गौरवमय संस्कृति, खान-पान, वेशभूषा, मिर्च-मसाले, गीत-संगीत और हमारी फिल्मों का जादू अब पूरे ही विश्व के सिर चढ़कर बोलता है। विश्व की भारत में यह अभूतपूर्व रुचि और खुद भारत में पश्चिम की अंधी नकल… क्या वजह है कि भारतीय तौर-तरीके, शादी जैसी प्राचीन प्रथा की गरिमा व शुचिता में दरार ,यौन उच्छृंखलता, व्यभिचार आदि ही दिखता है हमें अपने चारो तरफ। एकाकी परिवारों से उत्पन्न विघटन और उदासी, चोरी चकारी, रिश्तों के ये लाक्षागृह, संयुक्त परिवारों को दकियानूसी और पिछड़ापन समझना, बढ़ती नग्न और भोंडी अश्लीलता, बड़ों की, गुरु व अतिथि की पूर्ण अवहेलना और अनादर ही दिखता है 21 वीं सदी में पलती-बढ़ती भारतीय पीढ़ी में। क्या वाकई में भारतीय संस्कृति की नींव दरक रही है? भारतीय संस्कृत जो आज भी जीवन ही नहीं मौत का भी उत्सव मनाती है। दार्शनिक अवश्य परन्तु रंगीन और उल्लास व संगीत से भरपूर हैं।
बहुत कुछ समझना होगा- कहाँ कमी रह गई, क्यों ठुकरा रहे हैं युवा फिर इस जीवन शैली को ? क्या विश्वीकरण की चकाचौंध से उत्पन्न हीन ग्रंथि है यह या फिर पिछड़ जाने का भय? किस बात से डर रहे हैं ये? जब हजारों सालों में, कई-कई हार और लूटपाट के बाद भी प्राचीन वैदिक संस्कृति जिन्दा रही है, तो इन छोटी-मोटी आंधियों से पलट जाएगी, बस बुद्धि से जरा धूल झाड़ने की जरूरत है हमें।
भाषा , संस्कार और संस्कृति तीनों का ही गहरा संबंध है आपस में। आदमी की भाषा वही होती है जो उसके संस्कार होते हैं। वह वही बोलता है जो सोचता और समझता है और इस सोचने समझने की प्रक्रिया को गढ़ने में हमारे मां-बाप , गुरुजन, संगी-साथी और पास-पड़ोस व शिक्षा आदि का बड़ा हाथ होता है। यहीं हमारे संस्कारों की नींव पड़ती है। पारिवारिक परिवेश और परंपराओं का बड़ा हाथ होता है। परंपराएं पीढ़ियों के अनुभव और उन अनुभवों का निष्कर्ष, अपनाया हुआ ढर्रा या जीने का तरीका ही तो अंततः कहलाती हैं जाति , समूह या देश विशेष की संस्कृति।
जहाँ तक हिन्दी के बदलते रूप की बात है, भाषा में समिश्रण कोई नई चीज नहीं और ना ही इससे डरने की जरूरत। समृद्ध ही होती है भाषा इससे। यदि मनुष्य खुद को परिस्थितियों के अनुकूल ढालता है तो उसकी भाषा भी ढलेगी ही। ध्यान बस इतना रखना है , मानवता और विनम्रता का अंश बना रहे भाषा में भी और व्यवहार में भी।
भाषा और संस्कृति दोनों ही सदानीरा हैं। माहौल, रूपरंग और मिट्टी ( जरूरतों) को खुदमें आत्मसात करती ही आगे बढ़ती है । न तो बंधी हैं और ना ही इनके रूपरंग को ही बदलने से रोका जा सकता है। नदी-समुन्दर-नदी, जीवन की तरह ही एक नैसर्गिक चक्र है इनका भी। भाषा का मुख्य गुण अभिव्यक्ति है और जबतक हम समझ रहे हैं एक-दूसरे को, अपने मूल और परिवेश को, आपसी सुख-दुख को, कहीं कोई मुश्किल नहीं। परिवर्तन तो भाषा का नैसर्गिक गुण है। निरंतर गतिशील रही है भाषा परिस्थितियों और जरूरतों के अनुरूप।
