कहानी समकालीनः पहरेदार-शैल अग्रवाल

चहल-पहल भरी उस भीड़ में एक अपना नहीं दिख रहा था। बेबस सुगनी की विस्मय भरी सोच तक मानो अब उसकी निराश आंखों में ही जा समाई थी। ‘ कैसा है यह उसका अपना गांव, अपना होकर भी इतना बेगाना और अपरिचित !’
पहुँचकर भी इतनी दूर क्थीं थी वह अभी भी अपनों से! सोचना तक दुख दे रहा था और तब थके मुंह से हारे बोल निकले ‘ गांव तो वही है, जिसके लिए इतनी ललक से लौटी थी वह, बस लौटने में ही ज्यादा देर कर दी उसने। बारह वर्ष लम्बा समय है। और समय सब बदल देता है- जगहें ही नहीं, इन्सानों को भी।
काल का ही तो चक्र है सारा। राजा, प्रजा सब झुके हैं इसके आगे। वक्त का ही तो फेर था वह, जिसके रहते घर-परिवार, सबसे दूर रहकर पूरे बारह वर्ष मुंबई जैसे बड़े और अपरिचित शहर में खटती रही है वह। चलो, बीत गया वह वक्त तो यह भी बीत ही जाएगा। कुछ और घंटे और सही!’
उसे क्या पता था कि वक्त एक अभेध्य चक्रव्यूह तैयार कर रहा था उसके लिए।
नदी किनारे पड़ी जाल में फंसी मझली-सी फड़फड़ा रही थी कमरे के एक कोने में अपनी गठरी को सीने से चिपकाए अकेली बैठी सुगनी अब।
और तब दुखते पैरों को लम्बा पसार लिया उसने और लपलप करती कनपटियों को बैठे-बैठे खुद ही दबाने लगी। परन्तु न तो दर्द ही जा रहा था और ना ही निर्मम वक्त। सामने दीवार पर टंगी घड़ी को देखा तो वह भी रुकी पड़ी थी, मानो सब कुछ ठहर गया था सुगनी के लिए। वक्त भी।
इतना टूटा-बिखरा तो किसी ने नहीं देखा था उसे, खुद सुगनी ने भी नहीं। आराम नहीं कर पा रही थी वह और कोई काम था नहीं करने को । सफर खतम हो चुका था और सड़क भी। और तो और पोटली में रखा खाना तक खत्म था उसका तो।…
लड़ाई जो बारह साल पहले घर-परिवार की सुरक्षा से शुरु हुई थी, कन्धों पर गांव की जिम्मेदारी भी बन सकती है, कुछ-कुछ समझ पा रही थी चिंतित सुगनी पर। जिम्मेदारियों से कब पीछे हटी है वह, अब भी नहीं हटेगी। सभी के हित में जो हो, बस वही करेगी! पर अभी तो बस इंतजार करना था उसे। फिर वक्त आने पर फैसला और फासला जो भी मांगे ईमानदारी से ही निभाएगी वह, जानती थी अपना स्वभाव। – कमजोर पड़ने से पहले ही जाने कैसे-कैसे खुद को संभालती जा रही थी सुगनी अब, उसी हिम्मत और लगन के साथ जैसे घर-परिवार को संभाला है उसने अभी तक।

कहाँ मुम्बई शहर और कहाँ उसका यह छोटा सा गांव, हाजीपुर। कांधे पर अरमानों की पोटरी, आँखों में भविष्य के सुनहरे सपने- बस चल ही तो पड़ी थी सुगनी उस लम्बी सड़क पर, हांफते-थकते, बीच-बीच में घंटे-दो-घंटे पेड़ों के नीचे सोते-सुस्ताते और कैसे भी पूरा भी कर लिय़ा था उसने वह दुर्गम सफर। उतावली जो थी घर वापस लौटने को, बेटों कों गले लगाने को। इसी एक ललक के सहारे ही तो महीनों दिन रात चलती रही थी वह, पैरों के छाले ही नहीं, भूख-प्यास, सब कुछ अनदेखा करती।
अब बदन तप रहा था उसका और प्यास के मारे गले में उग आए नुकीले कांटों से बेचैन थी सुगनी। पानी मांगा, तो किसी ने तपता जल पकड़ा दिया। पी तो लिया पर प्यास नहीं बुझी। घर पहुंचकर कुंए का ताजा पानी पीएगी, सोचकर ही मन हरियाने लगा था उसका, पर गांव के नाके पर ही रोक लिया गया था उसे। लम्बी जांच हुई थी, मानो औरत नहीं, एक ट्रक हो,जाने-अनजाने भीतर-ही-भीतर जाने क्या-क्या अवैध भरे और छुपाए हुए । नाक और गले की जांच के बाद साम्पल आगे की जांच के लिए भी भेज दिया गया था। बस उसी के नतीजे का इन्तजार था अब।
ऐसा नहीं था कि सामने वालों की मजबूरी समझती नहीं थी सुगनी!यह बीमारी थी ही इतनी खतरनाक। हवा के संग-संग फैलने वाली.अमीर-गरीब, बच्चे-बूढ़े किसी को न बख्शे। काल-भैरव रक्षा करें सभी की। इसी करोना ने ही तो मुंबई में नौकरी छुड़वाई और अब निर्दयता से प्राण ले रही है यहाँ भी। मुंबई में तो मालकिन ने साफ-साफ कह दिया था, ‘ महामारी के जानलेवा वक्त में कोई खतरा काम वालियों के बहाने नहीं लेना चाहतीं वह! ‘
