लेखनी संकलनः कवि और कविता

कविता क्या है ?
कोई पहनावा है ?
कुर्ता-पाजामा है ?
ना, भाई ना,
कविता..
… शब्दों की अदालत में
मुजरिम के कटघरे में खड़े बेकसूर आदमी का
हलफ़नामा है.
क्या यह व्यक्तित्व बनाने की
चरित्र चमकाने की —
खाने-कमाने की–
चीज़ है ?’
ना, भाई ना,
कविता.. भाषा में
आदमी होने की तमीज़ है।
-धूमिल

प्रणाम तुम्हे काशी की रज
तुमने ये तन रचा, मन रचा
पाला पोसा और शिक्षित किया
बूंद हूँ मैं तुम्हारी ही पावन जल धार की
सहेजो,संभालो आशीष दो मुझे महादेव
शब्द-शब्द सदा अंतस से निकले
हर अंतस से जुड़े
जैसे धागा बींधे और गुजरे
माला में एक एक मोती से
-शैल अग्रवाल

मैं कविता हूँ

कोमल भावों की भंवरों में हूं भगिनी,
स्नेहिल स्पर्धा के स्पंदन में भ्राता हूं.
जीवन की प्रत्येक भ्रांति, भटकन में,
वत्सल ममत्व से भरी हुई माता हूं।

गृह में दामिनि सी दमकती दुहिता हूं,
मैं कविता हूं।

उषा वेला में मंद-सुगंधित हूं बयार,
पियु कहां पुकारता प्यासा पपिहा हूं.
प्रात-पूर्व प्रस्फुटित लालिमा हूं मैं,
वाटिका मे सुबास बिखेरता बेला हूं.

पृथ्वी पर प्रकाश प्रदायक सविता हूं,
मैं कविता हूं।

तप्त-तृषित हृदयों की हूं तृषा-शमक,
शीतल सलिला-जल में गंगाजल हूं.
रसमय-निःरस, रसरागी-विरागी मैं,
पुष्पों में सुन्दरतम मैं पुष्पकमल हूं।

मानव मन की ममता और मधुरता हूं,
मैं कविता हूं।

प्रेरणा के प्रत्येक प्रसंग में हूं गीता,
अप्सराओं में उर्वशी और रम्भा हूं.
कथा, व्यंग्य, निबंध में सर्वश्रेष्ठ मैं,
ललित लालित्यलसी मैं ललिता हूं।

छांदस, गेय या अगेय- उरउद्वेलिका हूं,
मैं कविता हूं।

-महेश चन्द्र द्विवेदी

कविता क्यों

जब
खुद लिखना है
खुद ही पढ़ना है
… वाजिब सवाल है
कविता क्यों लिखी जाए ?

कविता
पागलों की तरह
गलियों और चौबारों में
कवि को खोज रही है |
कवि
सत्ता के गलियारों में
न जाने किस आस में है खड़ा ?
कवि व्यस्त है
उसे आज और अभी
किसी न किसी
पुरस्कार या सम्मान की
व्यवस्था है करनी
कविता लिखने के लिए तो
पूरा जीवन है पड़ा |

कविता की आँख में आँसू है
और कवि
अपनी बात पर है अड़ा |

-अवधेश निगम

अक्सर सोचती हूँ
क्या है कविता
एक स्वप्न आँख का
उच्छवास आह और वाह का
जैसे शिशु किलके माँ की गोदी
लार भरा….
एक चित्र पुरानी याद का
एक चितवन, एक मुस्कान
लहरों पर बहती जाती जल तरंग
या वह वादा आखिरी सांस का
लौटूँगा फिर…
कुछ शब्द कुछ चित्र होते
संपूर्ण कविता खुद में ही
जैसे प्रेम और दर्द, जैसे माँ और फर्ज
जैसे यह जीवन और हम और तुम
पुकारें पलट-पलट…
शैल अग्रवाल

कविताएँ भी तो बातें हैं
जो हम कर नहीं सकते सबसे
कहते खुदसे , उससे, तुमसे
सूनी अंधेरी रातों में
अदृश्य विस्तृत जगत से
आँसू डूबी कलम से
पर यह टिप्पणी हरगिज नहीं
ना सुख की ना दुख की
अनुभूति है जल सी रिसती
भिगोती डुबोती जीवन वायु सी
संग रहती और साथ चलती….
शैल अग्रवाल

