अपनी बातः धर्म सभ्यता और शांति


धर्म का समय है यह या फिर समय का धर्म अधिक जरूरी है सभ्यता और मानवता के संरक्षण के लिए? गहरा संबंध है तीनों में, फिर भी एक सवाल बारबार मन में उमड़ रहा है- क्या यह सिर्फ धर्म का समय रह गया है या समय का धर्म, जिम्मेदारियों का अहसास भी कुछ माने रखता है? संपूर्ण मानवता की सुरक्षा और शांति ही अधिक महत्वपूर्ण है?

पहली मई को जब भी अंक आता है , अपने साथ-साथ कई सवाल भी लाता और उठाता है। सोचने पर मजबूर करता है। मज़दूर वर्ग की मांगें तो सही हैं, अधिकारियों को न सिर्फ इनपर ध्यान देना चाहिए , भरसक पूरा करने की कोशिश भी करनी ही चाहिए, वह भी एक मानवीय हमदर्दी के साथ। बशर्ते मांगे जायज़ हों! जिम्मेदारियों का अहसास रहना ही चाहिए दोनों तरफ़ ही। और बदलते वक्त की जरूरतों का भी। वरना सब कुछ निष्फल और व्यर्थ ही तो है। न झूठी सहानुभूति का ही कोई अर्थ रह जाता है और ना ही माँग के नाम पर अनियंत्रित क्रोध और तोड़-फोड़ का ही। सभी का नुक़सान है नियंत्रण हीन व्यवहार से तो।

एक जटिल और कुंठित समय में जीने का एक अभिशाप यह भी है कि व्यक्ति और समाज से सहनशीलता व संवेदना पूर्णत नष्ट हो जाती है। पर यह हिंसक, पशुवत् आवेग और मनमानी कितनी सही है ?
पशुवत् आवेग और मनमानी, वह भी धर्म की आड़ में? फिर आपस में ही एक दूसरे को दोष देना, आग भड़काना, वह भी अपने ही समाज में, नुक़सान किसका है? थमकर सोचना ही होगा। सभ्यता, संस्कार सब को ताक पर रखकर आखिर कहाँ तक गिरेगा हमारा यह ‘सभ्य’ समाज?

