कविता आज और अभी/ लेखनी-जुलाई-अगस्त 17

अचम्भा

अचम्भित नहीं
कि कैसे दुनिया भर में एक जैसे बने डोलमेन
कैसे एक से बने कैलेण्डर
एक से रचे गए साल महीने और दिन के समय
कैसे एक से स्रोतों से बने कपड़े-लत्ते, तश्तरी-गिलास
कैसे एक तरह से सीखा क़लम से लिखना
पंखा झलकर भगा लेना गर्मी
या मदहोश होना अलग-अलग शराबें रचकर
गहने जूते चप्पल
किस तरह एक जैसे बने नावें, जलयान, पतवार और चप्पू
किस तरह समानता की हद तक समान
आतताई और देवताओं की कथाओं का हुआ सृजन
अचंभित हूँ कि कैसे कट्टर हुए लोग
एक जैसे
एक जैसे रक्तपिपासु
बिलकुल एक जैसी दूसरों को न जीने देने की सोच रखते
बिल्कुल क्लोन की तरह
शकों हूणों मंगोलों के जींस यहीं थे
यहीं हैं… बंद गले के सूटों में
टाइयों की गांठों में
अदृश्य वायरसी खोलों में
वरना बारूदी नलियाँ नहीं लहलहाती किसी भी मिट्टी के खेतों में
न मिसाइलें होतीं मानसूनी-गैरमानसूनी बादलों की बूँदाबाँदी
सवालों पर कब से ज़ाहिर है ये रहस्य
कि जवाब विशेषज्ञ है इस गणित का
कि उसका गूँगापन बचा लेगा
कुछ सैकड़ा धड़कनों वाली मशीनें….
जिनके एवज में
कोई बड़ी बात तो नहीं उनके लिए
अनगिनत प्राकृतिक दिलों को
ज्वालामुखी के मुहाने पर टिका देना।

मायावी जगहें

आपकी दिल्ली मेरी दिल्ली से अलग होगी
आपका लन्दन मेरे लन्दन से जुदा
और पेरिस और न्यूयॉर्क भी एक जैसे तो नहीं होंगे मेरे आपके

मेरे कुसमिलिया खिल्ली या पीपली हों
चाहे कोंच एनिसकिलीन या वासेपुर..
पूरी तरह क्लोन हों आपके इन गाँवों- क़स्बों के
ये कम ही मुमकिन है

दरअसल कोई जगह नहीं होती वैसी
जैसी किसी और की कहानियों में पढ़ी हो
जैसी किसी दूसरे के किस्सों में सुनी हो

हमारे शहर हमारे भीतर साँस लेते हैं
हमारे गाँव सोए रहते हैं भीतर हमारे
क़स्बे करवटें बदलते हैं

ये उठ खड़े होते हैं हमारे सामने
घेर कर खड़े हो जाते हैं हमें
हमारे निजी गाँव क़स्बों शहरों की शक्ल में

तब
जब हम क़दम रखते हैं उस शहर में
क़स्बे या गाँव में

आप मानें या न मानें
ये मायावी हैं
जो बदलते रहते हैं गली दर गली
पटी दर पटी
पुरा दर पुरा
हर नए क़दम के लिए।

-दीपक मशाल

जो नहीं दिखता दिल्ली से

बहुत कुछ है जो
नहीं दिखता दिल्ली से

आकाश को नीलाभ कर रहे पक्षी और
पानी को नम बना रही मछलियाँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से

विलुप्त हो रहे विश्वास
चेहरों से मिटती मुस्कानें
दुखों के सैलाब और
उम्मीदों की टूटती उल्काएँ
नहीं दिखती हैं दिल्ली से

राष्ट्रपति भवन के प्रांगण
संसद भवन के गलियारों और
मंत्रालयों की खिड़कियों से
कहाँ दिखता है सारा देश

मज़दूरों-किसानों के
भीतर भरा कोयला और
माचिस की तीली से
जीवन बुझाते उनके हाथ
नहीं दिखते हैं दिल्ली से

मगरमच्छ के आँसू ज़रूर हैं यहाँ
किंतु लुटियन का टीला
ओझल कर देता है आँखों से
श्रम का ख़ून-पसीना और
वास्तविक ग़रीबों का मरना-जीना

चीख़ती हुई चिड़ियाँ
नुचे हुए पंख
टूटी हुई चूड़ियाँ और
काँपता हुआ अँधेरा
नहीं दिखते हैं दिल्ली से

