कैरो में घूम रहे थे हम वह भी पिरामिड के आसपास। मानो बरसों का सपना सजीव हो उठा था।
इस्तैनबुल और वैनिस की मिली-जुली याद दिला रहे थे कैरो के बाजार और वैसी ही भीड़भाड़ भी थी वहाँ। कहीं पर खूब रुचि से सजे-संवरे तो कहीं सब कुछ वैसा ही बेतरतीब और बिखरा हुआ-सा ही।
वह इतिहास की धरोहर और सैकड़ों सालों से सोई पड़ी शहजादियाँ… तीन दिन ही हुए थे कि छोड़ने का वक्त भी आ गया। नील नदी के ऊपर बने उस पुल पर टैक्सी तेजी से दौड़ी चली जा रही थी और उससे भी अधिक तेजी से विचारों की एक रेलम-पेल थी दिमाग में जो अब तक जाने कहाँ-कहाँ ले जा चुकी थी मुझे ।
कभी बरबस ही गंगा का ध्यान आ जाता और मन खुद-ब-खुद श्रद्धा से नत हो जाता तो कभी मन आदम इतिहास दोहराने लग जाता। इसी के किनारे तो पहली बार अनाज उगाया होगा हमारे पूर्वजों ने । जीने का आदम तरीका सीखा होगा। गंगा-सी माँ ही तो है यह भी हमारी। माँ से भी ऊँची शायद, दादी नानी या परदादी और परनानी कह लो, जो भी मन मानना चाहे। मन से ही तो जुड़ती है रिश्तों की यह कड़ी।
कोई न कोई जैविक रिश्ता निश्चित ही था हमारा, जो बांध रहा था मुझे इस देश और यहाँ के लोगों से। ‘वसुधैव कुटुम्बकम्’ का वह सूत्र कभी कुछ ऐसा ही तो अनुभव करके लिखा होगा हमारे पूर्वजों ने।..
आखिरी दिन था वह सब कुछ देखने और घूमने को। पैरों और दिमाग में हड़बड़ी-सी मची हुई थी। जैसा कि होता ही है इन परिस्थितियों में, जल्दी-जल्दी निपटा रहे थे हम सभी कुछ, घुमाई से लेकर खरीददारी तक सभी कुछ। हम बस घूमे जा रहे थे कि कहीं कुछ छूट न जाए…क्या, हमें खुद ही पता नहीं था?
पर देर-सबेर लौटना ही पड़ता है हर यात्री को। यही तो यात्राओं का दुख भी है और सुख भी।
आप चाहें तो इसे घुमक्कड़ी का नशा भी कह सकते हैं या नए को पूरा संजोने की प्यास भी।
वैसे कुछ विशेष नया था भी तो नहीं वहाँ सिवाय उसके जो पहले दिन से ही महसूस किया था।
कई बार तो दिमाग़ की उस अनबूझ सुरंग में अकेली ही भटकने लग जाती थी, भटकती उन अनगिनत जीवित-मृत शहजादियों के साथ मैं भी।
शहजादियों का शहर है कैरो, जिन्दा नहीं, अधिकांश मृत शहजादियाँ…असंख्य शहजादियाँ, जिन्हें ममी बनाकर कैद कर रखा है समय ने।
मृत्यु इस देश में इतिहास की प्रदर्शनी और स्मारक बनकर जिन्दा है आज भी। और जीए जाने की अदम्य और अमर चाह में भटकती-सी ही दिखी। मृत्यु के उस पार जाकर भी जीवित रहने की यह चाह ही तो है जिसने सुला रखा है इन्हें सैकड़ों सालों से इन ताबूतों में, जाने किस सुबह की चाह में…सुबह जो बस एक काली रात में उजाले का स्वप्न तक नहीं शायद इनके लिए।
जीवन ही नहीं, अपनी क्षणभंगुर शान-शौकत और वैभव तक के लिए अमरत्व की कामना को संजोए हुए हैं ये मक़बरे जिन्हें हम पिरामिड कहते हैं। नौकर, चाकर, तोता, बिल्ली सैनिक सिपाही , रानियाँ , किसी को भी तो नहीं छोड़ा गया यहाँ पर इनके साजो-सामान के बाहर। शाह और शहज़ादी गए तो सबको उनके साथ जाना ही था। शाही हुकुम और रिवाज था यह भी तो। चाहे कितना ही निर्मम और निर्दय क्यों न हो यह फैसला जीवित प्राणियों का मालिक के साथ ही ममी में बदलकर दफन हो जाना, पर होता रहा। उद्देश्य बस एक ही था कि कुछ बदले नहीं। मरकर भी नहीं। वहाँ पर भी वैसे ही सेवा होती रहे, सब कुछ वैसे ही चलता रहे। वही सुख-सुविधा मिले , जिसके आदी थे।
एक असंभव चाह ही सही, पर उसे स्मारक बना-बनाकर सुरक्षित किया इन्होंने और आज एक अजूबा ही तो है यह भी हमारी आँखों के लिए! बचाए रखने की यह कलाकारी इतनी सुगढ़ कि एक बाल तक नहीं झरता लाशों से। आज भी दुनिया के पुराने सात आश्चर्यों में से एक !
