, तेल मसाले, ओढ़न- बिछावन, बीजना-बरसाती सभी कुछ लिया जा रहा है। एक मुसाफिर को इतना मोह करना चाहिये?
20 जून 2015 को हम चौदह लोग तीन कारों में ठसाठस सामान भर कर बरमिंघम, इंगलैंड से नॉर्थ वेल्स के ‘चर्क’ नामक स्थान के लिये निकल पड़े। वहाँ हमारा दल तीन मोटरहोमों में बँट गया। डॉ. मजुमदार के परिवार को छोड़कर हम सभी का मोटरहोम यात्रा का यह पहला अनुभव था। मोटर होम के अंदर सारा सामान उसमें स्थित छोटे- छोटे अलमारीनुमा खानों में रख दिया। हम 15 दिन के खाना खाने- बनाने-पकाने आदि के सभी समान से लैस थे।
चर्क से डोवर तक की लगभग 315 मील की यात्रा हम लोगों ने लगभग 6 घंटे में पूरी की जब हम चर्क से निकले डॉ. मजुमदार के निर्देशों का अपनी समझ से पूर्ण पालन करने के बाद भी जब मोटर होम चला तो खुलती अलमारियों से धड़ाधड़ गिरते सामान को हम असहाय से लपकने का प्रयास करते रहे। कहीं चम्मच तो कहीं गिलास, कहीं संतरे तो कहीं सेब। गाड़ी में हर तरफ से सामान की वर्षा हो रही थी। फिर मैंने जैसे-तैसे, सीट बेल्ट पकड़े –पकड़े, धीरे- धीरे एक –एक अलमारी बंद की। पहले गंतव्य पर डॉ. रमेश के मुँह से इस घटना का जो रोचक वर्णन सुना उसे सुन कर सभी के हँस-हँस कर पेट दुखने लगे।
रात को लगभग 10:30 बजे हम हाथोर्न नामक कैरेवान साइट पर पँहुचे, अँधेरा हो चुका था। डॉ. मजुमदार ने हमसे पहले वहाँ पँहुचकर तत्परता से गेट पर पँहुचकर उन्होंने गाड़ी नियत स्थान पर पार्क की। उन्हें कैरेवान यात्रा का अनुभव था। फिर गाड़ी में से बिजली की तार निकाल कर उसे वहाँ उपलब्ध बिजली के कनेक्शन से जोड़ा जिससे हमारी गाड़ी में एक बल्ब टिमटिमाने लगा। पास में ही थे, शीशे की तरह चमचमाते, कैंप साइट के सार्वजनिक स्वच्छता गृह। एक तरफ कपड़े धोने की मशीनें, बरतन साफ करने के सिंक और कपड़े धोने के लिए अलग सिंक बने थे और दूसरी तरफ पुरुषों और महिलाओं के लिये अलग- अलग शौचालय- स्नान गृह बने थे। सिंक के पास सूचनापट्ट पर लिखा था ‘अगले व्यक्ति के उपयोग के लिये इसे स्वच्छ रखें’।
वहाँ हम सब ने साथ लाये नारियल भात-बूंदी का रायता, पापड़ अचार आदि का भोजन किया और अपने-अपने मोटरहोम में सो गये। सुबह 6:20 पर डोवर फेरी पोर्ट पँहुचे जो एकदम पास ही था। वहाँ हम गाडियों में ही बैठे रहे और कब जहाज के भीतर प्रवेश कर गये, पता ही नहीं चला। वहाँ कारें तथा अन्य बड़े-बडे वाहन खड़े थे। वहाँ से लिफ्ट में सीधे नौवीं मंजिल पर । जाते ही हमने अपने पैक्ड लंच निकाले; बड़ी–बड़ी खिड़कियों से समुद्र देखते हुए परांठे, आलू-शिमला मिर्च की सब्जी का आनंद लिया गया। फिर हमने डेक पर फोटो खिंचवाए। फिर वहीँ ड्यूटी फ्री दुकान में समय व्यतीत किया। जल्दी ही हम ‘कैले’ फ्रांस पहुँच गए।