गीत बहुत बन जाएँगे
यूँ गीत बहुत
बन जाएँगे
लेकिन कुछ ही
गाए जाएँगे
कहीं सुगंध
और सुमन होंगे
कहीं भक्त
और भजन होंगे
रीती आँखों में
टूटे हुए सपने होंगे
बिगड़ेगी बात कभी तो
उसे बनाने के
लाख जतन होंगे
न जाने इस जीवन में
क्या कुछ देखेंगे
कितना कुछ पाएँगे
सपना बन
अपने ही छल जाएँगे
यूँ गीत बहुत
बन जाएँगे
लेकिन कुछ ही
गाए जाएँगे

शैलेन्द्र चौहान

क्‍या शेर लिखा है यार– !

— और ,जिस दिन ,
कुल नौ रूपये चालीस पैसे देकर
रद्दीवाला,ले जायेगा ,
आपकी सारे जीवन में,
रची कविता ,
आप उसी कमरे में होंगे,
हवा में घुले -घुले से ,
थोडा सा हिस्सा ,
आक्सीजन ,थोडा सा नाइतरोजन ,
और ,बहुत सारा कार्बनडाईआक्साइड बने |
आप सुनेगें दस पैसे के लिए,
एक तकरार ,
अपने बेटे और रद्दीवाले के बीच ,
जिसमें आपका बेटा कहेगा
,”खुल्ले दस पैसे हैं नहीं”
और रद्दीवाला कहेगा ,
“यही तो कमाना है साहेब |”
हरे ,नीले ,काले या लाल ,
अक्षरों ,में लिखी ,
आपकी कविता ,
अंतत काम आएगी ,
मूंगफली लपेटने के |
आप गंगा में तैरती
अस्थियों सा अनुभव करेंगे ,
जिस दिन मूंगफली खाता -खाता कोई ,
अनायास ही ,
लिफाफा पढ़ कर कहेगा ,
वाह ! क्या शेर लिखा है यार !
– दीपक अरोड़ा

रात यों…

रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चाँद,
आदमी भी क्या अनोखा जीव होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फँसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

… जानता है तू कि मैं कितना पुराना हूँ?
मैं चुका हूँ देख मनु को जनमते-मरते;
और लाखों बार तुझ-से पागलों को भी
चाँदनी में बैठ स्वप्नों पर सही करते।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का;
आज उठता और कल फिर फूट जाता है;
किन्तु, फिर भी धन्य; ठहरा आदमी ही तो?
बुलबुलों से खेलता, कविता बनाता है।

मैं न बोला, किन्तु, मेरी रागिनी बोली,
देख फिर से, चाँद! मुझको जानता है तू?
स्वप्न मेरे बुलबुले हैं? है यही पानी?
आग को भी क्या नहीं पहचानता है तू?

मैं न वह जो स्वप्न पर केवल सही करते,
आग में उसको गला लोहा बनाती हूँ,
और उस पर नींव रखती हूँ नये घर की,
इस तरह दीवार फौलादी उठाती हूँ।

मनु नहीं, मनु-पुत्र है यह सामने, जिसकी
कल्पना की जीभ में भी धार होती है,
वाण ही होते विचारों के नहीं केवल,
स्वप्न के भी हाथ में तलवार होती है।

स्वर्ग के सम्राट को जाकर खबर कर दे,
“रोज ही आकाश चढ़ते जा रहे हैं वे,
रोकिये, जैसे बने इन स्वप्नवालों को,
स्वर्ग की ही ओर बढ़ते आ रहे हैं वे।”

-रामधारी सिंह “दिनकर”

मैं मरना नहीं चाहता

मैं मरना नहीं चाहता
इस सुन्दर संसार में मनुष्यों के बीच
मैं बचा रहना चाहता हूं
जीवंत ह्रदय के बीच यदि जगह पा सकूं
तो इन सूर्य-किरणों में, इस पुष्पित कानन में
मैं अभी जीना चाहता हूं

पृथ्वी पर यहां प्राणों की तरंगित क्रीडा
… कितने मिलन, कितने विरह
कितनी हंसी, कितने आंसू
मनुष्य के सुख-दुःख को संगीत में पिरोकर
यदि अमर आलय की रचना कर सकूं
तो यहां मैं जीना चाहता हूं

