अपनी बातः होने और न होने के बीच…


लेखनी का यह अंक युद्ध और इसकी विभीषिका के खिलाफ है। इसके बीच पिसते आम आदमी के द्वंद और दुख पर है। युद्ध की निर्थकता पर है। यह भी एक अद्भुत संयोग कहूँ या विडंबना कि अंक पहली मई को पाठकों के हाथ में पहुँच रहा है, तारीख जो आम आदमी के सपने और श्रम की महत्ता के लिए जानी जाती है और इस समय में उसी के अधिकारों को सर्वाधिक कुचला जा रहा है। अपने ही घर के मलबों पर खड़ा वह शरणार्थी बनकर दर-बदर भटकने को मजबूर है।
अक्सर सोचती हूँ, क्यों दिया भगवान ने हमें यह मन और मस्तिष्क एक साथ ही और फिर उसपर से इतने दुख, छल कपट.. नेता, राजनेता , साधु-सन्त कोई भी तो अछूता नहीं इनसे।
बीच में कठपुतली-सा पिसता आम आदमी। जिसका न स्वयं पर कोई अधिकार रह गया है और न अपने घर और जीवन पर ही। युद्ध की आग. गरीबी की आग. ऊपर से महामारी, हमारी इस इक्कीसवीं सदी के धुँए का तो कहीं अंत ही नहीं सूझता।
गालिब याद आते हैं-‘ डुबोया मुझको होने ने, न होता मैं तो क्या होता’
वही उलझनें और वही बदगुमानी आज भी…हसरतों के सेहरा में तिनके सा भटक रहा है अदना-सा आदमी, और शायद जितना ही जानेगा व समझेगा, और और भटकता ही रहेगा। इसकी अपनी बुद्धि , अपना विकास ही लगता है दुःख का सबसे बड़ा कारण बन चुके हैं।
सब जानने और महसूसने का यह अहसास किसीको तो विनम्र बनाता है तो किसीको विचलित और पथभ्रष्ट भी कर देता है।
बात जब अहम् पर आ जाए तो होने और न होने का यह द्वन्द कहाँ तक ले जाएगा इन्सान को इसकी कोई सीमा ही नहीं- वैरागी से लेकर अत्याचारी तक सभी कुछ बना सकता है वह।
कहीं प्रभुत्व के लिए हमले करता है, तो कहीं मुनाफे के लिए शोषण। कुछ ऐसे भी हुए हैं, जिन्होंने आंसू पोंछे अपना सबकुछ अर्पण कर दिया मानवता की सेवा और उत्थान में।
जो बुद्ध होकर विरक्त हुए। संवेदना की अति से शून्य हो मुंह फेरा दुनिया और जिन्दगी से ही नहीं…ईश्वर तक से, उन्होंने भी बहुत कुछ दिया गुनन-मनन को, मानवता के उत्थान को। क्तोयोंकि बात मन से निकली और लाखों के मन तक पहुँची।
कई ऐसे भी हुए समय के इस पलपल बदलते प्रवाह में जो नृशंशता की हदें पार गए। खुद ही अपनी ताजपोशी करके सिंहासन पर जा बैठे, दुनिया को अपने पैरों तले रौंद डाला।
विवेक और सदभावना तो सबसे पहले शरणार्थी हो जाते हैं इस ताकत और स्वार्थ की खींचातानी में। इतिहास साक्षी है कि न तो युद्ध ही रुके हैं और ना ही जीने की लालसा ही। यह लंगड़ी दौड़ हमेशा से एक कठिन दौड़ रही है। अंधेरे और उजाले सा ही तो साथ है जीवन में घृणा और प्यार का। पल में मित्र और परिजन शत्रु में परिणित हो आक्रामक हो सकते हैं। हानि पहुँचाने लगते हैं और लाचार, हमारे बस में कुछ नहीं। परन्तु यदि हमारे बस में कुछ बदल पाना है ही नहीं, तो फिर इस सभ्यता, विकास और शिक्षा का अर्थ ही क्या रह जाता है?
बात उद्वेलित करती है और गंभीर मंथन मांगती है।
जो स्थिति को उकसाता है, वही शायद रोकने में भी समर्थ होगा!
ताकत, शोहरत व भोग-विलास…तीन शब्द सबसे पहले दस्तक देते हैं चेतना में। इन्हीं तीनों के पीछे दौड़ता व्यक्ति मदान्ध होकर क्रूरता की हदें पार करता है। जानवरों से भी बदतर हो सकता है…हो जाता है।