वक्त आ गया है कि सिद्धान्त और संकल्प सभी के हित में हों, अहित में नहीं, तभी जिन्दा रह सकते हैं इस मरती पर हम। और यह आसान नहीं, क्योंकि इसके लिए हमें अपनी स्वार्थी महत्वाकांक्षा और लालच को तजना ही होगा। और ऐसा सिर्फ संयमी, साहसी और विवेकी ही कर सकते हैं। और ऐसे अवतारी पुरुष उंगलियों पर ही हैं। इन्होंने ही कभी समाज के हित और अनुशासन के लिए धर्म की अवधारणा की होगी और कहा कि धर्म वही है जो समय और परिस्थिति की मांग पर खरा उतरे, धारण कर पाए व्यक्ति और समाज को यानी कि उनका मार्गदर्शक और सम्बल बने।
एक जटिल और कुंठित समय में जीने का सबसे बड़ा अभिशाप यह है कि सही गलत का विवेक पूर्णतःनष्ट हुआ-सा प्रतीत होता है। पशुवत् आवेग और मनमानी है वह भी धर्म की आड़ में। जो भी पहलगांव में हुआ वह अनैतिक तो था ही, अमानवीय भी है।
वक्त आ गया है कि मंपूर्ण मानव समाज धर्म की सही व्याख्या समझें, दोहराए और समयानुकूल सोच में परिवर्तन करे। मूलभूत सिद्धान्त और संकल्प सभी के हित में हों, अहित में नहीं। और यह आसान नहीं, क्योंकि इसके लिए हमें अपनी स्वार्थी महत्वाकांक्षा और लालच को तजना होगा। और ऐसा सिर्फ संयमी, साहसी और विवेकी ही कर सकते हैं। संयमी जो बात-बातपर उत्तेजित नहीं हो जाते, क्रोधित नहीं हो जाते, आवेश में नहीं आ जाते, विवेकी जो दूरदर्शी हैं, अच्छे बुरे की पहचान रखते हैं और साहसी जिनमें सबकुछ न्योछावर करने का, जरबरत पड़े तो जान भी देने का, हौसला है। इन्होंने ही कभी समाज के हित और अनुशासन के लिए धर्म की अवधारणा की होगी और कहा कि धर्म वही है जो समय और परिस्थिति की मांग पर खरा उतरे, धारण कर पाए व्यक्ति और समाज को यानी कि उनका मार्गदर्शक और सम्बल बने।
ऐसी विवेकी ज्ञान-परंपरा के वंशज होकर हमारा जरूरत से ज्यादा उत्तेजित होना उचित नहीं। ना ही अफवाहों के घेरे में आना। हाँ, अपराधियों को दंड मिलना चहिए। संभव हो तो आतंकियों पर पूर्ण नियंत्रण भी। परन्तु ध्यान रखना होगा कि चने के साथ घुन की तरह निर्दोष ना पिसें, भले ही वो शंकित खेमे के ही क्यों न हों! प्रगति और विकास ही जीवन का मूलमंत्र है और यह बात धर्म पर भी उतनी ही लागू होती है , जितनी की जीवन पर।
आदिकाल से ही भारतीय ज्ञान परंपरा अद्वितीय ज्ञान और प्रज्ञा का प्रतीक रही है जिसमें ज्ञान और विज्ञान, लौकिक और पारलौकिक, कर्म और धर्म तथा भोग और त्याग का अद्भुत समन्वय रहा है।
ऋग्वेद काल से ही भारतीय शिक्षा या ज्ञान-प्रणाली जीवन के नैतिक, भौतिक, आध्यात्मिक और बौद्धिक मूल्यों पर केंद्रित होकर विनम्रता, सत्यता, अनुशासन, आत्मनिर्भरता और सभी के लिए सम्मान जैसे मूल्यों पर जोर देती आई है। तो क्या विद्या ही उबार सकती है हमें इस भ्रमित काल से?
हमारे वेदों में विद्या को मनुष्यता की श्रेष्ठता का आधार स्वीकार किया गया है (ऋग्वेद, 10/71/7)।
गुरुकुलों में छात्रों को मानव, प्राणियों एवं प्रकृति के मध्य संतुलन को बनाए रखना सिखाया जाता था। शिक्षण और सीखने के लिए सिद्धांतों का अनुपालन करना सिखाया जाता था। आधुनिक काल की शिक्षा की तरह मात्र जीवकोपार्जन का साधन नहीं मानते थे विद्यार्थी इसे। इससे व्यक्ति स्वयं, परिवार और समाज के प्रति कर्तव्यों को पूरा करता था और जीवन के सभी पक्ष इस प्रणाली में सम्मिलित किए जाते थे। इस तरह से सर्वांगणीय इस शिक्षा प्रणाली ने बौद्धिक के साथ-साथ आत्मिक और शारीरिक विकास पर भी ध्यान केंद्रित किया जाता था।
तब कर्म वही था जो बंधनों से मुक्त करे और विद्या वही जो मुक्ति का मार्ग दिखाए। इसके अतिरिक्त जो भी कर्म हैं वह सब निपुणता देने वाले मात्र हैं (विष्णु पुराण, 1/9/41)।
वायु पुराण (77/128) में उल्लेख है कि गुरु रूपी तीर्थ से सिद्धि प्राप्त होती है तथा वह सभी तीर्थों से श्रेष्ठ है। जब सारा विश्व अज्ञान रूपी अंधकार में भटक रहा था तब भारत के मनीषी उच्चतम ज्ञान का प्रसार करके मानव को पशुता से मुक्त कर रहे थे। श्रेष्ठ संस्कारों से युक्त करके संपूर्ण मानव बनाने के प्रयास में रत थे। बात तब भी श्रेष्ठता की नहीं थी अपितु मानवता के हित की थी। समझना तो होगा ही हमें क्योंकि मुद्दा आज भी वही है। फर्क बस इतना है कि आज आँख पर पट्टी बांध कर विनाश के कगार पर खड़े हैं और चारो तरफ खाइयाँ ही खाइयाँ हैं। …
जब धर्म की सामयिक प्रासंगिकता पर लेखनी का यह अंक तैयार करने की योजना थी तो सपने में भी नहीं सोचा था कि यह होनी का षडयंत्र है। और आज वाकई में धर्म में शांति और सद्भावना की किसी भी वक्त से अधिक जरूरत है क्योंकि समय धर्म के लिए नहीं बना था , धर्म ही वही है जो समय का सखा और रक्षक हो। …
तो मित्रों उम्मीद है पसंद आएगा आपको यह हमारा जागृति विशेषांक । लेखनी के हेडर आइकौन्स में इस बार लेखनी का पुराना काश्मीर विशेषांक रखा है हमने। उसे भी पढ़ना ना भूलिएगा।
उम्मीद है अंक मनोरंजन के साथ-साथ कुछ सोचने,कुछ बदलने को प्रेरित करेगा, दूसरों से पहले तो खुद को ही।…

शुभकामनाओं सहित,
आपकी अपनी लेखनी

संपर्क सूत्रः shailagrawal@hotmail.com
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