भीम-पलासी तो कभी मेघ-मल्हार, कभी भैरवी तो कभी जैजैवन्ती, राग-रागनियाँ हँसा और रुला रही थीं आज फिर उन्हें, मानो किसी जादू में जा पहुँची थीं वह। राग हिंडोल तक पहुँचते-पहुँचते तो मानो ख़ुद ही पेंग लेने लग गई थीं। पानी की बूंदें भी तो जाने कबसे टिप-टिप-टिप, खिड़की के शीशे पर नृत्य किए जा रही थीं। इतना खुश, इतना निमग्न और आद्र पहले कभी नहीं देखा था उन्होंने इन बूंदों को। जानती थीं कि यह उनके मन की हरियाली ही तो थी जो बूंदों में घुल-मिलकर पत्ते-पत्ते पर जा बैठी थी।
विशेष दिन था वह, खुशियों से भरा, एक कौतुकमय जादू-सा फैल चुका था उनके चारों तरफ़।
जादू के नाम पर बरबस ही एक स्निग्ध मुस्कान फैल गई थी अब गौतमी के होंठों पर और बचपन में सुनी-पढ़ी वह कहानी बारंबार ही याद आ रही थी उन्हें। कहानी कुछ यों थी – एक जादूगर था जिसने जंगल-जंगल घूम कर एक अद्भुत पेड़ ढूंढा जिसके तने को छूने मात्र से संगीत के सातों सुर निकलने लगते थे। तुरंत ही मंत्रमुग्ध जादूगर ने उस जादुई तने से एक वीणा बनााई, जो असाधारण थी। ऐसे अद्भुत सुर निकलते उससे कि सुनने वाले सम्मोहित हो जाते। जादू यहीं तक सीमित नहीं था , जिसकी जैसी मनःस्थिति होती, उसे वैसा ही संगीत सुनाई देने लग जाता। और तब खुश आदमी झूम-झूमकर नाचने लगता और दुखी फूट-फूटकर रोने।
संगीत की सुरमई खुमारी में डूबी गौतमी को तो हमेशा से यही लगता था कि ये सारे गुण उनकी साधारण-सी दिखती वीणा में भी हैं। वीणा ही क्यों जीवन भी तो ऐसा ही है। आँसू और मुस्कान की लहरों पर तैरता, पल-पल सुख और दुख दोनों में ही गोते लगाता ! और तब जैसी मनःस्थिति हो उसी हिसाब से तो धरती-आकाश, फूल-पत्ते सब हँसने और रोने लग जाते हैं। असाध्य वीणा से ही जीवन के तार भी तो मन की खूंटी से ही कसे होते हैं, यदि आहत तो जग अंधियारा और उल्लास की किरणें फूटने लग जाएँ तो घोर अंधेरे में भी उगती भोर की किरण फूटती दिखें।…दिखे न तो भी उस आस के सहारे ही काली-से काली रात भी निकाल ले जाता है इन्सान!
जानती थीं गौतमी कि उनके घर में एक धुंध-सी फैल चुकी थी इन दिनों और एक अंधेरी-उजेरी मनःस्थिति चल रही थी, जिसे वह बेध नहीं पा रही थीं । पता ही नहीं चलता कि कब आस का सूरज उगा, और कब निराशा की गहन काली रात छा गई। जानते-समझते हुए भी कि जीवन ऐसे ही चलता है, कभी मन-माफिक तो कभी नहीं भी, फिर भी खुद को समझा पाना मुश्किल से मुश्किल-तर ही होता जा रहा था गौतमी के लिए। उदासी की अँधेरी भटकना कभी रास नहीं आई है उनके एकचित्त और शांत स्वभाव को।फोड़े सा तह में जाकर जब तक अपनों के दुख का सारा मवाद बहा न दें , चैन नहीं आता था। परिवार उनका था, तो दुख भी तो उनका ही था।…
शक तो महीनों से था, पर पूछने की हिम्मत नहीं पड़ी थी। पता चला भी तो खुशी के बजाय बहू जाने कैसा बोझ डाल गई उनके मन पर कि अनर्थ की आशंका से डूबा ही जा रहा था। और छाती में हौल मचाती धुकधुकी तो मानो कानों में दिन-रात नगाड़े ही बजाए जा रही थी । पर कैसे भी बहू को आश्वस्त तो करना ही था उन्हें।
बार-बार समझाने बैठ जातीं, ‘बेटी है तो क्या, है तो अपने ही वंश की बेल । इसे सींचने- सँभालने की सारी ज़िम्मेदारी अब हमारी है। ताकि जी भरकर किलक पाए, महक पाए अपनों की गोद में और अपने आंगन में!’
‘ रहने दो आप तो अपने इन प्रवचनों को।’ कहती बहू भले ही तमककर अपने कमरे में जा छुपती, परन्तु गौतमी के दिन-रात तो. ‘कैसी होगी , किसपर गई होगी सीरत और शकल में, भविष्य में क्या बनेगी’- ऐसे सपने ही देखते बीतने लगे थे।
बेटियों को बेहद दुलराने वाली गौतमी के लिए कम खुशी की बात नहीं थी यह एक नई परी के उनके परिवार में आगमन की सूचना और ‘ मुझे दूसरी बेटी नहीं चाहिए।’ पर बहू बड़ी ही बेरुखी के साथ उनके हर सपने की श्रंखला को बीच में ही एक बड़े झटके के साथ तोड़ भी देती। पर गौतमी की आस फिर भी न टूटती,
‘आखिर क्यों बहू? अच्छी बात है यह तो ! दो बार मड़वा सजेगा आंगन में। भाग्य-शालियों के यहाँ ही बेटियाँ जनमती हैं। फिर आजकल फ़र्क़ ही क्या है बेटे-बेटी में, जो काम बेटे करते हैं , वही बेटियाँ भी तो कर ही रही हैं। और प्यार भी तो सबसे अधिक बेटियाँ ही करती हैं, बावरी!’