पर यहाँ पहुंचकर भी तो एक कोने में बैठी बस इंतजार ही कर रही थी वह। अब उसे बस शीघ्र-अति-शीघ्र वापस अपने घर पहुंचना था। गुजारा नहीं था बिना काम के मुंबई जैसे मंहगे शहर में। जिन पैसों के लिए घर-परिवार से दूर रही, जब वही नहीं, तो रुकने से भी क्या फायदा था! फिर दूसरी नौकरी भी तो नहाँ मिली थे उस टेढ़े वक्त में। कोई भी काम करने को तैयार थी वह तो। पर किसी को किसी की जरूरत ही नहीं थी मानो अब। आदमी से आदमी डर रहा था मानो। जान बची रहे ,बस यही भय था हर मन में। मानो एक युद्ध छिड़ चुका हो खुद को बचाने का। मानो कि दूसरों की न कोई जरूरत बची थी और ना ही अस्तित्व। इसके पहले कि खोली का अगले महीने का किराया चढ़े, चल पड़ी थी सुगनी वापस गांव की ओर। मिल-जुलकर गुजारा हो ही जाएगा, गंगा मैया की दया से बहुत ताकत और समझ थी उसके परिवार में। खेत भर-भरके सब्जी अनाज था। रास्ते भर यही सब सोचती-समझाती, खुद को हौसला देती रही थी सुगनी। परन्तु अब जब यह ‘मिलजुल के’ वाला समय ही खतरे में था, तो मंजिल रेत-सी दूर फिसलती लग रही थी उसे क्योंकि एक अकेले बस उसे ही रोका गया था और करोना की संभावना ने अनजानों के शहर मुंबई से भी बड़ी मुसीबत खड़ी कर दी थी सुगनी के लिए अपने ही गांव में। हिम्मत नहीं हारी थी पर उसने, ना ही हारेगी कभी। हिम्मत की कमी नहीं थी उसके पास। मोर्चे पर डटे रहने का साहस और काबलियत दोनों ही भरपूर थे। दिल से अपनाना, दूसरों का हो जाना जानती थी सुगनी और वक्त के साथ ढलना भी।…
तब भी तो सारी मोह-माया तज, छोटे-छोटे बच्चों को सास के सहारे छोड़, अकेली ही मुंबई को चल पड़ी थी पच्चीस वर्ष की जहीन और बारहवीं पास सुगनी। खाना बनाने वाले अच्छा कमा लेते हैं – सुन रखा था उसने। पड़ोस के रफ़ीक चाचा को बड़े नामी-गिरामी होटल में नौकरी मिल गई थी मुंबई में -मां ने बातों-बातों में बताया था – दिन फिर गए उनके तो। कैसा चमचम करता घर बनवा लिया है , पूरी बस्ती में अलग ही दिखता है। खेतीबारी के अलावा एक यही काम तो आता था घर-गृहस्थी में रची-रमी सुगनी को भी। जब बिना बारिश के खेत पे खेत सूखने लगे, हाड़-तोड़ मेहनत के बाद भी खाने तक के लाले पड़ने लगे, पौहे, इन्सान, सभी बेबस दम तोड़ रहे थे , तो यह भुखमरी और अकाल मौतें दंशने लगी थीं। इसके पहले कि अकाल उसके परिवार को भी निगले, चल पड़ी थी सुगनी मुंबई की ओर भगवान भरोसे। यह भी प्रभु की दया ही थी कि जाते ही नौकरी तुरंत मिल भी गई उसे। ज्यादा नहीं भटकना पड़ा था। रफ़ीक चाचा ने ही काम लगवाया था उसका। फिर तो हर महीने बिना नागा पैसे भेज पाई थी वह और घर का खाना-पीना भी आराम से चलता रहा था। यह बात दूसरी है कि शुरुआती दिनों में एक वक्त का खाना खाकर ही चार पैसे जोड़ पाती थी वह । इस जी तोड़ मेहनत का ही तो फल है कि आज पक्का घर है उनका भी। छोटे-छोटे बच्चे और दमा से पीड़ित बीमार मर्द के बावजूद भी सब संभलता चला गया परिवार में। बच्चे पल बढ़ गए उसके भी। भगवान लम्बी उम्र दे-जितनी मेहनती वह है, उतनी ही दया-ममता से भरी बूढ़ी सासु माँ भी। हर मुश्किल में ढाल रही हैं उसकी। रेत की प्यास-सी जलती चाह थी अब घर-परिवार को देखने की सुगनी के मन में। बड़ों के पैर छूकर उस छतनारी छांव में बैठने को, अंचरा में आशीष समेटने को तरस रही थी अब सुगनी । महीनों लगातार पैदल चलकर गिरती-पड़ती जैसे-तैसे पहुँच पाई है वह यहाँ तक और अब यहाँ पहुँचकर भी यह अनचाहा व्यवधान…’ कैसा न्याय है, यह प्रभु! आखिर कितनी, और कब तक परीक्षा लोगे, मेरी।’ थकी सुगनी के दोनों हाथ अब प्रार्थना में जुड़े हुए थे और वह फूट-फूटकर रोना चाहती थी ताकि सारा गुबार बाहर निकल जाए। पर ना तो जगह सही थी और ना ही सुगनी इतनी संयम-विहीन। विचारों का घूमता चक्का पेलता रहा उसे और हल में जुते, आखों पर पट्टी बंधे बैल-सी घूमती रही सुगनी विचारों की त्रासद और अंतहीन उस सुरंग में। कठिन उस तीरथ-जात्रा पर पैदल चलकर भी इतना नहीं थकी थी सुगनी, जितनी कि अब यहाँ बैठी-बैठी। रास्ते में चलते-चलते भी सो लेती थी वह। कोई ट्रक पीछे से हौर्न देती या साइकिल वाला भिड़ते-भिड़ते बचता तो तुरंत आंख खुल जातीं उसकी और वह बचा लेती खुदको। ना तो रास्ता ही भटकी और ना ही गिरी-पड़ी ही ज्यादा। एक उल्लास जो था पैरों में। पर अब बैठी-बैठी ही निचुड़ती जा रही थी। वह सबकी थी पर उसके साथ कोई नहीं दिख रहा था। दुखते तन-मन पर हाथ धरने को , ना ही भूख -प्यास पूछने को । मुंबई से हाजीपुर जाती रेल की पटरी- अकेली वह सहेली भी पीछे छूट चुकी थी अब तो, जो उसे रास्ते भर ढाढस देती रही थी -मैं हूं ना तेरे साथ पहुँचा ही दूंगी तुझे अपने घर तक। मन की कहते-सुनाते, गाते बतियाते, उसी पर नजर रखे गुजर गए थे सारे वे कठिन दिन रात उसके। एक मानचित्र था आँखों के आगे। यहाँ पहुंचने का लक्ष और मोह था हजार मील से ऊपर के उस पैदल सफर के लिए। पर अब यहाँ पहुँचकर… खुली आँखों से भी कुछ नहीं देख पा रही थी व्यग्र सुगनी। आँखों के उस बेताब सपने और आंसुओं की उमड़ती बाढ़ ने पूरा अंधा कर रखा था उसे -छोटे-छोटे छोड़े थे, अब तो गबरू जवान हो चुके होंगे। उदास आँखें भी तुरंत लट्टू सी चमकने लगतीं, इस एक सुध दिलाती याद मात्र से ही। दौड़ती-भागती, पहुंची भी तो अब यह फालतू की देर… चेहरे पर उभरती दर्द की लकीरों को चाहकर भी सामने खड़े अजनबियों से छुपा नहीं पा रही थी , सुगनी।
