कहानी समकालीनः कनुप्रियाः शैल अग्रवाल

कनुप्रिया

कनुप्रिया लड़की नहीं, एक पहाड़ी नदी थी। जब अपनी रौ में बहती तो सबको साथ बहा ले जाती। सबकुछ अपने में समेटे हुए फिर भी सबसे दूर। एक ऐसा पुराना बरगद का पेड़, जो जितना बाहर दिखता, उससे कहीं ज्यादा जमीन के भीतर था। जिसकी छाँव में थके लोग सहारा ले सकते थे और भूले भटके शान्ति और ठहराव। उसकी नित उठती शाखें पूरे तारे भरे आसमान को अपनी बाँहों में भरने की सामर्थ रखतीं। कनुप्रिया नाम कब और कैसे पड़ा याद नहीं, पर जब भी बच्चे उसे चिढ़ाते, कि उसका नाम ” कन्नू-प्रिया ” इसलिए है क्योंकि उसकी दोनों कँचे जैसी आँखें खेलते समय हरे, पीले, भूरे अलग-अलग रँगों में चमकती हैं, तो दादी अपना डँडा लेकर उस बानर सेना के पीछे पड़ जातीं। और फिर रोती हुई कनु को चुप कराते हुए कहतीं, जब मेरी लाडो को बँसीवाला खुद ब्याहने आएगा तो तू ही बता वह बस प्रिया कैसे हो सकती है –वह तो कनुप्रिया ही होगी न—अपने कान्हा की प्यारी।

उम्र के बीस बसन्त निकाल दिए कनु ने इस बँसीवाले के इन्तजार में और फिर एक दिन अचानक ही उसकी शादी तय हो गई सुबोध से। सुबोध जो शादी करके तुरन्त ही इँगलैंड भी चले गये, बिना कनु को बताए ही, कि शादी क्यों की –  इँगलेंड जाना था इसलिए, या फिर उनका और कनु का जन्मों का नाता था, इसलिए?

कनु अकेले में चुपचाप कभी कान्हा की तस्वीर के कानों पर स्टैथस्कोप सजा देती तो कभी सुबोध के होठों पर बाँसुरी। पर दोनों ही अटपटे से लगते और कनु के प्रश्न उत्तरों के बिना बिन ब्याहे ही रह जाते।

वैसे भी कनु को प्रश्न पूछने की, चीजों को समझने की, कोई और न बताए तो रात दिन सोचने की, जब तक उत्तर खुद चलकर उसके पास न आ जाएँ, एक मजबूर सी आदत थी… बचपन से ही।

लोग मरते हैं तो कहाँ जाते हैं… फिर लौटकर क्यों नहीं आते…क्या कोई उन्हें पकड़कर कहीं बन्द कर देता है- वगैरह-वगैरह…?

दादी से पूछो तो बस एक ही जबाब- सब उस नीली छतरी वाले साँवले सलोने की मर्जी है।

कनु का बड़ा मन करता उस मनमौजी भगवान से मिलने को। कैसे वह इतनी अपने मन की कर पाता है? कोई रोकता-टोकता नहीं क्या ? कनु को तो हर समय टोका जाता है- कनु यह मत करो, यहाँ मत जाओ, वहाँ मत बैठो। अच्छे बच्चों को यह नहीं करना चाहिए, वह नहीं करना चाहिए। परेशान कर दिया था कनु को अच्छे बच्चों वाली इन नसीहतों और छोटे-बड़ों के रोज-रोज के खेल ने। आखिर क्यो, कबतक लोग उसे बच्चा ही समझते रहेंगे? बड़ों से तो कोई नहीं कहता कि अच्छे बड़ों को भी हमेशा इतना डाँटते नहीं रहना चाहिए।

कनु की इस हरदम सोचने और समझने की आदत ने बचपन से ही दादी को, पापा को, सबको बहुत परेशान कर रक्खा था। जब दादी बहुत परेशान हो जातीं तो कनु को पापा के पास भेज देतीं। अब दादी कोई इन्साइक्लोपीडिया तो थीं नहीं। वैसे भी , पाँच साल की कनु के आगे कब की हार मान चुकी थीं, वह।

“दादी, दादी तुम कितनी बड़ी हो?”

” पचपन की” दादी ने हँसकर बताया था ।

“पचपन क्या होता है?”