परन्तु बहू ने तो मानो कान बहरे कर रखे थे उनकी तरफ़ से । न तो उनकी बात सुनती और ना ही समझती। इतना गमगीन रहता चेहरा कि शालीनता से बोलना और सोचना, शब्दों की मर्यादा सब भूल चुकी थी -‘ बन्द करें अपना यह नाटक। समझती क्यों नहीं, मैं एक और बेटी को जन्म नहीं दे सकती आपके लिए।’
‘पर यह कैसी ज़िद है बहू? कितनी रंग और उमंग भरी है जिन्दगी , किसी का जीने का हक़ कैसे छीन सकती हो तुम! क्या फ़र्क़ पड़ता है बच्चे के लिंग से? तुम और मैं भी तो आख़िर बेटी ही हैं! ‘
और उनकी स्वप्न देखती आँखों के आगे भविष्य किलकने लग जाता।
बहू सुने या न सुने, माने-न-माने, चलते-फिरते, बहू को बात-बात पर समझाने बैठ जातीं , ‘पहला जब पैदल चलने लगे तो दूसरे को तो आना ही चाहिए। मेहर है यह भी भगवान की । दोनों का साथ भी रहेगा और साथ-साथ पल-बढ़ भी जायेंगी। सुन ली है हमारी उसने। अब बस तुम अपना और बच्ची का पूरा ख्याल रखो।”
‘ नहीं। पड़ता है, मुझे बहुत फर्क पड़ता है एक और बेटी से।’
और तब चीखती-सी बहू दौड़कर अपने कमरे में जा छुपती, मानो भयभीत हो खुद से ही कि कहीं ये बातें उसका इरादा न बदल दें!
गौतमी हंसकर यह भी बर्दाश्त कर लेतीं। आई-गई कर देतीं हर बात को, इस आस में कि-‘संभल जाएगी, थोड़ा और वक्त चाहिए, इसे भी शायद !’
….
बात-बेबात पर अब उनकी आंखें भी भरी ही रहने लगी थीं -अब छलकी-तब छलकी-सी। पता नहीं आस में या भय में दोनों हाथ स्वतः ही प्रार्थना में उठ जाते और उठते-बैठते एक भाव-विह्वल बिनती आँसुओं सी बहने लग जाती, ‘अपनी राधा रानी का ख्याल रखना, बांके-बिहारी।’
नन्ही अमाया खेलती तो बगल में मुस्कराती छुटकी आ बैठती -उतनी ही सुंदर और उतनी ही चंचल। एक आशंका भरा जिम्मेदारी का अहसास बढ़ता ही जा रहा था उनके विह्वल मन में। बहू का पल-पल ध्यान रखना चाहती थीं वह, पर बहू पास तक न आने देती। छिटकी-छिटकी रहती। आते देखकर कमरे का दरवाजा भड़ाक से बन्द कर देती, मानो उनकी परछाई तक से सारी योजना बिगड़ सकती थी।
‘यूँ कमरे में आकर आप मेरे आराम में दखल देती हो। ‘रोज ही किसी-न-किसी बहाने सुनाने लगी थी वह उन्हें।
परन्तु गौतमी को भी चैन कहाँ था-रूई के फाए-सी सुकुमार छोटी तो उनकी आँखों में ही रची-बसी रहती और इस मनभावन सपने के टूटने का ख्याल मात्र बेचैन कर देता।
बाजार में एक बार फिर रेशमी फ्रॉक और तरह-तरह की गुड़ियों की तरफ ध्यान जाने लगा था उनका। रोम-रोम आनंद से सिहर गया, जब बाजार के लम्बे गलियारे से आती और चिड़िया-सी चहकती, दो बराबर की नन्ही परियों को देखा उन्होंने। सुंदर, सजी-धजी और नाजुक, कितनी प्यारी लग रही थी दोनों! शीघ्र ही उनके घर में भी ऐसी ही प्यारी जोड़ी घूमेगी। अमाया और अनाया- आनेवाली बेटी का नाम तक सोच लिया था उन्होंने तो।…
याद आया, कैसे खुद अपनी लाड़ली के आने के छह महीने पहले से ही कितनी सारी गुड़ियों से नर्सरी सजा डाली थी उन्होंने। वह भी बेटा आ रहा है या बेटी, जाने बगैर ही। नर्सरी तक तो गुलाबी रंग से ही रंगी थी। पति के साथ पड़ोसियों ने, सहेलियों ने, सभी ने मजाक बनाया था -‘और अगर बेटा आया तो?’
