कहानी समकालीनः बावरी चिड़ियाः शैल अग्रवाल

bavari chidiaआँखों के  आगे पकड़ी किताब के पन्नों के पीछे से राधिका देख पा रही थी कि पूजा के  आसन पर बैठी माँ,  आज फिर गीता कम  और उसे ही ज्यादा पढ़े जा रही थीं। राधिका जानती थी कि यह माँ की पुरानी  आदत है; माँ कहीं भी हों, कुछ भी कररही हों बस उसे ही देखती रहती हैं। उसीके बारे में सोचती रहती हैं। उसी की जरूरतों की फिक्र रहती है उन्हें हरदम। उनकी राधा ने ठीक से खाया भी या नहीं, खाया तो खाने के बाद थोड़ा-बहुत  आराम भी किया या नहीं, या बस पढ़ती ही रह गई क्या…बगैरह-बगैरह।  आखिर शरीर भी तो एक मशीनरी ही है। इसे भी तो देखभाल की पूरी जरूरत होती है। ऐसे कितने दिन चल पाएगी, -बिना ईंधन के तो लोहे की गाड़ी तक चलने से मना कर देती है ?

माँ परेशान रहतीं जाने कब उनकी बावरी बेटी को यह साधारण सी बात समझ में  आएगी ?

पर, माँ तो एक कुशल जादूगर की तरह दूर-से भी उसके मन की हर बात जान लेती थीं। कैसे जानती थीं, यह राधिका नहीं जानती, पर जब-भी उसे  हलकी-हलकी भूख  या प्यास लगनी शुरु होती, माँ पानी का गिलास  और खाना लेकर सामने  आ जाती। भला उन्हें कैसे पता चल जाता थाः पूछो तो, मुस्कुराकर बस वही पुराना जवाब मिलता,  ‘ इतनी जल्दी क्या है, सबकुछ जानने-समझने की। उतावली मत रहा कर। बड़ी होगी, मा बनेगी, तो खुद-ही सब समझ में आ जाएगा ।  ‘ उन दोनोंका ही नहीं, शायद हर मा-बेटी का, ऐसा ही  और यही रिश्ता होता है… अटूट  और  अनबूझ। जबाबों की गुत्थियों में प्रश्नों सा उलझा, श्रृद्घा, प्यार  और विश्वास से भरा हुआ। दूध के मीठे गिलास सा  अपने में सँपूर्ण।

जब और नहीं रहा गया तो बेटी की बेचैनी तोड़ते हुए माँ बोल ही पड़ीं,  ‘ क्यों राधा बेटा, ऐसा क्या पढ़ डाला  आज किताब में, जो इतनी बेचैन है तू ? मुझे भी तो बता मैं भी तो सुनूँ, आखिर क्या है यह, जो मेरी गुड़िया को परेशान कर रहा है ?’

” कुछ भी नहीं मा। बड़ी ही  अजीब सी घटना का वर्णन है यहाँ, इस किताब में। दो जुड़वा भाई-बहिनों के बारे में लिखा है। एकदिन खेल-खेल में बहिन ने भैया से कहा कि हम दोनों में से जो भी इस दुनिया से पहले जाएगा, वह दूसरे से मिलने  आएगा। बताएगा कि  आखिर मौत के बाद होता क्या है? ‘
बचपने की वह बात, खेलखेल में  आई-गई हो गई। बड़े होकर दोनों ही भूल गए। बहन  आस्ट्रेलिया चली गई  और भाई यहीं इँगलैंड में रह गया। एक दिन  अचानक सुबह-सुबह बहन ने सपने में देखा कि भाई सामने खड़ा है। हाथ पकड़कर बता रहा है,  ‘ देख बहन, मैं अब जा रहा हूँ  और बस यही बताने  आया था। पर तुम यह मात्र एक सपना नहीं देख रही हो, सुबह तुम्हारी कलाई पर जगने के बाद भी मेरी उँगलियों के निशान मौजूद होंगे। जो गवाही देंगें कि मैं  ही तुमसे मिलने, तुम्हें बताने यहाँ  आया था। ‘