विकसित देशों की खासियत रही है यह कि जहाँ से जो भी मिला, सर्वोच्च को ही अपनाया है इन्होंने। सिर्फ मिमयाने या दहाड़ने से ही आदमी बकरी या शेर नहीं बन जाता। मंत्रोच्चार के साथ-साथ अभिव्यक्ति के सभी पाशविक गुण भी रहे हैं सदा से मानव की भाषा में, फिर भी वह आदमी ही कहलाया है, जानवर नहीं, जबसे उसने क्रमबद्ध अभिव्यक्ति के लिए भाषा को अपनाया है। हर समूह की अपनी भाषा रही है और यही उसकी ताकत भी। अभिव्यक्ति और संपर्क के लिए विदेशी भाषा को अपनाना और बात है परन्तु उसके पीछे अपनी भाषा का तिरस्कार, उसे ठुकराना, खुद अपनी अस्मिता को ठुकराना, स्व का अपमान है। माना विश्व-बाजार में अंग्रेजी का आज आधिपत्य है परन्तु उससे डरने की जरूरत नहीं हमें। क्योंकि जबतक हिन्दुस्तानी हैं, हिन्दी की जरूरत है और यदि जरूरत है तो हिन्दी रहेगी।
भाषा व संस्कृति के नित नित बदलते रूप, विश्वग्राम में भारत की पहचान और योगदान, आदि चन्द व्यवहारिक और वैचारिक विषयों पर विमर्ष के लिए हम भारतवंशी और भारतप्रेमी 11 वीं बार एकत्रित हुए थे मौरिशस में पर आजभी कई प्रश्न अनुत्तरित हैं हिन्दी भाषा और संस्कृति के उत्थान और विकास के संदर्भ में।
सौ बार चमन महका सौ बार बहार आई/ दुनिया की वही रौनक दिल की वही तन्हाई- जैसा ही हाल है हम मारत-प्रेमियों का। कबतक जो बीत गया उसीका गुणगान करते रहेंगे हम। संस्कृति हो या प्रगति, बगिया तभी सुंदर और उपयोगी है जबतक उसकी निरंतर देख-रेख है, कटाई-छटाई होती रहती है। नये बीज, नई फसल लगती रहती है।
क्या अब भी भारत दुनिया के रंगमंच पर एक महत्वपूर्ण भूमिका में है, मार्गदर्शक है, जैसा कि हजारों साल पहले था जब गौतम, नानक और महाबीर ने विश्व को शांति और सौहाद्र का संदेश दिया था। आध्यात्मिक गुरु ही नहीं, सोने की चिड़िया भी कहलाता था तब तो यह। व्याकरण, अंकशास्त्र, ज्योतिष गणना, योग, आयुर्वेद, किवदंतियों के रूप में बिखरे अनगिनित नीतिसूत्र, जैसे पंचतंत्र की कहानियाँ, वेद पुराण और गीता रामायण… कहानियों में से कहानियाँ निकलती थीं तब और इन्ही कहानियों द्वारा बच्चे राजनीति, समाजशास्त्र और जीने के गुर, सभी कुछ सीख लेते थे। मैक्समुलर ने लिखा है कि यदि उन्हें किसी एक देश का नाम लेना हो जहाँ सर्वाधिक और सर्वांगणीय मानव सभ्यता और मानव मस्तिष्क का विकास हुआ हो तो वे निश्चय ही भारत का ही नाम लेंगे। पाश्चात्य वैज्ञानिकों की मान्यता है कि अगर भारत शून्य देकर गिनती न सिखाता तो कोई भी वैज्ञानिक तरक्की संभव ही नहीं थी। फिर किस बात से डर रहे हैं हम? हमारी संस्कृति और संस्कृत का तो पूरा विश्व कायल रहा है। भारत की तरफ मार्गदर्शन के लिए देखा है समय-समय पर। तब जब हजारों साल पहले भारत सभ्यताओं का जनक था और आज भी जब हमारे वैज्ञानिक पूरी दुनिया में कम्प्यूटर सौफ्टवेयर और तकनीकी में अभूतपूर्व योगदान दे रहे हैं ।