‘तो क्या, वह भी इनसे ही खेलेगा!’ हंसकर आत्म-विश्वास भरा जबाव दिया था गौतमी ने सभी को।
मन-ही-मन जानती जो थीं कि बेटी, एक सहेली ही आएगी उनके यहाँ पर तो, जो उनके मन की बात सुनेगी भी और समझेगी भी। उनके साथ हंसे और रोएगी। क्यों बेटी ही चाहिए थी बीस वर्ष की अकेली गौतमी को उस अपरिचित देश में पहली संतान के रूप में, किसी से कह तो नहीं पाई थी यह राज, पर मन की अरदास बस एक यही थी। और भगवान ने सुन भी ली। बेटी ही आई। आगे बेटे भी आए, परन्तु बेटी उतनी ही प्यारी रही जितने कि बेटे। फर्क नहीं किया कभी उसने अपने बच्चों में।
भगवान तो आज भी मित्र ही है उनका। बहू के मन को भी यही बदलेगा। समझाएगा कि एक समझदार माँ अपने ही अजन्मे बच्चे से नफरत नहीं करती। प्यार चाहिए बच्चे को, ताकि वह हँसी-खुशी और स्वस्थ पल-बढ़ सके। इस बार भी सारी जिम्मेदारी बांके-बिहारी पर ही छोड़ दी गौतमी ने।
बच्चों में सृष्टि का सबसे खूबसूरत रूप दिखता था उन्हे। समझ में नहीं आ रहा था कि कैसे और किससे बांटें वह अपनी इस खुशी को! सुबह-शाम भगवान के आगे आभार का दिया जला आतीं। कभी वीणा लेकर बैठ जातीं। वहीं, पूजा-घर में ही। यही तो उनकी नित की साधना थी, मन शांत हो तो भी और अशांत हो तो भी ।
और तब एक-एक सुर के साथ मानो सारे तार सीधे उस से ही जुड़ जाते।
संगीत की झंकृत लहरियाँ और कुशल नृत्यांगना-सी थिरकतीं उंगलियाँ; बजाना शुरु करतीं तो ऐसे मधुर और आल्हादित सुर निकलते, जैसे मानो पहले कभी नहीं सधे थे उनसे। वह पल उन्हें एक आनंद लोक में ले उड़ता और हवाओं में गूंजते संगीत के साथ-साथ फूलों से लदी डालियाँ तक झूमने लग जातीं। एक-एक झंकार और मीड़ के साथ मानो मन की हर सिलवट हटती चली जाती। कई बार तो उन्न्हें पता ही नहीं चलता कि बन्द पलकों के नीचे बारिश की बूंदें आ बैठी थीं या आनंद की अश्रु-धारा! परन्तु होठों की तृप्त मुस्कान बता देती देखने वाले को कि सब कुछ भूल पूर्णतः डूब जाती हैं वह अपनी सुर-साधना में। कहते हैं कि आत्मा की प्यास है संगीत ,फिर वह तो सशरीर ही दूसरी दुनिया में जा पहुँचती थीं और आत्मा और शरीर दोनों ही डूबने और तैरने लग जाते थे उनके। और तब बस वह रह जाती थीं और अनहद् नाद-सा गूंजता संगीत। सह लेंगी इस झटके को भी इसी के सहारे…बहू भी उनके मन को भली-भांति जान और पहचान चुकी थी बिल्कुल उनकी वीणा की तरह ही, तभी तो हँसना और रोना …हर मनःस्थिति में पूरा साथ निभाना चाहती थी उनका, पर अपनी शर्तों पर जीना बहुत जरूरी था उसके लिए, बिना किसी बोझ या बंधन के! जैसे अटूट रिश्ता तो है वीणा का उनके मन से-अभिन्न सहेलियों जैसा, पर वीणा है तो असाध्य ही। साधना और रियाज दोनों…पल-पल समय और समर्पण मांगती। ख़ुद अपने मन के अंदर फैले कँटीले पतझर को नहीं बढ़ने दे सकती थी वह। यह कूच घास तो उसे उखाड़नी ही थी ।
बहू को सिर्फ बेटा ही चाहिए था, गौतमी भी इस तथ्य को भलीभांति पहचान चुकी थीं और कितनी जिद्दी है वह यह भी पता था उन्हें। अब यह रागिनी कैसे सम पर आए, इसी उधेड़बुन में अक्सर वह वीणा बजाती ही चली जातीं। अपने ही घर में एक अजन्मी की हत्या नहीं होने देंगी वह। उंगलियों से खून बहने लगता, पर बात नहीं बनती, तो नहीं ही बनती।
सास की आँखों के स्निग्ध सपने और चेहरे पर फैली तृप्त मुस्कान को देखते ही बहू के तन-मन में मानो आग लग जाती- ‘ इतना बेवकूफ तो कोई देखा ही नहीं मैंने। सच्चाई से कोसों मील दूर। मैं दूसरी को तो हरगिज ही नहीं आने दूंगी।’
गौतमी फिर भी न समझीं कि खुश होने की जगह, बहू के तेवर इतने विकराल क्यों रहने लगे हैं ? न आयरन लेती न विटामिन खाती, उलटे भारी से भारी सामान को भी ढूंढ-ढूँढकर उठाने लग जाती।
‘झुकना तक गंवारा न था इसे तो, कहीं कुछ गलत करने की तो नहीं सोच रही है?’
भय के भस्मासुर के पीछे दुर्गा-सी लगी रहती थीं वह अब, ‘नहीं उनकी बहू है, कुछ उल्टा-सीधा तो नहीं ही करेगी।’
अपनी अशुभ सोच को धकेलकर तुरंत ही मन से बाहर कर देतीं वह, पर बहू का रवैया दिन-प्रतिदिन कठोर से कठोर-तम ही होता चला गया। खाने पीने का, अपना और पेट में पल रही बच्ची की सेहत का कोई ध्यान नहीं था उसे, अपितु इसके विपरीत ही, हर काम उल्टा ही करती वह।
‘कहीं अजन्मी बेटी को सच में गिराने की तो नहीं सोच रही यह?’