“पाँच और पाँच”

“अच्छा ! तब तो तुम करीब करीब मेरी जितनी ही बड़ी हो– तभी तो मेरी तुम्हारी इतनी अच्छी दोस्ती है।”

कनु को अब बात कुछ-कुछ समझ में आ रही थी।

“मा तो हमलोगों से बहुत बड़ी हैं। है ना ? पूरी पच्चीस की! पर, तुम हर समय धूप में मत बैठी रहा करो।”

दादी के सूखती अमियों जैसे झुर्रियों वाले हाथों को सहलाते हुए कनु ने चिन्ता व्यक्त की। अब वह आश्वस्त थी कि अगले पाँच साल में वह भी दादी जितनी बड़ी हो जाएगी और फिर मम्मी-पापा, सब उसकी बातें सुना करेंगे। सुबह ही तो तीस तक की गिनती उसने मास्टरजी को सुनाई थी और उसने खूब अच्छी तरह से उँगलियों पर, कँचों के सँग गिनकर देख लिया है कि पच्चीस से तीस, बस पाँच वर्ष ही बड़ा है।

अचार के लिए सुखाई अमियों को लेने आई मा ने भी यह सब सुना और रात को खूब हँस-हँसकर पापा को भी बताया। सुनकर तो पापा भी हँसे बिना नहीं रह सके। जोड़ घटाने में बिल्कुल तुम पर गई है तुम्हारी लाडली, मा को छेङते हुए पापा ने तब कहा था।

अगले दिन कनु ने मा को पकड़ लिया —

“मा, मा पूरा आसमान बस नीला ही क्यों है ?”

मा ने जान छुड़ाने के लिए कह दिया क्योंकि भगवान जब आसमान बना रहे थे तो उनके पास बस एक नीला ही रँग था।

अचानक कनु की बहुत सारी समस्याओं का एक साथ ही समाधान हो गया। पानी और यह आसमान, क्यों  दिन में हलका नीला, रात में गहरा नीला –क्यों सबकुछ, चारो तरफ, हरदम बस वही एक रंग, नीला-नीला ही। भगवान ने तो जरूर नीला रँग ही खतम कर दिया होगा, तभी तो घास हरी बनानी पड़ी उन्हें।

***

उँचे पहाड़, समुन्दर, बादलों पर छलाँग मारता, दौड़ता, कूदता, जहाज बड़ी कनु को उसके बड़े-बड़े प्रश्नों के साथ लेकर, आखिर इँगलैंड पहुँच ही गया। सद्यस्नाता की तरह नहाया धोया देश बड़ा ही मनमोहक लग रहा था। इसके माहौल में भी एक ठँडी सी दूरी, एक ताजगी थी बिल्कुल कनु के अपने स्वभाव की तरह। उसके मन की गरमी भी खुद-बखुद यूँ ही बाहर नहीं आ भभकती थी पर अगर उठ आए तो दरिया बन आसपास की हर चीज को नम करने की सामर्थ रखती थी।

कनु की उत्सुक आँखें पूरा माहौल पी गर्इं— सबकुछ कितना नया और अजनबी था— पैरों की बैसाखी पर चलती वे अक्सर बेचैन होकर दौड़ जातीं लम्बे कौरिडोर के इसपार से उसपार तक, अपने सुबोध को ढूँड़ने के लिए। अचानक दो फैले हाथों ने उसे रोक दिया–

“क्या मैं आपका सामान देख सकता हूँ?”

“क्यों नहीं।”

कनु ने खुद को इस अप्रत्याशित् हमले से बचाते हुए कहा और खुद ही यँत्रवत् वह भारी सूटकेस ऑफिसर के आगे रख दिया। पर उसकी चँचल आँखें उड़ती बयार-सी फिर से आसपास की हर चीज पर डोलने लगीं।

“इसे खोलिये।”

आवाज की जँजीरों में जकड़ी कनु पुन: धरातल पर आ गिरी।

इधर उधर ढूँड़ने के बाद आखिर पर्स के एक कोने में उसे चाभी मिल ही गई। कनु ने चाभी ताले में लगाई और घुमाने ही जा रही थी कि एक जाने पहचाने भय ने उसे आ घेरा। बस अभी चौबीस घँटे पहले की ही तो बात है जब पापा ने बारबार कपड़े निकालकर, बारबार तह करके, बारबार गिन-सम्भालकर, फिर भैया को उसपर बिठाकर, बड़ी मुश्किल से यह अटैची बन्द की थी— वह भी इस हिदायत के साथ कि अब इसे घर जाकर ही खोलना। ऑफिसर की आँखों में देखने के लिए अपनी लम्बी गर्दन बहुत लम्बी खींचकर, एड़ियों पर उचकती, कुछ शरमाती कुछ सकुचाती, छोटी सी कनु ने कहा–

” मैं इसे खोल तो दूँगी पर वायदा कीजिए आप इसे बन्द कर देंगे क्योंकि असल में न तो मुझे अटैची लगानी आती है और ना ही बन्द करनी। इतनी ज्यादा भरी हुयी तो बिल्कुल ही नहीं। ”

वयस्क कपड़ों में लदी फँदी उस बालिका पर ऑफिसर को तरस आ गया।

“चलो रहने दो, बस इतना बताओ, इसमें कोई ड्रग वगैरह या कोई और अवैध सामान तो नहीं है।”

“नहीं।”

कनु ने बड़ी राहत और इत्मिनान के साथ जबाब दिया।

” तुम्हारा जहाज कहाँ-कहाँ रुका था?”