‘पति को घर बैठे-बैठे चिलम और दो जून का खाना मिल जाता है, खेत तक जाने की जरूरत नहीं पड़ती, पर इसका मतलब यह तो नहीं कि आदमी इतना गैर जिम्मेदार हो जाए। आठ घंटे हो गए पहुंचे, पर भरे-पूरे परिवार में से एक बंदा तक नहीं तरसती इन आंखों को ! छोटा-सा गांव है, खबर तो मिल ही गई होगी ! कैसा दिखता होगा उसका पक्का घर !’ कभी कुछ तो कभी कुछ सोच-सोचकर मन बहलाती रही भूखी प्यासी सुगनी। चुभती आँखों में नींद का एक रेशा तक न था जबकि एक अकेली वही तो रह गई थी अब वहाँ उस दम-घोटू पुलिस चौकी में। ‘दो गज दूर से ही सही, बाहर खड़े-खड़े ही चेहरा दिखाकर तसल्ली तो दे ही सकते थे परिवार वाले!’
आंसुओं की जलती आंच में नहाती, इन्तजार करती सुगनी बैठी रही चुपचाप और पापी मन उम्मीद पर उम्मीद लगाता चला गया। शाम ढलने को आ गई पर तीनों गबरू जवान बेटे और परिवार में से कोई नहीं दिखा। हाँ, घंटों बाद ही सही, वह बिजली गिराता नतीजा अवश्य आ गया। आते ही भयानक छूत की बीमारी की तरह ही उसे एक ओर, और सबसे दूर, अलग खड़ा कर दिया गया। पल्लू से मुंह बांधे रखने को भी कहा गया और सामने वालों ने भी अपने-अपने मुंह रूमाल, गमछा, जिसके पास जो था उसी से अपने मुंह ढंक लिए। बड़ी समस्या थी अब सीमित साधन और पिछड़ी बस्ती के उस छोटे-से गांव में करोना-पीड़ित सुगनी।
‘ अगली जांच तक दूर ही रहना सभी से। परिवार को खबर कर दी गई है। संभव हुआ तो खाना-पीना जहाँ कहो, वहीं पहुंचवा दिया जाएगा।‘ बस यही एक हुक्म मिला था उसे।
‘कब तक? ‘ पूछने पर जवाब मिला- ‘जब तक पूरी तरह से ठीक न हो जाओ। दो हफ्ते तो लगेंगे ही।‘ साथ में यह भी कि ‘ कोई दवा नहीं है अभी इस बीमारी की। हिम्मत और राम-भरोसे ही ठीक हो पाओगी तुम। बस, हिम्मत मत छोड़ना।‘
और तब एक फीकी मुस्कान के साथ स्वीकार लिया था उसने सबकुछ। किसी से भी मिलने-जुलने की सख्त मनाही थी। गांव के लिए जानलेवा खतरा थी वह- पर जाए तो जाए कहाँ। अफसर का एक एक शब्द कानों में हथौड़े की तरह गूंज रहा था।
जैसी भैरो बाबा की मर्जी…मन-ही-मन नियति के आगे हाथ जोड़ दिए तब सुगनी ने।
निर्णय कठिन जरूर था, पर गांव वालों के लिए सही था, जानती थी धीर-गंभीर सुगनी। करोना नहीं पहुँचा था अभी तक गांव में। और कोई नहीं चाहता था कि पहुँचे भी, सुगनी भी नहीं। कीटाणु संग नहीं लाना चाहती थी वह…हट्टी-कट्टी ही भागी थी वह मुंबई से। पर जाने कब, कहाँ और कैसे आ चिपका था कमबख्त , खुद नहीं जानती थी वह।…जानवर होती तो शायद वे गोली मार देते उसे। पर जानवर नहीं थी, इसीलिए तो जिन्दा छोड़ दी गई। अब जिए या मरे यह उसकी अपनी किस्मत और काफी हद तक उसके अपने बूते पर। सब देखने-सुनने और सहने की समझ अभी भी शेष थी सुगनी में।
आत्मबल जरूर टूटने को था, परन्तु अपनों से मिलने की तीखी प्यास, लड़ने और जीतने का ईंधन लगातार दे रही थी उसके भूखे प्यासे शरीर को।
असह्य सोच की तहों में घुटकर होश और जोश को मरने नहीं दिया और कैसे भी तैयार कर ही लिया आगे की विषम लड़ाई के लिए समझदार और हिम्मती सुगनी न खुद को। पर तभी, जाने किसकी समझ थी कि ठीक बाहर जाने से पहले, खेत में छिड़के जाने वाले कीट-नाशक की कड़ी बौझार से खड़े-खड़े ही नहला दिया गया उसे। अन्धी, बहरी हो, कोई फर्क नहीं पड़ता था अब उन्हें।
सुगनी ने भी सारी जलन और अपमान के बावजूद, बहते आंसू चुपचाप पोंछ लिए- दूसरे तो बीमार नहीं होंगे कम से कम अब उसकी वजह से। …पर क्या सच में ? आपत्ति जनक व्यवहार तो सह लिया था, पर चित्त शान्त नहीं हो पा रहा था उसका- यह कीड़ा चमड़ी पर नहीं, सांसों में , थूक और शरीर के पानी के अंदर था – भीतर-भीतर ही पनपता और बढ़ता। अंदर से तो खंगाला ही नहीं गया था उसे, फिर क्या फायदा ! नहलाना नहीं, पिलाना था सारा ज़हर उसे।