शंका का अजगर जब बारंबार फुँकारने लगा, तो रोकते-रोकते भी प्रश्न बनकर मन की बात बहू के आगे निकल ही आई।
सुनते ही बेलिहाज और घातक ढंग से मुस्कराई थी सामने खड़ी बहू, मानो उनकी और उनकी किसी भी बात की कोई इज़्ज़त ही नहीं थी उसकी आंखों में। यह उसका और सिर्फ़ उसका ही निजी मामला है- आगे कुछ और कहना या जवाब तक देना उचित नहीं समझा था उसने।
और तब गौतमी ने खुद ही बहू के पेट पर हाथ रख दिया था। गले लगाकर, कातर स्वर में कहा था – ‘सपने में भी ऐसा मत सोचना, बेटी। हर बेटी अपना भाग्य लेकर आती है।’
पर बहू तो मानो बहरी हो चुकी थी। पलट कर बोली,’ चाहे आप कितना भी चाहें, एक बेटी और… हरगिज नहीं। जल्दी ही कुछ इन्तजाम करती हूँ, मैं।’
घुप उस अंधेरे में भी पर आस न टूटी थी उनकी, ‘ना बेटी ऐसा नहीं कहते। बेटा हो या बेटी, क्या फर्क पड़ता है?’
‘पड़ता है, मुझे पड़ता है।’
बहू अपनी जिद पर अड़ी रही और उसका चेहरा और भी ज्यादा सख्त होता चला गया।
‘ चुप हो जा। तेरा यह कुतर्क मेरे सिर में दर्द कर रहा है।’ गौतमी अब वाकई में परेशान थी।।
‘बहुत खूब ! मनमानी न हो तो कभी सिर में दर्द ,तो कभी छाती में दर्द होने लगता है आपके। और खुद चाहती हो कि सब आपके ही इशारों पर नाचें। बस, आपकी ही मनमानी हो।’
‘ मां हूँ। सही सलाह देना फर्ज है मेरा और मानना तुम्हारा।’
गौतमी की आवाज अब एक आतुर कातरता से भरी हुई थी, मानो पैरों में पड़ी बिनती कर रही हों वह बहू के आगे। पर बहू तो चंड़ी रूप ले चुकी थी।
‘छेड़ें ना मुझे बार-बार, वरना परिणाम आपके लिए ही अच्छा नहीं होगा। परवाह नहीं है मुझे आपकी या आपके बेटे की! मैं करूंगी वही, जो मुझे सही लगेगा।’
गौतमी अवाक् थीं। निशब्द थी।
‘बड़ों से भला कौन ऐसे बात करता है, बेटी!’
अपमान के सारे आंसुओं को पीकर होश में आते ही फिर से वह प्यार से ही बोली थीं तब भी। मन चीत्कार करने लगा था उनका, परन्तु भलीभाँति समझ चुकी थीं कि उनके हाथ में अब कुछ नहीं था। पर डूबते को तो तिनके का भी सहारा रहता है, इधर-उधर हाथ-पैर मारती ही रहीं लगातार। कभी बेटे को समझातीं, तो कभी बहू को।परिवार उनका था और इस फिसलन को रोकना भी तो उनका ही फर्ज था। परन्तु बहू को पसंद नहीं आ रही थी उनकी अपनी मनमानी में बाधक, अनावश्यक और जीर्ण-शीर्ण उनकी सलाह और व्यर्थ की बातें! असल में तो कुछ भी पसंद नहीं आता था बहू को उनका अब।
वह जितना उसका इरादा बदलने की कोशिश करती, बहू उतना ही उनसे और-और चिढ़ती चली जाती। जो भी उपहार वह दो बरस की पोती के लिए लातीं, वह तक बहू गराज में फेंक आती। मानो पुरानी हो चुकी थी वह, पुरानी हो चुकी थी उनकी पसंद, जिसकी आधुनिक बहू की जिन्दगी में या उसकी बच्ची की जिन्दगी में कोई जगह थी ना जरूरत।अब खुद भी तो व्यर्थ के सामान की तरह ही अपने ही घर में ही बेहद अटपटा महसूस करने लगी थीं वह। जिह्वा पर ऐसी चुप्पी छा गई मानो मुँह में दही जम गया हो। हारी-बीमारी की बात तो छोड़ो, गहरे-से गहरे दर्द की हालत में भी कुछ न कहती अब वह बेटे-बहू से। पर बहू के स्वास्थ्य का ध्यान न हटता मन से।
मुश्किल से हफ्ता भी नहीं बीता होगा कि एक दिन सुबह उठते ही बहू झटपट तैयार होकर जाने कहाँ चल दी।
दिल अशुभ की आशंका से धौंकनी-सा धड़कने लगा उनका। जिद्दी और बिगड़ैल बहू के स्वभाव से भलीभांति परिचित थीं गौतमी।
