कहानी समकालीनः गुलमोहर तो गुलमोहर- शैल अग्रवाल

 

 

यूँ तो यहाँ भी वही धरती, आकाश, हवा, पानी सब कुछ वही हैं, बस रंग ही कुछ और ज्यादा शोख और चटक हो जाते हैं  –आदमियों के ही नहीं—- धरती, आकाश, पशु-पंछी, सभी के। घास कुछ और ज्यादा हरी दिखने लगती है और आसमान व समन्दर बेहद गहरे और नीले। गरमियों के चन्द इन दो तीन महीनों के लिए डाल-डाल फूल पत्तियों से गदराया, पूरा-का पूरा यूरोप ही, नई-नवेली  दुल्हन-सा सज-संवरकर निखर जाता है…एक नया ही रूप ले लेता है।  फिर वैनिस तो एक रूमानी शहर है। आकाश चुम्बी इमारतों की गोदी में इठला-इठलाकर बहती नदी और मैन्डेलिन व बैन्जो की सुरीली धुनों पर हंसों से गर्दन उटाए बहते गन्डोले– नवविवाहिता रेशमा की यह पहली मुलाकात थी यूरोप से।

मन्त्रमुग्धा, वह खुद भी तो नदी सी बही जा रही थी—मचल रही थी मोहित की बांहों में सिमटने को, परन्तु मोहित तो उड़ते बादलों सा उसकी पहुंच से दूर कहीं और जा छिटका था, अपने ही ख्यालों में खोया-डूबा।

‘ कैसा होता अगर आज रेशमा की जगह स्पंदन होती बगल में, पत्नी के रूप में मुस्कुराती–!’ सोच की पुलक तक ने सिहरा दिया उसे। स्पंदन, जिसके कमरे मात्र में आ जाने से मन शान्ति, आत्मीयता और ठहराव के शिखर पर जा बैठता था, आज  कितनी दूर चला आया है वह उससे ?  मोहित ने न सिर्फ अब आंखें बन्द करली थीं, अपितु रेशमा की गोदी में सर रखकर पसर भी चुका था वह। रेशमी साड़ी की सरसरहाट बादलों से कम रोमांचक नही थी और आंचल से उठती रात की वह महक नशे-सी  अभीतक उसके आसपास ही बहक रही थी; महक जो मन के किसी चोर कोने को उद्वेलित तो कर रही थी परन्तु बांध नही पा रही थी उसे। ” सर दबा दूं”–शरमाती सकुचाती पत्नी ने धड़कते दिल से माथे को सहलाया और पति की बेचैनी को पढ़ते हुए बेहद प्यार से पूछा ? मोहित ने जबाव दिए बगैर ही, कुहनियों के नीचे से, पत्नी को चोर नजर  देखा और घूमकर सो गया। ‘ कितने गहरे रंग के कपड़े पहनती है यह। —और उफ् यह माँग— कितनी लम्बी और लाल भरती है, मानो ऐसा न करे तो मेरी बगल से कोई उठा ही ले जाएगा इसे, अभी तुरंत… इसी वक्त।  अब न तो उसकी कोई बात सुनने का मन था उसका और ना ही जबाव देने का। यही नही, तुरंत ही, मन ही मन उसने तो रेशमा की तुलना स्पंदन से कर ली थी और निष्कर्ष पर भी पहुँच गया था ‘ –नहीं कोई तुलना नही दोनों में, कहां वो सुर्ख रसीले होठों पर रम्भा सी चपल मुस्कान और कहां यह -“-जी मैं अब आपके लिए क्या कर सकती हूं ” वाला आदर्श पत्नी का वही घिसा-पिटा भारतीय अन्दाज– जो शायद प्रेमवश नही, कर्तव्यवश ही ज्यादा है–फिर जो उसकी ही है, जिसे कभी भी हासिल किया जा सकता है, उसके साथ कैसा रोमांस ? ‘ मोहित होंठ बिचकाते हुए सोचने पर मज़बूर था कि असल में तो वैनिस पत्नी के साथ आने की जगह ही नहीं है। महकती हवा में बादलों सा आवारा उड़ता खो चुका था वह औफिस के उन दिनों में जब वह और स्पंदन पूरे-पूरे दिन साथ हुआ करते थे। नहीं, यह स्पंदन की बराबरी नही कर सकती। ऊब चुका था वह विलासपुर की इस रेशमा से– आया ही क्यों वह यहाँ पर आखिर — असल में तो शादी ही क्यों की उसने इससे और अगर कर भी ली थी तो क्या जरूरत थी इतने पैसे खर्च करने की और हनीमून के इस फालतू लफड़े में पड़ने की ? हैरान था वह अपनी जिन्दगी पर — कथित इस हनी-मून पर–जिसमें मून तो था पर हनी बूंद भर भी नही।