सामने डूबने को उतावला सूरज तक परेशान था। नीला आसमान तक लाल-पीला दिखा । सांय-सांय करती हवा में भी मानो एक नया रुदन शुरु हो चुका था अब उस तिरस्कार और अकेलेपन का। कैसे जिएगी यूँ अकेले-अकेले, कहाँ जाएगी, क्या खाएगी, कैसे व कहाँ रहेगी, आखिर ? जिन्दा रहने के लिए दैनिक जरूरतों से जुड़ी कई समस्याएँ थीं जो मुंह बाए खड़ी थीं। किंकर्तव्य-विमूढ़ सुगनी बहुत ठगा महसूस कर रही थी अपने ही गांव में सबसे दूर और अकेली। गांव उससे दूर कर दिया गया था और अपनों तक पहुंचने के सारे रास्ते भी बन्द। कभी गंगा के पुल को पार करती, तो कभी गंडक के पैदल पुल पर आरपार करने लगती। लड़ाई अस्तित्व की थी-उसके अकेले की नहीं, पूरे परिवार, पूरे गांव की सुरक्षा की भी और मोर्चे पर वह एक अकेली तैनात सिपाही..आकाश पर बैठे छलिया की वह काल-भैरवी धुन अब उसके कानों को बहरा कर रही थी।

‘ कौन पास आने देगा! खुद भी नहीं जाएगी, वह। डरेंगे सभी । आदर-सत्कार तो दूर, उसकी परछांई तक से कतराएँगे लोग-बाग। बस, अब और भटकाव और जग हसाई नहीं। रोने या सोग मनाने का वक्त नहीं, होश में रहने का वक्त है यह। कौनहारा घाट पर बैठी जलती चिताओं को शाम के धुंधलके तक देखती घंटो वहीं बैठी रही हताश् सुगनी- ‘ मान लो अकेले-अकेले प्राण-पखेरू उड़ भी जाएँ, तो क्या बेटे आएंगे, करेंगे उसका अंतिम संस्कार? काशी के मणिकर्णिका की तरह ही चौबीसों घंटे का शमशान है यह भी और मुक्ति का मार्ग भी, दूर दूर से आते हैं लोग यहाँ पर तो। इससे अच्छी जगह और क्या होगी इस संक्रमित शरीर से छुटकारा पाने को! पर, क्या उसे मुक्ति मिल पाएगी !’
पीठ पर फफोले और पैरों में छाले, उसपर से दागी हुई नाक, ताकि दूर से ही पहचाना जा सके कि संक्रमित है वह-मानो सिपाहियों सी एक अलग पहचान ,अलग वर्दी मिल चुकी थी उसे। अब सिपाही ने ही हार मान ली तो युद्ध कौन लड़ेगा? बुद्धि चेताती रही और मन विद्रोह- कैसे लड़े पर वह यह लड़ाई, उसके पास तो हथियार ही नहीं… शहरों में तो सहायता मिल रही थी पर यहाँ इस दूर-दराज गांव में जब बीमारी ही नहीं, तो काहे की और कैसी सहायता, कैसी व्यवस्था !‘
और तब सारे आंसू, नियति पर आती हंसी, सारी रुलाई, सारे भाव घोंट डाले सयानी सुगनी ने – मजबूर है परिवार और गांव भी तो। फिर दया-धरम के नाम पर तो वैसे ही कलयुग चल रहा है आजकल। अब तो बस एक वही है खुद के साथ। अज्ञातवास की यह पूरी परीक्षा एक अकेली उसकी ही थी अब और खुद उसे अपने ही बूते पर देनी और जीतनी थी -हंसकर या रोकर, यह उसकी मर्जी! पर दैनिक जरूरतों से जुड़े कई विषम और कठोर सवाल थे जो अजगर की तरह मुंह बाए खड़े थे सामने और एकबार फिर वही ‘सब-बन्द’ और अलग-थलग की मुंबई वाली स्थिति में ही वापस फंस चुकी थी बहादुर सुगनी ।
‘आम और लीचियों वाला गांव है उसका। हरा भरा, अपने फलों से पूरी दुनिया का पेट भरने वाला। अपने ही बागों में जा पड़े क्या…नहीं, वह तो गांव से ज्यादा दूर नहीं।‘ गांव के प्रति उसके मोह में कोई कमी नहीं आ पाई थी अभी भी। आती भी कैसे, यह वही गांव तो था, जहाँ उसके सारे सपने और अपने बसते थे! सत्तरह साल पहले मर्द बाजे-गाजे के साथ व्याहकर लाया था उसे। उसके स्वागत में पड़ोस की काकी-चाचियों ने मंगल गीत गाए गए थे, अंचरे की छांव सिर पर रखी थी। छोली में भरपूर अनाज और गुड़ डालकर स्वागत-सत्कार किया था उसका, अपनाया था उसे। सीधे-सच्चे लोगों का परिवार है उसका। लाड़-प्यार या किसी और चीज में कभी कोई कमी नहीं रही परिवार या गांव वालों के मन में। कमी तो आज भी नहीं है, बस यह वक्त ही जाने कैसा है! मंगल गीतों की गूंज थके तन-मन को नई उर्जा से भरने लगी। और तब बैठी-बैठी उन्हें ही गुनगुनाना उठी बावरी सुगनी।
चिता के पास सुहाग के गीत…जाने कैसा दर्द था आवाज में कि पास खड़े बूढ़े ने पगली समझकर, हाथों का जलेबी भरा दोना उसके फैले हाथों पर धर दिया। भूखी सुगनी बिना देखे ही टूट पड़ी। कब खा गई, पता न चला खुद उसे भी। बस अकेली सोच ही भरमाती और बहलाती रही -‘ इसी रज की गौरा ने तो सदा सुहागिन का आशीष दिया था। पूरी शिद्दत और श्रद्धा के साथ अपनाया है उसने परिवार ही नहीं, इस गांव को भी। जीते जी न बिछुड़ने की, सुख-दुख में साथ देने की कसम खिलवाई है सास ने। फिर, बिछुड़ेगी कैसे वह जीते जी इससे। उसका अपना गांव है यह। शरीर से भले ही दूर रहने की मजबूरी हो, पर मन से तो पहुंच ही सकती है वह अपनों के बीच। कुछ ही दिनों की तो बात है, निकल जाएगा यह वक्त भी, फालतू की यह परेशानी किस बात की!