गीजा के इन पिरामिडों को ‘काल’ भी तो नहीं मिटा पाया है पर!
पर यह कैसे संभव है? कब्र् में मुरदे सोते हैं, मुरदों की जीवित चाह पहली बार देख रही थीं आँखें।
आश्चर्य नहीं, उदास और कुछ-कुछ हास्यास्पद सा ही लग रहा था उन खंडहरों में घूमना। कुछ-कुछ ताजमहल जैसा ही, जो अपनी पूरी सुन्दरता के बावजूद भी उदास ही छोड़ता है मन को। कुछ भी तो ऐसा नहीं यहाँ इस संसार में जो पैदा होकर नष्ट न हो। फूल-पत्ती, इंसान सब को ही गुजरना पड़ता है जीवन-मृत्यु के इस चक्र से। तजना ही पड़ता है सब कुछ। चाहे कितना ही अमरता और ताकत का भ्रम न पाल ले अदना-सा इनसान।
मकबरों के अंदर टहलते हुए सबकुछ भव्य भी खोखला ही महसूस होने लगा था।
यह वैभव, सोना चाँदी, और अनगिनत सेवा और मनोरंजन के लिए संग ले जाए गए कंकाल अब इनके भला किस काम के? कोई जीवन हो भी मौत के पार, तो वहाँ राजा-रंक में फ़र्क़ तो नहीं ही होता होगा!
अब एक सवाल और भी रह-रहकर फन मार रहा था, पर क्या वाकई में इस संसार में, इस प्रकृति में कुछ मिटता भी है, जाता भी है कहीं? या फिर सब कुछ मात्र रूप बदल-बदलकर ही जीता मरता रहता है? चन्द वही सांचे तो हैं उसके पास, जिनसे वह हमें गढ़ने, बनाने, मिटाने और फिर बनाने का अपना खेल जारी रखता है…जैसे कि उसकी बगिया में खिलते-झरते असंख्य फूल! व्यवस्था सुचारु है पर अगर कभी-जभी ग़लत तार जुड़ जाएँ तो?
वे प्राचीन सभ्यता व संस्कृति के भव्य और विशाल संग्रहालय, अपनी अद्भुत प्राचीन तकनीक और हठी जिद को दर्शाते, इतिहास और दर्शन के नए-नए सबक भी देने लगे थे अब तो मुझे ।
मन रूप और कला से चमत्कृत तो था, पर बिखरा वैभव वैराग ही अधिक उत्पन्न कर रहा था।
माना आदम-सभ्यता यहीं से शुरु हुई थी और हम भी, पर घटना और अनुभवों का वह सिलसिला तो बिल्कुल ही असंभव और अविश्वनीय ही था बुद्धि के लिए।
अपनी इस तीन चार दिन की रहस्यमय और रोमांचक यात्रा के बाद, मैं वह नहीं रह गई थी, जो यहाँ आने से पहले थी। बहुत कुछ ऐसा घटा कि यदि बताने बैठूँ, तो हास्यास्पद ही लगेगा, परन्तु अब जब सब कलम की नोक पर आ ही बैठा है, तो लिखना ही पड़ेगा।
जगहें तो कई बार अपनी सी लगी थीं। पर एक ही जगह में इतने अपने से दिखते लोग कम ही दिखे थे पहले । घूमने जाती थी तो हर जगह भारत दिखता था पहले, पर इस बार तो हर मोड़ पर पीछे छूटे परिजन दिख रहे थे। उनसे मिलते-जुलते चेहरे थे। मानो सच नहीं, स्वप्न में विचर रही थी मैं। हर चेहरा अपना-सा, पहचाना-सा। एकबार होता तो भी ठीक था, बारबार घटनाओं का यूँ खुद को दोहराते जाना और अपरिचितों में परिचितों का नजर आने लग जाना, एक पूरा रोमांचक विस्मय ही तो बन चुका था।
सुना तो कई बार था कि हर व्यक्ति के सात रूप घूमते हैं एक ही वक्त में। बस हम मिल नहीं पाते सभी से।
मुझे इन सुनी-सुनाई बातों पर विश्वास नहीं होता और बात एक किवदंती-सी ही आई-गई भी हो हो जाती, अगर वह सब खुद मेरे साथ न घटा होता… मात्र स्वप्न होता!