“बस जैनेवा में।”

बेहद अनमने मन से वह बोली। उसे बाहर जाने की जल्दी थी। सुबोध पता नहीं कितनी देर से उसका इन्तजार कर रहे होंगे। और देर से पहुँचना कनु की आदत नहीं थी। पापा कहते थे कि अगर तुम समय की कद्र करोगे तो समय तुम्हे इज्जत देगा।

“तुमने वहाँ घड़ी वगैरह नहीं खरीदी?”

ऑफिसर ने फिर से पूछा। अब कनु को विश्वास हो चला था कि यह ऑफिसर निश्चय ही कुछ खिसका हुआ है।

“नहीं बाबा, सिर्फ तीन ही पौंड तो हैं मेरे पास। तुम्ही बताओ इनमें कोई घड़ी वगैरह कैसे खरीदी जा सकती है?”

कनु ने प्रश्न पर प्रश्न पूछा?

“तुम्हारी अपनी घड़ी कहाँ है या घड़ी नहीं लगातीं?”

कनु का ध्यान अपने हाथ पर गया। घड़ी वाकई वहाँ पर नहीं थी। उसने जरूर उतारकर जेब में रख दी होगी। जेब में हाथ डाला निश्चय ही घड़ी वहाँ नहीं थी। दूसरी जेब में हाथ डाला। घड़ी वहाँ भी नहीं थी। जमीन पर पड़े सैंडविच बौक्स को उठाया। उसमें आधी खाई सैंडविच के साथ नई नवेली दुल्हन के सारे गहने तो पड़े हुए थे पर घड़ी कहीं नहीं थी।

परेशान कनु ऑफिसर से बोली,

“मेरी कोई भी चीज कभी नहीं खोती। यहीं कहीं होगी, अपने आप मिल जायेगी।”

ऑफिसर उसकी अबोध लापरवाही से थोड़ा घबरा गया था।

“क्या यह सब असली हैं?”

“मैं नकली गहने नहीं पहनती। असल में तो मैं कैसे भी गहने नहीं पहनती।”

“तुमने क्या यह सब पासपोर्ट पर लिखवाये हैं?”

उसने थोड़ा चिन्तित होकर फिर पूछा?

“आप ही लिख दीजिए न। पर, प्लीज सम्भालकर। कुछ गिराइयेगा नहीं। सब आपस में बेहद उलझ गये हैं।”

खुला हुआ डिब्बा उसकी तरफ बढ़ाती, कनु बोली। अब ऑफिसर वाकई में डर गया था।

“नहीं, नहीं, रहने दो, तुम जा सकती हो।”

उसने डिब्बा बन्द किया, कनुप्रिया को दिया और उसकी अटैची उठाते हुए उसके साथ बाहर आ पहुँचा।

“तुम पहली बार अकेली आई हो न।”

“हाँ।”

“किससे मिलने आई हो ?”

“अपने पति से। अब हम यहीं रहेंगे, जबतक वह यहाँ से कोई अच्छी सी डिग्री न ले लें और फिर उसके बाद हम पूरा योरोप, अमेरिका वगैरह सब घूमने जायेंगे।” कनु की आवाज में बच्चों जैसा उत्साह था।

“अच्छा, अच्छा ”

उसकी स्वप्न-श्रँखला को बीच में ही तोड़ता हुआ ऑफिसर बोला,

“तुम अपने पति को पहचान तो सकती हो न?”

कनु की आँखों मे आश्चर्य, अविश्वास और उपहास की ज्वाला एक साथ कौंधी और ऑफिसर डरकर तीन कदम पीछे हट गया।

“क्यों नहीं।”

“तुम इससे ज्यादा और कुछ नहीं बोलतीं क्या?”

दोस्ती का हाथ बढाते हुए उसने कनुप्रिया की तरफ देखा।

पर कनु की आँखें तो अब बस सुबोध को जल्दी से ढूँढ लेना चाहती थीं।

ऑफिसर ने अटैची बाहर बरामदे में रखी और जाने के लिए मुड़ गया। वह समझ गया था कि यहाँ दुर्घटना तो हो सकती थी पर कोई गड़बड़ घोटाला नहीं। कनुप्रिया की आँखों में एक क्रान्तिकारी सा, एक योगी सा, एक अबोध शिशु सा, सच्चाई का अथाह सागर जो लहरा रहा था।  कनुप्रिया की आँखों की वह दीवानगी, वह कुछ कर गुजरने की ललक ऑफिसर को अच्छी लगी।

“बेस्ट ऑफ लक।” वह मुस्कुराकर जाते-जाते, पलटकर बोला।

अब कनु के आगे एक सीमेंट और कौंक्रीट का घना जँगल था। लोग बेतहाशा इधर से उधर भागे जा रहे थे। हजारों आवाजें चारों तरफ परिन्दों सी उड़ रही थीं। कनु को सबकुछ दिखाई दे रहा था, सुनाई दे रहा था, सिवाय सुबोध के। सुबोध, जिसके लिए कनु, उनकी पत्नी कनु, अकेली यहाँतक आ पहुँची थी, उसी सुबोध का दूर-दूरतक कहीं, कोई पता नहीं था।

कैसे करे, क्या करे, कनु की समझ में कुछ नहीं आ रहा था।

“कहाँ जाना है बहन?”