मुंह में अंचरा ठूंसकर फफक-फफक उठती रुलाई को कैसे भी रोक ही लिया तब सुगनी ने। उसकी इच्छा के विरुद्ध झर-झर बहते आंसुओं से निचुड़ती अब वह एक कटीले रूखे झाड़ का रूप लेती जा रही थी। धूल भरे बाल और सुर्ख आँखें- लहरों में अपना ही चेहरा देखकर एकबार तो डर ही गई हिम्मती सुगनी ।
वाकई में खतरा थी अब वह गांव के लिए ही नहीं, खुद के लिए भी। यह कैसी निराश सोच है! डांट उठी तब खुद को ही सुगनी- सब अपने ही तो हैं और इन्ही के लिए तो जीती रही है वह आजतक। जी तोड़ लड़ी है पिछले बीस साल से। फिर इन्हें ही कैसे घातक इस बीमारी की चपेट में डाल सकती है! गंगा मैया में कूदने तक का जो ख्याल आया था कायर मन में, दृढता से पीछे ढकेल दिया उसने। उठी और एकबार फिर चलने लगी किसी बीहड़ और दुर्गम जंगल की तलाश में जहाँ कोई न पहुंचे। सूरज डूब चुका था और पीछे छूटा गांव तक अब अंधेरे में डूब चुका था। परन्तु आहत, विक्षिप्त और दुरुह उस मन-स्थिति में कुछ सूझ ही नहीं रहा था सुगनी को कि कौन-सी ऐसी जगह है जहाँ आसपास और सबसे दूर, सिर छुपा सकती है वह। पंद्रह दिन तक अदृश्य रहकर भी सुरक्षित जी सकती है, वह भी बिना किसी सहायता या संपर्क के ? हर जगह तो मकान और झोपड़े थे, बच्चे खेल रहे थे!…
आँसू भिंची मुठ्ठी से ही पोंछती, मुस्कुराई सुगनी – ‘वैसे ही, जैसे हजारों और जीते हैं अकेले-अकेले और भगवान भरोसे। ये पशु-पक्षी, जानवर, इनका कौन-सा परिवार या सहारा है। ज्यादा सोचने या डरने की जरूरत नहीं और इतना इन प्राणों का मोह भी ठीक नहीं! अगर एक उसके प्राणों की आहुति से पूरा गांव बच जाए, तो कोई बुराई भी नहीं इसमें । और तब कुछ-कुछ संतुष्ट, कुछ-कुछ भ्रमित गुनगुनाने लगी सुगनी- होइहै सोई जो राम रचि राखा। वैसे भी, सुगनी तो कहीं भी रह सकती है। जी सकती है। खोली मिलने से पहले मुंबई में भी तो रही ही थी आखिर उस एक टूटी पाइप में अकेली-अकेली, खुले आसमान के नीचे, हजार खतरों के बीच!’
‘ पर, तब तुम बीमार नहीं थीं।‘ मन ने एक और संशय की टुहुक लगाई – और पाइप जैसी पुख्ता चीज यहाँ सड़कों पर नहीं। घर ले जाते हैं लोग। ‘चुप, डराओ मत। ’, हताश सुगनी चीखती-सी कराही- बंजर में कुँआ खोद सकती हूँ, मैं। कर लूंगी कैसे भी इंतजाम…नहीं कर पाई तो भी जिन्दा रहूंगी। बेटों से तो मिलना ही है एक बार मुझे। देखना, ठीक होते ही जरूर लौटूंगी अपनों के बीच। कमजोर आंसू और हताश् मुस्कानों में अब मानो जीतने और हराने की होड़ लग चुकी थी और नाक की सीध में एक अज्ञात भविष्य की ओर सुगनी बढ़ती जा रही थी, बेहद थकी, लड़खड़ाती और गिरती-पड़ती-सी।
जंगल था उसके चारो ओर, और थीं कई-कई धूल भरी आंधियाँ। करोना के कीड़े से भी ज्यादा खतरनाक और बेरहम। पैरों में मानों लोहे की बेडियाँ पड़ चुकी थीं । मन-मनभर के एक-एक पैर को घसीटती, कैसे भी चली जा रही थी पर सुगनी, धूल उड़ाती, आंसू बहाती। अब तो रास्ता पूछने या मील का पत्थर देखने तक की जरूरत नहीं थी क्योंकि गंतव्य का पता तो खुद उसे भी नहीं था अब।
डरावने और उदास विचारों के चक्रवात से बचने के लिए सुगनी ने जोर-जोर से गाना शुरु कर दिया -ए मालिक तेरे बन्दे हम…गीत का हर शब्द मानो एक खास अर्थ ले चुका था अब उसके लिए- ऐसे हों हमारे करम… आंसू भीगे और भावभीने वे सुर चारो तरफ गूंजने लगे। और तो और कटीली झाड़ पर बैठी लाल सीने वाली चिड़िया ने भी उसके सुर में सुर मिलाना शुरु कर दिया। सामने पतली लकीर सी बहती बादलों की उदास परछांई में डूबी, सांवली गंडक नदी भी बीमार ही दिख रही थी सुगनी को। सारा जोश मानो सूने आकाश की तरह ही एक अपरिचित अंधेरे से भरने लगा था। आसपास सूखे झाड़ थे जिनमें हरियाली का नामो-निशान नहीं था। किर्र-किर्र करती, अकेली वह चिड़िया भी उसके संग-संग गा रही थी या रो रही थी, सुगनी निश्चय नहीं कर पा रही थी। अचानक हर चीज अपशगुन भरी और त्रासद लगने लगी उसे – एक अकेली चिड़िया का दिखना तक बच्चों को पढाई वन फौर सौरो, टू फौर जौय, नर्सरी राइम की याद दिला रहा था।- चिड़िया अकेली क्यों दिखी ? भयभीत आँखों ने अगल-बगल, ऊपर आकाश में बेचैनी से चिड़िया के जोड़ीदार को ढूंढना शुरु कर दिया। पर धूल भरे आकाश में किसी और पक्षी का कहीं नामो-निशान न था। करेजा अंदर को बैठने लगा। पर जब सब कुछ ही छूट चला था उसका तो भी ऐसा पता नहीं क्या था उस गठरी में कि गठरी को कसकर सीने से ही भींचे खड़ी थी सगुनी। ‘बाबा, अब तो एक आपका ही सहारा है’, मन-ही-मन एकबार फिर से हाथ जोड़े ग्राम देवता काल भैरव के उसने।