पति की ठंडी आह से रेशमा का उत्साह और उमड़ता स्नेह, दोनों ही भाप-भाप तिरोहित हो चले—‘ क्या यही वह व्यक्ति है जिसके भरोसे अकेली ही सबको छोड़कर परदेश में, इतनी दूर चली आई है वह? क्या यही वह व्यक्ति है जिसके साथ आजीवन रहना है उसे-? -आशंकित और उद्वेलित थी वह अपने भविष्य को लेकर—पति की अनमयस्कता को लेकर? क्या कुछ खुद उसमें या उसके व्यवहार में कोई कमी रह गई —या फिर उसके रूप या माता पिता द्वारा दिए गए ढेर सारे दान-दहेज में? ऐसा तो नही लगता इनका स्वभाव कि सिर्फ इस वजह से इतने उदासीन हों ये उसके प्रति? कहीं बेमेल शादी तो नहीं है उसकी !—क्या वह छोटे शहर में पली बढ़ी रेशमा सिकंद, इस लायक नही कि इंगलैंड में बसे मोहित कपूर को खुश रखपाए? छोटे शहर में पली-बढ़ी थी तो क्या, अच्छी शिक्षा दी है माँ बाप ने। अच्छे संस्कार भी दिए हैं। और यह रूप, इसे देखकर ही तो मोहित की मां खुद ही रिश्ता लेकर पहुंची थी उसके घर पर। — फिर पति का यह रूखापन–यह अनमयस्कता क्यों-?–हैरान थी रेशमा खुदपर। उसे लगने लगा कि कहीं यह खुशी भी तो उसके बहुत ही पास आकर दूर तो नही हो जाएगी उससे, बिल्कुल वैसे ही जैसे कि नदी के किनारे खड़ी वे कलात्मक इमारतें, उसकी तरफ देखकर पलभर को मुस्कुराती और ललचातीं तो हैं उसे पर फिर अगले पल ही आंखों से ओझल भी तो हो जाती हैं। …पर पति एक अनजान इमारत तो नही, जो चुपचाप यूँ आखों से ओझल हो जाने दे उसे? मन में अनायास ही हिलोर लेती, हर अच्छी बुरी सोच को काबू में करके एकबार फिरसे रेशमा ने अपना सारा ध्यान वैनिस की उस खूबसूरत शाम की तरफ मोड़ लिया। ‘  फालतू में ही जाने क्या-क्या सोचने लग जाती है वह भी –वही जाने पहचाने फूल पक्षी धरती आकाश ही तो हैं यहाँ भी— क्या नही है उसके पास—कितनी लड़कियाँ इतनी सौभाग्यशाली होती हैं जो पति के साथ इन सुन्दर देश और शहरों में घूम पाती हैं? बहती पनीली हवा और उस सौंदर्य को अपनी उनीदी आँखों में समेटे-सम्भाले रात के अंधेरे से भी ज्यादा रोमांचक गहरे नीले स्नो ड्राप्स में डूब जाना चाहती थी रेशमा अब। अचानक ही सामने खड़ी लाल पत्थर की भव्य इमारत के तिकोने कंगूरे पर आंखें जा अटकीं उसकी। ‘  कोई म्यूजियम ही होगा जरूर।’  रेशमा ने सोचा और बड़ी हसरत से एक-एक चीज को मन में उतारने लगी। कितना शौक है उसे म्यूजियम और आर्ट गैलरियों में घूमने का–पापा होते तो जिद भी करती पर मोहित से कैसे कहे? वह तो चलने से पहले ही सचेत कर चुका था ” बस तीन दिन के लिए ही जा रहे हैं हम, म्यूजियम और आर्ट गैलरी वगैरह के चक्कर में मत पड़ना, कोई शौक नहीं मुझे इन जगहों का –टोटल वेस्ट औफ टाइम।” पूरी की पूरी पिछली दो रातें कसीनो और नाइट क्लब में जाग-जागकर निकालने के बाद, वैसे भी उत्साह और मनोबल दोनों ही तो नहीं बचे थे अब रेशमा के पास। बस यूँ ही चुपचाप  गंडोले पर लेटकर वैनिस घूमने की ही शक्ति रह गई थी अब तो  उसके थके तन और मन में। अपने ही खयालों में डूबा मोहित पास होकर भी उसके साथ नही था, रेशमा यह बात अच्छी तरह से जान चुकी थी।

