कहानी समकालीनः भगोड़ी-डॉ. रंजना जयसवाल

कितने वर्षो बाद वो उस शहर में आई थी,उसका अपना शहर जिसकी गलियाँ, सड़कें और बाजार उसे उंगलियों पर याद थे। उस दिन बाजार में अचानक बगल वाले मिश्रा अंकल मिल गए थे।उन्हें देखकर उसे लगा मरुस्थल के तपते रेत में किसी ने पानी की चंद बूंदे छिड़क दी हो। ऑफिस के काम से इस शहर में आये थे।दुनिया सचमुच गोल है, सलिल और लता यही सोचकर इस बड़े शहर में आये थे, कि उन्हें यहाँ कोई नहीं पहचानता। इन बड़े-बड़े शहरों की बड़ी-बड़ी इमारतों में पड़ोसी-पड़ोसी को नहीं जानता।उनके लिए अच्छा ही तो है कोई यह जानने की कोशिश नहीं करेगा कि वह कहाँ से आए हैं पर चाहने और सोचने में हमेशा बहुत फर्क होता है

उस दिन बाजार में अचानक मिश्रा अंकल से मुलाकात हो गई थी,उनकी बेटी रोहणी उसी की उम्र की थी।स्कूल से लेकर कॉलेज तक का साथ था उनका…अच्छे पड़ोसी थे वे एक-दूसरे के सुख-दुख में हमेशा खड़े होने वाले।उन्होंने ही यह दुःखद खबर दी थी,बाबू जी नहीं रहे। उसे विश्वास नहीं हो रहा था बाबूजी उससे बिना मिले, बिना कुछ कहे, बिना कोसे, बिना लताड़े इस दुनिया से कैसे जा सकते थे पर उसने भी तो उन्हें इस बात का मौका ही कहाँ दिया था वह तो चली आई थी सलिल के साथ अपनी नई दुनिया को बसाने के लिए। जानती थी बाबूजी इस रिश्ते के लिए कभी तैयार नहीं होंगे पर सलिल का प्रेम उसके सर चढ़कर बोल रहा था।

बचपन में सुई लगवाने पर घण्टों रोने वाली लता इतनी निर्मोही हो सकती है उसने खुद भी न सोचा था। माँ के जाने के बाद बाबूजी ने ही तो उसे और उसके भाई-बहन को माँ और बाप दोनों बनकर पाला था।सबने कितना कहा था,”अभी उम्र ही क्या है तुम्हारी, दूसरी शादी कर लो।” पर बाबूजी ने लता के सर पर हाथ रखकर कहा था,”मैं अपने बच्चों के लिए सौतेली माँ नहीं लाना चाहता। अब यही मेरी दुनिया है, मैं इन्हें देख कर ही जी लूँगा।”जिन बाबूजी ने बच्चों का मुँह देख कर अपनी जिंदगी उन पर निछावर कर दी। उसने उनके बारे में एक बार भी नहीं सोचा। लता उनकी सबसे बड़ी संतान थी, नाजो से पाला था बाबू जी ने… बचपन में खाना खाते वक्त वो कितना तंग करती थी।

“बाबू जी! माँ कहाँ चली गई।”

‘तेरी माँ तारा बन के आसमान में रह रही है और तूने खाना नहीं खाया न तो वह कभी लौट कर नहीं आएगी।”