बहन की  आँखें खुल गईं। कलाई पर पड़ा उंगलियों की पकड़ का निशान, ज्यों का त्यों मौजूद था। वह बहुत परेशान हो गई। बेचैन बहन ने घबराकर भाई के यहाँ फोन मिलाया, पर वहाँ घर में कोई नहीं था। थोड़ी ही देर बाद उसकी भाभी का  आस्ट्रेलिया से फोन  आया कि उसका भाई  अब नहीं रहा। दुर्घटना में घँटे भर पहले उसकी मृत्यु हो गई।  और जानती हो मा, उसकी मौत का वही समय था जब वह  अपनी बहन से मिलने  आया था, उस सपने में। है न बहुत ही  आश्चर्य की बात ?”’

” नहीं, आश्चर्य तो इसमें कुछ भी नहीं। उस परमात्मा की लीला बड़ी निराली है। ये मोह की जँजीरें जीवन  और मौत से कहीं ज्यादा मजबूत हैं। यह बात दूसरी है कि वाकई में क्या होता है इसे हममें से कोई भी नहीं जानता। जान सकता भी नहीं। शायद मरकर ही जान पाएँ, वह भी  अगर जानने लायक रह पाएँ तो, या जानने की जरूरत ही रह जाए। ”

” जानती है तू,” माँ ने गीली  आँखें पोंछकर बताया-  ”जब मेरी माँ मरी थी तब मैं भी बहुत रोई थी  और तब मेरी माने भी मुझे सपना दिया था। मेरे  आँसू पोंछते-पोंछते वह रो पड़ी थी  और बताया था कि मेरे मोह में बँधी वह कहीं भी नहीं जा पा रही।  अबभी मेरे पास ही घूम रही है। यही वजह है कि यहीं बृँदावन के बाँकेबिहारी के मँदिर में मोरिनी बनकर वह पैदा हुई है।  अगर मैं चाहूँ तो उससे वहाँ जाकर मिल भी सकती हूँ। पहचान के लिए उस मोरनी के बाँए पांव पर एक सफेद निशान होगा। जानती है राधिका, मेरी माँ के पैर पर भी एक ऐसा ही सफेद निशान था। उसके बाद अगले दिन ही, बिना किसी को बताए मैं बावरी-सी मंदिर चली गयी थी और वहाँ एक छोटी-सी मोरनी फुदक-फुदककर मेरे आगे आ खड़ी हुई थी-अपने बाँए पैर पर वही सफेद स्पष्ट निशान लिए हुए।

पहले तो मैं गले लगकर उससे खूब मिली, खूब रोई। फिर खुद ही सोचा, क्यों इस तरह से पागल हुई जा रही हूँ। अगर यह मेरी माँ है भी, तो मेरे किस काम की। क्यो बाँधे हुए हूँ मैं अब भी इसे खुदसे। अब तो मुझे इसे अपने मोह से मुक्ति देनी ही होगी। और बस उसके हाथ जोडकर, चुपचाप आँसू पोंछती वापिस चली आई मैं। ऐसा मन कड़ा किया मैंने कि पलटकर पीछे देखा तक नहीं। वैसे भी कुछ कहने सुनने को तो रह ही नहीं गया था। जानती है बेटा, उसके बाद चाहकर भी मैं फिर कभी, वहाँ उस मंदिर में नहीं लौट पाई हूँ।”’