कैले से 250 मील लक्सेमबर्ग के निकट कॉकेलश्यर कैंपिंग साईट पर पँहुचने में लगभग छह घंटे का समय लगा। लघुशंका निवारण हेतु जब एक सर्विसेज़ 50 सेंट देने पड़े तो इस विषय पर काफी हँसी-मज़ाक हुआ।
गंतव्य पर पँहुचकर हमारे मोटर होम में लगे छज्जों को जब बाहर निकाला तो मन गुनगुना उठा, ‘ चार महीने बरखा पड़त है, टपटप बरसे पनिया बलम, जरा अंगना छवाई ला हां’ और लो तभी बारिश शुरु। लंबे-लंबे वृक्षों से घिरा यह स्थान भी पिछली कैंपिंग साइट की तरह सर्वसुविधायुक्त था। यहाँ का वातावरण अत्यंत सुरम्य था। गर्मियों में यूरोप में रात 10 बजे तक रोशनी रहती है। यह बात हमारे आनंद को दुगुना कर रही थी।
अगले दिन 9:30 पर हम कॉकेलश्यर से स्विट्ज़रलैंड के लिए रवाना हो गये। 350 मील पर हमारा अगला गंतव्य था। युंगफ्राउ पर्वत की श्वेत-श्याम चोटियों के मध्य तलहटी में बसे लॉटरब्रनेन गाँव में स्थित युंगफ्राउ कैंपिंग साइट में २२ जून की रात पँहुचकर ऐसा लगा कि परीलोक में पँहुच गए। मोटरहोम के निकट दुग्ध-धवल कल-कल बहता झरना। निरभ्र आकाश, असीम शांति। तन-मन तृप्त हो उठा।
सुबह डॅा देसुरकर ने सबके लिये छह दिन की यात्रा के टिकिट खरीदे। इसमें इंटरलेकन से ब्रिएंज़र्सी झील में तीन घंटे की नाव यात्रा और केबलकार यात्रा भी सम्मिलित थी। लॅाटरब्रनेन से इंटरलेकन ओस्ट तक ‘कॅाग ट्रेन’ से पँहुचे। ऐसा लगता था कि ट्रेन आसमान की ओर जा रही है। यह एक अद्भुत अनुभव था। इसी रेल से हम लगभग चार हजार फुट की ऊँचाई पर स्थित हार्डरकोल्म शिखर पर पहुँचे। वहाँ गहरी धुंध थी और भयानक ठंड । पर ज़मीन पर खड़े होकर भी चालीस-पचास फुट ऊँचे वृक्षों के सिरे छूने का सुख अद्भुत और विशिष्ट था।
नीचे आते ही धूप निकल आई तो हमें ठंड से राहत मिली और हमने ब्रियेनज़र्सी झील में तीन घंटे की सैर की। अगले दिन लॉटरब्रनेन से क्लाइन शिडेग गये और। वहाँ से दूसरी रेल से यूरोप के सर्वोच्च शिखर ‘युंगफ्राओ’। आयगर, मंख एवं युंगफ्राओ पर्वतों की चोटियाँ दिखने पर रेल धीमी हो गई फिर रेल में उन पर्वतों को देखने की उद्घोषणा हुई। युंगफ्राओ पर्वत का सर्वोच्च शिखर दूर से दिखाई देने पर हमने उसका भरपूर आनंद लिया। रेल में हमने रेल कर्मचारियों से यस, नो और थैंक यू के स्विस जर्मन भाषा के शब्द सीखे। या, नाय, मॅर्सी।