थोड़ी ही देर बाद फोन भी आ गया,’क्लीनिक बुक हो गई है । दो हजार पौंड भी दे दिए हैं मैंने। आज और अभी ही निपट जाएगा सब कुछ। चार घंटे बाद घर वापस घर आ जाऊँगी। आप किसी भी बात की चिन्ता न करें। पूरा इंतजाम कर लिया है मैंने । अमाया की देखभाल और घर के काम-काज के लिए एक औरत आ रही है। हफ्ते भर रहेगी। आपको कुछ भी करने की या इस वक़्त मुझसे मिलने आने की जरूरत नही। बेकार ही आप भी विचलित होगी और मैं भी। पूरी मानसिक शांति चाहिए मुझे इस वक़्त। और हाँ, सिर्फ बता रही हूँ आपको, ताकि अब और सपने ना देखे आप। अच्छा नहीं यह सब आपकी सेहत के लिए। कुछ ही घटों में अब उसका कोई अस्तित्व नहीं। ‘
सुनते ही गौतमी मानो अंधे कुँए में जा पड़ी थीं। हृदय में झंझावत था और आँखों से निर्झर बरसात । जैसे-तैसे दीवाल का सहारा लेकर संभाला खुद को । और फिर ईश्वरीय प्रेरणा मान, संकल्प में ऊपर वाले की सहायता का आवाहन करती, एकबार फिर अपनी दुराग्रही और नादान बहू को समझाने लगी,’ मैं पाल लूंगी । पैदा होते ही मुझे दे देना तुम। मुंह भी मत देखना उसका; कहोगी तो कानूनन् गोद तक ले लूंगी मैं उसे। फिर भी तुम्हे खले तो तम्हारी नजरों से दूर अलग किसी दूसरे घर में, दूर रह लूंगी मैं उसके साथ। पर मैं हाथ जोड़ती हूँ, ऐसा कुछ मत करना।’
कैसे रोकें इस अनर्थ को, जो भी हो रहा था पाप था और वह भी इतनी निर्दयता और क्रूरता के साथ?
घंटों रोती गिड़गिड़ाती रहीं गौतमी, दलील पर दलील देती रहीं परन्तु उधर से कोई जबाव तक नहीं आया। जानती थी कि बहू निर्णय ले चुकी थी। और अब सामंजस्य व समाधान दोनों ही असंभव थे। फिर भी कैसे भी उस नन्ही जान को तो बचाना ही था उन्हें। आस्था और विश्वास का दिया बुझा नहीं था अभी तक। रोती-सुबकती सी बोलीं, -‘इन्सानियत भी तो आखिर कुछ चीज होती है, बहू ।’
गौतमी यदि हार मानने वाली नहीं थी तो बहू भी कम जिद्दी नहीं थी। फिर भी जाने किस आस में वह फोन को कान पर लगाए ही बैठी रहीं, जैसे फोन कटा ही नहीं हो। और बहू किसी भी क्षण कहेगी, ‘अच्छा मम्मी आप ज्यादा परेशान न हो, मैं आपकी पोती को सुरक्षित लिए घर वापस लौट रही हूँ। ‘
पर कितनी गलत थीं वह !
जिसका डर था वह फोन भी आ ही गया अगले चन्द घंटों में ही, ‘कमर में एक सुन्न करने की सूंई से ही काम पूरा हो गया। उन्ही को डिसपोज करने को भी कह दिया है मैंने। वैसे भी देखने को कुछ था ही नहीं चन्द मांस के उन लोथड़ों में ।’
‘इतने अनर्थ के बाद इतना ठंडा जवाब।’ गले में मानो पत्थर अटक गया और आँसू भीगी गौतमी के आंसू तक गले में ही रुँध गए।
बहू जिसे काम कह रही थी, जिसके पूरा होने की खुशी में चहक रही थी, वही बज्र-पात -सा गिरा था उन पर। पैरों ने जबाव दे दिया तो घुटनों पर गिरी अपने ही आंसुओं में रिस-रिसकर बहने लगी थीं गौतमी।
‘ एक मासूम की यूँ हत्या, वह भी उनके अपने ही परिवार में ! ‘
परिवार की संरक्षिका नहीं, खुद को बहुत छोटा और बेकार महसूस कर रही थी वह अब। धिक्कारने लगी थीं खुद को- निर्जीव कठपुतली मात्र रह गई हैं वह, जिसके बस में कुछ भी तो नहीं । दूध में पड़ी मक्खी-सी अपने ही परिवार से निकालकर फेंक दी गई थीं वह ।
पर कैसे हैं यह मोह-प्रीत के धागे, पर ! और यह प्यार भी तो अजीब शह है। कितना मजबूर कर देता है इन्सान को ! अब ना तो उनके बहते आंसू ही रुकने का नाम ले रहे थे और ना ही असमर्थ व अपंगु करती, बिलखती उनकी सोच ही ।
‘परवाह न करते वहाँ तक तो ठीक था परन्तु उनकी बिनती तक का कोई असर नहीं हुआ!’