जिरेमियम, नैस्ट्रेशियम पुटेनिया, बिजी लिजी–चारो तरफ दमकती नियोन लाइट से स्पर्धा करते  महकते दमकते वे फूल सीधे आँखों से मन में उतरे जा रहे थे परन्तु मोहित तो उन्हें देख-देखकर और भी उद्वेलित हो रहा था। इन फूलों के बीच में भी तो वही बैठी मुस्कुरा रही थी—हाँ वही, स्पंदन। कहीं कुछ बिखर टूट न जाए, इसलिए पलकों में समेटकर एकबार फिरसे आंखें बन्द कर ली थीं अब उसने।
बहती हवा सुरों की बौछार करती गंडोले को दूर बहाए ले जा रही थी, वैसे ही जैसे कि विन्डो बौक्स से झांकते वे रंग-बिरंगे फूल मुस्कुरा- मुस्कुराकर उसके पास आते और तुरंत ही पक़ड़ से दूर भी हो जाते। वैसे ही, जैसे कि स्पंदन मोहित के जीवन में आई औरफिर दूर बहुत दूर चली गई। उसे अब यूं भुला पाना, ठहराव की उस चोटी से उतरकर बेचैन इन तरंगों में डूबना— आसान नहीं था मोहित के लिए। वह तो यह तक नही जानता कि स्पंदन अब कहाँ पर और कैसी है और उसे कभी याद भी करती है या नहीं, या फिर उसके बारे में क्या सोचती है? पर करे भी तो क्या करे ? माँ का यूँ तुरंत ही बीमारी का बहाना कर उसे अचानक ही दिल्ली वापस बुला लेना, फिर उसके वहाँ पहुँचते ही मरने से पहले बहू को देखने की ख्वाइश में लगातार रोते ही रह जाना…. गिन गिनकर दूर दराज़ के रिश्ते नाते वालों के और पास पड़ौस के हर लायक बेटे की, सोते जागते दिनरात दुहाई देते रहना—बारबार ही उसे बतलाना, याद दिलाना कि कैसे माँ-बाप की खुशी के लिए चुपचाप शादी कर ली थी उन्होंने, बिना किसी विरोध या मीन-मेख के। कोई कम पढ़े लिखे तो नही थे वे भी, बस मा बाप की इज्जत करना जानते थे। वक्त की कीमत जानते थे। यह शादी व्याह बगैरह, उम्र के होते ही अच्छे लगते हैं— तीस के पेठे में आ गया है वह भी तो अब— क्या अधबूढ़ा होकर, उनके मरने के बाद ही शादी के लिए हाँ कहेगा? क्या उनकी किस्मत में बहू का सुख नहीं ? पोते पोतियों का सुख नहीं?जैसा माँ बाप और बड़ों ने कहा, वैसा ही कर लेना, यही तो एक लायक औलाद की पहचान है। उसे भी अब मान जाना चाहिए। विरोध नही करना चाहिए । माँ है आखिर वे उसकी,  दुश्मन तो नही। क्यों आखिर मोहित विश्वास नहीं करता उन पर…उनकी पसंद पर!’  रोज ही ये और अन्य कई इसी तरह के मां के  सवाल और सुझावों का पिटारा खुला ही रहता मोहित के आगे।
सोचने और समझने का वक्त ही कहाँ दिया था माँ ने फिर तो उसे।  दिनरात के कलपने और उलाहनों से घबराकर—निरंतर बहते आँसुओं में डूबकर, तंग मोहित ने हथियार डाल दिए थे और  ‘ हाँ ‘ कर दी थी चुपचाप। मां के उत्साह के आगे….अपनी पसंदीदा स्पंदन का तो नाम तक लेने का साहस जुटा नहीं पाया था वह। भुला दिया था स्पंदन को और उसके साथ देखे मदमस्त भविष्य के हर सपने को। ले आया था पत्नी बनाकर मां की पसंद की बिलासपुर की रेशमा को। पर आजतक तो इसके साथ उसका कोई मानसिक या हार्दिक तारतम्य बैठ नही पाया है वह। दोष नही दे रहा वह । लड़की अच्छी है और उसका हर तरह से ध्यान भी रखती है। यह बात तो वह महीने भर में ही जान गया है –बस स्पंदन को ही नही भूल पा रहा है वह। उसकी जगह नही दे पा रहा इसे अपने मन में और जीवन में। माँ ने भी तो हद कर दी थी जल्दबाजी में। आनन-फानन ही सारे इन्तज़ाम कर डाले थे —लड़की शादी, घोड़ा, बैंडबाजा सब। और दर्जनों दूर पास से जुटाए वे रिश्तेदार—पूरा ही जुलूस निकाल दिया था उसका तो उन सबने मिलकर। ऐसा नही कि उसे अच्छा नही लगा था वह सब–कुछ दिन के लिए तो वाकई में भूल भी गया था वह स्पंदन को— स्पंदन जो दिन रात उसके साथ रहती थी,यादों में ही सही, आज भी उसकी बेहद अपनी थी।
