यह मुद्दा भाषा का- शैल अग्रवाल, यतीन्द्र नाथ चतुर्वेदी, इमामुद्दीन अलीग, डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा, नंद चतुर्वेदी, पद्मा मिश्रा।

‘ हिन्दी दिवस आते हैं और चले जाते हैं पर हमें खुद सुधरने  या इसे संवारने की क्या जरूरत…हिन्दी ही तो है यह,मात्र एक भाषा। हमारा काम तो आराम से चल ही रहा है बिना इसके भी। फिर इसे विधि व्यापार और चिकित्सा, जीवनयापन के साधन और व्यापार आदि से जोड़ना आसान भी तो नहीं। इतनी कवायत और माथापच्ची का वक्त किसके पास है! त्वरित सुविधा का युग है हमारा।  हमारे खानपान और रहन सहन की तरह हमसे छूटती है तो छूटे आखिर वैश्विक दौड़ में हैं हम और हमारा भारत। प्रगति करनी है हमें। क्या एक भी ढंग की नौकरी दिला सकती है यह भाषा- सचमें “कंगले साहित्यकारों व गंवारों की भाषा” ही तो है हिन्दी…। वर्ष में एकाध बार इसे याद कर लेते हैं, उत्सव मना लेते हैं क्या यही पर्याप्त नहीं !’  -देश के युवा शायद यही और ऐसा ही सोचते होंगे। और यदि एक ईमानदार कोशिश न हुई , चीजें न बदलीं,  तो हम इन्हें इसके लिए दोष भी नहीं दे सकते। .हर वर्ष हम एक रस्मी याद के साथ सारी सतही रवायतें पूरी कर लेते हैं परन्तु सवाल और समाधान तो आज भी अनुत्तरित ही हैं… जाने कब फूटेगी इन निराश अंधेरों से रौशनी की वह किरन…  
                                                                          -शैल अग्रवाल
 

हिंदी भारत की आत्मा है। यह देश हिंदी में सहजता से संवाद स्थापित कर लेता है और यही सहजता इसे विश्वहिंदी की ओर अग्रसर कर चुकी है। छोटे-छोटे व्यक्तिगत शब्द, ध्वनि, स्थानीय व्याकरण में आंचलिक भाषा और संस्कृति बनते हैं। यह आंचलिक संस्कृति स्वयं में एक लघु भारत है। इस लघु भारत में साहित्य-कला-संस्कृति जिसमें भारत की साख समाहित है। साहित्य, भाषा भारत की सबसे समृद्ध संस्कृति में से एक है। अब जबकि भारत बदल रहा है! हिंदी को अपनी संप्रभुता के लिए अभी मीलों लम्बा रास्ता तय करना बाकी है।
शब्द एक नवीनतम ऊर्जा श्रोत है। हम कलम पथ के मुसाफिर है। शब्द जो लिखे गए वह समय के समक्ष लय-बद्ध है। हम सैनिक की तरह कलम के मोर्चे पर जूझ रहे हैं। आप सेनानी की तरह हिंदी की बैरक पर मुश्तैद हैं। हिंदी के इस विश्व हिंदी अभियान में आप और हम अपने-अपने पथ और पाथेय से राष्ट्रभाषा की सेवा कर माँ भारती की वैश्विक संप्रभुता बढ़ा रहे हैं।
भारत के डग भर की हिंदी को देश के सवा अरब सपनो के साथ जोड़ने तथा हिंदी साहित्य, लोक संस्कृति, जिसे राष्ट्रीय पटल पर स्थापित करने के लिए मैं अपना सर्वोच्च लेकर उपस्थित हूँ।
हिंदी के इस संवेदनशील दायित्व को पूरे मनोयोग से निर्वहन करने का मेरा सतत प्रयास है। भारत की नीतियों, कार्यक्रमों एवं आवश्यक सूचनाओं को आपके माध्यम से जनमानस तक पहुँचाने में मुझे आपके सहयोग की सदैव अपेक्षा रहेगी।
अपनी ओर से मेरा यह भी प्रयास रहेगा कि बिना किसी भेदभाव के सभी भाषा क्षेत्रों में संवाद कायम रखकर उनके व्यापक प्रचार प्रसार में सहयोग प्राप्त किया जा सके। ऐसे में बन रहे हिंदी के विश्वगाँव में आपका साहचर्य और भी अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है।
मुझे उम्मीद है कि भारत के नेतृत्व में राजभाषा के दिशा निर्देशन में आपजैसे कर्मयोगियों की अगुवाई में चल रहे राजभाषा के कार्यक्रमों, नीतियों पर आपका भरपूर सहयोग प्राप्त होगा।
अपनी ओर से आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मैं संदर्भित संवाद प्रदान करने हेतु सदैव उपलब्ध रहूँगा।शब्द हमारे अपने यथोचित स्थान और आपके संदर्भित अभिहित निर्देश की सूचना की प्रतीक्षा में हैं।
इसी भावना के साथ सादर समर्पित मैं सदा
यतीन्द्र नाथ मित्र