पूछते हुए अचानक किसी ने उसकी पीठ पर हाथ रख दिया।

इस अप्रत्यासित सहानभूति से कनु तृप्त भी हुयी और घबराई भी। कौन सा एहसास ज्यादा मजबूत था कहना मुश्किल है।

“मैंसफील्ड।”

“मैं रग्बी जा रहा हूँ। चलो तुम्हें मैंसफील्ड छोड़ दूँगा। ज्यादा दूर नहीं है।”

“नहीं, नहीं, इसकी जरूरत नहीं। यह आ ही रहे होंगे।”

कनु की आवाज सहज और मीठी थी। उस अजनबी के अपनेपन ने कनुप्रिया के मन को छू लिया था।

“तुम फोन क्यों नहीं कर लेतीं कि भाई वहाँ से चला भी है या नहीं।”

“आप ठीक कहते हो।”

कनु ने नम्बर जेब से निकाला और उसी के साथ रक्खा वह तीन पौंड में से एक पौंड का सिक्का भी।

“आप ही इसे तोड़कर चेन्ज दे दीजिए।”

सह्मदय सरदारजी को उसपर बहुत दया आ रही थी शायद उनकी अपनी बहन इसी उम्र की अबोध और नासमझ थी।

“अपनी जेब में सम्भालकर रख इसे बहना। पराए मुल्क में अकेली खड़ी है तू।”

कनुप्रिया की आँखें भर आईं— पर, उसे किसीका एहसान लेना कभी अच्छा नहीं लगा–विशेशत: स्नेह और सहानुभूति का तो हरगिज ही नहीं। क्योंकि एक यही ऐसा कर्ज था जिसे उतारने में वह स्वयँ को, सदैव ही, असमर्थ और असहाय पाती थी। पर आज उस जन्मों के बिछड़े भाई ने उसे ऋणी कर ही दिया था।

उस अपरिचित की आवाज में इतना प्यार—इतनी परवाह और इतना आग्रह था कि कनु चाहकर भी मना कर ही न सकी।

दस पैनी का वह सिक्का कब उसकी हथेली पर आया, कब वह टेलीफोन बूथ की तरफ घूमी, कब उसने नम्बर घुमाया, कनु को कुछ पता  नहीं चला—–दूसरी तरफ से आवाज आरही थी कि डॉ0 सुबोध तो आज छुट्टी पर हैं और अपने किसी व्यक्तिगत काम से लँदन गए हुए हैं। कनु ने आश्वस्त होकर फोन रख दिया। देर-सबेर सही, उसका बँसीवाला उसे लेने आ ही रहा था—

फोन रखते ही उसकी आँखें धन्यवाद देने के लिये उस फरिश्ते भाई को ढूँढने लगीं पर फरिश्ते कब जमीन पर ज्यादा देरतक टिकते हैं ? चेहरों की रेलपेल में वह नव-परिचित चेहरा कबका गुम हो चुका था।

कनु ने एक लम्बे इन्तजार के लिए पास पड़ी बेन्च पर खुदको व्यवस्थित कर लिया। अभी मुश्किल से दो ही पल बीते होंगे कि सामने से आते हुए, मुस्कुराते नवयुवक ने झुकककर उसे विनम्र नमस्कार किया–

“आपने मुझे पहचाना ? बताइये तो भला मैं कौन हूँ ?” नवाँगुत नौजवान बारबार पूछे जा रहा था।

कनु की आश्चर्य-चकित् आँखें इस मिलनसार देश की एक भी बात नहीं समझ पा रही थीं। पहले सह्रदय सरदार जी, अब पहेलियाँ बुझाता यह अपरिचित— अचानक स्मृति की बिजली कौंधी, धुन्ध के बादल हटे और सुबोध के चचेरे भाइयों के चेहरे एक-के-बाद-एक बरसाती बूँदों से उसकी आँखों के आगे टपकने लगे—

“ध्रुव भैया” विस्मित कनु ने मुस्कुराते हुए कहा।

” अरे भाभी, आपने तो मुझे पहले कभी देखा ही नहीं था, फिर कैसे पहचान लिया?” लुका-छिपी के इस खेल में अब कनु को भी आनन्द आ रहा था।