यदि यह संभव नहीं तो जब तक रहूं
तुम सबों के लिए सुलभ रहूं
संगीत के नए नए पुष्प खिलाता रहूं
इस आशा के साथ कि तुम उन्हें चुन लोगे
देर-सबेर
हंसते हुए फूल तुम ले लेना
उसके बाद अगर वे फूल मुरझा जाएं
तो उन्हें फेंक देना !
-रवीन्द्र नाथ टैगोर

किसी ख्वाब के…

किसी ख्वाब के शिरे से निकले होंगे
ख्वाहिसों की ज़मीन छोडते ये गुब्बारे
यहाँ कुछ भागे हुए शब्द
अंगारे भर रहे हैं
बड़ी मुश्किल से हिग्ग्स-बोसॉन की दुनिया
से निकलकर
कई बार उजले और काले हुए
कई बार रूठे मनाये हुए
कभी किसी शासक के किले में ढाले हुए
तो कभी दहशतगर्दों के साये में धूल उड़ाते हुए
… कभी प्रजा की आरजू में
तो कभी
जनता की बेबसी में
न जाने कितनी बार बादल हुए ये शब्द
सदियों से इन शब्दों को गलाकर जो बेड़ियाँ बनाई गयी थी
ये वहीँ से निकल रहे हैं
जहाँ एहसास सारे दफ़न हो रहे थे
ये उसी के इर्द-गिर्द घूम रहे हैं
इतिहास की तंग गलियों से भागे हुए शब्द
कुछ बची हुई आत्मा के सताए हुए शब्द
ये शब्द जब समुद्र नाप रहे थे
पिरान्हा की दांतों से कई बार चोटिल हुए थे
समुद्र की उन अतल गहराइयों तक जाकर
खारे हुए हैं ये शब्द
जहाँ तक समुद्र के सताए हुए जाते हैं
वहां तक ये चाक घुमाये जाते हैं
कुछ वैसे सुराखों तक जाकर नम हुए थे ये शब्द
जहाँ निगाहों पर पहरे बोल रहे थे
जबकि वारदातों को पूरी तरह से खंगाले हुए थे ये शब्द
अक्सर फैसलों तक पहुँचने से पहले ही, जहाँ दम तोड़ देते थे ये शब्द
ये शब्द किसी घड़ी और तहज़ीब से नहीं चलते
भाषा में बंधने से पहले ही चबाये जा चुके थे
ये शब्द किसी सूखती जा रही फूल के उड़ाये हुए ख्वाब थे
जो अक्सर
खाते वक़्त हिचकियों में
सोते वक़्त ज़म्हाइयों में
चलते वक़्त परछाइयों में
रोते वक़्त सिसकियों में
बोलते वक़्त हकलाने में
कुछ खाप अंगराइयों में
ज्वारों जैसे उठ रहे थे
अंतरिक्ष के खुले शिरों में प्लाज्मा जैसे
पूरी नींद से जाग कर फिर से कहीं भाग रहे थे ये शब्द
इन्हीं शब्दों से रोज़ नहाकर बदलती थी अपनी भी दुनिया
ये शब्द जिनको छूकर कभी एहसास निकलते थे
सूने सफ़र में कुछ आस निकलते थे
इन शब्दों ने धरती पर कुछ अपने जैसा देखा था
शुरुआत में पूरा मतलब भर गए थे
इन्होने सपनों का बीज होना देखा था
इन्होने सपनों का ज़मीन होना देखा था
धीरे धीरे ये मगर पोस्टर पर छूट रहे थे
ख्वाब बेआवाज़ टूट रहे थे
अपनों में असर खाली थी
इसलिए
इन शब्दों में आजकल बाँझ भाषा की तमाम पंक्तियों
के खिलाफ ज़ंग बंद है
ये इस ज़मीन की ज़ंगों के किनारे लगाये गए शब्द हैं
ये उन क़त्ल हुए ख्वाबों के पुकारे शब्द हैं
जो कभी ज़मीन पर उतरना चाहते थे
उलझी शर्तों में पाबंद ये शब्द अब खाक हो चुके हैं
किसी सांप की केंचुल की तरह ये अपने सितम
अब यहीं छोड़ देना चाहते हैं
अपना मायका तलाशते ये शब्द
कुछ और ख्वाब गुजरना चाहते हैं
– मुकेश सहाय