अधिक महत्त्व आप की बात और आप के सन्देश का होता है न कि उस माध्यम का जिससे आप अपना सन्देश पहुंचा रहे हैं। इसलिए कृपा करके तहफ़्फ़ुज़े उर्दूकी राग अलापना बंद कीजिए, आप को किस ने रोका है अपनी तहज़ीब व सक़ाफ़त (संस्कृति) के साथ अपने दौर बड़े माध्यमों में शिफ्ट होने से ? 
याद रखिए कि अगर किसी देश की हुकूमत किसी भाषा को ठंडा करने की ठान ले तो हम और आप, आम लोग उसे नहीं बचा सकते। सत्ता पक्ष की भाषा ही हर युग की भाषा रही है। मगर क्या करेंगे, राजनीति आप को पसंद नहीं है, आप की नज़र में राजनीति करना गैरों का मौलिक अधिकार है, सत्ता से आप को एलर्जी हुए ज़माना बीत गया है, फिर भी आप चाहते हैं कि उर्दू का बोल बाला हो, उर्दू का इक़बाल बुलंद रहे ! आप के इस भोलेपन पर हज़ारों जानें क़ुर्बान ! आप की इन नेक इच्छाओं से तो ऐसा मालूम पड़ता है कि जब तक उर्दू ज़िंदा है तब तक आप भी ज़िंदा हैं, अगर उर्दू को कुछ हुआ तो उसी के साथ साथ आप भी अपनी जान क़ुर्बान कर देंगे ! हुज़ूर, आप के इस जज़्बे को मेरा सलाम। 
अच्छा ये बताइए, आप मात्र उर्दू को ही मुसलमान बना कर उसी पर संतोष करके बैठ क्यों गए ? क्या अन्य भाषाएँ मुसलमान बनने की हक़दार नहीं हैं ? आप बैठे रहिए एक भाषा को मुसलमान बना कर, मैं तो अब हिंदी को भी मुसलमान बनाने का संकल्प कर चूका हूँ। ऐसे क्या हैरत से आँखें फाड़ कर पढ़ रहे हैं? ऐसा क्या कह दिया मैं ने ? क्यों, उर्दू मुसलमान हो सकती है तो हिंदी क्यों नहीं हो सकती मुसलमान ? आप क्यों हिंदी के हिन्दू बने रहने पर अडिग हैं और खुश भी नज़र आ रहे हैं, क्यों ? इस्लाम के प्रचार का आप का दायित्व केवल उर्दू तक ही सीमित था क्या ? आखिर आप क्यों नहीं चाहते की हिंदी भी मुसलमान हो जाए ?
और हाँ, मुझ पर ये बेहूदा कटाक्ष मत कीजिएगा कि उर्दू का हो कर हिंदी को बढ़ावा दे रहा हूँ, बड़े आए है उर्दू के मुहाफ़िज़ बनने……..आप कीजिए उर्दू का तहफ़्फ़ुज़ (रक्षा)……. उर्दू ने आप को इतना कुछ दिया है ….आप को प्रोफेसर, एडिटर, चैयरमैन….. क्या क्या न बनाया, आप नहीं करेंगे उर्दू की रक्षा तो फिर और कौन करेगा ……लेकिन ढंग से कीजिए जो आप नहीं कर रहे हैं। मुझे मालूम है यह जो तहफ़्फ़ुज़े उर्दूका स्लोगन आप लगा रहे हैं ना, ये स्लोगन भी आप की जेब का एक साधन मात्र है, इसके लिए भी मोटा फंड जारी होता है, फिर आप नहीं लगाएंगे तहफ़्फ़ुज़े उर्दूका नारा तो और कौन लगाएगा ? आप कीजिये अपने साधन और माध्यम की साधना और पूजा अर्चना, हम से न होगा, हम जैसे आम लोगों से ऐसे किसी स्लोगन की उम्मीद न ही करें तो बेहतर होगा। हम जैसे आम लोगों को क्या दिया है उर्दू या हिंदी ने ? 8-10 हज़ार की नौकरी ! यही ना ? उस पर भी महीने भर जानवरों की तरह काम करने के बाद वो 8-10 हज़ार इस भाव से मिलते हैं मानो तनख्वाह नहीं क़र्ज़ या खैरात मिल रहे हों ! इस आठ दस हज़ार की खैरात में ज़िन्दगी की ज़रूरतों और इच्छाओं से समझौता करते करते अब तो अब हमारे पेट की अंतड़ियां भी सिकुड़ने लगी हैं। तहफ़्फ़ुज़े उर्दू का नारा अब हम से न बुलंद हो सकेगा। अब हम से और न ढोया जाएगा उर्दू से वफादारी का ये बोझ। ये बोझ ढोते ढोते अब हमारी कमर टूटने लगी है, हमारे आसाब (तंत्रिका) जवाब देने लगे हैं, अब अगर हम ने इस बोझ को न उतार फेंका तो हमारा अंतिम संस्कार होना तय है। मुझे अपने वजूद (अस्तित्व) की रक्षा करने दीजिए ……जी हाँ, अपने आर्थिक वजूद की, अपने वैचारिक और शैक्षिक वजूद की…. अपने धार्मिक वजूद की। मुझे अपना वजूद प्यारा है, मैं अपने वजूद की रक्षा के लिए किसी भी भाषा को अपना साधन बना सकता हु। मैं अपने वजूद को किसी माध्यम या किसी भाषा का अविभाज्य अंग (लाज़िम व मल्ज़ूम) नहीं बनने दूंगा कि अगर सत्ता पक्ष या कोई और शक्ति उस माध्यम को ख़त्म करने पर तुल जाए तो मेरा वजूद भी खतरे में पड़ जाए !!!