अपनों ही द्वारा दी गई उस चोट का सदमा गहरा था उन पर। घंटों मिट्टी की माधो बनी बैठी रहीं, गौतमी। बेटे ने देखा तो बांहों में भरकर ले गया और बिस्तर पर लिटा दिया माँ को। पत्नी के लौटने पर कोई कोहराम न मचे, इसलिए पानी के साथ-साथ दो नींद की गोली भी दे दीं उन्हें, वह भी यह कहकर कि आपको तो बुखार लग रहा है।
जिस आंगन बीच हर आंधी पानी और बड़े-बड़े तूफ़ान को सहा था उन्होंने, एक मिट्टी की गुड़िया-सी बह और बिखर रही थीं वह। अपनों के ही बीच पूर्णतः टूट चुकी थीं गौतमी। घाव असह्य था और देखते-देखते हिलने-डुलने तक में असमर्थ होती चली गईं गौतमी। बिस्तर पकड़ लिया उन्होंने।
‘ परिवार में शांति चाहती हो तो बोलो कुछ नहीं, बस जीवन का आनंद लो। हमारे बस में कुछ और नहीं अब। ‘ पति अक्सर ही समझाते,’साधारण सी बात है यह तो। जाने कितनों ने किया है यह पाप । फर्क बस इतना है कि पता नहीं चल पाता इन बातों का। बिना बताए बहू भी कर सकती थी । कम-से कम इतना मान तो रखा उसने तुम्हारा कि तुम्हें बताया। माँ का अधिकार है कि बच्चे को जन्म दे या न दे। बेवजह ही इतना मन पर ना लें।’
परन्तु गौतमी के लिए उस परिवार में अब सहज हो पाना उतना ही कठिन हो चला था जितना कि एक अकस्मात दुर्घटना में अंग-भंग व्यक्ति के लिए सामान्य होना हो जाता है। अजन्मी पोती की हंसती तो कभी उदास आँखें दिन रात मन में गड़ी रहतीं। कटे-फटे अंग दंश देते और कहने लगते – ‘इतना भी अधिकार नहीं आपका। गुमान था न आपको अपने इस आदर्श परिवार पर! हो जाने दी न मेरी हत्या, वह भी इतनी निर्लिप्त और निर्मम उदासीनता के साथ!’
…
एक नहीं दो-दो हत्या हुई थीं उस दिन।
टूटी-बिखरी गौतमी वीणा तक न बजा पाती थीं अब तो । बजाने की कोशिश की भी एकाध बार तो सिर्फ कर्कश सुर ही निकले। तार साधतीं तो तार टूटते चले जाते। न तो वीणा अपनी थी अब और ना ही खुद उनका अपना जीवन ही।
सबने देखा और जाना उनमें यह उदासीन और विरक्त परिवर्तन। न तो वह हंसती थीं, न बोलतीं। जिन्दा रहने के लिए जितना जरूरी था बस उतना ही खातीं, मानो जिन्दा औरत से बेजान गुड़िया में तब्दील हो चुकी थीं, जिसे अब इन सब की कोई जरूरत ही नहीं रह गई थी।
बेटा पूछता , तबियत तो ठीक है, माँ? तो कहतीं, ‘हाँ।’ ‘ बुढ़ापा खुद एक बीमारी है, बेटा।’
‘ चोंचले हैं सारे। कब तक ढोएँगे हम इन्हें! छोड़ो, खुद ही ठीक हो जाएँगी।’ तुरंत तमक भरी बेटे की जगह बहू की आवाज सुनाई दे जाती उन्हें।
मान-सम्मान की तो छोड़ो, अपने हाथ से खाना तक न देती थी बहू उन्हें। बेटे या नौकर के हाथों भिजवा देती। आमना-सामना हो जाए तो भी पूर्ण अवलेहना करती। खड़ी-खड़ी वह उसका मुंह तकतीं और बहू को उनकी तरफ देखना भी गंवारा नहीं था। जान-बूझकर बैठी या लेटी रहती, वह भी करवट बदलकर और वह परछांई-सी घूमती रहतीं, अपना काम करती, दैनिक जरूरतें पूरा करती। मानो एक अदृश्य दीवार खड़ी हो चुकी थी दोनों के बीच, उनके रिश्तों के बीच। बेटा भी इतना दब्बू कि बहू के आगे सिट्टी-पिट्टी गुम रहती उसकी। और पति तो वैसे भी सही-गलत से परे, जाने कब के मौनी बाबा बन चुके थे।
‘क्या जीवन भर की साधना व्यर्थ थी । सही गलत का निर्णय और प्रस्थापना कौन करेगा अब आगे इस परिवार में ! ‘
गौतमी की चिंताएँ दिन-रात बढ़ती ही जा रही थीं ।
पागल कहना तो गलत होगा, परन्तु अक्सर ही रात की नीरवता में गौतमी के कमरे से सुबकियों में डूबी आवाजें आने लगतीं-‘जानती हूँ, ऐसे ही एक दिन जब मैं भी न भाऊंगी, तो जिन्दा या मुर्दा, मुझे भी तो फेंक ही आओगे तुम लोग। नन्ही जान के साथ जो किया, उसकी सजा तो मिलेगी ही अब हमें। भगवान के यहाँ देर है पर अंधेर नहीं। कौरव की सभा में जब द्रौपदी के चीर हरण पर बड़े नहीं बोले थे तो महाभारत छिड़ गया था। यहाँ तो खुद माँ ही अपनी अजन्मी बेटी की हत्या करवा आई है!’
न तो उनका संताप ही मिट रहा था और ना ही पूर्ण वैराग ही मन में आ पा रहा था। अपराध बोध से बेचैन और भ्रमित हो चुकी थीं गौतमी। कहीं और किसी बात में चैन नहीं मिल रहा था अब उन्हें। मानो जीवन में कहीं कोई सुर ताल ही शेष नहीं । असह्य कर्कश ध्वनियों के अलावा कुछ न सुनाई देता उन्हें अपने परिवार की बातचीत और अपनी सोच तक में।
एक नई धुन थी अब मन में,’ कैसे हो इस पाप का पश्चाताप, कैसे रहें सब खुश…कहाँ खो गया उनका प्यार करने वाला, ध्यान रखने वाला, संवेदन शील और स्नेही परिवार ? किसकी नजर लग गई इसे !’