बेबसी ही आज कविता हर आंख की
सारा संसार भय और घुटन में जी रहा
फूल खिलते और झर जाते चुपचाप
महकाकर अनछुई प्यार रहित बगिया
सहमी-सहमी चहकती देखीं चिड़िया
रूप बदला स्वभाव बदला सभी का
खेलते बच्चे भी नहीं अब बाग में
न प्रेमी युगल ना ही वो वयोवृद्ध
ना ही वो सरपट दौड़ ना चहचहाटें
बदलेंगे कब ये हालात कौन जाने
वापस जाने कब मिलेगी अपनी दुनिया
अंतस में गूंजेगी फिर कोमल कविता !
शैल अग्रवाल

एक भी आंसू न कर बेकार

एक भी आँसू न कर बेकार
जाने कब समंदर माँगने आ जाए

पास प्यासे के कुँआ आता नहीं है
यह कहावत है अमरवाणी नहीं है
… और जिसके पास देने को न कुछ भी
एक भी ऎसा यहाँ प्राणी नहीं है

कर स्वयं हर गीत का श्रंगार
जाने देवता को कौन सा भा जाय

चोट खाकर टूटते हैं सिर्फ दर्पण
किन्तु आकृतियाँ कभी टूटी नहीं हैं
आदमी से रूठ जाता है सभी कुछ
पर समस्यायें कभी रूठी नहीं हैं

हर छलकते अश्रु को कर प्यार
जाने आत्मा को कौन सा नहला जाय!

व्यर्थ है करना खुशामद रास्तों की
काम अपने पाँव ही आते सफर में
वह न ईश्वर के उठाए भी उठेगा
जो स्वयं गिर जाए अपनी ही नजर में

हर लहर का कर प्रणय स्वीकार
जाने कौन तट के पास पहुँच जाय.

रामावतार त्यागी

सिर्फ़ कुछ शब्द चुनूंगा

मैं पापरहित,निष्कलुष,निष्काम
सिर्फ़ कुछ शब्द चुनूंगा
इस दुनिया में
और अपनी कविता में उसे
रख दूंगा।

वह शब्द दराजों में सुबकती
मोटी-मोटी किताबों से नहीं लूंगा।

खेतों में स्वेद से लथ-पथ किसानों से
गहरी अंधेरी खदानों में काम कर रहे खनिकों से
भट्ठों पर इँट पाथ रही यौवना-कंठों से
उमस में नंगे पाँव बालू ढोती बालाओं के स्वर से
घर-दफ़्तर-दुकानों पर अपने दिन काटते बाल-मजदूरों से
और जहां-जहां पृथ्वी पर
मेहनतकश लोग श्रम का संगीत रच रहे हैं
उन सबके हृदय से भी

जिंदा कुछ शब्द लूंगा मैं
और कविता में रख दूंगा।

मैं नहीं लोकूंगा एक भी
शब्द तुम्हारे।
तुम्हारे शब्द तो शब्द-तस्करों से
घिरे हुए
घबराये हुए
काँखते हुए
डरे हुए और चुप हैं
जिनके वर्णाक्षरों पर बैठ
कोई तोड़ रहा है रोज़ इसे
और अपने मतलब के व्याकरण में
गढ़ रहा है।

सुशील कुमार।

कठिनाइयों से रीता….

कठिनाइयों से रीता जीवन
मेरे लिए नहीं

नहीं, मेरे तूफानी मन को यह नहीं स्वीकार
मुझे तो चाहिए एक महान ऊंचा लक्ष्य
और उसके लिए
उम्र भर संघर्षों का अटूट क्रम

… ओ कला! तू खोल
मानवता की धरोहर, अपने अमूल्य कोशों के द्वार
मेरे लिए खोल
अपनी प्रज्ञा और संवेगों के आलिंगन में
अखिल विश्व को बांध लूँगा मैं

आओ
हम बीहड़ और सुदूर यात्रा पर चलें
आओ, क्योंकि हमें स्वीकार नहीं
छिछला निरुदेश्य और लक्ष्यहीन जीवन

हम ऊंघते, कलम घिसते
उत्पीडन और लाचारी में नहीं जियेंगे
हम आकांक्षा, आक्रोश, आवेग और
अभिमान से जियेंगे.