सुर्ख दहकते उन फूलों को देखकर एकबार फिरसे स्पंदन ही तो याद आ रही थी उसे। याद आ रहा था कि यही तो था उसका मनपसंदीदा रंग और फबता भी खूब था उसके गोरे गुलाबी अंगों पर। खो चुका था वह उस महकती हवा में बादलों सा आवारा उड़ता– बहती पानीली यादों को, उस सौंदर्य को अपनी ऊदी-ऊदी आँखों में समेटता सहेजता –पता नही अब आंसुओं का धुँधलापन था या आक्रोष की अग्नि, आकाश ही नहीं पूरा वैनिस ही कलुछाया और मटमैला लग रहा था अब तो उसे।
पर रेशमा की खुली और विस्मित आँखों के सामने तो एक नया और आकर्षक संसार बाहें फैलाए खड़ा था–यूरोप और वैनिस, दोनों से ही पहली-पहली पहचान थी यह उसकी। एक-एक दृष्य को बड़ी ही तत्परता और संलग्नता के साथ मानस पटल पर और कैमरे में सहेज-सहेजकर रखती जा रही थी वह। अचानक ही एक कबूतरी जाने कहाँ से उड़ती हुई आई और नदी के किनारे खड़ी भव्य पथरीली उस इमारत के एक बेहद आकर्षक और घुमावदार कंगूरे पर जा बैठी। पीछे पीछे उड़ता कबूतर भी वहीं आ गया और मादा के इर्द गिर्द ही मंडराने लगा–बेचैन और फड़कता हुआ। पर इतनी दूर से कैसे पहचान लिया उसने कि जो पहले आई वह कबूतरी थी और जो गुटरगूँ करता, आगे पीछे ‘  शो औफ ‘  किए जा रहा है, वह कबूतर है। — उलटा भी तो हो सकता है? नहीं यही कबूतर है और जो शान्त चुपचाप बैठी है, वही कबूतरी है। रेशमा ने अपनी अनायास उठती जिज्ञासा का बड़ी ही सहजता से समाधान कर लिया था। क्या क्या सोचने लगी है वह भी— हंसी आ रही थी उसे अपनी बेतुकी सोच पर। माना विद्यार्थी जीवन में आमूमन ऐसा ही होता था कि लड़के ही लड़कियों का पीछा करते थे पर जरूरी तो नहीं कि हमेशा ही ऐसे ही होता हो, सभी नर मादा तो ऐसे नही होते , उसके मोहित को ही ले लो कितना शान्त और तटस्थ है, कभी ऐसे बेचैन होकर नही मचलता, गुटरगूँ नही करता। गुलाबी पड़ते गालों को हथेलियों से छुपाए रेशमा जाने कहाँ से कहाँ भटक रही थी। कबूतर युगल से ध्यान हठाकर एकबार फिर पति को देखा जो उससे और उसके खयालों से पूरी तरह से निरासक्त अभी भी अपनी ही दुनिया में विचर रहा था। न रेशमा का साथ लुभा पा रहा था उसे और न ही वैनिस का वह अल्हड़ छलकता यौवन। सामने गन्डोलों पर , पुलिया के नीचे और पुलों के ऊपर, हाथ में हाथ डाले मादक नजरों से एक दूसरे को देखते, एक-दूसरे  में खोए युगल घूम रहे थे। — आलिंगन बद्ध युगल। –गोरी टाँगें, गुलाबी होठ और नशीली आँखें झिलमिल। सबकुछ ही एक दूसरे में गुँथा और गडमड। सकरी पथरीली गलियाँ और उनसे आते वे कहकहे और उल्लास के सुर…. मन सा ही आँख मिचौली खेलता, फूलों सा ही नाजुक और सुन्दर माहौल था चारो तरफ। फिर वह नटखट सूरज भी तो मदिर मन्थर इठलाती नदी के सुनहरे वक्षस्थल को दहकाता खुदभी डूब चुका था उसी में अब तक।
खुद अपनी ही सोच का मज़ाक उड़ाते ढीठ आंसू को चोर उंगली से पोंछती रेशमा नही चाहती थी कि पति के आगे कमजोर पडे। नई नवेली दुल्हन के भर-भर हाथ चूड़ों को अनमयस्क हाथों से यूँ ही आगे पीछे घुमाती, एकबार फिर सामने खड़ी इमारत को देखने लगी। तीन खूबसूरत मूर्तियाँ कंगूरे के अगल बगल खड़ी बहुत ही मोहक अन्दाज से उसे ही देखे जा रही थीं। एक के हाथ में कलश था, दूसरे के कन्धे पर बालक और तीसरी आगे छुककर गिरता हुआ आंचल सम्भाल रही थी। तीनों ही मूर्तियों का अन्दाज बेहद सधा, तराशा हुआ व आकर्षक था।  पत्थर में भी मांसल शरीर पे लिपटे पतले कपड़े की  एक-एक बेचैन सलवट को बहुत ही खूबसूरती से तराशा था कलाकार ने।