राधिका चुपचाप मा का मुँह देखती रह गई। सोचने लगी कि क्या ऐसा भी हो सकता है कि पाकर भी कोई  अपने का यूँ त्याग कर दे- इतना कठोर  और नादान हो पाए? शायद माँ  और नानी की इसी में भलाई थी कि वह  अपने इस विछोह को मान लें स्वीकार कर लें। गीता में कृष्ण ने भी तो यही सब समझाने की कोशिश की है। यह दुनिया बस एक रँगमँच है  और एक बार मौत का परदा गिरते ही खेल खतम-पात्र का वह चरित्र-चित्रण सँपूर्ण।  और वह  अपनी  अगली यात्रा में,  अगली नाटिका में व्यस्त हो जाता है।
पर फिर कभी-कभी यह धागे ऐसे उलझ कैसे जाते हैं ? परदा पूरी तरह से गिर क्यों नहीं पाता ? शायद  आँसुओं की यह डोर सीधे उस प्रभु के हाथों में हो  और उसका भी  अँतःकरण हिला देती हो- उलझा जाती हो। बाध्य करती हो उसे नियम तोड़ने के लिए ?

अगर यदि यही सच है तो उसमें  और मा में से तो जो भी पहले जाएगा, दूसरे से मिलने निश्चित ही  आएगा, चाहे बीच में कितनी ही दूरी क्यों न हो, कितनी ही मुश्किलें क्यों न  आएँ।  और फिर  अगले पल ही राधिका डर गई। उसे जाने क्यों लगा कि वेदमँत्र सी ये गूढ़ बातें उन दोनों को सुनाई तो दे रही थीं, पर समझ के बाहर थीं। और अब अपने  आप एक खतरनाक मोड़ ले रही थीं। धरती को छोड़ वर्जित  आकाश से जुड़ रही थीं। प्रकृति के नियमों की वह बन्द किताब खोल रही थीं जिसे पढ़ना तो दूर, शायद छूना भी सँभव नहीं।

राधिका चुप हो गई  और  अपनी बेतुकी सोच पर ग्लानि से भर  आई। माँ बड़ी थीं। करीब-करीब निश्चित-सा ही था कि पहले मा ही जाएँगीं  और उसका यह जानने का, यह सोचने का,  अपनी मा को खोने का हरगिज ही कोई इरादा नहीं था। भगवान मा को खूब लम्बी उमर दे। बेतुकी, वाहियात सोच के लिए माफ कर दे।  अब इतनी खराब सोच के बाद वह माँ की तरफ देखने तक की हिम्मत न कर सकी। चुपचाप सोने का बहानाकर  आँखें बन्द किए लेटी रही  और माँ सिराहने बैठ माथा सहलाती रहीं। राधिका जानती ही नहीं, विश्वास भी करती थी कि माँ सचमें उसके मन की हर बात, बिना कहे, सुन  और जान सकती थीं।

तभी तो  आजतक, बीस साल बाद भी, माँ से हजारों मील दूर बैठकर भी, यदि सर में जरा-सा दर्द तक हो, तो माँ की  आँखें भर  आती हैं-मन बेचैन  और उदास हो जाता है। ऐसा कठोर  अन्याय बस उन्ही दोनों माँ-बेटी के साथ ही क्यों हुआ? सभी की बेटियों की शादी होती है। सब चैन से भारत में बैठी राज कर रही हैं।  आए दिन ही एक-दूसरे को मिलती-देखती हैं। एक दूसरे के सुख-दुख में साथ रहती हैं। फिर उसे  और माँ को ही यह बनवास क्यों ? यह देश निकाला क्यों ?

राधिका को आजतक,  आधी उम्र के बाद भी,  अपनी इतनी प्यार करने वाली माँ को यूँ तरसता छोड़कर इतनी दूर  आना, हरदम चुभता  और खलता है। यह बात दूसरी है कि माँ साल में ग्यारह महीने राधिका के लिए फोन पर एक  आवाज, हफ्ते में एक चिठ्‌ठी बनकर रह गयी हैं। पर राधिका यह भी जानती है कि माँ भी उसकी चिठ्‌ठी का उसी बेचैनी  और उतावलेपन से इँतजार करती हैं जैसे कि वह करती रहती है। ये चिठि्‌ठयाँ ही तो उनकी भी यादों में डूबते मनका सहारा थीं। यही वजह थी कि पत्र मिलते ही राधिका तुरँत ही जबाव लिखने भी बैठ जाती है। खामखाह माँ के दुख को  और बढ़ाने से क्या फायदा ? इन्तजार की पीड़ा को तो वह भी खूब  अच्छी तरह से जानती ही है।