असली इन्सान की तरह जियेंगे.

-कार्ल मार्क्सः अनुवाद – प्रतिभा कटियार

मै कविता हूँ .

कोई तुमसे पूछे अगर कभी,
मै कौन तुम्हारी लगती हूँ,
तुम इतना ही बस कह देना,
मैं स्वप्न सृजन के बुनती हूँ.
सुख़ दुःख की भरी झोली में,
बस साथ यही एक अपनापन ,
जग को जब बांटी थीं खुशियाँ,
पाया केवल बेगानापन ,
कोई तुमसे पूछे अगर कभी ,
तो इतना ही बस कह देना,
जीवन की उलझी राहों में,
मै साथ तुम्हारे चलती हूँ.
मैं चाँद सरीखे सपनों को,
नीले नभ में फैलाती हूँ,
गीतों के कोमल पंखों पर ,
मैं करुना दीप जलाती हूँ.
कोई तुमसे पूछे अगर कभी,
तो इतना ही बस कह देना-‘
”मैं कविता हूँ” मानवता के ,
अंतर्मन में रहती हूँ,
हृदय की कविता
मन की धडकनों की तरह ही होते हैं
कविता के शब्द भी ,
कहीं ली बिगड़ी ,
तो बिगड़ जाती है –
जिन्दगी भी …
सब कुछ शून्य सा नजर आता है ..
जब तक धडकने हैं
–जीवन है —
हृदय है -तो जीवित है कविता भी ,
प्यार भी ….सम्वेदना भी ..
इसी लिए भटकाओ मत,
इस लयात्मकता को ,
जिलाए रखो ..
पल दर पल ,
तभी तो हृदय में
झूमती ..गुनगुनाती -जीवित रहेगी ,
कविता भी —
–पद्मा मिश्रा

कला

गर परिभाषित करना चाहें इसे
शब्दों में
तो बस ये उद‍गार ही व्यक्त- होते हैं
कि
भावनाएँ
जो एक हृदय से प्रस्फ़ुटित हो
दूसरे के हृदय मे साँस लेती हैं।
कभी उठती है एक हिलोर
जो आवाज बनती है
नव दृष्टि, नव सृष्टि के निर्माण की
कहीं फ़ूटता है एक अंकुर
जो चिन्हांकन करता है
नव कली के प्रस्फ़ुटन का…
गर हो उत्कण्ठा
सत्य, शिव और सुन्दर के
पूर्ण साक्षात्कार की
तो कला के
शरणागत होना ही होगा…
भले ही बना दिया जाए व्यापार
और सज गए हों बा्जार
मोल लगाने को बैठे हों खरीददार
पर जो बिक रही है
वो कुछ भी हो
पर ‘कला’ नहीं हो सकती…
-गायत्री गुप्ता

कवि

यह अँधेरी रात जो छायी हुई है,
छील सकते हो इसे तुम आग से?
देवता जो सो रहा उसको किसी विध
तुम जगा सकते प्रभाती राग से?

– रामधारी सिंह दिनकर


अक्षर जब शब्द बनते हैं
कितने जाने-पहचाने लगते हैं
मां-काकी दादी और मौसी की
मीठी-मीठी बातों जैसे

अक्षर जब शब्द बनते हैं
दुनिया खुद में समेट लाते हैं
गीत-संगीत, चुटकुले और
कहानी-किस्से,अफवाहों जैसे

अक्षर जब शब्द बनते हैं
कितनी समझ…
कितना अनुशासन लाते हैं
माता पिता गुरुवर जैसे

जी भरकर प्यार दिखाते हैं
जी भरकर ड़ांट लगाते हैं
कभी अपने पास बुलाते हैं
कभी खुद से ही दूर भगाते हैं

अक्षर जब शब्द बनते हैं
गोल गोल खूब घुमाते हैं
दादा और पिताजी की गुहार
फटकार और मनुहार जैसे

बहुत प्यार करती हूं अक्षरों से
इनकी विरासत गीता वेद पुराण
कहानी कविता और उपन्यास
माँ शारदे, जोड़े रखना इनसे ।
-शैल अग्रवाल

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