मानो उस असाध्य वीणा को साधते, परिवार के समवेत सुरों को सम पर लाने की एक असफल साधना में ही बीतने लगे थे उन के सारे दिन और रात, परन्तु नतीजा कुछ नहीं था। पूरे परिवार ने भी अब उनकी तरफ से कान में मानो मोम भर ली थी। सब अपनी जिन्दगी में वापस तल्लीन हो चुके थे। असाध्य वीणा के सुरों की तरह ही अब हरेक को बस वही सुनाई देता जो वह सुनना चाहता था।
फिर एक दिन अचानक बहू पुनः धूमकेतु-सी स्वतः ही सामने आ खड़ी हुई, ‘मैं बस बेटे को ही जन्म दूंगी। कान खोलकर सुन लो आप, चाहे इसके लिए मुझे कुछ भी करना पड़े।’
परिणाम सोचकर ही गौतमी कांप गई।
‘ पर यह कैसे संभव है? कहीं तुम दोबारा पेट से तो नहीं!’
आश्चर्य में गौतमी का मुंह खुला था – ‘ हर बात तो अपने हाथ में नहीं होती। और अगर बेटा न आया तो क्या बार बार वही पाप करोगी, तुम? ‘
‘ हाँ, क्यों नहीं! ! पर आप डरें नहीं। ऐसा होगा नहीं। विज्ञान बहुत आगे निकल चुका है। आजकल सब संभव है, बेटे-बेटी का चुनाव करवाकर गर्भ-धारण भी। हर बड़े घर में ऐसे विशेष नौनिहाल पल-बढ़ रहे हैं।’
‘ विशेष क्यों और कैसे ? हर बात पैसे से तो नहीं खरीदी जा सकती, बहू। और क्या बिना बेटी के समाज चल भी सकता है!’
गुस्से और आंसू में डूबा सवाल अंदर-ही अंदर धधका और उन्हें फफोलता चला गया-‘शिव और शक्ति हैं दोनों प्रकृति और पुरुष । एक के बिना दूसरा ही नहीं, सृष्टि तक अधूरी है।’
‘ काबू रखें खुद पर और बख्शें मुझे इन सिरदर्द देते प्रवचनों से।’
उन्हें वहीं स्तब्ध बैठी छोड़ कर एक बार फिर कमरे का दरवाजा बन्द कर लिया था बहू ने ।
जो भी हो, गौतमी जानती थीं कि बहू अपना निर्णय ले चुकी थी और हमेशा की तरह ही इस बार भी इच्छा पूर्ति का मार्ग भी उसका ख़ुद अपना ही होगा। उनकी जरूरत न तब थी और ना अब ही है उसे।
‘जैसी प्रभु इच्छा!’ लड़खड़ाती गौतमी वापस ख़ुद में ही सिमटती चली गई। बृद्ध शरीर में अब न ताक़त ही शेष थी और ना ही इच्छा। देखते-देखते नदी सी बहती उनकी सुचारु जिन्दगी काई लगे तालाब में तबदील ही चुकी थी। शरीर की इस काल-कोठरी से निकल पड़ने को अब तो उनकी आत्मा तक बेचैन रहने लगी थी, ‘ हटना ही होगा उन्हें यहाँ से। नहीं हटीं, तो परिवार खुद हटा देगा। -इक्कीसवीं सदी के तेज और अपरिचित लोग हैं ये और इनकी मनमानी जिन्दगी में किसी का दखल नहीं। एक बूढ़ी , लाचार माँ का तो हरगिज ही नहीं। कोई जरूरत नही है इन्हे अब उनकी।’
अपनों में ही हत्यारे दिखने लगे थे उन्हें। डर लगने लगा था उन्हें अपनी ही परछाईं तक से।
‘औलादों को जन्म तो अवश्य देते हैं परन्तु वह हम नहीं। अलग चरित्र और जीवन मार्ग है हरेक का। सधे जब तक सधे, फिर तो दो ही विकल्प रह जाते हैं। या तो आंखें बन्द कर लो। या फिर हट जाओ, मार्ग से।’
वृद्धाश्रमों के बारे में अच्छी धारणा नहीं थी, संस्कारों के विरुद्ध मानती थीं वह उन्हें। पर अब वहाँ पहुंचा देने की भी प्रार्थना करने लगी थीं,’ जाने कितनी लम्बी जिन्दगी है, कब तक ढोओगे तुम लोग मुझे।’
ज्यादा दम घुटता तो कभी-कभी वीणा भी उठातीं और बजाती भी गहरे धंसी उस उदासी से छुटकारा पाने को, परन्तु बजाते-बजाते उँगलियों से खून बहने लग जाता और बात न बनती। मधुर नहीं, बस चन्द बुझे-बुझे और कर्कश सुर ही निकलते, जिन्हें सुनकर गौतमी ही नहीं हरे-भरे पेड़ों के पत्ते तक कांप उठते। न फूलों की डालियाँ झूमतीं, न बूंदें नृत्य करतीं। हाँ, आंसुओं में डूबा एक दलदल जरूर जमा हो जाता उनके इर्दगिर्द।
धीरे-धीरे सदा गुलाब बेला और चमेली में डूबी रहने वाली गौतमी कँटीले पतझर में जा उलझी थीं और सूखे पत्तों से ही झरने लगे थे उनके सारे दिन-रात।
‘ पुराना हटता है तभी तो नया उग पाता है। ‘ अंदर का वीराना समझाता , ‘आदत तो डालनी ही होगी इसकी भी। समझना और सहना होगा इसे भी।’
जीवन नहीं मृत्यु का राग था यह और तब सूनी आंखें भ्रमित होकर पूछती,
‘इन्तजार, बस इन्तजार, पर कब तक!’
