जय श्री राम
समय-शिला पर सूर्य-रश्मि से
लिखा तुम्हारा नाम
जग कहता, धरती की धड़कन
हम कहते हैं राम।
वामन से विराट तक सबका
जो है पालनहार
करुणासागर आर्तजनों का
दुखियों के आधार
मर्यादा की शिखर कल्पना
पाती जहाँ विराम।
सत्य, न्याय तप धर्म सनातन
के मृण्मय आदर्श
तुम हे श्रेष्ठ धनुर्धर , तुमसे
दीपित भारतवर्ष
पाकर मृदु संस्पर्श, बन गया
दंडकवन भी धाम।
मानवता के मानसरोवर के
स्वर्णिम जलजात
शुचिता की अंतिम जीवित
परिभाषा तुम हो तात
सारी पृथ्वी रामायण से
सर्जित विश्वग्राम।
-बुद्धिनाथ मिश्रा, देहरादून
वह
हमारी तबीयत नासाज़ हो जाती है
जब कभी हमारे बीच अनबन होती है
उसके प्रेम की अटूट डोर में बंधने के बाद
हम पहले से भी ज्यादा मुक्त हो गए हैं
और ज़िन्दगी के उन्मुक्त गगन में विचरण करते हैं।
हम वह पतंग है
जो प्रगतिशील नभ में दिखते तो अकेले हैं
लेकिन प्रीति की डोर से इस छोर से उस छोर तक
हम एक दूजे से जुड़े होते हैं।
वह मजाक में भी कभी डोर छोड़ने का जिक्र करती है
तो हमें विकास के आकाश से धरित्री ही नजर आती है।
ना वह वह है ना मैं मैं हूं
हम दोनों मिलकर हम हो गये हैं
वह भी सीधी है हम भी सीधे हैं
फिर बात-बात पर लड़ाई क्यों होती है
हम दोनों मिलजुल कर इस रहस्य को
समझने की कोशिश करते हैं
लेकिन समझ नहीं पाते हैं।
यह लड़ाई सावन की तरह होती है
रिमझिम रिमझिम बरसते बरसते
कब प्रेम करुणा और दया की धूप खिल जाती है
पता ही नहीं चलता है
ज़िन्दगी की मरुभूमि लहलहा उठती है
और प्रेम की सौंधी खुशबू महमहा उठती है।
बिछड़ने को तो हम किसी न किसी से रोज बिछड़ते हैं
हर पल बिछड़ते हैं लेकिन
उससे पहली बार मिलना और मिलकर बिछड़ना
इस कसक को बयां करना
असम्भव सा लग रहा है।
ना कह पाए ना सह पाए
सिससकते सिसकते सो गये
ख्यालों की दुनिया में खो गए
हमारी रुचि एक दूसरे से भिन्न है
इसलिए थोड़ा मतभेद रहता है।
सिर्फ मतभेद रहता है मनभेद नहीं
वह मेरे जीवन का भावार्थ है
मेरे मन को बड़ी बारीकी से पढ़ती है
और जिंदगी को नये सांचे में गढ़ती है
कभी मैं भटकता हूं तो उसको खटकता हूं।
बिन बताए सब कुछ जान जाती है
मनाने पर सहजता से मान जाती है
हमारे मन में पहले एक दूसरे से जीतने का भाव था
अब एक दूसरे को जीतने का भाव है।
वह मेरे मन का सुकून है
जीवन जीने का जुनून है
वह स्त्री है धरती की तरह
मेरे जीवन के दर्पण को कर देती है साफ
मेरी गलतियों को मुस्कुराकर कर देती है माफ।
– डॉ. सुनील चौरसिया ‘सावन’
चाँद मेरे दोस्त
छुप जाते थे तुम अपनी चाँदनी के साथ जब आती थी अमावस की काली रात,
बैठ जाती थी मैं अपने नन्हें ह्रदय में लेकर फिर से तुम्हारे आने की आस।
कैसे करूँ बयान मैं तुम्हारे आब को नहीं हैं इतने शब्द मेरे पास,
जब भी होती है बात ख़ूबसूरती की तो होती है तुलना तुम्हारे ही साथ।
सजते हो तुम शिव की जटाओं में एक ताज़ की तरह,
करता है चकोर भी प्यार तुमसे पागलों की तरह।