मन जाने कैसे-कैसे गूढ़ रहस्यों में ही उलझने लगा था, जिनके जवाब किसी के पास नहीं।
काली बिल्लियाँ बहुत घूमती दिखी थीं वहाँ चारो तरफ। चित्र और मूर्तियों में भी और साक्षात भी।
और कहते हैं कि बिल्लियों को आभास रहता है मृत आत्माओं का। एक ही जनम में नौ-नौ जिन्दगी एक साथ जीती हैं ये बिल्लियाँ।
पर खुद भी तो कुछ-कुछ वैसा ही महसूस कर रही थी मैं उन घटनाओं के बाद।
बारबार शेक्सपियर याद आ रहे थे,
‘होरेशियो, यह चांद-तारे ही नहीं , और भी कई रहस्य हैं इस बृह्मांड में। तुम्हारे अनुभवों से परे, बुद्धि से परे।’…
कैरो का प्रसिद्ध ताहिर म्यूजियम घूमते समय जब पोते ने कहा कि उसे बंदर की ममी भी देखनी है, तो उसके चेहरे पर एक बाल-सुलभ मुस्कुराहट थी और मेरे मन में करुणा और विस्तृणा। कितना सहा होगा इन जीवित नन्हे पशु पक्षियों ने भी इन मृत शहंशाह और शहजादियों के साथ।
जानवरों की ममी के लिए अलग कक्ष थे और हम अब तक वाकई में थक चुके थे उन अनगिनत ताबूतों में झांक-झांककर।
और तब बहू ने हंसकर कहा,
‘ चलो मम्मी, हम आप तो नीचे चलकर खुली हवा में बैठते हैं। थक गई हूँ मैं इन्हें देख-देखकर। इतना मन भारी हो चुका है कि लग रहा है कि जैसे इन सारी ममी की आत्माएँ मेरे अंदर ही घुस गई है।‘
बात साधारण थी और मजाक में ही कही गई थी पर मुझे पूरी तरह से चौंका गई।
क्या ये मृत आत्माएँ भी हमारे अंदर घुस सकती हैं? नहीं जानती।
पर बात तो निश्चित ही करती हैं हमसे। बताती और समझाती हैं हर कही अनकही को।
अब कुछ-कुछ समझ में आने लगा था , क्यों कैरो बुला रहा था मुझे?
क्यों शार्मल शेख की सारी सुख-सुविधाओं को छोड़कर ५०० मील दूर की यह यात्रा करने को मन इतना बेचैन था!
शुरु से ही लग रहा था, पहले भी आई हूँ यहाँ पर मैं।
रह चुकी हूँ। जी चुकी हूँ, इस जगह, इस शहर को मैं। पर कैसे?
