मोल-भाव
कड़कती धूप में अब और घूम पाना असंभव था।
सामने रिक्शा दिखा तो आवाज दी, चौक चलोगे?
क्यों नहीं, बैठें।
कितने पैसे लोगे?
पच्चीस रुपए।
बीस ले लेना। -कहती वह बिना कुछ और कहे या पूछे धम्म से रिक्शे में बैठ गई। गरमी वाकई में बहुत थी। और रिक्शे में कोई ए.सी भी नहीं।
तभी उसने देखा कि उसे ढोते हुए रिक्शे वाले के बदन से पसीने की फुहारें छूट रही थीं और कमीज पूरी तर-बतर थी। रिक्शा चलाते-चलाते उसने कई बार चेहरे से पसीना पोंछा था।
पर्स से तीस निकाल कर दिए उसने, तो वह दस लौटाने लगा।
नहीं रख लो , कुछ खा- पी लेना।
नहीं मेम साहब , खैरात नहीं चाहिए। बीस तय हुए थे बीस ही लूंगा। अपनी भी कोई इज्जत है…
और अब स्तब्ध वह शर्मिंदा थी। खुद को धिक्कार रही थी- जहाँ करना चाहिए वहाँ तो हम कुछ नहीं कहते नहीं और इन गरीबों से जो हड्डी-तोड़ मेहनत के बाद भी चार पैसे बड़ी मुश्किल से कमा पाते हैं, मोल भाव करने बैठ जाते हैं।…
परवरिश
जाड़े की कड़कड़ाती सुबह थी। आँखें खुली तो गाड़ी स्टेशन पर पहुँच चुकी थी और स्टेशन पर एक कुली नजर नहीं आ रहा था।
‘आएंगे तो पर पता नहीं कितनी देर में और गाड़ी भी दस मिनट से ज्यादा नहीं रुकेगी। लगता है प्लेटफौर्म पर तो खुद ही उतारना होगा। उम्र के इस पड़ाव पर अब नहीं है ताकत यह सब ढोने की। कितनी बार तुमसे कहा है कि कम सामान लेकर चला करो।’
पति ने प्यार से झिड़का, तो पत्नी चुपचाप सिर झुकाए एक हल्के थैले के साथ प्लेटफौर्म पर उतर कर खड़ी हो गई।
अभी उन्होंने पहला सूटकेस घसीटना शुरु ही किया था कि वह ऊपर की सीट पर सोया नौजवान कूदा और लपक कर सूटकेट उनके हाथों से ले लिया- अंकल आप यहाँ सामान के पास रहो और मैं एक-एक करके झट से सारा सामान प्लेटफौर्म पर उतार देता हूँ, जहाँ आन्टी खड़ी हैं। और उसने मिनटों में उतार भी दिया।
धन्यवाद और आशीर्वाद दोनों में ही हाथ उठे तो होठों से आशीर्वाद की झड़ी लग गई।
‘ यह तो मेरा फर्ज था, आप दोनों मेरे मम्मी-पापा जैसे ही तो हो! क्या मैं उनकी मदद नहीं करता!’ कहते हुए उसने दोनों के पैर छुए और वापस अपनी सीट पर चढ़ गया सोने के लिए।
पनीली आँखें तबतक ए.सी फस्ट के उस खाली कूपे पर टिकी रहीं, जबतक वह खसकती ट्रेन के साथ आँखों से ओझल न हो गया।
कूपे में उन तीनों के अलावा कोई और नहीं था। चाहता तो वह सामान लेकर भाग सकता था, उन्हें लूट सकता था, या करवट बदल कर सोता तो रह ही सकता था। क्या जरूरत थी यह सब बोझ ढोने की? पर नहीं, अच्छे संस्कारी घर का बच्चा था…किसने कहा कि अमीरों के बच्चे बस बिगड़े नवाब ही होते हैं, उनमें संस्कार नहीं होते! अपने-अपने संस्कार और परवरिश की ही तो बात है सारी।’
‘जी साब, सामान ले चलूँ, ढेला लेकर अभी आया, तबतक आप यहीं बैठो। टैक्सी भी है हमारी, कौनसे होटल चलना है? ‘
नाम सुनते ही, ‘दो हजार होंगे।’
दस कदम पर ही तो है होटल ,’ दो हजार ज्यादा नहीं !’
‘हैं तो, पर बात तो सुविधा की है। हम अभी आपको सामान सहित होटल पहुँचा देंगे। आप देख लो, हम भी चार पैसे कमाने को हैं इस घंधे में! फिर आपके लिए दो ह़जार कौन से बहुत ज्यादा हैं!’
…कुली तुरंत ठेला ले आया , ‘ठीक है’ में गर्दन गिलते ही और बाहर टैम्पो में जिसे वह टैक्सी कह रहा था सामान सहित बिठा दिया उन्हें।…
एक यह अमीर होने की दौड़ में लूटने को तैयार और दूसरा वह अमीर होकर भी मदद के लिए कुली-गिरी के लिए भी तैयार …पर मरता क्या न करता… सारी बात परवरिश की ही तो थी ।