अमेरिका की फौब मैगजीन के जुलाई 1987 के अंक ने संस्कृत को कम्प्यूटर के लिए सबसे अधिक उपयुक्त भाषा बताया है क्योंकि हमारी भाषा न सिर्फ सशक्त है, सर्वाधिक वैज्ञानिक भी है। भारत और एशिया की ही नहीं, सभी यूरोपियन भाषाओं की व्युत्पत्ति भी संस्कृत से ही बताई गई है। कम गर्व की बात नहीं यह हमारे लिए कि जब दूसरे लोग जंगलों में भटक रहे थे, भारतीय सभ्यता सर्वांगणीय विकासोन्मुख थी। बनारस विश्व का सबसे पुराना शहर माना जाता है। ईसा से 500 साल पहले बुद्ध ने जब इस शहर में ज्ञान पाया था, तब भी यह विकसित और सुचारु शहर ही था। किसी भी विषय पर सोचें, पहल भारत में ही हुई जान पड़ती है, चाहे खेल हो या कामसूत्र या आयुर्वेद या फिर शहरों की आवासीय परियोजनाएँ। अर्जुन, नीम, पीपल, तुलसी, सर्पगंधा, हल्दी, अदरक आदि कई जड़ी बूटियाँ हैं जिनका पता भारत को चरक ऋषि ने वैदिक काल में ही दे दिया था और ये आयुर्वेदिक औषधियाँ आज भी कई रोगों की दवा के रूप में पूरे विश्व का कल्याण कर रही हैं।
परन्तु प्राचीन में गौरव लेना और बात है पर वहीं पर अटके रह जाना, कुछऔर। अगर हम जाति-पांति के भेदभाव और भृष्टाचार से बाहर न आपाए , आरक्षण और अनैतिक संरक्षण के मायाजाल में ही फंसे रहे तो विश्वगुरु न होकर महज एक विकास के लिए ललायित देश ही बनकर रह जाएँगे ।
आज जब पूरी दुनिया ही एक बड़ा बाजार है तो विश्वीकरण का जोड़-तोड़ भी बस व्यापार ही तो कहा जाएगा। सोच और संगठन की जरूरत है इसमें भी और हमारे वर्तमान प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदीजी द्वारा साक देशों का संगठन निश्चय ही एक सफल कदम है। जंगल में नाचता मोर किसी को नहीं दिखता, विज्ञापन का जमाना है यह, पश्चिम की तरह समझ लिया है भलीभांति इन्होंने भी। ध्यान रखना होगा कि इस नफे-नुकसान के तराजू से नैतिक मूल्य तो फिसवे नहीं जा रहे!
परन्तु कौन किसको कितना बेच पा रहा है-इसी पर तो आँख है आज सभीकी। उपभोक्ता और उपयोगिता की इस संस्कृति में उपयोगिता खतम तो कीमत भी, चाहे बात पारिवारिक रिश्तों की हो या फिर आदर्श और मानकों की।…असहाय, अपाहिज, अनाथ और बुजुर्ग भी सेल्फ पर रखे सामान की तरह हों, अपनी सेल बाइ डेट पास कर चुके लगने लगें हैं इस व्यापारिक व्यवस्था में। और यह कम डर की बात नहीं। भारत को अपनी संयुक्त परिवार की जीवन शैली से समझाना होगा कि यदि युवक बुजुर्गों की लाठी हैं तो बुजुर्ग भी युवाओं के मार्गदर्शक और परामर्श दाता। अनुभवों का अकूत खजाना है इनके पास और हर परिस्थिति के लिए सही सलाह का भी। युवा और वृद्ध, दोनों ही सार्थक और उपयोगी हैं एक दूसरे के लिए। सभी मूल्य व शर्तें, आर्थिक नफे-नुकसान के तराजू पर रखकर ही कूड़े के ढेर पर नहीं फेंकी जा सकते। एकाकी जीवन युवाओं के लिए भी उतना ही बड़ा अभिशाप है जितना कि बुजुर्गों के लिए। कई तरह के दुरव्यसन और ग्रंथियों का शिकार बनाता है यह इंसान को। माना दौड़ में जो सक्षम हैं, बेहतर है, वही जीतेगा, आलसी या बेवकूफ नहीं, पर सक्षम और बेहतर का विवेक भी तो उतना ही जरूरी है निर्णय करने के लिए।
माना आज सफलता का मानक आज सिर्फ पैसा है पर सफलता के लिए शांति और स्वास्थ की भी उतनी ही जरूरत है और यही शरीर व मन का स्वस्थ जुड़ाव ही भारत का योग है, जिसे आज पूरा विश्व अपना रहा है। पहले कहा जाता था कि चीजें इस्तेमाल करने के लिए बनाई गई हैं और इन्सान प्यार और इज्जत के लिए , फिर आज हर तरफ उलटी धारा बहती क्यों दिख रही है? इन्सानों का तो इस्तेमाल होता हैं और चीजों से प्यार है!