लिखते हैं लेखक गीत व कविताएँ तुम्हारी चाँदनी और तुम पर,
मैं भी तो हूँ इसी प्रयास में की कुछ लिख पाऊँ तुम्हारे रुआब पर।
जब-जब भी करता है कोई प्रेमी इज़हारे मोहब्बत प्रेमिका से अपनी ऐ चाँद,
तब-तब वो कहलाती है चंद्रमुखी या होती है वो चौदहवीं का चाँद।
अम्बर में खिले चाँद प्यार से पुकारते हैं सब तुम्हें मामा देकर बहुत मान,
पूजन भी होता है तुम्हारा श्रद्धा, आस्था और प्रेम भरे भाव समान।
हम सब के प्यारे चाँद यूँ ही चमकते रहना तुम अपनी चाँदनी के साथ,
हीर फिर से बुन लेगी कुछ सुंदर सुनहरे सपने तुम्हारे साथ।
एन अरुण,
भारत
मुझे ठीक ठीक याद है
बचपन में सुना था कि
एक राजा दशरथ के पुत्र भरत हुए
और एक दुष्यंत पुत्र
दुष्यंत पुत्र की वीरता का आलम भी सुनता आया
बचपन में शेर के दांत गिने थे उन्होंने
कहा गया-उनके नाम से ही ये देश भारत है
वीरता का अपना इतिहास हो सकता है लेकिन
मेरे लिए सबसे महान शब्द “भारत”
और इसकी सार्थकता इस बात में है कि
इसमें पला-बढ़ा किसान पुत्र
कौनसा गणित सीखना चाहता है
उसके लिए विज्ञान के मायने क्या हैं
और मजदूर की संस्कृति क्या है
जो महल, अट्टालिका और मेहराव बनाकर
बूढा हो जाता है पुस्त-दर-पुस्त
और बुझा नहीं पाता पेट की भूख
उसके लिए पेट एकमात्र समस्या है
जिसकी भूख मिटाने के लिए
वह बेच देता है अपना तन
और कई बार गर्भस्त शिशु भी
उनके लिए जीना ही संस्कृति है
और मौत का अर्थ है
भूख से निजात पाना
जब भी कोई भारत की परम्परा की दुहाई देता है
और बात करता है” राष्ट्रवाद” की
तो मेरा मन कहता है —
उसके कान में पिघला शीशा डाल दूँ
उसे दिखाऊँ
वह भारत, जहाँ
एक कटोरा भात के लिए, बच्ची
दम तोड़ देती है, और विरोध में लिखने पर
पाश या फिर गौरी लंकेश को मार
विचारो की हत्या का षड्यंत्र रचा जाता है;
जाने कैसे लिखा गया होगा इसका इतिहास जहाँ
इसका सम्बन्ध किसी दुष्यन्त से रहा होगा
वह दुष्यंत जो मनोरंजन के बाद
भूल जाता है वन में रचाई शादी ही,
भारत का मूल अर्थ खोजना होगा
खेतों में बहते पसीने में
मजदूर के पेट की भूख में या फिर
गर्भवती शकु की चींख में
संदीप तोमर
फूल और रंग पर कविता लिखना आसान नहीं
बहुरूप बहुरंग बहुविध हैं ये
इनकी अधिरचनाओं में कई-कई कलाएँ छिपी हैं
कई- कई सौंदर्य रूप अदृश्य हैं
मसलन जिसने कहा –
“सौंदर्य एक क्षणिक अत्याचार है”
जैसे,
एक फूल का खिलना जितना छोटा ,
जितना दैहिक है
उसका पात-पात सिकुड़ जाना , झड़ जाना उसका
उतना ही चिरंतन, उतना ही शाश्वत
रंग भी बदलते हैं सात रंगों से मिलकर अनगिन रंगों में
फिर उदास हो जाते हैं
खिलने से झड़ने के बीच का जो आकर्षण है
यौवन रंग से उसकी धूमिलता के बीच
रंगरेज़ की जो मातृछाया है,
विभ्रम की रची दुनिया है वह केवल,
छलावा है
जीवन के विन्यस्त रूपक हैं फूल और रंग
फूलों के रंग, रंगों में फूल असीम करुणा के विस्तार हैं अपनी लघुता में
सौंदर्य की कितनी आत्मिक अंतर्यात्रा है उसकी न ठहरने वाली कोमलता !