” मेरे पास एक जादू का चश्मा जो है।”

इसके पहले कि कनु का वाक्य पूरा हो दोनों ही खुलकर हँस पड़े।

“और, जनाब कहाँ छुपे हुए हैं?” कनु ने इधर-उधर सुबोध को ढूँढते हुए पूछा—

ध्रुव भैया के कुछ कहने के पहले ही सामने वाली दीवार के पीछे से सुबोध निकल आए फिर तो बस एक, दो, तीन, चार, पाँच क्या पूरे बीस-पच्चीस लोगों का ताँता एक साथ ही लग गया—एक-के-बाद-एक।

“स्वागतम् भाभी”

“वैलकम होम कनुप्रिया”

कनु को समझ में नहीं आ रहा था इस प्यार और स्वागत का, इस अपनेपन का कैसे जबाब दे।

“धन्यवाद” “धन्यवाद”

मारे आभार के वह दुहरी हुई जा रही थी।

अचानक एक सख्त सा चेहरा अपने लम्बे-चौड़े शरीर सहित, ठीक उसके आगे आकर खड़ा हो गया।

” मैं तुम्हारा जेठ हूँ और यह तुम्हारी जेठानी।”

“हमारे पैर छुओ।”

कनु की हँसती तरल आँखों में विद्रोह तैर आया। पहले जेठ वाला प्यार और व्यवहार तो करो फिर यह अधिकार मैं स्वयँ ही दे दूँगी। अभी के लिए बस परिचय की नमस्ते ही काफी है। जुड़े हुए हाथों के सँग दँपति के तरफ देखती विनम्र कनु, कुछ कह नहीं पाई।

सामान कब और किस कार में गया कनु को पता नहीं, हाँ उसने खुद को जरूर एक कार में सुबोध और कथित जेठ-जिठानी के सँग पाया। ध्रुव भैया स्टीयरिंग पर थे जिससे लग रहा था कार उन्ही की थी।

“तो तुमने साहित्य पढ़ा है?” रोबीली आवाज कनु का इन्टरव्यू ले रही थी।

“जी, कोशिश की है।”

“शेक्सपियर के कौन-कौन से नाटक पढ़े हैं?”

इस शब्द का उच्चारण क्या होगा– वगैरह-वगैरह जैसे निरर्थक शब्द, इधर से उधर मुड़ती, स्क्रीच करती कार की तरह, हर दिशा से आकर बारबार कनु के कानों से टकरा रहे थे—अनचाही और कर्कश आवाजें कर रहे थे। थकी कनु पर तरस खाकर नींद ने आगे बढ़कर झट से उसे अपने आँचल में छुपा लिया।

एक भी जबाब न मिलता देखकर आखिर में खिसयाये जेठजी ने अपनी बन्दूक सुबोध पर तान दी–” यह किस बच्ची को उठा लाए हो ?”

अगली सुबह चहल-पहल भरी थी। घर मेहमानों से खचाखच भरा हुआ था, सिवाय उस कमरे के जिसमें कनु सोई थी। उसने तो अभी अपने घर का एक कोना तक ठीक से नहीं देखा था।

“सोईं आराम से ?” सुबोध ने गुसलखाने से सर निकालकर, अधसोई पत्नी से प्यार से पूछा–

” नाश्ते में क्या लोगी ?”

“मैं बनाती हूँ ” ज्यादा सो लेने पर कुछ शर्मिन्दगी के साथ कनु बोली।

“नहीं-नहीं थोड़ा आराम और कर लो, अभी तो सिर्फ साढ़े छह ही बजे हैं। मुझे जरा अस्पताल एक राउन्ड के लिए जाना पड़ेगा। कपड़े सब मैने वाशिंग मशीन में धो दिए हैं। तुम बस सबके लिए थोड़ी खिचड़ी बना लेना। सारा सामान, मसाले वगैरह सब वहीं चौके में ही रक्खे हैं। ”

कनु बिजली की तरह बिस्तर से निकली और दो ही मिनट में कपड़े बदलकर चौके में थी। वहाँ चाय का दौर चल रहा था। अनगिनित देवर और जेठों में से किसी एक ने खिचड़ी चढ़ा भी दी थी। सबकुछ जल्दी-जल्दी निपट रहा था। शेरवुड फौरेस्ट घूमने जाना था। इतने सारे छड़ों के बीच एक भी देवरानी नहीं थी। हाँ एक जिठानी जरूर थीं और कनु को जिठानियों से बहुत डर लगता था। हिन्दुस्तान में वह कई जिठानियों से मिल जो चुकी थी।