चमत्कार ही समझो या आशीर्वाद, सुगनी की आंसू भीगी आँखों ने तभी देखा कि अगले मोड़ पर ही, सामने झाड़-झंकार के बीच दुबका चार सौ साल पुराना भैरोंनाथ का मंदिर बांहें फैलाए खड़ा था उसके स्वागत में… उतने ही पुराने और दाढ़ी वाले बूढ़े बरगद के पेड़ के नीचे गांव के कोतवाल भैंरोनाथ का मंदिर… जिनके न्याय और दया में पूरे गांव को अपार श्रद्धा थी। सुगनी भी तो है इनकी अटूट भक्त। पहले दिन से ही रोज, सबेरे-सबेरे दूध चढ़ाने आती थी वह यहाँ पर। और अब जब रास्ता भटक गई थी दयालु भैरों बाबा खुद ही प्रकट हो गए उसकी रक्षा के लिए। अब कोई भय नहीं। सब संभाल लेंगे भैरों बाबा। ढाढस मिल चुकी थी उसे- गांव की पगलिया भी तो दोनों पैरों को पेट में सिकोड़े जिन्दगी निकाल ले गई थी इसी मंदिर के बीच पड़ी। कुछ पैसे , कुछ पूरी-परसाद चढ़ा ही जाते थे गांव वाले। और बस इतना ही ईधन काफी है चलती सांसों की इस धौंकनी के लिए। पगलिया जीती रही, तो वह तो पूरी होश में है और उसे तो पूरी जिन्दगी नहीं, थोड़ा ही वक्त निकालना है यहाँ पर! एक बार फिर बाबा के आगे हाथ जोड़ दिए सुगनी ने उनकी दया का आभार मानते।
अब यह साक्षात सामने खड़े भैरों बाबा से ही रक्षा की गुहार लगाने का वक्त था। सुगनी की भूखी-प्यासी आँखों में आरती के दिए-सी आस की नई लौ जल उठी थी। पैरों में एक नये उत्साह के साथ कब चौखट लांघकर गर्भ गृह में जा पहुँची, उसे खुद ही पता नहीं चल पाया। पर दूर बैठी काली कुतिया बड़े ध्यान से उसे देख रही थी, मानो उसी का इंतजार कर रही हो। जानती जो थी कि मंदिर में लोग क्यों आते हैं! मिनटों में फर्र-फर्र कूदती-फांदती सुगनी के ठीक पीछे आ खड़ी हुई। दुम हिलाती, प्रश्न-वाचक मुद्रा में घूरने लगी उसे, मानो पूछ रही हो कि क्या भेट चढ़ाओगी तुम आज ? बहुत भूखी हूँ, मैं। बहुत दिनों से कोई नहीं आया इधर इस मंदिर में।
भूखी तो सुगनी भी थी। प्यार से सिर थपथपाया तो पैरों में लिभड़कर पालतू जानवर-सी कूं-कूं करने लगी कुतिया, मानो पिछले कई जनम का याराना हो । लपक-लपक कभी गठरी चाटती तो कभी व्यग्रता में अनियंत्रित दुम हिलाती। पर सुगनी की गठरी में तो कुछ भी शेष नहीं था, सिवाय चार जोड़ी कपड़े और एक थाली-लोटा के। गठरी खोल, चद्दर झाड़ी तो सूखी रोटी के चन्द टुकड़े जमीन पर बिखर गए। इसके पहले कि सुगनी उठाती, भूखी कुतिया बिजुरी-सी लपक कर मिनटों में सब गटक गई। फर्श पर बिछी मोटी धूल की मोटी परत तक चाट चुकी थी वह तो।
और तब इसके पहले कि अंधेरा सब कुछ निगले , सुगनी दौड़ती-सी बाहर आई और झाड़ों में अपनी भूख के लिए कुछ ढूंढने लगी। बहुत कुछ है धरती माता के पास उस जैसी बेघर और लाचार ओलादों के लिए। पशु-पंछी भी तो पेट भर ही लेते हैं कैसे भी, कहीं से कुछ भी उठाकर, खाकर। फिर वही क्यों नहीं! और तब दिख ही गया कुछ ऐसा जिससे वह अपनी भूख मिटा सकती थी।
भैरों बाबा का प्रसाद मानकर सामने लटके काली बेरियों के चारों गुच्छे तोड़ लिए उसने तब और वहीं सीढ़ियों पर बैठकर खा भी डाले। कुतिया चुपचाप बगल में बैठी उसे खाते और तृप्त होते देखती रही। बीच-बीच में संतोष और स्वीकृति में दुम हिला देती और लार भी गिरा देती बीच-बीच में। लाड़ में आकर जब सुगनी ने एक बेरी उसकी तरफ फेंकी तो सूंघकर ही तेजी से पीछे हट गई डरी कुतिया। एक मिनट को तो सुगनी भी सहमी उसके इस व्यवहार से, फिर हंसकर समझाया-‘ नहीं, बिजुरी जहरीली नही हैं ये, मैंने भी तो खाई ही हैं।‘
‘बिजुरी ‘ यही नाम दिया था तब सुगनी ने अपनी उस काली कलूटी, लपक-लपक पीछा करती सहेली को । और बिजुरी की दुम भी तो दुगने जोश से हिल ने लगी थी सुनते ही, मानो बचपन से ही सुनती आई थी वह इस नाम को अपने लिए। बारबार पुकारा सुगनी ने उसे । सुगनी बिजुरी पुकारती और कुतिया लपकती आती, मुंह में एक सूखी डाल दबाए ओर आते ही उसके पैरों में डाल देती, मानो सुगनी की मदद करना चाहती थी वह भी कुछ भंडारा जुटाने में।