उसकी निस्पंद पड़ती हँसी उसकी म्लान होती कांति !!
सत्य के संधान की टिमटिमाती लौ की तरह भीतर ही भीतर!!!
“नहीं नहीं,
फूल की क्षणभंगुरता ही उसका सौंदर्य है”
“रंगों की उदासी ही उसका असली रूपक है”
खिलकर उसके झड़ जाने की पीड़ा को महसूसना ही उसका अप्रतिम सौंदर्य है।
रंगों की द्युति को निस्तेज होते देखना ही कला है
खिलना, खिलने के बाद उसका झड़ना —
गुलालों की प्रभा का धीरे- धीरे मंद पड़ना —
दुःख के इस ममत्व में जो राग है विराग है
जो भय है त्रासदी है ,जो रहस्य है जो अकिंचनता है,
उसकी सीमाओं के पार जाकर देखना ही सौंदर्य है
और उसको देखने की क्रिया कला।
उसके विरह- वेदना में धँसना , उसके तनाव और दर्द की स्वीकृति
ही उस फूल का सौंदर्य , उस रंग की छटा है
ओह, सच में फूल और रंग पर कविता लिखना इतना आसान नहीं!
(सुकरात और नीत्शे के सौंदर्य-कला दर्शन से प्रेरित)
सुशील कुमार (डुमका)
मैं गलत था,
लहरें गहराई नहीं जानती
ऊपर-ऊपर उठती गिरती हैं!
उसकी खामोशी सूखे पत्तों की खरखराहटें हैं
जितनी बार लिखता हूँ रेत पर कोई काव्य
आकर मिटा जाती है शोर करती हुई –
“कुछ नहीं पता तुम्हें, मुझसे भी छोटी है कहानी तुम्हारी”
लौट आता हूँ अवाक्
जहाँ प्रार्थना के दीप जल रहे थे
छायादार वृक्ष के नीचे बैठे कुछ लोग
झुके हुए थे इबादत में किसी डर की वजह से
आस्थावान नहीं लग रहे थे उनके चेहरे
हिल रहे थे कुछ होंठ , बुदबुदा रहे थे कुछ शायद अपनी आँखें भींचे
मुझे लगा, जैसे हर कोई बेमन मौत के लिए खुद को तैयार कर रहा हो!
अधूरे ख़्वाब
सुशील कुमार (डुमका)
अधूरे ख़्वाब, मेरी आँखों में
टूटे शीशे की मानिंद चुभते ही रहे
अधूरे बालक की सिसकियाँ
मेरी कोख में उधम मचाती ही रहीं
उसका कोई नाम हो तो पुकारूँ
वजूद हो तो छूकर देखूँ
जज़्बे ममता के इसरार के
लफ़्ज़ ढूँढते ही रहे
उसके वजूद की ख़ुशबू
मेरे हवासों की तहों में गुम हो गई
अधर और छाती के बीच में
मौत फासला बनकर फैल गई
मेरी उंगलियों के पोर
स्पर्श ढूँढते ही रहे
अधूरे बच्चे के लिये
ममता का पूरा जज़्बा
सम्पूर्ण दर्द बनकर
वजूद में समा गया!