पिछले बीस-पच्चीस साल से यही सिलसिला चल रहा है। पर   आज की मा की चिठ्‌ठी कुछ जरूरत से ज्यादा ही उदास थी। बेचैन  और न जाने किस, न ठीक होनेवाले दर्द से बारबार कराहती-सी।  अपनों से दूर होकर दुखी नहीं होना चाहिए, बस उन्हें ही याद करके जिन्दगी खराब नहीं करनी चाहिए । इसी तरह की कई-कई हिदायतों  और मशवरों से पलट-पलटकर उसे समझाती हुई वह चिठ्‌ठी शायद माँ को भी तस्सली नहीं दे पा रही थी। राधिका को  आज भी याद है  आगे उस चिठ्‌ठी में लिखा था-‘बेटी रोना मत, बस यही प्रकृति का  अटल नियम है- जो  आया है  आखिर उसे जाना तो पड़ेगा ही। बेटा, कोई प्यार,  आँसू या फरियाद इस नियम को नहीं तोड़ पाते। पलट नहीं सकते। ‘

राधिका का मन किया कि उड़कर माँ के पास पहुँच जाए-‘ क्यों माँ, ऐसी क्या बीमारी है-कौनसा दुख है जो इतना उद्वेलित कर रहा है ? मिलने को, उसे देखने को तरस रही है क्या उसकी माँ ? वह जानती थी, उसे देखते ही माँ तुरँत ही, पुनः पूरी तरहसे स्वस्थ हो जाएँगी। पर क्या करे राधिका ? मजबूर थी। अभी पूरे तीन महीने  और इँतजार करना पड़ेगा उसे। बच्चों के सालाना इम्तहान हैं। पूरी साल का सवाल है ? राधिका ने कलेजे पर पत्थर रख लिया। बस दीपक से इतना कहा कि दीपक इस बार जब हम भारत जाँएगे, तो पूरा समय माँ के साथ ही गुजारेंगे। कहीं नहीं जाएँगे-कहीं भी  और नहीं।

और माँ को याद करते-करते, उनकी बातें करते-करते, थकी, उदास राधिका सो गई। सपने में माँ सामने खड़ी थीं। शिकायत भरी नजरों से देखती,  असँतुष्ट  और परेशान।  अविश्वास में बारबार गर्दन झटककर  अपना  असँतोष प्रकट करती हुई। राधिका ने दौड़कर माँ को गले से लगा लिया।  ‘ क्या बात है माँ, आखिर तुम इतनी परेशान क्यों हो ? ‘ परेशान  और दुखी राधिका ने माँ के कँधे पर सर टिका दिया  और फिर  आँसूभीगी  आवाज में बहुत ही लाड़ से पूछा ?

‘ कुछ नहीं बेटी।  मैं सोचती हूँ मैने तुम्हें व्यर्थ ही इतना प्यार किया। मैं नहीं जानती कि सिर्फ  अपने बाप की लाडली बेटी से क्यों मैं  आज यह शिकायत कर रही हूँ ? तुमतो शायद कभी मेरी बेटी थी नही। तुमने तो बस जिन्दगी भर  अपने पापा से ही प्यार किया है।’  माँ ने  आँसू पोंछते हुए जबाब दिया।

यह माँ ने क्या कह दिया। यह कैसा जबाव था- राधा का मन द्रवित हो आया। माँ से लिपटकर वह  आग्रह  और  अनुरोध से बोली, ‘ऐसा मत कहो माँ। मैं बस तुम्हारी ही बेटी हूँ  और तुम मेरी बहुत ही प्यारी, दुनिया में सबसे  अच्छी, सिर्फ मेरी माँ।