कैरो की वह पहली ही यात्रा तो थी हमारी ।
ऐसा ही कुछ तब भी तो महसूस हुआ था जब बचपन में पहली बार जयपुर घूमने गई थी।
वो गुलाबी पत्थर के महल , गलियाँ, सब कितनी परिचित, उजाड़ और उदास लगी थीं तब भी। पर कितनी परिचित-सी थीं, मानो सैकड़ों बार पहले भी घूम चुकी थी इनमें। या फिर इंगलैंड में मोटरवे पर उन पुलों के नीचे से गुजरते हुए भी तो यही अहसास हुआ था। बचपन से ही हूबहू कई बार सपनों में देखा था इन्हें, बिना इंगलैंड आए और उनके बारे में कुछ जाने या पढ़े बगैर ही।
शायद ये यादें ही हार्ड ड्राइव हैं जीवन रूपी इस कम्प्यूटर की। कम्प्यूटर खराब हो जाए पर ये बची रह जाती हैं, सब कुछ वैसे ही समेटे संभाले हुए।
नहीं जानती, यह पूर्वाभास भी कोई मानसिक विकार है या फिर वास्तविकता? जैसे गलत तार आपस में जुड़ गए हों और संकेत जो नहीं मिलने चाहिएँ, नहीं जानना चाहिए जिन रहस्यों को, उनका ही आभास मिलना शुरु हे जाए।…
पर क्यों? ज़रूरत क्या है इसकी? संदेशे क्या हैं इनमें?
मानो न चाहते हुए भी वर्जित रास्ते पर मुड़ चुकी थी में अब! जहाँ पर खड़े-खड़े वह सब मेरा इंतजार कर रहे थे, जिन्हें जानती तक नहीं थी, या शायद जानती थी कभी पहले, बहुत पहले। क्योंकि सभी मेरे किसी-न-किसी अपने के ही प्रतिरूप थे। या फिर शायद मेरे अपने ही अंदर थे और मैं ख़ुद किसी भ्रम या स्वप्न में थी, मेरी कल्पना मुझे छल रही थी।
यह विभ्रम का सिलसिला तो उस जमीं पर पैर रखते ही शुरु हो गया था।
एयर पोर्ट पर ही पासपोर्ट औफिसर पर नजर पड़ी, तो तुरंत ही भतीजा याद आ गया। फिर जब उसने मुस्कुराकर पासपोर्ट लौटाया तो और भी आश्चर्य हुआ। हूबहू वही मुस्कान भी थी उसकी!
‘होता है ऐसा भी कभी-कभी।‘ सोचकर तुरंत ही बात आई-गई भी कर दी थी मन ने। पर उस साजिश का तो पता ही नहीं था उस वक्त जो मुझे और भी चौंकाने वाली थी।
ज्यादा वक्त नहीं लगा उसमें भी।
दो दिन बाद ही होटल के डाइनिंग ह़ॉल में बैठकर पियानो बजाते युवक को जब दूर से देखा तो, साथ आया बेटा समझकर, सम्मोहित-सी उसकी तरफ बढ़ती ही चली गई। पूरा विश्वास था कि वह कोई और नहीं मेरा अपना ही बेटा था और वहाँ बैठा मेरा इंतजार कर रहा था।
भला एक माँ कैसे अपने बेटे को पहचानने में भूल कर सकती है?
पर पास पहुँचते ही, उसका ‘ हलो मैम ‘ मैं आपकी क्या मदद कर सकता हूँ?’ वाले अन्दाज की मुस्कुराहट के साथ मेरे साथ हाथ मिलाना… मुझे पूरा जगा गया था।
दूर से हूबहू बेटे जैसा दिखता व्यत्ति, बेटे जैसा लगता अवश्य था पर बेटा नहीं था।
बेटा तो पीछे खड़ा-खड़ा मेरी यह अवस्था देखकर पागलपन पर खीझ रहा था –‘ चलो मम्मी टैक्सी आ चुकी है। देर हो रही है। धूप तेज हो उसके पहले ही हमें पिरामिड घूम लेने चाहिएँ।‘
‘हाँ-हाँ।’ – कहती तब तुरंत ही पलट भी ली थी मैं।
उसे क्या और कैसे बताती कि मेरे साथ क्या घटा था उस वक्त? और अगर बता भी देती तो क्या वह विश्वास भी करता?
खुद मेरा मन मानने को तैयार नहीं था कि जिस बेटे को दिन में बीस बार देखती हूँ, उसे ही कैसे अजनबी में देखा मैंने?
शर्मिंदा तो थी ही, पर उससे भी अधिक चकित और उद्विग्न भी।
हाथ में पकड़ी पानी की बोतल गटागट एक ही सांस में पूरी पी गई।
‘दिमाग से अस्वस्थ तो नहीं हो रही कहीं?’