रोकना ही होगा इसे, क्योंकि आपसी प्रेम, सद्भाव, दया करुणा ही तो समाज की प्राण वायु हैं। विश्व- बन्धुत्व और मानवता का सुखद अहसास हैं।
युवाओं ने टेलिविजन पर,, खबरों और विज्ञापन में, फिल्मों में पश्चिम का वैभव…बोल्ड एंड ब्यूटिफुल ही देखा है और वही सपना रहा है उनका, आश्चर्य नहीं कि जरूरी सुविधाएँ जैसे नौकरी आदि के न मिलने पर, सक्षम होते ही ये विदेश की तरफ निकल जाते हैं। योग्यता और प्रतिभा का यह पलायन भारत के लिए अच्छा नहीं।
भारत को सोचना ही होगा कि कब और कैसे वह इन्हें पाश्चात्य देशों जैसा ऐश्वर्यपूर्ण जीवन नहीं तो एक आरामदेह जीवन तो अवश्य दे पाएगा … लाल फीते की तानाशाही से परे, भृष्टाचार से परे, आरक्षण के धूर्त जोड़-तोड़ से परे, बिलखती गरीबी से परे ताकि हमारे प्रतिभाशाली युवा शिक्षा पूरी करते ही विदेश की नहीं , भारत में रहने की सोचें।
मुठ्ठीभर अमीरों से नहीं, आम आदमी की खुशियाली ही भारत विकसित देशों में पहुँचेगा । भूखे भजन न होए गोपाला- पहले जितना सच था, आज भी उतना ही सच है । आजादी को 70 साल हो चुके, 70 प्रतिशत कोष आज भी जनता और देश के विकास में लगने के बजाय क्यों चपरासी से लेकर बड़े साहब तक की तिजोरी में चला जाता है और काले धन में तब्दील हो जाता है। क्यों स्कूलों में मिडडे मील खाकर बच्चे हैजा और पेचिश के शिकार होते हैं, सड़कों पर सीमेंट की जगह रिश्वत की बालू से बने फ्लाइओवर सैकड़ों को कुचल देते हैं? विश्व ग्राम में बस एक कौतुकमय तमाशा और बौलीवुड का नाचगाना ही नहीं, अपनी साख बनानी होगी हमें। विश्वीकरण के नाम पर स्वार्थ की जो आंधी चली है उससे दुनिया का कोना-कोना ही धूल धूसरित हैं। चारो तरफ विस्तारवादी योजनाएँ तो हैं पर दूसरों के हक और सरहदें बेरहमी से हड़पी जा रही हैं। कहीं धर्म के नामपर हत्याएं हैं तो कहीं आताताइयों से बचाने के बहाने । यह दादागिरी नहीं तो क्या है।
क्या है जिसने भारत को भारत की पहचान दी, व्यापार और पैसा तो तब भी था जब हम दुनिया को सिल्क और मसाले ही नहीं हीरे जवाहरात तक बेच रहे थे… क्या भारत का चेहरा बदल रहा है..