स्विस आल्प्स पर स्थित ४१५८ मीटर ऊँचा युंगफ्राउ पर्वत शिखर यूरोप का सर्वोच्च शिखर है। यहाँ ३४५४ मी की ऊँचाई तक ट्रेन जाती है। जब हम युंगफ्राउ पर्वत पर पँहुचे तो बर्फ की सफेदी से आँखें चौंधिया गईं। असंख्य पर्यटक। ऊँचाई और चमकीली बर्फ के कारण मुकेश जी को हायपॅाक्सेमिया हो गया। भयंकर माइग्रेन के कारण उनकी हालत बेहद खराब होने लगी। वे किसी तरह स्वयं को संभाले रहे। वहाँ से निकलकर हम बर्फ का महल देखने चले गए। बर्फ पर अद्भुत नक्काशी। लौटते हुए ट्रेन का टिकट जाँच करने वाली महिला ने एक-एक स्विस चॅाकलेट भी दी।

अगले दिन लाटरब्रनेन से ग्रशाल्प केबल कार द्वारा पँहुचे और फिर ग्रशाल्प से मुरेन नामक स्थान पर रेल से। बीच में लोग स्कीइंग के लिए प्रसिद्ध विंटरेग नाम का स्टेशन भी देखा। मुरेन में जगह-जगह पर्वतों से झरते पानी के प्याउ बने थे। लकड़ी के बेहद खूबसूरत घर । घरों के आगे लटकी भाँति- भाँति के रंगबिरंगे फूलों की डलियाँ। दूर-दूर तक हरे घास के मैदानों में घास चरती गायें। प्रकृति का ऐसा अछूता सौंदर्य, आँखें इस सौंदर्य को छकना चाहती हैं। सबसे अधिक आकर्षित करनेवाली बात थी जन सामान्य की स्वच्छता के प्रति सहज सजगता। ये ग्रामीण थे, कोई पढ़े-लिखे डिग्रीधारी लोग नहीं। इस गाँव में चलते-चलते हम एक टेकरी पर जा पँहुचे। वहीं हमने खाना खाया। वहाँ झूले भी थे। फिर वहाँ से लौटते में बड़ी केबल कार से मेनलिकेन होते हुए ग्रंड पँहुचना था और फिर वहाँ से ग्रिंडलवर्ल्ड।
इंटरलेकन में हमने अपने प्रियजनों के लिये छोटे- छोटे स्मृति चिह्न खरीदे। हम वहीं फुटपाथ पर बनी बेंचों पर बैठ कर बर्गर खाने लगे तो एक चिड़िया एकदम पास आकर फुदकने लगी। बेटी दिव्या ने उसे एक छोटा टुकड़ा दिया। उसने झट से चोंच में लपक लिया। दो तीन बार यह दोहराया गया। फिर वह उड़ गई। लेकिन थोड़ी ही देर में अपने परिवार-रिश्तेदारों को भी ले आईं। मजे से उन्होंने सहकुटुंब भोजन का आनंद लिया। एक यह गौरैया ही तो है जो हर देश में भारत की याद दिला देती हैं। न सिर्फ अपने रंग रूप से बल्कि अपनी पारिवारिक स्नेह की भावना से भी। यह बात और है कि पारिवारिक स्नेह की भावना को बाज़ारवाद खा गया।

स्विट्ज़रलैंड रंगबिरंगे सुंदर मौसमी फूलों से सजे घरों के दरवाजे खिड़कियाँ बहुत सुंदर लगे।। युंगफ्राओ कैंपिंग साइट में हमारी आखिरी रात। पर्वत की दो ऊँची चोटियों के बीच बर्फ से आच्छादित एक सफेद पर्वत शिखर और ठीक हमारे कैंपिंग साइट के ऊपर दिखता हमारी खुशियों का साक्षी बना नवमीं का चाँद। बगल में बहता चाँदी-सा झरना और रात की निस्तब्धता में उसका कल-कल स्वर। इस अद्भुत दृश्य को देखकर हम सभी मुग्ध थे। आनंद-रस में सराबोर।