सिंध की लेखिका- अतिया दाऊद
हिंदी अनुवाद –देवी नागरानी
चलते हैं
चलते हैं सोसायटी के उन अंधेरों
उन सड़कों, गलियों, घर
चौराहों, बाज़ारों की ओर
जहां दहशत ग्रस्त हैं लोग
अपराध पलता है ।
ये मर्यादा हीन,संस्कार विहीन,
कमजोर ,पौरुषहीन
मान वेतर, जानवरों से बदतर
घूमते हैं छाती चौड़ी कर
जैसे जानते हैं भारत भूमि है
यहां कौन डरता है
यहां के हम सिकंदर
कोई है जो कर सके हमें अंदर
यहां तो अहा! सब चलता है!
बेखौफ ,बेधड़क ,खुली आबोहवा में ये
निर्लज्ज, हैवान झूम रहे और
इन्हें दंड देने वाली फाइलें
न्यायालयों में घूम रही हैं
निर्भया जैसे बीभत्स कांड करने वाले
अपराधियों को कोई भय नहीं
क्योंकि सालों बाद भी
उन्हें मिलती सजा-ए-मौत नहीं।
अपराधियों के मानवाधिकारों की चिंता है
इन नन्ही-मुन्नियों का तो सांस लेने का भी हक
किस हक से इन पापियों ने छीन लिया है
ढेरों सवाल जिनके जवाब नहीं पाओगे
यहां तो न्याय ,बस ढूंढते रह जाओगे!
बहरा -अंधा कानून कहां देखता है
दुर्भाग्य !भारत में सब चलता है!
इन नराधमों का अंग भंग कर
नपुसंक कर देने से कम
कोई उपाय नहीं बचता है
क्योंकि सच तो यह है कि
” सब कुछ नहीं चलता है”
अनुपमा अनुश्री
‘पुरुष चरित्रम’
गए नहीं अभी तक संस्कार आदम,
अब तक वही है पुरुष चरित्रम
क्यों है इस प्रकार का नैतिक पतन
क्यों नहीं करते बड़े पदों पर भी बैठे पुरुष
नारी प्रतिभा और योग्यता का मूल्यांकन
क्यों चरित्र गिर गिर जाता है देख सामने नारी
क्यों देह तक सीमित हो जाती है इनकी दृष्टि सारी
क्यों इतनी लार टपकी जाती है हर बारी
चरित्रहीन पुरुषों नॆ ही बनाया ये चलन
कि मजबूर हो नारी ले इस घिनौने कृत्य का अवलंबन।
देवी की पूजा तो बहुत करते हो
जब कोई देवी साक्षात सामने आती है
तो उसका मान भंग करने
अपना गिरा चरित्र दिखाने
बिल्कुल तैयार रहते हो
लंपटता पुरुषों की जाती नहीं !
सच्चाई इन्हें बर्दाश्त करना आती नहीं।
अहंकार इतना कि सच को भी
झूठा साबित करने में नहीं चूकते
नारी का मान-सम्मान मर्यादा सिर्फ शब्दों तक
हकीकत में हद दर्जे का अपमान करना नहीं भूलते !!
अनुपमा अनुश्री
साहित्यकार, कवयित्री, रेडियो- टीवी एंकर ,समाजसेवी
अध्यक्ष -आरंभ चैरिटेबल फाउंडेशन एवं विश्व हिंदी संस्थान ,कनाडा, चैप्टर मध्य प्रदेश।
मोबाइल- 7389422800
पराई
पराई अमानत है
पराए घर चली जाएगी
परायों की तरह ही गई पाली
पर पराए घर जाकर भी
अपनी वह कब कहलाई
पराए घर से यह आई
अपनों सा प्यार कैसे कर पाएगी
यही सुनने को मिला उसे
ना पिता का घर उसका और ना ही पति का
अभिशप्त थी , रही और रहेगी सदा
दूर दूर ही रखा इस पराई अमानत को
सभी ने
पराए घर से जो धरती पर थी आई…
शैल अग्रवाल