क्या हम खुश हैं इस नए चेहरे से और यदि नहीं तो क्या और कैसे बदलना चाहते हैं हम इसे? कैसे बचाकर रख सकते हैं हम अपनी संस्कृति, अपने मूल्यों को इस विश्वीकरण की सभ्यता में जहाँ हर आदमी एक-सा खाने लगा है, एक से ही कपड़े पहनता है,एक ही भाषा बोलता है और काफी हदतक एक ही तरह से सोचता भी है? वैसे ही शायद जैसे मछली समुद्र में अपना अस्तित्व बचाती है- विश्वग्राम के संदर्भ में मानव के लिए यह तुलना सही तो नहीं, परन्तु बृहद रूप से देखा जाए तो परिस्थिति कुछ ऐसी ही तो हैं। विश्वीकरण का अर्थ ही है कि संस्कृतियों और सभ्यताओं का समिश्रण हो और दूरियाँ मिटें। बुराई नहीं इसमें भी यदि बड़ी मझली छोटी को जीने दे। स्व की अति से बचकर, दिस इज माइ लाइफ के रवैये के साथ अलग-थलग रहते हुए दूसरों को कुचलकर आगे बढ़ना ही तो चातुर्य या उपलब्धि नहीं! कोई तो वजह होगी कि गौतम बुद्ध के दया, करुणा और गांधी के सत्य-अहिंसा के सिद्धांतों का आज भी विश्व कायल है।
भारतीय संस्कृति में सभी मानवों की एक ही मूल से उत्पत्ति, प्रकृति के साथ सहयोग व सामंजस्य और मानव हित में सत्य व ज्ञान की खोज जैसी बातों पर जोर दिया गया है। स्वावलंबी होकर अपनी जरूरतों को सीमित रखते हुए, शान्ति और अहिंसा से रहने की सलाह दी गई है। पृथ्वी को सहभोग्या कहा गया है। धरती किसी बलवान या समर्थ की ही धाती नहीं। कीड़े जीव जन्तु पशु पक्षी पेड़ पौधे सभी का बराबर का हक है इसपर। हमें .सोचना बस इतना ही है कि आत्म-संरक्षण के साथ-साथ विश्व-संरक्षण में कैसे सहभागी हो सकते हैं हम…हर मानव के लिए तृणमूल जरूरतों का ध्यान रखते हुए कैसे सुखी और संपन्न जीवन जिया जा सकता है ? ऐसा शायद तभी संभव हो , जब अतिरंजित और अंधा स्वार्थ न हो और हम दूसरों को भले ही अपने जैसा प्यार न करें, बराबर का दर्जा तो दें ही।
यदि हम भारतीयता को अपने नाक-नक्श और चमड़ी के रंग तक ही सीमित नहीं रखना चाहते तो विकासोन्मुख और प्रगतिशील होने के साथ-साथ आज भी इन मूल्यों को बचाकर रखने की, इनसे प्रेरणा लेकर जीने की जरूरत है। सच्चाई तो यह है कि यदि हमें वाकई में अपने देश… अपनी संस्कृति…अपनी गौरवमय अस्मिता से प्यार है तो हमें इन्हें भूलना नहीं चाहिए। बारबार के बाह्य आक्रमणों से पीड़ित और छिन्न-भिन्न, बेहद संघर्षमय व त्रासद इतिहास के बावजूद, हमें अपनी विश्व की प्राचीनतम सभ्यता से ऐसे आदर्श और मूल्य मिले हैं जिन्होंने हमें स्पृहणीय जीवनशैली और चिंतन की एक अनमोल और स्वार्थहीन विरासत दी है…बारबार मुसीबतों से उबरने का न सिर्फ हौसला दिया है, हार-हारकर जीतना सिखलाया है। बस थोड़ा और लचीला होने की जरूरत है। अतीत में धसने की बजाय वर्तमान के साथ कदम से कदम मिलाकर चलने की जरूरत है।
जय हिन्द,जय विश्व और जय मानवता !