कुछ देर तक तो यह लाड़-भरा खेल चलता रहा, परन्तु थोड़े ही देर में सुगनी का पोर-पोर बिफरने लगा। भरे पेट का नशा है, सुगनी जानती थी- उन बेरियों का नहीं। धरती से उपजा दाना अमृत है, जहर नहीं, समझा लिया था सुगनी ने खुद को। उठी, और जैसे-तैसे बिजुरी द्वारा लाई उन सूखी टहनियों से ही झाड़कर गर्भगृह अपने लायक कर लिया। सामने कोने में अभिषेक के लिए एक कलशी और बाल्टी भी दिखी उसे। और क्या चाहिए उसे। भैरों बाबा ने पूरा इंतजाम कर रखा था उसके लिए। तुरंत नदी से लाए जल से स्वच्छ करके चादर बिछा ली उसने दुखते पैर सीधे करने को। रात-बिरात की जरूरत के लिए लोटा और बाल्टी भर पानी सिराहने रखकर निश्चिंत थी अब सुगनी – सुबह की सुबह देखी जाएगी! सोई तो ऐसा कि कुछ होश ही नहीं रहा उसे। दुखते शरीर पर चढ़ी वह तन-मन की थकान वाकई में एक नशे सी ही फैल चुकी थी अब उसके ऊपर। बेहोश-सी एक ओर लुढ़की रही सुगनी रातभर और बिजुरी बगल में बैठी पहरेदारी करती रही उसकी, बिना हटे, बिना सोए। पूरी चौकसी से कान फड़फड़ाकर सुगनी के थके और खड़खड़ करते खर्राटे सुनती और बीच-बीच में अगर अधिक खांसती सुगनी तो चारो टांगों से घेरकर बदन की गरमाहट देती, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि अपने चारो पिल्लों को बचाया था उसने पिछले बरस के सीत-पाले से।
पर पौ फटते ही बिजुरी ने दांतों में दबाकर सुगनी का पल्ला खींचना शुरु कर दिया। पहले आहिस्ता-आहिस्ता फिर तेजी से। सोई पड़ी सुगनी को व्यग्र टांगों से कुरेदा फिर माथा चाटा पर सुगनी में उठने की ताकत नहीं थी। बिजुरी की लाख कोशिशों के बाद भी वह उठी नहीं। पोर-पोर दर्द से फट रहा था। जैसे-तैसे आंखें खोलकर बाँहें फैलाईँ तो बिजुरी कूदकर जा लिपटी और लिभड़ी-लिपटी खुद भी सो गई वहीं, उससे सटी-सटी-ही।
बिजुरी सुगनी के इर्दगिर्द ही रही। उस एक अकेली कुतिया के लाड़ में भीगी-डूबी, बिना किसी दवा या इलाज के तेज बुखार में तपती रही बेहोश पड़ी सुगनी। बेचैन काली कुतिया फर्र-फर्र अंदर बाहर करती, देर तक राह देखती बाहर खड़ी। जब कोई आता-जाता न दिखता तो पलटकर वापस फिर सुगनी के पास लौट भी आती। उसे अपने शरीर की गरमाहट देने लग जाती। कभी माथा सूंघती तो, कभी लाड़ से तलवे चाटती, पर हजार कोशिशों के बाद भी सुगनी में उठने की हिम्मत नहीं लौटा पा रही थी अकेली कुतिया। अंत साफ दिख रहा था उसे, सारी उम्मीद छोड़ अब तो बिजुरी ने भी बुरी तरह से रोना शुरु कर दिया था। पर आसपास कोई नहीं था जो उसकी मदद को आता। लोटे में नदी से भरा पानी तक यूँ ही पड़ा रहा सुगनी के सिराहने। कांटे भरे गले को हरा करने की भी सुध नहीं रह गई थी अब बीमार सुगनी में। बुखार और-और तेज होता चला गया। फिर धीरे-धीरे हर दर्द और पीड़ा से मुक्ति मिलती चली गई। बेटे और पति, या गांव से कोई आदम जात भले ही न आया हो, पर बिजुरी ने मौत में भी साथ नहीं छोड़ा सुगनी का। नेह का कर्ज चुकाना तो ये जानवर ही जानते हैं, इंसान नहीं। सुगनी हिलती भी तो बिजुरी कूं-कूं करने लग जाती, प्यार से चाटती और बेहोशी की उस हालत में भी बहुत आराम मिलता सुगनी को अपने-पन के इस प्यार और परवाह भरे बिजुरी की निकटता के अहसास से।
दो-तीन-चार, पता नहीं सुगनी के कितने दिन गुजरे इस तरह। भूख-प्यास या तकलीफ कुछ नहीं सता रही थी अब उसे। हर पीड़ा से परे थी वह अब। धीरे-धीरे, सारी चेतना परे छिटकती चली गयी और वह पल भी आया जब हर दर्द और दंश देती सोच से पूर्णतः मुक्त हो गई सुगनी।
हफ्ते भर के अंदर ही पूरे गांव में खबर थी सुगनी के गुजर जाने की। सुनते ही, सभी ने चैन की सांस ली – ‘ शुक्र है भगवान का । महामारी नहीं फैली गांव में ।‘
दो सरकारी कर्मचारी मुंह पर फाटा मारे आए तो मंदिर के एक कोने में पूजा के चढ़ावे की तरह सुगनी और काली कुतिया की लाश एक दूसरे से लिभड़ी दिखी। तीन-चार परत के फाटे के बाद भी मौत की असह्य दुर्गंध खड़ा नहीं होने दे रही थी वहाँ पर और अपने ही शारीरिक निष्क्रमण में डूबी उन लाशों को रबर के दस्तानों से भी छूने की हिम्मत शेष नहीं थी उनमें। कैसे भी दूर से ही, डंडे के सहारे अलग किया गया, तो बिखरे बाल और खुली दोनों आंखों के साथ सूखे खून सने मुंह से तुरंत ही पलट भी गई साक्षात काली मां-सी दिखती सुगनी। एकटक उन्हें ही देखती- मानो पूछ रही हों- ‘इतनी देर कैसे कर दी तुमने आने में?’