सबसे छोटे देश लिश्टेंस्टाईन,फिर ऑस्ट्रिया होते हुए हम जर्मनी की तरफ बढ़ रहे थे। जर्मनी में कॉग्निसी नामक स्थान पर हमारी कैरेवान साईट का नाम था मुहलेटन। उस शाम हमारे शानदार पकवान बने।
अगले दिन हमें कॉनिग्सी नामक गाँव में झील में बोट ट्रिप पर जाना था, फिर दोपहर में वहाँ से ऑस्ट्रिया जाना था। सब लोगों ने मिलकर दोपहर का भोजन पैक किया और पैदल निकल पड़े कॉग्निसी । वहाँ सार्वजनिक दूरबीन में एक यूरो डालकर केल्स्टीन पर्वत की चोटी पर स्थित हिटलर का आरामगाह केल्स्टीनहाउस या ‘ईगल्स नेस्ट’ देखा।
कांस्टेंस झील में हमारी बोट धीमे-धीमे जा रही थी। झील के पानी को और भी गहरे रंग का करते हुए दोनों तरफ गगनचुंबी वृक्षाच्छादित पर्वतों के प्रतिबिंब। अद्भुत, सुरम्य, अहा! और उसमें एको पॅाइंट गूँजती ट्रंपेट की प्रतिध्वनि। सबकुछ एकदम कल्पनारम्य ! एकदम जादुई! प्रकृति के सौंदर्य में खोये-खोये से यहाँ से हम ‘ओबरसी’ नामक स्थान पर पँहुचे, जहाँ ‘ओबरसी’ झील है । चारों तरफ पर्वतों से घिरी प्राकृतिक सुषमा का अनंत कोषवाला यह स्थल स्वर्ग की कल्पना को साकार करता है।‘गिरा अनयन नयनु बिनु वाणी’ की’ अवस्था हो गई।
फिर जर्मनी—आस्ट्रिया सीमा के एक छोटे से दौरे पर गये। पैनोरमा टूअर्ज़ की टैक्सी ड्राइवर सोनिया के साथ हम जर्मनी—आस्ट्रिया की सीमा पर बसे गाँव ब्रेख्टेसगेडन पँहुचे। यह है बगीचों, बीअर और कैथलिक चर्चों का शहर। दूर से ही पर्वत पर बनी कैपचिन मानेस्ट्री भी देखी। क्वीनिक्सीआखेत नामक नदी की जगह पहले नमक की चट्टानें थीं। यहाँ चेस्टनट मेपल, ओक आदि के वृक्षों, जंगली लहसुन और मशरूम की बहुतायत है। वहाँ से साल्सआख्त तथा क्वीनिक्सीआखेत दो नदियों के बीच बसे शहर साल्सबर्ग पँहुचे। वहाँ होहेनसाल्सबर्ग नाम का किला, किसी कालखंड में संकट काल में ही काम आता था। श्लोस महल- स्थापत्य का अद्भुत नमूना और उसका खूबसूरत फूलोंवाला बगीचा । यह 1606 में राजकुमार वोल्फ डीट्रिच के कालखंड में बना, जिनके पास पैसा और सत्ता सब कुछ था। यहाँ पर प्रसिद्ध संगीतकार मात्ज़ार्ट का घर भी है जो अब म्यूज्यिम में तब्दील हो चुका है यहाँ का पारंपरिक व्यंजन है,कांदितोराइ; घर का बना केक और काफ़ी। यहाँ की प्रसिद्ध शनेप्स नामक शराब विशेष औषधीय गुणों के लिए जानी जाती है। जर्मनी में लड़कियों की पारंपरिक वेशभूषा है द्यंदल- जो एक प्रकार की स्कर्ट-ब्लाउज है।