अचानक ही राधिका का ध्यान मा के रूखे बालों  और  अस्तव्यस्त कपड़ों पर चला गया, मानो  आज उन्हें किसी भी चीज की परवाह ही नहीं रही थी, माथे की बिन्दी तक माथे पर नहीं थी। राधिका जानती थी कि माँ सूना माथा कभी नहीं रखतीं। मा बिल्कुल बीमार बच्ची सी लग रही थी- कमजोर  और  असहाय।

‘ यह क्या हाल बना रक्खा है तुमने माँ ? हमेशा तुम मेरे बाल बनाती थीं,  आओ  आज मैं तुम्हारे बाल बनाउँगी। तुम जानना चाहती थीं न कि यहाँ विदेश में  औरतों की  आँखों का काजल फैलता क्यों नहीं ?  आज मैं तुम्हें सब ठीक से लगाकर बतलाउँगी।’

और राधिका ने खूब मन से माँ के बाल काढ़े। श्रृँगार किया। माँ उसकी गोदी में सर रखकर  आराम से लम्बी लेट गईं। मानो  आज बस फुरसत ही फुरसत हो। सारा श्रृँगार करवाकर ही उठेंगी।  अचानक चलचित्र सा सब धुँधला हो गया। पूरा श्रृँगार बिगड़ गया। काजल  फैलकर  गालों तक आ गया।  अब माका बदन ठँडा था।  अकड़ गया था सिवाय गाल के। बाँए गाल के उस सुर्ख चमकते हिस्से के, जिसे रोती राधिका ने अभी-अभी प्यार से चूमा था  और जहाँ पर माँ की  आँख से टपका एक तृप्त  आँसू  अभी भी मोती सा चमक रहा था।

सपना मनको विचलित करने वाला था। राधिका ने घबराकर आँखें खोल दीं। मा के  आँसू का स्वाद  अभीतक उसके होठों पर था। बत्ती जलाकर देखा तो रात के दो बजे थे। सामने शीशे में,  आँसुओं में डूबी राधिका की परछाँई उसके पागलपन पर हँस रही थी। पर  अब फिरसे सो पाना नामुमकिन था। राधिका चौके में गई  और चुपचाप चाय बनाने के लिए केतली  ऑन करदी। बाहर खिड़की के नीचे एक बीमार कबूतरी कराहे जा रही थी। गुटुरगूँ पर गुटुरगूँ किए जा रही थी। बेचैन गरदन उचकाती इधर से उधर टहल रही थी। राधिका उसका दर्द बर्दाश्त न कर सकी। खिड़की खोल दी। उस जाड़े की ठिठुरती रात में, नँगे पैर ही छत पर जाकर कबूतरी के लिए चावल के दाने  और पानी रख आई  और इँतजार करने लगी बेचैनी से न जाने किस  अशुभ  अनर्थ का, बारबार  अपने पापी मनको, खुदको, धिक्कारती धमकाती हुई। कैसा पापी है उसका मन जो हर समय ना जाने कैसे, पहले से पहले, खराब से खराब बातें सोचकर काँपने लग जाता है। नीचे  आए  अभी मुश्किल से कुछ पल ही बीते होंगे कि फोन की कर्कश घँटी बज उठी पिघलते शीशे-सी पूरे शरीर में उतरती,  अन्दर तक सब काटती चीरती हुई।
राधिका  अनजाने भय से काँपर रही थी। फोन से भी इतना डरा जा सकता है, राधिका को विश्वास नहीं हुआ। उसके पैर वहीं जमीन पर जम गए  और शिथिल हाथ बेजान कँधों से लटके बेमतलब ही झूलने लगे।