‘  जरूर ही म्यूजियम होगा यह।’  रेशमा ने एकबार फिरसे सोचा। मन म्यूजियम के अन्दर जाने को मचलने लगा। परन्तु कैसे कहे मोहित से वह — मोहित तो पहले ही मना कर चुका है, बारबार समझा चुका है। ” मुझे इन आर्ट गैलरियों और म्यूजियम में कोई रुचि नहीं। यूँ वक्त और पैसा बरवाद करना बिल्कुल ही अच्छा नही लगता, परन्तु तुम्हे नही रोकूँगा मैं। अगर तुम जाना ही चाहती हो तो जा सकती हो। मैं यही इन्तजार करता हूँ।”  रेशमा को याद था कि कल भी तो मोरैलो ग्लास फैक्टरी के शो रूम में अकेली ही घूमी थी वह। एक से एक आकर्षक चीजों को देखती, पर बिना किसी के साथ सुख, विस्मय– या उस सौंदर्य और कला को बांटे बगैर, किसी से कुछ कहे या बताए बगैर। अजनबियों के इस शहर में नितांत अकेली पड़ गई थी वह—खुद अपना ही रास्ता ढूँढती और भटकती। वैसे भी थके शरीर और मन में शक्ति ही कहाँ थी, जो कुछ घूम या देख पाए और वह भी एकबार फिर वैसे ही अकेले-अकेले तो हरगिज ही नही। अब तो यह सब उसके थके-टूटे मन के लिए संभव ही नही था।
निढाल रेशमा ने भी मोहित की तरह ही घुटनों पर सर रखकर खुद को ढीला छोड़ दिया। बह जाने दिया खुद को  और अपने विचारों को भी, धीमे धीमे बहते उस गंडोले के साथ। मैन्डलिन की लहरियों पर तैरते सुरों का जादू उसके अभिसारित मन को और भी आलोड़ित कर रहा था पर मोहित की कोहिनी के नीचे दबा रेशमी आँचल मन सा ही,  क्रश होता गया, मुड़ता और तुड़ता रहा।
वैनिस की एक और रोमाँचक व रंगीन शाम सामने बाँहें फैलाए खड़ी थी पर वह इन स्थानीय युवतियों की तरह दौड़कर पति की बांहों में सिमटने का साहस नहीं कर पा रही थी। शर्म और संस्कार की पायलों में जकड़ी नवविवाहिता रेशमा, प्यार को तरसती, पति के बगल में चुपचाप बैठी रही–मांग में खिंची सिन्दूर की रेखा और माथे की बिन्दिया सभी की परछाई देख पा रही थी वह अपने इर्द गिर्द ही क्या, चारो तरफ भी। कभी किसी खिड़की के शीशे में, तो कभी उबाल खाती लहरों के ठहराव में। बस यही समझ नही पा रही थीं कि अब यह दूरी क्यों और किसलिए–यह कोई और नही, उसका और सिर्फ उसका अपना पति मोहित है, जो उसके साथ है। जिसकी सेहत और सलामती के लिए वह सोलह साल की उम्र से ही, उसे मिले या जाने बगैर ही, हर सोमवार को व्रत और पूजा करती आई है। आज भी तो सोमवार है और आजभी तो मोहित के बारबार कहने पर भी उसने कुछ नही खाया है।
पिछले दो घंटों से मंथर मंथर तैरता गंडोला एकबार फिरसे अपनी उसी आखिरी पडाव, लूडो कसीनो तक पहुँच चुका था और सामने कसीनो की जलती -बुझती हजारों रौशनियों ने अन्य सैलानियों की तरह उन दोनों को भी एकबार फिरसे चकाचौंध कर ही दिया था।