‘चार कोस पर पानी बदले आठ कोस पर बानी’। हमने देखा कि स्विटज़रलैंड में हल्का नीलापन लिये हरा पानी तो जर्मनी में चटक हरा और ऑस्ट्रिया में गहरा हरा। मेकचिन गाँव देखा, जो २०१३ में पूरा डूब गया था। जर्मनी-आस्ट्रिया के राजकुमार बिशप मेखुससितिकुस का महल तथा हेलब्रन पैलेस बाहर से ही देखा। वहीं महल के बगीचे में जहाँ ‘साउंड आफ म्यूजिक’ फिल्म की शूटिंग हुई थी हम सबने तस्वीरें खिंचवाईं। दूर -दूर तक छाई हरियाली देखकर आँखें अघाती ही न थीं। ईडिलवाइज़ नामक फूल यहाँ का राष्ट्रीय और पारंपरिक फूल है। सितारे के आकार ईडिलवाइज़ फूल पर्वतों पर चट्टानों के बीच उगता है।
अगली सुबह हम जर्मनी से इटली में लेक गार्डा जाने के लिये सुबह 9:30 बजे निकले। ऑस्ट्रिया के इंस्ब्रुक का प्रसिद्ध स्वर्णमहल राजाओं की फिज़ूलखर्ची, अय्याशी और वैभव की कहानी कहता है। इंस्ब्रुक से लेक गार्डा लगभग दो सौ मील था। छोटे छोटे देश, छोटे छोटे गाँव, लेकिन सर्वत्र स्वच्छता।
लगभग नौ बजे हम सिरमियोन शहर के पास स्थित, लेक गार्डा के तट पर बसे सैन फ्रैंसेस्को कैंपिंग विलेज पँहुचे। गार्डा झील का खूबसूरत सूर्यास्त देखा। । झील का पानी एकदम स्वच्छ, नीचे के पत्थर तक स्पष्ट दिख रहे थे। वहाँ हम लोगों ने चाँद और झील पर कितने ही गीत गाए। तापमान लगभग 27 डिग्री था। अगला पूरा दिन झील के किनारे आलस्य में बिताया , जिससे हमारे लगातार यात्रा करते शरीरों को राहत मिली। दो सायकल किराये पर ले आय़े थे। सभी लोगों ने सायकिल चलाने का आनंद लिया
दूसरे दिन सुबह 7:30 यूरोप्लान बस द्वारा वेनिस भ्रमण हेतु गये। हमारी टूर मैनेजर चिंसिया सवारियों को हेड फोन पर निर्देश देती रही । दस बजे वेनिस पँहुच चिंसिया ने अगले सात घंटे हम जहाँ चाहें वहाँ घूमने स्वतंत्रता दी। शाम के पाँच बजे पुनः उसी स्थान पर एकत्रित होना था।
सेंट मार्क स्क्वेयर वेनिस का प्रमुख स्थल था। वहीं मुख्य स्मारक, जेल, चर्च इत्यादि हैं। वेनिस सही अर्थों में पर्यटकों का शहर है। पूरा शहर बारह स्क्वेयर किलोमीटर का ही था पानी से भरा यह पूरा शहर छोटे-छोटे पुलों से जुड़ा था। स्थानीय लोग पुलों पर से ही आना जाना करते थे। सोलहवीं शताब्दी में यातायात का प्रमुख साधन गोंडोला नाव ही थी। गोंडोला ग्यारह मीटर लंबी और डेड़ मीटर चौड़ी विशिष्ट प्रकार की नावें थीं । जिनकी संख्या उस कालखंड में लगभग चार हज़ार से अधिक थी। वेनिस के निकट मोरानो नामक टापू अपने रंगीन काँच के खूबसूरत और बारीक काम के लिये प्रसिद्ध है। वेनिस में कपड़े की खूबसूरत लेसों से बने पंखे, छत्रियाँ, टेबल क्लॉथ, टेबल मैट आदि भी बहुत प्रसिद्ध हैं। हमने सेंट मार्क चर्च और उसके आसपास के स्मारक,जैसे जेल, पुस्तकालय, राजा का महल इत्यादि, सब स्थान अब संग्रहालयों में परिवर्तित हो चुके हैं। वेनिस में पर्यटकों के बैठने –सुस्ताने की कोई व्यवस्था नहीं थी। कहीं भी बैठने पर पुलिस