थके-हारे दीपक ने  आधी नींद में ही फोन उठा लिया।  इस समय किसका फोन हो सकता है? वह बड़बड़ा रहा था।
राधिका को वहाँ खड़े-खड़े एक-एक बात सुनाई दे रही थी। समझ में  आ रही थी। दूसरी तरफ शिवदयाल था। घर का पुराना नौकर।

‘ आधे घँटे से  आप लोगों को फोन मिला रहे हैं, बाबूजी। मिल ही नहीं पा रहा था। बुरी खबर है।  अभी घँटे भर पहले मझली माजी नहीं रहीं।  अचानक ही हार्ट फेल हो गया। डॉक्टर वगैरह  आएँ, तबतक तो सब खतम हो गया था।  अब तो गँगाजी गए हैं सबलोग। ‘

कटे फोनको कान पर रखकर राधिका बारबार वही सब सुने जा रही थी,  अविश्वास में दुहरा रही थी बिना कुछ भी मुँह से बोले। मझली माँ- यानीकि उसकी  अपनी माँ। जरूर, वही समय रहा होगा-सुबह के चार-पाँच के करीब, जब वह सपना देख रही थी। माँ के गले लग रही थी। उन्हें लाड़-दुलार रही थी। साथ हँस-रो रही थी। राधिका बुत बन गई । आँसू तो सब शायद पहले ही बह चुके थे। दीपक नीचे  आए  और फोन राधिका के हाथ से लेकर वापस रख दिया।

अगले दिन राधिका भारत में थी। खुद को कोसती-धिक्कारती, दुखी होती।  अगर  आना ही था, तो दो दिन पहले क्यों नहीं  आ पाई वह ? कल सुबह क्यों नहीं ? कम-से-कम माँ से मिल तो पाती वह। क्या पता वह मनहूस घड़ी टल ही जाती शायद ?

वहाँ माँ के कमरे में सब कुछ वैसे ही था सिवाय माँ के। मा का चश्मा, चप्पलें सब कुछ राधिका देख पा रही थी, बस माँ ही कहीं नहीं थी। थकी राधिका वहीं ठँडी जमीन पर चुपचाप बैठ गई। खड़े रह पाना अब सँभव नहीं था।  अचानक ही एक  अनजानी  और कठिन थकान ने उसके मन  और शरीर दोनों को ही घेर लिया था। पापा  आए  और चुपचाप उसका सिर  अपनी छाती से लगाकर, धीरे-धीरे बाल सहलाने लगे- बिल्कुल मा की तरह-ही। दोनों में से कोई कुछ नहीं कह पा रहा था। किसी ने भी कुछ कहने-सुनने की कोई जरूरत ही नहीं समझी।

जाने कैसे कहाँ से बात कहाँतक पहुँच चुकी थी। सुबह दूधवाली उससे  पूछ रही थी – ”क्यों राधिका बिटिया सुना है मा  आपसे मिलने वहाँ बिलायत गईं थीं ? जाते बखत पूरा श्रृँगार भी तुमसे ही करवाया था ?’
राधिका की समझ में नहीं  आ रहा था कि क्या जबाव दे, बस फटी  आँखों से देखती रह गई थी वह।

” क्या बताएँ बाबूजी ममता चीज ही ऐसी है बिटिया को बहुत प्यार करती थीं  अम्मा। हरदम बस हमारी राधिका…हमारी राधिका ही करती रहती थीं।’

उसने फिरसे राधिका के मुँहसे कुछ सुनना चाहा।  कम-से-कम चन्द  आँसुओं की माँग तो की ही उसने।

पर राधिका के तो आँसू भी माँ की तरह ही  अदृश्य होगए थे। बस एक  अनकहा  अपराधबोध मन को साल रहा था। राधिका नहीं समझ पारही थी कि  अब उसे क्या कुछ कहना  और करना चाहिए। लोग  आते रहे। तरह-तरह के सवाल करते रहे। बात करने की कोशिश करते  और जबाव की  अपेक्षा करते, पर राधिका चुपचाप बाहर वालों की तरह बस हर रस्म, हर रिवाज में शरीक होती रही, बिना कहीं भी मन से उपस्थित। उसका उदास मन किसी से जुड़ ही नहीं पा रहा था।