और वो डर के मारे फटाफट सारा खाना खत्म कर देती। वो जानते थे माँ अब कभी लौट कर नहीं आएगी। लेकिन बाबूजी ने माँ की कमी कभी नहीं होने दी।लता इतनी अहसानफरामोश कैसे हो सकती थी? लता ने जवानी की दहलीज पर कदम रखा ही था,एक नजर में उसे सलिल से प्यार हो गया था। रात-दिन उसी के सपनें में खोई रहती।उसने बाबूजी के प्रेम और त्याग को पल भर में भुला दिया।सलिल दूसरी जाति का लड़का था, जानती थी बाबूजी उसे कभी भी शादी करने की अनुमति नहीं देंगे।ऐसी स्थिति में उसके पास सिर्फ एक ही रास्ता था… भाग जाना।उस दिन से लेकर आज तक वह भाग ही तो रही थी। कभी अपने अतीत से, कभी अपनी यादों से तो कभी अनदेखे आरोपों से…लकड़ी का दरवाजा उसे अपिरिचितों की तरह देख रहा था।माँ के हाथों से लगाया हुआ तुलसी का चौरा अपने जीवनदायिनी के जाने से सूखने लगा था पर बाबूजी के प्रेम और अपनत्व से वो फिर से लहलहा उठा था।माँ तो उनकी जिंदगी से जा चुकी थी पर उनकी इस अन्तिम निशानी को वह अपने से दूर नहीं होने देना चाहते थे। आज उस चौरे को देखकर माँ के साथ-साथ बाबूजी की छवि भी साथ ही उभर आई थी।हाथ में तांबे के लोटे में अक्षत और फूल डालकर जल चढ़ाते बाबूजी एकदम माँ की तरह ही दिखते।वे भी तो माँ की तरह आँखें बन्दकर अपने बच्चों की खुशहाली के लिए घण्टों पूजा करने लगे थे।कहते हैं एक लम्बा समय साथ गुजारने के बाद पति-पत्नी एक जैसे दिखने लगते हैं।बाबूजी कुछ-कुछ माँ की तरह लगने लगे थे। गेट खुलने की आवाज को सुनकर लता की छोटी बहन नन्दिनी दरवाजे तक आ गई। लता को देखकर नन्दिनी ठिठक गई।उसे अपनी आँखों पर विश्वास नहीं हो रहा था।

” दीदी! तुम तुम यहाँ? क्या करने आई हो? अब तो बाबूजी भी नहीं रहे।”

“मुझे पता है बाबू जी अब$$…”

शब्द उसके गले में अटक कर रह गए।

“सारी बातें यही कर लोगी नन्दिनी अंदर नहीं बुलाओगी ?”

अपने ही घर में अंदर आने के लिए अनुमति लेनी पड़ेगी,लता ने कभी सोचा नहीं था।नन्दिनी दरवाजे के सामने से हट गई।लता की आँखें तेज़ी से कुछ ढूंढ रही थी।

“विपुल …विपुल नहीं दिख रहा है।”

“कॉलेज गया है।”

“कॉलेज!”

हाफ पैंट पहनकर दिनभर इधर से उधर डोलने वाला विपुल,बात- बात पर नन्दिनी से लड़ने वाले विपुल इतना बड़ा हो गया।लता ने गहरी सांस ली।अच्छा ही था भाई छोटा हो या बड़ा भाई भाई ही होता है। पता नहीं उसे देखकर वह कैसे व्यवहार करता।लता जब घर से भागी थी तब वह बहुत छोटा था। तब उसी ये बातें समझ में नहीं आती थी लेकिन वक्त के साथ लोगों ने उसकी बहन की कृत्यों से परिचित करा दिया था।बड़ी बहन के लिए नफरत दिलों-दिमाग पर बस चुकी थी।

चिलचिलाती धूप में चलकर आने से उसका गला सूख रहा था।कमरे में सन्नाटा पसरा हुआ था,पंखे की आवाज के अलावा कोई आवाज नहीं आ रही थी। लता को बैठे-बैठे काफी देर हो चुकी थी।

“क्या एक गिलास पानी मिलेगा?”

जिस घर में रिक्शेवाले और मजदूरों को भी पानी और गुड़ बिना पिलाये जाने नहीं दिया जाता था,उस घर में पानी के लिए भी आग्रह करने पड़ा था।नन्दिनी रसोई से पानी ले आई, लता अपने ही घर में मेहमानों की तरह बैठी थी। पंखे की तेज हवा से पर्दे उड़ रहे थे,लता का बहुत मन हो रहा था कि पर्दे के पीछे की वो दुनिया एक बार झांक ले।झांक ले उस बचपन को जो इस घर के आंगन में बिताया था,झांक ले उस कमरे को जहाँ बाबू जी की गोदी में लेटकर वो घण्टों उनसे बातें करती थी।छू ले उस कुर्सी को जिस पर बैठकर बाबूजी घण्टों अखबार पढ़ते थे।छू ले उस तकिया को जिस पर लेटकर न जाने कितनी ही रातों बाबूजी माँ को यादकर अपनी आँखें और तकिया भिगो लिया करते थे। कितनी सारी यादें जुड़ी हुई थी इस घर से पर वे यादें हाथ छुड़ाकर न जाने किस बियाबान जंगल मे छिप गए थी।