‘ रँग थोड़ा साँवला है। कद थोड़ा लम्बा है। उठने बैठने का कोई शऊर नहीं। अभी बच्ची ही तो है, दब ढककर चार दिन ससुराल में रहेगी तो सब सीख जाएगी— खुद ही खिल जाएगी– वगैरह-वगैरह—‘ जैसी टीका-टिप्पड़ियों के बिना खाने की कौन कहे, इनका तो पानी तक नहीं पचता। वैसे भी दूरबीन के नीचे रक्खे कीड़े की तरह औब्जर्वेशन में रहना कनु को कभी अच्छा नहीं लगा, वह चुपचाप अपने कमरे में वापस लौट आई।

धीरे से वाशिंग मशीन खोली कपड़े सुखाने के लिए तो इस विदेश की धरती पर पहली आहुति, उसकी प्रिय छह साढ़े छह गज की काँजीवरम् की साड़ी आधुनिक तकनीकियों से कोप न कर पाने की वजह से मारे शरम के डेढ़ गज की होकर कोने में मुँह छुपाए बैठी थी। कनु की लाख कोशिशों के बावजूद भी साड़ी का सिकुड़ा-सिमटा अस्तित्व अपने पूर्ण निखार पर वापस कभी नहीं आ पाया।

कनु प्रिया जग गई। ऐसे नहीं चलेगा। चार्ज उसे स्वयँ लेना पड़ेगा। गीले बालों को तौलिये से सुखाकर बाहर आई तो सारी आँखें उसी पर ही थीं। अपने बालों का जादू कनु जानती थी, पर उस स्तँभित मौन से तो वह कुछ ज्यादा ही शरमा गई –विचलित हो उठी। और लड़खड़ाती कनु ने नमस्कार कहकर एक बन्द अलमारी का पट यूँही खोल डाला। अनायास ही कुछ ढूँड़ने लगी। तभी अचानक कथित जेठजी पीछे से आकर कानों में फुसफुसाए–

” इन बालों को यूँ ही खुला रक्खा करो। कितनी सुन्दर लगती हो ऐसे– खाम्खाह ही इन्हे जूड़े और चोटी में बाँधे रहती हो।”

कनु मुड़ी और बिना कुछ बोले, कमर पर मनमानी कर रहे बालों को कसकर जूड़े में बाँध दिया।

अगली सुबह खुशनुमा थी। इँगलैंड का रूप अपने यौवन पर था। चारो तरफ गुलाब की कतारें महक रही थीं। बिजी-लिजी और पुटैनिया से सजी सँवरी, वराँडे में लटकी हैंगिंग बास्केट्स खुद अपने ही फूलों के बोझ से जमीन तक लटकी जा रही थीं और हराभरा लॉन कमरे के कालीन से भी ज्यादा गुदगुदा और खुशनुमा लग रहा था। कनु का मन किया प्याली बाहर ले जाए। ओस से नहाए। हरी-हरी घास पर नँगे पैर दौड़े। लुढ़के, पुड़के और फिर वहीं बादलों को ओढ़कर सो जाए।वैसे भी कनु करे भी तो क्या करे? मेहमान अपने-अपने घर जा चुके थे और सब सामान अपनी-अपनी जगह पर।

अस्पताल के सिटिंगरूम में अप्रवासी भारतियों का झुँड एशियन प्रोग्राम देखने के लिए आतुर बैठा था। कनु की उत्सुक आँखें भी स्क्रीन पर जा अटकीं। बड़े-बड़े अक्षरों में लिखा था “अपना ही घर समझिए”। कनु के गले में पत्थर अटक गया और आँखें धुँधली हो आईं। यह, और अपना घर ? एक भी तो पहचानी शकल नहीं है यहाँ पर। उदासी के बादलों ने उसे चारो तरफ से आ घेरा। अपने घर में तो मा, दादी, काकी, भैया, पापा सब होते हैं। कैसे मान ले इसे वह अपना घर? इस अकेले घर में तो दूर तक अक्सर कोई आवाज भी नहीं आती। कभी-कभी तो इतना सन्नाटा रहता है कि फोन पर बात करते समय खुद अपनी ही आवाज अनजानी सी लगने लगती है। डबडबाई आँखों को कनु सबकी नजर बचाकर पोंछने लगी पर कनु को क्या पता था कि काफी देर से कोई उसे देख रहा था, पढ़ रहा था—

“मैं आतिया शरीफ हूँ। मेरे पति इसी अस्पताल में काम करते हैं। मैं आई थी तो मुझे भी तुम्हारी तरह बहुत अकेला-अकेला लगा था। शाम को घर आना। गपशप करेंगे। कुछ अपनी कहेंगे, कुछ तुम्हारी सुनेंगे। तुम चाहो तो मुझे आपा भी कह सकती हो वैसे भी तुम मेरी छोटी बहन आनिया की तरह ही लगती हो, बिना बाजी के बात-बातपर रो पड़ने वाली, आनिया।”

बाजी की प्यार भरी गुदगुदी से कनु के सारे आँसू खिलखिला पड़े और अगले दिन ही वह दौड़कर उनके यहाँ जा पहुँची।