Imamuddin Alig

Mob No. 8744875157

Email : imamuddinalig@gmail.com

पाठकों को हिंदी दिवस की शुभकामनाएं देते हुए यह कहना ज़रूरी है कि आज हिंदी का वैश्विक महत्त्व विवाद से परे है। अस्मितावादी विमर्शों के दौर में यह भी याद रखने की ज़रुरत है कि ‘हिंदी’ शब्द केवल खड़ी बोली के मानक रूप का वाचक नहीं अपितु अपने व्यापक अर्थ में संपूर्ण भारतीयता का द्योतक है। भाषा के अर्थ में भी आरंभ में यह शब्द सभी भारतीय भाषाओं के लिए प्रयुक्त होता था लेकिन कालांतर में 5 उपभाषाओं अथवा 20 बोलियों के भाषामंडल का द्योतक बन गया। जब 14 सितंबर, 1949 को संविधान ने हिंदी को भारत संघ की राजभाषाका दर्जा प्रदान किया था तो उसी दिन सभी प्रांतों को अपनीअपनी प्रादेशिक राजभाषा के रूप में अन्य भारतीय भाषाओँ को स्वीकार करने की शक्ति भी प्रदान की थी. इसलिए यह दिन हिंदी अर्थात भारतीयभाषाओँ की संवैधानिक प्रतिष्ठा का दिन है. किसी भी प्रकार के तात्कालिक राजनैतिक लाभ के लिए हिंदी को भगिनी भाषाओँ या बोलियों का प्रतिद्वंद्वी बताकर भाषाई विद्वेष पैदा करने की हर कोशिश को नाकाम करने की ज़िम्मेदारी हम सबकी है. एक वयस्क लोकतंत्र के रूप में हमें भाषाई सहअस्तित्व की समझ भी विकसित करनी होगी. अपने अपार संख्याबल को एकजुट रखकर ही हिंदी भाषा प्रथम विश्वभाषा हो सकती है, अन्यथा बिखर जाने का पूरा ख़तरा है।