अपनी-अपनी तंद्रा से जागते जाने किस सम्मोहन की अदृश्य डोर से बँधे, अगले पल ही वे कसीनो के मुख्य हॉल में खड़े थे। अबतो रेशमा भी अभ्यस्त हो चली थी इस माहौल की। रूलेट की घूमती बौल ज्यादा चक्कर देती है या हारे हुए काउन्टर्स की गिरती खनक, कहना मुश्किल था परन्तु तीन दिन से लगातार रोज ही आने के बावजूद भी, एकबार फिर विस्मित और कौतुहल मय आँखों से देखरही थी वह कि कैसे गड्डियों नोट जेबों से निकलते हैं और अगले पल ही एक गढ्ढे में गुम भी हो जाते हैं —इतने नोट कि उसके भारत में चार जनों का परिवार महीने भर भरपेट खा और रह ले, यहाँ पल भर में ही गायब और वह भी बस एक नन्ही सी बौल के घूमते इशारे पर। अगले पल ही टेबल फिरसे भर भी जाती थी उन्ही रंग-बिरंगे काउन्टर्स से और साँस रोके लोग फिरसे इन्तजार करने लगजाते अपने अपने नम्बरों का, जीतने या हारने का। हारे जीते सभी, गरीब, अमीर सभी, एक से थे इस छत के नीचे लालच के इस खेल में। जो नफा नुकसान बर्दाश्त कर सकते थे वे भी और जो नही कर सकते थे वे भी। सिगरेट के धुँए फेंकते ये लोग दीन दुनिया से बेखबर बच्चों से लगे रेशमा को—, वही उत्सुकता और आतुरता, वही बेचैन खुशी और निराशा। वही बेपरवाह और मस्त कर्तव्यहीन बेफिक्री और कहकहे। रेशमा देख पा रही थी कि कैसे और भी बहुत कुछ चलरहा था वहाँपर जो बतारहा था कि ये कहकहे बच्चों के नहीं बच्चे बने इन वयस्कों के हैं और हाथ में पकड़े वाइन के ग्लास ने न सिर्फ इनके मस्तिष्क से सही और गलत की परिभाषा मिटा दी है अपितु लालच की पट्टी बाँधकर अंधा भी कर दिया है। इनमें से कई तो बार बार जीतते और हारते, बस आखिरी बार जीतने की आस में मानसिक और शारीरिक, दोनों ही संतुलन खो चुके थे। फिर भी रोज आते थे। किसी की बाँहों में एक नही दो दो सुन्दरियाँ थीं तो कोई नितांत अकेला, पूरी ही तरह से टूटा और बिखरा हुआ, पर आता जरूर था, –अपना सबकुछ दाँव पे लगाकर बस एक आखिरी जीत के इन्तजार में जाने कबसे और कबतक यहीं बैठा रहजाता था। हाथ नोट और काउन्टर्स फेंकते रहते और आंखें अर्ध नग्न कूपियर के गोरे वक्षस्थल पे ही टिकी रहतीं। इतने सम्मोहित हो जाते वे कि हार-जीत तकका ध्यान नही रख पाते। रेशमा देख पा रही थी कि कैसे हारी गोटियों की भीड़ में कई जीती गोटियाँ भी समेट ली जाती थीं। उसका अपना मोहित भी तो डूब चुका था इन काले लाल खानों के अनूठे नम्बरी मायाजाल में। रेशमा के लिए भी उसने सैंडविच और कोक मंगवा दी थी और आज की शाम के लिए हर दायित्व से निवृत्त हो आराम से रातभर के लिए बैठ चुका था वह भी तो अपनी उसी लकी टेबल पर।
अचानक ही सामने दरवाजे से एक लम्बी छरहरी और बेहद आकर्षक युवती ने चार युवकों के साथ प्रवेश किया और मोहित का दूर से ही बड़े जोरदार हाव-भाव से हाथ हिलाकर हिलाकर स्वागत किया मानो पुरानी और अच्छी जान पहचान हो। मोहित भी उतनी ही तत्परता से उठा और पाँचों को अपनी टेबल पर ले गया फिर तो वे सब ऐसे डूबे एक दूसरे में और उन काउन्टर्स की खनक में कि रेशमा उनके लिए अदृश्य हो गई—उनके बेहद पास खड़ी रेशमा—उनकी एक-एक बात सुनती और समझती  रेशमा–उनकी हमउम्र रेशमा। मोहित की नवविवाहिता पत्नी का कोई अस्तित्व नही था उस भीड़भाड़ भरी जुआ खेलती रात में–न किसी और की आंखों में और ना ही उसके अपने पति मोहित के लिए। रेशमी मँहगी कांजीवरम की साड़ी और सिन्दूर व बिन्दी से सजी सँवरी रेशमा एक अजूबा सा ही थी वहाँपर। चारो युवक और उसके पति, हरेक के मुँहपर बस एक ही नाम था स्पंदन और सभी बस उसी से बात कर रहे थे। दम घुटने लगा रेशमा का। उमड़ते आंसुओं का सैलाब बहुत ही मुश्किल से आँखों में ही रोककर जब वह निकलने को मुड़ी तो जाने किस धक्का मुक्की में बगल बगल ों खड़े आदमी के वाइन के गिलास से सर से पैर तक नहा गई। अभी