प्यारी-प्यारी रोटी-दाल की महक ने कनु की रूठी भूख को वापस बुला लिया। आपा ने कनु को जी भरकर प्यार दिया और साथ में दीं जी भरकर हिदायतें। पास के ग्रोसरी वाले का पता और नम्बर। पोटैटो पीलर, श्रेडर, बेलन और न जाने क्या-क्या? कनु को पहली बार लगा कि वह वाकई में वह कनुप्रिया है तभी तो बँसीवाले ने अपने आप ही बहन को भी उसके पास भेज दिया।

“मैं खुद चलते-फिरते तुम्हारे हाल-चाल लेती रहूँगी। फोन भी करूँगी और ऐसे ही टपक भी पड़ूँगी।”

“जरूर बाजी।” कनु ने गद्गद् होकर कहा था। और फिर वह सच में टपक ही तो पड़ी थीं, वह भी अगली सुबह ही। कनु सुदामा की तरह बौखला गई थी, कहाँ बिठाए, क्या खिलाए?

“आप चाय पिएँगी या कॉफी? ठँडी या गरम?”

“अरे बाबा जरा बैठने तो दो।”  बाजी हँसकर बोलीं थीं, “चलो चाय पी लेते हैं।”

कनु के पैरों मे पँख लग गए, दौड़कर कैटल रख आई। उसकी बच्चों जैसी विस्मित आँखों में जोशीला कौतुक था। अपनी बाजी के बारे में वह सबकुछ जान लेना चाहती थी— अच्छा तो आप लाहौर से हैं। हम अजमेर से। अजमेर और लाहौर की बातें करते-करते कैसे पूरे चार घँटे निकल गए दोनों में से किसीको कुछ पता ही नहीं चला। “अब तो भई, चाय पिला ही दो।” अचानक बाजी बोलीं।

“अरे राम मेरी कैटल” कनु को मानो करैंट लग गया। वह तीर की तरह किचन में पहुँची। कैतली के नाम पर बस एक प्लास्टिक का हैंडल कनु का बड़ी दयनीयता और बेबसी से इन्तजार कर रहा था। कनु की आँखों में चमक आ गई– इतना सुन्दर चमचमाता रँग। उसके अँदर का कलाकार सबकुछ भूलकर, पास पड़ी ट्रे और चाकू उठाकर तल्लीन हो गया। पीछे खड़ी बाजी मँत्र-विमुग्ध सी देख रही थीं। एक सधे कलाकार के हाथों सज-सँवरकर ट्रे पर दो सूरजमुखी के फूल बड़ी नजाकत से मुस्कुरा उठे। बाजी ने छोटी बहन को गले लगा लिया। उसका माथा चूमा और कहा-“तुम सच में बहुत अच्छी हो, कनु। बहुत ही प्यारी। चलो मैं अब तुम्हें चाय पिलाती हूँ।”

“नहीं चाय तो मैं ही बनाउँगी” कनु ने कुछ शरमाते, कुछ झेंपते हुए कहा और दोनों बहनें खिलखिलाकर फिर हँस पड़ीं।

***

महीने दिनों में बीत रहे थे। गुनगुनी सुबह को कनु चाय के सँग चुस्कियों में पी रही थी।

“मैं आज की नहीं भविष्य की बात कर रहा हूँ। एम.ए. हो। कोई नौकरी कर सकती हो। तस्वीरें बनाकर बेच सकती हो। सुबोध को थोड़ी आर्थिक मदद मिल जाएगी। तुम्हारे आने से खर्चे बढ़े हैं। कल को घर ग्रहस्थी भी बढ़ेगी। एक तनख्वाह में कैसे गुजर होगी? तुम्हें खुद ही सोचना और समझना चाहिए, यह सब। पढ़ी-लिखी हो। शादी का अर्थ सिर्फ पति के साथ सोना और मस्ती करना ही तो नहीं होता।”

नँगे शब्दों की मार कनु के कान, गाल सब लाल कर गई। समझ नहीं पा रही थी कि वह क्या सुन रही है– क्यों सुन रही है ? कल ही की सी तो बात है जब अपनी नयी जिन्दगी की शुरुआत करते हुए उसने और सुबोध ने दोस्त बनकर कसमें खायी थीं— हर समस्या, हर उलझन और परेशानी को मिल-जुलकर समझने, सुलझाने और सहने के वादे किए थे। क्या यही मिलाजुला प्रयास है कि अपने घर का नँगा हालचाल दूसरे आकर सुनाएँ। कनु के प्रयास में तो कभी दूसरों के काम के लिए भी कमी नहीं आई। फिर उसके अपने सुबोध ने कैसे उसे इस लायक भी नहीं समझा। शर्म और ग्लानि से वह जमीन में धँसी जा रही थी बस जमीन ही नहीं फट पा रही थी। विवेक और सँतुलन ढूँड़ती, सामान्य रहने के प्रयास में वह सहज होकर बोली—