चाहती तो वो बहुत थी पर न जाने हिम्मत नहीं हुई। बाबू जी की तस्वीर बैठक में लगी थी और उस पर चंदन की माला चढ़ी थी।उस तस्वीर की ओर देखने की हिम्मत नहीं हो रही थी।। जानती थी पिता के चेहरे पर फैली नाराजगी की तहरीर को पढ़ना इतना आसान न होगा पर ऐसी नाराजगी होगी कभी सोचा भी न था। अपनी लाडली की जीते जी शक्ल भी न देखी बाबू जी ने।बाबू जी की आँखें तस्वीर से झाँक रही थी।कितना सोचकर आई थी जब भी मिलेगी जी भरकर देखेगी पर उन्होंने तो वो मौका भी न दिया।लकड़ी के फ्रेम में वे मुस्कुरा रहे थे इन पाँच सालों में अचानक से कितने बूढ़े लगने लगे थे वह…।ऐसा लगा मानो वे कह रहे हो

“यहाँ क्या करने आई है तू जा तेरे लिए इस घर के दरवाजे हमेशा के लिए बंद हो चुके हैं।”

और फिर उनके खाँसने की आवाज कमरे में भर गई,जैसा हमेशा होता था।बाबूजी को जब बहुत गुस्से में होते तब उन्हें खाँसी आने लगती क्या आज भी ऐसा ही होता?

“कैसी है तू?”

“ठीक हूँ।”

नंदिनी ने बड़ा रूखा जवाब दिया,

“विपुल कैसा है?”

“वह भी ठीक है।”

“तेरी शादी नहीं हुई?”

“शादी?”

नंदिनी ने उसे ऊपर से नीचे तक कुछ ऐसी निगाहों से देखा मानो वो उसे खड़े-खड़े भस्म कर देगी।

“दीदी! तुमने अपना घर बसाया, इस घर को उजाड़ कर।तुमने सपने देखे इस घर के सपनों को तोड़ कर, तुमने अरमानों को जिया इस घर के अरमानों को कुचल कर। जिस घर की लड़कियाँ भाग जाती है उस घर की और लड़कियों की शादी नहीं हो पाती। सिर्फ उस घर की ही क्यों उस मोहल्ले की भी।”

लता छोटी बहन के आरोपों से तिलमिला उठी,

“कहना क्या चाहती हो?”

लता ने छटपटा कर कहा,

“तुम्हारे जाने के बाद कितना हो-हल्ला हुआ। न जाने कितनी बार पुलिस ने हमारे घर के चक्कर लगाए।सलिल के घरवालों ने…!

“जीजा जी,सलिल तुम्हारे जीजा है।नन्दिनी ये बात मत भूलो और उनके घरवाले तुम्हारी बहन के ससुराल वाले हैं।”

लता ने सख्ती से कहा,नन्दिनी का चेहरा भावहीन था।

“जिस रिश्ते को बाबूजी ने स्वीकार नहीं किया वह मेरा कुछ भी नहीं…तुम तो चली गई अपनी दुनिया बसाने पर बाबू जी को न जाने कितने आरोप झेलने पड़े। बिन माँ की बच्ची थी कोई देखने वाला नहीं था।क्या कॉलेज में आजकल यही पढ़ाते हैं? तुम्हारे जाने के बाद इस मोहल्ले की लड़कियों की भी किस्मत बदल गई।तुम्हारे साथ की जितनी भी लड़कियाँ थी उनकी जल्दी-जल्दी शादी कर दी गई। सभी को डर था कि जब लता इस तरह का कदम उठा सकती है तो उनकी बेटियाँ भी कुछ भी कर सकती है।रोहिणी दीदी की भी शादी हो गई।”

” रोहिणी! वो तो नकुल से शादी करना चाहती थी।वो तो उसी की बिरादरी का था?