अपने को संभाल तक पाए या कुछ समझपाए, इसके पहले ही, पीले दाँत और आवारा से लगते उस आदमी की सिगरेट भरी साँसों की दुर्गन्ध उसे अपने ऊपर महसूस हुई। इतने करीब कि दिन भर की थकी और नींद में डूबी रेशमा को उस भभके से ही उबकाई आने लगी। सड़ाँध भरी उस महक और गंदे उन हाथों से दूर भागने के लिए झटपटाती वह दरवाजे की तरफ लपकी। परन्तु “सौरी मैम” कहकर वाइन पोंछने के बहाने वह आदमी उसे बेधड़क छूए और टटोले जा रहा था और एक बेहद भोंडी और अश्लील मुस्कान बेवजह ही उसके होठों पर आ चिपकी थी।
स्तब्ध रेशमा दुख और ग्लानि में सर से पैर तक डूब गई। स्वयँ को ही कोसने लगी क्या जरूरत थी यहाँ आने की, इस भीड़भाड़ में इन अनजान लोगों के बीच यूँ सटकर खड़े होने की? अभी जैसे तैसे वह अपने को तटस्थ करके जलती आँखों से उसे भस्म करते हुए दो कदम पीछे हट ही पाई थी कि वह धृष्ट आदमी उसे यूँ अकेली देखकर एक बार फिर आगे बढ़ा और बाँहों से पकड़कर अपनी तरफ खींचने लगा। कानों के पास धीरे से फुसफुसाकर बोला –” आओ मेरी गोदी में बैठ जाओ मैं तुम्हे अपने हाथों से साफ करदेता हूँ—क्या मेरा नम्बर चाहिए तुम्हे, वैसे भी मैने किसी भारतीय युवती को कभी अपनी गोदी में नही बिठलाया है।’
बात आपे से बाहर होती जा रही थी–अभद्रता और मर्यादा की हद पार कर चुकी थी। आंसुओं को घोटती , थप्पड़ के लिए उठे हाथ को कैसे भी रोकती और उस अभद्र आदमी को गुस्से से परे धकेलती, दरवाजे की तरफ दौड़ पड़ी रेशमा। कितनी अनाथ और अकेली थी वह आज इस भीड़ में। इसके पहले कि पूरी तरह से टूटकर बिखर जाती, दो सशक्त बाहों ने समेट लिया उसे। प्यार से उसके आंसू पोंछता, उसके कपड़े और अस्त व्यस्त बालों को ठीक करता, उसे तसल्ली देता कोई और नही उसका अपना पति मोहित ही तो था, जो अब अपने दोस्तों से कहरहा था कि हमें चलना होगा। मेरी पत्नी की तबियत ज़रा ठीक नही है। हमलोग यहीं होटल रौयल में ही रुके हैं। स्पंदन, कल शाम तुम अपने साथियें के साथ डिनर हमारे साथ ही लो, अच्छा लगेगा हमें—क्यों ठीक है ना रेशमा–रेशमा का हाथ अपने हाथों से दबाते सहलाते बेहद प्यार से मोहित ने पूछा? इसके पहले कि रेशमा कुछ जबाव दे, वे विदा लेकर कसीनो के बाहर आ चुके थे। सड़क पर बहती मन्द मन्द हवा बालों से खेल रही थी और एक जानी पहचानी खुशबू मन को आल्हादित और उन्मादित कर रही थी। यादें पहचान देती हैं और पहचान ही प्यार और अपनापन। रेशमा ने देखा, सड़के के किनारे सर उठाए खड़े वे पेड़ वाकई में गुलमोहर के ही थे, वही गुलमोहर, जो बिलासपुर में उसके अपने घर के बाहर की सड़क पर भी यूँ ही पंक्तिबद्ध खड़े थे। अनायास ही रेशमा के चेहरे पर मुस्कुराहट आ गई । भारत में हो या यूरोप में, गुलमोहर तो बस गुलमोहर। घर ही जा रही थी वह आज। पहली बार पति की आँखों में बेगानापन नही बेपनाह प्यार था उसके लिए।
रेशमा के मन मे बेहिसाब प्यार हिलोरें ले रहा था। मोहित भी तो कुछ ऐसी ही मन;स्थिति में था। कितनी ज्यादती की है इसके साथ — अपनों से और जाने पहचाने परिवेश से दूर लाकर भी इतनी अवहेलना की। वैनिस लाकर भी दूर दूर और अनाथ ही छोड़ दिया अकेले अकेले ही भटकने और धक्के खाने को ? स्पंदन– एक याद में ही डूबा रहा—-प्यासा प्यासा, जबकि उसकी अपनी सुख और सपनों की खान बगल में खड़ी उपेक्षित और अवहेलित, इन्तजार कररही थी उसका ? अब हर जिम्मेदारी और जिन्दगी बहुत ध्यान से और खुशी खुशी ही जिएगा वह। जो अपनी है, बस वही अपनी है। स्पंदन मित्र थी और मित्र ही रहेगी। पर रेशमा उसकी पत्नी है—- सहचरी और संगिनी है। कैसे नही समझ पाया इतनी स्पष्ट और जरा सी बात को वह? कहते हैं जब जगो तभी सबेरा है। कल सुबह ही रेशमा को लेकर म्यूजियम घूमने जाएगा, अच्छी से अच्छी चीज भी तो अपनों के संग ही आनंद देती है।