“आप हमारे मेहमान हैं। बैठक और मेहमान घर के दरवाजे आपके लिए सदैव ही खुले रहेंगे पर दया करके, उसके आगे, मेरे शयनकक्ष और स्नान-गृह में झाँकने की कोशिश कभी मत करिएगा। क्योंकि यह न सिर्फ शिष्टाचार के विरुद्ध है वरन् अभद्रता भी है। उन बन्द दरवाजों के पीछे क्या होता है वह हमारा निजी मामला है।”

इतना दँभ? इतनी दृढ़ता? वह भी एक अबोध सी लगती बालिका में? जेठजी आश्चर्य-चकित थे– पूरी तरह से बौखला गए थे, वे–

“बातको ज्यादा गँभीरता से मत लो। मैने तो बस ऐसे ही वार्तालाप को चालू रखने के लिए यह सबकुछ कह दिया था। तुम काम करो या न करो, इससे मुझे कोई फरक नहीं पड़ता–वैसे भी मैं तुमसे ग्यारह-बारह साल तो उम्र में बड़ा हूँ ही। और यह सुबोध वगैरह तो सब मेरे चेले-चपाटे रहे हैं। हमेशा मेरे कहे अनुसार ही चले हैं। ऐसे तो मुझसे आजतक किसी ने भी बात नहीं की।”

स्वस्थापित जेठजी ने इधर-उधर हवा में हाथ फेंकते हुए कहा।

अचानक कनु सबकुछ जान गई– समझ गई। सामने बैठे व्यक्ति का हकलाता हलकापन। परिस्थिति की अनर्थ-अर्थहीनता। घटनाओं की मनगढ़ँत उपज और अदृश्य तमाचों की चुनचुनाती तिलमिलाहट। उसके अपने सुबोध तो इस अहँ और नियँत्रण के ताने-बाने में कहीं थे ही नहीं और फिर गैरों से कैसी नाराजगी? क्योंकि नाराज भी तो बस उसी से हुआ जा सकता है जिसके साथ कोई राज हो, जो अपना हो।

“आप और चाय पिएँगे? लीजिए तबतक यह अखबार पढ़िए।”

तुरन्त आए अखबार को उन्हें पकङाकर कनु उठ खड़ी हुई। इस एक ही घटना ने उसे हमेशा के लिए वयस्क और जिम्मेदार बना दिया था। गृहिणी के दायित्वों से अवगत् करा दिया था। कौवे, गिद्ध और चूहे किस गृहस्थी में यदा-कदा नहीं घुस जाते? पूरा घर साफ करना होगा। हर जाले को तोड़ना होगा। गन्दी धूल को हटाना होगा और सेंधे भरनी होंगी।

दरवाजे पर दस्तक थी, लगता है कोई आया है। सामने बाजी की नन्ही नताशा सजी-धजी खड़ी थी। हरी फ्रॉक और गहरे काले बालों में हरे रिबन के बीच उसका मुस्कुराता गुलाबी चेहरा बिल्कुल ताजे गुलाब सा खिल रहा था।

“मौसी-मौसी यह बादल नीला ही क्यों होता है। बताओ न, आप तो आर्टिस्ट हो?”

लगता है भगवान के पास रँग ही नहीं, मिट्टी भी एक ही तरह की बची थी। या शायद उसे कनु और नताशा जैसे इन्सान बनाना पसन्द हैं। नीला रँग पसँद है। बात रँग की नहीं, रस की ही तो होती है। जो बात गौतम बुद्ध को घर छोड़कर समझ में आई थी, कनु को घर में रहकर समझ में आ गई। नीला कृष्ण-कन्हैया बाँसुरी के सँग और उसके सुबोध स्टैथस्कोप के सँग, दोनों ही अच्छे लगे कनु को आज।

कनु खिलखिलाकर हँस पड़ी—

“क्योंकि मेरी गुड़िया रानी, भगवान को नीला रँग अच्छा लगता है। आसमान नीला हो या पीला, कोई फरक नहीं पड़ता। बस आदमी को खुश रहना चाहिए।”
तो मैं अपने आकाश को हरा रँग लूँ “, नन्ही नताशा ने अविश्वाश और बालसुलभ कौतुक से पूछा?

“क्यों नहीं” कनु ने प्यार से निशू की तरफ देखते हुए उत्तर दिया।

हरे आकाश की कल्पना मात्र से नन्ही निशू हँस-हँसकर दोहरी हुई जा रही थी और कनु ने आगे बढ़कर उसे गोदी में उठा लिया।
————————-

Be the first to comment

Leave a Reply

Your email address will not be published.


*


This site uses Akismet to reduce spam. Learn how your comment data is processed.

error: Content is protected !!