दूसरी बात मुझे यह कहनी है कि आज के डिजिटल युग में हिंदी के साथ नए प्रयोजन जुड़ते जा रहे हैं। हिंदी को विश्वभाषा का गौरव प्रदान करने वाले अनेक आयाम हैं। हिंदी भाषा अपने लचीलेपन के कारण कूटनीति और प्रशासन की भी भाषा के रूप में उभर रही है। इतना ही नहीं, वह रोजगारोन्मुख भाषा है, राजनीति की भाषा है, ज्ञानविज्ञान की भाषा है, मनोरंजन की भाषा है, मीडिया की भाषा है। साथ ही वह बाजारदोस्त भाषा और कंप्यूटरदोस्त भाषा भी बन गई है। इन आयामों में शब्द संपदा से लेकर अभिव्यंजना पद्धति तक अनेक स्तरों पर हिंदी के अनेक लोकरंजक रूप सामने आए हैं। व्यावसायिक जगत की चुनौती को विज्ञापन और मनोरंजन के माध्यम से स्वीकार करके हिंदी ने अपने आपको बाजारदोस्त की भाषा के रूप में सिद्ध किया है। हिंदी में भाषा मिश्रण और भाषा परिवर्तन की प्रवृत्ति बढ़ती जा रही है जिससे आतंकित होने की कोई ज़रूरत नहीं। वैश्विक स्तर पर हिंदी को अपना स्थान सुनिश्चित करना हो तो इन आयामों के साथसाथ उसे विश्वविद्यालय, न्यायालय और संसद के व्यवहार की भाषा भी बनना होगा।

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डॉ. गुर्रमकोंडा नीरजा/ सह संपादक ‘स्रवंति’/ सहायक आचार्य/ उच्च शिक्षा और शोध संस्थान, दक्षिण भारत हिंदी प्रचार सभा, खैरताबाद, हैदराबाद – 500004/ ईमेल : neerajagkonda@gmail.com

भाषा का किसी धर्म से कोई नाता नहीं है। धर्म के साँचों में बाँट कर हम भाषा का अहित ही करते हैं। भाषा का जनता से अलग अस्तित्व नहीं है, जनता जिस भाषा को मंजूर कर लेती है वही भाषा निरंतर विकसित होती है और हिन्दी भाषा जनता की अपनी भाषा है इसीलिए विकासमान है।

कवि और आलोचक नंद चतुर्वेदी 

सर्जक हिन्दी भाषा के

हम सर्जक हिन्दी भाषा के हिन्दी की कथा सुनाते हैं

 हम अक्षर अक्षर दीप तले अंतर की व्यथा भुलाते हैं
मां वाणी का श्रृंगार बनी जो सर्जन का आधार बनी
कविता के भावों में पलकर साहित्यगगन का सार बनी
तुम संविधान की हो भाषा हर जन मन की तुम अभिलाषा
पर मां तेरे प्रिय चरणों में हम कितने दीप जलाते हैं?
हम सर्जक हिन्दी भाषा के हिन्दी की व्यथा सुनाते हैं
हिन्दी के बल पर राज किया फिर हिन्दी का अपमान किया
अनगिनत किताबें लिखकर भी खुद का ही सम्मान किया
हम राजनीति के मोहरों पर तुमको एक चालबनाते हैं
तुम राष्ट्र भक्ति की ढाल बनी आजादी का सम्मान बनी
तुम अंतरीपकाश्मीर तलक निज भाषा का सम्मान बनी
प्रति वर्ष तुम्हें मंडित करते हम हिंदध्वजा फहराती हैं
हम सर्जक हिन्दी भाषा के हिन्दी की कथा सुनाते हैं,,,

पद्मा मिश्रा**

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