उठा देती है। दूसरे वहाँ के पारंपरिक व्यंजन पिज़ा का बेस्वाद होना भी बहुत खला। इसी प्रकार मजबूरी में डेढ़ यूरो देकर बाथरूम जाना सबसे महँगा था। शाम साढ़े सात बजे हम कैंपिंग साइट पर पँहुचे। उस रात गर्मी बहुत थी। सभी बाहर जमीन पर इंसैक्ट रिपेलैंट लगाकर सो गये। झील के शांत पानी में सिरमियोन, बिस्किएरा ,पिस्चिएरा आदि शहरों की चमकती बत्तियों का प्रतिबिंब बहुत सुंदर लग रहा था।
अगला पड़ाव फ्रांस का ल्योन। तीन सौ अठ्ठावन किलोमीटर । सुबह साड़े नौ बजे प्रस्थान। यूरोप में मुख्य राजमार्ग और महामार्गों पर मुख्य मार्ग से हटकर यात्रियों की सुविधा हेतु छायादार वृक्षों के नीचे पत्थर के टेबल-कुर्सियाँ, पार्किंग स्थल तथा साफ-सुथरे शौचालय बने हैं।
फ्रांस की साढ़े बारह किलोमीटर लंबी प्रसिद्ध सुरंग रंगबिरंगी बत्तियों से प्रकाशमान थी। उस रात ल्योन में कासा नोबेल नामक रेस्टोरेंट में खाना खाया । भाषा न आने के कारण आर्डर देने में बहुत समय लगा। लेकिन खाना उत्कृष्ट था। वेजिटेरियन, नान वेजिटेरियन पिट्ज़ा सभी गरम गरम, स्वादिष्ट। हमने वहाँ का भव्य कथीड्रल और ल्योन की शान, चौड़े पाट वाली ‘रोन’ नदी देखी। नदी की दूसरी तरफ भी काफ़ी रौनक थी। पूर्णिमा का चाँद हल्की नारंगी आभा लिए आसमान को अपनी गरिमामय उपस्थिति से अभिमंडित कर रहा था। पुल पर खड़े हम इस नयनाभिराम दृश्य को आँखों से पी रहे थे।
ल्योन से पेरिस की यात्रा काफ़ी लंबी थी। शाम को आयफिल टावर देखा। इसे बनने में २ साल २ महिने और ५ दिन लगे थे। विश्व तकनीकी मेले के लिये इसे आयफिल नामक इंजीनियर ने बनाया था। शुरुआत में यह बीस वर्षों के लिये ही था लेकिन बाद में वह सेटलाइट सेंटर बना। आयफ़िल टॉवर का आनंद हमने दिन के उजाले में और फिर रात की रोशनाई, दोनों में लिया। टॉवर पर ऊपर पँहुँच कर पेरिस की खूबसुरत झलक देखी। समय सीमा के कारण हम लूवरे संग्रहालय जी भरकर नहीं देख पाए। मोनालिसा की तस्वीर भी दौड़ते-भागते देखी। सेह्न नदी पर बने ‘लव-लॉक ब्रिज’ पर पड़ते बोझ को ध्यान में रखते हुए वहाँ की सरकार ने प्रेमी-युगलों द्वारा ताले लगाने पर निषेध घोषित कर दिया
चौदह दिन में यूरोप, बिल्कुल ‘अस्सी दिन में दुनिया की सैर’ की भाँति ही था। स्विट्ज़रलैंड, जर्मनी, ऑस्ट्रिया, इटली और फ्रांस के कुछ प्रमुख शहरों को छूते हुए हमने यूरोप की एक झाँकी देख ली। अब इन शहरों की आत्मा को महसूस करने के लिए एक बार फिर यूरोप यात्रा का मन बना लिया है। कैसे और कब……..यह तो समय ही बताएगा।

वंदना मुकेश
वॉलसॉल यूके

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