दिल्ली से दिखने के लिए
या तो मुँह में जयजयकार होनी चाहिए
या फिर आत्मा में धार होनी चाहिए

कठिन समय में

बिजली के नंगे तार को छूने पर
मुझे झटका लगा
क्योंकि तार में बिजली नहीं थी

मुझे झटका लगा इस बात से भी कि
जब रोना चाहा मैंने तो आ गई हँसी
पर जब हँसना चाहा तो आ गई रुलाई

बम-विस्फोट के मृतकों की सूची में
अपना नाम देख कर फिर से झटका लगा मुझे :
इतनी आसानी से कैसे मर सकता था मैं

इस भीषण दुर्व्यवस्था में
इस नहीं-बराबर जगह में
अभी होने को अभिशप्त था मैं …
जब मदद करना चाहता था दूसरों की
लोग आशंकित होते थे यह जानकर
संदिग्ध निगाहों से देखते थे मेरी मदद को
गोया मैं उनकी मदद नहीं
उनकी हत्या करने जा रहा था

बिना किसी स्वार्थ के मैं किसी की मदद
कैसे और क्यों कर रहा था
यह सवाल उनके लिए मदद से भी बड़ा था

ग़लत जगह पर सही काम करने की ज़िद लिए
मैं किसी प्रहसन में विदूषक-सा खड़ा था

प्रेषक: सुशान्त सुप्रिय
A-5001,
गौड़ ग्रीन सिटी ,
वैभव खंड ,
इंदिरापुरम ,
ग़ाज़ियाबाद -201914
( उ. प्र. )
मो: 08512070086
ई-मेल: sushant1968@gmail.com

कल फिर

कल फिर एक नौजवान देश की सीमा पर शहीद हुआ
एक नाबालिग लड़की का चार लड़कों ने रेप किया
बासे जहरीले भोजन को खाकर मरे स्कूली बच्चे
पिछले वर्ष बना पुल पहली बारिश में ही धाराशायी
देश की सीमा पर फिर घुस आए थे आतातायी
सैनिक की विधवा अपने बच्चों का पेट न भर सकी
घर के बन्द कमरे में रस्सी से लटकी मिली
गांव में नेताजी के बेटे की शादी थी शानदार
अस्सी करोड़ का हुआ खर्च जबरदस्त
खबरें ही खबरें थीं उस अखबार में
जिन्हें पढ़ने का वक्त नहीं था
व्यस्त आदमी के पास
हाँ अंगीठी जलाते
बहुतों को देखा है हमने…
-शैल अग्रवाल

जिंदगी की किताब

कभी सवाल सी लगती है कभी जवाब सी 
कभी अनकही कोई कहानी लगती है कभी पढ़ी हुई किताब सी 
कभी अधुरा सा ख्वाब लगती है कभी पूर्णमासी के चाँद सी 
कभी हाथ से फिसलती रेत लगती है कभी मुठ्ठी में समायी मंजिल सी
कभी पहाड़ सा बोझ लगती है कभी हवा की तरह हलकी फुलकी सी 
कभी तिनके के मानिंद उड़ने लगती है कभी अविचल दरख़्त सी 
कभी वृद्धाश्रम के बुज़ुर्ग का दुःख लगती है कभी पार्क में बच्चे की हंसी सी 
कभी सुनामी का कोलाहल लगती है कभी कोयल की आवाज़ सी
कभी बदरंग लगती है कभी रंगों से सरोबार इन्द्रधनुष सी 
कभी दरकती चट्टान लगती है कभी शीतल गंगा सी 
घिसटती, सरकती, दौड़ती, भागती, उछलती, संभलती, महकती, चहकती 
ये जो ज़िन्दगी है साहब बड़ी लाज़वाब सी लगती है 
@अजय ~अलौकिक’

लेखक : डॉ. अजय शर्मा
प्रचलित नाम : अजय ~अलौकिक’
शिक्षा : बी ई, एम् टेक, पी एच डी (इलेक्ट्रिकल इंजीनियरिंग )
जन्म तिथि : 24 जून 1976
पद : सहायक आचार्य, राजकीय अभियांत्रिकी महाविद्यालय, झालावाड, राजस्थान, भारत
मोबाइल : 09413943189
ajay.2n15@gmail.com
ajay_2406@yahoo.com

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