दो लघुकथाएँः भरोसा-शैल अग्रवाल

भरोसा-1

‘ बोली का का, भई। कैसे भी जिन्दा रख लो, ससुरी को। टांग नहीं तो नकली टांग पर दौड़ाएंगे हम इसे। बस अपनी फूल-माला नहीं सूखनी चाहिए।‘
सहमी-सहमी हिन्दी भिन्न भिन्न भाषाओं की बैसाखी देख डरी-सहमी अपनी टांगें सहला रही थी-आज उसे अपनी औकात समझ में आ गई थी। किन जल्लादों पर भरोसा कर लिया? पानी हो चुका है खून घर से बाहर आकर इनका। खुद पर, अपनों पर ही भरोसा करना होगा अब तो।
इतनी इज्जत तो रखेंगे ही कोख जाए मां की । विशेशतः तब जब मां-बोली – वतन का गौरव , इतिहास, भूगोल, माथे की बिन्दी कहते हैं मुझे। इतना विश्वासघात तो नहीं ही करेंगे मेरे साथ।
और तब उसने अंग्रेजी, क्रियोल, फ्रेंच आदि- सभी बैसाखियों को एक कोने सरकाते हुए वापस अपनी देवनागरी टांगों को प्यार से सहलाया -हिम्मत मत हारना, तुम। तुम्हें कुछ नहीं होने दूँगी मैं। हिन्दी हूँ मैं। पूरा भरोसा है मुझे अपनों पर-अपनी औकात और ओज पर।
एकबार फिर खुदको तौलते हुए असहाय हिन्दी ने आंसू भरी आँखों को पोंछा।

भरोसा-2

‘ अरे यह सब कुछ नहीं। हटाओ ये सारे नाम। पचास जगह खबर जाएगी, फोटो छपेगी । हम जिन नामों की फहरिस्त देते हैं , वही रहेंगे। आखिर यही तो वक्त है नाम फैलाने का, यश कमाने का । बिना बोले, बिना तस्बीर के अगर हम लौटे तो कितनी थू-थू होगी कि सरकारी पैसे पर पूरा खानदान और यार दोस्त बस मौज कर आए।‘-
तुरंत ही सारे विद्वानों के नामों की जगह फिर वही जाने पहचाने और अपने के ही नाम थे सम्मेलन में। उसके नाम का तो वैसे भी सवाल ही नहीं उठता, न कोई पहुँच, न पद। बस एक लगन और भरोसे के बल पर ही तो चली आई थी वह पूरी मेहनत, पूरी तैयारी के साथ। पर इस एक अकेली लगन और भरोसे के बल तो मीरा तक को बनबन भटकना पड़ा था, वह भी द्वापर में फिर अबतो घोर कलयुग है !
-शैल अग्रवाल

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