अगले दिन घाटपर जाकर फूल चुनने थे- फूल यानि कि मा के पार्थ शरीर के चन्द बचे-खुचे  अवशेष। फिर सबकुछ खतम हमेशा के लिए। मा हमेशा के लिए  अतीत में जा चुकी थीं। हैं से थीं बन गई थीं। राधिका को लगा कि एक शीशे की बड़ी सी सीलबन्द  अदृश्य लिफ्ट में जबरदस्ती माँ को कोई ऊपर दूर लिए जा रहा है। बेचैन माँ रोती हुई हाथ हिलाहिलाकर कुछ कहने की कोशिश कर रही हैं। घबराई बेचैन हाथों से टटोल-टटोलकर बाहर  आने का रास्ता ढूँढ रही हैं, पर ढूँढ नहीं पा रहीं। चाहकर भी कुछ कह नहीं पा रही थीं।

पर रात के सन्नाटे में राधिका को माँ की आवाज साफ-साफ सुनाई दी। उसकी आँखें खुल गईं। माँ उसे बुला रही थीं,  ‘  राधिका बेटी यहाँ आ–मेरे पास–मेरे कमरे में। क्या तू यहाँ आकर भी मुझसे नहीं मिलेगी ? ‘

राधिका माँ के कमरे की तरफ दौड़ पड़ी। कमरे में कोई नहीं था। सिवाय उस खाली चौकी के जिस पर अभी भी माँ की ही चद्दर बिछी हुई थी। राधिका जमीन पर गिरी बैठी-सी चौकी से लिपट गई। औंधी पड़ी रोती रही। उसके मन को एक अजीब अकथनीय शान्ति मिल रही थी। राधिका जानती थी माँ यहीं, उसके पास उससे लिपटी बैठी हैं। गले मिल रही हैं–क्योंकि उसे कमरे में पूजा की धूपबत्ती की महक आने लगी थी। बचपन से ही वह पहचानती थी इस महक को। यह उसकी माँ से जुड़ी महक थी। माँ की महक थी। माँ के कपड़ों और उनके बदन की गरमी  और साँसों को भी वह  अपने चेहरे  और गर्दन पर महसूस कर पा रही थी। उनकी उष्मा उसके थके मनको शान्त  कर रही थी। साँत्वना दे रही थी। माँ नहीं थीं, पर वह उन्हें महसूस कर सकती थी- सुन सकती थी। माँ कह रही थीं,

‘  मैं तेरे पास जाते-जाते बीच में ही अटक गई, बेटा। रास्ते में ही, सीरिया में पैदा हो गई हूँ मैं। इसी महीने की नौ तारीख को। मेरा नाम दीमित्रिस है। तू वहाँ के जन्म-मृत्यु के रजिस्टर से चाहे तो सब कुछ पता कर सकती है। मुझसे मिलने भी  आ सकती है।’

राधिका का मन चाह रहा था कि वह जो कुछ महसूस कर रही है, सुन रही है सच ही हो, पर बुद्घि कह रही थी कि सब दुखी मन की उपज है। खुद को तसल्ली देने के बहाने हैं।  और चाहकर भी राधिका ने कुछ नहीं किया। सीरिया जाकर किसी नवजात दीमित्रिस को तलाश करने की कोई कोशिश नहीं की। बस चुपचाप  अपने घर लौट  आई गुमसुम  और उदास। उस नवजात दीमित्रिस से इस जन्म की राधिका का शायद कोई सँबन्ध ही नहीं था।