अब एक नई आशंका थी जो मन में उमड़ने-घुमड़ने लगी थी। पर दिमाग था मानो एक जासूसी खोज पर ही चल पड़ा था अब तो।
‘तो क्या कुछ और भी अपने लोग ऐसे ही दिखेंगे मुझे यहाँ इस धरती पर?’
पर हँसकर बात धूल-सी छाड़ भी दी थी तुरंत ही दिमाग से।
शाम को जब दिनभर घूम-फिरकर थककर लौट रहे थे, टैक्सी में बैठे-बैठे एक झपकी-सी आ गई। आँखें खुलीं तो टैक्सी चलाने वाला ड्राइवर पीछे से कद-काठी और रंग-रूप से बिल्कुल भाई जैसा दिखा।
पल भर को वाक़ई में भूल गई कि बनारस में नहीं, कैरो में घूम रहे थे हम।
पर वह इतना भाई जैसा !
अब मेरे माथे पर दिसंबर के महीने में भी पसीने की बूंदें थीं।
थोड़ी बहुत तो कई इंसानों की शकल मिलती हैं। वही दो आँख , एक नाक और होंठ ही तो हैं सब के पास! किसी के थोड़े मोटे तो किसी के जरा पतले!
हजार तर्क-वितर्कों के बाद भी, एक बात तो मन में निश्चित ही होती जा रही थी कि मेरा और इनका अतीत अवश्य ही साझा है, चाहे किसी भी काल-खंड या जनम में रहा हो। कोई साझी कड़ी तो निश्चित है ही।
तुरंत ही एक और नई उत्सुकता जग चुकी थी कि क्या मुझे अपनी जैसी शकल की भी कोई दिखेगी अब यहाँ पर? रोमांचक होगा यदि ऐसा हुआ तो? संभावना तो नहीं थी। फिर भी उस पागलपन को कौतुक भरे स्वप्न-सा जीने लगी थी!
विचारों की इस सारी उहापोह में उलझी, खुदको सुलझाने की कोशिश कर ही रही थी कि अचानक टैक्सी ट्रैफिक लाइट पर आकर रुक गई।
तभी वह आई।
छोटी-सी, नाजुक-सी, और अपने नन्हे-नन्हे हाथों से कार के शीशे साफ करने लगी।
उम्र तेरह चौदह से अधिक नहीं रही होगी, पर पूरी तरह से सिर से पैर तक बुरके से ढकी हुई। भीख मांगने का यह भी एक स्वाभिमानी तरीका बन चुका है जरूरत मंद शरणार्थियों के बीच। इंगलैंड में भी आदमी, औरत, बच्चे सभी को देख चुकी हूँ इस तरह से ट्रैफिक लाइट पर रुकी कारों का शीशा साफ करते हुए।
पर उस पर नजर पड़ते ही और उसके पास आते ही, जाने क्यो जी जोर-जोर से धड़कने लगा था। नहीं जानती थी कि ऐसा क्यों और किस आशंका के तहत हो रहा था?
ड्राइवर ने उसकी फैली गोरी हथेली पर अभी चन्द सिक्के रखे ही थे, कि ‘ शहजादी। ‘ कहकर किसी ने एक कातर-सी आवाज दी उसे, मानो दर्द से कराह रहा था पुकारने वाला।
अगले पल ही हाथ का कपड़ा और सारा काम भूलकर मूर्ति सी थम गई थी वह तब। फिर सब कुछ तजती, तेजी से लपककर सड़क पार करती तुरंत ही उस तक जा पहुँची थी। वह, जो एक टूटी-फूटी लकड़ी की पेटी में दो पहिए लगाकर बनाई गाड़ी में बैठा बेसब्री से उसका इंतजार कर रहा था।
दोनों पैर नहीं थे उसके। और स्वास्थ्य भी उम्र की तरह ही बेहद दयनीय। साफ करने वाला कपड़ा और बालटी उसे पकड़ाकर लड़की छांव में घसीट ले गई थी तब उसे। अपनी गोदी में उसका सिर रखकर
कमर से लटकी पानी की बोतल से पानी पिलाने लगी थी। जैसे-जैसे बूढ़ा पानी पी रहा था, सारी तरावट लड़की के चेहरे और आँखों पर भी उतरने लगी थी।
फिर बेहद प्यार से उसका मुंह पोंछकर, सिर अपने कंधे से लगाकर बाल भी सहलाए थे उसने।
पिता था शायद वह उसका। हाल की गाजा पट्टी पर चल रही लड़ाई के भुक्त भोगी थे दोनों शायद। सीमा तो पार कर आए थे, पर जीने की आस में नरक भोगने को मजबूर थे शायद अब।
हो सकता है यह सब मात्र मेरी उर्बर कल्पना ही रही हो। वहीं पर रहने वाले, वहीं के नागरिक हों। यह भी हो सकता है टेलिविजन पर दिनरात आती खबरों का ही परिणाम हो यह भी, पर जाने क्यों उसे देखकर मन भर-भर आ रहा था ।
कोई भी बेघर और गरीब सिर्फ लड़ाई से ही तो नहीं हो जाता!