‘ म़त्यु तो अवश्य आएगी ही एक दिन इस दुश्चक्र से मुक्ति देने को।’
सांत्वना भी दे लेतीं खुद को ही तुरंत वह।
जाने कितना वक्त, कितने महीने बीत गए यूँ ही दिन रात की धुरी पर निरर्थक ही घूमते-घूमते ।
‘उत्तराधिकारी है पतझर वसंत का और फिर बसंत पतझर का। कितना भी चाहें या न चाहें, परिवर्तन और पतझर, दोनों ही हिस्सा हैं इस जीवन के। दोनों ही आएँगे भी और जाएँगे भी। नियम है यही सृष्टि का, जरूरत है यह भी इस निरंतरता की।
जाने क्यों हम दूसरों को दोष देने लग जाते है, कहीं हम खुद ही तो सब कुछ नहीं भूलते जा रहे?’
अक्सर खिड़की से आती मन्द बयार तो कभी रिमझिम फुहारों से जबाव माँगने लग जातीं भ्रमित गौतमी। और तब एक दिन अचानक ही, गहन अंधेरे को चीरती और खिलखिलाती रौशनी की वह किरण उन तक आ ही पहुँची। सारी राग-रागनियाँ एक बार फिर वापस लौट आई थीं मानो उनके जीवन में।
बहू खड़ी थी सामने ख़ुशी का बंडल गोदी में लिए हुए।
मुस्कराती बहू ने उसे उनकी गोदी में लिटा दिया।
पोता सुंदर था और अन्य शिशुओं जैसा ही था। सबसे अच्छी बात तो यह थी कि चेहरा हूबहू बाप पर गया था।
‘क्या पता, वही लौट आई हो इस नए रूप में? कहीं गई ही न हो, माफ़ ही कर दिया हो उसने उन्हें और उनके परिवार को। हाँ, यही सच है। संशय किस बात का ! बात तो गलत थी पर माफ कर ही दिया है जरूर भगवती ने हमें!’
गौतमी और नाराज न रह सकीं। मन फिर एकबारगी शांत हो चला था उनका। मुंह पर फैली दीप्त खुशी चारो तरफ उजियारा फैला रही थी, मानो जीवन की असाध्य वीणा ख़ुद ही सहज हो चुकी थी, सधने को पुनः तैयार थी,
‘क्या नाम रखोगी माँ इसका?’ बहू के मुंह से ‘माँ’ सुनकर और गोदी में सोते पोते को देखकर सारी निराशा और नाराज़गी जाने कहाँ फुर्र हो गई। बसंत वापस आ चुका था, बिल्कुल वैसे ही, जैसे अचानक पतझर ने घेरा था उन्हें एक दिन । बसंत, जिसमें हर खोई कली फिर से खिलने और महकने लगती है । पर बसंत की आस रखने वालों को पतझर से भी निभाना भी आना ही चाहिए ना…पतझर और बसंत अलग कब, पतझर से ही तो बसंत जनमता है।
सिर झुकाए सामने खड़ी बहू को हाथ पकड़कर अपने बग़ल में बिठा लिया उन्होंने।
और ‘ बसंत ।’- कहकर, सीने से लगा लिया नवजात को।
‘ बसंत । हाँ, बसंत ही ठीक रहेगा, सुंदर नाम है।’
सामने दहकते पलाश सा ही दप-दप कर रहा था नवजात कभी मां तो कभी दादी की गोद में । अचानक बेटा बोला-‘ देखो माँ, कितना खूबसूरत दिख रहा है यह पलाश का वृक्ष, फूलों से लदा-फंदा। पलाश भी रख सकते हैं हम अपने बच्चे का नाम ?’
गौतमी अब अपनी वीणा के साथ संगीत के आसन पर जा बैठी थीं, ‘हाँ,हाँ क्यों नहीं। और भी सोच लो, शायद कोई और भी अपूर्व और अनुपम नाम मिल जाए ! हर सदस्य एक तार ही तो है मेरी इस वीणा का। कितनी भी असाध्य हो, पर है बहुत मोहिनी और सुरीली यह , यदि हम सभी एक ही लय में रहें ! ‘
‘हाँ माँ।’
आत्मा तक को तृप्त करता वह आल्हादित ‘माँ’ शब्द दुबारा खुद उनकी अपनी असाध्य वीणा-से ही निकला था । गौतमी अब पूर्णतः मगन थीं । एक बार फिर फूलों की डालियाँ झूम रही थीं उनकी बगिया में और चिड़िया वापस आकर चहकने लगी थीं।एक बार फिर सब साफ़-साफ देख और सुन पा रही थीं वह। और एक बार फिर उन्हें नहीं पता था कि पलकों की कोरों के नीचे नन्ही-नन्ही बूँदें हैं या रस की बौछार। …
शैल अग्रवाल
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