तो क्या इस दौड़ में वह जिन अस्त्र-शस्त्रों को लेकर दौड़ रहा है , उन्हें छीनकर उसे अपंगु बनाना एक सभ्य समाज की प्रथम जिम्मेदारी नहीं? हाँ, यदि समाज में सभ्यता मात्र एक मुखौटा न हो और चोर-चोर मौसेरे भाई न हों, तो।
यदि आंख के बदले आंख नहीं तो निशस्त्रीकरण ही एक मात्र उपाय समझ में आता है अत्याचार और हिंसा के खिलाफ। परन्तु इतना साहस और शौर्य कैसे लाए आजका स्वार्थी व आलसी समाज, या एक महत्वहीन आम नागरिक, जिसे दूसरों की तो छोड़ो, अपना और अपनों तक के अधिकार और सुरक्षा तक का सामर्थ नहीं ।
निशस्त्रीकरण का सपना देखने से पहले हमें समझना होगा क्या है यह निशस्त्रीकरण और क्या हैं इसके फायदे व नुकसान ? निशस्त्रीकरण का शाब्दिक अर्थ है शस्त्रविहीन -चाहे यह जोर जबर्दस्ती या प्रतिबन्ध से किया गया हो या किसी व्यक्ति या समूह ने स्वयं ही शस्त्रों का समर्पण या परित्याग किया हो । यही बात राष्ट्र और विश्व के बारे में भी लागू है। राष्ट्रों के संदर्भ में पूरे विश्व में भयानक तबाही लाने वाले परमाणु हथियारों पर प्रतिबंध। नई-नई संधियां पारित होती हैं प्रतिदिन, दस्तक भी होते हैं परन्तु नतीजा कुछ नहीं। प्रतिबंध लगते हैं और फिर अचानक किसी का लालच कहीं अनियंत्रित होकर धमाका कर बैठता है और वही चूहे बिल्ली की दौड़ फिरसे शुरु हो जाती है।
एक आदर्श समाज या रामराज्य में तो हथियारों की वाकई में जरूरत ही नहीं । परन्तु युटोपिया तो सिर्फ कल्पना में ही संभव है। सारे हथियार एक साथ हटा भी लिए गए तो क्या फिरसे सभ्यता और विकास हजारों साल पीछे नहीं चले जायेंगे, क्योंकि भय का अंत हो जायेगा दुनिया से, विशेषकर दुराचारियों के मन से। फिर स्वार्थी मानव के मन में तो भय बिन प्रीत ही नहीं, तो फिर उनसे हम किस लगाव, किस सद्भाव और सदाचार की अपेक्षा कर सकते हैं – भय बिन प्रीत नाहीं जग माहिं -रामायण तक तो यही बतलाती है हमें।
शस्त्रीकरण या निशस्त्रीकरण, ध्येय यही है कि युद्ध, अपराध और हत्या आदि नकारात्मक भावों का तो खातमा होना ही चाहिए, यदि हम अपनी तकलीफ और दुखों का अन्त चाहते हैं। कम-से-कम सभ्यता के इस कठिनतम काल में जहाँ एक-के-बाद-एक महामारी और लड़ाइयों का दौर खतम होने का नाम ही नहीं ले रहा, हम सबकी सामूहिक इच्छा और प्रार्थना तो यही है कि कोई अकाल काल का ग्रास न हो , बेघर न हो पराश्रित न हो।
इन्सान बनकर पृथ्वी पर आया है तो कीड़ों की तरह रेग-रेगकर नहीं, सिर उठाकर और संतुष्ट हीकर जिए। यदि आतंकी अति सशक्त और मूर्ख है तब भी सहारा देने वाले, एक-दूसरे के आंसू पोंछने वाले हमेशा जिन्दा और साथ रहें। लेखनी प6िका का भी यही एक लघु प्रयास है अपने तरीके से। उम्मीद है आपको पसंद आएगा। आपके सहयोग व समर्थन का हमें हमेशा की तरह इंतजार रहेगा।

इस उथल-पुथल भरी दुनिया में हम सभी एक-दूसरे का ध्यान रखेंगे-इसी वादे और शुभकामना के साथ अगले अंक तक नमस्कार ।
लेखनी का जुलाई-अगस्त अंक. भारत की आजादी का अमृतमहोत्सव अंक है। उम्मीद ही नहीं, विश्वास है कि आप सभी इसमें बढ़-चढ़कर हिस्सा लेंगे इसमें। रचना भेजने की अंतिम तिथि 20 जुलाई है-वही shailagrawal@hotmail.com पर।

शैल अग्रवाल

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