अब मुझे वह सबसे खूबसूरत शहजादी लग रही थी मिश्र की। क्लिओपाट्रा से भी ज्यादा।
इतनी गरमी में यूँ मेहनत करती अपना और अपने बुजुर्ग का पेट भरती, जीने का साधन जुटाती एक समर्थ और बहादुर शहजादी, जिसे लड़ना भी आता था और ज़िन्दा रहना भी।
ट्रैफिक वार्डेन हाथ हिला-हिलाकर अब हमसे तुरंत आगे बढ़ने को कह रहा था।
टैक्सी आगे बढ़ने ही वाली थी कि पीछे मुड़कर मेरी आँखें एक बार फिर उसे ही खोजने लगीं। और तुरंत ही दिख भी गई वह, वहीं अपनी उसी जगह पर खड़ी हुई।
हिजाब उसने अब चेहरे से ऊपर उठा रखा था और ठंडे पानी से मुँह धो रही थी ।
पर आँखें मिलते ही हम दोनों ही एक बार फिर जम से ही गए।
अचानक ही खोज और चाह सब पूरी हो गई थी मेरी। मानो आइने के आगे खड़े थे हम. वह भी बचपन और बुढ़ापे के रूप में उम्र के दो छोर पर।
पर यह कैसे संभव है?
‘बिल्ली तो नही हम इंसान, जो एक ही जनम में नौ-नौ जिन्दगी जी लें? वह भी इतनी भिन्न और बिना एक दूसरे का दुःख-दर्द जाने या महसूस किए बगैर ही!’
शकल एक सी होने से क्या होता है, मैं ‘वह’ नहीं थी और वह ‘मैं’ नहीं थी। खुदसे बहुत ऊँची और बहुत श्रद्धेय नज़र आ रही थी अब मुझे वह नन्ही शहजादी।
माना उस जैसी अनाथ और असहायों की यादों तक के लिए इस संसार में कोई जगह नहीं होती, पर शहजादी हो या न हो, इंसान तो थी ही वह…एक बेहद नेक और जीवन के प्रति समर्पित इंसान, अपने पापा की असली शहज़ादी! अपने अपाहिज और असहाय पापा को ख्वाइशों के सिंहासन पर बिठाकर घुमाती बहादुर शहजादी, जो लड़ना भी जानती थी और ज़िन्दा रहना व रखना भी!
उसके अस्तित्व की गरिमा और साहस के आगे पूर्णतः नत थी मैं अब।
सामने सच और सपनों की उस गोधूली को अँधेरा पूरी तरह से निगलने को तैयार खड़ा था। पर यही तो जीवन है, कब,कहाँ और कैसे डोर टूटे, जुड़े, पता ही नहीं चल पाता हमें।
कुछ ही मिनटों में सामने एकबार फिर वही जगर-मगर करती पांचतारा होटल की भव्य इमारत थी। जो शीघ्र ही मुझे उस विभ्रम, उन यादों, उस अहसास से खींचकर यथार्थ में वापस खींच ले आई थी।
कैरो और उसकी शहज़ादियाँ भले ही कितनी ही सच या झूठ हों, मेरे लिए तो बस एक याद, एक सपना बनी साथ रहेंगी, जैसे कि हमारी अपनी पीछे छूटी परछांइयाँ… फिर ज्यादा फर्क भी तो नहीं रह जाता सच या झूठ में यदि मन के तार जुड़ जाएँ और वह दिखने लग जाए जो सर्व व्यापी है… जीवन मृत्यु से परे है।…
शैल अग्रवाल
संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
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