घर में घुसते ही राधिका को लगा कि माँ उसके स्वागत में घर के  अन्दर पहले से ही मौजूद हैं। बाँहों में भरकर उन्होंने उसका स्वागत किया फिर गले मिलकर खूब रोईं भी। एकबार फिर राधिका ने उनके बदन का भार  और शरीर की गर्मी, खुद से लिपटी  और खुदको तसल्ली देती महसूस की। राधिका नहीं जान पा रही थी उसे क्या करना चाहिए मा के लिए ? चुपचाप उसने खुदको  और माँ को भगवान के  आगे समर्पित कर दिया। उनके  आगे सिर झुका दिया। प्रार्थना की कि वे मा को भटकाएँ नहीं। उसका क्या, वह  अपने मनको कैसे भी समझा लेगी।

सुबह-सुबह बगीचे में बाहर रक्खी मूर्ती के ऊपर एक नयी चिड़िया बैठी हुई थी। कालभैरवी सी वह चिड़िया बैठी-बैठी बस एकटक राधिका को ही देखे जा रही थी। राधिका को अटपटा लगा। चिड़िया की  आँखें मा की याद दिला रही थीं उसे। मा भी तो ऐसे-ही उसे हरदम इतने ही ध्यान से देखती रहती थीं। फिर वह खुद  अपने पर,  अपनी दीवानी सोच पर हँस पड़ी। पागल होने में लगता है  अब कोई कसर नहीं  थी। राधिका सबकुछ भूल जाने के लिए कमर कसकर काम में जुट गई। बिना कुछ खाए-पिए, बिना  आराम किए। वह इतना थक जाना चाहती थी कि सबकुछ भूल सके, सो सके। राधिका को ठीक से सोए बगैर जाने कितने दिन हो गए थे।

धुले कपड़ों के गढ्‌ढर को लेकर जब वह ऊपर  अपने कमरे में पहुँची तो शरीर जबाब दे गया। सबकुछ बिस्तर पर रख, वहीं उन्हीं के बीच एक कोने में सिकुड़ी-सिमटी राधिका लेट गई  और लेटते ही, मा की मौत के बाद  आज पहली बार झटसे उसकी  आँखें भी लग गईं।

सिराहने बैठी मा उसका सर सहला रही थीं। प्यार से उसे देख रही थीं,  आग्रह कर रही थीं,  ‘ चल उठ बेटा, कुछ खा-पी ले। देख पूरा बदन बुखार से तप रहा है। ऐसे भूखे-प्यासे काम में लगी रहेगी, तो यह शरीर कैसे  और कितने दिन चल पाएगा?  तुझे यूँ भटकता देखकर मेरी  आत्मा बहुत दुख पा रही है। कुछ नहीं तो बस एक गिलास दूध ही पी ले। उठ रानी, तुझे मेरी कसम। ‘

राधिका उठ बैठी।
जल्दीजल्दी नीचे आकर दूध गरम किया  और पीने लगी । आँख से लगातार बह रहे  आँसुओं की कोई परवाह नहीं थी उसे।  आँसुओं में डूबा वह दूध  अमृत सा लग रहा था। मानो माँ ने खुद  अपने हाथों से ही बनाया हो  और माँ खुद  आकर पिला रही हों। बाहर बुत के ऊपर वह चिड़िया फिर से  आ बैठी थी  और बड़े प्यार व सँतोष से राधिका को लगातार देखे जा रही थी। राधिका  अब  अपने को  और न रोक पाई और झटपट बाहर  आ गई।
बाहर  आते ही, राधिका को देखते ही, वह चिड़िया बुत से उड़ी  और फुर्रसे राधिका के कँधों पर  आ बैठी। स्नेह से पुलककर राधिका ने  आँखें बन्द कर लीं। चिड़िया को सहलाने के लिए, छूने के लिए उसका जी मचलने लगा। हाथ कँधे पर गया। बावरी चिड़िया  अभी भी वहीं, वैसे-की-वैसी ही बैठी थी… उड़ना तो दूर, वह बर्फ सी ठँडी चिड़िया हिली तक नहीं थी।

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