फूलों से लदे फंदे पेड़ के नीचे टेक लगाए खड़ी, नींद से बोझिल और थकी रेशमा मोहित को एक तस्बीर सी ही सुन्दर लगी। मात्र सपना नही, रेशम सी ही कोमल और सामने थी उसकी अपनी रेशमा –प्यार और यौवन की खुशबू में महकती-गमकती। पहली बार मोहित ने ध्यान से देखा और जाना था कि वाकई में कितनी सुन्दर है रेशमा, तन से भी और मन से भी। कितनी इस उम्र की लड़कियाँ होती हैं जो जटिल और दुरूह परिस्थिति में भी इतनी शांत और नियंत्रित रह पाएं? जल्दी में ही सही, शादी के जोड़े में लपेटकर माँ ने हीरा ही भेंट किया है उसे –माँ तो कुछ उलटा सीधा तो दे ही नही सकती थी उसे, फिर कैसे वही माँ के निर्णय को  हठ के साथ अस्वीकारता रहा ? लाल साड़ी में बीरबहूटी बनी और सुर्ख फूलों के नीचे खड़ी रेशमा आज वाकई में दुल्हन ही तो लग रही थी।  काँपती नाजुक नुकीली पत्तियों से छन-छनकर आती चाँदनी और बादलों से फूटती सिन्दूरी भोर, अनूठी धूपछाँवी आभा थी उनके चारोतरफ जो अब गुलमोहर के उन नटखट गुच्छों को ही नहीं, उन दोनों के मन को भी अपने रूप से चुनौती दे रही थी।
पिछले तीन दिन से असंख्य सुख के पल इन फूलों से यूँ ङी झरगए और वह जाने किस उन्माद में डूबा, पैरों तले सब रौंदता बेमतलब ही भटकता रहा। मोहित आगे बढ़ा और बाहों में लेकर चूमने लगा , प्यार से बहुत ही धीरे धीरे मानो रेशमा खुद एक फूलों की डाली हो। पर मचलते-फिसलते वे फूल भला कैसे और कबतक रुक पाते— झरझर दामन खुशियों से भर दिया। बाल बाल में गुँथकर अनूठा श्रँगार कर दिया। सुख में डूबती उबरती रेशमा ने आँखें खोलीं तो मोहित अभी भी प्यार से उसे ही देखे जा रहा था, मानो पहले देखा ही न हो, आँखों आँखों में दुलराता और अंग अंग सराहता। शरमाती सकुचाती रेशमा बालों से गुलमोहर के फूल और पंखुरियों को झारते-हटाते बादलों पर चल रही थी—एकबार फिरसे सात फेरे ले रही थी पति के साथ। जाने किस सुख तंद्रा में डूबी उसकी तरफ देखती, शरमाती यूँ ही बोल पड़ी,” यह फूल रात में तो यूँ नही झरते, फिर यह आज क्या हो गया है इन्हे?” ” कुछ नही रेशमा, गुलमोहर भी मुस्कुरा रहा है, जैसे कि तुम मुस्कुरा रही हो।”
रेशमा ने पलटकर देखा गुलमोहर मुस्कुरा ही नही, जी खोलकर हँस रहा था उनके साथ, तभी तो झरती उन पंखुरियों का कालीन पैरों के नीचे बिछ गया था। मादक उस पल के पल- पल को पलकों में सजोती रेशमा ने तुरंत ही अपना सुर्ख पड़ता चेहरा पति के वक्ष स्थल में छुपा लिया। अभी भी विश्वाश नही हो पा रहा था  उसे कि यह सब सच है या फिर इन सोती-जागती आँखों का एक और दिवा स्वप्न—-हाँ -मुस्कुराते होंठ और बन्द पलकों के पीछे छुपी चंचल आंखें जरूर ही सचेत किए जा रही थीं कि चाहे जो भी हो, इस जादू को बिखरने नही देना है — आजीवन यूँ ही सहेजना होगा—- हमेशा के लिए। —-   मई-2006-

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