उस एक पल में मानो साक्षात काल भैरव खुद सुगनी के मृत शरीर में उतर आए थे और उसपर गुजरे अमानवीय कष्टों के लिए पूरे गांव की भर्त्सना कर रहे थे। डरकर, तुरंत ही पीछे हट गए दोनों कर्मचारी। मुक्ति का तो पता नहीं पर ‘ कौनहारा ‘ सुगनी की किस्मत में नहीं था। जैसे-तैसे, हिम्मत के साथ बिना हाथ लगाए कूड़े वाली मशीन से उठाकर दोनों लाशें ए।कसाथ वहीं गण्डक नदी किनारे ही फूंक दीं गईं। कूड़े के ढेर की तरह लोटा-बाल्टी,चद्दर, सब डाल दिया गया था लाश पर। पूरे वक्त सुगनी के साथ रहे भैरों बाबा को छूने की हिम्मत नहीं थी किसी में। जलाने से पहले गांव में आने पर जैसे नहलाया गया था सुगनी को, वैसे ही एकबार फिर इस अंतिम विदा के वक्त भी दूर से ही शुद्ध किया गया। फर्क बस यह था कि इसबार कीट-नाशक नहीं, पैट्रोल की बौछार थी अभागिन पर। बोरे से ढकते वक्त तक, लम्बी दूरी के साथ, मशीन की लम्बी बांह से ही बोरा गिराया गया था उसपर। जिसके लिए तरसती रही थी वह मानव स्पर्श अंत तक नहीं मिला बदनसीब को। तीली की एक ही चिंन्गारी से धू-धू जल उठी थी अभागिन, मानो निर्मम गांव से दूर जाने की खुद उसे भी बहुत जल्दी थी अब तो।
चिता का फक् उजाला दूर तक जा छिटका था तुरंत ही। पूरे गांववालों ने दूर से ही देखा उसका दाह। गांववाले भयभीत नहीं, संतुष्ट थे अब। अंत यही होना था जानते थे वे। भैरों बाबा ने सुन ली उनकी यही क्या कम था- सभी के चेहरे मुस्कुराते और दमक रहे थे। एक ही आहुति से महामारी टल चुकी थी । सुगनी के अकड़े दोनों हाथ भी तो अंत तक आशीर्वाद की मुद्रा में ही उठे दिखे, मानो समझती थी वह उनकी मजबूरी को। शुभ शगुन और संकेत था यह भी। अब कोई अहित संभव नहीं गांव में -आशीष देती ही गई है सती मैया। कोई कहता काल भैरो बाबा ने खुद रक्षा की उनकी, तो कोई-कोई यह भी कि सुगनी के इस अलग-थलग रहने और प्राण देने वाले त्याग ने ही बचाया। यह भी कहते सुना गया कि काली कुतिया कोई और नहीं साक्षात भैरो बाबा की ही दूत थी। गांव की असली पहरेदार, जिसने पूरे गांव को सुगनी के साथ-साथ खुद अपनी भी बलि देकर इस महामारी से बचाया। सुगनी को मंदिर में ही रोके रखा मरते दम तक। जितने मुंह उतनी बातें थीं अब। पर रह-रहकर चमचमाती बिजुरी के उजारे में कीटनाशक से धुली और दमकती वह कालभैरव की मूर्ति जाने क्यों और भी डरावनी और क्रुद्ध दिख रही थी। सभी ने महसूस किया इस बेचैनी भरे अहसास को। उन्मादी भीड़ डरकर शीघ्र ही तितर-बितर भी हो गई। फिर तो बड़े-बड़े ओलों के साथ रातभर मूसलाधार बारिश हुई । ऐसी बारिश, जो हाजीपुर गांव में ना तो पहले किसी ने देखी थी और ना ही सुनी ही थी कभी। एक चमत्कार और हुआ- काली कुतिया रातों-रात देवी बन गई। भैरों बाबा के मंदिर के पास ही उसकी समाधि बनी। श्रद्धा अनुसार चढावे भी चढ़े। सुनते हैं, सारे पैसे खुद सुगनी के बेटों ने ही दिए, पहला चढ़ावा भी उनका ही था। नियम से फूल-माला चढ़ाने आते हैं सब। पर सुगनी को कोई याद नहीं करता। बीमारी की तरह ही एक दुस्वप्न, एक हादसा थी सुगनी, जिसे भूल जाना ही बेहतर समझा पूरे गांव ने। उसकी तो संक्रमित धूल तक धुल-पुंछ चुकी है कोने-कोने से। हाँ, कटीली झाड़ से उठती सांय-सांय करती हवा में कन्हाई, किशना और गोविन्दा, बेटों के नाम पुकारती दर्दभरी चीखें जरूर सुनाई देती हैं गांववालों को । भटकती आत्मा आज भी कुतिया को संग लिए काल भैरवी-सी घूमते देखी है कइयों ने वहाँ पर। सयानों का मानना है कि शाम होते ही गश्त लगाती हैं दोनों। पर डरने की जरूरत नहीं इनसे। गांव की पहरेदार हैं ये… असली कोतवाल।
पर अंधेरा होने के बाद अब कोई उधर नहीं जाता। …
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शैल अग्रवाल

email: shailagrawal@hotmail.com

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