“मिश्रा अंकल ने उनकी एक नहीं सुनी। अंकल जी ने पास के ही शहर में उनकी शादी कर दी।दीदी जो लड़कियाँ अपने घरों से भाग जाती हैं वह सिर्फ अकेले नहीं भागती वह भागती हैं अपनी माँ के सुकून और संस्कार को लेकर,वह भागती है अपने पिता के सम्मान और परवरिश को लेकर,अपनी छोटी बहनों और आस-पड़ोस की लड़कियों के अनदेखे भविष्य को लेकर,वे भागती है परिवार में उनके प्रति विश्वास और आजादी को लेकर,वे भागती हैं अपने भाई, परिवार और कुल की इज्जत को लेकर। दीदी तुम्हें याद है जब भी माँ नानी के घर से लौटती थी, तब नानी उनके आंचल में खोएचा भरती थी और उनके उज्जवल भविष्य की कामना करती थी और बदले में माँ भी चुटकी भर चावल अपने आंचल से निकालकर उस घर में बिखेर देती।वे यह चाहती थी कि उनके घर के साथ-साथ यह घर भी आबाद रहे पर तुम इस घर से निकली तो इस परिवार को क्या देकर गई।मरी हुई को माँ को अपमान, पिता को दुनिया के आरोप और हमें लज्जा से झुके सर…विपुल का क्या दोष था।वह तो इन बातों को ठीक से समझता भी नहीं था पर वक्त ने उसे भी समझा दिया।नन्हे विपुल के लिए राखी के धागे गले की फ़ांस बन कर रह गए। मुझे अगर कहीं से आने में देर हो जाती है तो वह छटपटाने लगता है।जानता है वह सबसे छोटा है पर भाई तो है।मुँह से तो कुछ भी नहीं करता पर उसकी आँखें कुछ न कहकर भी बहुत कुछ कह जाती है।दीदी औरत एक नदी की तरह है जब तक वो मर्यादा में रहती है तब तक वह खुशहाली लाती है पर जब वो मर्यादा को तोड़ती है तब हर जगह तबाही ही तबाही लाती है।”

घर से निकलते वक्त उसने सोचा था यह घर, गली और मोहल्ला हाथ पसारे उसका स्वागत करेगा पर आज वह शर्मिंदा थी। लता चुप थी,उसके पास नंदिनी की किसी भी बात का कोई जवाब नहीं था। जानती थी आज वह कुछ भी कहेगी उसकी बातों पर कोई विश्वास नहीं करेगा। उसने अपने साथ-साथ नंदिनी और विपुल के भविष्य को भी दांव पर लगा दिया था।बाबूजी तो आज मरे थे पर जीते जी वो कब के मर चुके थे। जीते जी वे आरोप और अपमान का जहर पीते रहे। जहर का भी अपना हिसाब-किताब होता है मरने के लिए थोड़ा सा और जीने के लिए ज्यादा पीना पड़ता है।सलिल के साथ भागते हुए सोचा तो यही था वे कहीं दूर चले जाएं,दूर इतना जहाँ पर दुनिया का कोई गम न हो पर आज वो दुनिया के लिए लता नहीं भगोड़ी थी।

पर क्या सलिल के साथ भी ऐसा ही हुआ होगा? क्या उसके घर और मोहल्ले वालों ने भी उसे माफ नहीं किया होगा? क्या उसके साथ के हमउम्र लड़कों की भी शादियाँ कर दी गई होंगी?क्या किसी ने सलिल के पापा को भी दुत्कारा होगा कि जब सलिल भाग कर शादी कर सकता है तब मोहल्ले का कोई भी लड़का ऐसा कदम उठा सकता है?

शायद, शायद…!

डॉ. रंजना जायसवाल
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